हैशटैग
#Shubhchandra11ThCentury
आचार्य शुभचन्द्रका ज्ञानार्णव या योगप्रदीपनामक ग्रन्थ प्राप्त हैं। ये शुभ चन्द्र किस संघ या गण गच्छ थे और इनकी क्या गुरुपरम्परा थी, इसके सम्बन्ध में कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं होती है । शुभचन्द्र नामके कई आचार्य हुए हैं। एक शुभचन्द्रकी चर्चा श्रवणबेलगोलाके ४३वें संख्यक अभिलेखमें आयो है, जो गण्डविमुक्त मलधारिदेवके शिष्य थे और जिनका स्वर्गवास शक सं० ११८० में हुआ था। द्वितीय शुभचन्द्र देवकीर्ति के शिष्य थे, जिनका स्वर्गवास वि० सं०१२२० में हुआ था और जिनका निर्देश श्रवणबेलगोलाके ३९ वें अभिलेखमें आया है। __विश्वभूषण भट्टारकने 'भक्तामरचरित्र' नामक संस्कृतग्रन्थकी उत्थानिका में शुभचन्द्र और भर्तृहरिकी एक लम्बी कथा दी है, जिसके अनुसार शुभचन्द्र तथा भर्तृहरि उज्जयिनीके राजा सिन्धुलके पुत्र थे और सिन्धुलके पैदा होने के पहले उनके पिता सिंहने मुञ्जको एक मुंजके खेत में पड़े हुए पाकर उसे पाल लिया था । सिंहको बहुत दिनों तक सन्तान न हुई, जिससे वह चिन्तित रहने लगा। एक दिन मन्त्रीने राजाकी चिन्ताको अवगत कर उसे धर्मागवन करनेका परामर्श दिया । राजा सावधान होकर धर्मकृत्योंको सम्पन्न करने लगा। ___ एक दिन वह रानी और मन्त्रियोंक साथ वन-क्रीड़ाके लिए गया और वहाँ मूँज के खेतमें पड़े हुए एक बालकको पाया। उस बालकको देखते ही राजाके हृदय में प्रेमका संचार हुआ और उसने उठा लिया तथा लाकर रानीको दे दिया रानी उस पुत्रको गोदमें बैठाकर अत्यधिक प्रसन्न हुई । मन्त्रीने राजासे निवेदन किया कि नगरमें चलकर रानीको गूढगर्भवती घोषित किया जाये और पुत्रो १. पार्श्वनाधस्तोत्र, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, पद्य १,५,९ ।
त्सव मनाया जाये | मन्त्रीकी सन्मति अनुसार राजाने पुत्रोत्सव सम्पन्न किया ।
सिंहने उस पुत्रका नाम मुञ्ज रखा । मुञ्जने वयस्क होकर थोड़े ही दिनों में सकल शास्त्र और कलाओंका अध्ययन कर लिया। तदनन्तर महाराजने रत्नावती नामक कन्याके साथ उसका विवाह कर दिया | कुछ दिनोंके अनन्तर महाराज सिंहकी रानीने गर्भ धारण किया और दशम महीने में एक पुत्रको जन्म दिया, जिसका नाम सिंहल (सिन्धुराज) रखा गया। इस पुत्रका भी जन्मोत्सव मम्पन्न किया गया तथा वयस्क होनेपर मृगावती नामक राजकन्यासे विवाह कर दिया गया।मृगावती कुछ दिनोमे गर्भवती हुई | शुभ मुहूर्त मे उसने दो पुत्रोंको जन्म दिया, जिनमें ज्योष्ठका नाम शुभचन्द्र और कनिष्ठका नाम भर्तृहरि रखा गया | बचपन से ही इन बालकांना चित्त तत्त्वज्ञानकी ओर विशेष रूपसे आकृष्ट था । अतएव वय प्राप्त होनेपर तत्त्वज्ञान में अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली । एक दिन मेघोंके पटलको परिवर्तित होते हुए देखकर सिंहको वैराग्य हो गया और उसने मुञ्ज एवं सिंहालको राजनीतिसम्बन्धी शिक्षा देकर जिन दीक्षा ग्रहण कर लो । राजा मुञ्जअपने भाईके साथ सुखपूर्वक राज्य करने लगा | एक दिन मुञ्ज वनक्रीड़ासे लौट रहा था कि उसने मार्गमें एक तेलीको कन्धे पर कुदाल रक्खे हुए खड़े देखा, उसे मर्योन्मत्त देखकर मुजने पूछा- इस तरह क्यों खड़े हो ? उसने कहा मैंने एक अपूर्व विद्या सिद्ध की है, जिसके प्रभाव से मुझमे इतनी शक्ति है कि मुझे कोई परास्त नहीं कर सकता । यदि आपको विश्वास न हो, तो अपने किसी सामन्तको मेरे इस लोहदण्डको उखाड़नेका आदेश दीजिए। इतना कहकर उसने लौहदण्ड भूमिमें गाड़ दिया। संकेत पाते ही सभी सामन्त उस लौहदण्डको उखाड़ने में प्रवृत्त हुए, पर किसीसे भी न उखड़ सका । सामन्तोंको इस असमर्थताको देखकर शुभचन्द्र और भर्तृहरिने मुञ्जसे निवेदन किया, कि यदि आदेश हो, तो हम दोनों इस लोहदण्डको उखाड़ सकते हैं। मुञ्जने उन दोनों बालकोंको समझाया, पर जब अधिक आग्रह देखा तो उसने लोहृदण्ड उखाड़नेका आदेश दे दिया । उन दोनोंने चोटीके बालोंका फन्दा लगाकर देखते-देखते एक ही झटके में लौहदण्डको निकाल फेंका | चारों ओरसे धन्य-धन्यकी ध्वनि गूँजउठी । तैली निमंद होकर अपने घर चला गया।
बालकोंके इस अपूर्व बलको देखकर मुञ्ज आश्चर्यचकित हो गया और वह सोचने लगा कि ये बालक अपूर्व शक्तिशाली हैं और जब ये बड़े हो जायेंगे, तो किसी भी क्षण मुझे राज्य-सिंहासनसे च्युत कर देंगे, अतएव इनको किसी उपायसे मृत्युके मुख में पहुँचा देना ही राजनीतिज्ञता है । उसने मन्त्रीको बुला कर अपने विचार प्रकट किये और कहा कि शीघ्र ही इन दोनोंका वध हो जाना
चाहिए । मन्त्रीने राजाको पूर्णतया समझानेका प्रयास किया, पर मुञ्जको मन्त्री की बातें अच्छी नहीं लगीं । फलत: मन्त्री राजाज्ञा स्वीकार कर चला गया । ___ मन्त्रीने एकान्तमें बैठकर उहापोह किया और अन्त में वह इस निष्कर्षपर पहुँचा कि कुमारोंको इस समाचारसे अवगत करा देना चाहिए, अन्यथा बड़ा भारी अनर्थ हो जायगा । उसने शुभचन्द्र और भतृहरिको एकान्त में बुलाया और राजा के विचार कह सुनाये साथ ही यह भी कहा कि आप लोग उज्जयिनी छोड़कर चले जाइये, अन्यथा प्राणरक्षा नहीं हो सकेगी।
राजकुमार अपने पिता सिंहलके पास गये और राजा मुञ्जकी गुप्त मन्त्रणा प्रकट कर दी। सिंहलको मुञ्जकी नीचतापर बड़ा क्रोध आया और उसने पुत्रों से कहा मुञ्ज द्वारा षड्यन्त्र पूरा करने के पहले ही तुम उसे यमराजके यहाँ पहुँचा दो | कुमारोंने बहुत विचार किया और वे संसारसे विरक्त हो वन की ओर चल पड़े। __महामति शुभचन्द्रने किसी वनमें जाकर मुनिराजके समक्ष दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली और तेरह प्रकारके चारित्रका पालन करते हुए घोर तपश्चरण करने लगे । पर भर्तृहरि एक कौल तपस्वीके निकट जाकर उसकी सेवामें सलग्न हो गया | उसने जटाएं बढ़ा ली, तनमें भस्म लगा ली, कमंडलु, चिमटा लेकर, कान्दमूल भक्षणद्वारा उदरपोषण करने लगा । बारह वर्ष तक भर्तृहरिने अनेक विद्याओंकी साधना की । उसने योगी द्वारा शतविद्या और रसतुम्बी प्राप्त की। इस रसके संसर्गसे तांबा सुवर्ण हो जाता था। भर्तृहरिने स्वतन्त्र स्थानमें रस तुम्बीके प्रभाव से अपना महत्त्व प्रकट किया।
एक दिन भर्तृहरिको चिन्ता हुई कि उसका भाई शुभचन्द्र किस स्थितिमें है । अतः उसने अपने एक शिष्यको उसका समाचार जाननेके लिए भेजा। शिष्य जंगलों में घूमता हुआ उस स्थान पर आया, जहाँ शुभचन्द्र तपस्या कर रहे थे। देखा कि उनके शरीरपर अंगुल भर वस्त्र नहीं है और न कमण्डलुके अतिरिक्त अन्य कुछ भी परिग्रह ही है । शिष्य दो दिन निवास कर वहाँसे लौट आया और भर्तृहरिको समस्त समाचार आकर सुना दिया । भर्तृहरिने अपनी तुंबीका आधा रस दूसरी तुंबीमें निकालकर शिष्यको दिया और कहा कि इसे ले जा कर शुभचन्द्रको दे आओ, जिससे उसकी दरिद्रता दूर हो जाय और वह सुख पूर्वक अपना जीवन यापन करे । जब शिष्य रसतुंबी लेकर मुनिराज शुभचन्द्रके समक्ष पहुँचा, तो उन्होंने उसे पत्थरको शिलापर डलवा दिया।
शिष्यने वापस लौटकर भर्तृहरिको रसतुंबीकी घटना सुनायी, तो वे स्वयं भाईकी ममतावश शेष रसतुंबीको लेकर शुभचन्द्रके निकट आये । शुभचन्द्रने
शेष रसको भी पाषाणशिलापर डलवा दिया जिससे भतु हरिको बहुत दुःख हुआ । शुभचन्द्रने भतंहरिको समझाते हुए कहा-भाई, यदि सोना बनाना ही अभीष्ट था तो क्यों घर छोड़ा , घरमें क्या सोना-चाँदी, मणि-माणिक्यकी कमी थी । इन वस्तुओंकी प्राप्ति तो गृहस्थीम सुलभ था। अतः सांसारिक वस्तुओंकी प्राप्तिके लिए इतना प्रयास करना व्यर्थ है।
शुभचन्द्रके उपदेशसे भर्तृहरि भी दीक्षित हो गया । भर्तृहरिको मुनिमार्गमें दृढ़ करने और सच्चे योगका ज्ञान करानेके लिए शुभचन्द्रने योगप्रदीप अथवा ज्ञानार्णवकी रचना की।
उक्त कथामें कितना तथ्यांश है, यह विचारणीय है। कथाके उत्तरार्धमें कालिदास, वरचि, धनञ्जय और मानतुंग सूरिकी समकालीनता बतलायी गयी है । अतः इसमें ऐतिहासिक तथ्योंका अभाव दिखलायी पड़ता है।
'ज्ञानार्णव के प्रारम्भमें समन्तभद्र, देवनन्दि, भट्टाकलंक और जिनसेन का स्मरण किया है। इसमें सबसे अन्तिम जिनसेनस्वामी हैं, जिन्होंने जयधवला टीकाका शेषभाग वि० सं० ८९४ में समाप्त किया था। इससे यह स्पष्ट है कि ज्ञानार्णवकी रचना ही सन् ८३७ के पश्चात् हुई है।
अब विचार यह करना है कि वस्तुतः ज्ञानार्णवके रचयिता शुभचन्द्राचार्य का समय क्या है ? ज्ञानार्णवके गुण-दोषबिचारप्रकरणमें निम्नलिखित तीन पद्य 'उक्तञ्च ग्रन्थान्तरे' कहकर उद्धृत किये गये हैं
ज्ञानहीने क्रिया पूसि पर नारभते फलम् ।
तरोश्छायेव कि लभ्या फलश्रीनष्टहष्टिभिः ।।
ज्ञानं पनी क्रिया चान्धे निःश्रद्धे नार्थकृवयम् ।
ततो ज्ञानं किया श्रद्धा अयं तत्पदकारणम् ।
हतं ज्ञानं क्रियाशुन्य हता चाज्ञानिनः क्रिया।
धावन्नप्यन्धको नष्टः पश्यन्नपि च पङ्गुकः ।।
ये तीनों श्लोक यशस्तिलकचम्पूके छठे आश्वासमे ज्यों के त्यों रूपमें उपलब्ध होते हैं। इनमें प्रथम दो पद्योंके रचयिता तो यशस्तिलकके कर्ता सोमदेव हैं और तृतीय पद्य 'उक्तश्च' कहकर उद्धृत किया गया है। यह तीसरा पद्य कुछ पाठभेदके साथ अकलंकदेवके राजवासिकमें भी पाया जाता है। यशस्तिलककी रचना वि.स. १०१६ (ई. सन् ९५९ ) में हुई है । इसलिए यह सिद्ध हुआ कि जानाणंव ई० सन् ९५९ के पश्चात् लिखा गया है । ज्ञानर्णवमें पुरुषार्थसिद्धषु
१. ज्ञानार्गव, रामचन्द्र शास्त्रमाला, तृतीय संस्करण, सन् १९६१, सर्ग ४, पद्य २७
के आगे ।
गायका भी पद्य मिलता है। अत: शुभचन्द्रका समय अमृतचन्द्राचार्यक पश्चात् है।
'जानार्णव'की एक प्राचीन प्रति पाटणके 'रखेतरवस' नामक श्वेताम्बर जैन भण्डारमें विद्यमान है, जिसका लेखनकाल वैशाख शुक्ला दशमी वि०सं० १२९४ है। श्री नाथूरामजी प्रेमीने इस पाण्डुलिपिकी प्रशस्तिको उद्धृत किया है। प्रशस्तिकी महत्त्वपूर्ण पंक्तियां निम्नलिखित हैं
"इति ज्ञानाणचे योगप्रदीपाधिकारे पंडिताचार्यश्रीशुभचन्द्रविरांचते मोक्ष प्रकरणम् । अस्यां श्रीमनपुर्या श्रीमदहदेवचरणयामलचंचरीकः सुजनजनहृदय परमानन्दनन्दलीवान्दः श्रीमाथरान्वयसमुद्रचन्द्रायमानो भन्यात्मा परमश्रावक: श्रीनेमिचन्द्रो नामा भूतः। तस्याखिल-विज्ञानकलाकौशल-शालिनी सती पतिव्रतादि गुणगगालंकारभूषितशरीरा निजमनोवृत्तिरिवायभिचारिणी स्वर्णानाम धर्मपत्नी संजाता । अथ तयोः समासादितधर्मार्थकामफलयोः स्वकुलकुमदवनचन्द्रलेखा निजवंश-वैजयन्ती सर्वलक्षणालंकृतशरीरा जाहिणि-नाम-पुत्रिका समुत्पन्ना ।"
रागाराथुनाम्लाय शुभचन्द्राय नाभिने ।
लिखाप्य पुस्तकं दत्तमिदं ज्ञानार्णवाभिधम् ।।
"सं० १२८४ वर्षे बैशाखसुदी १० शुक्र गोमंडले दिगम्बरराजकुल-सहस्त्र कोत्तिः तस्यार्थे पं० केशरिसुतवीसलेन लिखितमिति ।
अर्थात् नपुरीमें अरहन्त भगवान्के चरण-कमलोंका भ्रमर, सज्जनोंके हृदय को आनन्द देनेवाला, माथुरसंघरूप समुद्रको उल्लसित करनेवाला भव्यात्मा श्रीनेमचन्द्रनामक परमश्नावक हुआ, जिसकी पत्नीका नाम स्वर्णा था, जो अखिल विज्ञान-कलाओंमें कुशल, सती, पातिव्रत्यादि गुणोंसे भूषित और परम शीलबती थी। धर्म, अर्थ और कामको सेवन करनेवाले इन दोनोंके जाहिणी नामक पुत्री हुई, जो अपने कुलरूप कुमुदवनकी चन्द्ररेखा, निजबंशको वैजयन्ती
और सर्वलक्षणोंसे सुशोभित थी। ___ इसके पश्चात् इस दम्पत्तिके राम और लक्ष्मणके समान गोकर्ण और श्रीचन्द्र नाम दो सुन्दर गुणी और भव्य पुत्र उत्पन्न हुए । अनन्तर नेमिचन्द्रकी वह पुत्री जाहिणी संसारकी विचित्रता और नरजन्मको निष्फलताको जानकर आत्मशुद्धिके लिए प्रेरित हुई। उसने मुनियोंके चरणोंके निकट आर्यिका के व्रत ग्रहण कर लिए और मनकी शुद्धिसे अखण्डित रत्नत्रयको स्वीकार किया। उस विरक्ताने युवावस्थामें ऐसा कठिन तपश्चरण किया, जिससे सभी उसकी प्रशंसा
१. जैन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, पृ० ४४३-४४४ पर उद्धृत
करने लगे। इस जाहिणी आर्यिकाने कर्मोंके क्षय केलिए यह जानागत नामक पुस्तक ध्यान-अध्ययनशाली, तप और शास्त्रके निधान, तत्वोंके ज्ञाता और रागादिरिपुओंको पराजित करनेवाले मल्ल जैसे शुभचन्द्र योगी को लिखाकार दी।
बैशाख सुदी दशमी शुक्रवार वि०सं० १२८४ को गोमण्डल (काठियावाड़) में दिगम्बर राजकुल ( भट्टारक ) सहस्रकीर्ति के लिए पं० केसरीके पुत्र बीसल
ने लिखी।
प्रशस्तिके अध्ययनसे ऐमा ज्ञात होता है कि इस ग्रन्थमें लिपिकर्ताओंकी दो प्रशस्तियाँ हैं। प्रथम प्रशस्तिमें तो लिपिकर्ताका नाम और लिपि करने का समय नहीं दिया है। केवल लिपि करानेवाली जाहिणीका परिचय और जिन्हें प्रति भेंट की गयी है उनका नाम दिया है। श्रीप्रेमोजीका अनुमान है कि आर्यिका जाहिणीने जिस लेखकसे उक्त प्रति लिखायी होगी उसका नाम और समय भी अन्तमें अवश्य दिया गया होगा । परन्तु दूसरे लेखकने उक्त पहली प्रतिका वह अंश अनावश्यक समझकर छोड़ दिया होगा और अपना नाम एवं समय अन्तमें जोड़ दिया होगा | इस दूसरी प्रतिके लेखक पण्डित केसरी के पुत्र बीसल हैं और उन्होंने गोमण्डलमें सहस्रकीतिके लिए इसे लिखा था, जबकि पहली प्रति नृपुरीमें शुभचन्द्र योगीके लिए लिखाकर दी गयी थी।
दूसरी प्रतिका लेखनकाल वि० १२८४ है, तब पहली प्रतिका इससे पहले लेखनकाल रहा होगा। श्री प्रमोजीने यह भी निष्कर्ष निकाला है कि प्रतिका लेखनस्थान नृपुरी ग्वालियरका नरबर सम्भव है। नृपुरसे नरपुर, नरपूरसे नरउर और नरउरसे नरवर का होना सम्भव है। अतः पाटनकी इस प्रतिके आधार पर ज्ञानाणंवकी रचना वि०सं० १२८४के पूर्व अवश्य हुई है। अतएव सोमदेवके पश्चात् और हेमचन्द्रके पूर्व शुभचन्द्रका समय होना चाहिये । हेम चन्द्रके योगशास्त्रपर ज्ञानार्णवका पर्याप्त प्रभाव दिखलायी पड़ता है। कई पद्य तो प्राय: ज्यों के त्यों मिलते-जुलते हैं, दो चार शब्दोंमें ही भिन्नता है। अतएव हमारा अनुमान है कि शुभचन्द्रका समय वि०सं० की ११वीं शतो होना चाहिये । इससे भोज और मुंजकी समकालीनता भी घटित हो जाती है।
शुभचन्द्रको एकमात्र रचना "ज्ञानार्णव" उपलब्ध है। महाकाव्यके समान लेखकने इसके विषयका भी सर्गो में विभाजन किया है। समस्त ग्रन्थ ४२ सर्ग में विभक्त है। ग्रन्धरचयिताने अन्तमैं इस ग्रन्थका महत्व अंकित किया है
इति जिनपतिसूधात्सारमुदत्य किञ्चित्
स्वतिविभवयोग्यं ध्यानशास्त्र प्रणीतम् ।
विबुधमुनिमनीषाम्भोधिचन्द्रायमाणं
चरत भुवि विभूत्यै याबदद्रीन्द्रचन्द्रः ।।
ज्ञानार्णवस्य माहात्म्यं चिते को वेत्ति तत्वत्तः ।
यज्ज्ञानात्तीयते भव्ये दुस्तरोऽपि भवार्णवः ॥
प्रथम सर्गमें ४९ पद्य हैं और महाकाव्य के समान सज्जन-प्रशसा की गयी है। आरम्भक सात पद्य नमस्कारात्मक हैं। वें पद्यमें सत्पुरुषोंकी वाणीकी प्रशंसा की है..
प्रबोधाय विवेकाय हिताय प्रशमाय च ।
सम्यक्तत्वोपदेशाय सत्तां सूक्तिः प्रवर्तते ।।
अर्थात् सत्पुरुषोंकी उत्तम वाणी जीवोंके प्रकृष्टज्ञान, विवेक, हित, प्रशमता और सम्यक प्रकारसे तत्व के उपदेश देने में समर्थ होती है। इसी वाणीसे भेद विज्ञान, ध्यान, तप आदिको सिद्धि होती है। कविने समन्तभद्र, भट्टाकलंक आदिका स्मरण भी किया है। उसने कुशास्त्रके पढ़नेका निषेध किया है और बतलाया है कि मिथ्यात्वका सम्वद्धन करनेवाला शास्त्र स्वाध्याय करने योग्य नहीं है। जिस शास्त्रके अध्ययन करनेसे राग-द्वेष, मोह, क्षीण हो, वही शास्त्र उपादेय है। यह आत्मा महामोहसे कलंकी और मलीन है। अत: जिससे यह शुद्ध हो, वही अपना हित है, वही अपना घर है, वहीं परम ज्योतिका प्रकाश है। इस जगतको भयानक कालरूपी सर्पसे शक्ति देखकर मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचरणके समूह को छोड़ निजस्वरूपके ध्यानमें लवलीन हो जानेवाले धन्य हैं। जिन्होंने इन्द्रियोंकी अधीनताका त्याग कर दिया है, वे ही वास्तविक सुखको प्राप्त होते हैं। संसार-भ्रमणसे विभ्रान्त और मोहरूपी निद्रासे ग्रस्त व्यक्ति अपने वास्तविक ज्ञानको भूल जाता है। जो सत्पुरुष ज्ञानावरण, दर्शना वरण कर्म, मिथ्याज्ञान तथा कषायके विषसे मूच्छित नहीं हैं, वे ही शान्तभावको प्राप्त होते हैं। अनादिकालसे लगी हुई यह कर्म-कालिमा बड़े पुरुषार्थसे दूर की जाती है। अत: यह कर्मकालुष्य जिस उपाय द्वारा दूर किया जा सके, उस उपाय का अवलम्बन लेना चाहिये । मनुष्य-जन्म अत्यन्त दुर्लभ है तथा साधन-सामग्री और भी दुर्लभ है, अतएव विचारशील व्यक्तिको रत्नत्रय और रागद्वेषाभावको प्राप्त करनेका प्रयास करना चाहिये।
द्वितीय सर्गमें १२ भावनाओंका वर्णन आया है। इसमें ७ + ४७ + १९ + १७ + ११ + १२ + १३+९ +१२ + ९ + २३ + ७ +१३ +३ = २०२ पद्य हैं।
१. ज्ञानार्णव, रामचन्द्र शास्त्रमाला, द्वितीय संस्करण, ४२|८७-८८ ।
२. वही, १८ ।
अनित्य भावनामे ४७ पद्य है, इसमें इन्द्रियजन्य सुख और सां सांरिकविभूतिको क्षणविध्वंसी बतलाया है। यह शरीर रोगोंका घर है, यौवन बुढ़ापेसे युक्त है, जीवन विनाशशील है । संसारमें जो भी वैभव प्राप्त हुआ है, वह पुण्यके उदयसे है । पुण्य क्षीण होनेपर सारी सम्पत्ति और सुख विलीन हो जाते हैं। जीव अज्ञानत्तवश ही संसारके सुखोंको वास्तविक समझता है, जो इस क्षणिक जीवन को प्राप्त कर अहंकार करता है या इसके निमित्त विविध प्रकारकी जानकारी का संचय करता है, वह अन्ध व्यक्तिके समान संसारसे उत्तीर्ण होनेका मार्ग प्राप्त नहीं कर पाता है। जिस प्रकार संध्या समय नाना देशोंसे आकर पक्षी एक ही वृक्ष पर एकत्र होते हैं और प्रातःकाल होते ही वे यथास्थान चले जाते है, उसी प्रकार आयुके सद्भावमें पुण्ययोगसे सभी कुटुम्बी एक साथ रहते हैं और आयु के समाप्त होते ही विभिन्न योनियों में जन्म ग्रहण करते हैं। प्रातःकालके समय जिस घर में आनन्दोत्साहके साथ सुन्दर मांगलिक गीत गाये जाते हैं, मध्याह्नके समय उस ही घर मे दुःख के साथ रोदन सुनाई पड़ता है प्रभातकालके समय जहाँ राज्याभिषेककी शोभा देखी जाती है, उसी दिन उस राजाकी चितामे धुआं निकलता हुआ भी दिखलाई पड़ता है। यह संसारकी विचित्रता है। इस प्रकार संसारको अनित्यताका चित्रण करता हुआ कवि कहता है--
गमननगरकल्पं सङ्गम वल्लभानाम्
जलदपटलतुल्यं यौवनं वा धनं वा ।
सुजनसुतशरीरादीनि विद्युच्चलानि
क्षणिकमिति समस्तं विद्धि संसारवृत्तम् ।।
अर्थात्, प्रिय वल्लभाओंका सङ्गम आकाशमें देवोंके द्वारा रचित नगरके समान क्षणविध्वंसी है। यौवन और धन जलदपटलके समान विनाशशील हैं । स्वजन, परिवारके लोग, पुत्र, शरीरादिक विद्युतके समान चञ्चल हैं। इस प्रकार इस जगतकी अवस्था अनित्य है, जो इसमें नित्यबुद्धि करता है, वह भ्रममें है।
इस सर्गकी द्वितीय भावना अशरणभावना है। इसमें १९ पद्य हैं। मरते समय इस जीवका कोई भी शरण नहीं है। जिस प्रकार सिंहके पंजे में फंसे हुए हिरणको कोई भी नहीं बचा सकता है, उसी प्रकार मृत्युसे कोई रक्षा करने वाला नहीं है। अनादिकालसे बड़े-बड़े शक्तिशाली शलाकापुरुष भी काल कलित हुए हैं, तब साधारण व्यक्तियों की बात ही क्या ? मृत्युके लिए न कोई बाल है, न कोई वृद्ध है और न कोई युवा है। वह सभीको समान रूपसे नष्ट करती है। अत: जो इस असार संसारमें रहकर चिरन्तन जीवनकी आकांक्षा
१. ज्ञानार्णव, सर्ग २, अनित्यभावना, पद्य ४७ ।
करता है, वह व्यक्ति भ्रममें है | रुद्र, दिग्गज, देव, दैत्य, विद्याधर, जलदेवता, गृह, व्यन्तर, दिकपाल, नारायण, प्रतिनारायण, बलभद्र, धरणीन्द्र, चक्रवर्ती, पवनदेव, सूर्यादि, ज्योतिषी देव, बलिष्ट देहधारी सब मिलकर भी मृत्युसे एक क्षण भी रक्षा नहीं कर सकते। पाताललोक, ब्रह्मलोक, इन्द्रभवन, समुद्रतट, वन-पर्यंत आदि किसी भी स्थानमे मृत्युसे रक्षा नहीं हो सकती है।।
संसार भावना मे १७ पद्य हैं : इसमें चारो गतियों के प्राणियोंके दुःखोंका वर्णन किया गया है | नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव इन चारों गतियोंमे से किसी भी गतिमें सुख-शान्ति नहीं है। यह जीव संसारमें अनादिकाल से त्रस स्थावर योनियोंम परिभ्रमण करता हुआ समस्त जीवोंके साथ पिता, पुत्र, भ्राता, माता, पुत्री आदि सम्बन्ध अनेक बार प्राप्त करते हैं। ऐसा कोई भी संसारका प्राणी नहीं है, जिसके साथ हमारा कभी-न-कभीका सम्बन्ध न हुआ हो। इस संसारमें प्राणीकी माता मरकर पुत्री हो जाती है और बहन मरकर स्त्री हो जाती है, फिर वही स्त्रो मरकर पुत्री हो जाती है । इसी प्रकार पिता मरकर पुत्र हो जाता है । फिर वहीं मरकर पुत्रका पुत्र हो जाता है । इस प्रकार इस संसार में रागभाबके कारण विभिन्न सम्बन्धोंका सुजन होता है। संसारका कारण अज्ञानभाव है। अज्ञानभावसे परद्रव्यों में मोह तथा राग-द्वेषकी प्रवृत्ति होती है। राग-द्वेषकी प्रवृत्तिसे कर्मबन्ध होता है और कर्मबन्धका फल चारों गतियोंमें परिभ्रमण करना है । यहाँ कार्य और कारण दोनोंको ही संसार बताया है ।
एकल्ल-भावनामें ११ पद्य हैं। निश्चयसे तो आत्मा अनन्तज्ञानादिस्वरूप एक ही है, पर संसारमें जो अनेक अवस्थाएं होती हैं, वे कर्मके निमित्तसे है। उनमें भी आप अकेला ही है, दूसरा कोई साथी नहीं।
अन्यत्व-भावनामें १२ पद्य हैं। यह आत्मा अनादिकालसे परपदार्थोंको अपना मानकर उनमें रमता है। इसी कारणसे संसारमें भ्रमण किया करता है। अतएव परभावोंसे भिन्न अपने चैतन्यभावों में लीन होकर मुक्तिके प्राप्त करनेका प्रयास करना चाहिये । इस लोकमें समस्त द्रव्य अपनी-अपनी सत्ताको लिये भिन्न-भिन्न हैं। कोई भी किसीमें मिलता नहीं है और परस्पर निमित्त मैमित्तिकमावसे कुछ कार्य होता है। उसके भ्रमसे यह प्राणी परमें अहंकार, ममकार करता है। अतएव अपने स्वरूपको अन्य पदार्थोसे भिन्न समझकर निजरूपका अनुभव करनेमें प्रवृत्त होना श्रेयस्कर है !
अशुचि-भावनामें १३ पद्य हैं । आत्मा निर्मल है, अमूर्तिक है । अतएव उसमें किसी प्रकारका मल नहीं लगता है । पर कर्मोके निमित्तसे जो इसके शरीरका सम्बन्ध है उसे यह अज्ञानसे अपना मानकर अपनेको मलरूप समझता है। यह
शरीर सभी प्रकारसे अपवित्रताका घर है कर्पूर, केशर, अगर, कस्तूरी, हरि चन्दनादि सुन्दर पदार्थोंको भी यह शरीर संसर्गमात्रसे अशुद्ध कार देता है। अतएव इस शरीरको अशुद्धि भण्डार समझकर निजात्माकी प्रतीति करना चाहिये।
आस्रव-भावनामें ९ पद्य है। बताया है कि यह आत्मा शुद्ध निश्चयनयकी दष्टिसे तो आस्रवमें रहित केवलज्ञानरूप है, तो भी अनादिकर्मक सम्बन्धसे मिथ्यात्वादिपरिणामरूप परिणमता है। अतएव नवीन कर्मोंका आस्रवकर्ता है । जब उन मिथ्यात्वादिपरिणामोंसे निवृत्ति प्राप्त कर अपने स्वरूपका ध्यान करे, तब कर्मस्त्रवों रहित हो मुक्तिकी ओर अग्रसर होता है।
संवर-भावनामें १२ पद्य है । समस्त कल्पनाओंके जालको छोड़कर अपने स्वरूप में मनको निश्चल करना ही संवर-भावना है। यह आत्मा अनादिकालसे अपने स्वरूपको भूल रही है, इस कारण आस्रव भावो से कर्मको बाँधती है और जब यह अपने स्वरूपको जानकर उसमें लीन होती है, तब यह संवररूप होकर आगामी कर्मबन्धको रोकती है और पूर्व कर्मोंकी निर्जरा होनेपर मुक्त हो जाती है ! संवररने बाहाकारण समिति, गुप्त, धर्मानुप्रेक्षा, परिषह जयोंका अभ्यास करना है।।
निर्जरा -भावनामें ९ पद्य है। इसमें आत्मा और कर्मका सम्बन्ध अनादि कालसे है। काललब्धिके निमित्तसे ग्रह आत्मा जब अपने स्वरूपको सम्हाल तपश्चरण करके ध्यान में लीन हो जाती है तब संचित कर्मोंकी निर्जरा होती है और जब यह आगामी नये कर्म न बाँधे और पुराने कर्मोकी निर्जरा करे तब मोक्षको प्राप्ति होती है।
धर्म-भावनामें २३ पद्म हैं। इसमें आचार्यने धर्मके स्वरूपका और उसके महत्त्वका प्रतिपादन किया है। धर्म चार प्रकारका है--१. वस्तुस्वभावस्वरूप, २. उत्तमक्षमादिदशरूप, ३. रत्नत्रयरूप और ४. दयामयरूप । निश्चयव्यवद्वार नयसे साधन किया हुआ यह धर्म एकरूप तथा अनेकरूप सधता है। व्यव हारनयकी प्रधानतासे धर्मका स्वरूप, महिमा और फल आदिका भी निरूपण किया है।
लोक-भावनामें ७ पद्य है। यह लोक जीवादिक द्रव्योंकी रचना है। जो अपने-अपने स्वभावको लिये हुए भिन्न-भिन्न रूपमें रहते हैं, उनमें एक आत्म द्रव्य भी है। उसका यथार्थस्वरूप रत्नत्रय है। अतएव जो आत्मतत्वकी साधना करना चाहता है उसे समस्त द्रव्योंके यथार्थस्वरूपको समझकर लोकके चिन्तन द्वारा आत्मजागरण करना चाहिये ।
बोधिदुर्लभ-भावनामें १३ पद्य है। इस भावनामें बोधि-रत्नत्रयकी प्राप्ति दुर्लभ बतायी है। अपने निज स्वरूपको जान लेने पर ही मोक्षको प्राप्ति सुलभ होती है। वस्तुत: बोधिको प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ है । बताया है
सुलर्भामह समस्तं वस्तुजातं जगत्या
मुरगसुरनरेन्द्रः प्राथित चाधिपत्यम् ।
कुलबलसुभगत्वोद्दामरामादि चान्यत्
किमुत तदिदमेकं दुर्लभं बोधिरत्नम् ।।'
उपसंहारमें इन भावनाओंके अभ्यासका महत्व बतलाया गया है।
तृतीय सर्गमें ध्यानका स्वरूप वर्णित है । इस सर्ग में ३६ पद्य हैं । इस संसारमें मनुष्यपर्यायका प्राप्त होना काकतालीयन्यायके समान दुर्लभ है। जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थीका अविरोध भावसे सेवन कर मोक्ष पुरुषार्थकी ओर प्रवृत्त होता है, वही आत्माकी सिद्धि करता है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चरित्र ही मुक्ति के कारण है तथा ध्यान रत्नत्रयको सिद्धिका सबल हेतु है । कर्मो का क्षय ध्यानके बिना सम्भव नहीं है। चित्तकी चञ्चलता ध्यानके द्वारा ही दूर की जा सकती है और उपयोगको स्थिर किया जा सकता है। मोह का त्याग ही आत्माके स्वस्थ होनेका कारण है । अज्ञानरूपी महानिद्रा, ध्यान रूपी अमृतके प्राप्त होनेसे ही दूर होती है। कामभोगोंकी आसक्तिको दूर करनेका साधन भी ध्यान ही है। अध्यात्मशास्त्रकी अपेक्षा आत्माके तीन प्रकारके परिणाम होते हैं— शुभ, अशुभ और शुद्ध | ध्यानके द्वारा ही इन तीनों प्रकारके परिणामोंमेंसे शुभ और शुद्ध परिणामोंकी प्राप्ति की जाती है । ___ चतुर्थ सर्गमें भी ध्यानके स्वरूपका वर्णन आया है। इसमें ६२ पद्य हैं । ध्यानके चार भेद बतलाये हैं.-.-आतं, रौद्र, धर्म और शुक्ल | ध्यान करने वाला ध्याता, ध्यान, ध्यानके दर्शन, ज्ञान, चारित्र सहित समस्त अंग, ध्येय तथा ध्येयके गुण-दोष, ध्यानके नाम, ध्यानका समय और ध्यानके फलका वर्णन किया गया है। ध्याताके स्वरूपका विवेचन करते हुए बताया है, जो जितेन्द्रिय है, अप्रमादी है, कष्टसहिष्णु है, संसार से विरक्त है, क्षोभरहित है, शान्त है, ऐसा व्यक्ति ही ध्याता हो सकता है । जो मिथ्यदृष्टि है, संसारके विषयों में आसक्त हैं, वे ध्याता नहीं हो सकते । ध्याताको कान्दी आदि पाँच भावनाओंका भी त्याग करना चाहिये--१. कांदर्यी ( कामचेष्टा ) २. कैल्बिषी (क्लेशकारिणी) ३, आभियोगिकी ( युद्धभावना ) ४. आसुरी ( सर्वक्षिणी) और ५. सम्मो हिनी ( कुटुम्बमोहिनी ) पापरूप इन पांचों भावनाओंका त्याग करना योग्य
१. ज्ञानार्णव द्वितीय सर्ग, बोधिदुर्लभ भावना, पद्य १३ ।
है । ध्याताको हास्य, कौतूहल, कुटिलता, व्यर्थ बकवाद आदि क्रियाओंका भी त्याग करना चाहिये । ध्यानका आशय मनको एकाग्र करना है, चित्तकी चंचलता को रोकना है। जो व्यक्ति ध्यान करनेकी क्षमता नहीं रखते, वे अपनी कर्म कालिमाको दूर करने में असमर्थ रहते हैं।
पञ्चम सर्गमें २९ पद्य हैं। इसमें ध्यान करने वाले योगीश्वरोंकी प्रशंसा की गयी है।
पष्ट सर्गमें ५९ पद्य हैं और इसमें सम्यग्दर्शनका वर्णन आता है । सम्य ग्दर्शन पापरूपी वृक्षको काटने के लिए कुटार है और पवित्र तीर्थोंमें यही प्रधान है। इसमें सप्ततत्त्व, षद्रव्य, नवपदार्थ, पञ्चास्तिकाय आदिका वर्णन आया है।
सप्तम सर्गमें २३ पद्य है और सम्यग्ज्ञानका वर्णन है । अष्टम सर्गमें ५९ पद्य और अहिंसा महाव्रत का वर्णन आया है । इसमेंसामायिक , छेदोपस्थापना परि हारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातिचारित्रका निर्देश आया है। पञ्च महाव्रत पञ्चरामिति और तीन गुप्ति इस प्रकार तेरह प्रकारके चारित्रका कथन किया है। संयमका आधार अहिंमा मदावन है। इसकी प्रशंसा करते हुए लिखा है
अहिसैव जगन्माताऽहिसैवानन्दपद्धतिः
अहिंसेब गतिः साध्वी श्रीरहिसैव शाश्वती ॥
अर्थात्-अहिंसा ही तो जगतकी माता है, क्योंकि समस्त जीवोंकी प्रति पालिका है। अहिंसा ही आनन्दकी सन्तति है। अहिंसा ही उत्तम गति और शाश्वती लक्ष्मी है । जगतमें जितने उत्तमोत्तम गुण हैं वे सब इस अहिंसामें
___ नवम सर्गमें ४२ पद्य हैं और सत्यमहाव्रत का स्वरूप वर्णित है | दशम सर्ग मे २० पद्य हैं और अस्तेयमहाव्रत का स्वरूप निरूपित है। एकादश सर्गमें
४८ पद्य हैं और ब्रह्मचर्य महाव्रत का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है । इसमें शरीर संस्कार, पुष्टरससेवन, गीत, नृत्य, वादित्र श्रवण, स्त्रीसंसर्ग, स्त्रीसंकल्प, स्त्रीअंग निरीक्षण आदि दश प्रकारके मैथुनोंके त्यागका भी वर्णन आया है।
द्वादश सर्गमें ५९ पद्य हैं और ब्रह्मचर्यमहाव्रत के वर्णनसन्दर्भ में स्त्री स्वरूपका विश्लेषण किया है | त्रयोदश सर्गमें २५ पद्य हैं और कामसेवनके दोष दिखलाये गये हैं। चतुर्दश सर्गमें ४५ पद्य हैं और स्त्रीसंसर्गका निषेध किया है। पञ्चदश सर्गमें ४८ पद्य हैं और वृद्ध -सेवाकी प्रशंसा की गयी है।
१. ज्ञानार्णव, सर्ग ८, पद्य ३२ ।
वृद्ध-सेवा करने में कषायरूपी अग्नि शान्त हो जाती है और राग-द्वेषके उपशम से चित्त प्रसन्न होता है । इस सर्गमें सत्संगतिका महत्त्व भी बतलाया गया है ।
षोडप्स सर्गमें ४२ पद्य है और परिग्रहत्यागमहाव्रत का वर्णन आया है। इस सर्गमें २४ प्रकारके परिग्रहों की आसक्तिका दोष दिखलाया गया है । सप्तदश सर्गमें २१ 'पद्यों द्वारा आशाकी निन्दा की गयी है।
१८वें सर्गमें ३९ पद्य हैं और इनमें पञ्चसमितियोंका वर्णन आया है। एकोन्नविश सर्गमें ७७ पद्यों द्वारा कषाय की निन्दा की गयी है—क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चारो कषायें रत्नत्रयगुण को विकृत करती हैं और प्राणी को शान्त नहीं रहने देती । बीसर्व सर्गमें ३८ पद्यों द्वारा इन्द्रियोंको वश करने की प्रशंसा की गयी है । यतः इन्द्रियोंको जोते बिना कषायोंपर विजय नहीं की जा सकती है । अतएव क्रोधादि कषायोंको जीतनेके लिए इन्द्रियविजय आवश्यक है । २१ वें सर्गमें २७ पद्म है और बहुत-सा गद्यांश भी आया है। इसमें त्रित्तत्व का वर्णन है । यह योगका प्रकरण है। इसमें पृथ्वीतत्व, जलतत्व और अग्नितत्व तथा वायुतत्त्वका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। २२ सर्गमें ३५ पद्य हैं
और कुछ गद्यांश भी है। इसमें मनके व्यापारको रोकनेके लिए यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार धारणा ध्यान और समाधि इन आठ सौगोगोंका भी कथन आया है।
२३वे सर्ग ३८ पद्य हैं। इसमें राग-द्वेषको रोकनेका विधान वर्णित है। २४वें सर्गमें ३३ पद्य है और साम्यभावका निरूपण आया है। राग -द्वेष मोहके अभावसे समताभाव उत्पन्न होता है, जिससे तृण, कञ्चन, शत्रु, मित्र, निन्दा, प्रशंसा, वन -नगर, सुख-सुख, जीवन-मरण इत्यादि पदार्थोंमें इष्ट-अनिष्ट बुद्धि
और ममत्व नहीं होता है। २५वें सर्गमें ४३ पद्य हैं और आतंध्यानका विस्तारपूर्वक निरूपण आया है। २६वें सर्गमें ४४ पद्य हैं और रौद्रध्यानका निरूपण किया गया है । रौद्रध्यानके हिंसानन्द, मृषानन्द, चौर्यानन्द और संरक्षणानन्द ये चार भेद बतलाये हैं । २७, सर्गमें ३४ पद्योंमें ध्यानके विरुद्ध स्थानका चित्रण किया गया है। ध्यानको वृद्विगत करनेवाली मैत्री, करुणा, प्रमोद और मध्यस्थ्य इन चारों भावनाओका निरूपण किया गया है तथा ध्यानमें बाधा करनेवाले स्थानों का भी निरूपण किया है। २८वें सर्गमें ४० पद्य हैं और इनमें आसनका विधान किया है। आसनके लिए काष्ठ, शिला, भूमि एवं बालुकामय प्रदेश उपयुक्त बताये गये हैं। ध्यानके योग्य आसनों में पर्यकआसन, अद्धपर्यकआसन, व्रजासन, वीरासन, सुखासन, कमलासन एवं कायोत्सर्ग-आसनकी गणना की है।
२९ सर्गमें १०२ पद्य हैं और प्राणायामका वर्णन है। प्राणायामसे जगतके
शुभाशुभ और भूत-भविष्यत्का भी ज्ञान किया जाता है। मनको वशीभूत' करने से विषय-वासनाएं नष्ट हो जाती हैं और आत्मशक्ति उदबुद्धहो जाती है, जिससे समस्त वस्तुओंका परिज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। ३०वे सर्गमें १४ पद्य हैं । प्रत्याहार और धारणा का इस में वर्णन आया है।।
३१वें सर्ग में ४२ पद्य हैं। इसमें सवीर्यध्यानका वर्णन है । इसमें परमात्माके स्वरूपका भी चित्रण है और साथ ही साकार और निराकार भेदोंका भी निरू पण किया है। ३९ वे सर्गमें १०४ पद्य हैं। शरीर और आत्माके भेद विज्ञानके बिना आत्माका स्वरूप प्राप्त नहीं होता। आत्माके स्वरूपका वर्णन करते हुए लिखा है
निलेपो निष्कल: शुद्धो निष्पन्नोऽत्यन्तनिवृत: ।
निर्विकल्पश्च शुद्धात्मा परमात्मेति वर्णितः ।।
आत्मा कर्मकलङ्कके लेपसे रहित है, शुद्ध है, रागादिविकार से रहित है, निष्पन्न है, सिद्धस्वरूप है, अविनाशी सुखरूप है, निर्विकल्पक है और सभी प्रकारसे शुद्ध है। इस सर्गमें बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्माका वर्णन आया है । जो देह, इन्द्रिय, धन, सम्पत्ति आदि बाह्यवस्तुओंमें आत्म-बुद्धि करता है वह बहिरात्मा है | जो अन्तरङ्गविशुद्ध ज्ञान-दर्शनमयो चेतनामें आत्मबुद्धि करता है और चेतनाके विकार रागादिकभावोंको कर्मजनित हेय जानता है, वह अन्तरात्मा है और वहीं सम्यग्दृष्टि है तथा जो समस्त कर्मोसे रहित केवल ज्ञानादिगुणसहित है, वह परमात्मा है। उस परमात्माका ध्यान अन्तरात्मा होकर करना चाहिए । जो निश्चयनयसे अपने आत्माको ही अनन्तज्ञानादि गुणों की शक्तिसहित जानकर नयके द्वारा युगपत् शक्ति व्यक्तिरूप परोक्षका अपने अनुभवमें साक्षात्कार करता है और शुद्धात्मरूप अपनेको अनुभूतिमें लाता है, वह समस्त कर्मोंका नाश कर स्वयं परमात्मा बन जाता है । ध्यानसे सातिशय अप्रमत्तगुणस्थानश्रेणीका आरोहण करता है और उसीसे शुक्लध्यानको प्राप्त कर कोका नाश कर केवलज्ञान प्राप्त करता है।
३३ वें सर्गमें २२ पद्य हैं और आशाविचय धर्मध्यानका स्वरूप है। ३४ सर्गमें १७ पद्य हैं और अपायविचय धर्मध्यानका स्वरूप वर्णित्त है। ३५वें सर्गम ३१ पद्यों द्वारा विपाकविचय धर्मध्यानका स्वरूप बतलाया गया है। ३६वें सर्गमें १८६ पद्य हैं और संस्थानविषय धर्मध्यानका वर्णन किया गया है संस्थानविचय धर्म-ध्यानके अन्तर्गत लोकसंस्थानका वर्णन आया है। ३७ वें ----
१. ज्ञानार्णव, ३२।८।
सर्गमें ३३ पद्यों द्वारा पिण्डस्थध्यानका वर्णन किया गया है। इसमें पृथ्वी, अग्नि, पवन, जलादिककी कल्पना किस प्रकार करनी चाहिए, इसका भी वर्णन आया है। ३८ वें सर्गमे पदस्थच्यानका वर्णन ११६ पद्यों मे किया गया। इसमें मंत्र पदोंक अभ्यासका भी कथन आया है। मन्त्रपदोंका ध्यान मोक्षका महान उपाय है। इस ध्यान द्वारा अणिमा, महिमा आदि ऋद्धियाँ भी प्राप्त होती हैं।
३९, सर्गमें ४६ पद्यों द्वारा रूपस्थध्यानका वर्णन आया है। रूपस्थध्यानमें अर्हन्त भगवानका ध्यान करना चाहिए । इस सन्दर्भ में अर्हन्तके अतिशय और जन्म-जरा-मरण आदि १८ दोषोंका अभाव भी आचार्य ने आगमप्रमाण द्वारा सर्वज्ञ में सिद्ध किया है। ४०में सर्गमें ३१ पद्यों द्वारा रूपातीतध्यानका वर्णन आया है। जब ध्यानी सिद्धपरमेष्ठीके ध्यानका अभ्यास करके शक्तिकी अपेक्षासे अपने आपको भी उन्हींके समान जानकर अपनेको उनके समान व्यक्त करनेके लिए लीन हो जाता है, उस समय कर्मका नाश होकर सिद्धपदकी प्राप्ति होती है। ४१वें सर्गमें २७ पद्य हैं। इसमें धर्मध्यानके फलका वर्णन किया गया है । ४२ सर्ग मे ८८ पद्य हैं। इसमें शुक्लध्यानका वर्णन किया है । बताया है
अथ धर्मतिकान्तः शुद्धि चात्यन्तिकी थितः ।
ध्यातुमारभते बीरः शुक्लमत्यन्तनिर्मलम् ।।
निष्क्रिय करणातीत ध्यान-धारणजितम् ।
अन्तर्मुखं च यच्चित्तं तच्छवलमिलि पठ्यते ।।
आदिसंहननोपेतः पूर्वज्ञः पुग्यचेष्टितः ।
चतुर्विधमपि ध्यानं स शुक्लं ध्यातुमर्हति ।।
धर्मध्यानके अनन्तर अत्यन्त शुद्धताको प्राप्त हुआ धीर-वीर मुनि निर्मल शुक्ल ध्यानको प्रारम्भ करता है। यह क्रियारहित है, इन्द्रियातीत है ओर ध्यानकी धारणासे रहित है। इसमें चित्त अपने स्वरूपकी ओर संलग्न रहता है, यह ध्यान वजवृषभनाराचसंहनन वालेके, जो ११ अंग और १४ पूर्वोका जाता होता है, शुद्ध चरित्रवाला होता है, उसीको प्राप्त होता है। शुक्लध्यानके पृथकत्ववितर्क; एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, व्युपरत क्रियानिवृत्ति ये चार भेद हैं। इनमेंसे प्रथम दो ध्यान छमस्थ योगीके अर्थात् १२ वे गुणस्थानपर्यन्त अल्पज्ञानियों के भी होते हैं। अन्तके दो शुक्ल ध्यान सर्वथा रागादि दोषोंसे रहित केवलज्ञानियोंके होते हैं। इस प्रकार इस सर्ग में शुक्लध्यानका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है और अन्तमें ज्ञानार्णवका महत्व बतलाते हुए ग्रन्थ समाप्त किया है १. ज्ञानार्णव, ४२॥३-५ ।
ज्ञानार्णवस्य माहात्म्य चिते को देति तत्त्वत: ।
यज्ज्ञानात्तीर्यते भव्य दु स्तरोऽपि भवार्णवः ।।
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री शुभचंद्र |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Shubhchandra11ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री शुभचन्द्र 11वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 27 एप्रिल 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 27-April- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
आचार्य शुभचन्द्रका ज्ञानार्णव या योगप्रदीपनामक ग्रन्थ प्राप्त हैं। ये शुभ चन्द्र किस संघ या गण गच्छ थे और इनकी क्या गुरुपरम्परा थी, इसके सम्बन्ध में कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं होती है । शुभचन्द्र नामके कई आचार्य हुए हैं। एक शुभचन्द्रकी चर्चा श्रवणबेलगोलाके ४३वें संख्यक अभिलेखमें आयो है, जो गण्डविमुक्त मलधारिदेवके शिष्य थे और जिनका स्वर्गवास शक सं० ११८० में हुआ था। द्वितीय शुभचन्द्र देवकीर्ति के शिष्य थे, जिनका स्वर्गवास वि० सं०१२२० में हुआ था और जिनका निर्देश श्रवणबेलगोलाके ३९ वें अभिलेखमें आया है। __विश्वभूषण भट्टारकने 'भक्तामरचरित्र' नामक संस्कृतग्रन्थकी उत्थानिका में शुभचन्द्र और भर्तृहरिकी एक लम्बी कथा दी है, जिसके अनुसार शुभचन्द्र तथा भर्तृहरि उज्जयिनीके राजा सिन्धुलके पुत्र थे और सिन्धुलके पैदा होने के पहले उनके पिता सिंहने मुञ्जको एक मुंजके खेत में पड़े हुए पाकर उसे पाल लिया था । सिंहको बहुत दिनों तक सन्तान न हुई, जिससे वह चिन्तित रहने लगा। एक दिन मन्त्रीने राजाकी चिन्ताको अवगत कर उसे धर्मागवन करनेका परामर्श दिया । राजा सावधान होकर धर्मकृत्योंको सम्पन्न करने लगा। ___ एक दिन वह रानी और मन्त्रियोंक साथ वन-क्रीड़ाके लिए गया और वहाँ मूँज के खेतमें पड़े हुए एक बालकको पाया। उस बालकको देखते ही राजाके हृदय में प्रेमका संचार हुआ और उसने उठा लिया तथा लाकर रानीको दे दिया रानी उस पुत्रको गोदमें बैठाकर अत्यधिक प्रसन्न हुई । मन्त्रीने राजासे निवेदन किया कि नगरमें चलकर रानीको गूढगर्भवती घोषित किया जाये और पुत्रो १. पार्श्वनाधस्तोत्र, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, पद्य १,५,९ ।
त्सव मनाया जाये | मन्त्रीकी सन्मति अनुसार राजाने पुत्रोत्सव सम्पन्न किया ।
सिंहने उस पुत्रका नाम मुञ्ज रखा । मुञ्जने वयस्क होकर थोड़े ही दिनों में सकल शास्त्र और कलाओंका अध्ययन कर लिया। तदनन्तर महाराजने रत्नावती नामक कन्याके साथ उसका विवाह कर दिया | कुछ दिनोंके अनन्तर महाराज सिंहकी रानीने गर्भ धारण किया और दशम महीने में एक पुत्रको जन्म दिया, जिसका नाम सिंहल (सिन्धुराज) रखा गया। इस पुत्रका भी जन्मोत्सव मम्पन्न किया गया तथा वयस्क होनेपर मृगावती नामक राजकन्यासे विवाह कर दिया गया।मृगावती कुछ दिनोमे गर्भवती हुई | शुभ मुहूर्त मे उसने दो पुत्रोंको जन्म दिया, जिनमें ज्योष्ठका नाम शुभचन्द्र और कनिष्ठका नाम भर्तृहरि रखा गया | बचपन से ही इन बालकांना चित्त तत्त्वज्ञानकी ओर विशेष रूपसे आकृष्ट था । अतएव वय प्राप्त होनेपर तत्त्वज्ञान में अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली । एक दिन मेघोंके पटलको परिवर्तित होते हुए देखकर सिंहको वैराग्य हो गया और उसने मुञ्ज एवं सिंहालको राजनीतिसम्बन्धी शिक्षा देकर जिन दीक्षा ग्रहण कर लो । राजा मुञ्जअपने भाईके साथ सुखपूर्वक राज्य करने लगा | एक दिन मुञ्ज वनक्रीड़ासे लौट रहा था कि उसने मार्गमें एक तेलीको कन्धे पर कुदाल रक्खे हुए खड़े देखा, उसे मर्योन्मत्त देखकर मुजने पूछा- इस तरह क्यों खड़े हो ? उसने कहा मैंने एक अपूर्व विद्या सिद्ध की है, जिसके प्रभाव से मुझमे इतनी शक्ति है कि मुझे कोई परास्त नहीं कर सकता । यदि आपको विश्वास न हो, तो अपने किसी सामन्तको मेरे इस लोहदण्डको उखाड़नेका आदेश दीजिए। इतना कहकर उसने लौहदण्ड भूमिमें गाड़ दिया। संकेत पाते ही सभी सामन्त उस लौहदण्डको उखाड़ने में प्रवृत्त हुए, पर किसीसे भी न उखड़ सका । सामन्तोंको इस असमर्थताको देखकर शुभचन्द्र और भर्तृहरिने मुञ्जसे निवेदन किया, कि यदि आदेश हो, तो हम दोनों इस लोहदण्डको उखाड़ सकते हैं। मुञ्जने उन दोनों बालकोंको समझाया, पर जब अधिक आग्रह देखा तो उसने लोहृदण्ड उखाड़नेका आदेश दे दिया । उन दोनोंने चोटीके बालोंका फन्दा लगाकर देखते-देखते एक ही झटके में लौहदण्डको निकाल फेंका | चारों ओरसे धन्य-धन्यकी ध्वनि गूँजउठी । तैली निमंद होकर अपने घर चला गया।
बालकोंके इस अपूर्व बलको देखकर मुञ्ज आश्चर्यचकित हो गया और वह सोचने लगा कि ये बालक अपूर्व शक्तिशाली हैं और जब ये बड़े हो जायेंगे, तो किसी भी क्षण मुझे राज्य-सिंहासनसे च्युत कर देंगे, अतएव इनको किसी उपायसे मृत्युके मुख में पहुँचा देना ही राजनीतिज्ञता है । उसने मन्त्रीको बुला कर अपने विचार प्रकट किये और कहा कि शीघ्र ही इन दोनोंका वध हो जाना
चाहिए । मन्त्रीने राजाको पूर्णतया समझानेका प्रयास किया, पर मुञ्जको मन्त्री की बातें अच्छी नहीं लगीं । फलत: मन्त्री राजाज्ञा स्वीकार कर चला गया । ___ मन्त्रीने एकान्तमें बैठकर उहापोह किया और अन्त में वह इस निष्कर्षपर पहुँचा कि कुमारोंको इस समाचारसे अवगत करा देना चाहिए, अन्यथा बड़ा भारी अनर्थ हो जायगा । उसने शुभचन्द्र और भतृहरिको एकान्त में बुलाया और राजा के विचार कह सुनाये साथ ही यह भी कहा कि आप लोग उज्जयिनी छोड़कर चले जाइये, अन्यथा प्राणरक्षा नहीं हो सकेगी।
राजकुमार अपने पिता सिंहलके पास गये और राजा मुञ्जकी गुप्त मन्त्रणा प्रकट कर दी। सिंहलको मुञ्जकी नीचतापर बड़ा क्रोध आया और उसने पुत्रों से कहा मुञ्ज द्वारा षड्यन्त्र पूरा करने के पहले ही तुम उसे यमराजके यहाँ पहुँचा दो | कुमारोंने बहुत विचार किया और वे संसारसे विरक्त हो वन की ओर चल पड़े। __महामति शुभचन्द्रने किसी वनमें जाकर मुनिराजके समक्ष दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली और तेरह प्रकारके चारित्रका पालन करते हुए घोर तपश्चरण करने लगे । पर भर्तृहरि एक कौल तपस्वीके निकट जाकर उसकी सेवामें सलग्न हो गया | उसने जटाएं बढ़ा ली, तनमें भस्म लगा ली, कमंडलु, चिमटा लेकर, कान्दमूल भक्षणद्वारा उदरपोषण करने लगा । बारह वर्ष तक भर्तृहरिने अनेक विद्याओंकी साधना की । उसने योगी द्वारा शतविद्या और रसतुम्बी प्राप्त की। इस रसके संसर्गसे तांबा सुवर्ण हो जाता था। भर्तृहरिने स्वतन्त्र स्थानमें रस तुम्बीके प्रभाव से अपना महत्त्व प्रकट किया।
एक दिन भर्तृहरिको चिन्ता हुई कि उसका भाई शुभचन्द्र किस स्थितिमें है । अतः उसने अपने एक शिष्यको उसका समाचार जाननेके लिए भेजा। शिष्य जंगलों में घूमता हुआ उस स्थान पर आया, जहाँ शुभचन्द्र तपस्या कर रहे थे। देखा कि उनके शरीरपर अंगुल भर वस्त्र नहीं है और न कमण्डलुके अतिरिक्त अन्य कुछ भी परिग्रह ही है । शिष्य दो दिन निवास कर वहाँसे लौट आया और भर्तृहरिको समस्त समाचार आकर सुना दिया । भर्तृहरिने अपनी तुंबीका आधा रस दूसरी तुंबीमें निकालकर शिष्यको दिया और कहा कि इसे ले जा कर शुभचन्द्रको दे आओ, जिससे उसकी दरिद्रता दूर हो जाय और वह सुख पूर्वक अपना जीवन यापन करे । जब शिष्य रसतुंबी लेकर मुनिराज शुभचन्द्रके समक्ष पहुँचा, तो उन्होंने उसे पत्थरको शिलापर डलवा दिया।
शिष्यने वापस लौटकर भर्तृहरिको रसतुंबीकी घटना सुनायी, तो वे स्वयं भाईकी ममतावश शेष रसतुंबीको लेकर शुभचन्द्रके निकट आये । शुभचन्द्रने
शेष रसको भी पाषाणशिलापर डलवा दिया जिससे भतु हरिको बहुत दुःख हुआ । शुभचन्द्रने भतंहरिको समझाते हुए कहा-भाई, यदि सोना बनाना ही अभीष्ट था तो क्यों घर छोड़ा , घरमें क्या सोना-चाँदी, मणि-माणिक्यकी कमी थी । इन वस्तुओंकी प्राप्ति तो गृहस्थीम सुलभ था। अतः सांसारिक वस्तुओंकी प्राप्तिके लिए इतना प्रयास करना व्यर्थ है।
शुभचन्द्रके उपदेशसे भर्तृहरि भी दीक्षित हो गया । भर्तृहरिको मुनिमार्गमें दृढ़ करने और सच्चे योगका ज्ञान करानेके लिए शुभचन्द्रने योगप्रदीप अथवा ज्ञानार्णवकी रचना की।
उक्त कथामें कितना तथ्यांश है, यह विचारणीय है। कथाके उत्तरार्धमें कालिदास, वरचि, धनञ्जय और मानतुंग सूरिकी समकालीनता बतलायी गयी है । अतः इसमें ऐतिहासिक तथ्योंका अभाव दिखलायी पड़ता है।
'ज्ञानार्णव के प्रारम्भमें समन्तभद्र, देवनन्दि, भट्टाकलंक और जिनसेन का स्मरण किया है। इसमें सबसे अन्तिम जिनसेनस्वामी हैं, जिन्होंने जयधवला टीकाका शेषभाग वि० सं० ८९४ में समाप्त किया था। इससे यह स्पष्ट है कि ज्ञानार्णवकी रचना ही सन् ८३७ के पश्चात् हुई है।
अब विचार यह करना है कि वस्तुतः ज्ञानार्णवके रचयिता शुभचन्द्राचार्य का समय क्या है ? ज्ञानार्णवके गुण-दोषबिचारप्रकरणमें निम्नलिखित तीन पद्य 'उक्तञ्च ग्रन्थान्तरे' कहकर उद्धृत किये गये हैं
ज्ञानहीने क्रिया पूसि पर नारभते फलम् ।
तरोश्छायेव कि लभ्या फलश्रीनष्टहष्टिभिः ।।
ज्ञानं पनी क्रिया चान्धे निःश्रद्धे नार्थकृवयम् ।
ततो ज्ञानं किया श्रद्धा अयं तत्पदकारणम् ।
हतं ज्ञानं क्रियाशुन्य हता चाज्ञानिनः क्रिया।
धावन्नप्यन्धको नष्टः पश्यन्नपि च पङ्गुकः ।।
ये तीनों श्लोक यशस्तिलकचम्पूके छठे आश्वासमे ज्यों के त्यों रूपमें उपलब्ध होते हैं। इनमें प्रथम दो पद्योंके रचयिता तो यशस्तिलकके कर्ता सोमदेव हैं और तृतीय पद्य 'उक्तश्च' कहकर उद्धृत किया गया है। यह तीसरा पद्य कुछ पाठभेदके साथ अकलंकदेवके राजवासिकमें भी पाया जाता है। यशस्तिलककी रचना वि.स. १०१६ (ई. सन् ९५९ ) में हुई है । इसलिए यह सिद्ध हुआ कि जानाणंव ई० सन् ९५९ के पश्चात् लिखा गया है । ज्ञानर्णवमें पुरुषार्थसिद्धषु
१. ज्ञानार्गव, रामचन्द्र शास्त्रमाला, तृतीय संस्करण, सन् १९६१, सर्ग ४, पद्य २७
के आगे ।
गायका भी पद्य मिलता है। अत: शुभचन्द्रका समय अमृतचन्द्राचार्यक पश्चात् है।
'जानार्णव'की एक प्राचीन प्रति पाटणके 'रखेतरवस' नामक श्वेताम्बर जैन भण्डारमें विद्यमान है, जिसका लेखनकाल वैशाख शुक्ला दशमी वि०सं० १२९४ है। श्री नाथूरामजी प्रेमीने इस पाण्डुलिपिकी प्रशस्तिको उद्धृत किया है। प्रशस्तिकी महत्त्वपूर्ण पंक्तियां निम्नलिखित हैं
"इति ज्ञानाणचे योगप्रदीपाधिकारे पंडिताचार्यश्रीशुभचन्द्रविरांचते मोक्ष प्रकरणम् । अस्यां श्रीमनपुर्या श्रीमदहदेवचरणयामलचंचरीकः सुजनजनहृदय परमानन्दनन्दलीवान्दः श्रीमाथरान्वयसमुद्रचन्द्रायमानो भन्यात्मा परमश्रावक: श्रीनेमिचन्द्रो नामा भूतः। तस्याखिल-विज्ञानकलाकौशल-शालिनी सती पतिव्रतादि गुणगगालंकारभूषितशरीरा निजमनोवृत्तिरिवायभिचारिणी स्वर्णानाम धर्मपत्नी संजाता । अथ तयोः समासादितधर्मार्थकामफलयोः स्वकुलकुमदवनचन्द्रलेखा निजवंश-वैजयन्ती सर्वलक्षणालंकृतशरीरा जाहिणि-नाम-पुत्रिका समुत्पन्ना ।"
रागाराथुनाम्लाय शुभचन्द्राय नाभिने ।
लिखाप्य पुस्तकं दत्तमिदं ज्ञानार्णवाभिधम् ।।
"सं० १२८४ वर्षे बैशाखसुदी १० शुक्र गोमंडले दिगम्बरराजकुल-सहस्त्र कोत्तिः तस्यार्थे पं० केशरिसुतवीसलेन लिखितमिति ।
अर्थात् नपुरीमें अरहन्त भगवान्के चरण-कमलोंका भ्रमर, सज्जनोंके हृदय को आनन्द देनेवाला, माथुरसंघरूप समुद्रको उल्लसित करनेवाला भव्यात्मा श्रीनेमचन्द्रनामक परमश्नावक हुआ, जिसकी पत्नीका नाम स्वर्णा था, जो अखिल विज्ञान-कलाओंमें कुशल, सती, पातिव्रत्यादि गुणोंसे भूषित और परम शीलबती थी। धर्म, अर्थ और कामको सेवन करनेवाले इन दोनोंके जाहिणी नामक पुत्री हुई, जो अपने कुलरूप कुमुदवनकी चन्द्ररेखा, निजबंशको वैजयन्ती
और सर्वलक्षणोंसे सुशोभित थी। ___ इसके पश्चात् इस दम्पत्तिके राम और लक्ष्मणके समान गोकर्ण और श्रीचन्द्र नाम दो सुन्दर गुणी और भव्य पुत्र उत्पन्न हुए । अनन्तर नेमिचन्द्रकी वह पुत्री जाहिणी संसारकी विचित्रता और नरजन्मको निष्फलताको जानकर आत्मशुद्धिके लिए प्रेरित हुई। उसने मुनियोंके चरणोंके निकट आर्यिका के व्रत ग्रहण कर लिए और मनकी शुद्धिसे अखण्डित रत्नत्रयको स्वीकार किया। उस विरक्ताने युवावस्थामें ऐसा कठिन तपश्चरण किया, जिससे सभी उसकी प्रशंसा
१. जैन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, पृ० ४४३-४४४ पर उद्धृत
करने लगे। इस जाहिणी आर्यिकाने कर्मोंके क्षय केलिए यह जानागत नामक पुस्तक ध्यान-अध्ययनशाली, तप और शास्त्रके निधान, तत्वोंके ज्ञाता और रागादिरिपुओंको पराजित करनेवाले मल्ल जैसे शुभचन्द्र योगी को लिखाकार दी।
बैशाख सुदी दशमी शुक्रवार वि०सं० १२८४ को गोमण्डल (काठियावाड़) में दिगम्बर राजकुल ( भट्टारक ) सहस्रकीर्ति के लिए पं० केसरीके पुत्र बीसल
ने लिखी।
प्रशस्तिके अध्ययनसे ऐमा ज्ञात होता है कि इस ग्रन्थमें लिपिकर्ताओंकी दो प्रशस्तियाँ हैं। प्रथम प्रशस्तिमें तो लिपिकर्ताका नाम और लिपि करने का समय नहीं दिया है। केवल लिपि करानेवाली जाहिणीका परिचय और जिन्हें प्रति भेंट की गयी है उनका नाम दिया है। श्रीप्रेमोजीका अनुमान है कि आर्यिका जाहिणीने जिस लेखकसे उक्त प्रति लिखायी होगी उसका नाम और समय भी अन्तमें अवश्य दिया गया होगा । परन्तु दूसरे लेखकने उक्त पहली प्रतिका वह अंश अनावश्यक समझकर छोड़ दिया होगा और अपना नाम एवं समय अन्तमें जोड़ दिया होगा | इस दूसरी प्रतिके लेखक पण्डित केसरी के पुत्र बीसल हैं और उन्होंने गोमण्डलमें सहस्रकीतिके लिए इसे लिखा था, जबकि पहली प्रति नृपुरीमें शुभचन्द्र योगीके लिए लिखाकर दी गयी थी।
दूसरी प्रतिका लेखनकाल वि० १२८४ है, तब पहली प्रतिका इससे पहले लेखनकाल रहा होगा। श्री प्रमोजीने यह भी निष्कर्ष निकाला है कि प्रतिका लेखनस्थान नृपुरी ग्वालियरका नरबर सम्भव है। नृपुरसे नरपुर, नरपूरसे नरउर और नरउरसे नरवर का होना सम्भव है। अतः पाटनकी इस प्रतिके आधार पर ज्ञानाणंवकी रचना वि०सं० १२८४के पूर्व अवश्य हुई है। अतएव सोमदेवके पश्चात् और हेमचन्द्रके पूर्व शुभचन्द्रका समय होना चाहिये । हेम चन्द्रके योगशास्त्रपर ज्ञानार्णवका पर्याप्त प्रभाव दिखलायी पड़ता है। कई पद्य तो प्राय: ज्यों के त्यों मिलते-जुलते हैं, दो चार शब्दोंमें ही भिन्नता है। अतएव हमारा अनुमान है कि शुभचन्द्रका समय वि०सं० की ११वीं शतो होना चाहिये । इससे भोज और मुंजकी समकालीनता भी घटित हो जाती है।
शुभचन्द्रको एकमात्र रचना "ज्ञानार्णव" उपलब्ध है। महाकाव्यके समान लेखकने इसके विषयका भी सर्गो में विभाजन किया है। समस्त ग्रन्थ ४२ सर्ग में विभक्त है। ग्रन्धरचयिताने अन्तमैं इस ग्रन्थका महत्व अंकित किया है
इति जिनपतिसूधात्सारमुदत्य किञ्चित्
स्वतिविभवयोग्यं ध्यानशास्त्र प्रणीतम् ।
विबुधमुनिमनीषाम्भोधिचन्द्रायमाणं
चरत भुवि विभूत्यै याबदद्रीन्द्रचन्द्रः ।।
ज्ञानार्णवस्य माहात्म्यं चिते को वेत्ति तत्वत्तः ।
यज्ज्ञानात्तीयते भव्ये दुस्तरोऽपि भवार्णवः ॥
प्रथम सर्गमें ४९ पद्य हैं और महाकाव्य के समान सज्जन-प्रशसा की गयी है। आरम्भक सात पद्य नमस्कारात्मक हैं। वें पद्यमें सत्पुरुषोंकी वाणीकी प्रशंसा की है..
प्रबोधाय विवेकाय हिताय प्रशमाय च ।
सम्यक्तत्वोपदेशाय सत्तां सूक्तिः प्रवर्तते ।।
अर्थात् सत्पुरुषोंकी उत्तम वाणी जीवोंके प्रकृष्टज्ञान, विवेक, हित, प्रशमता और सम्यक प्रकारसे तत्व के उपदेश देने में समर्थ होती है। इसी वाणीसे भेद विज्ञान, ध्यान, तप आदिको सिद्धि होती है। कविने समन्तभद्र, भट्टाकलंक आदिका स्मरण भी किया है। उसने कुशास्त्रके पढ़नेका निषेध किया है और बतलाया है कि मिथ्यात्वका सम्वद्धन करनेवाला शास्त्र स्वाध्याय करने योग्य नहीं है। जिस शास्त्रके अध्ययन करनेसे राग-द्वेष, मोह, क्षीण हो, वही शास्त्र उपादेय है। यह आत्मा महामोहसे कलंकी और मलीन है। अत: जिससे यह शुद्ध हो, वही अपना हित है, वही अपना घर है, वहीं परम ज्योतिका प्रकाश है। इस जगतको भयानक कालरूपी सर्पसे शक्ति देखकर मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचरणके समूह को छोड़ निजस्वरूपके ध्यानमें लवलीन हो जानेवाले धन्य हैं। जिन्होंने इन्द्रियोंकी अधीनताका त्याग कर दिया है, वे ही वास्तविक सुखको प्राप्त होते हैं। संसार-भ्रमणसे विभ्रान्त और मोहरूपी निद्रासे ग्रस्त व्यक्ति अपने वास्तविक ज्ञानको भूल जाता है। जो सत्पुरुष ज्ञानावरण, दर्शना वरण कर्म, मिथ्याज्ञान तथा कषायके विषसे मूच्छित नहीं हैं, वे ही शान्तभावको प्राप्त होते हैं। अनादिकालसे लगी हुई यह कर्म-कालिमा बड़े पुरुषार्थसे दूर की जाती है। अत: यह कर्मकालुष्य जिस उपाय द्वारा दूर किया जा सके, उस उपाय का अवलम्बन लेना चाहिये । मनुष्य-जन्म अत्यन्त दुर्लभ है तथा साधन-सामग्री और भी दुर्लभ है, अतएव विचारशील व्यक्तिको रत्नत्रय और रागद्वेषाभावको प्राप्त करनेका प्रयास करना चाहिये।
द्वितीय सर्गमें १२ भावनाओंका वर्णन आया है। इसमें ७ + ४७ + १९ + १७ + ११ + १२ + १३+९ +१२ + ९ + २३ + ७ +१३ +३ = २०२ पद्य हैं।
१. ज्ञानार्णव, रामचन्द्र शास्त्रमाला, द्वितीय संस्करण, ४२|८७-८८ ।
२. वही, १८ ।
अनित्य भावनामे ४७ पद्य है, इसमें इन्द्रियजन्य सुख और सां सांरिकविभूतिको क्षणविध्वंसी बतलाया है। यह शरीर रोगोंका घर है, यौवन बुढ़ापेसे युक्त है, जीवन विनाशशील है । संसारमें जो भी वैभव प्राप्त हुआ है, वह पुण्यके उदयसे है । पुण्य क्षीण होनेपर सारी सम्पत्ति और सुख विलीन हो जाते हैं। जीव अज्ञानत्तवश ही संसारके सुखोंको वास्तविक समझता है, जो इस क्षणिक जीवन को प्राप्त कर अहंकार करता है या इसके निमित्त विविध प्रकारकी जानकारी का संचय करता है, वह अन्ध व्यक्तिके समान संसारसे उत्तीर्ण होनेका मार्ग प्राप्त नहीं कर पाता है। जिस प्रकार संध्या समय नाना देशोंसे आकर पक्षी एक ही वृक्ष पर एकत्र होते हैं और प्रातःकाल होते ही वे यथास्थान चले जाते है, उसी प्रकार आयुके सद्भावमें पुण्ययोगसे सभी कुटुम्बी एक साथ रहते हैं और आयु के समाप्त होते ही विभिन्न योनियों में जन्म ग्रहण करते हैं। प्रातःकालके समय जिस घर में आनन्दोत्साहके साथ सुन्दर मांगलिक गीत गाये जाते हैं, मध्याह्नके समय उस ही घर मे दुःख के साथ रोदन सुनाई पड़ता है प्रभातकालके समय जहाँ राज्याभिषेककी शोभा देखी जाती है, उसी दिन उस राजाकी चितामे धुआं निकलता हुआ भी दिखलाई पड़ता है। यह संसारकी विचित्रता है। इस प्रकार संसारको अनित्यताका चित्रण करता हुआ कवि कहता है--
गमननगरकल्पं सङ्गम वल्लभानाम्
जलदपटलतुल्यं यौवनं वा धनं वा ।
सुजनसुतशरीरादीनि विद्युच्चलानि
क्षणिकमिति समस्तं विद्धि संसारवृत्तम् ।।
अर्थात्, प्रिय वल्लभाओंका सङ्गम आकाशमें देवोंके द्वारा रचित नगरके समान क्षणविध्वंसी है। यौवन और धन जलदपटलके समान विनाशशील हैं । स्वजन, परिवारके लोग, पुत्र, शरीरादिक विद्युतके समान चञ्चल हैं। इस प्रकार इस जगतकी अवस्था अनित्य है, जो इसमें नित्यबुद्धि करता है, वह भ्रममें है।
इस सर्गकी द्वितीय भावना अशरणभावना है। इसमें १९ पद्य हैं। मरते समय इस जीवका कोई भी शरण नहीं है। जिस प्रकार सिंहके पंजे में फंसे हुए हिरणको कोई भी नहीं बचा सकता है, उसी प्रकार मृत्युसे कोई रक्षा करने वाला नहीं है। अनादिकालसे बड़े-बड़े शक्तिशाली शलाकापुरुष भी काल कलित हुए हैं, तब साधारण व्यक्तियों की बात ही क्या ? मृत्युके लिए न कोई बाल है, न कोई वृद्ध है और न कोई युवा है। वह सभीको समान रूपसे नष्ट करती है। अत: जो इस असार संसारमें रहकर चिरन्तन जीवनकी आकांक्षा
१. ज्ञानार्णव, सर्ग २, अनित्यभावना, पद्य ४७ ।
करता है, वह व्यक्ति भ्रममें है | रुद्र, दिग्गज, देव, दैत्य, विद्याधर, जलदेवता, गृह, व्यन्तर, दिकपाल, नारायण, प्रतिनारायण, बलभद्र, धरणीन्द्र, चक्रवर्ती, पवनदेव, सूर्यादि, ज्योतिषी देव, बलिष्ट देहधारी सब मिलकर भी मृत्युसे एक क्षण भी रक्षा नहीं कर सकते। पाताललोक, ब्रह्मलोक, इन्द्रभवन, समुद्रतट, वन-पर्यंत आदि किसी भी स्थानमे मृत्युसे रक्षा नहीं हो सकती है।।
संसार भावना मे १७ पद्य हैं : इसमें चारो गतियों के प्राणियोंके दुःखोंका वर्णन किया गया है | नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव इन चारों गतियोंमे से किसी भी गतिमें सुख-शान्ति नहीं है। यह जीव संसारमें अनादिकाल से त्रस स्थावर योनियोंम परिभ्रमण करता हुआ समस्त जीवोंके साथ पिता, पुत्र, भ्राता, माता, पुत्री आदि सम्बन्ध अनेक बार प्राप्त करते हैं। ऐसा कोई भी संसारका प्राणी नहीं है, जिसके साथ हमारा कभी-न-कभीका सम्बन्ध न हुआ हो। इस संसारमें प्राणीकी माता मरकर पुत्री हो जाती है और बहन मरकर स्त्री हो जाती है, फिर वही स्त्रो मरकर पुत्री हो जाती है । इसी प्रकार पिता मरकर पुत्र हो जाता है । फिर वहीं मरकर पुत्रका पुत्र हो जाता है । इस प्रकार इस संसार में रागभाबके कारण विभिन्न सम्बन्धोंका सुजन होता है। संसारका कारण अज्ञानभाव है। अज्ञानभावसे परद्रव्यों में मोह तथा राग-द्वेषकी प्रवृत्ति होती है। राग-द्वेषकी प्रवृत्तिसे कर्मबन्ध होता है और कर्मबन्धका फल चारों गतियोंमें परिभ्रमण करना है । यहाँ कार्य और कारण दोनोंको ही संसार बताया है ।
एकल्ल-भावनामें ११ पद्य हैं। निश्चयसे तो आत्मा अनन्तज्ञानादिस्वरूप एक ही है, पर संसारमें जो अनेक अवस्थाएं होती हैं, वे कर्मके निमित्तसे है। उनमें भी आप अकेला ही है, दूसरा कोई साथी नहीं।
अन्यत्व-भावनामें १२ पद्य हैं। यह आत्मा अनादिकालसे परपदार्थोंको अपना मानकर उनमें रमता है। इसी कारणसे संसारमें भ्रमण किया करता है। अतएव परभावोंसे भिन्न अपने चैतन्यभावों में लीन होकर मुक्तिके प्राप्त करनेका प्रयास करना चाहिये । इस लोकमें समस्त द्रव्य अपनी-अपनी सत्ताको लिये भिन्न-भिन्न हैं। कोई भी किसीमें मिलता नहीं है और परस्पर निमित्त मैमित्तिकमावसे कुछ कार्य होता है। उसके भ्रमसे यह प्राणी परमें अहंकार, ममकार करता है। अतएव अपने स्वरूपको अन्य पदार्थोसे भिन्न समझकर निजरूपका अनुभव करनेमें प्रवृत्त होना श्रेयस्कर है !
अशुचि-भावनामें १३ पद्य हैं । आत्मा निर्मल है, अमूर्तिक है । अतएव उसमें किसी प्रकारका मल नहीं लगता है । पर कर्मोके निमित्तसे जो इसके शरीरका सम्बन्ध है उसे यह अज्ञानसे अपना मानकर अपनेको मलरूप समझता है। यह
शरीर सभी प्रकारसे अपवित्रताका घर है कर्पूर, केशर, अगर, कस्तूरी, हरि चन्दनादि सुन्दर पदार्थोंको भी यह शरीर संसर्गमात्रसे अशुद्ध कार देता है। अतएव इस शरीरको अशुद्धि भण्डार समझकर निजात्माकी प्रतीति करना चाहिये।
आस्रव-भावनामें ९ पद्य है। बताया है कि यह आत्मा शुद्ध निश्चयनयकी दष्टिसे तो आस्रवमें रहित केवलज्ञानरूप है, तो भी अनादिकर्मक सम्बन्धसे मिथ्यात्वादिपरिणामरूप परिणमता है। अतएव नवीन कर्मोंका आस्रवकर्ता है । जब उन मिथ्यात्वादिपरिणामोंसे निवृत्ति प्राप्त कर अपने स्वरूपका ध्यान करे, तब कर्मस्त्रवों रहित हो मुक्तिकी ओर अग्रसर होता है।
संवर-भावनामें १२ पद्य है । समस्त कल्पनाओंके जालको छोड़कर अपने स्वरूप में मनको निश्चल करना ही संवर-भावना है। यह आत्मा अनादिकालसे अपने स्वरूपको भूल रही है, इस कारण आस्रव भावो से कर्मको बाँधती है और जब यह अपने स्वरूपको जानकर उसमें लीन होती है, तब यह संवररूप होकर आगामी कर्मबन्धको रोकती है और पूर्व कर्मोंकी निर्जरा होनेपर मुक्त हो जाती है ! संवररने बाहाकारण समिति, गुप्त, धर्मानुप्रेक्षा, परिषह जयोंका अभ्यास करना है।।
निर्जरा -भावनामें ९ पद्य है। इसमें आत्मा और कर्मका सम्बन्ध अनादि कालसे है। काललब्धिके निमित्तसे ग्रह आत्मा जब अपने स्वरूपको सम्हाल तपश्चरण करके ध्यान में लीन हो जाती है तब संचित कर्मोंकी निर्जरा होती है और जब यह आगामी नये कर्म न बाँधे और पुराने कर्मोकी निर्जरा करे तब मोक्षको प्राप्ति होती है।
धर्म-भावनामें २३ पद्म हैं। इसमें आचार्यने धर्मके स्वरूपका और उसके महत्त्वका प्रतिपादन किया है। धर्म चार प्रकारका है--१. वस्तुस्वभावस्वरूप, २. उत्तमक्षमादिदशरूप, ३. रत्नत्रयरूप और ४. दयामयरूप । निश्चयव्यवद्वार नयसे साधन किया हुआ यह धर्म एकरूप तथा अनेकरूप सधता है। व्यव हारनयकी प्रधानतासे धर्मका स्वरूप, महिमा और फल आदिका भी निरूपण किया है।
लोक-भावनामें ७ पद्य है। यह लोक जीवादिक द्रव्योंकी रचना है। जो अपने-अपने स्वभावको लिये हुए भिन्न-भिन्न रूपमें रहते हैं, उनमें एक आत्म द्रव्य भी है। उसका यथार्थस्वरूप रत्नत्रय है। अतएव जो आत्मतत्वकी साधना करना चाहता है उसे समस्त द्रव्योंके यथार्थस्वरूपको समझकर लोकके चिन्तन द्वारा आत्मजागरण करना चाहिये ।
बोधिदुर्लभ-भावनामें १३ पद्य है। इस भावनामें बोधि-रत्नत्रयकी प्राप्ति दुर्लभ बतायी है। अपने निज स्वरूपको जान लेने पर ही मोक्षको प्राप्ति सुलभ होती है। वस्तुत: बोधिको प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ है । बताया है
सुलर्भामह समस्तं वस्तुजातं जगत्या
मुरगसुरनरेन्द्रः प्राथित चाधिपत्यम् ।
कुलबलसुभगत्वोद्दामरामादि चान्यत्
किमुत तदिदमेकं दुर्लभं बोधिरत्नम् ।।'
उपसंहारमें इन भावनाओंके अभ्यासका महत्व बतलाया गया है।
तृतीय सर्गमें ध्यानका स्वरूप वर्णित है । इस सर्ग में ३६ पद्य हैं । इस संसारमें मनुष्यपर्यायका प्राप्त होना काकतालीयन्यायके समान दुर्लभ है। जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थीका अविरोध भावसे सेवन कर मोक्ष पुरुषार्थकी ओर प्रवृत्त होता है, वही आत्माकी सिद्धि करता है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चरित्र ही मुक्ति के कारण है तथा ध्यान रत्नत्रयको सिद्धिका सबल हेतु है । कर्मो का क्षय ध्यानके बिना सम्भव नहीं है। चित्तकी चञ्चलता ध्यानके द्वारा ही दूर की जा सकती है और उपयोगको स्थिर किया जा सकता है। मोह का त्याग ही आत्माके स्वस्थ होनेका कारण है । अज्ञानरूपी महानिद्रा, ध्यान रूपी अमृतके प्राप्त होनेसे ही दूर होती है। कामभोगोंकी आसक्तिको दूर करनेका साधन भी ध्यान ही है। अध्यात्मशास्त्रकी अपेक्षा आत्माके तीन प्रकारके परिणाम होते हैं— शुभ, अशुभ और शुद्ध | ध्यानके द्वारा ही इन तीनों प्रकारके परिणामोंमेंसे शुभ और शुद्ध परिणामोंकी प्राप्ति की जाती है । ___ चतुर्थ सर्गमें भी ध्यानके स्वरूपका वर्णन आया है। इसमें ६२ पद्य हैं । ध्यानके चार भेद बतलाये हैं.-.-आतं, रौद्र, धर्म और शुक्ल | ध्यान करने वाला ध्याता, ध्यान, ध्यानके दर्शन, ज्ञान, चारित्र सहित समस्त अंग, ध्येय तथा ध्येयके गुण-दोष, ध्यानके नाम, ध्यानका समय और ध्यानके फलका वर्णन किया गया है। ध्याताके स्वरूपका विवेचन करते हुए बताया है, जो जितेन्द्रिय है, अप्रमादी है, कष्टसहिष्णु है, संसार से विरक्त है, क्षोभरहित है, शान्त है, ऐसा व्यक्ति ही ध्याता हो सकता है । जो मिथ्यदृष्टि है, संसारके विषयों में आसक्त हैं, वे ध्याता नहीं हो सकते । ध्याताको कान्दी आदि पाँच भावनाओंका भी त्याग करना चाहिये--१. कांदर्यी ( कामचेष्टा ) २. कैल्बिषी (क्लेशकारिणी) ३, आभियोगिकी ( युद्धभावना ) ४. आसुरी ( सर्वक्षिणी) और ५. सम्मो हिनी ( कुटुम्बमोहिनी ) पापरूप इन पांचों भावनाओंका त्याग करना योग्य
१. ज्ञानार्णव द्वितीय सर्ग, बोधिदुर्लभ भावना, पद्य १३ ।
है । ध्याताको हास्य, कौतूहल, कुटिलता, व्यर्थ बकवाद आदि क्रियाओंका भी त्याग करना चाहिये । ध्यानका आशय मनको एकाग्र करना है, चित्तकी चंचलता को रोकना है। जो व्यक्ति ध्यान करनेकी क्षमता नहीं रखते, वे अपनी कर्म कालिमाको दूर करने में असमर्थ रहते हैं।
पञ्चम सर्गमें २९ पद्य हैं। इसमें ध्यान करने वाले योगीश्वरोंकी प्रशंसा की गयी है।
पष्ट सर्गमें ५९ पद्य हैं और इसमें सम्यग्दर्शनका वर्णन आता है । सम्य ग्दर्शन पापरूपी वृक्षको काटने के लिए कुटार है और पवित्र तीर्थोंमें यही प्रधान है। इसमें सप्ततत्त्व, षद्रव्य, नवपदार्थ, पञ्चास्तिकाय आदिका वर्णन आया है।
सप्तम सर्गमें २३ पद्य है और सम्यग्ज्ञानका वर्णन है । अष्टम सर्गमें ५९ पद्य और अहिंसा महाव्रत का वर्णन आया है । इसमेंसामायिक , छेदोपस्थापना परि हारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातिचारित्रका निर्देश आया है। पञ्च महाव्रत पञ्चरामिति और तीन गुप्ति इस प्रकार तेरह प्रकारके चारित्रका कथन किया है। संयमका आधार अहिंमा मदावन है। इसकी प्रशंसा करते हुए लिखा है
अहिसैव जगन्माताऽहिसैवानन्दपद्धतिः
अहिंसेब गतिः साध्वी श्रीरहिसैव शाश्वती ॥
अर्थात्-अहिंसा ही तो जगतकी माता है, क्योंकि समस्त जीवोंकी प्रति पालिका है। अहिंसा ही आनन्दकी सन्तति है। अहिंसा ही उत्तम गति और शाश्वती लक्ष्मी है । जगतमें जितने उत्तमोत्तम गुण हैं वे सब इस अहिंसामें
___ नवम सर्गमें ४२ पद्य हैं और सत्यमहाव्रत का स्वरूप वर्णित है | दशम सर्ग मे २० पद्य हैं और अस्तेयमहाव्रत का स्वरूप निरूपित है। एकादश सर्गमें
४८ पद्य हैं और ब्रह्मचर्य महाव्रत का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है । इसमें शरीर संस्कार, पुष्टरससेवन, गीत, नृत्य, वादित्र श्रवण, स्त्रीसंसर्ग, स्त्रीसंकल्प, स्त्रीअंग निरीक्षण आदि दश प्रकारके मैथुनोंके त्यागका भी वर्णन आया है।
द्वादश सर्गमें ५९ पद्य हैं और ब्रह्मचर्यमहाव्रत के वर्णनसन्दर्भ में स्त्री स्वरूपका विश्लेषण किया है | त्रयोदश सर्गमें २५ पद्य हैं और कामसेवनके दोष दिखलाये गये हैं। चतुर्दश सर्गमें ४५ पद्य हैं और स्त्रीसंसर्गका निषेध किया है। पञ्चदश सर्गमें ४८ पद्य हैं और वृद्ध -सेवाकी प्रशंसा की गयी है।
१. ज्ञानार्णव, सर्ग ८, पद्य ३२ ।
वृद्ध-सेवा करने में कषायरूपी अग्नि शान्त हो जाती है और राग-द्वेषके उपशम से चित्त प्रसन्न होता है । इस सर्गमें सत्संगतिका महत्त्व भी बतलाया गया है ।
षोडप्स सर्गमें ४२ पद्य है और परिग्रहत्यागमहाव्रत का वर्णन आया है। इस सर्गमें २४ प्रकारके परिग्रहों की आसक्तिका दोष दिखलाया गया है । सप्तदश सर्गमें २१ 'पद्यों द्वारा आशाकी निन्दा की गयी है।
१८वें सर्गमें ३९ पद्य हैं और इनमें पञ्चसमितियोंका वर्णन आया है। एकोन्नविश सर्गमें ७७ पद्यों द्वारा कषाय की निन्दा की गयी है—क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चारो कषायें रत्नत्रयगुण को विकृत करती हैं और प्राणी को शान्त नहीं रहने देती । बीसर्व सर्गमें ३८ पद्यों द्वारा इन्द्रियोंको वश करने की प्रशंसा की गयी है । यतः इन्द्रियोंको जोते बिना कषायोंपर विजय नहीं की जा सकती है । अतएव क्रोधादि कषायोंको जीतनेके लिए इन्द्रियविजय आवश्यक है । २१ वें सर्गमें २७ पद्म है और बहुत-सा गद्यांश भी आया है। इसमें त्रित्तत्व का वर्णन है । यह योगका प्रकरण है। इसमें पृथ्वीतत्व, जलतत्व और अग्नितत्व तथा वायुतत्त्वका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। २२ सर्गमें ३५ पद्य हैं
और कुछ गद्यांश भी है। इसमें मनके व्यापारको रोकनेके लिए यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार धारणा ध्यान और समाधि इन आठ सौगोगोंका भी कथन आया है।
२३वे सर्ग ३८ पद्य हैं। इसमें राग-द्वेषको रोकनेका विधान वर्णित है। २४वें सर्गमें ३३ पद्य है और साम्यभावका निरूपण आया है। राग -द्वेष मोहके अभावसे समताभाव उत्पन्न होता है, जिससे तृण, कञ्चन, शत्रु, मित्र, निन्दा, प्रशंसा, वन -नगर, सुख-सुख, जीवन-मरण इत्यादि पदार्थोंमें इष्ट-अनिष्ट बुद्धि
और ममत्व नहीं होता है। २५वें सर्गमें ४३ पद्य हैं और आतंध्यानका विस्तारपूर्वक निरूपण आया है। २६वें सर्गमें ४४ पद्य हैं और रौद्रध्यानका निरूपण किया गया है । रौद्रध्यानके हिंसानन्द, मृषानन्द, चौर्यानन्द और संरक्षणानन्द ये चार भेद बतलाये हैं । २७, सर्गमें ३४ पद्योंमें ध्यानके विरुद्ध स्थानका चित्रण किया गया है। ध्यानको वृद्विगत करनेवाली मैत्री, करुणा, प्रमोद और मध्यस्थ्य इन चारों भावनाओका निरूपण किया गया है तथा ध्यानमें बाधा करनेवाले स्थानों का भी निरूपण किया है। २८वें सर्गमें ४० पद्य हैं और इनमें आसनका विधान किया है। आसनके लिए काष्ठ, शिला, भूमि एवं बालुकामय प्रदेश उपयुक्त बताये गये हैं। ध्यानके योग्य आसनों में पर्यकआसन, अद्धपर्यकआसन, व्रजासन, वीरासन, सुखासन, कमलासन एवं कायोत्सर्ग-आसनकी गणना की है।
२९ सर्गमें १०२ पद्य हैं और प्राणायामका वर्णन है। प्राणायामसे जगतके
शुभाशुभ और भूत-भविष्यत्का भी ज्ञान किया जाता है। मनको वशीभूत' करने से विषय-वासनाएं नष्ट हो जाती हैं और आत्मशक्ति उदबुद्धहो जाती है, जिससे समस्त वस्तुओंका परिज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। ३०वे सर्गमें १४ पद्य हैं । प्रत्याहार और धारणा का इस में वर्णन आया है।।
३१वें सर्ग में ४२ पद्य हैं। इसमें सवीर्यध्यानका वर्णन है । इसमें परमात्माके स्वरूपका भी चित्रण है और साथ ही साकार और निराकार भेदोंका भी निरू पण किया है। ३९ वे सर्गमें १०४ पद्य हैं। शरीर और आत्माके भेद विज्ञानके बिना आत्माका स्वरूप प्राप्त नहीं होता। आत्माके स्वरूपका वर्णन करते हुए लिखा है
निलेपो निष्कल: शुद्धो निष्पन्नोऽत्यन्तनिवृत: ।
निर्विकल्पश्च शुद्धात्मा परमात्मेति वर्णितः ।।
आत्मा कर्मकलङ्कके लेपसे रहित है, शुद्ध है, रागादिविकार से रहित है, निष्पन्न है, सिद्धस्वरूप है, अविनाशी सुखरूप है, निर्विकल्पक है और सभी प्रकारसे शुद्ध है। इस सर्गमें बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्माका वर्णन आया है । जो देह, इन्द्रिय, धन, सम्पत्ति आदि बाह्यवस्तुओंमें आत्म-बुद्धि करता है वह बहिरात्मा है | जो अन्तरङ्गविशुद्ध ज्ञान-दर्शनमयो चेतनामें आत्मबुद्धि करता है और चेतनाके विकार रागादिकभावोंको कर्मजनित हेय जानता है, वह अन्तरात्मा है और वहीं सम्यग्दृष्टि है तथा जो समस्त कर्मोसे रहित केवल ज्ञानादिगुणसहित है, वह परमात्मा है। उस परमात्माका ध्यान अन्तरात्मा होकर करना चाहिए । जो निश्चयनयसे अपने आत्माको ही अनन्तज्ञानादि गुणों की शक्तिसहित जानकर नयके द्वारा युगपत् शक्ति व्यक्तिरूप परोक्षका अपने अनुभवमें साक्षात्कार करता है और शुद्धात्मरूप अपनेको अनुभूतिमें लाता है, वह समस्त कर्मोंका नाश कर स्वयं परमात्मा बन जाता है । ध्यानसे सातिशय अप्रमत्तगुणस्थानश्रेणीका आरोहण करता है और उसीसे शुक्लध्यानको प्राप्त कर कोका नाश कर केवलज्ञान प्राप्त करता है।
३३ वें सर्गमें २२ पद्य हैं और आशाविचय धर्मध्यानका स्वरूप है। ३४ सर्गमें १७ पद्य हैं और अपायविचय धर्मध्यानका स्वरूप वर्णित्त है। ३५वें सर्गम ३१ पद्यों द्वारा विपाकविचय धर्मध्यानका स्वरूप बतलाया गया है। ३६वें सर्गमें १८६ पद्य हैं और संस्थानविषय धर्मध्यानका वर्णन किया गया है संस्थानविचय धर्म-ध्यानके अन्तर्गत लोकसंस्थानका वर्णन आया है। ३७ वें ----
१. ज्ञानार्णव, ३२।८।
सर्गमें ३३ पद्यों द्वारा पिण्डस्थध्यानका वर्णन किया गया है। इसमें पृथ्वी, अग्नि, पवन, जलादिककी कल्पना किस प्रकार करनी चाहिए, इसका भी वर्णन आया है। ३८ वें सर्गमे पदस्थच्यानका वर्णन ११६ पद्यों मे किया गया। इसमें मंत्र पदोंक अभ्यासका भी कथन आया है। मन्त्रपदोंका ध्यान मोक्षका महान उपाय है। इस ध्यान द्वारा अणिमा, महिमा आदि ऋद्धियाँ भी प्राप्त होती हैं।
३९, सर्गमें ४६ पद्यों द्वारा रूपस्थध्यानका वर्णन आया है। रूपस्थध्यानमें अर्हन्त भगवानका ध्यान करना चाहिए । इस सन्दर्भ में अर्हन्तके अतिशय और जन्म-जरा-मरण आदि १८ दोषोंका अभाव भी आचार्य ने आगमप्रमाण द्वारा सर्वज्ञ में सिद्ध किया है। ४०में सर्गमें ३१ पद्यों द्वारा रूपातीतध्यानका वर्णन आया है। जब ध्यानी सिद्धपरमेष्ठीके ध्यानका अभ्यास करके शक्तिकी अपेक्षासे अपने आपको भी उन्हींके समान जानकर अपनेको उनके समान व्यक्त करनेके लिए लीन हो जाता है, उस समय कर्मका नाश होकर सिद्धपदकी प्राप्ति होती है। ४१वें सर्गमें २७ पद्य हैं। इसमें धर्मध्यानके फलका वर्णन किया गया है । ४२ सर्ग मे ८८ पद्य हैं। इसमें शुक्लध्यानका वर्णन किया है । बताया है
अथ धर्मतिकान्तः शुद्धि चात्यन्तिकी थितः ।
ध्यातुमारभते बीरः शुक्लमत्यन्तनिर्मलम् ।।
निष्क्रिय करणातीत ध्यान-धारणजितम् ।
अन्तर्मुखं च यच्चित्तं तच्छवलमिलि पठ्यते ।।
आदिसंहननोपेतः पूर्वज्ञः पुग्यचेष्टितः ।
चतुर्विधमपि ध्यानं स शुक्लं ध्यातुमर्हति ।।
धर्मध्यानके अनन्तर अत्यन्त शुद्धताको प्राप्त हुआ धीर-वीर मुनि निर्मल शुक्ल ध्यानको प्रारम्भ करता है। यह क्रियारहित है, इन्द्रियातीत है ओर ध्यानकी धारणासे रहित है। इसमें चित्त अपने स्वरूपकी ओर संलग्न रहता है, यह ध्यान वजवृषभनाराचसंहनन वालेके, जो ११ अंग और १४ पूर्वोका जाता होता है, शुद्ध चरित्रवाला होता है, उसीको प्राप्त होता है। शुक्लध्यानके पृथकत्ववितर्क; एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, व्युपरत क्रियानिवृत्ति ये चार भेद हैं। इनमेंसे प्रथम दो ध्यान छमस्थ योगीके अर्थात् १२ वे गुणस्थानपर्यन्त अल्पज्ञानियों के भी होते हैं। अन्तके दो शुक्ल ध्यान सर्वथा रागादि दोषोंसे रहित केवलज्ञानियोंके होते हैं। इस प्रकार इस सर्ग में शुक्लध्यानका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है और अन्तमें ज्ञानार्णवका महत्व बतलाते हुए ग्रन्थ समाप्त किया है १. ज्ञानार्णव, ४२॥३-५ ।
ज्ञानार्णवस्य माहात्म्य चिते को देति तत्त्वत: ।
यज्ज्ञानात्तीर्यते भव्य दु स्तरोऽपि भवार्णवः ।।
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री शुभचंद्र |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Aacharya Shri Shubhchandra 11 Th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 27-April- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
#Shubhchandra11ThCentury
15000
#Shubhchandra11ThCentury
Shubhchandra11ThCentury
You cannot copy content of this page