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#Surendrakirti18ThCentury
सुरेन्द्र कीर्ति
काष्ठासंघ नन्दीतटगच्छको शाखामें इन्द्रभूषण के पश्चात् सुरेन्द्रकीर्ति भट्टारक हुए । इन्होंने वि० सं०१७४४ में रत्नत्रय यंत्र, वि० सं० १७४७ में मेरुमूर्ति एवं इसी वर्ष एक रत्नत्रय यंत्रकी स्थापना की। रत्नत्रय यंत्र के अभिलेख में काष्ठासंघ और नन्दितटगच्छके आचार्यों में इन्द्रभूषण और उनके शिष्य सुरेन्द्रकीर्ति का उल्लेख आया है "संवत् १७४४ सके १६०९ फाल्गुण सुद १३ श्रीकाष्ठासंघे लाडबागडगच्छे भ० प्रतापकीर्त्याम्नाये बघेरवालज्ञाती गोवाल - गोत्रे सं० पदाजी भार्यातानाई... प्रणमंत्ति । श्रीकाष्ठासंघे नंदीतटगच्छे भ० इन्द्रभूषण तत्पट्टे भर सुरेंद्रकीर्ति ।"
सुरेन्द्रकीर्ति ने वि.सं. १७५३में चौबीसी मुर्ति की तथा संवत् १७५४ और सं० १७५६में केसरियाजी क्षेत्र पर दो चैत्याल्योंकी प्रतिष्ठा की है। अतएव सुरेन्द्रकीर्ति का समय वि०सं० की १८वीं शती है। सुरेन्द्रकीर्ति की निम्नलिखित रचनाएँ प्राप्त हैं
१. पद्मावती पूजा { विसं १७७३ },
१. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ६७४ ।
२. वही, लेखांक ७४४।
२. कल्याणमन्दिर ( छापय ),
३. एकीभाव ( छप्पय ),
४. विषापहार ( छापय ),
५. भूपाल (छप्पय )।
सुरेन्द्रकीर्ति के शिष्य धनसागर ने सं०१७५१में 'नवकारपच्चीसी' तथा स० १७५३में "विहरमान तीर्थकर स्तुति की रचना की है।
इनके एक अन्य शिष्य पामोने सं० १७४९ में भरत-भुजबलिचरित' लिखा है । सुरेन्द्रकीर्ति के शिष्य देवेन्द्रकीर्ति ने 'पुरन्दरव्रतकथा'की रचना की है।
गुरु | आचार्य श्री इंद्रभूषण |
शिष्य | आचार्य श्री सुरेन्द्रकीर्ति |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Surendrakirti18ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री सुरेंद्रकीर्ति 18वीं शताब्दी
आचार्य श्री इन्द्रभूषण Aacharya Shri Indrabhushan
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 15-June- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 15-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
सुरेन्द्र कीर्ति
काष्ठासंघ नन्दीतटगच्छको शाखामें इन्द्रभूषण के पश्चात् सुरेन्द्रकीर्ति भट्टारक हुए । इन्होंने वि० सं०१७४४ में रत्नत्रय यंत्र, वि० सं० १७४७ में मेरुमूर्ति एवं इसी वर्ष एक रत्नत्रय यंत्रकी स्थापना की। रत्नत्रय यंत्र के अभिलेख में काष्ठासंघ और नन्दितटगच्छके आचार्यों में इन्द्रभूषण और उनके शिष्य सुरेन्द्रकीर्ति का उल्लेख आया है "संवत् १७४४ सके १६०९ फाल्गुण सुद १३ श्रीकाष्ठासंघे लाडबागडगच्छे भ० प्रतापकीर्त्याम्नाये बघेरवालज्ञाती गोवाल - गोत्रे सं० पदाजी भार्यातानाई... प्रणमंत्ति । श्रीकाष्ठासंघे नंदीतटगच्छे भ० इन्द्रभूषण तत्पट्टे भर सुरेंद्रकीर्ति ।"
सुरेन्द्रकीर्ति ने वि.सं. १७५३में चौबीसी मुर्ति की तथा संवत् १७५४ और सं० १७५६में केसरियाजी क्षेत्र पर दो चैत्याल्योंकी प्रतिष्ठा की है। अतएव सुरेन्द्रकीर्ति का समय वि०सं० की १८वीं शती है। सुरेन्द्रकीर्ति की निम्नलिखित रचनाएँ प्राप्त हैं
१. पद्मावती पूजा { विसं १७७३ },
१. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ६७४ ।
२. वही, लेखांक ७४४।
२. कल्याणमन्दिर ( छापय ),
३. एकीभाव ( छप्पय ),
४. विषापहार ( छापय ),
५. भूपाल (छप्पय )।
सुरेन्द्रकीर्ति के शिष्य धनसागर ने सं०१७५१में 'नवकारपच्चीसी' तथा स० १७५३में "विहरमान तीर्थकर स्तुति की रचना की है।
इनके एक अन्य शिष्य पामोने सं० १७४९ में भरत-भुजबलिचरित' लिखा है । सुरेन्द्रकीर्ति के शिष्य देवेन्द्रकीर्ति ने 'पुरन्दरव्रतकथा'की रचना की है।
गुरु | आचार्य श्री इंद्रभूषण |
शिष्य | आचार्य श्री सुरेन्द्रकीर्ति |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Surendrakirti 18th Century
आचार्य श्री इन्द्रभूषण Aacharya Shri Indrabhushan
आचार्य श्री इन्द्रभूषण Aacharya Shri Indrabhushan
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 15-June- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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