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#SomdevsuriPrachin
आचार्य सोमदेव महान् तार्किक, सरस साहित्यकार, कुशल राजनीतिज्ञ, प्रबुद्ध तत्वचिन्तक और उच्चकोटिके धर्माचार्य थे। उनके लिए प्रयुक्त होने वाले स्याद्वादावलसिंह, नामिम्चावर्ती, प्रदीपनामा, नामको निधि, कविकुलगजकुंजर, अनवद्यगद्य-पविद्याधरचक्रवर्ती आदि विशेषण उनकी उत्कृष्ट प्रज्ञा और प्रभावकारी व्यक्तित्वक परिचायक है। नीतिवाक्या मृतकी प्रशस्तिमें उक्त सभी उपाधियाँ प्राप्त होती है।
ये नेमिदेवके शिष्य, यशोदेवके शिष्य और महेन्द्रदेवके अनुज थे ।
यशोदेवको .देवसंघका तिलक कहा गया है। पर हमके दानपत्रम गौड संघका । नीतिवाक्यामृत और बास्तिलककी प्रशस्तियांके अनुसार नेमिदेव अनेक महावादियोंके विजेता थे । महेन्द्र रचको भी दिग्विजयी कहा जाता है। सोमदेव भी गुम और अनुजक रामान तार्किक होनेक साथ राहृदय कवि भी थे। यशस्तिलकके प्रारम्भमें लिखा है--
आजन्मसमभ्यस्ताच्छुकात्तात्तृणादिव ममास्याः ।
मतिसुरभेगभवदिदं मूक्तिपयः मुकृतीनां पुण्यः ।।
मेरी बुद्धिरूपी गौन जीवनभर तर्करूपी घास खाई , पर अब उसी गौस
१. "इति सकलताकिकचक्रचडामणिचुम्बित्न चरणस्य रमगोमपश्नपञ्चाशन्महावादिविजया
पाजितकोतिमन्नाकिनीपविचित्र त्रिभुवनस्य परलपश्चारणरत्नोपन्यतः श्रीनेमिदेव भगवतः प्रिय शिष्यण दादीन्द्र कालान लश्रीमन्महेन्द्रदेव भट्टारकानुजेन स्याहादाचलसिंह ताकि चक्रवादीभपंचाननवाकालमोलपयोनिधिनिलराजकुजरतभूतिप्रशस्तिप्रस्तावा लारण पणावतिप्रकरण-युक्तिचिन्तामणि-विवर्ग महेन्द्रमातलिसंधाप-प्रशोश्वरमहाराज चरित-महासाबसा श्रीमत्सोमदेवरिणा विरचित नीति वाक्यामृतं नाम राजनीति शास्त्र समाप्तम् ।"
नीनिवाक्यामृतम् , गोपालनारायण कम्पनी, बुकसेलर्स, सन् १८९१, अन्तिम प्रशस्ति ।
२. श्रीमानम्ति स देवसंघतिलको देवो पश:पूर्वकः ।
शिष्यरताप वभून सद्गुणनिधिः श्रीनेमिदेवाह्वयः ॥
तस्याश्चातापस्थितस्प्रिनवतेजैतुमहावादिनाम् ।
शिष्योऽभूदिह सोमदन इति यस्तस्यैष कायक्रमः ।।
..- यशस्तिलक, खण्ड २, पृ. ४१८ ।
३. वही, १।१७।
सज्जनोंके पुण्यके कारण यह काव्यरूपी दूध उत्पन्न हो रहा है। ..पाण्डित्यके सम्बन्धमें स्वयं लिखा है
लोको यूक्तिः कलाश्छन्दालङ्कारा: समयागमाः ।
सर्वसाधारणाः द्धिस्तीर्थभागों न स्मृताः ।।
व्याकरण, प्रमाण, कला, छन्द, अलङ्कार और समयागम-दर्शनशास्त्र तीर्थ मार्गके समान सर्वसाधारण है।
सोमदेवके संरक्षक ारीकंशरो नामक चालुक्य राजा पुत्र वाघराजया वदिग्ग नामक राजकुमार थे ...राष्टकूटों के अगेन सामन्त पदनोधारी था | यशस्तिलका प्रणयन गंगधारा नामक स्थान में रहते हुए किया गया है। धारबाड़, कर्नाटक, महाराष्ट्र और वर्तमान हैदराबाद प्रदेश पर राष्ट्रकूटो का साम्राज्य व्याप्त था। राष्ट्रकूट नरेश ..ाडवी शती से दशवों शती तक महाप्रतापी और समृद्ध रहे हैं। इनका प्रभुत्व केवल भारतवर्षम ही नहीं था, अपितु पश्चिम के अरब राज्योंमे भी व्याप्त था। अरबोंस उनका मत्रीन्यवहार था तथा अरब अपने यहाँ उनको व्यापारको सुविधाएं दिय हुए श्च । इस वशके राजाओ चिरूद वल्लभराज था । इसका रूप अरब लेखकों बल्लहरा पाया जाता है।
सोमदेवने अपने साहित्यमें राष्ट्रकूटाके साम्राज्यक तत्कालीन अभ्युदयका परिचय प्रस्तुत किया है 1 वस्तुत: राष्ट्रकूटोको राज्य्काल साहित्य, कला, दर्शन एवं धर्मकी बहुमुखी उन्नति हुई है। कविका ..यशस्तितिलक चम्पू मध्य कालीन भारतीय संस्कृति के इतिहासका अपूर्व स्तोत्र है ।
नीतिवाक्यामृत और यशस्तिलकचम्पूसे अवगत होता है कि सोमदेवका सम्बन्ध कान्यकुब्ज नरेश महेन्द्रदेवसे रहा है । नीतिवान्यामतको संस्कृतटीका से भी ज्ञात होता है कि कान्यकुम्भ नरेश महेन्द्रदेवके आग्रहसे इस ग्रन्थको रचना सम्पन्न हुई थी।
ज्ञात होता है कि सोमदेवका महेन्द्रदेवके साथ सम्बन्ध रहा है । यस्तिलक के मंगलपद्यमें श्लेष द्वारा कन्नौज और महेन्द्रदेवका उल्लेख आया है।
१. यशस्तिलक १।२० ।
२. "अत्र लविदाखिलभुपालमौलिलालितचरणयुगलेन रघुवंशावस्थाग्निपराक्रमपालितकस्य कर्णकुब्जेन महाराजश्रीमन्महेन्द्रदेवेन पुर्वाचार्गकृतार्थशास्त्रदुःखदोषग्रन्धगोरखसिन्ग मानसेन सबोधललितलघुनौतिवाक्यामृतरचनासु प्रतितः ।"- नीचिवाक्यामृत, माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन अन्यमाला, पृ० २, संस्कृतटीका ।।
यशस्तिलकके हो निम्नलिखित पद्यसे भी सोमदेव और महेन्द्रदेवके सम्बन्धको
अभिव्यञ्जना होती है
सोऽयमाशापित्तयशः महेन्द्रा मरमान्यधीः ।
देवात्ते सततानन्द चस्वभीष्ट जिनाधिपः ।।
अब ...विचारणीय है कि सोमदेवका सम्बन्ध किस महेन्द्रदेवक साथ घटित होता है। कन्नौजके इतिहासमें महेन्द्रदेव या महेन्द्रपाल नामके दो राजा हुए हैं। महेन्द्रपालदेव प्रथमका समय ई० सन् ८८५ से ई० सन् ९०७ तक माना जाता है । यह महाराज भोज ( ई० सन् ८३६-८८५ ) के पश्चात् राजगद्दीपर आसीन हुआ था । महाकवि राजशेखरको बालविके रूप में इसका संरक्षण प्राप्त था | राजशेखर निपुरीके युवराज द्वितीयके समय ( ई० सन ९९० ) लगभग ९० वर्ष की अवस्था में विद्यमान थे। सोमदेवने अपने यशस्तिलकमें महाकवियोके उन्लेख के प्रसंगमें राजशेखरको अन्तिम महाकवि के रूपमें निर्दिष्ट किया है। यशस्तिलक को सोमदेवने ९५९ ई० में ममाप्त किया है । यदि राजशेखरको सोमदेवसे ८-१० वर्ष भी बड़ा माना जाये तो राजशेखरको सोमदेव द्वारा महाकवि कहा जाना ठीक प्रतीत होता है। इस प्रकार सोमदेवका आविर्भाव ई० सन् ९०८ के आस पास होना चाहिए, क्योंकि महेन्द्रपाल प्रथमको समसामयिकता तथा नीतिबाक्या मृतके रचे जाने का आग्रह घटित नहीं होता है । इस कारण महेन्द्रपालदेव प्रथम के साथ सोमदेवका सम्बन्ध नहीं हो सकता है ।
महेन्द्रपार देव द्वितीयका समय ई० सन् ९४५-४६ माना गया है। सोमदेव इस समय सम्भवतः ३५-३६ वर्षके रहे होंगे । अतएव महेन्द्रपालदेव द्वितीय और सोमदेवके पारस्परिक सम्बन्ध काल-सम्बन्धी कठिनाई नहीं है।
सोमदेवका समय सुनिश्चित है। इन्होंने यशस्तिलकमें उसका रचना-समय शकसंवत् ८८१ ( ई० सन् ९५९ ) दिया है । लिखा है--
"चैत्रशुक्ला त्रयोदशी शकसंवत् ८८१ ( ई० सन् १५९) को, जिस समय कृष्णराजदेव पांड्य, सिंहल, चोल, चेर आदि राजाओंको जीतकर मेलपाटी नामक स्थानके सेना-शिविर में थे, उस समय उनके चरणकमलोपजीवी सामन्त
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१. यशस्तिलक, १ |२२० ।
2. "The Age of Imperial Kanauji p. 33.
३. यशस्तिलक, उत्तरार्ष, पु ११३ ।
4. The Age of Imperial Kaunuj p- 37.
वदिंगकी, जो चालुक्यवंशीय अरिकेशरीके प्रथम पुत्र थे, राजधानी गंगधारामें यह काव्य समाप्त हुआ।
अतः सोमदेव ई० सन् ९५९, अर्थात् दशम शतीके विद्वानाचार्य हैं।
इनकी तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं-१. नीतिवाक्यामृत, २. यशस्तिलकचम्पू और अध्यात्मतरंगिणी।
इनके अतिरिक्त यूक्तिचिन्तामणिस्तब, त्रिवर्गमहेन्द्रमातलिसंजल्प, पाणव तिप्रकरण और स्याद्वादोपनिषद्की भी सूचना मिलती है। वद्दिगके दानपत्रसे सोमदेवके एक सुभाषितका भी संकेत मिलता है।
नीति वाक्यामृत राजनीतिका कौटिल्यके अर्थशास्त्रकी तरह उत्कृष्ट ग्रन्थ है। इसमें राजा, मंत्री, कोषाध्यक्ष और शासन-संचालनके मौलिक सिद्धान्तोंका प्रतिपादन किया गया है। नीतिबाक्यामृत मूलरूपमें बम्बईसे सन् १८९१ में प्रकाशित हुआ था । सन् १९२२ में माणिकचन्द्र ग्रन्यमाला बम्बईसे संस्कृतटीका सहित प्रकाशित हुआ। सन् १९५० में पण्डित सुन्दरलाल शास्त्रीने हिन्दी अनु बादके साथ इसका प्रकाशन किया । नीतिवाक्यामृतपर दो टीकाएँ हैं । एक । प्राचीन सस्कृतटीका है, जिसके लेखकका नाम और समय ज्ञात नहीं है। पर मंगलाचरणके श्लोकसे इनका नाम हरिबल ज्ञात होता है
हरि हरिबलं नत्वा हरिवर्ण हरिप्रभम् ।
हरीज्यं च वे टीका नीतिवाक्यामृतोपरि ।।
इससे ऐसा ज्ञात होता है कि जिस प्रकार मुल ग्रन्थ रचयिताने अपना नाम मङ्गलपद्यमें समाहित कर दिया है, उसी प्रकार हरिबलने हरि अर्थात् विष्णुको नमस्कार करते हुए अपने नामको समाहित कर दिया है।
इस ग्रन्थमें ३२ समुद्देश्य हैं 1 जिनके नाम क्रमशः (१) धर्मसमुद्देश्य, (२१ अर्थसमुद्देश्य, (३) कामसमुद्देश्य, (४) अरिषड्वर्ग, (५) विद्यावृद्ध, (६) आन्वीक्षिकी, (७) त्रयी, (८) वार्ता, १९) दण्डनीति, १०) मंत्री, ।११) पुरोहित, (१२सेनापत्ति, (१३) दूत, (१४) चार , (१५) विचार, (१६) व्यसन, (१७) स्वामि, (१८) अमात्य, (१९) जनपद, (२०} दुर्ग, (२१) कोश, (२२) बल, (२३) मित्र, (२४) राजरक्षा, (२५) दिवसानुष्ठान, (२६) सदाचार, (२७) व्यवहार,
१. यशस्तिलक, उत्तरा०, पृ० ४१८।।
२. नीतिवाक्यामृतम्, माणिकचन्द्र दिगम्बर जैनग्रन्थमाला, मङ्गलपच ।
(२८) विवाद, (२९) षाड्गुण्य, (३०) युद्ध, (३१) विवाह और (३२) प्रकरण हैं। धर्मसमुद्देश्यमें धर्मका लक्षण बतलाते हुए लिखा है कि
'यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः'
अर्थात् जिसके साधनसे स्वर्ग च मोक्षकी सिद्धि हो वह धर्म है। धर्माधिग मोपायमें शक्तिके अनुसार त्याग, तपको स्थान दिया है। समस्त प्राणियोंके प्रति समताभावके आचरणको परमाचरण बताया है। जो व्यक्ति सभी प्रकारके भेदभाव और पक्षपातोका त्याग कर प्राणिमात्रके प्रति समताभावका आचरण करता है, संसारमें उसका कोई भी शत्रु नहीं रहता, सभी मित्र बन जाते हैं। समताभावके आचरणसे ही राग-दुषका अभाव होता है और व्यक्तिके व्यक्तित्व का विकास होता है । अतएव अहिंसावतकें आचरणके लिये समताभावका निर्वाह करना परमावश्यक है। दान देना, शक्ति अनुसार त्याग करना भी धर्माचरणके अन्तर्गत है । ग्रन्धकारने पात्र तीन प्रकारके बतलाये है-धर्म पात्र, २ कार्यपात्र और ३ कामपात्र । इन तीनों प्रकारके पात्रोंकी आर्थिक सहायता करना धर्मके अन्तर्गत है। ग्रन्थकारने लौकिक जीवनको समद्ध बनाने के लिये त्याग, तप और समत्ताके आचरणपर विशेष बल दिया है। तपकी परिभाषा बताते हुए लिखा है कि इन्द्रिय और मनका नियमानुकूल प्रवतन करना तप है, केवल कापाय वस्त्र धारणकर वन मे विचरण करना तप नहीं है। यथा
इन्द्रियमनसोनियमानुष्ठानं तपः।
विहिताचरणं निषिद्धपरिवर्जनं च नियमः' ।
धर्मका स्वरूप और धर्माचरणका महत्त्व सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिसे प्रतिपादित किया गया है। इसके बाद अर्थपुरुषार्थका विस्तारसे विचार किया है। सोमदेवने धर्म, अर्थ और कामको समान महत्त्व दिया है। इनका अभिमत है--
धर्मार्थाविरोधेन कामं सेवेत ततः सुखो स्यात् ।
सम बा विबर्ग सेवेत ।
१. नीतिवा, सूत्र सं० २०, २१ ।
२. वहीं, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, कामरामुद्देश्य, सूत्रसं० २, ३ ।
जो त्रिवर्गमसे किसी एकको महत्त्व देता है, उसका अहित होता है, सोम देवने अर्थको व्याख्या करते हुए लिखा है------
यतः सर्वप्रयोजनसिद्धिः सोऽर्थः ।
अर्थात् जिससे सभी कार्योंको सिद्धि होती है, वह अर्थ हैं। समीक्षा करनेसे ज्ञात होता है कि सोमदेवको उक्त परिभाषा बहुत ही समीचीन है । यतः द्रव्य ( money) के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तुसे समस्त इच्छाएँ तृप्त नहीं हो सकतीं। जिस एक वस्तुके विनिमय द्वारा आवश्यकतानुसार अन्य बस्तु प्राप्त हो सके, वही एक बस्तु सब प्रकारको आवश्यकताओंको पूर्तिका साधन कही जा सकती है। अतः सोमदेवके परिभाषानुसार विनिमय कार्य में प्रयुक्त होनेवाली वस्तु ही अर्थ | Wealth )है। सोमदेबने इस ग्रंथमे अर्थकी महत्ता स्वीकार करते हुए अन्याय और अनर्थका निषेध किया है। अर्थार्जन, अर्थसंरक्षण और अर्थवृद्धिकः कारणोंका भी उल्लेख किया गया है। देश और कालके अनुसार अर्थसम्बन्धी विभिन्न समाधाएँ भी प्रतिरदिा हैं: जगि, माना और वाणिज्यको वार्ता कहा है और इस बार्ताको समृद्धि ही राज्यकी समृद्धि बत लायी है। राजाको कृषि और वाणिज्यको वृद्धिमें किस प्रकार सहयोग देना चाहिये आदि बातोंपर विस्तारसे प्रकाश डाला गया है।
जहाँ आर्थिक पुष्टि राष्ट्रको समृद्धि, खुशहालीके लिए आवश्यक है वहाँ राजनीतिक जागरूकता उसको रक्षाका सबल साधन है । सोमदेवने इन्हीं दोनों पर इसमें गहरा और विस्तृत विचार किया है। अतः इस ग्रन्थमें वर्णित विचारों को दो भागों में विभक्त कर सकते हैं- १) आर्थिक विचार और ( २) राज नीतिक विचार । राजनीतिके अनुसार शासन की बागडोर ऐसे व्यक्तिके हाथमें होती है, जो वंशपरम्परासे राज्यका सर्वोच्च अधिकारी चला आ रहा हो । राजा राज्यको स्थायी समझकर सब प्रकारसे अपनी प्रजाका विकास करता है। राजाकी योग्यता और गुणोंका वर्णन करते हुए बताया गया है-"जो मित्र और शत्रुके साथ शासनकायमें समान व्यवहार करता है, जिसके हृदयमें पक्षपात का भाव नहीं रहता और जो निग्रहः दण्ड, अनुग्रह-पुरस्कारमें समानताका व्यवहार करता है, वह राजा होता है। राजाका धर्म दुष्ट, दुराचारी, चोर, लुटेरे आदिको दण्ड देना एवं साधु- सत्पुरुषोंका यथोचित रूपसे पालन करना है। सिर मुड़ाना, जटा धारण करना, व्रतोपवास करना राजाका धर्म नहीं है । वणं, आश्रम, धान्य, सुवर्ण, चाँदी, पशु आदिसे परिपूर्ण पृथ्वीका पालन करना राजा--
१. नीति ० , अर्थसमुद्देश्य, सूत्रसं० १ ।
का राज्यकर्म है।" राज्यकी योग्यताके सम्बन्धमें सोमदेवसुरिने लिखा है कि राजाको शस्त्र और शास्त्रका पूर्ण पण्डित होना आवश्यक है। यदि राजा शास्त्र ज्ञानरहित हो, और शास्त्रविद्या में प्रवीण हो, तो भी वह कभी-न-कभी धोखा खाता है और अपने राज्यसे हाथ धो बैठता है। जो शस्त्रविद्या नहीं जानता बह भी दुष्टों द्वारा पराजित किया जाता है । अतएव पुरुषार्थी होने क साथ-साथ
राजाको शस्त्र-शास्त्रका पारगामी होना अनिवार्य है। मूर्ख राजा से राजाहीन पृथ्वीका होना श्रेष्ठ है, क्योंकि मुखं राजा से राज्यमें सदा उपद्रव होते रहते हैं। प्रजाको नाना प्रकारके कष्ट होते हैं, अज्ञानी नृप पशुवत होने के कारण अन्धा धुन्ध आचरण करते हैं, जिससे राज्यमें अशान्ति रहती है । __ राज्यप्राप्तिका विवेचन करते हुए बताया है कि कहीं तो यह राज्य वंश परम्परासे प्राप्त होता है और कहींपर अपने पराक्रमसे राजा कोई विशेष व्यक्ति बन जाता है। अत: राजाका मूल क्रम-वंशपरम्परा और विक्रम-पुरुषार्थ शौर्य हैं। राज्य निर्वाह के लिये क्रम, विक्रम दोनोंका होना अनिवार्य है । इन दोनोंमसे किसी एकके अभावसे राज्य-संचालन नहीं हो सकता है। राजाको काम, क्रोध, लोभ, मान, मद और हर्ष इन छह अन्तरंग शत्रुओंपर विजय प्राप्त करना आवश्यक है क्योंकि इन विकारों कारण नृपपति कार्य-अकायंके विचारां से रहित हो जाता है, जिमसे शत्रुओंको राज्य हड़पने के लिए अबसर मिल जाता है। राजाके विलासी होनेसे शासन-प्रबन्ध भी यथार्थ नहीं चलता है, जिससे प्रजामें भी गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है और राज्य थोड़े दिनोमे ही समाप्त हो जाता है। शासकको दिनचर्या का निरूपण करते हुए बताया है कि उसे प्रतिदिन राजकार्यके समस्त विभागों, न्याय, शासन, आय-व्यय, आर्थिक दशा, सेना, अन्तर्राष्ट्रीय तथा सार्वजनिक निरीक्षण, अध्ययन, संगीत, नृत्य अवलोकन और राज्यकी उन्नत्तिके प्रयत्नोंकी ओर ध्यान देना चाहिये।
सोमदेवसूरिने राजाकी सहायताके लिए मन्त्री तथा अमात्य नियुक्त किये जानेपर जोर दिया है। मन्त्री, पुरोहित, सेनापति आदि कर्मचारियों को नियुक्त
१. राज्ञो हि दुष्टनिग्रहः शिष्टपरिपालनं च धर्मः ।
न पुनः शिरोमुण्डन जटाधारणादिकं 11 नीतियाक्यामृतम्, माणिकचन्द ग्रन्थमाला, वर्णान्नमवती धान्यहिरण्यगशुकुम्यकृषिप्रदानफला च पृथ्वी, विद्यावृद्ध
समुदेशय , सूत्र २, ३, ५ ।
२. बही, सूत्र २६ ।
३. वही, अरिपवर्ग, मूत्र है।
करनेवाला नूप आहार्यबुद्धि-राज्य-संचालनप्रतिभा सम्पन्न होता है। जो राजा मन्त्री या अमात्यवर्गकी नियुक्ति नहीं करता उसका सर्वस्व नष्ट हो जाता है। राज्यका संचालन मन्त्रीवर्गकी सहायता और स स सम्मतिसे ही यथार्थ हो सकता है। जो शासक ऐसा नहीं करता बह अपने राज्यकी अभिवृद्धि एवं संरक्षण सम्यक् रूपसे नहीं कर सकता। मन्त्रियोंके गुणोंका वर्णन करते हुए बताया है कि "पवित्र, विचारशील, विद्वान्, पक्षपातरहित, कुलीन, स्वदेशज, न्यायप्रिय, व्यसनरहित, सदाचारी, शस्त्रविद्यानिपुण, शासनतन्त्रके विशेषज्ञको ही मन्त्री बनना चाहिये । मन्त्रिमण्डल राज्य-व्यवस्थाका अविच्छेद्य अंग माना गया है । मन्त्रिमण्डलके सदस्योंकी संख्या तीन, पाँच अथवा सातसे अधिक नहीं होना चाहिये।
राज्यको सुरक्षित रखने एवं शत्रुओंके आक्रमणोंसे बचानेके लिये एक सुदृढ़ और बहुत बड़ी सेनाकी आवश्यकता है। यह विभाग अत्यन्त महत्वपूर्ण बतलाया गया है। राज्यकी आयका अधिकांश भाग इसमें खर्च होना चाहिये । इस विभागकी आवश्यक सामग्री एकत्र करने एवं सेना सम्बन्धी व्यबहारके संचालन के लिये एक अध्यक्ष होता है, जिसे सेनापत्ति या महाबलाधिकृत कहा गया है। गजबल, अश्वबल, रथबल और पदातिबल ये चार शाखाएँ सेनाकी बतायी हैं। इन चारों विभागोंके पृथक्-पृथक् अध्यक्ष होते हैं, जो सेनापतिके आदेशानुसार कार्य करते हैं। चारों प्रकारकी सेनामें गजबल सबसे प्रधान है, क्योंकि एक-एक सुशिक्षित हाथी सहस्रों योद्धाओंका संहार करने में समर्थ होता है। शत्रुके नगरको ध्वंस करना, चक्रव्यूह तोड़ना, नदी जलाशय आदि पर पुल बनाना एवं सेनाकी शक्तिको सुदृढ़ करनेके लिये व्यूह रचना करना आदि कार्य भी गजबल के हैं। गजबल का निर्वाचन बड़ी योग्यता और बुद्धिमत्ताके साथ करना चाहिये । मन्द, मृग, संकीर्ण और भद्र इन चार प्रकारकी जातियों के हाथी तथा ऐरावत, पुण्डरीक, कामन, कुमुद, अञ्जन, पुष्पदन्त, सार्वभौम और
१. द्रविणदानप्रियभाषणाम्यामरातिनिवारणेन बद्धि हितं स्वामिन सर्वावस्थासु बलते संवृणोतीति बलम् । --नीतिवाक्यामृतम्, माणिकचन्द दिगम्बर जैनग्रन्थमाला, बल- समुद्देश्य, सूत्र १ ।
२. बलेषु हस्तिनः प्रधानमङ्ग स्वैरनपवरष्टायुधा हस्तिनो भवन्ति । -वही, सूत्र २ ।
३. हस्तिप्रधानो विजयो राज्ञा यदेकोऽपि हस्तिसहस्र योधयति न सौदति प्रहारसहन -
पापि । मुखन यानमात्मरक्षा परपुरावमदनमरिम्यूहविधातो जलेषु सेतुबन्धा बचना दन्यत्र सर्वविनोदहेतवश्चेनि हस्तिगुणाः । वहीं, सूत्र ३-६ ।।
सुप्रतिकार इन आठ कुलोंके हाथियोंको ही ग्रहण करना इस बलके लिये आव श्यक है । गजोंके चुनावके समय जाति, कुल, वन और प्रचार इन चारों बातों के साथ शरीर, बल, शूरता और शिक्षा पर भी ध्यान रखना आवश्यक है। अशिक्षित गजबल राजाके लिये धन और जनका नाशक बतलाया गया है।
अश्वबलकी इनानी सैनिक दृष्टिगे महान पूर्ण मानी गार है। इसे जङ्गम सैन्य बल बताया है। इस सेना द्वारा दूरवर्ती शत्रु भी वशमें हो जाता है। शत्रुकी बड़ी-चढ़ी शक्तिका दमन, युद्ध -क्षेत्रमें नाना प्रकारका रण-कौशल एवं समस्त मनोरथसिद्धि इस बल द्वारा होती है। अश्वबलके निर्वाचन मे भी अश्वो के उत्पत्तिस्थान, उनके गुणावगुण, शारीरिक शक्ति, शौर्य, चपलता आदि बातोपर ध्यान देना चाहिये। रथबलका निरूपण करते हुए उसका कार्य, अजेय शक्ति आदि बातोपर पूर्ण प्रकाश डाला गया है। इस बलके निर्वाचनमें धनुविद्याके ज्ञाता योद्धाओंकी उपयुक्तताका विशेष ध्यान रखना आवश्यक है। पदातिबलमें पैदलसेनाका निरूपण किया है । पैदलसेनाको अस्त्र-शास्त्र में पारंगत होने के साथ-साथ शूर-बीर, रणानुरागी, साहसी, उत्साही, निर्भय, सदा चारी, अब्यसनी, दयालु होना अनिवार्य बतलाया है। जब-तक सैनिको मे उपयुक्त गुण न होंगे, वह प्रजाके कष्ट निवारणमें समर्थ नहीं हो सकता है । सेवाभावी तथा कर्तव्यपरायणता होना प्रत्येक प्रकारकी सेनाके लिये आवश्यक है। सेना पतिकी योग्यता और गुणोंका कथन करते हुए सोमदेवसूरिने कहा है कि कुलीन आचार-व्यवहारसम्पन्न, पण्डित, प्रेमिल, क्रियावान, पवित्र, पराक्रमशाली, प्रभावशाली, बहकुटुम्बी, नीति-विद्यानिपुण, सभी अस्त्र-शस्त्र, सवारी, लिपि, भाषाओंका पूर्ण जानकार, सभीका विश्वास और श्रद्धाभाजन, सुन्दर, कष्टसहिष्णु, साहसी, यविद्यानिपुण तथा दया-दाक्षिण्यादि माना गुणोंसे विभूषित सेनापति होता है। सेनापतिका निर्वाचन मन्त्रियों की सहायतासे राजा करता है । सोम
१. जातिः कुलं वनं प्रचाररुच न हस्तिनां प्रधान किन्तु शरीरं बलं शौर्य शिक्षा च तद्
चिता न सामग्री सम्पत्तिः ।
अशिक्षिता हस्तिनः केवलमर्थप्राणहाः ।-नीतियाक्यामृत, बलस मुद्देश्य, सूत्र ४-५ ।
२. अश्वबलप्रधानस्य हि राज्ञः कदनकन्दुकक्रीडाः प्रसीदन्ति, भवन्ति दूरस्था अपि करस्थाः शत्रच आपत्सु सर्वमनोरथसिद्धयस्तुरंगमा एव शरणमयस्कन्दः परानीवभेदनं
चतुरंगमसाध्यमेतत् । -वहीं, सूत्र ८ ।
३. तर्जिका ( स्व ] रथस्लणा करोखरा गाजिगाणा केकाणा पुष्टाहारा गाम्हरा सादयारा
सिन्धुपारा जात्याश्वानां नवोत्पत्तिस्थानानि । -वहीं, सूत्र १० ।
७८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
देवसूरिने इस विभागका बड़ा भारी दायित्व बतलाया है। राज्यको रक्षा करना
और उसकी अभिवृद्धि करना इस विभागका ही काम है ।
इस विभागकी ब्यबस्थाके सम्बन्ध में उल्लेख करते हुए सोमदेवसूरिने कोट्ट पाल-दण्डपाशिकको इस विभागका प्रधान बतलाया है। चोरी, डकैती, बलात्कार आदिके मामले पलिम द्वारा सुलझाये जाते थे। पुलिसको बड़े-बड़े मामलों में सेनाकी सहायता भी लेने को लिखा है। इस विभागको सुदद करनेक लिये गुप्तचर नियुक्त करना आवश्यक है। गाँवोंमें मुखियाको हो पुलिसका उच्चाधिकारी बतलाया है। श्वन-सम्पति, पशु आदिके अपहरगकी पूरी तहकी कात मुखियाको ही वारनी चाहिये । मुखिया अपने मामलोंकी जाँचमें गुप्तचरों से भी सहायता ले सकता है। पुलिस-विभागको सफलता बहुत कुछ गुप्तचर सी० आई० डी० पर ही आश्रित मानी गयी है। गुप्तचरोंके गुणोंका निरूपण करते हुए बताया है कि सन्तोषी, जितेन्द्रिय, सजग, निरोगी, सत्यबादी, तार्किका और प्रतिभाशाली व्यक्तिको इस महत्त्वपूर्ण पदपर नियुक्त करना चाहिये। गुप्तचरके लिए कपटी, धूर्त, मायावी, शकुन-निमित्त-ज्योतिप-विशारद, गायक, नर्तक, विदूषक, वैतालिक, ऐन्द्रजालिक होना चाहिए। ___ यों तो ३४ प्रकारके व्यक्तियोंको चर नियुक्त करने पर जोर दिया है। पुलिसविभागकी व्यवस्थाके लिए अनेक कानून भी बतलाये गए हैं तथा शासन के लिए अनेक कार्यों एवं पदोंका प्रतिपादन किया है।
इस विभागका वर्णन करते हुए सोमदेवसूरिने राज्य-संचालनके लिए कोषपर बड़ा जोर दिया है। जो राजा सम्पत्ति-वित्तिके लिए कोष सञ्चय करता है, बही अपने राज्यका विकास कर सकता है । कोषमें सोना, चाँदो द्रम्म [मुद्राएँ एवं धान्यका संग्रह अपेक्षित है। इन आचार्यने कोषकी महत्ता दिखलानेके
१. स्वापरण्डलकार्याकार्यावलोकने चाराश्चशे पि क्षितिफ्तीनाम् ।-नीतिवाक्यामृतम,
चारसमद्देश्य, सूत्र ।
२. अलौत्यममान्द्यमषाभाषित्व मन्य हकत्वं चेति चारगुणाः ।
कापटिकादास्थितगृहपतिय हिकतापक्तिवकिरातममपट्टिकाहिण्डिकौण्डिकशोभि. कपाटावर विटविदूषकपीरमर्दकनटनतंकगायकवादकवाग्जीव कगणक शाकुनिकभिगन्द्र जालियनमित्तिकसूदारालिकसंवाहिकतीक्ष्णन ररसद्जडभूकचिरान्धवमानस्थायिया यिभेदेनावरावर्ग:-वही, चारसमुद्देश्य, सत्र २ और ८ ।
३. वहीं, कोशसमुद्देश्य, सूत्र १, २ ।
लिए कोषको ही राजा बताया है, क्योंकि जिसके पास द्रव्य है वही संग्राममें विजय प्राप्त कर लेता है। बनहीनको संसारमें कुटुम्बी-स्त्री, पुत्र आदि भी छोड़ देते हैं, तब गजाओंके लिये धनहीनता किस प्रकार बड़प्पन हो सकती है। कोषमंग्रहगें प्रभम्न धान्यसंग्रहको बतलाया है, क्योंकि सबसे अधिक प्रधानता इलीकी है। धान्य होनेमे ही प्रजा और मेनाको जीवन-यात्रा चल सकती है। युद्धकालगे भी धान्यकी विशेष आवश्यकता पड़ती है। रस-संग्रहमें लवणको प्रधानता दो गयी है।
आय-व्ययकी व्यवस्थाका लिा. पाँच प्रकारके अधिकारी नियुक्त करनेका नियमन किया है। इन अधिकारियों का आदायत्रा, बिक, पतलाक, नीनिग्राहक और गजाध्यक्ष बतलाये है। आदायकका कार्य दण्डादिकके द्वारा प्राप्त द्रव्यको ग्रहण करना, निबन्धकका कार्य विवरण लिखना, प्रतिबन्धकका रुपये देना, नीविग्राहकका भांडारमें रुपये रखना और राज्याध्यक्षका कार्य सभी आय-व्यापक बिभागोंका निरीक्षण करना है। राज्यकी आमदनी व्यापार, कर, दण्ड आदिसे तो करनी ही चाहिये, पर विशेष अवगं पर देवमन्दिर, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंका संनिस चन, बश्याओं, विधवा स्त्रियों, जमीन्दागे, धनियों प्राममूटी, सम्पन्न कुम्बियों एवं मंत्री, पुरोहित, सेनापत्ति प्रभूति अमात्योंमे धन लेना चाहिये।
जिस राज्य में कृषि, व्यापार और पशुपालनकी उन्नति नहीं होती, वह राज्य नष्ट हो जाता है। राजाको अपने यहाँक मालको बाहर जानेसे रोकनेके लिए तथा अपने यहां बाहर के मालको न आने देनेके लिए अधिक कर लगाना चाहिये । अपने यहाँ व्यापारकी उम्नति के लिए राजाको व्यापारिक नीति निर्धारित करना, यातायात के साधनोंको प्रस्तुत करना एवं वैदेशिक ब्यापारके सम्बन्धम कर लगाना या अन्य प्रकारके नियम निर्धारित करना राजाके लिये
१. "कृषिः पशुपालन वणिज्या च वार्ता बश्यानाम् ।।"
'बात समृद्धो सम्: समृद्धयों रानः ।।"
शुल्कबुद्धिबलात्पण्यग्रहणं च दशान्तरभाण्डाना मप्रवंशे हेतुः ।-नीतिवाक्यामृतम्, वार्ताममुद्देश्य, सत्र १, २,११1
यावश्यक है। समानी आनिक रनलिके लिए वाणिज्य और नालायको बढ़ाना मालके आने-जाने पर कर लगाना प्रत्येक राजाके लिए अनिवार्य है।
सोमदेवसूरिने नीतिवाक्यामृत' में न्यायालय-व्यवस्थाके लिए अनेक आवश्यक बातें बतलायी है। इन्होंने जनपद प्रान्त, विषय-जिला, मंडल-तह सोल, पुर–नगर और ग्राम इनकी शासन-प्रणाली संक्षेपमें बतलायी है । राजाकी एक परिषद् होनी चाहिए, जिसका राजा स्वयं सभापति हो और यही परिषद् विवादों-मुकद्दमोंका फैसला करे । परिषद के सदस्य राजनीतिक पूर्ण ज्ञाता, लोभ-पक्षपातसे रहित और न्यायी हो । वादी एवं प्रतिबादीके लिए अनेक प्रकारके नियम बतलाते हुए कहा है कि जो वादी या प्रतिवादी अपना मुकदमा दायर कर समयपर उपस्थित न हो, जिसके बयानमें पूर्वीपर विरोध हो, जो बहस द्वारा निरुत्तर हो जाये, या वादी प्रतिवादीको छलसे निरुत्तर कर दे, वह सभा द्वारा दण्डनीय है। वाद-विवादके निर्णयके लिए लिखित साक्षी, भुक्ति अधिकार, जिसका बारह वर्ष तक उपयोग किया जा सका है, प्रमाण है । न्याया लयमें साक्षीके रूप में ब्राह्मणसे सुवर्ण और यज्ञोपवीतके स्पर्शनरूप शपथ, क्षत्रियसे शस्त्र, रत्नभूमि, वाहनके स्पर्शनरूप शपथ, वैश्यसे कान, बाल और काकिणी- एक प्रकारका सिक्का ) के स्पर्शनरूप शपथ एवं शूद्रासे दुध, बीजके स्पर्शनरूप शपथ लेनी चाहिये। इसी प्रकार जो जिस कामको करता है, उससे उसी कार्यको छुआ कर शपथ लेनी चाहिये । सोमदेवने शासन व्यवस्था-सम्बन्धी कुछ नियम भी बतलाये हैं।
नीतिका वर्णन करते हुए सन्धि, विग्रह, थान, आसन, वैधीकरण और संश्रय इन छह गुणोंका तथा राजनीतिके साम, उपदान, दण्ड और भेद इन चारो अंगोंका विस्तारसहित प्रतिपादन किया है ।
"पणवन्धः सन्धि:"-अईन् जब राजाको यह विश्वास हो जाये कि थोड़े ही दिनमें उसकी सैन्य-संख्या बढ़ जाएगी , कस्समें अपेवाकल बधिक बल आ जाये, तो वह क्षति स्वीकार कर यो सन्धि कर ले । बवदा प्रपल सबाले आक्रान्त हो और क्यानका उपाय न हो, तो कुछ भेंट देकर सन्धि कर ले ।
"अपराधो विग्रहः" अर्थात् जब अन्य राजा अपराध करे, राज्यपर आक्रमण करे या राज्यकी वस्तुबाका अाहरण करे, तो उस समय उसे दण्ड
देनेकी व्यवस्था करना विग्रह है। विग्रहके समय राजाको अपनी शक्ति, कोष
और बल–सेनाका अवश्य विचार करना चाहिये ।
'अभ्युदयो यान'-शत्रुके ऊपर आक्रमण करना, या शत्रुको बलवान समझ कर अन्यत्र चला जाना यान है।।
'उपेक्षणमासन - यह एक प्रकारसे बिराम-सन्धिका रूपान्तर है। जब उभयपक्षका सामर्थ्य घट जाये, तो अपने-अपने शिविरमें विश्राम के लिए आदेश देना अथवा मन्त्री, परपक्ष और स्वस्वामीकी शक्ति एवं सैन्य-संख्या समान देख कर अपने राजाको एकभावस्थान लेनेका आदेश देना आसन है ।
'परस्यात्मार्पा संश्रयः'-शत्रुसे पीड़ित होनेपर या उससे क्लेश पानेकी आशंका होनेपर अन्य किसो बलबान राजाका आप्रय लेना संश्रय है।
"एकेन सह सान्ध्यमन्येन सह विग्रहकरणमेकेन वा शत्री सन्धानपूर्व विग्रहो द्वैधीभावः"-जब दो शत्रु एक साथ विरोध करें, प्रथम एकके साथ सन्धि कर दुसरेसे युद्ध करे और जब वह पराजित हो जाये, तो प्रथमके साथ भी युद्ध कर उसे भी हरा दे । इस प्रकार दोनोंको कूटनीतिपूर्वक पराजित करना या मुख्य उद्देश्य गुप्त रखकर वैरममें शत्रुसे सन्धि कर अवसर प्राप्त होते ही अपने उद्देश्य के अनुसार विग्रह करना द्वैधीकरण है। यह कूटनीतिका एक अङ्ग है। इसमें बाहर कुछ और भीतर कुछ भाव रहते हैं।
जिस उपाय द्वारा शत्रुकी सेना से किसीको बहकाकर अपने पक्ष में मिलाया जाये अथवा शत्रुदल में फूट डालकर अपना कार्य साध लिया जाये, मेद है । इस प्रकार चतुरंग राजनीतिका भी भेद-प्रभेदपूर्वक नीतिवाक्यामृतमें वर्णन आया है। राजा अपनी राजनीतिके बलसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश बन जाता है । जनताके जान-मालफी रक्षाके लिए नियम, उपनियम और विधान भी राजाको हो बनाना होता है। राजाको प्रधानतः नियम और व्यवस्था, परम्परा कोर रूढ़ियोंका संरक्षक होना अनिवार्य है।
सोमदेवमूरिने राज्यका लक्ष्य धर्म, अर्थ और कामका संबद्धन माना है। धर्म सवर्द्धनसे उनका अभिप्राय सदाचार और सुनीतिको प्रोत्साहन देना तथा जनता
में सच्ची धार्मिक भावनाका संचार करना है। अर्थसंबईतके लिए , उद्योग और वाणिज्यकी प्रगति, राष्ट्रीय साधनोंका विकास एवं कृषि-विस्तारके लिए सिंचाई और नहर आदिका प्रवन्ध करना आवश्यक बतलाया है। काम संवर्द्धनके लिए शान्ति और सुव्यवस्था कर प्रत्येक नागरिकको न्यायपूर्वक सुख भोगनेका अवसर देना एवं कला-कौशलकी उन्नति करना बताया है। इस प्रकार राज्य में शान्ति और सुव्यवस्थाके स्थापनके लिए जनताका सर्वाङ्गीण, मैतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और शारीरिक विकास करना राजाका परम कर्तव्य है। इसी कारण राजाके अनेक गुण बतलाये हैं।
बताया है कि सबसे पहले पुत्रका, अनन्तर भाईका, भाईके अभावमें विमाता के पुत्र सौतेले भाईका, इसके अभाव में चाचाका, चाचाके अभावमें सगोत्रीका, सगोत्रीके न रहने पर नाती -लड़कीके पुत्रका एवं इसके अभावमें किसी आग न्तुकका अधिकार होता है।
इस प्रकार इस 'नीतिबाक्यामृत' में राजनीति और अर्थशास्त्र पर अच्छा प्रकाश डाला गया है।
आचार्य सोमदेवका दूसरा ग्रन्थ यशस्तिलकचम्पू है । इसकी कथावस्तु महाराज यशोधरका चरित है, जो आठ आश्वासोंमें विभक्त है। प्रथम आश्वासमें कथाकी पृष्ठभूमि है । अन्तके तीन आश्वासोंमें उपासकाध्ययन अर्थात् श्रावका चार वर्णित है। यशोधरकी वास्तविक कथावस्तु मध्यके चार आश्वासों में स्वयं यशोधर द्वारा अभिहित है। कथाकी गद्य-शैली बाणकी 'कादम्बरी' के तुल्य है । 'कादम्बरी' में 'वैशम्पायन शुक' कथा कहना आरम्भ करता है और कथावस्तु सीन जम्मोंमें लहरिया गतिसे भ्रमण कर यथास्थान पहुंच जाती है। सम्राट मारिदत्त द्वारा आयोजित महानवमीके अनुष्ठानमें अपार जनसमुदायके बीच बलिके लिए लाया गया प्रजित राजकुमार यस्तिलककी कथाका प्रारम्भ करता है। आठ जन्मोंकी कथा शीघ्र ही घूमती हुई अपने मूल सूत्र पर मुड़ जाती है। यशस्तिलककी यह पाया अत्यन्त लोकप्रिय रही है और आठवीं शताब्दीके दार्शनिक एवं हरिभद्रसे लेकर संस्कृत और अपभ्रशके अनेक कवियों द्वारा भी गृहीत होती रही है । यही कारण है कि संस्कृत और अपभ्रश भाषामें अनेक यशोधर-काव्य लिखे गये हैं।
यौधेय नामका एक जनपद था, जिसकी राजधानी राजपुर थी । यहाँ मारि दत्त राजा राज्य करता था। एक दिन उसे वीरभैरव नामक कवलाचार्यने
बताया कि चण्डमारि देवीके सामने सभी प्रकारके पशुयुगलके साथ सर्वांग सुन्दर मनुष्ययुगलकी बलि करनेके लिए, वह विद्याधर-लोकको जीतने चला। मारिदत्त विद्याधर-लोककी विजय करने और वहाँकी कमनीय कामनियोंके कटाक्षावलोकनको उत्सुकताको रोक न सका । उसने चण्डमारि मन्दिरमें महा नवी आयो अनी अपूर्व उत्साह और धूम-धामसे सम्पन्न करनेकी घोषणा की। सभी तरहके पशु एकत्र किये गये। मनुष्पमालकी कमी देखकर राज्य कर्मचारी उसकी तलाश में निकले । इसी समय राजधानीके निकट सुदस नामके मुनि आकर ठहरे। उनके साथ अन्य दो अल्पवयस्क शिष्य भी थे। ये दोनों भाई बहन, अस्य अवस्थामें ही राज्य त्याग कर साधु हो गये थे। मध्याह्नमें वे दोनों अपने गुरुकी आज्ञा लेकर मिलाने के लिए नगरमें गये। यहां उनकी राज्य कर्मचारियोंसे मेंट हुई। कर्मचारी बिना किसी रहस्यका उद्घाटन किये ही, बहाना बनाकर उन दोनोंको पारमारि मन्दिरमें ले गये । मारिदत्त इस सर्वाग सुन्दर नर-युवलाको प्राप्त कर अत्यंत प्रसन्न हुबा और उसने विद्याधर लोक जीसने की इच्छा छोड़ दी। उसने इस सुन्दर नर-युगलको देखकर उनका परिचय जानना चाहा।
-प्रथम आश्वास मुनि कहने लगा--भरतक्षेपमें अवन्ति नामका एक जनपद है। इसकी राजधानी .उज्जयनी शिप्रा नदी के किनारे बसी है। यहाँ राबा पशबन्धु राज्य करता था। उसकी चन्दपसी नामकी रानी थी। उन दोनोके यशोधर नामका एक पुत्र हुआ । एक दिन राजाने अपने सिरपर श्वेत केश देखे, उन्हें देखकर उसे वैराग्य हो गया और उसने अपने पुत्रको राज्य देकर संन्यास ले लिया । यसोपरला राज्याभिषेक और अमतमसीके साथ उसका पाणिग्रहण संस्कार शिके तटपर एक मिशाल मण्डपमें घूम-धामके साथ सम्पन्न हुन।
-द्वितीय आश्वास यशोधरने राज्य प्राप्त कर उसकी सुव्यवस्था की । प्रजा के .हितके अनेक कार्य सम्पन्न किये।
-तृतीय आश्वास एक दिन राजा यशोधर रानी ममतमतीके साथ विलास करके लेटा ..ही था कि रानी उसे सोया समझ धौरेसे पम्पसे उतरी और दासीके वस्त्र पहनकर भवनसे निकल पड़ी। यशोधर इस रहस्वको अवमत्त करनेके लिए चुपकेसे उसके पीछे हो गया । उसने देखा कि रानी गजपालामें पहुंचकर अत्यन्त गन्दे विजय मकरध्वज नामक महाक्तके साथ विलास कर रही है। उसके आश्चर्य, क्रोध और घृणा का ठिकाना न रहा। वह क्रोधाभिभूत होकर उन दोनोंको मारनेके लिए सोचने लगा, पर कुछ क्षण रुक कर उल्टे पांव लौट आया और राजमहलमें आकर पलंग पर पुनः सो गया । महावतके साथ रति
करनेके उपरान्त रानी लौट आयो और यशोषरके साथ पलंग पर इस प्रकार
चुपकेसे सो गयी, मानो कुछ हुआ ही न हो। __इस घटनासे यशोधरके मनको बड़ो चोट लगी। उसका दिल चूर-चूर हो गया । संसारको असारता उसके समक्ष नृत्य करने लगी। वह नारीजातिके छल-कपटके सम्बन्धमें बार-बार सोचने लगा | जितना ही वह सोचता जाता था, उतना ही उसका मन घृणासे भरता चला जाता था । प्रात:काल होनेपर यशोधर राजसभामें पहुंचा, तो उसकी माता चन्द्रमतीने उसे उदास देखकर पूछा--"वत्स ! तुम्हारी उदासीका क्या कारण है ? आज तुम्हारा मुख म्लान क्यों हो रहा है?" यशोधरने बात टालनेकी दृष्टिसे कहा- "आज मैंने रात्रिके अन्तिम प्रहरमें एक भयंकर स्वप्न देखा है। मैं अपने पुत्र यशोमतिको राज्य देकर सन्यस्त हो गया हूँ। शत्रु मेरे राज्य पर आक्रमन कर रहे हैं और यशोमति उन शत्रुओंका सामना करनेमें असमर्थ है।"
"अतएव हे माता ! मैं अब अपनी कुलपरम्पराके अनुसार राजकुमारको सिंहासन देकर दिगम्बर मुनि होना चाहता हूँ।" पुत्रके इन वचनोंको सुनकर राजमाता अत्यन्त चिन्तित हुई और उसने कुलदेवी बाडमारीके मन्दिरमें बलि चढ़ाकर स्वप्नकी शांति करानेका ..उपाय बताया : ..यशोधर पशुहिंसा के ...लिए किसी भी मूल्य पर तैयार नहीं हुआ, तो राजमाताने कहा कि आटेका मुर्गा बनाकर उसीको बलि करेंगे। अशोघरको विवश होकर यह मानना पड़ा। उसने विचार किया कि "कहीं राजमाता मेरे द्वारा अवज्ञा होने पर कोई अनिष्ट च कर बैठे । अतएव मुझे माँ की बात स्वीकार कर लेनी चाहिये ।" एक ओर चण्डमारिक मन्दिरमें बलिका आयोजन होने लगा और दूसरी ओर कुमार यशोमतिक राज्याभिषेककी तैयारियां होने लगीं।
अमृतमतीको जब यह समाचार ज्ञात हुआ, तो भोतरसे वह प्रसन्न हुई, पर दिखावा करती हुई कहने लगी--"स्वामिन् ! मुझे छोड़कर आप संन्यास लें, यह उचित नहीं। अतः कृपाकर मुझे भी अपने साथ ले चलें।" ___ यशोधर कुलटा रानीकी लिलाईसे तिलमिला उठा । उसके मनको गहरी व्यथा हुई, फिर भी वह शान्त रहा। मन्दिरमें जाकर उसने आटेके मुर्गको बलि चढ़ायी। इससे उसकी माँ तो प्रसन्न हुई, किन्तु रानीको दुःख हुआ कि कहीं राजाका वैराग्य क्षणिक न हो। अतएव उसने बलि किये हुए बाटेके मुर्गे प्रसादको बनाते समय, उसमें विष मिला दिया । जिसके ..खाने से यशोधर और उसकी माँ दोनोंकी मृत्यु हो गयी।
-..चतुर्थ आश्वास मृत्यु के बाद मां और पुत्र दोनों ही छह जन्मों तक पशुपोनिमें भटकते रहे । प्रथम जन्ममें यशोधर मोर हुआ और उसकी माँ चन्द्रमती कुत्ता ! दुसरे जन्ममें यशोधर हिरण हुआ और चन्द्रमती सर्प । तृतीय जन्ममें वे दोनों शिप्रा नदीमें जल-जन्तु हुए। यशोधर एक बड़ी मछली हुआ और चन्द्रमती एक मगर | चतुर्थ जन्ममें दोनों बकरा-बकरी हुए । पञ्चम जन्ममें यशोधर पुनः बकरा हुआ और चन्द्रमती कलिंगदेशमें भैंसा हुई। छठे जन्ममें यशोधर मुर्गा और चमगती मुर्गी हुई।
मुर्गा-मुर्गीका मालिक वसन्तोत्सवमें कुक्कुट युद्ध दिखानेके लिए उन्हें उज्जयिनी ले गया । यहाँ सुदत्त नामके आचार्य ठहरे हुए थे। उनक उपदेशसे उन दोनोंको अपने पूर्व जन्मोंका स्मरण हो गया और उन्हें अपने किये पर पश्चात्ताप होने लगा। अगले जन्ममें वे दोनों मरण कर राजा यशोमतिके यहाँ उसकी रानी कुसुमावलिके गर्भसे युगल भाई-बहनक रूपमें उत्पन्न हुए । उनके नाम कमशः अभयरुचि और अभयमति रखे गये। एक बार राजा यशोमति सपरिवार आचार्य सुदत्तके दर्शन करने गया और वहाँ अपने पूर्वजोंकी परलोक यात्राके सम्बन्ध में प्रश्न किया । आचार्य सुदसने अपने दिव्यशानके प्रभावसे बतलाया कि तुम्हारे पितामह यशोध अथवा यशबन्धु अपने तपश्चरणके प्रभाव से स्वर्गमें सुख भोग रहे हैं और तुम्हारी माता अमृतमती विष देनेके कारण नरकमें वास कर रही है। तुम्हारे पिता यशोधर तथा उनको माता चन्द्रमती आटेके मुर्गेकी बलि देनेके पापके कारण छह जन्मों तक पशु योनिमें भ्रमण कर अपने पापका प्रायश्चित्त कर तुम्हारे पुत्र और पुत्रीक रूपमें उत्पन्न हुए हैं। आचार्य सुदत्तने उनके पूर्वजन्मकी यह कथा सुनायी, जिसे सुनकर उन बालकों को संसारके स्वरूपका ज्ञान हो गया और इस भयसे कि बड़े होनेपर पुन: संसार चक्रमें न फंस जायें, उन्होंने कुमारकालमें ही दीक्षा ले ली। इतना कहकर अभयरचिने कहा-"राजन् ! हम दोनों वही भाई-बहन हैं। हमारे वे आचार्य सुदत्त इसो नगरके पास ठहरे हुए हैं। हम लोग उन्हींको आज्ञा लेकर भिक्षाके लिए नगरमें आये थे कि आपके कर्मचारी हमें पकड़ कर यहाँ ले आये।"
–पञ्चम आश्वास आगेको कथावस्तुमें बताया गया है कि मारिदत्त यह वृत्तान्त सुनकर आश्चर्यचकित हुआ और कहने लगा-"मुनि कुमार हमें शीघ्र ही अपने गुरुके निकट ले चलो। मुझे उनके दर्शनोंकी तीव्र उत्कंठा है। सभी लोग आचार्य सुदसके पास पहुंचे और उनके उपदेशसे प्रभावित होकर धर्ममें दीक्षित हो गये।
इस कथावस्तुके पश्चात् अन्तिम तीन आश्वासोंमें उपासकाध्ययनका वर्णन है, जो ४६ कल्पों में विभाजित है। प्रथम कल्पका नाम समस्तसमसिद्धान्ता
८६ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्यपरम्परा
वोधन है। इसमें वैशेषिक, पाशपत, कुलाचार्य, सांख्य, बौद्ध, जैमिनीय, चार्वाक, वेदान्स आदि दर्शनोंके तत्वोंकी समीक्षा की गयी है। द्वितीय कल्पका नाम आप्तस्वरूप-मीमांसन है। इसमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव, बुद्ध और सूर्य
आदिके आप्तस्वकी मीमांसा की गयी है। तृतीय कल्पका नाम आगमपदार्थ परीक्षण है, इसमें सोमदेवने आगमकी समीक्षा करते हुए जैन मुनियोंके आचार से सम्बन्धित स्नान नहीं करना, आचमन नहीं करना, नग्न रहना, खड़े होकर भोजन करना जैसे आचारमें जद्भावित दोषोंका निराकरण किया है। चतुर्थ मुद्दतोन्मथन कल्पमें प्रचलित लोक-मूढ़ताओंकी समीक्षा की गयी है। लोक मूढ़ताओंमें ग्रहण-स्नान, संक्रान्ति-दान, अग्नि-पूजन, धर्मभावनासे नदी-समुद्रमें स्नान, वृक्ष-पूजा, स्तुप-बन्दन, गोमूत्र-सेवन, रत्न, भूमि, यक्ष, शस्त्र, पर्वत पूजन आदिकी गणना की गयी है। अन्ततः सम्यक आप्त, आगम और तत्वोंकेअडानको सम्यग्दर्शन निरूपित किया है। ___ चार कल्पोंके पश्चात् आगेके सोलह कल्पोंमें सम्यग्दर्शनके आठों अगोंमें प्रसिद्ध अञ्चन चोर, अनम्तमती, उद्यायन, रेवतीरानी, जिनेन्द्रभक्त सेठ, वारि षेण, विष्णुकुमार मुनि और वनकुमार मुनिको रोचक कथाएं दी गया है। २१वें कल्पमें सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति-निमित्तोंका कथन करते हुए निसर्गज और अधिगमज भेदों एवं सराग और वीतराग भेदों तथा उनके अभिव्यजक प्रश मादिका स्वरूप बतलाया गया है । २२से २५बैंकल्प तक मद्य, मांस, मधु आदिके दोष बतलाते हुए मद्यपान और मांस-भक्षणके संकल्पसे उत्पन्न दोष और उनके त्यागसे उत्पन्न होनेवाले कल्याणका कथाओं द्वारा वर्णन किया गया है । २६ से 32 वे कल्प तक पंचाणुव्रतोंका वर्णन है और हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रहसे उत्पन्न हुई बुराइयोंको बतलाते हुए पांच कथाएं प्राञ्जल गद्य मे लिखी गयी हैं । तेतीसवें कल्पमें तीन गुणवतोंका वर्णन है ।
चौतीसर्वे कल्पसे चलीसवें कल्प तक सामायिकशिक्षाप्रतका निरूपण है। सोमदेवने सामायिकका अर्थ जिनपूजासम्बन्धी क्रियाएँ लिया है। अतः ३४ वे कल्पमें स्नान-विधि, ३५वें में समाचार विधि, ३६३में अभिषेक और पूजन-विधि, ३७व में स्तवन-विधि, ३८३में जप-विधि, ३९वे में ध्यान-विधि और ४०, कल्पमें श्रुताराधन-विधि वर्णित है | ४१वे कल्पमें प्रौषधोपवास, ४२वें कल्पमें भोगोप भोगपरिमाणवत और ४३ कल्पमें दानको विधिका वर्णन आया है। ४४वें कल्पके प्रारम्भमें श्रावकको ग्यारह प्रतिमाओंको संक्षेपमें बतलाकर यतियोंके लिए जैनेतर सम्प्रदायमें प्रचलित नामोंकी निरुक्तियाँ दी गयी हैं, जो एक नयी वस्तु है। ४५वमें संल्लेखना और ४६वें कल्पमें कुछ फुटकर बातोंका कथन है। इस तरह सोमदेवका यह उपासकाध्ययननिरूपण विशेष महत्त्वपूर्ण है।
उपासकाध्ययमका है। उसीके असमाधिभर
सोमदेवके इस लपासकाध्ययननिरूपणपर सबसे अधिक प्रभाव आचार्य समन्तभद्रके रत्नकरण्डकश्रावकाचारका है। उसीके अनुसार इसमें सम्यग्दर्शन, अष्टमूलगुण, द्वादशावत, एकादश प्रतिमाएँ और समाधिमरणका कथन हैं। जटासिंहनन्दिके वरांगचरितका भी प्रभाव इस पर है।
जिनसेनके महापुराण और गुणभद्रके आस्मानुशासनका भी प्रभाव उपासका ध्ययनपर दिखलाई पड़ता है।
इस ग्रन्थका दूसरा नाम योगमार्ग भी है। यह अध्यात्मविषयक रचना है। इसमें ४० पद्य हैं । एक प्रकारसे यह ग्रन्थ स्तोत्रशैली में लिखा गया है। आत्मा का स्वरूप, शक्ति, गुण, समुद्घात, चारित्र, आशस्व , बन्ध आदिका विश्लेषण करते हुए नित्य कर्मबन्धनरहित आत्माका स्वरूप निरूपित किया है। आतं, रौद्र, धर्म और शुक्ल ध्यानका भी संक्षेपमें कथन किया है। रचना बड़ी हवा और उपदेशप्रद है।
सोमदेव अद्वितीय प्रतिभाशाली कवि और दार्शनिक विद्वान् हैं। इनके गद्य और पद्य दोनोंमें शब्द-रमणीयताके साथ अर्यरमणीयता विद्यमान है। उदात्त वर्णन, नवीन शब्दावलि और उच्च-भावभूमिके कारण ही कविको 'कविकुलराज' उपाधि रही होगी। अप्रयुक्त और क्लिष्ट शब्दोंके प्रयोगके लिए सोमदेव प्रसिद्ध हैं। इनके मतसे दोषरहित, माधुर्य आदि गुणयुक्त रसभाब समन्वित एवं अलंकृत रचना ही काव्यको कोटिमें परिगणित की जाती है।
गुरु | आचार्य श्री नेमिदेव |
शिष्य | आचार्य श्री सोमदेवसुरी |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#SomdevsuriPrachin
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री सोमदेवसूरी (प्राचीन)
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 23 एप्रिल 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 23-April- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
आचार्य सोमदेव महान् तार्किक, सरस साहित्यकार, कुशल राजनीतिज्ञ, प्रबुद्ध तत्वचिन्तक और उच्चकोटिके धर्माचार्य थे। उनके लिए प्रयुक्त होने वाले स्याद्वादावलसिंह, नामिम्चावर्ती, प्रदीपनामा, नामको निधि, कविकुलगजकुंजर, अनवद्यगद्य-पविद्याधरचक्रवर्ती आदि विशेषण उनकी उत्कृष्ट प्रज्ञा और प्रभावकारी व्यक्तित्वक परिचायक है। नीतिवाक्या मृतकी प्रशस्तिमें उक्त सभी उपाधियाँ प्राप्त होती है।
ये नेमिदेवके शिष्य, यशोदेवके शिष्य और महेन्द्रदेवके अनुज थे ।
यशोदेवको .देवसंघका तिलक कहा गया है। पर हमके दानपत्रम गौड संघका । नीतिवाक्यामृत और बास्तिलककी प्रशस्तियांके अनुसार नेमिदेव अनेक महावादियोंके विजेता थे । महेन्द्र रचको भी दिग्विजयी कहा जाता है। सोमदेव भी गुम और अनुजक रामान तार्किक होनेक साथ राहृदय कवि भी थे। यशस्तिलकके प्रारम्भमें लिखा है--
आजन्मसमभ्यस्ताच्छुकात्तात्तृणादिव ममास्याः ।
मतिसुरभेगभवदिदं मूक्तिपयः मुकृतीनां पुण्यः ।।
मेरी बुद्धिरूपी गौन जीवनभर तर्करूपी घास खाई , पर अब उसी गौस
१. "इति सकलताकिकचक्रचडामणिचुम्बित्न चरणस्य रमगोमपश्नपञ्चाशन्महावादिविजया
पाजितकोतिमन्नाकिनीपविचित्र त्रिभुवनस्य परलपश्चारणरत्नोपन्यतः श्रीनेमिदेव भगवतः प्रिय शिष्यण दादीन्द्र कालान लश्रीमन्महेन्द्रदेव भट्टारकानुजेन स्याहादाचलसिंह ताकि चक्रवादीभपंचाननवाकालमोलपयोनिधिनिलराजकुजरतभूतिप्रशस्तिप्रस्तावा लारण पणावतिप्रकरण-युक्तिचिन्तामणि-विवर्ग महेन्द्रमातलिसंधाप-प्रशोश्वरमहाराज चरित-महासाबसा श्रीमत्सोमदेवरिणा विरचित नीति वाक्यामृतं नाम राजनीति शास्त्र समाप्तम् ।"
नीनिवाक्यामृतम् , गोपालनारायण कम्पनी, बुकसेलर्स, सन् १८९१, अन्तिम प्रशस्ति ।
२. श्रीमानम्ति स देवसंघतिलको देवो पश:पूर्वकः ।
शिष्यरताप वभून सद्गुणनिधिः श्रीनेमिदेवाह्वयः ॥
तस्याश्चातापस्थितस्प्रिनवतेजैतुमहावादिनाम् ।
शिष्योऽभूदिह सोमदन इति यस्तस्यैष कायक्रमः ।।
..- यशस्तिलक, खण्ड २, पृ. ४१८ ।
३. वही, १।१७।
सज्जनोंके पुण्यके कारण यह काव्यरूपी दूध उत्पन्न हो रहा है। ..पाण्डित्यके सम्बन्धमें स्वयं लिखा है
लोको यूक्तिः कलाश्छन्दालङ्कारा: समयागमाः ।
सर्वसाधारणाः द्धिस्तीर्थभागों न स्मृताः ।।
व्याकरण, प्रमाण, कला, छन्द, अलङ्कार और समयागम-दर्शनशास्त्र तीर्थ मार्गके समान सर्वसाधारण है।
सोमदेवके संरक्षक ारीकंशरो नामक चालुक्य राजा पुत्र वाघराजया वदिग्ग नामक राजकुमार थे ...राष्टकूटों के अगेन सामन्त पदनोधारी था | यशस्तिलका प्रणयन गंगधारा नामक स्थान में रहते हुए किया गया है। धारबाड़, कर्नाटक, महाराष्ट्र और वर्तमान हैदराबाद प्रदेश पर राष्ट्रकूटो का साम्राज्य व्याप्त था। राष्ट्रकूट नरेश ..ाडवी शती से दशवों शती तक महाप्रतापी और समृद्ध रहे हैं। इनका प्रभुत्व केवल भारतवर्षम ही नहीं था, अपितु पश्चिम के अरब राज्योंमे भी व्याप्त था। अरबोंस उनका मत्रीन्यवहार था तथा अरब अपने यहाँ उनको व्यापारको सुविधाएं दिय हुए श्च । इस वशके राजाओ चिरूद वल्लभराज था । इसका रूप अरब लेखकों बल्लहरा पाया जाता है।
सोमदेवने अपने साहित्यमें राष्ट्रकूटाके साम्राज्यक तत्कालीन अभ्युदयका परिचय प्रस्तुत किया है 1 वस्तुत: राष्ट्रकूटोको राज्य्काल साहित्य, कला, दर्शन एवं धर्मकी बहुमुखी उन्नति हुई है। कविका ..यशस्तितिलक चम्पू मध्य कालीन भारतीय संस्कृति के इतिहासका अपूर्व स्तोत्र है ।
नीतिवाक्यामृत और यशस्तिलकचम्पूसे अवगत होता है कि सोमदेवका सम्बन्ध कान्यकुब्ज नरेश महेन्द्रदेवसे रहा है । नीतिवान्यामतको संस्कृतटीका से भी ज्ञात होता है कि कान्यकुम्भ नरेश महेन्द्रदेवके आग्रहसे इस ग्रन्थको रचना सम्पन्न हुई थी।
ज्ञात होता है कि सोमदेवका महेन्द्रदेवके साथ सम्बन्ध रहा है । यस्तिलक के मंगलपद्यमें श्लेष द्वारा कन्नौज और महेन्द्रदेवका उल्लेख आया है।
१. यशस्तिलक १।२० ।
२. "अत्र लविदाखिलभुपालमौलिलालितचरणयुगलेन रघुवंशावस्थाग्निपराक्रमपालितकस्य कर्णकुब्जेन महाराजश्रीमन्महेन्द्रदेवेन पुर्वाचार्गकृतार्थशास्त्रदुःखदोषग्रन्धगोरखसिन्ग मानसेन सबोधललितलघुनौतिवाक्यामृतरचनासु प्रतितः ।"- नीचिवाक्यामृत, माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन अन्यमाला, पृ० २, संस्कृतटीका ।।
यशस्तिलकके हो निम्नलिखित पद्यसे भी सोमदेव और महेन्द्रदेवके सम्बन्धको
अभिव्यञ्जना होती है
सोऽयमाशापित्तयशः महेन्द्रा मरमान्यधीः ।
देवात्ते सततानन्द चस्वभीष्ट जिनाधिपः ।।
अब ...विचारणीय है कि सोमदेवका सम्बन्ध किस महेन्द्रदेवक साथ घटित होता है। कन्नौजके इतिहासमें महेन्द्रदेव या महेन्द्रपाल नामके दो राजा हुए हैं। महेन्द्रपालदेव प्रथमका समय ई० सन् ८८५ से ई० सन् ९०७ तक माना जाता है । यह महाराज भोज ( ई० सन् ८३६-८८५ ) के पश्चात् राजगद्दीपर आसीन हुआ था । महाकवि राजशेखरको बालविके रूप में इसका संरक्षण प्राप्त था | राजशेखर निपुरीके युवराज द्वितीयके समय ( ई० सन ९९० ) लगभग ९० वर्ष की अवस्था में विद्यमान थे। सोमदेवने अपने यशस्तिलकमें महाकवियोके उन्लेख के प्रसंगमें राजशेखरको अन्तिम महाकवि के रूपमें निर्दिष्ट किया है। यशस्तिलक को सोमदेवने ९५९ ई० में ममाप्त किया है । यदि राजशेखरको सोमदेवसे ८-१० वर्ष भी बड़ा माना जाये तो राजशेखरको सोमदेव द्वारा महाकवि कहा जाना ठीक प्रतीत होता है। इस प्रकार सोमदेवका आविर्भाव ई० सन् ९०८ के आस पास होना चाहिए, क्योंकि महेन्द्रपाल प्रथमको समसामयिकता तथा नीतिबाक्या मृतके रचे जाने का आग्रह घटित नहीं होता है । इस कारण महेन्द्रपालदेव प्रथम के साथ सोमदेवका सम्बन्ध नहीं हो सकता है ।
महेन्द्रपार देव द्वितीयका समय ई० सन् ९४५-४६ माना गया है। सोमदेव इस समय सम्भवतः ३५-३६ वर्षके रहे होंगे । अतएव महेन्द्रपालदेव द्वितीय और सोमदेवके पारस्परिक सम्बन्ध काल-सम्बन्धी कठिनाई नहीं है।
सोमदेवका समय सुनिश्चित है। इन्होंने यशस्तिलकमें उसका रचना-समय शकसंवत् ८८१ ( ई० सन् ९५९ ) दिया है । लिखा है--
"चैत्रशुक्ला त्रयोदशी शकसंवत् ८८१ ( ई० सन् १५९) को, जिस समय कृष्णराजदेव पांड्य, सिंहल, चोल, चेर आदि राजाओंको जीतकर मेलपाटी नामक स्थानके सेना-शिविर में थे, उस समय उनके चरणकमलोपजीवी सामन्त
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१. यशस्तिलक, १ |२२० ।
2. "The Age of Imperial Kanauji p. 33.
३. यशस्तिलक, उत्तरार्ष, पु ११३ ।
4. The Age of Imperial Kaunuj p- 37.
वदिंगकी, जो चालुक्यवंशीय अरिकेशरीके प्रथम पुत्र थे, राजधानी गंगधारामें यह काव्य समाप्त हुआ।
अतः सोमदेव ई० सन् ९५९, अर्थात् दशम शतीके विद्वानाचार्य हैं।
इनकी तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं-१. नीतिवाक्यामृत, २. यशस्तिलकचम्पू और अध्यात्मतरंगिणी।
इनके अतिरिक्त यूक्तिचिन्तामणिस्तब, त्रिवर्गमहेन्द्रमातलिसंजल्प, पाणव तिप्रकरण और स्याद्वादोपनिषद्की भी सूचना मिलती है। वद्दिगके दानपत्रसे सोमदेवके एक सुभाषितका भी संकेत मिलता है।
नीति वाक्यामृत राजनीतिका कौटिल्यके अर्थशास्त्रकी तरह उत्कृष्ट ग्रन्थ है। इसमें राजा, मंत्री, कोषाध्यक्ष और शासन-संचालनके मौलिक सिद्धान्तोंका प्रतिपादन किया गया है। नीतिबाक्यामृत मूलरूपमें बम्बईसे सन् १८९१ में प्रकाशित हुआ था । सन् १९२२ में माणिकचन्द्र ग्रन्यमाला बम्बईसे संस्कृतटीका सहित प्रकाशित हुआ। सन् १९५० में पण्डित सुन्दरलाल शास्त्रीने हिन्दी अनु बादके साथ इसका प्रकाशन किया । नीतिवाक्यामृतपर दो टीकाएँ हैं । एक । प्राचीन सस्कृतटीका है, जिसके लेखकका नाम और समय ज्ञात नहीं है। पर मंगलाचरणके श्लोकसे इनका नाम हरिबल ज्ञात होता है
हरि हरिबलं नत्वा हरिवर्ण हरिप्रभम् ।
हरीज्यं च वे टीका नीतिवाक्यामृतोपरि ।।
इससे ऐसा ज्ञात होता है कि जिस प्रकार मुल ग्रन्थ रचयिताने अपना नाम मङ्गलपद्यमें समाहित कर दिया है, उसी प्रकार हरिबलने हरि अर्थात् विष्णुको नमस्कार करते हुए अपने नामको समाहित कर दिया है।
इस ग्रन्थमें ३२ समुद्देश्य हैं 1 जिनके नाम क्रमशः (१) धर्मसमुद्देश्य, (२१ अर्थसमुद्देश्य, (३) कामसमुद्देश्य, (४) अरिषड्वर्ग, (५) विद्यावृद्ध, (६) आन्वीक्षिकी, (७) त्रयी, (८) वार्ता, १९) दण्डनीति, १०) मंत्री, ।११) पुरोहित, (१२सेनापत्ति, (१३) दूत, (१४) चार , (१५) विचार, (१६) व्यसन, (१७) स्वामि, (१८) अमात्य, (१९) जनपद, (२०} दुर्ग, (२१) कोश, (२२) बल, (२३) मित्र, (२४) राजरक्षा, (२५) दिवसानुष्ठान, (२६) सदाचार, (२७) व्यवहार,
१. यशस्तिलक, उत्तरा०, पृ० ४१८।।
२. नीतिवाक्यामृतम्, माणिकचन्द्र दिगम्बर जैनग्रन्थमाला, मङ्गलपच ।
(२८) विवाद, (२९) षाड्गुण्य, (३०) युद्ध, (३१) विवाह और (३२) प्रकरण हैं। धर्मसमुद्देश्यमें धर्मका लक्षण बतलाते हुए लिखा है कि
'यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः'
अर्थात् जिसके साधनसे स्वर्ग च मोक्षकी सिद्धि हो वह धर्म है। धर्माधिग मोपायमें शक्तिके अनुसार त्याग, तपको स्थान दिया है। समस्त प्राणियोंके प्रति समताभावके आचरणको परमाचरण बताया है। जो व्यक्ति सभी प्रकारके भेदभाव और पक्षपातोका त्याग कर प्राणिमात्रके प्रति समताभावका आचरण करता है, संसारमें उसका कोई भी शत्रु नहीं रहता, सभी मित्र बन जाते हैं। समताभावके आचरणसे ही राग-दुषका अभाव होता है और व्यक्तिके व्यक्तित्व का विकास होता है । अतएव अहिंसावतकें आचरणके लिये समताभावका निर्वाह करना परमावश्यक है। दान देना, शक्ति अनुसार त्याग करना भी धर्माचरणके अन्तर्गत है । ग्रन्धकारने पात्र तीन प्रकारके बतलाये है-धर्म पात्र, २ कार्यपात्र और ३ कामपात्र । इन तीनों प्रकारके पात्रोंकी आर्थिक सहायता करना धर्मके अन्तर्गत है। ग्रन्थकारने लौकिक जीवनको समद्ध बनाने के लिये त्याग, तप और समत्ताके आचरणपर विशेष बल दिया है। तपकी परिभाषा बताते हुए लिखा है कि इन्द्रिय और मनका नियमानुकूल प्रवतन करना तप है, केवल कापाय वस्त्र धारणकर वन मे विचरण करना तप नहीं है। यथा
इन्द्रियमनसोनियमानुष्ठानं तपः।
विहिताचरणं निषिद्धपरिवर्जनं च नियमः' ।
धर्मका स्वरूप और धर्माचरणका महत्त्व सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिसे प्रतिपादित किया गया है। इसके बाद अर्थपुरुषार्थका विस्तारसे विचार किया है। सोमदेवने धर्म, अर्थ और कामको समान महत्त्व दिया है। इनका अभिमत है--
धर्मार्थाविरोधेन कामं सेवेत ततः सुखो स्यात् ।
सम बा विबर्ग सेवेत ।
१. नीतिवा, सूत्र सं० २०, २१ ।
२. वहीं, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, कामरामुद्देश्य, सूत्रसं० २, ३ ।
जो त्रिवर्गमसे किसी एकको महत्त्व देता है, उसका अहित होता है, सोम देवने अर्थको व्याख्या करते हुए लिखा है------
यतः सर्वप्रयोजनसिद्धिः सोऽर्थः ।
अर्थात् जिससे सभी कार्योंको सिद्धि होती है, वह अर्थ हैं। समीक्षा करनेसे ज्ञात होता है कि सोमदेवको उक्त परिभाषा बहुत ही समीचीन है । यतः द्रव्य ( money) के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तुसे समस्त इच्छाएँ तृप्त नहीं हो सकतीं। जिस एक वस्तुके विनिमय द्वारा आवश्यकतानुसार अन्य बस्तु प्राप्त हो सके, वही एक बस्तु सब प्रकारको आवश्यकताओंको पूर्तिका साधन कही जा सकती है। अतः सोमदेवके परिभाषानुसार विनिमय कार्य में प्रयुक्त होनेवाली वस्तु ही अर्थ | Wealth )है। सोमदेबने इस ग्रंथमे अर्थकी महत्ता स्वीकार करते हुए अन्याय और अनर्थका निषेध किया है। अर्थार्जन, अर्थसंरक्षण और अर्थवृद्धिकः कारणोंका भी उल्लेख किया गया है। देश और कालके अनुसार अर्थसम्बन्धी विभिन्न समाधाएँ भी प्रतिरदिा हैं: जगि, माना और वाणिज्यको वार्ता कहा है और इस बार्ताको समृद्धि ही राज्यकी समृद्धि बत लायी है। राजाको कृषि और वाणिज्यको वृद्धिमें किस प्रकार सहयोग देना चाहिये आदि बातोंपर विस्तारसे प्रकाश डाला गया है।
जहाँ आर्थिक पुष्टि राष्ट्रको समृद्धि, खुशहालीके लिए आवश्यक है वहाँ राजनीतिक जागरूकता उसको रक्षाका सबल साधन है । सोमदेवने इन्हीं दोनों पर इसमें गहरा और विस्तृत विचार किया है। अतः इस ग्रन्थमें वर्णित विचारों को दो भागों में विभक्त कर सकते हैं- १) आर्थिक विचार और ( २) राज नीतिक विचार । राजनीतिके अनुसार शासन की बागडोर ऐसे व्यक्तिके हाथमें होती है, जो वंशपरम्परासे राज्यका सर्वोच्च अधिकारी चला आ रहा हो । राजा राज्यको स्थायी समझकर सब प्रकारसे अपनी प्रजाका विकास करता है। राजाकी योग्यता और गुणोंका वर्णन करते हुए बताया गया है-"जो मित्र और शत्रुके साथ शासनकायमें समान व्यवहार करता है, जिसके हृदयमें पक्षपात का भाव नहीं रहता और जो निग्रहः दण्ड, अनुग्रह-पुरस्कारमें समानताका व्यवहार करता है, वह राजा होता है। राजाका धर्म दुष्ट, दुराचारी, चोर, लुटेरे आदिको दण्ड देना एवं साधु- सत्पुरुषोंका यथोचित रूपसे पालन करना है। सिर मुड़ाना, जटा धारण करना, व्रतोपवास करना राजाका धर्म नहीं है । वणं, आश्रम, धान्य, सुवर्ण, चाँदी, पशु आदिसे परिपूर्ण पृथ्वीका पालन करना राजा--
१. नीति ० , अर्थसमुद्देश्य, सूत्रसं० १ ।
का राज्यकर्म है।" राज्यकी योग्यताके सम्बन्धमें सोमदेवसुरिने लिखा है कि राजाको शस्त्र और शास्त्रका पूर्ण पण्डित होना आवश्यक है। यदि राजा शास्त्र ज्ञानरहित हो, और शास्त्रविद्या में प्रवीण हो, तो भी वह कभी-न-कभी धोखा खाता है और अपने राज्यसे हाथ धो बैठता है। जो शस्त्रविद्या नहीं जानता बह भी दुष्टों द्वारा पराजित किया जाता है । अतएव पुरुषार्थी होने क साथ-साथ
राजाको शस्त्र-शास्त्रका पारगामी होना अनिवार्य है। मूर्ख राजा से राजाहीन पृथ्वीका होना श्रेष्ठ है, क्योंकि मुखं राजा से राज्यमें सदा उपद्रव होते रहते हैं। प्रजाको नाना प्रकारके कष्ट होते हैं, अज्ञानी नृप पशुवत होने के कारण अन्धा धुन्ध आचरण करते हैं, जिससे राज्यमें अशान्ति रहती है । __ राज्यप्राप्तिका विवेचन करते हुए बताया है कि कहीं तो यह राज्य वंश परम्परासे प्राप्त होता है और कहींपर अपने पराक्रमसे राजा कोई विशेष व्यक्ति बन जाता है। अत: राजाका मूल क्रम-वंशपरम्परा और विक्रम-पुरुषार्थ शौर्य हैं। राज्य निर्वाह के लिये क्रम, विक्रम दोनोंका होना अनिवार्य है । इन दोनोंमसे किसी एकके अभावसे राज्य-संचालन नहीं हो सकता है। राजाको काम, क्रोध, लोभ, मान, मद और हर्ष इन छह अन्तरंग शत्रुओंपर विजय प्राप्त करना आवश्यक है क्योंकि इन विकारों कारण नृपपति कार्य-अकायंके विचारां से रहित हो जाता है, जिमसे शत्रुओंको राज्य हड़पने के लिए अबसर मिल जाता है। राजाके विलासी होनेसे शासन-प्रबन्ध भी यथार्थ नहीं चलता है, जिससे प्रजामें भी गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है और राज्य थोड़े दिनोमे ही समाप्त हो जाता है। शासकको दिनचर्या का निरूपण करते हुए बताया है कि उसे प्रतिदिन राजकार्यके समस्त विभागों, न्याय, शासन, आय-व्यय, आर्थिक दशा, सेना, अन्तर्राष्ट्रीय तथा सार्वजनिक निरीक्षण, अध्ययन, संगीत, नृत्य अवलोकन और राज्यकी उन्नत्तिके प्रयत्नोंकी ओर ध्यान देना चाहिये।
सोमदेवसूरिने राजाकी सहायताके लिए मन्त्री तथा अमात्य नियुक्त किये जानेपर जोर दिया है। मन्त्री, पुरोहित, सेनापति आदि कर्मचारियों को नियुक्त
१. राज्ञो हि दुष्टनिग्रहः शिष्टपरिपालनं च धर्मः ।
न पुनः शिरोमुण्डन जटाधारणादिकं 11 नीतियाक्यामृतम्, माणिकचन्द ग्रन्थमाला, वर्णान्नमवती धान्यहिरण्यगशुकुम्यकृषिप्रदानफला च पृथ्वी, विद्यावृद्ध
समुदेशय , सूत्र २, ३, ५ ।
२. बही, सूत्र २६ ।
३. वही, अरिपवर्ग, मूत्र है।
करनेवाला नूप आहार्यबुद्धि-राज्य-संचालनप्रतिभा सम्पन्न होता है। जो राजा मन्त्री या अमात्यवर्गकी नियुक्ति नहीं करता उसका सर्वस्व नष्ट हो जाता है। राज्यका संचालन मन्त्रीवर्गकी सहायता और स स सम्मतिसे ही यथार्थ हो सकता है। जो शासक ऐसा नहीं करता बह अपने राज्यकी अभिवृद्धि एवं संरक्षण सम्यक् रूपसे नहीं कर सकता। मन्त्रियोंके गुणोंका वर्णन करते हुए बताया है कि "पवित्र, विचारशील, विद्वान्, पक्षपातरहित, कुलीन, स्वदेशज, न्यायप्रिय, व्यसनरहित, सदाचारी, शस्त्रविद्यानिपुण, शासनतन्त्रके विशेषज्ञको ही मन्त्री बनना चाहिये । मन्त्रिमण्डल राज्य-व्यवस्थाका अविच्छेद्य अंग माना गया है । मन्त्रिमण्डलके सदस्योंकी संख्या तीन, पाँच अथवा सातसे अधिक नहीं होना चाहिये।
राज्यको सुरक्षित रखने एवं शत्रुओंके आक्रमणोंसे बचानेके लिये एक सुदृढ़ और बहुत बड़ी सेनाकी आवश्यकता है। यह विभाग अत्यन्त महत्वपूर्ण बतलाया गया है। राज्यकी आयका अधिकांश भाग इसमें खर्च होना चाहिये । इस विभागकी आवश्यक सामग्री एकत्र करने एवं सेना सम्बन्धी व्यबहारके संचालन के लिये एक अध्यक्ष होता है, जिसे सेनापत्ति या महाबलाधिकृत कहा गया है। गजबल, अश्वबल, रथबल और पदातिबल ये चार शाखाएँ सेनाकी बतायी हैं। इन चारों विभागोंके पृथक्-पृथक् अध्यक्ष होते हैं, जो सेनापतिके आदेशानुसार कार्य करते हैं। चारों प्रकारकी सेनामें गजबल सबसे प्रधान है, क्योंकि एक-एक सुशिक्षित हाथी सहस्रों योद्धाओंका संहार करने में समर्थ होता है। शत्रुके नगरको ध्वंस करना, चक्रव्यूह तोड़ना, नदी जलाशय आदि पर पुल बनाना एवं सेनाकी शक्तिको सुदृढ़ करनेके लिये व्यूह रचना करना आदि कार्य भी गजबल के हैं। गजबल का निर्वाचन बड़ी योग्यता और बुद्धिमत्ताके साथ करना चाहिये । मन्द, मृग, संकीर्ण और भद्र इन चार प्रकारकी जातियों के हाथी तथा ऐरावत, पुण्डरीक, कामन, कुमुद, अञ्जन, पुष्पदन्त, सार्वभौम और
१. द्रविणदानप्रियभाषणाम्यामरातिनिवारणेन बद्धि हितं स्वामिन सर्वावस्थासु बलते संवृणोतीति बलम् । --नीतिवाक्यामृतम्, माणिकचन्द दिगम्बर जैनग्रन्थमाला, बल- समुद्देश्य, सूत्र १ ।
२. बलेषु हस्तिनः प्रधानमङ्ग स्वैरनपवरष्टायुधा हस्तिनो भवन्ति । -वही, सूत्र २ ।
३. हस्तिप्रधानो विजयो राज्ञा यदेकोऽपि हस्तिसहस्र योधयति न सौदति प्रहारसहन -
पापि । मुखन यानमात्मरक्षा परपुरावमदनमरिम्यूहविधातो जलेषु सेतुबन्धा बचना दन्यत्र सर्वविनोदहेतवश्चेनि हस्तिगुणाः । वहीं, सूत्र ३-६ ।।
सुप्रतिकार इन आठ कुलोंके हाथियोंको ही ग्रहण करना इस बलके लिये आव श्यक है । गजोंके चुनावके समय जाति, कुल, वन और प्रचार इन चारों बातों के साथ शरीर, बल, शूरता और शिक्षा पर भी ध्यान रखना आवश्यक है। अशिक्षित गजबल राजाके लिये धन और जनका नाशक बतलाया गया है।
अश्वबलकी इनानी सैनिक दृष्टिगे महान पूर्ण मानी गार है। इसे जङ्गम सैन्य बल बताया है। इस सेना द्वारा दूरवर्ती शत्रु भी वशमें हो जाता है। शत्रुकी बड़ी-चढ़ी शक्तिका दमन, युद्ध -क्षेत्रमें नाना प्रकारका रण-कौशल एवं समस्त मनोरथसिद्धि इस बल द्वारा होती है। अश्वबलके निर्वाचन मे भी अश्वो के उत्पत्तिस्थान, उनके गुणावगुण, शारीरिक शक्ति, शौर्य, चपलता आदि बातोपर ध्यान देना चाहिये। रथबलका निरूपण करते हुए उसका कार्य, अजेय शक्ति आदि बातोपर पूर्ण प्रकाश डाला गया है। इस बलके निर्वाचनमें धनुविद्याके ज्ञाता योद्धाओंकी उपयुक्तताका विशेष ध्यान रखना आवश्यक है। पदातिबलमें पैदलसेनाका निरूपण किया है । पैदलसेनाको अस्त्र-शास्त्र में पारंगत होने के साथ-साथ शूर-बीर, रणानुरागी, साहसी, उत्साही, निर्भय, सदा चारी, अब्यसनी, दयालु होना अनिवार्य बतलाया है। जब-तक सैनिको मे उपयुक्त गुण न होंगे, वह प्रजाके कष्ट निवारणमें समर्थ नहीं हो सकता है । सेवाभावी तथा कर्तव्यपरायणता होना प्रत्येक प्रकारकी सेनाके लिये आवश्यक है। सेना पतिकी योग्यता और गुणोंका कथन करते हुए सोमदेवसूरिने कहा है कि कुलीन आचार-व्यवहारसम्पन्न, पण्डित, प्रेमिल, क्रियावान, पवित्र, पराक्रमशाली, प्रभावशाली, बहकुटुम्बी, नीति-विद्यानिपुण, सभी अस्त्र-शस्त्र, सवारी, लिपि, भाषाओंका पूर्ण जानकार, सभीका विश्वास और श्रद्धाभाजन, सुन्दर, कष्टसहिष्णु, साहसी, यविद्यानिपुण तथा दया-दाक्षिण्यादि माना गुणोंसे विभूषित सेनापति होता है। सेनापतिका निर्वाचन मन्त्रियों की सहायतासे राजा करता है । सोम
१. जातिः कुलं वनं प्रचाररुच न हस्तिनां प्रधान किन्तु शरीरं बलं शौर्य शिक्षा च तद्
चिता न सामग्री सम्पत्तिः ।
अशिक्षिता हस्तिनः केवलमर्थप्राणहाः ।-नीतियाक्यामृत, बलस मुद्देश्य, सूत्र ४-५ ।
२. अश्वबलप्रधानस्य हि राज्ञः कदनकन्दुकक्रीडाः प्रसीदन्ति, भवन्ति दूरस्था अपि करस्थाः शत्रच आपत्सु सर्वमनोरथसिद्धयस्तुरंगमा एव शरणमयस्कन्दः परानीवभेदनं
चतुरंगमसाध्यमेतत् । -वहीं, सूत्र ८ ।
३. तर्जिका ( स्व ] रथस्लणा करोखरा गाजिगाणा केकाणा पुष्टाहारा गाम्हरा सादयारा
सिन्धुपारा जात्याश्वानां नवोत्पत्तिस्थानानि । -वहीं, सूत्र १० ।
७८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
देवसूरिने इस विभागका बड़ा भारी दायित्व बतलाया है। राज्यको रक्षा करना
और उसकी अभिवृद्धि करना इस विभागका ही काम है ।
इस विभागकी ब्यबस्थाके सम्बन्ध में उल्लेख करते हुए सोमदेवसूरिने कोट्ट पाल-दण्डपाशिकको इस विभागका प्रधान बतलाया है। चोरी, डकैती, बलात्कार आदिके मामले पलिम द्वारा सुलझाये जाते थे। पुलिसको बड़े-बड़े मामलों में सेनाकी सहायता भी लेने को लिखा है। इस विभागको सुदद करनेक लिये गुप्तचर नियुक्त करना आवश्यक है। गाँवोंमें मुखियाको हो पुलिसका उच्चाधिकारी बतलाया है। श्वन-सम्पति, पशु आदिके अपहरगकी पूरी तहकी कात मुखियाको ही वारनी चाहिये । मुखिया अपने मामलोंकी जाँचमें गुप्तचरों से भी सहायता ले सकता है। पुलिस-विभागको सफलता बहुत कुछ गुप्तचर सी० आई० डी० पर ही आश्रित मानी गयी है। गुप्तचरोंके गुणोंका निरूपण करते हुए बताया है कि सन्तोषी, जितेन्द्रिय, सजग, निरोगी, सत्यबादी, तार्किका और प्रतिभाशाली व्यक्तिको इस महत्त्वपूर्ण पदपर नियुक्त करना चाहिये। गुप्तचरके लिए कपटी, धूर्त, मायावी, शकुन-निमित्त-ज्योतिप-विशारद, गायक, नर्तक, विदूषक, वैतालिक, ऐन्द्रजालिक होना चाहिए। ___ यों तो ३४ प्रकारके व्यक्तियोंको चर नियुक्त करने पर जोर दिया है। पुलिसविभागकी व्यवस्थाके लिए अनेक कानून भी बतलाये गए हैं तथा शासन के लिए अनेक कार्यों एवं पदोंका प्रतिपादन किया है।
इस विभागका वर्णन करते हुए सोमदेवसूरिने राज्य-संचालनके लिए कोषपर बड़ा जोर दिया है। जो राजा सम्पत्ति-वित्तिके लिए कोष सञ्चय करता है, बही अपने राज्यका विकास कर सकता है । कोषमें सोना, चाँदो द्रम्म [मुद्राएँ एवं धान्यका संग्रह अपेक्षित है। इन आचार्यने कोषकी महत्ता दिखलानेके
१. स्वापरण्डलकार्याकार्यावलोकने चाराश्चशे पि क्षितिफ्तीनाम् ।-नीतिवाक्यामृतम,
चारसमद्देश्य, सूत्र ।
२. अलौत्यममान्द्यमषाभाषित्व मन्य हकत्वं चेति चारगुणाः ।
कापटिकादास्थितगृहपतिय हिकतापक्तिवकिरातममपट्टिकाहिण्डिकौण्डिकशोभि. कपाटावर विटविदूषकपीरमर्दकनटनतंकगायकवादकवाग्जीव कगणक शाकुनिकभिगन्द्र जालियनमित्तिकसूदारालिकसंवाहिकतीक्ष्णन ररसद्जडभूकचिरान्धवमानस्थायिया यिभेदेनावरावर्ग:-वही, चारसमुद्देश्य, सत्र २ और ८ ।
३. वहीं, कोशसमुद्देश्य, सूत्र १, २ ।
लिए कोषको ही राजा बताया है, क्योंकि जिसके पास द्रव्य है वही संग्राममें विजय प्राप्त कर लेता है। बनहीनको संसारमें कुटुम्बी-स्त्री, पुत्र आदि भी छोड़ देते हैं, तब गजाओंके लिये धनहीनता किस प्रकार बड़प्पन हो सकती है। कोषमंग्रहगें प्रभम्न धान्यसंग्रहको बतलाया है, क्योंकि सबसे अधिक प्रधानता इलीकी है। धान्य होनेमे ही प्रजा और मेनाको जीवन-यात्रा चल सकती है। युद्धकालगे भी धान्यकी विशेष आवश्यकता पड़ती है। रस-संग्रहमें लवणको प्रधानता दो गयी है।
आय-व्ययकी व्यवस्थाका लिा. पाँच प्रकारके अधिकारी नियुक्त करनेका नियमन किया है। इन अधिकारियों का आदायत्रा, बिक, पतलाक, नीनिग्राहक और गजाध्यक्ष बतलाये है। आदायकका कार्य दण्डादिकके द्वारा प्राप्त द्रव्यको ग्रहण करना, निबन्धकका कार्य विवरण लिखना, प्रतिबन्धकका रुपये देना, नीविग्राहकका भांडारमें रुपये रखना और राज्याध्यक्षका कार्य सभी आय-व्यापक बिभागोंका निरीक्षण करना है। राज्यकी आमदनी व्यापार, कर, दण्ड आदिसे तो करनी ही चाहिये, पर विशेष अवगं पर देवमन्दिर, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंका संनिस चन, बश्याओं, विधवा स्त्रियों, जमीन्दागे, धनियों प्राममूटी, सम्पन्न कुम्बियों एवं मंत्री, पुरोहित, सेनापत्ति प्रभूति अमात्योंमे धन लेना चाहिये।
जिस राज्य में कृषि, व्यापार और पशुपालनकी उन्नति नहीं होती, वह राज्य नष्ट हो जाता है। राजाको अपने यहाँक मालको बाहर जानेसे रोकनेके लिए तथा अपने यहां बाहर के मालको न आने देनेके लिए अधिक कर लगाना चाहिये । अपने यहाँ व्यापारकी उम्नति के लिए राजाको व्यापारिक नीति निर्धारित करना, यातायात के साधनोंको प्रस्तुत करना एवं वैदेशिक ब्यापारके सम्बन्धम कर लगाना या अन्य प्रकारके नियम निर्धारित करना राजाके लिये
१. "कृषिः पशुपालन वणिज्या च वार्ता बश्यानाम् ।।"
'बात समृद्धो सम्: समृद्धयों रानः ।।"
शुल्कबुद्धिबलात्पण्यग्रहणं च दशान्तरभाण्डाना मप्रवंशे हेतुः ।-नीतिवाक्यामृतम्, वार्ताममुद्देश्य, सत्र १, २,११1
यावश्यक है। समानी आनिक रनलिके लिए वाणिज्य और नालायको बढ़ाना मालके आने-जाने पर कर लगाना प्रत्येक राजाके लिए अनिवार्य है।
सोमदेवसूरिने नीतिवाक्यामृत' में न्यायालय-व्यवस्थाके लिए अनेक आवश्यक बातें बतलायी है। इन्होंने जनपद प्रान्त, विषय-जिला, मंडल-तह सोल, पुर–नगर और ग्राम इनकी शासन-प्रणाली संक्षेपमें बतलायी है । राजाकी एक परिषद् होनी चाहिए, जिसका राजा स्वयं सभापति हो और यही परिषद् विवादों-मुकद्दमोंका फैसला करे । परिषद के सदस्य राजनीतिक पूर्ण ज्ञाता, लोभ-पक्षपातसे रहित और न्यायी हो । वादी एवं प्रतिबादीके लिए अनेक प्रकारके नियम बतलाते हुए कहा है कि जो वादी या प्रतिवादी अपना मुकदमा दायर कर समयपर उपस्थित न हो, जिसके बयानमें पूर्वीपर विरोध हो, जो बहस द्वारा निरुत्तर हो जाये, या वादी प्रतिवादीको छलसे निरुत्तर कर दे, वह सभा द्वारा दण्डनीय है। वाद-विवादके निर्णयके लिए लिखित साक्षी, भुक्ति अधिकार, जिसका बारह वर्ष तक उपयोग किया जा सका है, प्रमाण है । न्याया लयमें साक्षीके रूप में ब्राह्मणसे सुवर्ण और यज्ञोपवीतके स्पर्शनरूप शपथ, क्षत्रियसे शस्त्र, रत्नभूमि, वाहनके स्पर्शनरूप शपथ, वैश्यसे कान, बाल और काकिणी- एक प्रकारका सिक्का ) के स्पर्शनरूप शपथ एवं शूद्रासे दुध, बीजके स्पर्शनरूप शपथ लेनी चाहिये। इसी प्रकार जो जिस कामको करता है, उससे उसी कार्यको छुआ कर शपथ लेनी चाहिये । सोमदेवने शासन व्यवस्था-सम्बन्धी कुछ नियम भी बतलाये हैं।
नीतिका वर्णन करते हुए सन्धि, विग्रह, थान, आसन, वैधीकरण और संश्रय इन छह गुणोंका तथा राजनीतिके साम, उपदान, दण्ड और भेद इन चारो अंगोंका विस्तारसहित प्रतिपादन किया है ।
"पणवन्धः सन्धि:"-अईन् जब राजाको यह विश्वास हो जाये कि थोड़े ही दिनमें उसकी सैन्य-संख्या बढ़ जाएगी , कस्समें अपेवाकल बधिक बल आ जाये, तो वह क्षति स्वीकार कर यो सन्धि कर ले । बवदा प्रपल सबाले आक्रान्त हो और क्यानका उपाय न हो, तो कुछ भेंट देकर सन्धि कर ले ।
"अपराधो विग्रहः" अर्थात् जब अन्य राजा अपराध करे, राज्यपर आक्रमण करे या राज्यकी वस्तुबाका अाहरण करे, तो उस समय उसे दण्ड
देनेकी व्यवस्था करना विग्रह है। विग्रहके समय राजाको अपनी शक्ति, कोष
और बल–सेनाका अवश्य विचार करना चाहिये ।
'अभ्युदयो यान'-शत्रुके ऊपर आक्रमण करना, या शत्रुको बलवान समझ कर अन्यत्र चला जाना यान है।।
'उपेक्षणमासन - यह एक प्रकारसे बिराम-सन्धिका रूपान्तर है। जब उभयपक्षका सामर्थ्य घट जाये, तो अपने-अपने शिविरमें विश्राम के लिए आदेश देना अथवा मन्त्री, परपक्ष और स्वस्वामीकी शक्ति एवं सैन्य-संख्या समान देख कर अपने राजाको एकभावस्थान लेनेका आदेश देना आसन है ।
'परस्यात्मार्पा संश्रयः'-शत्रुसे पीड़ित होनेपर या उससे क्लेश पानेकी आशंका होनेपर अन्य किसो बलबान राजाका आप्रय लेना संश्रय है।
"एकेन सह सान्ध्यमन्येन सह विग्रहकरणमेकेन वा शत्री सन्धानपूर्व विग्रहो द्वैधीभावः"-जब दो शत्रु एक साथ विरोध करें, प्रथम एकके साथ सन्धि कर दुसरेसे युद्ध करे और जब वह पराजित हो जाये, तो प्रथमके साथ भी युद्ध कर उसे भी हरा दे । इस प्रकार दोनोंको कूटनीतिपूर्वक पराजित करना या मुख्य उद्देश्य गुप्त रखकर वैरममें शत्रुसे सन्धि कर अवसर प्राप्त होते ही अपने उद्देश्य के अनुसार विग्रह करना द्वैधीकरण है। यह कूटनीतिका एक अङ्ग है। इसमें बाहर कुछ और भीतर कुछ भाव रहते हैं।
जिस उपाय द्वारा शत्रुकी सेना से किसीको बहकाकर अपने पक्ष में मिलाया जाये अथवा शत्रुदल में फूट डालकर अपना कार्य साध लिया जाये, मेद है । इस प्रकार चतुरंग राजनीतिका भी भेद-प्रभेदपूर्वक नीतिवाक्यामृतमें वर्णन आया है। राजा अपनी राजनीतिके बलसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश बन जाता है । जनताके जान-मालफी रक्षाके लिए नियम, उपनियम और विधान भी राजाको हो बनाना होता है। राजाको प्रधानतः नियम और व्यवस्था, परम्परा कोर रूढ़ियोंका संरक्षक होना अनिवार्य है।
सोमदेवमूरिने राज्यका लक्ष्य धर्म, अर्थ और कामका संबद्धन माना है। धर्म सवर्द्धनसे उनका अभिप्राय सदाचार और सुनीतिको प्रोत्साहन देना तथा जनता
में सच्ची धार्मिक भावनाका संचार करना है। अर्थसंबईतके लिए , उद्योग और वाणिज्यकी प्रगति, राष्ट्रीय साधनोंका विकास एवं कृषि-विस्तारके लिए सिंचाई और नहर आदिका प्रवन्ध करना आवश्यक बतलाया है। काम संवर्द्धनके लिए शान्ति और सुव्यवस्था कर प्रत्येक नागरिकको न्यायपूर्वक सुख भोगनेका अवसर देना एवं कला-कौशलकी उन्नति करना बताया है। इस प्रकार राज्य में शान्ति और सुव्यवस्थाके स्थापनके लिए जनताका सर्वाङ्गीण, मैतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और शारीरिक विकास करना राजाका परम कर्तव्य है। इसी कारण राजाके अनेक गुण बतलाये हैं।
बताया है कि सबसे पहले पुत्रका, अनन्तर भाईका, भाईके अभावमें विमाता के पुत्र सौतेले भाईका, इसके अभाव में चाचाका, चाचाके अभावमें सगोत्रीका, सगोत्रीके न रहने पर नाती -लड़कीके पुत्रका एवं इसके अभावमें किसी आग न्तुकका अधिकार होता है।
इस प्रकार इस 'नीतिबाक्यामृत' में राजनीति और अर्थशास्त्र पर अच्छा प्रकाश डाला गया है।
आचार्य सोमदेवका दूसरा ग्रन्थ यशस्तिलकचम्पू है । इसकी कथावस्तु महाराज यशोधरका चरित है, जो आठ आश्वासोंमें विभक्त है। प्रथम आश्वासमें कथाकी पृष्ठभूमि है । अन्तके तीन आश्वासोंमें उपासकाध्ययन अर्थात् श्रावका चार वर्णित है। यशोधरकी वास्तविक कथावस्तु मध्यके चार आश्वासों में स्वयं यशोधर द्वारा अभिहित है। कथाकी गद्य-शैली बाणकी 'कादम्बरी' के तुल्य है । 'कादम्बरी' में 'वैशम्पायन शुक' कथा कहना आरम्भ करता है और कथावस्तु सीन जम्मोंमें लहरिया गतिसे भ्रमण कर यथास्थान पहुंच जाती है। सम्राट मारिदत्त द्वारा आयोजित महानवमीके अनुष्ठानमें अपार जनसमुदायके बीच बलिके लिए लाया गया प्रजित राजकुमार यस्तिलककी कथाका प्रारम्भ करता है। आठ जन्मोंकी कथा शीघ्र ही घूमती हुई अपने मूल सूत्र पर मुड़ जाती है। यशस्तिलककी यह पाया अत्यन्त लोकप्रिय रही है और आठवीं शताब्दीके दार्शनिक एवं हरिभद्रसे लेकर संस्कृत और अपभ्रशके अनेक कवियों द्वारा भी गृहीत होती रही है । यही कारण है कि संस्कृत और अपभ्रश भाषामें अनेक यशोधर-काव्य लिखे गये हैं।
यौधेय नामका एक जनपद था, जिसकी राजधानी राजपुर थी । यहाँ मारि दत्त राजा राज्य करता था। एक दिन उसे वीरभैरव नामक कवलाचार्यने
बताया कि चण्डमारि देवीके सामने सभी प्रकारके पशुयुगलके साथ सर्वांग सुन्दर मनुष्ययुगलकी बलि करनेके लिए, वह विद्याधर-लोकको जीतने चला। मारिदत्त विद्याधर-लोककी विजय करने और वहाँकी कमनीय कामनियोंके कटाक्षावलोकनको उत्सुकताको रोक न सका । उसने चण्डमारि मन्दिरमें महा नवी आयो अनी अपूर्व उत्साह और धूम-धामसे सम्पन्न करनेकी घोषणा की। सभी तरहके पशु एकत्र किये गये। मनुष्पमालकी कमी देखकर राज्य कर्मचारी उसकी तलाश में निकले । इसी समय राजधानीके निकट सुदस नामके मुनि आकर ठहरे। उनके साथ अन्य दो अल्पवयस्क शिष्य भी थे। ये दोनों भाई बहन, अस्य अवस्थामें ही राज्य त्याग कर साधु हो गये थे। मध्याह्नमें वे दोनों अपने गुरुकी आज्ञा लेकर मिलाने के लिए नगरमें गये। यहां उनकी राज्य कर्मचारियोंसे मेंट हुई। कर्मचारी बिना किसी रहस्यका उद्घाटन किये ही, बहाना बनाकर उन दोनोंको पारमारि मन्दिरमें ले गये । मारिदत्त इस सर्वाग सुन्दर नर-युवलाको प्राप्त कर अत्यंत प्रसन्न हुबा और उसने विद्याधर लोक जीसने की इच्छा छोड़ दी। उसने इस सुन्दर नर-युगलको देखकर उनका परिचय जानना चाहा।
-प्रथम आश्वास मुनि कहने लगा--भरतक्षेपमें अवन्ति नामका एक जनपद है। इसकी राजधानी .उज्जयनी शिप्रा नदी के किनारे बसी है। यहाँ राबा पशबन्धु राज्य करता था। उसकी चन्दपसी नामकी रानी थी। उन दोनोके यशोधर नामका एक पुत्र हुआ । एक दिन राजाने अपने सिरपर श्वेत केश देखे, उन्हें देखकर उसे वैराग्य हो गया और उसने अपने पुत्रको राज्य देकर संन्यास ले लिया । यसोपरला राज्याभिषेक और अमतमसीके साथ उसका पाणिग्रहण संस्कार शिके तटपर एक मिशाल मण्डपमें घूम-धामके साथ सम्पन्न हुन।
-द्वितीय आश्वास यशोधरने राज्य प्राप्त कर उसकी सुव्यवस्था की । प्रजा के .हितके अनेक कार्य सम्पन्न किये।
-तृतीय आश्वास एक दिन राजा यशोधर रानी ममतमतीके साथ विलास करके लेटा ..ही था कि रानी उसे सोया समझ धौरेसे पम्पसे उतरी और दासीके वस्त्र पहनकर भवनसे निकल पड़ी। यशोधर इस रहस्वको अवमत्त करनेके लिए चुपकेसे उसके पीछे हो गया । उसने देखा कि रानी गजपालामें पहुंचकर अत्यन्त गन्दे विजय मकरध्वज नामक महाक्तके साथ विलास कर रही है। उसके आश्चर्य, क्रोध और घृणा का ठिकाना न रहा। वह क्रोधाभिभूत होकर उन दोनोंको मारनेके लिए सोचने लगा, पर कुछ क्षण रुक कर उल्टे पांव लौट आया और राजमहलमें आकर पलंग पर पुनः सो गया । महावतके साथ रति
करनेके उपरान्त रानी लौट आयो और यशोषरके साथ पलंग पर इस प्रकार
चुपकेसे सो गयी, मानो कुछ हुआ ही न हो। __इस घटनासे यशोधरके मनको बड़ो चोट लगी। उसका दिल चूर-चूर हो गया । संसारको असारता उसके समक्ष नृत्य करने लगी। वह नारीजातिके छल-कपटके सम्बन्धमें बार-बार सोचने लगा | जितना ही वह सोचता जाता था, उतना ही उसका मन घृणासे भरता चला जाता था । प्रात:काल होनेपर यशोधर राजसभामें पहुंचा, तो उसकी माता चन्द्रमतीने उसे उदास देखकर पूछा--"वत्स ! तुम्हारी उदासीका क्या कारण है ? आज तुम्हारा मुख म्लान क्यों हो रहा है?" यशोधरने बात टालनेकी दृष्टिसे कहा- "आज मैंने रात्रिके अन्तिम प्रहरमें एक भयंकर स्वप्न देखा है। मैं अपने पुत्र यशोमतिको राज्य देकर सन्यस्त हो गया हूँ। शत्रु मेरे राज्य पर आक्रमन कर रहे हैं और यशोमति उन शत्रुओंका सामना करनेमें असमर्थ है।"
"अतएव हे माता ! मैं अब अपनी कुलपरम्पराके अनुसार राजकुमारको सिंहासन देकर दिगम्बर मुनि होना चाहता हूँ।" पुत्रके इन वचनोंको सुनकर राजमाता अत्यन्त चिन्तित हुई और उसने कुलदेवी बाडमारीके मन्दिरमें बलि चढ़ाकर स्वप्नकी शांति करानेका ..उपाय बताया : ..यशोधर पशुहिंसा के ...लिए किसी भी मूल्य पर तैयार नहीं हुआ, तो राजमाताने कहा कि आटेका मुर्गा बनाकर उसीको बलि करेंगे। अशोघरको विवश होकर यह मानना पड़ा। उसने विचार किया कि "कहीं राजमाता मेरे द्वारा अवज्ञा होने पर कोई अनिष्ट च कर बैठे । अतएव मुझे माँ की बात स्वीकार कर लेनी चाहिये ।" एक ओर चण्डमारिक मन्दिरमें बलिका आयोजन होने लगा और दूसरी ओर कुमार यशोमतिक राज्याभिषेककी तैयारियां होने लगीं।
अमृतमतीको जब यह समाचार ज्ञात हुआ, तो भोतरसे वह प्रसन्न हुई, पर दिखावा करती हुई कहने लगी--"स्वामिन् ! मुझे छोड़कर आप संन्यास लें, यह उचित नहीं। अतः कृपाकर मुझे भी अपने साथ ले चलें।" ___ यशोधर कुलटा रानीकी लिलाईसे तिलमिला उठा । उसके मनको गहरी व्यथा हुई, फिर भी वह शान्त रहा। मन्दिरमें जाकर उसने आटेके मुर्गको बलि चढ़ायी। इससे उसकी माँ तो प्रसन्न हुई, किन्तु रानीको दुःख हुआ कि कहीं राजाका वैराग्य क्षणिक न हो। अतएव उसने बलि किये हुए बाटेके मुर्गे प्रसादको बनाते समय, उसमें विष मिला दिया । जिसके ..खाने से यशोधर और उसकी माँ दोनोंकी मृत्यु हो गयी।
-..चतुर्थ आश्वास मृत्यु के बाद मां और पुत्र दोनों ही छह जन्मों तक पशुपोनिमें भटकते रहे । प्रथम जन्ममें यशोधर मोर हुआ और उसकी माँ चन्द्रमती कुत्ता ! दुसरे जन्ममें यशोधर हिरण हुआ और चन्द्रमती सर्प । तृतीय जन्ममें वे दोनों शिप्रा नदीमें जल-जन्तु हुए। यशोधर एक बड़ी मछली हुआ और चन्द्रमती एक मगर | चतुर्थ जन्ममें दोनों बकरा-बकरी हुए । पञ्चम जन्ममें यशोधर पुनः बकरा हुआ और चन्द्रमती कलिंगदेशमें भैंसा हुई। छठे जन्ममें यशोधर मुर्गा और चमगती मुर्गी हुई।
मुर्गा-मुर्गीका मालिक वसन्तोत्सवमें कुक्कुट युद्ध दिखानेके लिए उन्हें उज्जयिनी ले गया । यहाँ सुदत्त नामके आचार्य ठहरे हुए थे। उनक उपदेशसे उन दोनोंको अपने पूर्व जन्मोंका स्मरण हो गया और उन्हें अपने किये पर पश्चात्ताप होने लगा। अगले जन्ममें वे दोनों मरण कर राजा यशोमतिके यहाँ उसकी रानी कुसुमावलिके गर्भसे युगल भाई-बहनक रूपमें उत्पन्न हुए । उनके नाम कमशः अभयरुचि और अभयमति रखे गये। एक बार राजा यशोमति सपरिवार आचार्य सुदत्तके दर्शन करने गया और वहाँ अपने पूर्वजोंकी परलोक यात्राके सम्बन्ध में प्रश्न किया । आचार्य सुदसने अपने दिव्यशानके प्रभावसे बतलाया कि तुम्हारे पितामह यशोध अथवा यशबन्धु अपने तपश्चरणके प्रभाव से स्वर्गमें सुख भोग रहे हैं और तुम्हारी माता अमृतमती विष देनेके कारण नरकमें वास कर रही है। तुम्हारे पिता यशोधर तथा उनको माता चन्द्रमती आटेके मुर्गेकी बलि देनेके पापके कारण छह जन्मों तक पशु योनिमें भ्रमण कर अपने पापका प्रायश्चित्त कर तुम्हारे पुत्र और पुत्रीक रूपमें उत्पन्न हुए हैं। आचार्य सुदत्तने उनके पूर्वजन्मकी यह कथा सुनायी, जिसे सुनकर उन बालकों को संसारके स्वरूपका ज्ञान हो गया और इस भयसे कि बड़े होनेपर पुन: संसार चक्रमें न फंस जायें, उन्होंने कुमारकालमें ही दीक्षा ले ली। इतना कहकर अभयरचिने कहा-"राजन् ! हम दोनों वही भाई-बहन हैं। हमारे वे आचार्य सुदत्त इसो नगरके पास ठहरे हुए हैं। हम लोग उन्हींको आज्ञा लेकर भिक्षाके लिए नगरमें आये थे कि आपके कर्मचारी हमें पकड़ कर यहाँ ले आये।"
–पञ्चम आश्वास आगेको कथावस्तुमें बताया गया है कि मारिदत्त यह वृत्तान्त सुनकर आश्चर्यचकित हुआ और कहने लगा-"मुनि कुमार हमें शीघ्र ही अपने गुरुके निकट ले चलो। मुझे उनके दर्शनोंकी तीव्र उत्कंठा है। सभी लोग आचार्य सुदसके पास पहुंचे और उनके उपदेशसे प्रभावित होकर धर्ममें दीक्षित हो गये।
इस कथावस्तुके पश्चात् अन्तिम तीन आश्वासोंमें उपासकाध्ययनका वर्णन है, जो ४६ कल्पों में विभाजित है। प्रथम कल्पका नाम समस्तसमसिद्धान्ता
८६ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्यपरम्परा
वोधन है। इसमें वैशेषिक, पाशपत, कुलाचार्य, सांख्य, बौद्ध, जैमिनीय, चार्वाक, वेदान्स आदि दर्शनोंके तत्वोंकी समीक्षा की गयी है। द्वितीय कल्पका नाम आप्तस्वरूप-मीमांसन है। इसमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव, बुद्ध और सूर्य
आदिके आप्तस्वकी मीमांसा की गयी है। तृतीय कल्पका नाम आगमपदार्थ परीक्षण है, इसमें सोमदेवने आगमकी समीक्षा करते हुए जैन मुनियोंके आचार से सम्बन्धित स्नान नहीं करना, आचमन नहीं करना, नग्न रहना, खड़े होकर भोजन करना जैसे आचारमें जद्भावित दोषोंका निराकरण किया है। चतुर्थ मुद्दतोन्मथन कल्पमें प्रचलित लोक-मूढ़ताओंकी समीक्षा की गयी है। लोक मूढ़ताओंमें ग्रहण-स्नान, संक्रान्ति-दान, अग्नि-पूजन, धर्मभावनासे नदी-समुद्रमें स्नान, वृक्ष-पूजा, स्तुप-बन्दन, गोमूत्र-सेवन, रत्न, भूमि, यक्ष, शस्त्र, पर्वत पूजन आदिकी गणना की गयी है। अन्ततः सम्यक आप्त, आगम और तत्वोंकेअडानको सम्यग्दर्शन निरूपित किया है। ___ चार कल्पोंके पश्चात् आगेके सोलह कल्पोंमें सम्यग्दर्शनके आठों अगोंमें प्रसिद्ध अञ्चन चोर, अनम्तमती, उद्यायन, रेवतीरानी, जिनेन्द्रभक्त सेठ, वारि षेण, विष्णुकुमार मुनि और वनकुमार मुनिको रोचक कथाएं दी गया है। २१वें कल्पमें सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति-निमित्तोंका कथन करते हुए निसर्गज और अधिगमज भेदों एवं सराग और वीतराग भेदों तथा उनके अभिव्यजक प्रश मादिका स्वरूप बतलाया गया है । २२से २५बैंकल्प तक मद्य, मांस, मधु आदिके दोष बतलाते हुए मद्यपान और मांस-भक्षणके संकल्पसे उत्पन्न दोष और उनके त्यागसे उत्पन्न होनेवाले कल्याणका कथाओं द्वारा वर्णन किया गया है । २६ से 32 वे कल्प तक पंचाणुव्रतोंका वर्णन है और हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रहसे उत्पन्न हुई बुराइयोंको बतलाते हुए पांच कथाएं प्राञ्जल गद्य मे लिखी गयी हैं । तेतीसवें कल्पमें तीन गुणवतोंका वर्णन है ।
चौतीसर्वे कल्पसे चलीसवें कल्प तक सामायिकशिक्षाप्रतका निरूपण है। सोमदेवने सामायिकका अर्थ जिनपूजासम्बन्धी क्रियाएँ लिया है। अतः ३४ वे कल्पमें स्नान-विधि, ३५वें में समाचार विधि, ३६३में अभिषेक और पूजन-विधि, ३७व में स्तवन-विधि, ३८३में जप-विधि, ३९वे में ध्यान-विधि और ४०, कल्पमें श्रुताराधन-विधि वर्णित है | ४१वे कल्पमें प्रौषधोपवास, ४२वें कल्पमें भोगोप भोगपरिमाणवत और ४३ कल्पमें दानको विधिका वर्णन आया है। ४४वें कल्पके प्रारम्भमें श्रावकको ग्यारह प्रतिमाओंको संक्षेपमें बतलाकर यतियोंके लिए जैनेतर सम्प्रदायमें प्रचलित नामोंकी निरुक्तियाँ दी गयी हैं, जो एक नयी वस्तु है। ४५वमें संल्लेखना और ४६वें कल्पमें कुछ फुटकर बातोंका कथन है। इस तरह सोमदेवका यह उपासकाध्ययननिरूपण विशेष महत्त्वपूर्ण है।
उपासकाध्ययमका है। उसीके असमाधिभर
सोमदेवके इस लपासकाध्ययननिरूपणपर सबसे अधिक प्रभाव आचार्य समन्तभद्रके रत्नकरण्डकश्रावकाचारका है। उसीके अनुसार इसमें सम्यग्दर्शन, अष्टमूलगुण, द्वादशावत, एकादश प्रतिमाएँ और समाधिमरणका कथन हैं। जटासिंहनन्दिके वरांगचरितका भी प्रभाव इस पर है।
जिनसेनके महापुराण और गुणभद्रके आस्मानुशासनका भी प्रभाव उपासका ध्ययनपर दिखलाई पड़ता है।
इस ग्रन्थका दूसरा नाम योगमार्ग भी है। यह अध्यात्मविषयक रचना है। इसमें ४० पद्य हैं । एक प्रकारसे यह ग्रन्थ स्तोत्रशैली में लिखा गया है। आत्मा का स्वरूप, शक्ति, गुण, समुद्घात, चारित्र, आशस्व , बन्ध आदिका विश्लेषण करते हुए नित्य कर्मबन्धनरहित आत्माका स्वरूप निरूपित किया है। आतं, रौद्र, धर्म और शुक्ल ध्यानका भी संक्षेपमें कथन किया है। रचना बड़ी हवा और उपदेशप्रद है।
सोमदेव अद्वितीय प्रतिभाशाली कवि और दार्शनिक विद्वान् हैं। इनके गद्य और पद्य दोनोंमें शब्द-रमणीयताके साथ अर्यरमणीयता विद्यमान है। उदात्त वर्णन, नवीन शब्दावलि और उच्च-भावभूमिके कारण ही कविको 'कविकुलराज' उपाधि रही होगी। अप्रयुक्त और क्लिष्ट शब्दोंके प्रयोगके लिए सोमदेव प्रसिद्ध हैं। इनके मतसे दोषरहित, माधुर्य आदि गुणयुक्त रसभाब समन्वित एवं अलंकृत रचना ही काव्यको कोटिमें परिगणित की जाती है।
गुरु | आचार्य श्री नेमिदेव |
शिष्य | आचार्य श्री सोमदेवसुरी |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Aacharya Shri Somdevsuri ( Prachin )
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 23-April- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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