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#Sumatikirti17ThCentury
सुमतिकीति नामके दो भट्टारकोंका उल्लेख मिलता है। एक मट्टारक शुम चन्द्रके शिष्य और दूसरे भट्टारक ज्ञानभूषगके शिष्य हैं। 'उपदेशरलमाला में भट्टारक शुभचन्द्रके शिष्य के रूपमें सुमतिकीतिका निर्देश आया है
भट्टारकश्रीशुभचन्द्रसूरिस्तपट्टपंकेमहतिज्मरश्मिः ।
त्रैविद्यबंद्यः सकलप्रसिद्धो वादीमसिंहो जयत्तात परिण्यां ।
पट्टे तस्य प्रीणितप्राणिवर्म शांतो दांतः शीलशाली सुधीमान् ।
जीयात्सूरिः श्रीसुमत्यादिकोतिः गच्छाधीशः कमुकान्तिकलावान् ।।
सकलभूषणने वि० सं० १६२७ में उपदेशरत्नमालाको समाप्त किया था। इन्होंने अपने आपको सुमतिकीतिका गुरुभाई होना स्वीकार किया है। ब्रह्म कामराजने अपने 'जय कुमारपुराण में भी सुमतिकोतिको भट्टारक शुभचन्द्रका शिष्य लिखा है
सेभ्य: श्रीशुभचन्द्रः श्रीसुमतिकोतिसंयमी ।
गुणकीयालया आसन बलात्काराचराः ।।
वि० सं० १७२२ में भट्टारक देवेन्द्रकीति द्वारा लिखित 'प्रद्यमनग्नबंध में भी सुमतिकीतिको शुभचन्द्रका शिष्य कहा गया है।
दुसरे सुमतिकीतिका उल्लेख भट्टारक ज्ञानभुषणके शिष्यके रूपमें आता है। इन ज्ञानभूषणने कर्मकाण्डको टीका सुमतिकोतिको सहायतासे लिखी
तदन्वये दयांभोधि ज्ञानभूषो गणाकरः ।
टीका हि कर्मकांडस्य चक्रे सुमत्तिकोत्तियुक् ॥
ये सुमतिकोति नन्दिसंघ बलात्कारगण एवं सरस्वतीगच्छके भट्टारक वीरचन्दके शिष्य थे। इनके पूर्व इस परम्परामें लक्ष्मीभूषण, मल्लिभूषण एवं विद्यानन्दि हो चुके हैं। सुमति की तिने प्राकृतपंचसंग्रहको टीकाका दिन सं० १६२० भाद्रपद शुक्ला दशमोके दिन ईडरके ऋषभदेव जिनालयम लिखा है । इस टीकाका संशोधन ज्ञानभूषण भट्टारकने किया है ।
यहाँ जिन सुमतिकोतिका निरूपण किया जा रहा है, वे भट्टारक देवेन्द्र कोतिकी परम्परामें होनेवाले भट्टारक ज्ञानभूषणके शिष्य है। सम्भवतः ये सुमतिकीति किसी भट्टारक गद्दो पर आसीन नहीं हुए हैं । अपितु बिरक्त साधुके रूपमें विचरण करते रहे हैं । भट्टारक-विरुदावली में बताया गया है __ "अनेकदेशनरनाथनरपत्तितुरगपत्तिगजपत्तियवनाधीशसभामध्यसंप्राप्तसन्मान श्रीनेमिनाथतीर्थकरकल्याणिकपवित्र श्रीऊर्जयंतशत्रुजय-तुंगीगिरि-चूलमियोंदि सिद्धक्षेत्रयात्रापवित्राकृतचरणाना.................."सकलसिद्धांतवेदिनिग्रंथाचार्य
१. श्रीमभिमभूपतेः पारमिते प्राः शतें षोडो । विशत्यागते (१६२०) सिते मुभतरे
भाटे दशम्यां तिथी । ईलाने वृषभालय वृषकरे सुश्रावके धामिके। मूरिश्रीमुम
तीशकी तिचिहिता टीका सदा नंदतु ।।—प्राकृतपंचसंग्रहकी टीकाका अन्तिम पछ ।
वयंशिष्य श्रीमतिकीति-स्वदेशविख्यातशुभमूर्तिश्रीरत्नभूषणप्रमुस्वसूरिपाठक साधुसंसेवितचरणसरोजाना..."भट्टारकत्रीज्ञानभूषणगुरुणाम्" ।
स्पष्ट है कि सुमतिकीति सिद्धान्तवेदि एवं निन्थाचार्य थे। इनका समय १६वीं शताब्दीका अन्तिम भाग और १७वीं शताब्दीका मध्यभाग है।
भट्टारक सुमतिकीतिने 'कर्मकाण्ड' और 'प्राकृतपञ्चसंग्रह' जैसे सिद्धान्त अन्थोंकी टीका लिखी है। इन टीकाओंसे इनके सिद्धान्तविषयक पाण्डित्यका परिज्ञान होता है। ये आचार, दर्शन, कसिद्धान्त, अध्यात्म एवं काव्यके निष्णात विद्वान थे।
१. कर्मकाण्डटीका २. पञ्चसंग्रहटीका
१. धर्मपरीक्षारास ४.जिनवरस्वामीविनती २. बसन्तविद्याविलास ५. शीतलनाथगीत ३. जिह्वादन्तसंवाद ६. फुटकरपद्य
आचार्य नेमिचन्द्रने प्राकृतमें कर्मकाण्डकी रचना की है। इस अन्थकी संस्कृतटीका भट्टारक ज्ञानभूषणको सहायतासे सुमतिकोति ने की है। टीकाके आरम्भमें लिखा है--
महावीरं प्रणाम्पादौ विश्वतत्त्व-प्रकाशकं ।
भाष्यं हि कर्मकाण्डस्म वक्ष्ये भव्यहितकरं ।।
विद्यादि-सुमल्ल्यादिभूष लक्ष्मीन्दु-सद्गुरून् ।
वीरेन्दं झानभूषं हि बंदे सुमतिकीतियुक ।।
टीका द्वारा विषयका स्पष्टीकरण तो होता ही है, साथ ही कई स्थानों पर नो विषयोंका समावेश भी पाया जाता है।
आचार्य अमितगति द्वारा वि० सं० १०७३ म प्राकृत-पंचसंग्रहका संशोधन कर संस्कृत-पचसंग्रह ग्रन्थका गठन किया गया है ।
१. भट्टारकसम्प्रदाय, शोलापुर, लेखांक ४८६ ।
यों यह ग्रन्थ पर्याप्त प्राचीन है, इसमें पांच प्रकरण हैं और इस पर भाष्य एवं संस्कृतटीकाएं लिखी गयी हैं । इस पत्र संग्रहके संस्कृत-टीकाकार भट्टारक सुमतिकीति है। टीकाके आरम्भमें गद्यभाग है और अन्त में पद्योंमें प्रशस्ति दी गयी है। प्रशास्तके पद्य निम्नप्रकार है
श्रीमलसंधेऽर्जान नन्दिसंघो दरो बलात्कारगणप्रसिद्धः ।
श्रीकुदकुंदो वरसूरिबर्यो बभी बुचो भारतिगच्छसारे ॥
तदन्वये देवमुनीन्द्रवंद्यः श्नीपदमनन्दी जिनधर्मनंदी।
ततो हि जातो दिविजेन्द्रकीतिविद्या[दि]नंदी बरधर्ममूर्तिः ।।
तदीयपट्टे नवमाननीयो मल्लयादिभूषो मुनिवंदनीयः ।
ततो हि जातो बरधर्मधर्ता लक्षम्यादिचन्द्रो बहशिष्यकर्ता ।
पंचाचाररतो नित्यं मूरिसद्गुणधारकः ।
लक्ष्मीचंद्गुरुस्वामी भट्टारकशिरोमणिः ।।
दुर्वारर्वादिकपर्वतानां बजायमानो बरवीरचन्द्रः ।
तदन्वये सूरिवरप्रधानो जानादिभूषो गणिगच्छराजः ॥
यह हिन्दी रचना है। इसका उल्लेख पण्डित परमा नन्दजी शास्त्रीने भी अपने प्रशस्ति संग्रहकी भूमिकामें किया है । इस रासका रचनाकाल वि० सं० १६२५ है । बताया है
संवत् सोल पंचवीसमे, मार्गसिर सुदि बीज बार।
रास रुड़ो रलियामणो, पूर्ण किधो छ सार ।।
इस धर्मपरीक्षारासमें प्रसिद्ध ग्रन्थ धर्मपरीक्षाका सारभाग निबद्ध किया गया है।
तीर्थंकर नेमिनाथका विवाह-सन्दर्भ अत्यन्तमम स्पर्शी घटना है। इस घटनाको आधार मानकर अनेक जैनकवियों ने काव्योंकी रचना की है। प्रस्तुत वसन्तविलासमें ३२ छन्द हैं और उक्त सन्दर्भको लेकर रासरूप में इसकी रचना की गयी है । भाषा मुजराती प्रभावित राजस्थानी है।
इस लघुकाय रचनामें ११ पद्य हैं। जिह्वा और दाँतोंके बीच होनेवाले विवादका काव्यात्मक वर्णन किया है। भाषा सरल
और गुजराती प्रभावित राजस्थानी है ।
इस स्तवनमें २३ पद्य हैं। और जिनेन्द्र भग वानकी स्तुति, वणित है । कविने बताया है कि इन्द्रियाएँ उसीकी सफल हैं,
जो प्रभु स्तुति, पूजन, वन्दन और नामस्मरण आदि करता है। इन्द्रियोंकी | सार्थकता प्रभुभक्ति में ही है। कविने लिखा है
धन्य हाथ ते नर तणा, जे जिन पूजन्त ।
नेत्र सफल स्वामी यां, जे तुम निरखन्त ।।
शीतलनाथ गीतमें शीतलनाथ तीर्थकरकी स्तुतिकी गयी है। फुटकर पदों में संसार, शरीर और भोगोंके चित्र अंकित किये गये हैं। इनकी एक अन्य गणित विषयक रचनाको सूचना ण्डित परमानन्दजीने दी है । यह रचना उत्तर छत्तीसी नामको है। डॉ० कस्तरचन्द काशलीवालकी सुचनाके आधार पर इस कविकी हिन्दी और संस्कृतको अन्य रचनाएं भी होनी चाहिये । सुमतिकोतिने ग्राम और नगरों में बिहारकर धर्मविमुख जनताको धर्मको ओर अग्रसर किया है और मिथ्याइम्बरमें फसे हुए व्यक्तियोंका उद्धार किया है । आत्मसाधनामें संल्गन होनेके हेतु इन्होंने जनजागरणका अद्भुत कार्य किया है । अतएव धर्म प्रचार और साहित्यसेवाको दृष्टिस इनका महत्वपूर्ण स्थान है ।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक शुभचंद्र |
शिष्य | आचार्य श्री सुमतिकिर्ती |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Sumatikirti17ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री सुमतिकीर्ति 17वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 01-June- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 01-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
सुमतिकीति नामके दो भट्टारकोंका उल्लेख मिलता है। एक मट्टारक शुम चन्द्रके शिष्य और दूसरे भट्टारक ज्ञानभूषगके शिष्य हैं। 'उपदेशरलमाला में भट्टारक शुभचन्द्रके शिष्य के रूपमें सुमतिकीतिका निर्देश आया है
भट्टारकश्रीशुभचन्द्रसूरिस्तपट्टपंकेमहतिज्मरश्मिः ।
त्रैविद्यबंद्यः सकलप्रसिद्धो वादीमसिंहो जयत्तात परिण्यां ।
पट्टे तस्य प्रीणितप्राणिवर्म शांतो दांतः शीलशाली सुधीमान् ।
जीयात्सूरिः श्रीसुमत्यादिकोतिः गच्छाधीशः कमुकान्तिकलावान् ।।
सकलभूषणने वि० सं० १६२७ में उपदेशरत्नमालाको समाप्त किया था। इन्होंने अपने आपको सुमतिकीतिका गुरुभाई होना स्वीकार किया है। ब्रह्म कामराजने अपने 'जय कुमारपुराण में भी सुमतिकोतिको भट्टारक शुभचन्द्रका शिष्य लिखा है
सेभ्य: श्रीशुभचन्द्रः श्रीसुमतिकोतिसंयमी ।
गुणकीयालया आसन बलात्काराचराः ।।
वि० सं० १७२२ में भट्टारक देवेन्द्रकीति द्वारा लिखित 'प्रद्यमनग्नबंध में भी सुमतिकीतिको शुभचन्द्रका शिष्य कहा गया है।
दुसरे सुमतिकीतिका उल्लेख भट्टारक ज्ञानभुषणके शिष्यके रूपमें आता है। इन ज्ञानभूषणने कर्मकाण्डको टीका सुमतिकोतिको सहायतासे लिखी
तदन्वये दयांभोधि ज्ञानभूषो गणाकरः ।
टीका हि कर्मकांडस्य चक्रे सुमत्तिकोत्तियुक् ॥
ये सुमतिकोति नन्दिसंघ बलात्कारगण एवं सरस्वतीगच्छके भट्टारक वीरचन्दके शिष्य थे। इनके पूर्व इस परम्परामें लक्ष्मीभूषण, मल्लिभूषण एवं विद्यानन्दि हो चुके हैं। सुमति की तिने प्राकृतपंचसंग्रहको टीकाका दिन सं० १६२० भाद्रपद शुक्ला दशमोके दिन ईडरके ऋषभदेव जिनालयम लिखा है । इस टीकाका संशोधन ज्ञानभूषण भट्टारकने किया है ।
यहाँ जिन सुमतिकोतिका निरूपण किया जा रहा है, वे भट्टारक देवेन्द्र कोतिकी परम्परामें होनेवाले भट्टारक ज्ञानभूषणके शिष्य है। सम्भवतः ये सुमतिकीति किसी भट्टारक गद्दो पर आसीन नहीं हुए हैं । अपितु बिरक्त साधुके रूपमें विचरण करते रहे हैं । भट्टारक-विरुदावली में बताया गया है __ "अनेकदेशनरनाथनरपत्तितुरगपत्तिगजपत्तियवनाधीशसभामध्यसंप्राप्तसन्मान श्रीनेमिनाथतीर्थकरकल्याणिकपवित्र श्रीऊर्जयंतशत्रुजय-तुंगीगिरि-चूलमियोंदि सिद्धक्षेत्रयात्रापवित्राकृतचरणाना.................."सकलसिद्धांतवेदिनिग्रंथाचार्य
१. श्रीमभिमभूपतेः पारमिते प्राः शतें षोडो । विशत्यागते (१६२०) सिते मुभतरे
भाटे दशम्यां तिथी । ईलाने वृषभालय वृषकरे सुश्रावके धामिके। मूरिश्रीमुम
तीशकी तिचिहिता टीका सदा नंदतु ।।—प्राकृतपंचसंग्रहकी टीकाका अन्तिम पछ ।
वयंशिष्य श्रीमतिकीति-स्वदेशविख्यातशुभमूर्तिश्रीरत्नभूषणप्रमुस्वसूरिपाठक साधुसंसेवितचरणसरोजाना..."भट्टारकत्रीज्ञानभूषणगुरुणाम्" ।
स्पष्ट है कि सुमतिकीति सिद्धान्तवेदि एवं निन्थाचार्य थे। इनका समय १६वीं शताब्दीका अन्तिम भाग और १७वीं शताब्दीका मध्यभाग है।
भट्टारक सुमतिकीतिने 'कर्मकाण्ड' और 'प्राकृतपञ्चसंग्रह' जैसे सिद्धान्त अन्थोंकी टीका लिखी है। इन टीकाओंसे इनके सिद्धान्तविषयक पाण्डित्यका परिज्ञान होता है। ये आचार, दर्शन, कसिद्धान्त, अध्यात्म एवं काव्यके निष्णात विद्वान थे।
१. कर्मकाण्डटीका २. पञ्चसंग्रहटीका
१. धर्मपरीक्षारास ४.जिनवरस्वामीविनती २. बसन्तविद्याविलास ५. शीतलनाथगीत ३. जिह्वादन्तसंवाद ६. फुटकरपद्य
आचार्य नेमिचन्द्रने प्राकृतमें कर्मकाण्डकी रचना की है। इस अन्थकी संस्कृतटीका भट्टारक ज्ञानभूषणको सहायतासे सुमतिकोति ने की है। टीकाके आरम्भमें लिखा है--
महावीरं प्रणाम्पादौ विश्वतत्त्व-प्रकाशकं ।
भाष्यं हि कर्मकाण्डस्म वक्ष्ये भव्यहितकरं ।।
विद्यादि-सुमल्ल्यादिभूष लक्ष्मीन्दु-सद्गुरून् ।
वीरेन्दं झानभूषं हि बंदे सुमतिकीतियुक ।।
टीका द्वारा विषयका स्पष्टीकरण तो होता ही है, साथ ही कई स्थानों पर नो विषयोंका समावेश भी पाया जाता है।
आचार्य अमितगति द्वारा वि० सं० १०७३ म प्राकृत-पंचसंग्रहका संशोधन कर संस्कृत-पचसंग्रह ग्रन्थका गठन किया गया है ।
१. भट्टारकसम्प्रदाय, शोलापुर, लेखांक ४८६ ।
यों यह ग्रन्थ पर्याप्त प्राचीन है, इसमें पांच प्रकरण हैं और इस पर भाष्य एवं संस्कृतटीकाएं लिखी गयी हैं । इस पत्र संग्रहके संस्कृत-टीकाकार भट्टारक सुमतिकीति है। टीकाके आरम्भमें गद्यभाग है और अन्त में पद्योंमें प्रशस्ति दी गयी है। प्रशास्तके पद्य निम्नप्रकार है
श्रीमलसंधेऽर्जान नन्दिसंघो दरो बलात्कारगणप्रसिद्धः ।
श्रीकुदकुंदो वरसूरिबर्यो बभी बुचो भारतिगच्छसारे ॥
तदन्वये देवमुनीन्द्रवंद्यः श्नीपदमनन्दी जिनधर्मनंदी।
ततो हि जातो दिविजेन्द्रकीतिविद्या[दि]नंदी बरधर्ममूर्तिः ।।
तदीयपट्टे नवमाननीयो मल्लयादिभूषो मुनिवंदनीयः ।
ततो हि जातो बरधर्मधर्ता लक्षम्यादिचन्द्रो बहशिष्यकर्ता ।
पंचाचाररतो नित्यं मूरिसद्गुणधारकः ।
लक्ष्मीचंद्गुरुस्वामी भट्टारकशिरोमणिः ।।
दुर्वारर्वादिकपर्वतानां बजायमानो बरवीरचन्द्रः ।
तदन्वये सूरिवरप्रधानो जानादिभूषो गणिगच्छराजः ॥
यह हिन्दी रचना है। इसका उल्लेख पण्डित परमा नन्दजी शास्त्रीने भी अपने प्रशस्ति संग्रहकी भूमिकामें किया है । इस रासका रचनाकाल वि० सं० १६२५ है । बताया है
संवत् सोल पंचवीसमे, मार्गसिर सुदि बीज बार।
रास रुड़ो रलियामणो, पूर्ण किधो छ सार ।।
इस धर्मपरीक्षारासमें प्रसिद्ध ग्रन्थ धर्मपरीक्षाका सारभाग निबद्ध किया गया है।
तीर्थंकर नेमिनाथका विवाह-सन्दर्भ अत्यन्तमम स्पर्शी घटना है। इस घटनाको आधार मानकर अनेक जैनकवियों ने काव्योंकी रचना की है। प्रस्तुत वसन्तविलासमें ३२ छन्द हैं और उक्त सन्दर्भको लेकर रासरूप में इसकी रचना की गयी है । भाषा मुजराती प्रभावित राजस्थानी है।
इस लघुकाय रचनामें ११ पद्य हैं। जिह्वा और दाँतोंके बीच होनेवाले विवादका काव्यात्मक वर्णन किया है। भाषा सरल
और गुजराती प्रभावित राजस्थानी है ।
इस स्तवनमें २३ पद्य हैं। और जिनेन्द्र भग वानकी स्तुति, वणित है । कविने बताया है कि इन्द्रियाएँ उसीकी सफल हैं,
जो प्रभु स्तुति, पूजन, वन्दन और नामस्मरण आदि करता है। इन्द्रियोंकी | सार्थकता प्रभुभक्ति में ही है। कविने लिखा है
धन्य हाथ ते नर तणा, जे जिन पूजन्त ।
नेत्र सफल स्वामी यां, जे तुम निरखन्त ।।
शीतलनाथ गीतमें शीतलनाथ तीर्थकरकी स्तुतिकी गयी है। फुटकर पदों में संसार, शरीर और भोगोंके चित्र अंकित किये गये हैं। इनकी एक अन्य गणित विषयक रचनाको सूचना ण्डित परमानन्दजीने दी है । यह रचना उत्तर छत्तीसी नामको है। डॉ० कस्तरचन्द काशलीवालकी सुचनाके आधार पर इस कविकी हिन्दी और संस्कृतको अन्य रचनाएं भी होनी चाहिये । सुमतिकोतिने ग्राम और नगरों में बिहारकर धर्मविमुख जनताको धर्मको ओर अग्रसर किया है और मिथ्याइम्बरमें फसे हुए व्यक्तियोंका उद्धार किया है । आत्मसाधनामें संल्गन होनेके हेतु इन्होंने जनजागरणका अद्भुत कार्य किया है । अतएव धर्म प्रचार और साहित्यसेवाको दृष्टिस इनका महत्वपूर्ण स्थान है ।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक शुभचंद्र |
शिष्य | आचार्य श्री सुमतिकिर्ती |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Sumatikirti 17 Th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 01-June- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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15000
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