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#Shubhkirti15ThCentury
शुभकीर्ति नामके अनेक आचार्य हुए हैं। इनमें एक शुभकीर्तिवादीन्द्र विशालकीर्तिके पट टधर थे। इनके सम्बन्धमें बताया है
"तपो महात्मा शुभकोर्तिदेवः ।
एकान्त रामसपोबिधानाद्धातेव सन्मार्गविधेविंधाने ।
-पदावलिशुभचन्द्रः
तत्पट टेजनि विख्यात: पंचाचारपवित्रधीः ।
शुभकीर्तिमुनिश्रेष्ठः शुभकी ति शुभप्रदः ।
-सुदर्शनचरितम्
अर्थात शुभकीर्ति पञ्चाचारके पालन करने में दत्तनित्त थे और सन्मार्गके विधिविधान में ब्रह्माके तुल्य थे । मनियों में श्रेष्ठ और शुभग्नदाता भी इन्हें कहा गया है । एक मूर्ति अभिलेखसे इनका समय निकी १३ वीं शताब्दी सिद्ध होता है। गुर्वावलिमें बताया है
सत्तो महात्मा शुभकीर्तिदेवः ।
एकान्तराद्यग्रतपोविधाता धातेव' समार्गविधेचिंधाने ।।
एक अन्य शुभकीर्तिका नाम चन्द्रगिरिपर्वतके अभिलखमें आया है। इस अभिलेखमें कुन्दकुन्दाचार्यसे प्रारम्भ कर मेधचन्द्रवत्ती तकको परम्परा दी गयी है। मेघचन्द्र के गम्भाईका नाम बालचन्द्रमुनिराज बताया है। तत्पश्चात् आचार्य शुभकीर्तिका उल्लेख किया है, जिनके सम्मुख वादगें बौद्ध मीमांसकादि कोई भी नहीं ठहर सकता था। यह अभिलेख शकसंवत् १०६८ का है। अतः शुभकीर्तिका समय इसके कुछ पूर्व ही होना चाहिये ।।
तीसरे शुभकीर्ति कुन्दकुन्दान्वयी प्रभावशाली रामचन्द्र के शिष्य थे। चतुर्थ शुभकीर्ति अपभ्रंश शान्तिनाथचारतकं रचयिता हैं । इस चरितकाव्यमें ग्रन्थ कर्माका किसी भी प्रकारका परिचय प्राप्त नहीं है। ग्रन्थ की पुष्पिकामें निम्न लिखित वाक्य उपलब्ध होता है-"उह्यभाषाचक्कटिट सुहकित्तिदेव विरइये" अर्थात ग्रन्थ रचयिता संस्कृत और अपनश दोनों भाषाओंके निष्णात विद्वान थे | कविने ग्रन्थके अन्तमें देवकोर्सिका उल्लेख किया है। एक देवकीर्ति काष्टा संघ भाभुरान्वयके विद्वान् हैं। उनके द्वारा विक्रम सं० १४९४ आषाद वदी द्वितीयाके दिन एक धातुमूर्ति प्रतिष्ठित की गयी थी, जो आगराके कचौड़ा बाजारके मन्दिरम विराजमान है। मतिलेखमें बताया है-सं० १४५४ अषात दि २ काष्ठासंघे माथूरान्वय श्रीदेवकीर्ति प्रतिष्ठिता।'' उपलब्ध शान्तिनाथ चरितको प्रति वि० सं० १५५१ में लिखी गयी है । अतः इसका रचनाकाल इसके पूर्ववर्ती होना चाहिये । देवकीर्सिका समय वि० सं० १४२४ है, अत: बहुत
१. श्रीबालचन्द्रमुनिराजपवित्रपुत्रः
प्रोटातत्रादि जनमानलतालमित्रः ।
जीयादयं जितमनोजभुजप्रतापः
स्माहादसूक्तिशुभगवशुभकीर्तिदेवः ।। जनशिलालेखसंग्रह, प्रथमभाग, अभिलेख सं०
५५, पृ० १७, पद्य ३५ ।
सम्भब है कि शुभकीति जावं. सकसम हो . ३३ ४५.पर उनका समय वि० सं० की १५ वीं शताब्दी आता है।
शुभकीति द्वारा विरचित अपभ्रश शान्तिनाथचरित उपलब्ध होता है। जिसकी पाण्डुलिपि नागौरके शास्त्रमण्डारमें सुरक्षित है। मन्थ १९ सन्धियों में पूर्ण हुआ है। इसमें १६वें तीर्थंकरशान्तिनाथका जीवनचरित्र वणित है। शान्तिनाथ पंचम चक्रवर्ती भी थे। इन्होंने पटलण्डोंको जोत कर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया था ! पश्चात् दिगम्बर दीक्षा ले तपश्चरणस्प समाधिच कसे महा दुर्जय मोहकमका विनाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया और अन्त में अघातिया. कर्मोका नाशक अचल अविनाशी सिद्धपदको प्राप्त किया। अन्धके आरम्भ
आचार्यने गौतमगणधर, जिनसेन, पुष्पदन्तका स्मरण क्रिया है और बताया है कि जिस चरितको जिनराजन गौतम गणधरस कहा, इस चरितको जिनमन और पुष्पदन्तने अपने ग्रन्थों में निबद्ध किया । उसी चरितको शुभकीति रूपचन्द के अनुरोधसे निबद्ध करते हैं। रूपचन्दका परिचय देते हा लिखा है कि इक्ष्वाकुवंशामें आशाधर हुए, जो ठक्कु र नामस प्रसिद्ध थे और जिनगारानक भक्त थे। इनके 'धनवाई' ठक्कुर नामका एक पुत्र हुआ, जिसकी पत्नीका नाम लोनावती था और जो सम्यक्त्वसे विभूषित थी। इन्हीका पुत्र रूपचन्द हुश्रा, जिसके अनुरोधो कदिने शान्तिनाथचरित लिखा । ग्रन्यके परिणकावाक्य में रूपचन्दका परिचय निम्न प्रकार दिया गया है
इश्बाकूणां विशुद्धो जिनवर विभवाम्नायबंदा मांगे,
तस्मादाशाधरीया बहुजनमहिमा जात जमालवंश ।
लोलालंकारमारोद्भविभावगुणासारखाकारलुद्धेः ।
शुद्धिसिद्धार्थसाग परियणगुणी रूपचन्द्रः सुचन्द्रः ।।
कदिने अन्यके अन्तर्मक संस्कृत पद्यम उसका रचनाकाल १४३६ दिया है। यह ग्रन्थ क्रोधनामक संवत्सरमें फाल्गुन मासमें कृष्णतृतीया बुधबारको समाप्त हुआ है।
आसीदिनमभूगतेः कलियुगे शांतोत्तरे संगते,
सत्यं कोबननामधेय विपूले संबच्छरे संमते ।
दत्ते वयचतुदशे तु गरमा पनिशके स्वांशक ।
मास फाल्गुणि पूर्वपक्षक बुधे सम्यक् तृतीयां तिथौ ।।
इससे स्पष्ट है कि शुभकोतिका समय निश्चित्तरूपसे दिल की १५वौं शताब्दी है और उनका शान्तिनाथचरित महाकाक्ष्य है। इस ग्रन्थक्क प्रारम्भमें ही महा
माधोधित उपकरणाका निर्देश करते हुए सन्दालंकार और अर्थानारोंके साः गुण, नैति और रसभावोंको महत्व दिया गया है। सिद्धान्त विषयोंक परिचय प्रसंग में गणरधान, मार्गणा, ध्यान गर्व तपोंका विवेचन किंगा गया है। इगरा स्पष्ट है कि काव्य, सिद्धान्त और आचार इन तीनोंकी त्रिवेणी नस ग्रन्थ में पायो जाती है।
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री शुभकीर्ती |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Shubhkirti15ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री १०८ शुभकीर्ति 15वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 06-June- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 06-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
शुभकीर्ति नामके अनेक आचार्य हुए हैं। इनमें एक शुभकीर्तिवादीन्द्र विशालकीर्तिके पट टधर थे। इनके सम्बन्धमें बताया है
"तपो महात्मा शुभकोर्तिदेवः ।
एकान्त रामसपोबिधानाद्धातेव सन्मार्गविधेविंधाने ।
-पदावलिशुभचन्द्रः
तत्पट टेजनि विख्यात: पंचाचारपवित्रधीः ।
शुभकीर्तिमुनिश्रेष्ठः शुभकी ति शुभप्रदः ।
-सुदर्शनचरितम्
अर्थात शुभकीर्ति पञ्चाचारके पालन करने में दत्तनित्त थे और सन्मार्गके विधिविधान में ब्रह्माके तुल्य थे । मनियों में श्रेष्ठ और शुभग्नदाता भी इन्हें कहा गया है । एक मूर्ति अभिलेखसे इनका समय निकी १३ वीं शताब्दी सिद्ध होता है। गुर्वावलिमें बताया है
सत्तो महात्मा शुभकीर्तिदेवः ।
एकान्तराद्यग्रतपोविधाता धातेव' समार्गविधेचिंधाने ।।
एक अन्य शुभकीर्तिका नाम चन्द्रगिरिपर्वतके अभिलखमें आया है। इस अभिलेखमें कुन्दकुन्दाचार्यसे प्रारम्भ कर मेधचन्द्रवत्ती तकको परम्परा दी गयी है। मेघचन्द्र के गम्भाईका नाम बालचन्द्रमुनिराज बताया है। तत्पश्चात् आचार्य शुभकीर्तिका उल्लेख किया है, जिनके सम्मुख वादगें बौद्ध मीमांसकादि कोई भी नहीं ठहर सकता था। यह अभिलेख शकसंवत् १०६८ का है। अतः शुभकीर्तिका समय इसके कुछ पूर्व ही होना चाहिये ।।
तीसरे शुभकीर्ति कुन्दकुन्दान्वयी प्रभावशाली रामचन्द्र के शिष्य थे। चतुर्थ शुभकीर्ति अपभ्रंश शान्तिनाथचारतकं रचयिता हैं । इस चरितकाव्यमें ग्रन्थ कर्माका किसी भी प्रकारका परिचय प्राप्त नहीं है। ग्रन्थ की पुष्पिकामें निम्न लिखित वाक्य उपलब्ध होता है-"उह्यभाषाचक्कटिट सुहकित्तिदेव विरइये" अर्थात ग्रन्थ रचयिता संस्कृत और अपनश दोनों भाषाओंके निष्णात विद्वान थे | कविने ग्रन्थके अन्तमें देवकोर्सिका उल्लेख किया है। एक देवकीर्ति काष्टा संघ भाभुरान्वयके विद्वान् हैं। उनके द्वारा विक्रम सं० १४९४ आषाद वदी द्वितीयाके दिन एक धातुमूर्ति प्रतिष्ठित की गयी थी, जो आगराके कचौड़ा बाजारके मन्दिरम विराजमान है। मतिलेखमें बताया है-सं० १४५४ अषात दि २ काष्ठासंघे माथूरान्वय श्रीदेवकीर्ति प्रतिष्ठिता।'' उपलब्ध शान्तिनाथ चरितको प्रति वि० सं० १५५१ में लिखी गयी है । अतः इसका रचनाकाल इसके पूर्ववर्ती होना चाहिये । देवकीर्सिका समय वि० सं० १४२४ है, अत: बहुत
१. श्रीबालचन्द्रमुनिराजपवित्रपुत्रः
प्रोटातत्रादि जनमानलतालमित्रः ।
जीयादयं जितमनोजभुजप्रतापः
स्माहादसूक्तिशुभगवशुभकीर्तिदेवः ।। जनशिलालेखसंग्रह, प्रथमभाग, अभिलेख सं०
५५, पृ० १७, पद्य ३५ ।
सम्भब है कि शुभकीति जावं. सकसम हो . ३३ ४५.पर उनका समय वि० सं० की १५ वीं शताब्दी आता है।
शुभकीति द्वारा विरचित अपभ्रश शान्तिनाथचरित उपलब्ध होता है। जिसकी पाण्डुलिपि नागौरके शास्त्रमण्डारमें सुरक्षित है। मन्थ १९ सन्धियों में पूर्ण हुआ है। इसमें १६वें तीर्थंकरशान्तिनाथका जीवनचरित्र वणित है। शान्तिनाथ पंचम चक्रवर्ती भी थे। इन्होंने पटलण्डोंको जोत कर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया था ! पश्चात् दिगम्बर दीक्षा ले तपश्चरणस्प समाधिच कसे महा दुर्जय मोहकमका विनाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया और अन्त में अघातिया. कर्मोका नाशक अचल अविनाशी सिद्धपदको प्राप्त किया। अन्धके आरम्भ
आचार्यने गौतमगणधर, जिनसेन, पुष्पदन्तका स्मरण क्रिया है और बताया है कि जिस चरितको जिनराजन गौतम गणधरस कहा, इस चरितको जिनमन और पुष्पदन्तने अपने ग्रन्थों में निबद्ध किया । उसी चरितको शुभकीति रूपचन्द के अनुरोधसे निबद्ध करते हैं। रूपचन्दका परिचय देते हा लिखा है कि इक्ष्वाकुवंशामें आशाधर हुए, जो ठक्कु र नामस प्रसिद्ध थे और जिनगारानक भक्त थे। इनके 'धनवाई' ठक्कुर नामका एक पुत्र हुआ, जिसकी पत्नीका नाम लोनावती था और जो सम्यक्त्वसे विभूषित थी। इन्हीका पुत्र रूपचन्द हुश्रा, जिसके अनुरोधो कदिने शान्तिनाथचरित लिखा । ग्रन्यके परिणकावाक्य में रूपचन्दका परिचय निम्न प्रकार दिया गया है
इश्बाकूणां विशुद्धो जिनवर विभवाम्नायबंदा मांगे,
तस्मादाशाधरीया बहुजनमहिमा जात जमालवंश ।
लोलालंकारमारोद्भविभावगुणासारखाकारलुद्धेः ।
शुद्धिसिद्धार्थसाग परियणगुणी रूपचन्द्रः सुचन्द्रः ।।
कदिने अन्यके अन्तर्मक संस्कृत पद्यम उसका रचनाकाल १४३६ दिया है। यह ग्रन्थ क्रोधनामक संवत्सरमें फाल्गुन मासमें कृष्णतृतीया बुधबारको समाप्त हुआ है।
आसीदिनमभूगतेः कलियुगे शांतोत्तरे संगते,
सत्यं कोबननामधेय विपूले संबच्छरे संमते ।
दत्ते वयचतुदशे तु गरमा पनिशके स्वांशक ।
मास फाल्गुणि पूर्वपक्षक बुधे सम्यक् तृतीयां तिथौ ।।
इससे स्पष्ट है कि शुभकोतिका समय निश्चित्तरूपसे दिल की १५वौं शताब्दी है और उनका शान्तिनाथचरित महाकाक्ष्य है। इस ग्रन्थक्क प्रारम्भमें ही महा
माधोधित उपकरणाका निर्देश करते हुए सन्दालंकार और अर्थानारोंके साः गुण, नैति और रसभावोंको महत्व दिया गया है। सिद्धान्त विषयोंक परिचय प्रसंग में गणरधान, मार्गणा, ध्यान गर्व तपोंका विवेचन किंगा गया है। इगरा स्पष्ट है कि काव्य, सिद्धान्त और आचार इन तीनोंकी त्रिवेणी नस ग्रन्थ में पायो जाती है।
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री शुभकीर्ती |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Shubhkirti 15th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 06-June- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
#Shubhkirti15ThCentury
15000
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Shubhkirti15ThCentury
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