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#Somkirti15ThCentury
पन्द्रहवीं शताब्दीके प्रमुख साहित्यसेवियों में भट्टारक सोमकीतिको गणना को गयी है । आत्मसाधनाके साथ स्वाध्याय, साहित्यसूजन एवं शिष्योंके पठन पाठनमें ये प्रवृत्त रहते थे ! ये काष्ठासंघको नन्दितट-शाखाके भट्टारक थे तथा १०वीं शताब्दीके प्रसिद्ध भट्टारक रामसेनकी परम्परामें होनेवाले भट्टारक थे । इनके दादागुरुका नाम क्ष्मोसन और गरुका नाम भीमसेन था । इन्होंने सं० १५१८में रचित एक ऐतिहासिक पट्टावली में अपने आपको काष्ठासंघका ८७यों
भट्टारक लिखा है। साहित्यिक और पट्टावलियोंके निर्देशसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि वि० सं० १५१८ में इन्हें भट्टारकपद प्राप्त हो चुका था। श्रीविद्याधर जोहरापुरकरने इनका समय वि० सं० १५२६-१५४० बतलाया है। जोहरापुरकरने लिखा है __ "भीमसेनके पशिष्य सोमकीति हुए। आपने सवत् १५३२ में वीरसेन सूरिके साथ एक शीतलनाथस्वामीकी मूर्ति स्थापित की (ले० ६५१) । संवत् १५३६में गोढिली में यशोषचरितकी रचना पूरी की (ले० ६५२) तथा संवत् १५४० में एक मूर्ति स्थापित की (ले० ६५३), आपने सुल्तान पिरोजशाहके राज्य कालमें पावागढ़में पद्यावतीकी कृपासे आकाशगमनका चमत्कार दिखलाया था (ले०२ ६५४} !"
सोमकीतिने 'प्रद्युम्नचरित' और 'सप्तव्यसनकथा' की रचना क्रमशः वि० सं० १५३१ तथा १५२६में की है। अतएव सोमकीतिका समय १५२६ पूर्व होना चाहिये। जिन मूतिलेखोंमें इनका नामांकन मिलता है, वे मूतिलेख विक सं० १५२६के पश्चात् के हैं । इन्होंने कुछ प्रतिष्ठाएं करायी थीं। एक मूर्तिलेख में आया है
___ "संवत् १५२७ वर्षे वैशाख सुदि ५ गरी श्रीकाशसंघे नंदतटगच्छे विद्या गणे भट्टारक श्री सोमकीति आचार्य श्री वीरसेन युग प्रतिष्ठिता। नरसिंह राशा भार्या सांपडिय गोत्र.........."लाखा भार्या मांकू देल्हा भार्या मान् पुत्र बना सा० कान्हा देल्हा केन धी आदिनाथ बिम्ब कारापिता।"
अर्थात् वि० सं० १५२७ बैशाख सुदी पञ्चमीको इन्होंने वीरसेनके साथ नरसिंह एवं उसको भार्या सापडियाके द्वारा आदिनाथस्वामीकी मूर्ति प्रतिष्ठित की थी।
वि० सं० १५३२ बीरसेनसूरिके साथ शीतलनाथ स्वामीको मूर्ति प्रतिष्ठित की थी।
वि० सं० १५३६ में अपने शिष्य वीरसेनसूरिके साथ हूँबड़ जातीय श्रावक भूपा भार्या राजके अनुरोधसे चौबीसी मूर्ति प्रतिष्ठित की थी।
वि० सं० १५४० में भी इन्होंने एक मूर्तिकी प्रतिष्ठा करायी थी।
१. भदारक सम्प्रदाय, सोलापुर, पृ. सं २९८ ।
२. भट्टारक सम्प्रदाय, पृ० २९३ ।
३. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखाङ्क ६५१ ।
४. वही, लेखाङ्क ६५३ ।
इन सब तिथियोंसे स्पष्ट है कि भट्टारक सोमनीतिका जन्म वि० सं० १५० के आस-पास होना चाहिये । ऐतिहासिक पट्टावलीक अनुशार वि० सं० १५१८में इन्हें भट्टारकपद प्राप्त हो चुका था। इनके कार्यकालका ज्ञान वि० सं० १५४० पश्चात् नहीं होता है । इनकी अवस्था यदि ६० वर्ष की भी रही हो, तो इनका जन्म वि० सं० १४८०के लगभग आता है।
इनके शिष्योंमें यशःकोति, वीरसेन और यशोधर ये तीन प्रधान हैं । इनकी मुत्युके पश्चात् यशःकीति ही भट्टारक बने । सोमनीति लब्धप्रतिाछ निदान
थे और इनकी वाणी में अमृत जैसा प्रभाव था ।
आचार्य सोमको सिने संस्कृत एवं हिन्दी इन दोनों ही भाषाओं में ग्रन्थ प्रणयन किया है । उपलब्ध रचनाएँ निम्न प्रकार हैं
१. सप्तव्यसनकथा
२. प्रद्युम्नचरित
३. यशोधरचरित
१. गुर्वावलि
२. यशोधररास
३. ऋषभनाथको धूलि
४. मल्लिगीत
५, आदिनाथविनती
इस कथा ग्रन्धमें सात सर्ग हैं। प्रथम सर्गमें धूतव्यसन कथा, द्वितीयमें स्तेयव्यसनकथा, तृतीयमें आखेटव्यसनकथा, चतुर्थमं वेश्या व्यसनकथा, पंचममें पररमगीसेवनव्यसनकथा, षष्ठमें मद्यसेवनन्यसनकथा
और सप्तम में मांससे बनव्यसनकथा लिखी गयी है। ग्रन्थ पद्यबद्ध है। अन्त में ग्रंथसमाप्तिको तिथि अंकित है । बताया है
रसनयनसमेते वाणयुक्तेन चन्द्रे (१५२६)
गतति सति नूनं विक्रमस्थेव काले
प्रतिपदि धवलायां माघमासस्य सोमे
हरिभदिनमनोज्ञे निमितो ग्रन्थ एषः ।।७१।।
इस चरितकाव्यमें श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्नका जीवन रत अंकित है। समस्त कथावस्तु १६ सों में विभक्त है। इसका रचनाकाल बिल सं० १५३१ पौष शुक्ला त्रयोदशो बुधवार है। ___
यशोधरका जीवन जैन कवियोंको विशेष प्रिय रहा है। यशोधरके इस आख्यानको कविने आठ सोंमें विभक्त किया है । रचनाकाल. पर प्रकाश डालते हुए कविने स्वयं लिखा है--
वर्षे षटत्रिंशसंख्ये तिथिपरगणनायुक्तसंवत्सरे (१५३६) वै ।
पंचम्यां पोषकृष्णे दिनकरांदवसे बांसगस्थ हि चढ़े ।
गोदिल्या: मेदपाटे जिमवरभवने शीतलेन्द्ररम्ये ।
सोमादिकोत्तिनेदं नृपवरचरितं निर्मितं शुद्धभक्त्या ।।
यह एक ऐतिहासिक रचना है। इसमें कविने अपने संघके पूर्वाचार्यों का संक्षिप्त वर्णन किया है | गुर्वावलि संस्कृत और हिन्दी दोनों भाषाओं में लिखी गयी है। हिन्दीमें गद्य-पद्य दोनों का उपयोग किया गया है। इसकी समाप्ति वि० सं० १५१८में की गयी है। इसमें काष्ठासंघका इतिहास अंकित है। इस संघके नन्दीतटगच्छ, माथुरगच्छ, वागड़गच्छ एवं लाटवागड़ गच्छका परिचय दिया गया है । इस गुर्वावली में आचार्य अहंद्वलिको नन्दोतद गच्छका प्रथम आचार्य लिखा है ! अनन्तर अन्य आचार्योंका संक्षिप्त इतिहास बतलाते हुए ८६ आचार्योका नामोल्लेख किया है और वे आचार्य भट्टारक सोमकीति ही बतलाये हैं। इस मचाके आचार्य रामसेनने नरसिंहपुरा जातिकी तथा नेमिसेनने भट्टपुरा जातिकी स्थापना की थी। -
यह एक प्रबन्धकाव्य है । कविने इसमें प्रबन्धकान्यके समस्त गणोंका समावेश किया है। समस्त काव्य १० हालों (सौ)में विभक्त है । आचार्यने यशोधरको जीवनकथा सीधे रूपमें प्रारम्भ न होकर साधु युगलसे कहलायी गयी है । इस कथाको सुनकर राजा मारिदत्त हिंसक जीवन छोड़कर अहिंसक बन जाता है ! वस्तुच्यापारोंका वर्णन कविने विस्तारपूर्वक किया है।
श्रावकके पालन करने योग्य त्रेपन कियाओंका वर्णन इस गीतिकाव्यमें किया गया है। वर्णनपद्धति गीतिकाव्यकी है। इस प्रकार कविने गोतिशैलीमें श्रावकाचारसम्बन्धी विशेषताओंका निरूपण किया है ।
यह प्रबन्धकाव्य है और इसमें आदितीर्थंकर ऋषभ देवका जोबनवृत्त वणित है। समस्त कथावस्तु चार ढालों या सोंमें विभक्त है । कविने इस ग्रन्थका प्रारम्भ करते हुए लिखा है
प्रणवि जिनवर पाउ, तु गड निहुंभवन नुए ।
मभरवि सरसति देव तु सेवा सुरनर करिए ॥
गाइसु आदि जिगंद आणद अति उपजिए।
कौशल देश मझार तु सुसार गुण आगलुए।।
नाभि नरिंद सुरिंद जिसु सुरपुर बराए ।
मुरा देवो नाम अरगि सुरंगि रंभा जिसी ए॥
इस प्रकार सोमकीतिने अहिंसा, श्रावकाचार, अनेकान्त आदि विषयोंका प्रतिपादन किया है।
गुरु | आचार्य श्री भीमसेन |
शिष्य | आचार्य श्री सोमकीर्ती |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Somkirti15ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री सोमकीर्ति 15वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 27-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 27-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
पन्द्रहवीं शताब्दीके प्रमुख साहित्यसेवियों में भट्टारक सोमकीतिको गणना को गयी है । आत्मसाधनाके साथ स्वाध्याय, साहित्यसूजन एवं शिष्योंके पठन पाठनमें ये प्रवृत्त रहते थे ! ये काष्ठासंघको नन्दितट-शाखाके भट्टारक थे तथा १०वीं शताब्दीके प्रसिद्ध भट्टारक रामसेनकी परम्परामें होनेवाले भट्टारक थे । इनके दादागुरुका नाम क्ष्मोसन और गरुका नाम भीमसेन था । इन्होंने सं० १५१८में रचित एक ऐतिहासिक पट्टावली में अपने आपको काष्ठासंघका ८७यों
भट्टारक लिखा है। साहित्यिक और पट्टावलियोंके निर्देशसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि वि० सं० १५१८ में इन्हें भट्टारकपद प्राप्त हो चुका था। श्रीविद्याधर जोहरापुरकरने इनका समय वि० सं० १५२६-१५४० बतलाया है। जोहरापुरकरने लिखा है __ "भीमसेनके पशिष्य सोमकीति हुए। आपने सवत् १५३२ में वीरसेन सूरिके साथ एक शीतलनाथस्वामीकी मूर्ति स्थापित की (ले० ६५१) । संवत् १५३६में गोढिली में यशोषचरितकी रचना पूरी की (ले० ६५२) तथा संवत् १५४० में एक मूर्ति स्थापित की (ले० ६५३), आपने सुल्तान पिरोजशाहके राज्य कालमें पावागढ़में पद्यावतीकी कृपासे आकाशगमनका चमत्कार दिखलाया था (ले०२ ६५४} !"
सोमकीतिने 'प्रद्युम्नचरित' और 'सप्तव्यसनकथा' की रचना क्रमशः वि० सं० १५३१ तथा १५२६में की है। अतएव सोमकीतिका समय १५२६ पूर्व होना चाहिये। जिन मूतिलेखोंमें इनका नामांकन मिलता है, वे मूतिलेख विक सं० १५२६के पश्चात् के हैं । इन्होंने कुछ प्रतिष्ठाएं करायी थीं। एक मूर्तिलेख में आया है
___ "संवत् १५२७ वर्षे वैशाख सुदि ५ गरी श्रीकाशसंघे नंदतटगच्छे विद्या गणे भट्टारक श्री सोमकीति आचार्य श्री वीरसेन युग प्रतिष्ठिता। नरसिंह राशा भार्या सांपडिय गोत्र.........."लाखा भार्या मांकू देल्हा भार्या मान् पुत्र बना सा० कान्हा देल्हा केन धी आदिनाथ बिम्ब कारापिता।"
अर्थात् वि० सं० १५२७ बैशाख सुदी पञ्चमीको इन्होंने वीरसेनके साथ नरसिंह एवं उसको भार्या सापडियाके द्वारा आदिनाथस्वामीकी मूर्ति प्रतिष्ठित की थी।
वि० सं० १५३२ बीरसेनसूरिके साथ शीतलनाथ स्वामीको मूर्ति प्रतिष्ठित की थी।
वि० सं० १५३६ में अपने शिष्य वीरसेनसूरिके साथ हूँबड़ जातीय श्रावक भूपा भार्या राजके अनुरोधसे चौबीसी मूर्ति प्रतिष्ठित की थी।
वि० सं० १५४० में भी इन्होंने एक मूर्तिकी प्रतिष्ठा करायी थी।
१. भदारक सम्प्रदाय, सोलापुर, पृ. सं २९८ ।
२. भट्टारक सम्प्रदाय, पृ० २९३ ।
३. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखाङ्क ६५१ ।
४. वही, लेखाङ्क ६५३ ।
इन सब तिथियोंसे स्पष्ट है कि भट्टारक सोमनीतिका जन्म वि० सं० १५० के आस-पास होना चाहिये । ऐतिहासिक पट्टावलीक अनुशार वि० सं० १५१८में इन्हें भट्टारकपद प्राप्त हो चुका था। इनके कार्यकालका ज्ञान वि० सं० १५४० पश्चात् नहीं होता है । इनकी अवस्था यदि ६० वर्ष की भी रही हो, तो इनका जन्म वि० सं० १४८०के लगभग आता है।
इनके शिष्योंमें यशःकोति, वीरसेन और यशोधर ये तीन प्रधान हैं । इनकी मुत्युके पश्चात् यशःकीति ही भट्टारक बने । सोमनीति लब्धप्रतिाछ निदान
थे और इनकी वाणी में अमृत जैसा प्रभाव था ।
आचार्य सोमको सिने संस्कृत एवं हिन्दी इन दोनों ही भाषाओं में ग्रन्थ प्रणयन किया है । उपलब्ध रचनाएँ निम्न प्रकार हैं
१. सप्तव्यसनकथा
२. प्रद्युम्नचरित
३. यशोधरचरित
१. गुर्वावलि
२. यशोधररास
३. ऋषभनाथको धूलि
४. मल्लिगीत
५, आदिनाथविनती
इस कथा ग्रन्धमें सात सर्ग हैं। प्रथम सर्गमें धूतव्यसन कथा, द्वितीयमें स्तेयव्यसनकथा, तृतीयमें आखेटव्यसनकथा, चतुर्थमं वेश्या व्यसनकथा, पंचममें पररमगीसेवनव्यसनकथा, षष्ठमें मद्यसेवनन्यसनकथा
और सप्तम में मांससे बनव्यसनकथा लिखी गयी है। ग्रन्थ पद्यबद्ध है। अन्त में ग्रंथसमाप्तिको तिथि अंकित है । बताया है
रसनयनसमेते वाणयुक्तेन चन्द्रे (१५२६)
गतति सति नूनं विक्रमस्थेव काले
प्रतिपदि धवलायां माघमासस्य सोमे
हरिभदिनमनोज्ञे निमितो ग्रन्थ एषः ।।७१।।
इस चरितकाव्यमें श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्नका जीवन रत अंकित है। समस्त कथावस्तु १६ सों में विभक्त है। इसका रचनाकाल बिल सं० १५३१ पौष शुक्ला त्रयोदशो बुधवार है। ___
यशोधरका जीवन जैन कवियोंको विशेष प्रिय रहा है। यशोधरके इस आख्यानको कविने आठ सोंमें विभक्त किया है । रचनाकाल. पर प्रकाश डालते हुए कविने स्वयं लिखा है--
वर्षे षटत्रिंशसंख्ये तिथिपरगणनायुक्तसंवत्सरे (१५३६) वै ।
पंचम्यां पोषकृष्णे दिनकरांदवसे बांसगस्थ हि चढ़े ।
गोदिल्या: मेदपाटे जिमवरभवने शीतलेन्द्ररम्ये ।
सोमादिकोत्तिनेदं नृपवरचरितं निर्मितं शुद्धभक्त्या ।।
यह एक ऐतिहासिक रचना है। इसमें कविने अपने संघके पूर्वाचार्यों का संक्षिप्त वर्णन किया है | गुर्वावलि संस्कृत और हिन्दी दोनों भाषाओं में लिखी गयी है। हिन्दीमें गद्य-पद्य दोनों का उपयोग किया गया है। इसकी समाप्ति वि० सं० १५१८में की गयी है। इसमें काष्ठासंघका इतिहास अंकित है। इस संघके नन्दीतटगच्छ, माथुरगच्छ, वागड़गच्छ एवं लाटवागड़ गच्छका परिचय दिया गया है । इस गुर्वावली में आचार्य अहंद्वलिको नन्दोतद गच्छका प्रथम आचार्य लिखा है ! अनन्तर अन्य आचार्योंका संक्षिप्त इतिहास बतलाते हुए ८६ आचार्योका नामोल्लेख किया है और वे आचार्य भट्टारक सोमकीति ही बतलाये हैं। इस मचाके आचार्य रामसेनने नरसिंहपुरा जातिकी तथा नेमिसेनने भट्टपुरा जातिकी स्थापना की थी। -
यह एक प्रबन्धकाव्य है । कविने इसमें प्रबन्धकान्यके समस्त गणोंका समावेश किया है। समस्त काव्य १० हालों (सौ)में विभक्त है । आचार्यने यशोधरको जीवनकथा सीधे रूपमें प्रारम्भ न होकर साधु युगलसे कहलायी गयी है । इस कथाको सुनकर राजा मारिदत्त हिंसक जीवन छोड़कर अहिंसक बन जाता है ! वस्तुच्यापारोंका वर्णन कविने विस्तारपूर्वक किया है।
श्रावकके पालन करने योग्य त्रेपन कियाओंका वर्णन इस गीतिकाव्यमें किया गया है। वर्णनपद्धति गीतिकाव्यकी है। इस प्रकार कविने गोतिशैलीमें श्रावकाचारसम्बन्धी विशेषताओंका निरूपण किया है ।
यह प्रबन्धकाव्य है और इसमें आदितीर्थंकर ऋषभ देवका जोबनवृत्त वणित है। समस्त कथावस्तु चार ढालों या सोंमें विभक्त है । कविने इस ग्रन्थका प्रारम्भ करते हुए लिखा है
प्रणवि जिनवर पाउ, तु गड निहुंभवन नुए ।
मभरवि सरसति देव तु सेवा सुरनर करिए ॥
गाइसु आदि जिगंद आणद अति उपजिए।
कौशल देश मझार तु सुसार गुण आगलुए।।
नाभि नरिंद सुरिंद जिसु सुरपुर बराए ।
मुरा देवो नाम अरगि सुरंगि रंभा जिसी ए॥
इस प्रकार सोमकीतिने अहिंसा, श्रावकाचार, अनेकान्त आदि विषयोंका प्रतिपादन किया है।
गुरु | आचार्य श्री भीमसेन |
शिष्य | आचार्य श्री सोमकीर्ती |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Somkirti 15 Th Century
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
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