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#Somsen17ThCentury

सोमसेन सेनगण और पुष्कर गच्छकी, भट्टारकपरम्परामें हुए हैं। ये गुणभद्र भट्टारकके शिष्य थे । गुणभद्रका नामान्तर गुणसेन भी था। सोमसेन के सम्बन्ध में पट्टावलोमें पाया जाता है
"विबुधविविधजनमनइंदीवरविकासनपूर्णशशिसमानानां ............ सोमसेन भट्टारकाणाम् ।"
१. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ०२ ।
२. वही, लेखांक ३४.
सोमसेनके उपदेशसे शक संवत् १५६१ फाल्गुन शुक्ला पञ्चमीको पार्श्वनाथ और संभवनाथकी मूर्तियां प्रतिष्ठापित की गयी थी।
सोमसेनके शिष्य अपयनम्पित भी कवि और जिवान थे। उन्होंने रवियत कथाकी रचना की है। त्रिवर्णाचार और रामपुराणकी प्रशस्ति में भी इन्होंने अपना परिचय पूर्वोक्त प्रकार ही दिया है। दोनों ग्रन्थोंके प्रशस्तिपद्यों में पर्याप्त साम्य है । यथा
श्री मूलसंधे वरपुष्कराख्ये गच्छे सुजातो गुणभद्रसूरिः ।
पट्टे च तस्यैव सुसोमसेनो भट्टारकोऽभूद्विदुषां शिरोमणिः ।।
रामपुराण ३३।२३३।
श्री मूलसंधे वरपुष्कराख्ये गच्छे सुजातो गुणभद्रसूरिः ।
तस्यात्र पट्ट मुनिसोमसेनो भट्टारकोऽभूद्विदुषां वरेण्यः ।
त्रिवर्णाचार, प्रशस्ति, २१३ ।
सोमसेनका समय वि० सं० की १७ वीं शती है। इन्होंने वि० सं० १६५६ में रविषेण कृत पद्मचरितके आधार पर संस्कृतमें रामपुराणकी रचना की है। वि० सं०१६६६ में इन्होंने 'शब्दरत्ननदीप' नामक संस्कृतकोश लिखा है और वि०सं०१६६७की कार्तिकी पूर्णिमाको त्रिवर्णाचारकी समाप्ति की है। अतएव वि० सं० को १७ वीं शतीका उत्तरार्द्ध स्पष्ट है ।
सोमसेन अपने समयके प्रभावशाली वक्ता, धर्मोपदेशक और संस्कृति-अन रागी व्यक्ति थे। इनका भ्रमण राजस्थान, गुजरात आदि प्रदेशोंमें निरन्तर होता रहता था । उदयपुर में संस्कृतकोश लिखा गया है और बराट देशके जित्वर नगरमें रामपुराण रचा गया है।
सोमसेनने निम्नलिखित रचनाएं निबद्ध की हैं
१. रामपुराण ।
२. शब्दरत्नप्रदीप (संस्कृतकोश)
३. धर्मरसिक-त्रिवर्णाचार ।
'रामपुराण' में रामकथा वर्णित है। इस कथाका आधार रविषेणका पन
१. शाके १५६१ वर्षे प्रमाशीनामसंवत्सरे फाल्गुन सुदि द्वितीया मूलसंधे सेनगणे पुष्कर
गच्छे भ श्रोसोमसेन उपदेशात् प्रतिष्ठितम् । -भट्टारक सम्प्रदाम, लेखांक ४२ ।
चरित है । कथावस्तुको आचार्यने ३३ अधिकारों में विभक्त किया है 1 ग्रन्धकी भाषा और शैली सरल होने पर भी प्रवाहमय है। कविने अनुष्टुप पद्योंके साथ इन्द्रवजा, उपजाति, शार्दूलविक्रीडित आदि छन्दोंको भी स्थान दिया है। ___'शब्दरत्नप्रदोष' संस्कृतभाषाका कोश है। इसमें कविने शब्दोंके अर्थ तो दिये ही हैं, साथ ही उनके प्रकृति, प्रत्यय और लिंगादि भी निर्दिष्ट किये हैं। 'शब्दरत्नप्रदीप' की प्रशस्तिमें सोमसेनने अपनेको अभिनव भट्टारक कहा है। ग्रंथको प्रशस्ति निम्न प्रकार है
___ "शुभमस्तु कल्याण || संवत् १६६६ शाके १५३१ वार्षे श्रावकणार तिथि प्रतिपदा ॥१॥ शुक्रवासरे ग्रन्थ लिखिते ठाः गोपिचंद उदयपुरस्थाने तिष्ठत्ये ॥ कल्याणंभवेत् अभिनव भ० श्रीसोमसेनस्येदं पुस्तकम्।
धर्मरसिक-त्रिवर्गाचारमें धर्म, अर्थ और काम इन तीनों विषयोंका वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ पर वैदिक धर्मका पूरा प्रभाव है। श्री जुगलकिशोर मुख्तारने अपनी ग्रन्थपरीक्षामें इसका समालोचन किया है। अन्धकारने ग्रन्थके अन्तमें लिखा है
धर्मार्थकामाय कृतं सुशास्त्र श्रीसोमसेनेन शिबार्थिनापि ।
गृहस्थधर्मेषु सदा रता ये कुर्वतु तेऽभ्यासमहो सुभन्याः ॥२१३।।
| गुरु | आचार्य श्री गुणभद्र भट्टारक |
| शिष्य | आचार्य श्री सोमसेन |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Somsen17ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री सोमसेन 17वीं शताब्दी
| Name | Phone/Mobile 1 | Which Sangh/Maharaji/Aryika Ji you are associated with |
|---|---|---|
| Sangh Common Number | +919844033717 | #VardhamanSagarJiMaharaj1950DharmSagarJi |
| Hemal Jain | +918690943133 | #SunilSagarJi1977SanmatiSagarJi |
| Abhi Bantu | +919575455473 | #SunilSagarJi1977SanmatiSagarJi |
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| Akshay Adadande | +919765069127 | #AcharyaShriVidyasagarjiMaharaj, #NiyamSagarJiMaharaj1957VidyaSagarJi |
| Mayur Jain | +918484845108 | #SundarSagarJiMaharaj1976SanmatiSagarJi, #VibhavSagarJiMaharaj1976ViragSagarJi, #PrabhavsagarjiPavitrasagarJiMaharaj1949, #MayanksagarjiRayansagarJiMaharaj1955 |
आचार्य श्री गुणभद्र भट्टारक Aacharya Shri Gunbhadra Bhattarak
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 11-June- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 11-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
सोमसेन सेनगण और पुष्कर गच्छकी, भट्टारकपरम्परामें हुए हैं। ये गुणभद्र भट्टारकके शिष्य थे । गुणभद्रका नामान्तर गुणसेन भी था। सोमसेन के सम्बन्ध में पट्टावलोमें पाया जाता है
"विबुधविविधजनमनइंदीवरविकासनपूर्णशशिसमानानां ............ सोमसेन भट्टारकाणाम् ।"
१. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ०२ ।
२. वही, लेखांक ३४.
सोमसेनके उपदेशसे शक संवत् १५६१ फाल्गुन शुक्ला पञ्चमीको पार्श्वनाथ और संभवनाथकी मूर्तियां प्रतिष्ठापित की गयी थी।
सोमसेनके शिष्य अपयनम्पित भी कवि और जिवान थे। उन्होंने रवियत कथाकी रचना की है। त्रिवर्णाचार और रामपुराणकी प्रशस्ति में भी इन्होंने अपना परिचय पूर्वोक्त प्रकार ही दिया है। दोनों ग्रन्थोंके प्रशस्तिपद्यों में पर्याप्त साम्य है । यथा
श्री मूलसंधे वरपुष्कराख्ये गच्छे सुजातो गुणभद्रसूरिः ।
पट्टे च तस्यैव सुसोमसेनो भट्टारकोऽभूद्विदुषां शिरोमणिः ।।
रामपुराण ३३।२३३।
श्री मूलसंधे वरपुष्कराख्ये गच्छे सुजातो गुणभद्रसूरिः ।
तस्यात्र पट्ट मुनिसोमसेनो भट्टारकोऽभूद्विदुषां वरेण्यः ।
त्रिवर्णाचार, प्रशस्ति, २१३ ।
सोमसेनका समय वि० सं० की १७ वीं शती है। इन्होंने वि० सं० १६५६ में रविषेण कृत पद्मचरितके आधार पर संस्कृतमें रामपुराणकी रचना की है। वि० सं०१६६६ में इन्होंने 'शब्दरत्ननदीप' नामक संस्कृतकोश लिखा है और वि०सं०१६६७की कार्तिकी पूर्णिमाको त्रिवर्णाचारकी समाप्ति की है। अतएव वि० सं० को १७ वीं शतीका उत्तरार्द्ध स्पष्ट है ।
सोमसेन अपने समयके प्रभावशाली वक्ता, धर्मोपदेशक और संस्कृति-अन रागी व्यक्ति थे। इनका भ्रमण राजस्थान, गुजरात आदि प्रदेशोंमें निरन्तर होता रहता था । उदयपुर में संस्कृतकोश लिखा गया है और बराट देशके जित्वर नगरमें रामपुराण रचा गया है।
सोमसेनने निम्नलिखित रचनाएं निबद्ध की हैं
१. रामपुराण ।
२. शब्दरत्नप्रदीप (संस्कृतकोश)
३. धर्मरसिक-त्रिवर्णाचार ।
'रामपुराण' में रामकथा वर्णित है। इस कथाका आधार रविषेणका पन
१. शाके १५६१ वर्षे प्रमाशीनामसंवत्सरे फाल्गुन सुदि द्वितीया मूलसंधे सेनगणे पुष्कर
गच्छे भ श्रोसोमसेन उपदेशात् प्रतिष्ठितम् । -भट्टारक सम्प्रदाम, लेखांक ४२ ।
चरित है । कथावस्तुको आचार्यने ३३ अधिकारों में विभक्त किया है 1 ग्रन्धकी भाषा और शैली सरल होने पर भी प्रवाहमय है। कविने अनुष्टुप पद्योंके साथ इन्द्रवजा, उपजाति, शार्दूलविक्रीडित आदि छन्दोंको भी स्थान दिया है। ___'शब्दरत्नप्रदोष' संस्कृतभाषाका कोश है। इसमें कविने शब्दोंके अर्थ तो दिये ही हैं, साथ ही उनके प्रकृति, प्रत्यय और लिंगादि भी निर्दिष्ट किये हैं। 'शब्दरत्नप्रदीप' की प्रशस्तिमें सोमसेनने अपनेको अभिनव भट्टारक कहा है। ग्रंथको प्रशस्ति निम्न प्रकार है
___ "शुभमस्तु कल्याण || संवत् १६६६ शाके १५३१ वार्षे श्रावकणार तिथि प्रतिपदा ॥१॥ शुक्रवासरे ग्रन्थ लिखिते ठाः गोपिचंद उदयपुरस्थाने तिष्ठत्ये ॥ कल्याणंभवेत् अभिनव भ० श्रीसोमसेनस्येदं पुस्तकम्।
धर्मरसिक-त्रिवर्गाचारमें धर्म, अर्थ और काम इन तीनों विषयोंका वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ पर वैदिक धर्मका पूरा प्रभाव है। श्री जुगलकिशोर मुख्तारने अपनी ग्रन्थपरीक्षामें इसका समालोचन किया है। अन्धकारने ग्रन्थके अन्तमें लिखा है
धर्मार्थकामाय कृतं सुशास्त्र श्रीसोमसेनेन शिबार्थिनापि ।
गृहस्थधर्मेषु सदा रता ये कुर्वतु तेऽभ्यासमहो सुभन्याः ॥२१३।।
| गुरु | आचार्य श्री गुणभद्र भट्टारक |
| शिष्य | आचार्य श्री सोमसेन |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
आचार्य श्री गुणभद्र भट्टारक Aacharya Shri Gunbhadra Bhattarak
आचार्य श्री गुणभद्र भट्टारक Aacharya Shri Gunbhadra Bhattarak
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 11-June- 2022
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Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
#Somsen17ThCentury
15000
Aacharya Shri Somsen 17th Century
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