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#Shrutsagarsuri16ThCentury
श्रुतसागरसूरि केवल परम्परापोषक ही नहीं हैं, अपितु मौलिक संस्थापक भी हैं। इनकी तत्त्वार्थसूत्र पर एक श्रुतसागरी भामको वृत्ति उपलब्ध है, जिससे इनका मौलिकताका परिचय प्राप्त होता है। श्रुतसागरने अपनी रचनाओंके अन्त में अपने गाआदिका नाम अंकित किया है। ये मूलसंघ सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगणके आनायं हैं। इनके गुरुका नाम विद्यानन्द था । विद्यानन्दिके गरुका नाम देवेन्द्रकीति और देवेन्द्रकोत्तिके गुरुका नाम पद्मनन्दि था । ये पद्मनन्द्रि सम्भवतः बहा हैं, जिनकी गिरनार पर्वतपर सर स्वतोदेवीने दिगम्बर पथके सच्चे होने की सूचना दी थी। इन्हीं की एक शिष्य शाखामें सकलकोति, बिजयकीति और श भचन्द्र भट्टारक हप है। ये बला कारगणको सूरत-शाखाके भट्टारक हैं। विद्यानन्दिके पश्चात् मल्लिभूषण भट्टारक हुए, जो श्रुतसागरके गुरुभाई थे । मल्लिषेणके अनुरोधसे श्रुतसागरने यशोधरचरित, मुकुटसप्तमीकथा और पल्लिविधानकथा आदिको रचना की है ।
श्रुतसागरके अनेक शिष्य हुए हैं, जिनमें एक शिष्य श्रीचन्द्र थे, जिनके द्वारा रचित वैराग्यमणिमाला उपलब्ध है। आराधनाकथाकोश, नेमिपुराण आदिग्रन्थों के रचयिता ब्रह्मनेमिदत्तने भी श्रुतसारको गुरुभावसे स्मरण किया है। यं ब्रह्मनेमिदत्त मल्लिभूषणके शिष्य थे।
श्रुतसागरने अपनेको देशवती, ब्रह्मचार्ग या वर्णी लिखा है नया 'नवनवति महावादिविजेता, तर्क-व्याकरण-छंद-अलंकार-सिद्धान्त-साहित्यादि-शास्त्रनिपुण, प्राकृतव्याकरणादिअनेकशास्त्रचन्च', उभयभाषाकविचक्रवर्ती, ताकिशिरो मणि, परमागमप्रवीण आदि विशेषणोंसे अलंकृत किया है । तत्त्वार्थवृत्तिके १. "इत्यनवद्यगद्यपद्मविद्याबिनोदितप्रमोदपीयूषरसपानपविनमतिसमाजरत्नराजमहतिसा
गरयतिराजराजितार्थनसमर्थन तकन्याकरणछन्दोऽलङ्कारसाहित्यादिशास्त्रमिशितम तिना श्रीमदेवेन्द्रकांतिभट्टारकशिष्यण शिष्येण सकलवित जनविहितपरणसेवस्य श्री
अन्तिम सन्धिवाक्यसे ज्ञात होता है कि इन्होंने तत्त्वार्थश्लोकवातिक, सर्वार्थ सिद्धि, न्यायकुमुदचन्द्र, प्रमेयकमलमार्तण्ड, तत्त्वार्थवातिक ओर अष्टसहस्री आदि अंथोंका गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया है। इससे स्पष्ट है कि श्रुतसागर अपने समयके अच्छे विद्वान और अन्यकार थे।
श्रुतसागरसूरि द्वारा रचित पल्लिविधानकथामें ईडरके राजा भानु अपवा रावभाणजीके राज्यकालका निर्देश है। इस ग्रन्थको प्रशस्तिमें बताया है कि भानुभूपतिको भुजालपो तलवारके जलग्नवाहमें शत्र कुलका विस्तृत प्रभाव निमग्न हो गया था और उनका मंत्रो हुम्मड कुलभूषण भोज राज था । उसकी पनीका नाम चिनदेवी था, जो मसीद पतिप्रसा, साध्वी और जिन चरण कमलोंकी उपासिका थो । उसके चार पुत्र उत्पन्न हए थे, जिनमें प्रथम पत्र कमसिंह, जिसका शरीर भरि रत्नगुणोंस विभूषित था और दूसरा पुत्र कुल भूषण था, जो शत्रुकुमके लिय कालस्वरूप था। तीसरा पुत्र पुग्यशाली श्री घोष था, जो सघनमापदपा गरोन्द्र के लिये वनके समान था और चौथा गंगा जलके समान निर्मल मन वाला गंगा था । इन चार पुत्रोंके पश्चात् इनकी एक बहन भी थो, जो जिनबरके मुखसे निकली हुई सरस्वती के समान थी। श्रुत सागरने स्वयं उसके साथ संघ सहित गजन्य और तुंगोगिरि आदिकी यात्रा' की थी।
श्रुतसागरका व्यक्तित्व एक शानाराधक तपस्वीका व्यक्तित्व है, जिनका एक-एक क्षण श्रुतदेवताकी उपासना में व्यतीत हा है। श्रुतसागर निस्सन्देह अत्यन्त प्रतिभाशाली विद्वान हैं। ये कलिकालसर्वज्ञ कहे जाते थे। ताकिक होनेके कारण असहिष्णु भी प्रतीत होते हैं । अन्य मर्तोका खण्डन और विरोध करनेमें अत्यन्त सतर्क रहे हैं।
विद्यानन्दिदेवस्य संदितमिध्यामतदुर्गरेण श्रुतसागरण सूरिणा विरंचिताया श्लोक वातिक-राजवातिक सर्वार्थसिद्धि-न्यायकुमुदचन्दोदय-प्रमेयकमलमासण्ड-प्रचण्डाष्टसह सीप्रमुखगन्धसन्दर्भावलोकनबुद्धिविराजितायाँ'- श्रुतसागरीतस्वार्थवृत्ति, भारतीय मानपीठ संस्करण, पृ० ३२६ पर उद्धत । तथा--"तर्क-व्याकरणाहत-प्रविल. सिद्धांतसारामलछंदोलकतिपूर्वनन्यकतघीसंघव्यकाव्योच्च ये-जैनग्रन्य प्रशस्ति
संग्रह, प्रथम भाग, यशोधर चरितप्रशस्ति पृ. ३१ ।
१. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, प्रथम भाग, वीरसेवामन्दिर, दिल्ली, सन् १९५४,
प्रस्तावना, पू. १६ ।
श्रुतसागरने अपने किसी भी अन्य में रचनाकाल अंकित नहीं किया है, किन्तु अन्य आधारोंसे उनके समयका निर्णय किया जा सकता है।
१. पद्मनन्दिके शिष्य देवेन्द्रकीतिका एक अभिलेख देवगढ़म है, जिसपर सं० १४९३ अंकित है। ये देवेन्द्र कीर्ति श्रुतसागरके दादागुरु' थे।
२. सूरतके एक मूर्ति-अभिलेख में संवत् १४९९ और एकमें संवत् १५१३ अंकित है । ये दोनों मूर्तियों देवेन्द्रकोत्तिके शिष्य विद्यानन्दिके उपदेशसे प्रतिष्ठित हुई थीं। विद्यानन्दिके उपदेशसे प्रतिष्ठित अन्य भूतियोंपर वि० सं० १५१८, १५२१ और १५३७ अंकित है।
३. सूरतमें पद्यावत्तीको एक मूर्तिपर वि० सं० १५४४ अंकित है। उस समय विद्यानन्दिके पट्ट पर मल्लिभूषण विराजमान थे। इन्हीं मल्लिभूषणके उपदेशसे श्रुतसागरने कुछ कथाएँ लिखी हैं और ये श्रुतसागरके गुरुभाई थे ।
४. ब्रह्मनेमिदत्तने अपने आराधनाकथाकोशको प्रशस्तिमें विद्यानन्दिके पट्टयर मस्लिभूषण और उनके शिष्य सिंहनन्दिका गुरुरूपमें स्मरण करके श्रुतसागरका जयघोष किया है। इससे ध्वनित होता है कि वे उस समय जीवित थे। इन्हीं ब्रह्मनेमिदत्तने वि० सं० १५८५में श्रीपालचरितकी रचना की है और उसमें श्रुतसागरसूरि द्वारा रचित 'श्रीपालचरित'का निर्देश करते हुए इनको पूर्वसूरि तथा उनके द्वारा 'श्रीपालचरित'को पुरारचित कहा है। इससे ज्ञात होता है कि उस समय श्रुतसागरका देहावसान हो चुका था।
५. पल्लिविधानकथाको प्रशस्तिसे भी श्रुतसागरका समय वि० सं० १५०२ १५२२ तक आता है। विद्यानन्दि और मल्लिभूषणके पट्टकालों पर विचार करनेसे भी श्रुतसागरका समय वि० सं० १५४४-१५५६ आता है। इस प्रकार भट्टारक श्रुतसागरसूरिका समय वि० को १६वीं शताब्दी है। -
१. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलपुर, लेखांक ४२५ ।
२. वही, लेखांक ४२५ ।
३. वहीं, लेखांक ४५८ ।
४. वही, लेखांक ४६६ ।
५. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, बिल्ली, प्रथम भाग, पु०१७।
६. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलापुर, लेखांक ४६३ ।।
प्रससागरसूरिकी अबतक ३८ रचनाएं प्राप्त हैं। इनमें आठ टीकाग्रन्थ है, और चौबीस कथाग्रन्य हैं, शेष छह व्याकरण और काव्य ग्रन्य हैं।
१. यशस्तिलकचन्द्रिका
२. तत्वार्थवृत्ति
३. तत्त्वत्रयप्रकाशिका
४. जिनसहलनामटीका
५. महाभिकीका
६. षट्पाहुइटीका
७. सिद्धभक्तिटीका
८. सिद्धचक्राष्ट्रकटीका
९. ज्येष्ठजिनवरकथा
१०. रविव्रतकथा
११. सप्तपरमस्थानकथा
१२. मुकुटसप्तमीकथा
१३. अक्षयनिधिकथा
१४. षोड़सकारणकथा
१५. मेधमालाव्रतकथा
१६. चन्दनषष्ठीकथा
१७. लन्निविधानकथा
१८. पुरन्दरविधानकया
१९. दशलाक्षणीव्रतकथा
२०. पुष्पाञ्जलिव्रतकथा
२१. आकाशपंचमीव्रतकथा
२२. मुक्तावलीवतकथा
२३. निदुःखससमीकथा
2४. सुगन्धटनामीकशा
२५. श्रावणद्वादशीकथा
२६. रत्नत्रयव्रतकथा
२७. अनन्तव्रतकथा
२८. अशोकरोहिणीकथा
२९. तपोलक्षणपंक्तिकथा
३०. मेरुपंक्तिकथा
३१. विभानपंक्तिकथा
३२ पल्लिविधानकथा
३३. श्रीपालचरित
३४. यशोधरचरित्
३५. औदार्यचिन्तामणि
(प्राकृत व्याकरण)
३६. श्रुतस्कन्धपूजा
३७. पार्श्वनाथस्तवन
३८. शान्तिनाथस्तवन
श्रुतसागरने यशस्तिलकग्रंथपर चन्द्रिका नामक टीका लिखी है। टीकामें बताया है
"इति श्रीपयनन्दि-देवेन्द्रकीति-विद्यानन्दि -मल्लिभूषणाम्नायेन भट्टारक श्रीमल्लिभूषण गुरूपरमाभीष्टगुरुभ्रात्रा गुर्जररदेशसिंहासनस्थभट्टारकश्रीलक्ष्मी चन्द्रकाभिमतेन मालबदेशभट्टारकधीसिंहनन्दिप्रार्थनया यतिथीसिद्धान्तसागर ब्याख्याकृतिनिमित्तं नवनवतिमहावादिस्याद्वादलब्धविजयेन तर्क-व्याकरणछन्दो लंकारसिद्धान्तसाहित्यादिशास्त्रनिपुणमतिना व्याकरणानेकशास्त्रचञ्चुना सूरिश्रीश्रुतसागरेण विरचितायां यशस्तिलकचन्द्रिकाभिधानायां यशोधरमहा
राजचरितचम्पूमहाकाव्यटोकायां यशोधरमहाराजराजलक्ष्मीविनोदवर्णनं नाम तृतीया श्वासचन्द्रिका परिसमाप्ता"" |
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि श्रुतसागरने अपने परिचय के माथ यशस्तिलककी टीका लिखनेका निर्देश किया है। श्रुतसागरने इस टीकामें विषयोंके स्पष्टी करणके साथ कठिन शब्दोंकी व्याख्या भी प्रस्तुत की है । यस्तिलक में जितने नये शब्दोंका प्रयोग सोमदेवने किया है, उन सभीका व्याख्यान इस टीकामें किया गया है । यशस्तिलकको स्पष्ट करने के लिये यह टोका बहुत उपादेय है ।
इस वृत्तिमें तत्त्वार्थमूत्रपर रचित समस्त वृत्तियोंका निचोड़ अंकित है। श्रुतसागरने तत्वार्थसुत्रकार उमास्वामीके साथ पूज्यपाद, प्रभाचन्द्र, विद्यानन्द और अकलंकका भी स्मरण किया है। ये चारों ही आचार्य तत्त्वार्थसूत्रके टीकाकार हैं। वृत्तिका प्रारम्भ सर्वार्थसिद्धिकी आरम्भिक शब्दोंकी शैलीको अपनाकर किया है। सर्वार्थसिद्धि में प्रश्नकर्ता भव्यका नाम नहीं लिखा है, पर श्रुतसागरने 'द्वयाकनामा' लिखा है । १३वीं शताब्दीके बालचन्द्र मुनि द्वारा तत्वार्थसूत्रकी जो कन्नडटीका लिखी गयी है, उसमें उस प्रश्नकर्ताका नाम सिद्धथ्य पाया जाता है। सर्वार्थसिद्धिके प्रारम्भमें निबद्ध मंगलश्लोक-'मोक्षमार्गस्य नेत्तार' आदिवा व्याख्यानमारकादिक , श्रुतसागरने भी किया है। श्रुतसागरमरिका पूरा ब्याख्यान एक तरहसे सर्वार्थसिद्धि नामक वृत्तिका ही व्याख्यान है, जो बातें सर्वार्थीसद्धिमें संक्षेपरूपमें कही गयी हैं, उन्हीं बातोंको विस्तार और स्पष्टताके साथ इस वृत्तिमें अंकित किया गया है। यथास्थान ग्रन्धातरोंके प्रमाण देकर विशेष कथन भी किया गया है । ग्रन्यातरोंके उद्धरणं प्रचुर परिमाणमें प्राप्त है। पाणिनि और कातन्त्र व्याकरणके सूत्रोंके उद्धरण भी प्राप्त है। __ श्रुतसागरके व्याख्यानमें कतिपय विरोध भी प्राप्त होते हैं। न्यायाचार्य पण्डित महेन्द्रकुमारजीने श्रुतसामरके स्खलनका निर्देश किया है । सर्वार्थसिद्धि में 'द्रव्याश्रया निर्गुणा: गुणा:' (५४१) सूत्रको व्याख्यामें 'निर्गुण' इस विशेषणको सार्थकता बतलाते हुए लिखा है---"निगुण इति विशेषणं दयणुकादिनिवृत्त्यर्थम्, तान्यपि हि कारणभूतपरमारणद्रव्याश्रयाणि गुणवन्ति तु तस्मात् निगणाः' इति विशेषणात्तानि नितितानि भवन्ति ।"
अर्थात इयणुकादि स्कन्ध नैयायिकोंकी दृष्टिसे परमाणरूप कारणद्रव्यों में आश्रित होनेसे द्रन्याश्रित हैं और रूपादि गुणवाले होनेसे गुणवाले भी हैं। अतः
१. तत्त्वावत्ति, भारतीयज्ञानपीठ, काशी, प्रस्तावना, पृ० १००।।
इनमें भी उक्त गुणका लक्ष्ण अतिव्यास हो जायेगा। इस कारण इनकी निवृत्तिके हेतु निगुणाः' यह विशेषण दिया गया है। इसकी व्याख्या करते हुए श्रुतसागरसूरिने लिखा है ___ "निगुणाः इति विशेषणं द्वयकत्र्यणुकादिस्कन्धनिषेधार्थम्, तेन स्कन्धा श्रया गुणा गुणा नोच्यन्ते । कस्मात् ? कारणभूतपरमाणुद्रव्याश्रयत्वात् तस्मात् कारणात् निगुणा इति विशेषणातस्कन्ध गुणा गुणा न भवन्ति पर्यायाश्चयत्वात्।" अर्थात् 'निमुग' यह विशेषण ढवणुक, व्यणुक आदि स्कन्धके निषेधके लिए है। इससे स्कायमें रहनेवाले गुण गण नहीं कहे जा सकते, क्योंकि वे कारणभूत परमाणुद्रव्यमें रहते हैं। अतएब स्कन्धके गुण गुण नहीं हो सकते, क्योंकि वे पर्यायमें रहते हैं। यह हेतुबाद बड़ा विचित्र है और है सिद्धान्तके प्रतिकूल | सिद्धान्तमें रूपादि चाहे घटादि स्कन्धों में रहनेवाले हों, या परमाणु में सभी मण कहे जाते हैं। ये स्कन्धके गुणोंको गुण ही नहीं कहना चाहते, क्योंकि शे पर्यायाधित है । अतएव "निघा' पदकी सार्थकताका मेल नहीं बैठता है। इस असंगति के कारण आगे शंका-समाधान में भी असंगति प्रतीत होती है ।
श्रुतसागरी वृत्तिके २८१ पृष्ठपर गुणस्थानोंका वर्णन करते समय लिखा है कि मिथ्याष्टिगुणस्थानसे सम्यग्दष्टिगुणस्थानमें पहुंचनेवाला जीव प्रथमो पशमसम्यक्त्व में ही दर्शनमोहनोकी तीन और अनन्तानुबन्धी चार इन सात प्रकृतियोंका उपशम करता है। यह सिद्धान्तविरुद्ध है, क्योंकि प्रथमोपशम सम्यक्त्व में दर्शनमोहनीयकी केवल एक प्रकृति मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चार इस तरह ५ प्रकृत्तियोंके उपशमसे हो प्रथमोपशमसम्यक्त्व बताया गया है । सातका उपशम तो, जिनके एकबार सम्यक्त्व हो चुकता है, उन जीवोंके द्वारा प्रथमोपशमके समय होता है । ९४७ सूत्रकी वृत्तिमें श्रुतसागरने द्रव्य लिंगको व्याख्या करते हुए असमर्थ मुनियोंको अपवाद रूपसे वस्त्रादि ग्रहण करने पर सहमति प्रकट की है ___ "केचिदसमर्था महर्षयः शीतकालादौ कम्बलशब्दवाच्यं कौशेयादिक गुलन्ति, न तत् प्रक्षालयन्ति, न तत् सीव्यन्ति, न प्रयत्नादिकं कुर्वन्ति, अपर काले परिहरन्ति । केचिच्छरीरे उत्पन्नदोषा लज्जितत्वात् तथा कुर्वन्तीति व्याख्यानमाराधनाभगवतोप्रोक्ताभिप्रायेण अपवादरूपं ज्ञातव्यम् । उत्सर्गाप बादयोरपवादो विधिबलवान् इत्युत्सर्गेण तावद् यथोक्तमाचेलक्यं प्रोक्तमस्ति, आर्यासमर्थदोषबच्छरीराद्यपेक्षया अपवादव्याश्याने न दोषः ।' अर्थात् असमर्थ मुनि शीतकाल आदिमें कम्बल वगैरह ग्रहण कर लेते हैं, किन्तु न तो वे उसे धोते हैं, न सोते हैं और न कोई उसके लिये प्रयत्नादि ही करते हैं । शीतकाल
बोतने पर उसे त्याग देते हैं। कुछ मुनिशरीरमें दोष उत्पन्न होनेसे लज्जावश बस्त्रको ग्रहण कर लेते हैं। यह व्याख्या भगवतीआराधनामें कहे हुए अभि प्रायसे अपवादरूप जाननी चाहिये । पर भगवतीबाराधनामें इस तरहका कोई विधान नहीं है, उसके टोकाकार अपराजितसूरिने अपनी विजयोदया टोकाम आचेलवध आदि दश कल्पोंका निरूपण करनेवाली ४२श्वी गाथाको व्याख्या करते हुए आचारांग आदि सूत्रों में पाये जानेनाले कल वाकों के आधारपर यह माना है कि यदि भिक्षुका शरीरावयव सदोष हो, अथवा वह परोषह सहन करने में असमर्थ हो, तो वह वस्त्र ग्रहण कर सकता है। अपरा जितसूरिने तो समन्वयार्थ इस प्रकारकी व्याख्या की है, पर, श्रुतसागरसूरि दिगम्बर होते हुए, क्यों इस प्रकारकी भूल कर मये?
घट्नाभृतटोका-आचार्य श्रुतसागरसूरिने षट्प्राभृतकी टीका प्रारम्भ करते हुए लिखा है __"अथ श्रीविद्यानन्दिभट्टारक-पटाभरणभूतश्रीमल्लिभूषणभट्टारकाणामा - देशाध्यषणावशाद् बहुगः प्रार्थनावशात् कलिकालसर्वज्ञविरुदावलीबिराज मानाः श्रीसद्धर्मापदेशकुशला निजात्मस्वरूपप्राप्ति पञ्चपरमेष्ठिचरणान् प्रार्थयन्त: सर्वजगदपकारिण उत्तमक्षमाप्रधानतपोरनसभूषितहृदयस्थला भव्यजनजनक तुल्याः श्रीश्रुतसागरसूरयः श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचितषट्प्राभूतमन्यं टोकयन्तः स्वरूचिविरचितसद्दष्ट्यः ।" अर्थात् कलिकालसर्वज्ञआदि विरुदालिसे सुशोभित, श्रीसम्पन्न, आद्धर्मके उपदेशमें कुशल, पश्चपरमेष्ठीके चरणों को प्रार्थनारो आत्मस्वरूपके ध्याता, सर्वजगतके उपकार करनेवाले उत्तमक्षमादि सपोंसे विभूषित, सम्यग्दर्शनयुक्त और भव्य जीवोंके लिए पिताकें समान सुखदायक श्रुतसागरसूरि श्रीविद्यानन्दि भट्टारक सम्बन्धी पट्टके अलंकारस्वरूप श्रीमल्लिभषणभट्टारककी आज्ञासे, प्रेरणासे और अनेक जीवोंको प्रार्थनासे श्रीकुन्दकुन्दाचार्य द्वारा विरचित 'षट्प्राभूत' ग्रन्धकी टीका करने के लिये प्रवृत्त हुए हैं।
इस टोकामें भी 'तथाचोक्त' कहकर अनेक स्थानोंके उद्धरण संकलित किये हैं । कुन्दकुन्दस्वामोके मूलवचनोंका व्याख्यान सरल और संक्षेपरूपमें किया है। यद्यपि इस टोकामें श्रुतसागरोवृत्ति जैसो गम्भीरता या प्रौढ़ता नहीं है, तो भी विषयको स्पष्ट करने की क्षमता इस टीकामें है। टोकाकी शैली बहुत ही सरल, स्वच्छ और स्पष्ट है। दर्शन, चरित्र, सूत्र, बोध, भाव और मोक्ष इन छह प्राभूतोंका व्याख्यान श्रुतसागरसूरिने किया । टोका केवल भावोंके स्पष्टीकरण
लिये की गयी है। मोक्षप्राभूतके अन्तमें पूर्व प्रशस्ति भी दी गयी है । इस प्रकार
संक्षेपमें पद्माभृतको टीका कुन्दकुन्दके अन्यको स्पष्ट करती है।
यह ज्ञानावर्णवके गद्यभागकी संस्कृत टोका है। यह टीका अभी तक अप्रकाशित है। शुभचन्द्राचार्य ने योगविषयको लेकर जानार्णवको रचना की है । श्रुतसागरने केवल इसके गद्यांशपर ही संस्कृत टीका लिखी है।
यह प० आशाधर कृत सहस्रनामकी विस्तृत टीका है । टीकाके अन्त में मिला है -
श्रुतसागरकृतिवरवचनामृतपानमन विहितम् ।
जम्मजरामरणहरं निरन्तरं तैः शिवं लब्धम् ।
अस्ति स्वात्ति समस्तसकृतिलक श्रीमलसङ्गोऽनघं
वृत्तं यत्र मुमुक्षुवर्गशिवदं संसेवितं साधुभिः ।
विद्यानन्दिगुरुस्विहास्ति गुणवद्गच्छे गिर: साम्प्रतं
तच्छिष्य श्रुतसागरेण रचिता टीका चिरं नन्दतु ।।
पं० आशाबरके नित्यमहोद्योतकी यह टीका है। इसका प्रणयन उस समय हुआ था, जब श्रुतसागर देशवतो या ब्रह्मचारी थे ।
प्राकृत भाषाका शब्दानुशासन है। दो अध्यायों में पूर्ण हुआ है। प्रथम अध्याय २४५ सूत्र और द्वितीय अध्याधमें २१३ सूत्र हैं । प्रथम अध्यायके अन्तमें लिखा है-..
श्रीपूज्यपादसूरिविद्यानन्दी समन्तभद्रगुरुः ।
श्रीमदकलदेवो जिनदेवो मङ्गलं दिशतु ।।
"इत्युभयभाषाविचक्रवत्तिव्याकरणकमलमार्तण्डताकिकबुधशिरोमणिप - रमागमप्रवीणसूरिश्रीदेवेन्द्रकीतिप्रशिष्य - मुमुक्षुश्रीविद्यानन्दिप्रियशिष्यश्रीमल - सघपरमात्मविदुस्सुरिश्रीश्रुतसागरांवरचिते औदार्यचिन्तारत्ननाम्नि स्वोपज्ञ वृत्तिनि प्राकृत्तव्याकरणे वर्णादेशनिरूपणो नाम प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ।"
द्वितीय अध्यायके अन्तमें भी इसी प्रकारको प्रशस्ति है। इस अध्यायका नाम संयुक्त अव्ययनिरूपण है। इसमें संयुक्त वर्णविकार और अव्ययोंके निपात का कथन आया है। प्रथम अध्यायमें स्वर और व्यञ्जनोंके विकारका निरू पण है । इस अध्यायका प्रथम सूत्र
तदार्षञ्च बहुलम् ॥१॥ तत्प्राकृत मषिप्रणीतमार्षमनार्षच बहुमित्यधिकृतं बेदितव्यम् । तत्र
ऋ, ऋ, ल, लु, ए, औ, ङ, अ, श, ष प्लुत स्वर व्यञ्जन द्विवचन चतुर्थी बहुवचनानि च न स्युः । के अब | सौ रिकं । कौरवा । इति च दृश्यते । सविधिविकल्पश्चार्षे ॥ ___ अर्थात् प्राकृतमें ऋ, ऋ, लु, ल, ऐ, ओ, छ, त्र, ष प्लुत नहीं होते हैं। द्विवचन और चतुर्थी विभक्ति भी नहीं है | आर्ष प्रयोगोंमें सभी विधियाँ बिकल्पसे प्रयुक्त होती हैं ।
प्रथम अध्यायके द्वितीय सूत्रमें समासमें परस्पर ह्रस्व और दीप की व्यव स्था बतायी गयी है । यथा-अन्तद अन्तावई । सप्तबित्ति सत्तावोसा। अप्रवृत्ती जुबइअणो । बिकल्पे वारिमइ, वारिमई ! भुजयन्त्र भुआयतं, भुअयंत । पतिगृहपईहर, पहरं । गोरीगृहं गोरिहर, गोरोहरं । । तृतीयसूत्रमें सन्धिव्यवस्था, चतुर्थ, पञ्चम, षष्ठ एवं सप्तममं भी सन्धि व्यवस्थापर प्रकाश डाला गया है। नवम, दशम और एकादश सुन्नमें उपसगं व्यवस्था बत्तलायी गयी है । चतुर्दश सूत्रसे विशति सूत्र पर्यन्त शब्दोंके आदेश का कथन आया है। इक्कोस और बाइस सूत्रमें अनुस्वारव्यवस्थाका कथन है। इसके पश्चात् शब्दोंके आदेशोंका निरूपण किया गया है। अध्यायके अन्तमें कतिपय विशेष शब्दोंकी व्यवस्था बतलायी गयी है । तथा दन्त्य नकार के स्थानपर मुर्धन्य प्रकारका कथन आया है ! इस प्रकार प्रथम अध्यायमें स्वर और व्यजनोंको व्यवस्था बतलायो गयो है।
द्वितीय अध्यायके प्रारम्भमें मृदुत्व आदि पांच शब्दोंमें संयुक्त वर्णके स्थान पर ककारको व्यवस्था बतलायी गयी है ।
मदुत्वादिषु पञ्चसु शब्देषु यः संयुक्तो वर्णस्तस्य ककारो भवति वा । मदुत्वं माउत्तणं माउक्क, रुज्यतेस्म झरण:-भुग्णपर्याय: (१) रोमादिना वक्री भूते लुम्मो लुक्को । दष्टः-ट्ठो डनको, मुक्तः-मुत्तो-मुक्को, शक्तः सत्तो सक्को ।
क्षकारस्य खकारो भवति । झछौ च क्वचिद्भवतः लक्षणं-लक्खणं, क्षयः खो, क्षीयते-झिज्जइ छिज्जइ खिज्जइ, क्षीणं-झीणं छोणं स्वीणं ।
इसी प्रकार इस अध्यायमें स्क, क, स्थ, स्फ, स्त आदिके विकारका भी अनुशासन वर्णित है। संयुक्त वोकी व्यवस्था विस्तारके साथ बतलायी गयी
है। अव्ययोंके निपातकी व्यवस्था १७५३ सुत्रसे २१३वे सूत्र तक वणित है। इसप्रकार इस प्राकृतव्याकरणमें स्वर ओर व्यञ्जन परिवर्तनके साथ शब्दरूप एवं अव्ययोंका कथन आया है। धातुरूप सदाकृदन्तप्रत्ययोंका अनुशासन इसमें वर्णित नहीं है। इस व्याकरणके दो ही अध्याय उपलब्ध है, शेष दो अध्याय अभी तक प्राप्त नहीं हुए हैं। ये दो अध्याय जैन सिद्धान्त भवन बारा, एवं व्यावरके ग्रन्थागरमें उपलब्ध हैं।
इस चरितकाव्यके आरम्भ में मंगलाचरण पद्यबद्ध है तथा अन्त में प्रशस्ति भाग भी पद्यमें दिया गया है। मध्यका कथाभाग संस्कृत-गद्यमें लिखा गया है । श्रीपालके पुण्य चरितका अंकन इस काम में है । सिद्धचक्रविधानके महात्म्यको दिखलानेके लिये यह काध्यग्रन्ध लिम्ला गया है । अन्तिम प्रशस्तिमें बताया है
सिद्धचक्रवतात्सोऽयमीदृशाऽभ्युदयो बभौ ।
निःश्रेयसमितोऽस्मभ्यं ददातु स्वर्गात प्रभुः ।।
--पुण्यपुरुष यशोधरको कथा संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के जैन कवियोंको विशेष रुचिकर रही है। यही कारण है कि यशोधरके चरितको लेकर अनेक काव्य लिखे गये हैं। आरम्भमें नमस्कारात्मक पद्य लिखे गये हैं, जिनमें विद्यानन्द, अकलंक, समन्तभद्र, उमास्वामी, भद्रबाहु, गुप्तिगुप्त आदिका स्मरण किया गया है । अन्तिम प्रशस्तिमें श्रुतसागरने अपना परिचय लिखा है। इस परिचयमें गुरुपरम्परा एवं अपना पाण्डित्य बतलाया गया है। अहिंसावतका माहात्म्य बतलानेके लिये यशीघरकी कथा विशेष आकर्षक है । यह कथा वहीं है, जिसका अंकन सोमदेवने अपने यस्तिलकचम्पूमें किया है।
श्रुतस्कन्धका पूजन निबद्ध किया गया है। श्रुतके माहात्म्य के साथ श्रुतज्ञानके पदों और अक्षरों की संख्या भी बतलायी गयी है । यह छोटी-सी कृति है, इसको पाण्डुलिपि बम्बईके सरस्वतीभवन में है।
श्रुतसागरने आकाशपञ्चमी, मुकुटसप्तमी, चन्दनषष्ठी, अष्टालिका, ज्येष्ठजिनवर, रविव्रत, सप्तपरमस्थान, अक्षयनिधि षोड़शकारण, मेघमाला, लब्धिविधान, पुरन्दरविधान, दशलाक्षणीव्रत, पुष्पाञ्जलिबत्त, मुक्तावलीबस, निर्दुःखसप्तमी, सुगन्धदशमी, श्रावणद्वादशी, रत्नत्रय, अनन्तवत, अशोकरोहिणी, तपोलक्षणपंक्ति, मेरुपंक्ति, विमानपंक्ति और पल्लिविधान व्रतोंकी कथाए लिखी हैं | इन कथाओंकी संख्या २४ है। पण्डित परमानन्दजी शास्त्रीने इन कथाग्रन्थोंको स्वतन्त्ररूप में स्थान दिया है और एक कथाकोश न मानकर २४ कथाग्रन्थ माने हैं। उन्होंने बताया है कि भिन्न-भिन्न कथाएं
भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिये भिन्न-भिन्न महानुभावोंके अनुरोधसे लिखी गयी हैं । अतएव वे स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं। ___जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह प्रथमभागमें १४३ ग्रन्थसंख्यासे १६६ ग्रन्थ संख्यातक २४ कथाग्रन्थोंको प्रशस्तियाँ संकलित की गयी हैं। ज्येष्ठजिनवरव्रतकथाके आदिमें मंगलाचरण करते हुए लिखा है
ज्येष्टं जिनं प्रणम्यादाबकलंककलध्वनि ।
श्रीविद्यादिनंदिन ज्येष्टजिननतमथोच्यते ॥ १॥
प्रायः प्रत्येक कथाग्रन्थके अन्त में अंकित प्रशस्तिमें श्रुतसारको गुरुपरम्परा उपलब्ध होती है | इन कथाग्रन्योंकी शैलीसे भी इनका स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध होता है। प्रत्येक कथा के अन्तमें, जो प्रशस्ति भाग दिया गया है, वही उसका स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध करता है । ये कथाएं चांद कथाकाशक रूपमे लिखी जाती, तो प्रत्येक कथाके अन्त में प्रशस्ति देनेको आवश्यकता नहीं थी । रत्नत्रय कथा, अनन्तव्रतकथा और अशोकरोहिणीकथाके अन्त में दी गयी प्रशस्तिको उदाहरणार्थ प्रस्तुत करते हैं
सर्वज्ञसारगुणारत्नविभूषणासी विद्यादिनांदगुरुरुद्यतरप्रसिद्धः ।
शिष्येण तस्य विदुषा श्रुतसागरेण रत्नत्रयस्य सुकथा कथितात्मसिद्धर्थ ॥
सूरिदेवेन्द्रकोतिविबुधजननुतस्तस्थ पट्टाब्धिचंद्रा
रुद्रो विद्यादिनंदा गुरुरमलतपा भूरिभब्यान्जभानुः ।
तत्पादाभोजभृगः कमलदललसल्लोचनश्चंद्रवक्त्रः
कामुष्याऽनन्तवत्तस्य श्रुतसमुपपदः सागरः शं क्रियाद्वः ।।
गच्छे श्रीमति मूलसंघतिलके सारस्वत्ते निर्मल
तत्त्वज्ञाननिधिबभूव सुकृत्तो विद्यादिनन्दी गुरुः ।
तच्छिष्यश्रुतसागरेण रचिता संक्षेपतः सत्कथा
रोहिण्याः श्रवणामृतं भवतु वस्तापच्छिदं संततम् ।।
उक्त तोनों प्रशस्तियांसे स्पष्ट है कि ये ग्रन्थ स्वतन्त्र है।
श्रुतसागरको शैली और जैन संस्कृतिको देन- श्रुतसागरकी भाषा और शेली सुबोध है । उनकी शैली में कहीं भी जटिलता नहीं है । स्वतन्त्ररूपसे लिखे गये चरित और कथामन्थों में भाषाको प्रौढ़ता पायो जाती है । यथा
थीमवीरजिनेन्द्र शासन-शिरोरत्नं सता मंडळ
साक्षादक्षयमोक्षकारि करुणाकृन्मूलसंघेऽभवत् ।
वंशे श्रीमत्कुंद विदुषो देबेन्द्रकीतिगुरुः ।
पट्टे तस्य मुमुक्षरक्षयगणो विद्यादिनंदीश्वरः ।।
तत्पादपावनपयोरुहमत्तभंगः श्रीमल्लिभूषणगरुगरिमप्रधानः ।
संप्रेरितोहममुनाभयाच्यभिस्ये भट्टाकरेण चरिते श्रुतसामगख्यः ।।
इन पद्योंसे स्पष्ट है कि चरितम्रन्थोंकी भाषा प्रौढ़, परिमार्जित और कान्यो चित है। इसी प्रकार कथाग्रन्थों की भाषा भी काव्याचित है । श्रुतसागरसूरिने ग्रन्थरचना द्वारा तो जैनधर्मका प्रकाश किया ही, पर मास्त्रार्थ द्वारा भी उन्होंने जैनधर्मका पर्याप्त प्रकाश किया है। श्रुतसागर अपने समयके बहुत ही प्रसिद्ध मान्य और प्रभावक विद्वान रहे हैं। इन्होंने अपने समयके राजाओं, सामन्तों और प्रभावक व्यक्तियोंको भी प्रभावित किया था। श्रुतसागरका व्यक्तित्व बहुमुवी है। उसने प्रयुक्त विषण ही यह सिद्ध करते हैं कि वे कलिकाल गौतम थे। जिस प्रकार गौतम गणधरने श्रुतका बीजरूपमें प्रचार और प्रसार किया, उसो प्रकार, परमागमप्रवीण, ताकिशिरोमणि श्रुतसागरने अनेक वादियोंको पराजित कर जैनधर्म का उद्योत किया है।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक मल्लिभूषण ( गुरुभाई ) |
शिष्य | आचार्य श्री श्रुतसागरसूरी |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Shrutsagarsuri16ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री श्रुतसागरसूरि 16वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 03-June- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 03-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
श्रुतसागरसूरि केवल परम्परापोषक ही नहीं हैं, अपितु मौलिक संस्थापक भी हैं। इनकी तत्त्वार्थसूत्र पर एक श्रुतसागरी भामको वृत्ति उपलब्ध है, जिससे इनका मौलिकताका परिचय प्राप्त होता है। श्रुतसागरने अपनी रचनाओंके अन्त में अपने गाआदिका नाम अंकित किया है। ये मूलसंघ सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगणके आनायं हैं। इनके गुरुका नाम विद्यानन्द था । विद्यानन्दिके गरुका नाम देवेन्द्रकीति और देवेन्द्रकोत्तिके गुरुका नाम पद्मनन्दि था । ये पद्मनन्द्रि सम्भवतः बहा हैं, जिनकी गिरनार पर्वतपर सर स्वतोदेवीने दिगम्बर पथके सच्चे होने की सूचना दी थी। इन्हीं की एक शिष्य शाखामें सकलकोति, बिजयकीति और श भचन्द्र भट्टारक हप है। ये बला कारगणको सूरत-शाखाके भट्टारक हैं। विद्यानन्दिके पश्चात् मल्लिभूषण भट्टारक हुए, जो श्रुतसागरके गुरुभाई थे । मल्लिषेणके अनुरोधसे श्रुतसागरने यशोधरचरित, मुकुटसप्तमीकथा और पल्लिविधानकथा आदिको रचना की है ।
श्रुतसागरके अनेक शिष्य हुए हैं, जिनमें एक शिष्य श्रीचन्द्र थे, जिनके द्वारा रचित वैराग्यमणिमाला उपलब्ध है। आराधनाकथाकोश, नेमिपुराण आदिग्रन्थों के रचयिता ब्रह्मनेमिदत्तने भी श्रुतसारको गुरुभावसे स्मरण किया है। यं ब्रह्मनेमिदत्त मल्लिभूषणके शिष्य थे।
श्रुतसागरने अपनेको देशवती, ब्रह्मचार्ग या वर्णी लिखा है नया 'नवनवति महावादिविजेता, तर्क-व्याकरण-छंद-अलंकार-सिद्धान्त-साहित्यादि-शास्त्रनिपुण, प्राकृतव्याकरणादिअनेकशास्त्रचन्च', उभयभाषाकविचक्रवर्ती, ताकिशिरो मणि, परमागमप्रवीण आदि विशेषणोंसे अलंकृत किया है । तत्त्वार्थवृत्तिके १. "इत्यनवद्यगद्यपद्मविद्याबिनोदितप्रमोदपीयूषरसपानपविनमतिसमाजरत्नराजमहतिसा
गरयतिराजराजितार्थनसमर्थन तकन्याकरणछन्दोऽलङ्कारसाहित्यादिशास्त्रमिशितम तिना श्रीमदेवेन्द्रकांतिभट्टारकशिष्यण शिष्येण सकलवित जनविहितपरणसेवस्य श्री
अन्तिम सन्धिवाक्यसे ज्ञात होता है कि इन्होंने तत्त्वार्थश्लोकवातिक, सर्वार्थ सिद्धि, न्यायकुमुदचन्द्र, प्रमेयकमलमार्तण्ड, तत्त्वार्थवातिक ओर अष्टसहस्री आदि अंथोंका गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया है। इससे स्पष्ट है कि श्रुतसागर अपने समयके अच्छे विद्वान और अन्यकार थे।
श्रुतसागरसूरि द्वारा रचित पल्लिविधानकथामें ईडरके राजा भानु अपवा रावभाणजीके राज्यकालका निर्देश है। इस ग्रन्थको प्रशस्तिमें बताया है कि भानुभूपतिको भुजालपो तलवारके जलग्नवाहमें शत्र कुलका विस्तृत प्रभाव निमग्न हो गया था और उनका मंत्रो हुम्मड कुलभूषण भोज राज था । उसकी पनीका नाम चिनदेवी था, जो मसीद पतिप्रसा, साध्वी और जिन चरण कमलोंकी उपासिका थो । उसके चार पुत्र उत्पन्न हए थे, जिनमें प्रथम पत्र कमसिंह, जिसका शरीर भरि रत्नगुणोंस विभूषित था और दूसरा पुत्र कुल भूषण था, जो शत्रुकुमके लिय कालस्वरूप था। तीसरा पुत्र पुग्यशाली श्री घोष था, जो सघनमापदपा गरोन्द्र के लिये वनके समान था और चौथा गंगा जलके समान निर्मल मन वाला गंगा था । इन चार पुत्रोंके पश्चात् इनकी एक बहन भी थो, जो जिनबरके मुखसे निकली हुई सरस्वती के समान थी। श्रुत सागरने स्वयं उसके साथ संघ सहित गजन्य और तुंगोगिरि आदिकी यात्रा' की थी।
श्रुतसागरका व्यक्तित्व एक शानाराधक तपस्वीका व्यक्तित्व है, जिनका एक-एक क्षण श्रुतदेवताकी उपासना में व्यतीत हा है। श्रुतसागर निस्सन्देह अत्यन्त प्रतिभाशाली विद्वान हैं। ये कलिकालसर्वज्ञ कहे जाते थे। ताकिक होनेके कारण असहिष्णु भी प्रतीत होते हैं । अन्य मर्तोका खण्डन और विरोध करनेमें अत्यन्त सतर्क रहे हैं।
विद्यानन्दिदेवस्य संदितमिध्यामतदुर्गरेण श्रुतसागरण सूरिणा विरंचिताया श्लोक वातिक-राजवातिक सर्वार्थसिद्धि-न्यायकुमुदचन्दोदय-प्रमेयकमलमासण्ड-प्रचण्डाष्टसह सीप्रमुखगन्धसन्दर्भावलोकनबुद्धिविराजितायाँ'- श्रुतसागरीतस्वार्थवृत्ति, भारतीय मानपीठ संस्करण, पृ० ३२६ पर उद्धत । तथा--"तर्क-व्याकरणाहत-प्रविल. सिद्धांतसारामलछंदोलकतिपूर्वनन्यकतघीसंघव्यकाव्योच्च ये-जैनग्रन्य प्रशस्ति
संग्रह, प्रथम भाग, यशोधर चरितप्रशस्ति पृ. ३१ ।
१. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, प्रथम भाग, वीरसेवामन्दिर, दिल्ली, सन् १९५४,
प्रस्तावना, पू. १६ ।
श्रुतसागरने अपने किसी भी अन्य में रचनाकाल अंकित नहीं किया है, किन्तु अन्य आधारोंसे उनके समयका निर्णय किया जा सकता है।
१. पद्मनन्दिके शिष्य देवेन्द्रकीतिका एक अभिलेख देवगढ़म है, जिसपर सं० १४९३ अंकित है। ये देवेन्द्र कीर्ति श्रुतसागरके दादागुरु' थे।
२. सूरतके एक मूर्ति-अभिलेख में संवत् १४९९ और एकमें संवत् १५१३ अंकित है । ये दोनों मूर्तियों देवेन्द्रकोत्तिके शिष्य विद्यानन्दिके उपदेशसे प्रतिष्ठित हुई थीं। विद्यानन्दिके उपदेशसे प्रतिष्ठित अन्य भूतियोंपर वि० सं० १५१८, १५२१ और १५३७ अंकित है।
३. सूरतमें पद्यावत्तीको एक मूर्तिपर वि० सं० १५४४ अंकित है। उस समय विद्यानन्दिके पट्ट पर मल्लिभूषण विराजमान थे। इन्हीं मल्लिभूषणके उपदेशसे श्रुतसागरने कुछ कथाएँ लिखी हैं और ये श्रुतसागरके गुरुभाई थे ।
४. ब्रह्मनेमिदत्तने अपने आराधनाकथाकोशको प्रशस्तिमें विद्यानन्दिके पट्टयर मस्लिभूषण और उनके शिष्य सिंहनन्दिका गुरुरूपमें स्मरण करके श्रुतसागरका जयघोष किया है। इससे ध्वनित होता है कि वे उस समय जीवित थे। इन्हीं ब्रह्मनेमिदत्तने वि० सं० १५८५में श्रीपालचरितकी रचना की है और उसमें श्रुतसागरसूरि द्वारा रचित 'श्रीपालचरित'का निर्देश करते हुए इनको पूर्वसूरि तथा उनके द्वारा 'श्रीपालचरित'को पुरारचित कहा है। इससे ज्ञात होता है कि उस समय श्रुतसागरका देहावसान हो चुका था।
५. पल्लिविधानकथाको प्रशस्तिसे भी श्रुतसागरका समय वि० सं० १५०२ १५२२ तक आता है। विद्यानन्दि और मल्लिभूषणके पट्टकालों पर विचार करनेसे भी श्रुतसागरका समय वि० सं० १५४४-१५५६ आता है। इस प्रकार भट्टारक श्रुतसागरसूरिका समय वि० को १६वीं शताब्दी है। -
१. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलपुर, लेखांक ४२५ ।
२. वही, लेखांक ४२५ ।
३. वहीं, लेखांक ४५८ ।
४. वही, लेखांक ४६६ ।
५. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, बिल्ली, प्रथम भाग, पु०१७।
६. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलापुर, लेखांक ४६३ ।।
प्रससागरसूरिकी अबतक ३८ रचनाएं प्राप्त हैं। इनमें आठ टीकाग्रन्थ है, और चौबीस कथाग्रन्य हैं, शेष छह व्याकरण और काव्य ग्रन्य हैं।
१. यशस्तिलकचन्द्रिका
२. तत्वार्थवृत्ति
३. तत्त्वत्रयप्रकाशिका
४. जिनसहलनामटीका
५. महाभिकीका
६. षट्पाहुइटीका
७. सिद्धभक्तिटीका
८. सिद्धचक्राष्ट्रकटीका
९. ज्येष्ठजिनवरकथा
१०. रविव्रतकथा
११. सप्तपरमस्थानकथा
१२. मुकुटसप्तमीकथा
१३. अक्षयनिधिकथा
१४. षोड़सकारणकथा
१५. मेधमालाव्रतकथा
१६. चन्दनषष्ठीकथा
१७. लन्निविधानकथा
१८. पुरन्दरविधानकया
१९. दशलाक्षणीव्रतकथा
२०. पुष्पाञ्जलिव्रतकथा
२१. आकाशपंचमीव्रतकथा
२२. मुक्तावलीवतकथा
२३. निदुःखससमीकथा
2४. सुगन्धटनामीकशा
२५. श्रावणद्वादशीकथा
२६. रत्नत्रयव्रतकथा
२७. अनन्तव्रतकथा
२८. अशोकरोहिणीकथा
२९. तपोलक्षणपंक्तिकथा
३०. मेरुपंक्तिकथा
३१. विभानपंक्तिकथा
३२ पल्लिविधानकथा
३३. श्रीपालचरित
३४. यशोधरचरित्
३५. औदार्यचिन्तामणि
(प्राकृत व्याकरण)
३६. श्रुतस्कन्धपूजा
३७. पार्श्वनाथस्तवन
३८. शान्तिनाथस्तवन
श्रुतसागरने यशस्तिलकग्रंथपर चन्द्रिका नामक टीका लिखी है। टीकामें बताया है
"इति श्रीपयनन्दि-देवेन्द्रकीति-विद्यानन्दि -मल्लिभूषणाम्नायेन भट्टारक श्रीमल्लिभूषण गुरूपरमाभीष्टगुरुभ्रात्रा गुर्जररदेशसिंहासनस्थभट्टारकश्रीलक्ष्मी चन्द्रकाभिमतेन मालबदेशभट्टारकधीसिंहनन्दिप्रार्थनया यतिथीसिद्धान्तसागर ब्याख्याकृतिनिमित्तं नवनवतिमहावादिस्याद्वादलब्धविजयेन तर्क-व्याकरणछन्दो लंकारसिद्धान्तसाहित्यादिशास्त्रनिपुणमतिना व्याकरणानेकशास्त्रचञ्चुना सूरिश्रीश्रुतसागरेण विरचितायां यशस्तिलकचन्द्रिकाभिधानायां यशोधरमहा
राजचरितचम्पूमहाकाव्यटोकायां यशोधरमहाराजराजलक्ष्मीविनोदवर्णनं नाम तृतीया श्वासचन्द्रिका परिसमाप्ता"" |
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि श्रुतसागरने अपने परिचय के माथ यशस्तिलककी टीका लिखनेका निर्देश किया है। श्रुतसागरने इस टीकामें विषयोंके स्पष्टी करणके साथ कठिन शब्दोंकी व्याख्या भी प्रस्तुत की है । यस्तिलक में जितने नये शब्दोंका प्रयोग सोमदेवने किया है, उन सभीका व्याख्यान इस टीकामें किया गया है । यशस्तिलकको स्पष्ट करने के लिये यह टोका बहुत उपादेय है ।
इस वृत्तिमें तत्त्वार्थमूत्रपर रचित समस्त वृत्तियोंका निचोड़ अंकित है। श्रुतसागरने तत्वार्थसुत्रकार उमास्वामीके साथ पूज्यपाद, प्रभाचन्द्र, विद्यानन्द और अकलंकका भी स्मरण किया है। ये चारों ही आचार्य तत्त्वार्थसूत्रके टीकाकार हैं। वृत्तिका प्रारम्भ सर्वार्थसिद्धिकी आरम्भिक शब्दोंकी शैलीको अपनाकर किया है। सर्वार्थसिद्धि में प्रश्नकर्ता भव्यका नाम नहीं लिखा है, पर श्रुतसागरने 'द्वयाकनामा' लिखा है । १३वीं शताब्दीके बालचन्द्र मुनि द्वारा तत्वार्थसूत्रकी जो कन्नडटीका लिखी गयी है, उसमें उस प्रश्नकर्ताका नाम सिद्धथ्य पाया जाता है। सर्वार्थसिद्धिके प्रारम्भमें निबद्ध मंगलश्लोक-'मोक्षमार्गस्य नेत्तार' आदिवा व्याख्यानमारकादिक , श्रुतसागरने भी किया है। श्रुतसागरमरिका पूरा ब्याख्यान एक तरहसे सर्वार्थसिद्धि नामक वृत्तिका ही व्याख्यान है, जो बातें सर्वार्थीसद्धिमें संक्षेपरूपमें कही गयी हैं, उन्हीं बातोंको विस्तार और स्पष्टताके साथ इस वृत्तिमें अंकित किया गया है। यथास्थान ग्रन्धातरोंके प्रमाण देकर विशेष कथन भी किया गया है । ग्रन्यातरोंके उद्धरणं प्रचुर परिमाणमें प्राप्त है। पाणिनि और कातन्त्र व्याकरणके सूत्रोंके उद्धरण भी प्राप्त है। __ श्रुतसागरके व्याख्यानमें कतिपय विरोध भी प्राप्त होते हैं। न्यायाचार्य पण्डित महेन्द्रकुमारजीने श्रुतसामरके स्खलनका निर्देश किया है । सर्वार्थसिद्धि में 'द्रव्याश्रया निर्गुणा: गुणा:' (५४१) सूत्रको व्याख्यामें 'निर्गुण' इस विशेषणको सार्थकता बतलाते हुए लिखा है---"निगुण इति विशेषणं दयणुकादिनिवृत्त्यर्थम्, तान्यपि हि कारणभूतपरमारणद्रव्याश्रयाणि गुणवन्ति तु तस्मात् निगणाः' इति विशेषणात्तानि नितितानि भवन्ति ।"
अर्थात इयणुकादि स्कन्ध नैयायिकोंकी दृष्टिसे परमाणरूप कारणद्रव्यों में आश्रित होनेसे द्रन्याश्रित हैं और रूपादि गुणवाले होनेसे गुणवाले भी हैं। अतः
१. तत्त्वावत्ति, भारतीयज्ञानपीठ, काशी, प्रस्तावना, पृ० १००।।
इनमें भी उक्त गुणका लक्ष्ण अतिव्यास हो जायेगा। इस कारण इनकी निवृत्तिके हेतु निगुणाः' यह विशेषण दिया गया है। इसकी व्याख्या करते हुए श्रुतसागरसूरिने लिखा है ___ "निगुणाः इति विशेषणं द्वयकत्र्यणुकादिस्कन्धनिषेधार्थम्, तेन स्कन्धा श्रया गुणा गुणा नोच्यन्ते । कस्मात् ? कारणभूतपरमाणुद्रव्याश्रयत्वात् तस्मात् कारणात् निगुणा इति विशेषणातस्कन्ध गुणा गुणा न भवन्ति पर्यायाश्चयत्वात्।" अर्थात् 'निमुग' यह विशेषण ढवणुक, व्यणुक आदि स्कन्धके निषेधके लिए है। इससे स्कायमें रहनेवाले गुण गण नहीं कहे जा सकते, क्योंकि वे कारणभूत परमाणुद्रव्यमें रहते हैं। अतएब स्कन्धके गुण गुण नहीं हो सकते, क्योंकि वे पर्यायमें रहते हैं। यह हेतुबाद बड़ा विचित्र है और है सिद्धान्तके प्रतिकूल | सिद्धान्तमें रूपादि चाहे घटादि स्कन्धों में रहनेवाले हों, या परमाणु में सभी मण कहे जाते हैं। ये स्कन्धके गुणोंको गुण ही नहीं कहना चाहते, क्योंकि शे पर्यायाधित है । अतएव "निघा' पदकी सार्थकताका मेल नहीं बैठता है। इस असंगति के कारण आगे शंका-समाधान में भी असंगति प्रतीत होती है ।
श्रुतसागरी वृत्तिके २८१ पृष्ठपर गुणस्थानोंका वर्णन करते समय लिखा है कि मिथ्याष्टिगुणस्थानसे सम्यग्दष्टिगुणस्थानमें पहुंचनेवाला जीव प्रथमो पशमसम्यक्त्व में ही दर्शनमोहनोकी तीन और अनन्तानुबन्धी चार इन सात प्रकृतियोंका उपशम करता है। यह सिद्धान्तविरुद्ध है, क्योंकि प्रथमोपशम सम्यक्त्व में दर्शनमोहनीयकी केवल एक प्रकृति मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चार इस तरह ५ प्रकृत्तियोंके उपशमसे हो प्रथमोपशमसम्यक्त्व बताया गया है । सातका उपशम तो, जिनके एकबार सम्यक्त्व हो चुकता है, उन जीवोंके द्वारा प्रथमोपशमके समय होता है । ९४७ सूत्रकी वृत्तिमें श्रुतसागरने द्रव्य लिंगको व्याख्या करते हुए असमर्थ मुनियोंको अपवाद रूपसे वस्त्रादि ग्रहण करने पर सहमति प्रकट की है ___ "केचिदसमर्था महर्षयः शीतकालादौ कम्बलशब्दवाच्यं कौशेयादिक गुलन्ति, न तत् प्रक्षालयन्ति, न तत् सीव्यन्ति, न प्रयत्नादिकं कुर्वन्ति, अपर काले परिहरन्ति । केचिच्छरीरे उत्पन्नदोषा लज्जितत्वात् तथा कुर्वन्तीति व्याख्यानमाराधनाभगवतोप्रोक्ताभिप्रायेण अपवादरूपं ज्ञातव्यम् । उत्सर्गाप बादयोरपवादो विधिबलवान् इत्युत्सर्गेण तावद् यथोक्तमाचेलक्यं प्रोक्तमस्ति, आर्यासमर्थदोषबच्छरीराद्यपेक्षया अपवादव्याश्याने न दोषः ।' अर्थात् असमर्थ मुनि शीतकाल आदिमें कम्बल वगैरह ग्रहण कर लेते हैं, किन्तु न तो वे उसे धोते हैं, न सोते हैं और न कोई उसके लिये प्रयत्नादि ही करते हैं । शीतकाल
बोतने पर उसे त्याग देते हैं। कुछ मुनिशरीरमें दोष उत्पन्न होनेसे लज्जावश बस्त्रको ग्रहण कर लेते हैं। यह व्याख्या भगवतीआराधनामें कहे हुए अभि प्रायसे अपवादरूप जाननी चाहिये । पर भगवतीबाराधनामें इस तरहका कोई विधान नहीं है, उसके टोकाकार अपराजितसूरिने अपनी विजयोदया टोकाम आचेलवध आदि दश कल्पोंका निरूपण करनेवाली ४२श्वी गाथाको व्याख्या करते हुए आचारांग आदि सूत्रों में पाये जानेनाले कल वाकों के आधारपर यह माना है कि यदि भिक्षुका शरीरावयव सदोष हो, अथवा वह परोषह सहन करने में असमर्थ हो, तो वह वस्त्र ग्रहण कर सकता है। अपरा जितसूरिने तो समन्वयार्थ इस प्रकारकी व्याख्या की है, पर, श्रुतसागरसूरि दिगम्बर होते हुए, क्यों इस प्रकारकी भूल कर मये?
घट्नाभृतटोका-आचार्य श्रुतसागरसूरिने षट्प्राभृतकी टीका प्रारम्भ करते हुए लिखा है __"अथ श्रीविद्यानन्दिभट्टारक-पटाभरणभूतश्रीमल्लिभूषणभट्टारकाणामा - देशाध्यषणावशाद् बहुगः प्रार्थनावशात् कलिकालसर्वज्ञविरुदावलीबिराज मानाः श्रीसद्धर्मापदेशकुशला निजात्मस्वरूपप्राप्ति पञ्चपरमेष्ठिचरणान् प्रार्थयन्त: सर्वजगदपकारिण उत्तमक्षमाप्रधानतपोरनसभूषितहृदयस्थला भव्यजनजनक तुल्याः श्रीश्रुतसागरसूरयः श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचितषट्प्राभूतमन्यं टोकयन्तः स्वरूचिविरचितसद्दष्ट्यः ।" अर्थात् कलिकालसर्वज्ञआदि विरुदालिसे सुशोभित, श्रीसम्पन्न, आद्धर्मके उपदेशमें कुशल, पश्चपरमेष्ठीके चरणों को प्रार्थनारो आत्मस्वरूपके ध्याता, सर्वजगतके उपकार करनेवाले उत्तमक्षमादि सपोंसे विभूषित, सम्यग्दर्शनयुक्त और भव्य जीवोंके लिए पिताकें समान सुखदायक श्रुतसागरसूरि श्रीविद्यानन्दि भट्टारक सम्बन्धी पट्टके अलंकारस्वरूप श्रीमल्लिभषणभट्टारककी आज्ञासे, प्रेरणासे और अनेक जीवोंको प्रार्थनासे श्रीकुन्दकुन्दाचार्य द्वारा विरचित 'षट्प्राभूत' ग्रन्धकी टीका करने के लिये प्रवृत्त हुए हैं।
इस टोकामें भी 'तथाचोक्त' कहकर अनेक स्थानोंके उद्धरण संकलित किये हैं । कुन्दकुन्दस्वामोके मूलवचनोंका व्याख्यान सरल और संक्षेपरूपमें किया है। यद्यपि इस टोकामें श्रुतसागरोवृत्ति जैसो गम्भीरता या प्रौढ़ता नहीं है, तो भी विषयको स्पष्ट करने की क्षमता इस टीकामें है। टोकाकी शैली बहुत ही सरल, स्वच्छ और स्पष्ट है। दर्शन, चरित्र, सूत्र, बोध, भाव और मोक्ष इन छह प्राभूतोंका व्याख्यान श्रुतसागरसूरिने किया । टोका केवल भावोंके स्पष्टीकरण
लिये की गयी है। मोक्षप्राभूतके अन्तमें पूर्व प्रशस्ति भी दी गयी है । इस प्रकार
संक्षेपमें पद्माभृतको टीका कुन्दकुन्दके अन्यको स्पष्ट करती है।
यह ज्ञानावर्णवके गद्यभागकी संस्कृत टोका है। यह टीका अभी तक अप्रकाशित है। शुभचन्द्राचार्य ने योगविषयको लेकर जानार्णवको रचना की है । श्रुतसागरने केवल इसके गद्यांशपर ही संस्कृत टीका लिखी है।
यह प० आशाधर कृत सहस्रनामकी विस्तृत टीका है । टीकाके अन्त में मिला है -
श्रुतसागरकृतिवरवचनामृतपानमन विहितम् ।
जम्मजरामरणहरं निरन्तरं तैः शिवं लब्धम् ।
अस्ति स्वात्ति समस्तसकृतिलक श्रीमलसङ्गोऽनघं
वृत्तं यत्र मुमुक्षुवर्गशिवदं संसेवितं साधुभिः ।
विद्यानन्दिगुरुस्विहास्ति गुणवद्गच्छे गिर: साम्प्रतं
तच्छिष्य श्रुतसागरेण रचिता टीका चिरं नन्दतु ।।
पं० आशाबरके नित्यमहोद्योतकी यह टीका है। इसका प्रणयन उस समय हुआ था, जब श्रुतसागर देशवतो या ब्रह्मचारी थे ।
प्राकृत भाषाका शब्दानुशासन है। दो अध्यायों में पूर्ण हुआ है। प्रथम अध्याय २४५ सूत्र और द्वितीय अध्याधमें २१३ सूत्र हैं । प्रथम अध्यायके अन्तमें लिखा है-..
श्रीपूज्यपादसूरिविद्यानन्दी समन्तभद्रगुरुः ।
श्रीमदकलदेवो जिनदेवो मङ्गलं दिशतु ।।
"इत्युभयभाषाविचक्रवत्तिव्याकरणकमलमार्तण्डताकिकबुधशिरोमणिप - रमागमप्रवीणसूरिश्रीदेवेन्द्रकीतिप्रशिष्य - मुमुक्षुश्रीविद्यानन्दिप्रियशिष्यश्रीमल - सघपरमात्मविदुस्सुरिश्रीश्रुतसागरांवरचिते औदार्यचिन्तारत्ननाम्नि स्वोपज्ञ वृत्तिनि प्राकृत्तव्याकरणे वर्णादेशनिरूपणो नाम प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ।"
द्वितीय अध्यायके अन्तमें भी इसी प्रकारको प्रशस्ति है। इस अध्यायका नाम संयुक्त अव्ययनिरूपण है। इसमें संयुक्त वर्णविकार और अव्ययोंके निपात का कथन आया है। प्रथम अध्यायमें स्वर और व्यञ्जनोंके विकारका निरू पण है । इस अध्यायका प्रथम सूत्र
तदार्षञ्च बहुलम् ॥१॥ तत्प्राकृत मषिप्रणीतमार्षमनार्षच बहुमित्यधिकृतं बेदितव्यम् । तत्र
ऋ, ऋ, ल, लु, ए, औ, ङ, अ, श, ष प्लुत स्वर व्यञ्जन द्विवचन चतुर्थी बहुवचनानि च न स्युः । के अब | सौ रिकं । कौरवा । इति च दृश्यते । सविधिविकल्पश्चार्षे ॥ ___ अर्थात् प्राकृतमें ऋ, ऋ, लु, ल, ऐ, ओ, छ, त्र, ष प्लुत नहीं होते हैं। द्विवचन और चतुर्थी विभक्ति भी नहीं है | आर्ष प्रयोगोंमें सभी विधियाँ बिकल्पसे प्रयुक्त होती हैं ।
प्रथम अध्यायके द्वितीय सूत्रमें समासमें परस्पर ह्रस्व और दीप की व्यव स्था बतायी गयी है । यथा-अन्तद अन्तावई । सप्तबित्ति सत्तावोसा। अप्रवृत्ती जुबइअणो । बिकल्पे वारिमइ, वारिमई ! भुजयन्त्र भुआयतं, भुअयंत । पतिगृहपईहर, पहरं । गोरीगृहं गोरिहर, गोरोहरं । । तृतीयसूत्रमें सन्धिव्यवस्था, चतुर्थ, पञ्चम, षष्ठ एवं सप्तममं भी सन्धि व्यवस्थापर प्रकाश डाला गया है। नवम, दशम और एकादश सुन्नमें उपसगं व्यवस्था बत्तलायी गयी है । चतुर्दश सूत्रसे विशति सूत्र पर्यन्त शब्दोंके आदेश का कथन आया है। इक्कोस और बाइस सूत्रमें अनुस्वारव्यवस्थाका कथन है। इसके पश्चात् शब्दोंके आदेशोंका निरूपण किया गया है। अध्यायके अन्तमें कतिपय विशेष शब्दोंकी व्यवस्था बतलायी गयी है । तथा दन्त्य नकार के स्थानपर मुर्धन्य प्रकारका कथन आया है ! इस प्रकार प्रथम अध्यायमें स्वर और व्यजनोंको व्यवस्था बतलायो गयो है।
द्वितीय अध्यायके प्रारम्भमें मृदुत्व आदि पांच शब्दोंमें संयुक्त वर्णके स्थान पर ककारको व्यवस्था बतलायी गयी है ।
मदुत्वादिषु पञ्चसु शब्देषु यः संयुक्तो वर्णस्तस्य ककारो भवति वा । मदुत्वं माउत्तणं माउक्क, रुज्यतेस्म झरण:-भुग्णपर्याय: (१) रोमादिना वक्री भूते लुम्मो लुक्को । दष्टः-ट्ठो डनको, मुक्तः-मुत्तो-मुक्को, शक्तः सत्तो सक्को ।
क्षकारस्य खकारो भवति । झछौ च क्वचिद्भवतः लक्षणं-लक्खणं, क्षयः खो, क्षीयते-झिज्जइ छिज्जइ खिज्जइ, क्षीणं-झीणं छोणं स्वीणं ।
इसी प्रकार इस अध्यायमें स्क, क, स्थ, स्फ, स्त आदिके विकारका भी अनुशासन वर्णित है। संयुक्त वोकी व्यवस्था विस्तारके साथ बतलायी गयी
है। अव्ययोंके निपातकी व्यवस्था १७५३ सुत्रसे २१३वे सूत्र तक वणित है। इसप्रकार इस प्राकृतव्याकरणमें स्वर ओर व्यञ्जन परिवर्तनके साथ शब्दरूप एवं अव्ययोंका कथन आया है। धातुरूप सदाकृदन्तप्रत्ययोंका अनुशासन इसमें वर्णित नहीं है। इस व्याकरणके दो ही अध्याय उपलब्ध है, शेष दो अध्याय अभी तक प्राप्त नहीं हुए हैं। ये दो अध्याय जैन सिद्धान्त भवन बारा, एवं व्यावरके ग्रन्थागरमें उपलब्ध हैं।
इस चरितकाव्यके आरम्भ में मंगलाचरण पद्यबद्ध है तथा अन्त में प्रशस्ति भाग भी पद्यमें दिया गया है। मध्यका कथाभाग संस्कृत-गद्यमें लिखा गया है । श्रीपालके पुण्य चरितका अंकन इस काम में है । सिद्धचक्रविधानके महात्म्यको दिखलानेके लिये यह काध्यग्रन्ध लिम्ला गया है । अन्तिम प्रशस्तिमें बताया है
सिद्धचक्रवतात्सोऽयमीदृशाऽभ्युदयो बभौ ।
निःश्रेयसमितोऽस्मभ्यं ददातु स्वर्गात प्रभुः ।।
--पुण्यपुरुष यशोधरको कथा संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के जैन कवियोंको विशेष रुचिकर रही है। यही कारण है कि यशोधरके चरितको लेकर अनेक काव्य लिखे गये हैं। आरम्भमें नमस्कारात्मक पद्य लिखे गये हैं, जिनमें विद्यानन्द, अकलंक, समन्तभद्र, उमास्वामी, भद्रबाहु, गुप्तिगुप्त आदिका स्मरण किया गया है । अन्तिम प्रशस्तिमें श्रुतसागरने अपना परिचय लिखा है। इस परिचयमें गुरुपरम्परा एवं अपना पाण्डित्य बतलाया गया है। अहिंसावतका माहात्म्य बतलानेके लिये यशीघरकी कथा विशेष आकर्षक है । यह कथा वहीं है, जिसका अंकन सोमदेवने अपने यस्तिलकचम्पूमें किया है।
श्रुतस्कन्धका पूजन निबद्ध किया गया है। श्रुतके माहात्म्य के साथ श्रुतज्ञानके पदों और अक्षरों की संख्या भी बतलायी गयी है । यह छोटी-सी कृति है, इसको पाण्डुलिपि बम्बईके सरस्वतीभवन में है।
श्रुतसागरने आकाशपञ्चमी, मुकुटसप्तमी, चन्दनषष्ठी, अष्टालिका, ज्येष्ठजिनवर, रविव्रत, सप्तपरमस्थान, अक्षयनिधि षोड़शकारण, मेघमाला, लब्धिविधान, पुरन्दरविधान, दशलाक्षणीव्रत, पुष्पाञ्जलिबत्त, मुक्तावलीबस, निर्दुःखसप्तमी, सुगन्धदशमी, श्रावणद्वादशी, रत्नत्रय, अनन्तवत, अशोकरोहिणी, तपोलक्षणपंक्ति, मेरुपंक्ति, विमानपंक्ति और पल्लिविधान व्रतोंकी कथाए लिखी हैं | इन कथाओंकी संख्या २४ है। पण्डित परमानन्दजी शास्त्रीने इन कथाग्रन्थोंको स्वतन्त्ररूप में स्थान दिया है और एक कथाकोश न मानकर २४ कथाग्रन्थ माने हैं। उन्होंने बताया है कि भिन्न-भिन्न कथाएं
भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिये भिन्न-भिन्न महानुभावोंके अनुरोधसे लिखी गयी हैं । अतएव वे स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं। ___जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह प्रथमभागमें १४३ ग्रन्थसंख्यासे १६६ ग्रन्थ संख्यातक २४ कथाग्रन्थोंको प्रशस्तियाँ संकलित की गयी हैं। ज्येष्ठजिनवरव्रतकथाके आदिमें मंगलाचरण करते हुए लिखा है
ज्येष्टं जिनं प्रणम्यादाबकलंककलध्वनि ।
श्रीविद्यादिनंदिन ज्येष्टजिननतमथोच्यते ॥ १॥
प्रायः प्रत्येक कथाग्रन्थके अन्त में अंकित प्रशस्तिमें श्रुतसारको गुरुपरम्परा उपलब्ध होती है | इन कथाग्रन्योंकी शैलीसे भी इनका स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध होता है। प्रत्येक कथा के अन्तमें, जो प्रशस्ति भाग दिया गया है, वही उसका स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध करता है । ये कथाएं चांद कथाकाशक रूपमे लिखी जाती, तो प्रत्येक कथाके अन्त में प्रशस्ति देनेको आवश्यकता नहीं थी । रत्नत्रय कथा, अनन्तव्रतकथा और अशोकरोहिणीकथाके अन्त में दी गयी प्रशस्तिको उदाहरणार्थ प्रस्तुत करते हैं
सर्वज्ञसारगुणारत्नविभूषणासी विद्यादिनांदगुरुरुद्यतरप्रसिद्धः ।
शिष्येण तस्य विदुषा श्रुतसागरेण रत्नत्रयस्य सुकथा कथितात्मसिद्धर्थ ॥
सूरिदेवेन्द्रकोतिविबुधजननुतस्तस्थ पट्टाब्धिचंद्रा
रुद्रो विद्यादिनंदा गुरुरमलतपा भूरिभब्यान्जभानुः ।
तत्पादाभोजभृगः कमलदललसल्लोचनश्चंद्रवक्त्रः
कामुष्याऽनन्तवत्तस्य श्रुतसमुपपदः सागरः शं क्रियाद्वः ।।
गच्छे श्रीमति मूलसंघतिलके सारस्वत्ते निर्मल
तत्त्वज्ञाननिधिबभूव सुकृत्तो विद्यादिनन्दी गुरुः ।
तच्छिष्यश्रुतसागरेण रचिता संक्षेपतः सत्कथा
रोहिण्याः श्रवणामृतं भवतु वस्तापच्छिदं संततम् ।।
उक्त तोनों प्रशस्तियांसे स्पष्ट है कि ये ग्रन्थ स्वतन्त्र है।
श्रुतसागरको शैली और जैन संस्कृतिको देन- श्रुतसागरकी भाषा और शेली सुबोध है । उनकी शैली में कहीं भी जटिलता नहीं है । स्वतन्त्ररूपसे लिखे गये चरित और कथामन्थों में भाषाको प्रौढ़ता पायो जाती है । यथा
थीमवीरजिनेन्द्र शासन-शिरोरत्नं सता मंडळ
साक्षादक्षयमोक्षकारि करुणाकृन्मूलसंघेऽभवत् ।
वंशे श्रीमत्कुंद विदुषो देबेन्द्रकीतिगुरुः ।
पट्टे तस्य मुमुक्षरक्षयगणो विद्यादिनंदीश्वरः ।।
तत्पादपावनपयोरुहमत्तभंगः श्रीमल्लिभूषणगरुगरिमप्रधानः ।
संप्रेरितोहममुनाभयाच्यभिस्ये भट्टाकरेण चरिते श्रुतसामगख्यः ।।
इन पद्योंसे स्पष्ट है कि चरितम्रन्थोंकी भाषा प्रौढ़, परिमार्जित और कान्यो चित है। इसी प्रकार कथाग्रन्थों की भाषा भी काव्याचित है । श्रुतसागरसूरिने ग्रन्थरचना द्वारा तो जैनधर्मका प्रकाश किया ही, पर मास्त्रार्थ द्वारा भी उन्होंने जैनधर्मका पर्याप्त प्रकाश किया है। श्रुतसागर अपने समयके बहुत ही प्रसिद्ध मान्य और प्रभावक विद्वान रहे हैं। इन्होंने अपने समयके राजाओं, सामन्तों और प्रभावक व्यक्तियोंको भी प्रभावित किया था। श्रुतसागरका व्यक्तित्व बहुमुवी है। उसने प्रयुक्त विषण ही यह सिद्ध करते हैं कि वे कलिकाल गौतम थे। जिस प्रकार गौतम गणधरने श्रुतका बीजरूपमें प्रचार और प्रसार किया, उसो प्रकार, परमागमप्रवीण, ताकिशिरोमणि श्रुतसागरने अनेक वादियोंको पराजित कर जैनधर्म का उद्योत किया है।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक मल्लिभूषण ( गुरुभाई ) |
शिष्य | आचार्य श्री श्रुतसागरसूरी |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Shrutsagarsuri 16 Th Century
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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