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#TikakarNemichandra16ThCentury
नेमिचन्द्र नामके अनेक आचार्योका निर्देश जैन इतिहासम्म प्राप्त होता है। गोम्मटभार और त्रिलोकासार आदि ग्रन्थों के रचयिता सिद्धान्तचक्रवतीने नेमि चन्द्र और द्रव्यसंग्रहके रचयिता नेमिचन्द्रके अतिरिक्त गोम्मटसारको जीवतत्त्व प्रदीपिका के रचयिता नेमिचन्द्र भी उपलब्ध होते हैं। इनके अतिरिक्त विजय- किर्तिके शिष्य नेमिचन्द्र, जिनका समय विकी १८वी शताब्दी है, निर्देश प्राप्त होता है। बख्यत्कारगण ईडर शाखाक पट्टपर नरेन्द्रकीतिक पश्चात् क्रमशः विजयकोति, नेमिचन्द्र और चन्द्रकीति भट्टारक हुए हैं। बलात्कारगणके आचार्यों में श्रीधर शिष्य नेमिचन्द्र का उल्लेख प्राप्त होता है। श्रवणबेलगोटाने अभि हेखाम कोणर के अभिलेखमें बताया है
आ मुनिमुख्यन शिष्यं श्रीमच्चारित्रक्रिसुजनविलासं ।
भमिपकिरीटताडितकोमलनखरश्मिनेमिचन्द्रभनी ।।
श्रवणबेलगोलाके अभिलेखों में नयकोतिके शिष्य नेमिचन्द्रका निर्देश मिलता है। अभिलेखसंख्या १२२ और १२४में नयोति सिद्धान्तदेवकी परम्परामें भानुकीति, प्रभाचन्द्र, माघन्दि, पचनन्दि और नेमिचन्द्र के नाम आते हैं। ये अभिलेख शकसंवत् ११०३ और शकसंवत् ११२२के हैं। इससे नेमिचन्द्रका समय वि० सं० को १३वीं शताब्दी सिद्ध होता है।
नेमिचन्द्र नामके एक अन्य भट्टारकः सहस्रको निद शिष्यके रूपमें लि. वित्त मिलते हैं । इनका समय नि०को १७वीं शताब्दी प्रतीत होता है | पावली में नमिचन्द्रके गृहस्थवर्ष, दीक्षावर्ष और स्वर्गारोहणबर्षका उल्लेख है । बताया गया है कि सहस्रकीर्तिके पट्टपर वि० सं० १६५०की श्रावण शुक्ला त्रयोदशीको नेमिचन्द्रका पट्टाभिषेक हुआ। ये ११ वर्षों तक भट्टारक पदपर आसीन रहे। संवत् १६५४की आषाढ़ कृष्णा एकादशीको अजमेर में इनकी शिष्या बाई सवीराके लिए वसुनन्दिश्रावकाचारको एक प्रति लिखायी गयी |
१. भट्टारका सम्प्रदाय, शोलापुर, लेखांक ९१, पद्य २३ ।
२. भट्टारक-सम्प्रदाय, लेखांक २८५ ।
३. बगुनन्दि-नावकाचार, भारतीय ज्ञानपीट काशी, सन् १९:४४, प्रस्तावना, म १५ ।
इस समय दिल्ली-जयपुर शाखामें भट्टारक चन्द्रकीति पट्टाधीश थे। नमिचन्द्र लिए पाण्डवपुराण की भी एक प्रति लिखायी गयी थी। विसं १६७२ फाल्गुन शुक्ला पञ्चमीको पाटणीगोत्रके भट्टारक या कति रेवा नहर में पट्टा धीश हुए, तथा १८ वर्ष तक पट्टपर आसीन रहे।
इम प्रकार जैन साहित्यमें कई नेमिचन्द्रोंका उल्लंग्न प्राप्त होता है। गोम्मटसारको जीपायोपिक वा नागिन को और इनकी गुरुपरम्परा क्या श्री ? यह सब विचारणीय हैं । गोम्मटमारके. कलकत्ता सस्का रणमें एक प्रशस्ति प्राप्त होती है, जिससे गिचन्द्रक संघ, गच्छ, गण आदिका
परिचय प्राप्त होता है। प्रर्शास्तमें लिखा गया है
तत्र श्रीशारदागच्छ बलात्कारगणो न्यः ।
कुन्दकुन्दमुनीन्द्रस्य नन्द्याम्नायोपि नन्दल ।।
यो गुणगुणमृद्गोतो भट्टारकशि गाणः ।
भक्त्या नमामि तं भूयो गुरं श्रीज्ञानभूपणम् ।।
कर्णाटप्रायदेशशमल्लिभूपालभक्तितः ।
सिद्धान्त: पाठितो येन मुनिचन्द्रं नमामि सम् ।।
योऽभ्यर्थ्य धर्मवृद्धयर्थ मा सूस्पिदं ददौ ।
भट्टारकशिरोरत्नं प्रभेन्दु: स मस्यते ।।
विविविधाविख्यातविशालकीतिसूरिणा।
सहायास्यां धृती चक्रऽधीसा च प्रथम मुदा ।।
सूरे: श्रीधर्मचन्द्रस्याभयचन्द्रगणेशिनः ।
बणिलालादिभयानां कृते कर्णाटवृत्तितः ।।
रचित्ता चित्रकूटे श्रीपार्श्वनाथालये मुना ।
साधुसांगासहेसाभ्यां प्राथितेन मुमुक्षुणा ।।
गोम्मटसारवृत्तिहि नंद्याव्य: प्रवत्तिता !
शोधयन्स्वागमात् किंचिबिरुद्धं चेत् बहुश्रुताः ॥
निर्ग्रन्धाचार्यबर्येण विद्यचक्रवतिना ।
संशोध्याभयचन्द्रणालेखि प्रथमपुस्तिका ॥
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि संस्कृत जीवप्रदीपिकाटीकाके रचयिता मूलमंच बलात्कारगण शारदागच्छ कुन्दकुन्दान्वय और नन्दि आम्नायके नेमिचन्द्र है।
१. जैनसिद्धान्त भास्कर, भाग १, किरण ४, पृ. ३९ ।
२. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक २८८ ।।
३. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, पृ० २०५७-५८ ।
ये ज्ञानभूषण भट्टारक शिव्य थ । प्रभाचन्द्र भट्टारखाने इन्हें आचार्यगद प्रदान किया था ! कर्नाटक के जैन गजा मल्लिभ पालक भक्तिवश इन्हें मुनिचन्द्रने सिद्धान्तशास्त्रका अध्ययन कराया था। श्रीलालावीक आग्रहसे ये गुर्जर देशस आकर चिकटम जिनदास शाह द्वारा निर्मापित चत्यालयमें ठहरे थे। यही इन्होंने सूरिया धर्मचन्द्र, अभयचन्द्र भट्टारक और लालावी आदि भव्य जीवोंके लिार खण्डेलवाल वंश के शाह साँगा और शाह सहेसकी प्रार्थनागर कर्ना टकीय बृत्तिके अनमार जोबतत्त्वप्नदीपिकावृत्ति लिखी । इसकी रचनामें विद्य विद्याविण्यातविनालकी तिग्नेि सहायता की और उसे प्रथम बार हर्षपूर्वक पढ़ा | विद्य चक्रावती निग्रंथाचार्य अभयचन्द्र ने उसका संशोधन करके उसकी प्रश्रम प्रति तैयार को श्री। ___अतः उपर्युक्त प्रशस्तिके अनुसार केशबबीकी कन्नड़ टोकाके आधारपर जीवनाचनदीपिका टीकाके रचयिता नेमिचन्द्र हैं। इस टोकाके अन्तमं जो सन्धिबाक्य आते हैं, उनमें भी नेमिचन्द्रका उल्लख है। यथा---'इत्याचार्य श्रीनेमिचन्द्रकृतायां मोम्मटसारापरनामपञ्चसंग्रहवृत्तौ'–यहाँ 'नेमिचन्द्रकृत्ता यायाँ' तिका विशेषण है, गोम्मटसारका नहीं । अतएव यहाँ गोम्मटसारके रचयिता आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवतीका भ्रम नहीं होना चाहिये ।
टीकाके प्रारम्भमें जो मंगलाचरण किया गया है, वह भी नेमिचन्द्र टीका कारको सूचित करता है। टीकाकारले यहाँ इलेप द्वारा अपना और अपने गुरुका नाम प्रस्तुत किया है । यथा--
नेमिचन्द्रं जिनं नत्वा सिद्ध श्रीज्ञानभूषणम् ।
वृत्ति गोम्मटसारस्य कुर्वे कर्णाटवृत्तितः ।।
केशबवर्णीने गोम्मटसारको कर्नाटकावृत्ति लिखी है। इस वृत्तिना नाम भी जीवत्तत्त्वप्रदीपिका है। केशववर्णीको ही कुछ लोग संस्कृत जीवतत्व प्रदीपिकाका रचयिता मानते हैं। पर डॉ. ए एन उपाध्येने केशबबीकी कन्नन टीका बतलायी है और इस टीकाके आधारपर नेमिचन्द्रने संस्कृत्तमें जीवतत्वप्रदीपिका टीका लिखी है। कर्नाटकवृत्ति के रचयिता केशववणीक गुरु अभयचन्द्र सूरि सिद्धान्त चक्रवर्ती थे। इन्होंने गोम्मटसारको वृत्ति शक संवत् १२८१ । विसं. १४१६ में पूर्ण की है।
वृत्तिकार नेमिचन्द्र ने अपनी प्रशस्तिमें समयका निर्देश नहीं किया है। काशनवर्णीने अपनी कर्नाटक वृत्तिको शक संवत् १२८१ (वि०सं० १४१६) में
१. अनेकान्त वर्ष ४, किरण १, पृ० ११३ ।
समाप्त किया है। जीवतत्त्व प्रदीपिका पनटिकवृत्ति के अनुसरणपर लिखी गयी है। अतः उसका रचनाकाल वि०सं० १४१६के पश्चात् होना चाहिये । पण्डित टोडरमलजीने संस्कृत-जीवतत्वप्रदीपिकाके आधारपर हिन्दी-टीकाका निर्माण वि०सं० १८१८ में किया है। अतः इन दोनों समय-सीमाओंके बीच
ही जीवतत्त्वप्रदीपिकाका रचनाकाल समाश्य है। ___टीकाकी प्रशस्तिमें कर्नादप्रायदेशके स्वामी मल्लिभुपालका उल्लेख आया है। डॉ ए. एन. उपाध्येने संस्कृत-जीवतत्वाप्रदीपिकाका रचनाकाल ई सन्की १६वीं शताब्दी बतलाया है। डॉ० उपाध्येने लिखा है—'जैन साहित्य के उद्धरणोंपर दृष्टि डालनेश मुझे मालूम होता है कि मल्सिनामका एक शासक कुछ जैन लेखकोंके साथ प्राय: सम्पर्कको प्राप्त है। शुभचन्द्र-गुबिलीक अनुसार विजयकत्ति ( ई० सन् १६वीं शताब्दीके प्रारंभमें । मल्लिभुपालने द्वारा सम्मानित हुआ था। विजयकोत्तिका समकालीन होनेसे उस मल्लिभूपाल को १६वीं शताब्दी के प्रारम्भमें रखा जा सकता है। उसके स्थान और धर्म विषयका हमें कोई परिचय ज्ञात नहीं । दूसरे, विशालकोत्तिक शिष्य विद्यानन्दिके विषयमें कहा जाता है कि ये मल्लिरायके द्वारा पूजे गये थे और ये बिद्यानन्दि ई० सन् १५४१ में दिवंगत हुए हैं । इससे भी मालूम होता है कि १६वीं शताब्दी के प्रारम्भमें एक मल्लिभूपाल था। हुम्मचका शिलालेख इस विषयको और भी स्पष्ट कर देता है। उसमें बताया गया है कि यह राजा जो विद्यानन्दिके सम्पर्क में था, सालुब मल्लिराय कहलाता था । यह उल्लेख हमें मात्र परम्परा गत किंबदन्तियोंसे हटाकर ऐतिहासिक आधारपर ले आता है। सालुब नरेशों ने कनारा जिलेके एक भागपर राज्य किया है और वे जैनधर्मको मानते थे। मल्लिभूपाल मल्लिरायका संस्कृत किया हुआ रूप है । और मुझे इसमें कोई सन्देह नहीं है कि नेमिचन्द्र सालबसयका उल्लेख कर रहे हैं । यद्यपि उन्होंने उनके वंशका उल्लेख नहीं किया है । १५३० ई०के लेखमें उल्लिखित होनेसे हम साल्व मल्लिरायको १६वीं शताब्दीके प्रथम चरणमें रख सकते हैं। और उसके विद्यानन्दि तथा विजयंकीत्ति विषयक सम्पर्कके साथ भी अच्छी तरह संगत जान पड़ता है। इस तरह नेमिचन्द्र के सालुब मल्लिरायक समकालीन होनेस हम संस्कृत-जीवत्तत्त्वप्रदीपिकाकी रचनाको ईसाकी १६वीं शताब्दीके प्रारम्भ की ठहरा सकते हैं।"
डॉ. उपाध्येके उनी कथनसे स्पष्ट है कि टीकाकार नेमिचन्द्र का समय १६ वीं शती है। अब यह विचारणीय है कि प्रशस्ति और मंगलाचरणमें जिन ज्ञान
१. अनेकान्त वर्ष ४, किरण १, पृ० १२० ।
भूषणका उल्लेख आया है, उनके ममयप विचार करने से भी नामचन्द्रको तिथि ज्ञात की जा सकती है । जैन साहित्यमें पार ज्ञान भूषणोंका उल्लेख मिलना है। गक ज्ञान भूपण भुबनकोतिक शिष्ट्य है. गर नकीतिक सिम है, नीमर वीरचन्द्र के शिष्य हैं और चौथे गोलभुषण शिस । भवनको निमः शिष्य ज्ञान भूषण बलात्कारमण ईडरमायाक भट्टारक थे । उन्होंने नंबन् १९६८ म चारित्र यन्त्र, संवत् १५३५ में एक रानमिति और गं ::४२ में प्रगतिवी प्रतिष्ठा करायी थी । विगं में [तगणीची रचना' भी इन्हीं ज्ञानभूषणने की है। नन्दिपकी पट्टानला जावा गचय दिया गया है । अतः भुवनकोत्तिके शिष्य ज्ञानभूपणही नांगमन्द्रः होमवत है । जानमाण गज रातके रहनेवाले थे और दक्षिण तथा उत्तरगः प्रशाम मगन्य थे। नामचन्द्र भी गुजरातसे चित्रकूट गये थे।
नेमिचन्द्रको सूरिषद भट्टारक प्रभा'चन्द्रने प्रदान किया था। बाद चन्द्रन विक्रम संवत् १५४० में पाश्चपुराण और वि० सं०१६४८ में ज्ञानमयांदण नाक लिखा है। इन्होंने अपने गुरुका नाम भट्टारक प्रभाचन्द्र बतलाया है, साथ ही अपनेको ज्ञानभूषणका प्रशिक्षण और प्रभाबका शिष्य बताया है। इनके द्वारा रचित श्रीपालाख्याम नामक गुजराती ग्रन्धमें इनकी गुरुपरम्परामें विद्यानन्दि, मल्लिभूषण, लक्ष्मीचन्द्र, वीरचन्द्र, ज्ञानभूषण, प्रभाचन्द्र और वादिचन्द्र के माम आये हैं । अतः इस परम्पराके अनुसार तत्त्वज्ञानतरंगिणीने रचयिता भट्टारक ज्ञानभूषणके शिध्य भट्टारक प्रभाचन्द्र थे। इन्हीं प्रभाचन्द्र भट्टारकने नेमिचन्द्र को सूरिपद प्रदान किया था। अत: ज्ञानभूषण और प्रभाचन्द्रकी संगति नेमि' चन्द्र के साथ बैठ जाती है। अतएव टीकाकार नेमिचन्द्रका समय १६वीं शती सिद्ध होता है और जीवतत्त्वप्रदीपिकाका समाप्तिकाल ई सन् १५१५ के लगभग आता है। श्री पं० नाथूराम प्रेमीने भी दीर निर्वाण संवत् २१७५६-६०५ = १५७२ माना है। पर वे इसे शक संवत् मानते हैं, जो गलत है। यह विक्रम संवत् है, शक नहीं । इस प्रकार नेमिचन्द्रका समय ईस्वी सन्की १५वीं शतीका मध्य भाग है।
नेमिचन्द्रवी 'जीवतत्त्वप्रदीपिका' नामक गोम्मटसारकी संस्कृत-टीका प्राप्त
१. अदैव विक्रमातीताः शतपश्चदशाधिकाः ।
षष्टिः संवत्सरा जातास्तदेयं निर्मिता कृतिः ।।
तत्वज्ञान० कलकत्ता १९१६,१८।२३ ।
२. जैनसिद्धान्तभास्कर भाग १, किरण ४, पृ० ४३-४५ ।
है | यःलाकात ही नावपूर्ण है। इसमें गम्भीर और कठिन विषयको अत्यन्त मरल-
नवंक म्पष्ट किया गया है। सैद्धान्तिक विषयोंकी च के साथ ही साथ आदि गणन. संन्यात, असंञ्चान, अनन्त, अंणि, जगनतर, धनलोक आदि
नियोका कान है, 31 मनामियांक द्वारा अंकसंदष्टिको रूपमें स्पष्ट किया गया । । गमन गृह और टुमद विषयोंका स्पष्टीकरण सम्यक्त्तया किया है। जीवबिगल भई कर्मविपणन प्रत्येक चचित विषयका सैद्धान्तिक रूपमें सुन्दर विवचननामा गोकाने अध्ययनमे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि टीकाकारको
वाय, मामा मणिन. मित्रान्त, आचार आदिका स्पष्ट ज्ञान था।
सन की लीकी यह विटो पता है कि इसमें न तो अनावश्यक बिस्तार है और अधिया संकोच हो । विषयके विवेचनमें पाप्त सन्तुलन रखा गया है।
हम वा लस्स, प्रावास आदि भाषाओक शताधिक उद्धरण प्रस्तुत किये गय: । ननं मगन्तभदाजायंक आप्तमीमांसा, विद्यानन्दके आन्तपरीक्षा, नामदेव मस्तिकम, नमिचन्द्रनः त्रिलोक सार और आगाधरके अनगार बमामा प्रति अन्बास अपने विषयको पुष्टि के लिए उद्धरण दिये हैं। दीका में घनिषभ, गूतवली, समन्तभद्र, भट्टाकलंक, नेमिचन्द्र, माधवचन्द्र, अभयचन्द्र
और केन्चमणी आदि ग्रन्ः कारोंक नामोंका भी निर्देश किया है।
यह ग़ल्य है कि यह संस्कृत-टीका न होती, तो पं० टोडरमलजी गोम्मटसार का रहस्योद्घाटन नहीं कर पात । केशववर्णीकी कर्णाटक वृत्तिका आश्य लिया गया है।
गुरु | आचार्य श्री ग्यानभूषण |
शिष्य | आचार्य श्री टिकाकार नेमिचंद्र |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#TikakarNemichandra16ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री टिकाकर नेमिचंद्र 16वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 06-June- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 06-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
नेमिचन्द्र नामके अनेक आचार्योका निर्देश जैन इतिहासम्म प्राप्त होता है। गोम्मटभार और त्रिलोकासार आदि ग्रन्थों के रचयिता सिद्धान्तचक्रवतीने नेमि चन्द्र और द्रव्यसंग्रहके रचयिता नेमिचन्द्रके अतिरिक्त गोम्मटसारको जीवतत्त्व प्रदीपिका के रचयिता नेमिचन्द्र भी उपलब्ध होते हैं। इनके अतिरिक्त विजय- किर्तिके शिष्य नेमिचन्द्र, जिनका समय विकी १८वी शताब्दी है, निर्देश प्राप्त होता है। बख्यत्कारगण ईडर शाखाक पट्टपर नरेन्द्रकीतिक पश्चात् क्रमशः विजयकोति, नेमिचन्द्र और चन्द्रकीति भट्टारक हुए हैं। बलात्कारगणके आचार्यों में श्रीधर शिष्य नेमिचन्द्र का उल्लेख प्राप्त होता है। श्रवणबेलगोटाने अभि हेखाम कोणर के अभिलेखमें बताया है
आ मुनिमुख्यन शिष्यं श्रीमच्चारित्रक्रिसुजनविलासं ।
भमिपकिरीटताडितकोमलनखरश्मिनेमिचन्द्रभनी ।।
श्रवणबेलगोलाके अभिलेखों में नयकोतिके शिष्य नेमिचन्द्रका निर्देश मिलता है। अभिलेखसंख्या १२२ और १२४में नयोति सिद्धान्तदेवकी परम्परामें भानुकीति, प्रभाचन्द्र, माघन्दि, पचनन्दि और नेमिचन्द्र के नाम आते हैं। ये अभिलेख शकसंवत् ११०३ और शकसंवत् ११२२के हैं। इससे नेमिचन्द्रका समय वि० सं० को १३वीं शताब्दी सिद्ध होता है।
नेमिचन्द्र नामके एक अन्य भट्टारकः सहस्रको निद शिष्यके रूपमें लि. वित्त मिलते हैं । इनका समय नि०को १७वीं शताब्दी प्रतीत होता है | पावली में नमिचन्द्रके गृहस्थवर्ष, दीक्षावर्ष और स्वर्गारोहणबर्षका उल्लेख है । बताया गया है कि सहस्रकीर्तिके पट्टपर वि० सं० १६५०की श्रावण शुक्ला त्रयोदशीको नेमिचन्द्रका पट्टाभिषेक हुआ। ये ११ वर्षों तक भट्टारक पदपर आसीन रहे। संवत् १६५४की आषाढ़ कृष्णा एकादशीको अजमेर में इनकी शिष्या बाई सवीराके लिए वसुनन्दिश्रावकाचारको एक प्रति लिखायी गयी |
१. भट्टारका सम्प्रदाय, शोलापुर, लेखांक ९१, पद्य २३ ।
२. भट्टारक-सम्प्रदाय, लेखांक २८५ ।
३. बगुनन्दि-नावकाचार, भारतीय ज्ञानपीट काशी, सन् १९:४४, प्रस्तावना, म १५ ।
इस समय दिल्ली-जयपुर शाखामें भट्टारक चन्द्रकीति पट्टाधीश थे। नमिचन्द्र लिए पाण्डवपुराण की भी एक प्रति लिखायी गयी थी। विसं १६७२ फाल्गुन शुक्ला पञ्चमीको पाटणीगोत्रके भट्टारक या कति रेवा नहर में पट्टा धीश हुए, तथा १८ वर्ष तक पट्टपर आसीन रहे।
इम प्रकार जैन साहित्यमें कई नेमिचन्द्रोंका उल्लंग्न प्राप्त होता है। गोम्मटसारको जीपायोपिक वा नागिन को और इनकी गुरुपरम्परा क्या श्री ? यह सब विचारणीय हैं । गोम्मटमारके. कलकत्ता सस्का रणमें एक प्रशस्ति प्राप्त होती है, जिससे गिचन्द्रक संघ, गच्छ, गण आदिका
परिचय प्राप्त होता है। प्रर्शास्तमें लिखा गया है
तत्र श्रीशारदागच्छ बलात्कारगणो न्यः ।
कुन्दकुन्दमुनीन्द्रस्य नन्द्याम्नायोपि नन्दल ।।
यो गुणगुणमृद्गोतो भट्टारकशि गाणः ।
भक्त्या नमामि तं भूयो गुरं श्रीज्ञानभूपणम् ।।
कर्णाटप्रायदेशशमल्लिभूपालभक्तितः ।
सिद्धान्त: पाठितो येन मुनिचन्द्रं नमामि सम् ।।
योऽभ्यर्थ्य धर्मवृद्धयर्थ मा सूस्पिदं ददौ ।
भट्टारकशिरोरत्नं प्रभेन्दु: स मस्यते ।।
विविविधाविख्यातविशालकीतिसूरिणा।
सहायास्यां धृती चक्रऽधीसा च प्रथम मुदा ।।
सूरे: श्रीधर्मचन्द्रस्याभयचन्द्रगणेशिनः ।
बणिलालादिभयानां कृते कर्णाटवृत्तितः ।।
रचित्ता चित्रकूटे श्रीपार्श्वनाथालये मुना ।
साधुसांगासहेसाभ्यां प्राथितेन मुमुक्षुणा ।।
गोम्मटसारवृत्तिहि नंद्याव्य: प्रवत्तिता !
शोधयन्स्वागमात् किंचिबिरुद्धं चेत् बहुश्रुताः ॥
निर्ग्रन्धाचार्यबर्येण विद्यचक्रवतिना ।
संशोध्याभयचन्द्रणालेखि प्रथमपुस्तिका ॥
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि संस्कृत जीवप्रदीपिकाटीकाके रचयिता मूलमंच बलात्कारगण शारदागच्छ कुन्दकुन्दान्वय और नन्दि आम्नायके नेमिचन्द्र है।
१. जैनसिद्धान्त भास्कर, भाग १, किरण ४, पृ. ३९ ।
२. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक २८८ ।।
३. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, पृ० २०५७-५८ ।
ये ज्ञानभूषण भट्टारक शिव्य थ । प्रभाचन्द्र भट्टारखाने इन्हें आचार्यगद प्रदान किया था ! कर्नाटक के जैन गजा मल्लिभ पालक भक्तिवश इन्हें मुनिचन्द्रने सिद्धान्तशास्त्रका अध्ययन कराया था। श्रीलालावीक आग्रहसे ये गुर्जर देशस आकर चिकटम जिनदास शाह द्वारा निर्मापित चत्यालयमें ठहरे थे। यही इन्होंने सूरिया धर्मचन्द्र, अभयचन्द्र भट्टारक और लालावी आदि भव्य जीवोंके लिार खण्डेलवाल वंश के शाह साँगा और शाह सहेसकी प्रार्थनागर कर्ना टकीय बृत्तिके अनमार जोबतत्त्वप्नदीपिकावृत्ति लिखी । इसकी रचनामें विद्य विद्याविण्यातविनालकी तिग्नेि सहायता की और उसे प्रथम बार हर्षपूर्वक पढ़ा | विद्य चक्रावती निग्रंथाचार्य अभयचन्द्र ने उसका संशोधन करके उसकी प्रश्रम प्रति तैयार को श्री। ___अतः उपर्युक्त प्रशस्तिके अनुसार केशबबीकी कन्नड़ टोकाके आधारपर जीवनाचनदीपिका टीकाके रचयिता नेमिचन्द्र हैं। इस टोकाके अन्तमं जो सन्धिबाक्य आते हैं, उनमें भी नेमिचन्द्रका उल्लख है। यथा---'इत्याचार्य श्रीनेमिचन्द्रकृतायां मोम्मटसारापरनामपञ्चसंग्रहवृत्तौ'–यहाँ 'नेमिचन्द्रकृत्ता यायाँ' तिका विशेषण है, गोम्मटसारका नहीं । अतएव यहाँ गोम्मटसारके रचयिता आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवतीका भ्रम नहीं होना चाहिये ।
टीकाके प्रारम्भमें जो मंगलाचरण किया गया है, वह भी नेमिचन्द्र टीका कारको सूचित करता है। टीकाकारले यहाँ इलेप द्वारा अपना और अपने गुरुका नाम प्रस्तुत किया है । यथा--
नेमिचन्द्रं जिनं नत्वा सिद्ध श्रीज्ञानभूषणम् ।
वृत्ति गोम्मटसारस्य कुर्वे कर्णाटवृत्तितः ।।
केशबवर्णीने गोम्मटसारको कर्नाटकावृत्ति लिखी है। इस वृत्तिना नाम भी जीवत्तत्त्वप्रदीपिका है। केशववर्णीको ही कुछ लोग संस्कृत जीवतत्व प्रदीपिकाका रचयिता मानते हैं। पर डॉ. ए एन उपाध्येने केशबबीकी कन्नन टीका बतलायी है और इस टीकाके आधारपर नेमिचन्द्रने संस्कृत्तमें जीवतत्वप्रदीपिका टीका लिखी है। कर्नाटकवृत्ति के रचयिता केशववणीक गुरु अभयचन्द्र सूरि सिद्धान्त चक्रवर्ती थे। इन्होंने गोम्मटसारको वृत्ति शक संवत् १२८१ । विसं. १४१६ में पूर्ण की है।
वृत्तिकार नेमिचन्द्र ने अपनी प्रशस्तिमें समयका निर्देश नहीं किया है। काशनवर्णीने अपनी कर्नाटक वृत्तिको शक संवत् १२८१ (वि०सं० १४१६) में
१. अनेकान्त वर्ष ४, किरण १, पृ० ११३ ।
समाप्त किया है। जीवतत्त्व प्रदीपिका पनटिकवृत्ति के अनुसरणपर लिखी गयी है। अतः उसका रचनाकाल वि०सं० १४१६के पश्चात् होना चाहिये । पण्डित टोडरमलजीने संस्कृत-जीवतत्वप्रदीपिकाके आधारपर हिन्दी-टीकाका निर्माण वि०सं० १८१८ में किया है। अतः इन दोनों समय-सीमाओंके बीच
ही जीवतत्त्वप्रदीपिकाका रचनाकाल समाश्य है। ___टीकाकी प्रशस्तिमें कर्नादप्रायदेशके स्वामी मल्लिभुपालका उल्लेख आया है। डॉ ए. एन. उपाध्येने संस्कृत-जीवतत्वाप्रदीपिकाका रचनाकाल ई सन्की १६वीं शताब्दी बतलाया है। डॉ० उपाध्येने लिखा है—'जैन साहित्य के उद्धरणोंपर दृष्टि डालनेश मुझे मालूम होता है कि मल्सिनामका एक शासक कुछ जैन लेखकोंके साथ प्राय: सम्पर्कको प्राप्त है। शुभचन्द्र-गुबिलीक अनुसार विजयकत्ति ( ई० सन् १६वीं शताब्दीके प्रारंभमें । मल्लिभुपालने द्वारा सम्मानित हुआ था। विजयकोत्तिका समकालीन होनेसे उस मल्लिभूपाल को १६वीं शताब्दी के प्रारम्भमें रखा जा सकता है। उसके स्थान और धर्म विषयका हमें कोई परिचय ज्ञात नहीं । दूसरे, विशालकोत्तिक शिष्य विद्यानन्दिके विषयमें कहा जाता है कि ये मल्लिरायके द्वारा पूजे गये थे और ये बिद्यानन्दि ई० सन् १५४१ में दिवंगत हुए हैं । इससे भी मालूम होता है कि १६वीं शताब्दी के प्रारम्भमें एक मल्लिभूपाल था। हुम्मचका शिलालेख इस विषयको और भी स्पष्ट कर देता है। उसमें बताया गया है कि यह राजा जो विद्यानन्दिके सम्पर्क में था, सालुब मल्लिराय कहलाता था । यह उल्लेख हमें मात्र परम्परा गत किंबदन्तियोंसे हटाकर ऐतिहासिक आधारपर ले आता है। सालुब नरेशों ने कनारा जिलेके एक भागपर राज्य किया है और वे जैनधर्मको मानते थे। मल्लिभूपाल मल्लिरायका संस्कृत किया हुआ रूप है । और मुझे इसमें कोई सन्देह नहीं है कि नेमिचन्द्र सालबसयका उल्लेख कर रहे हैं । यद्यपि उन्होंने उनके वंशका उल्लेख नहीं किया है । १५३० ई०के लेखमें उल्लिखित होनेसे हम साल्व मल्लिरायको १६वीं शताब्दीके प्रथम चरणमें रख सकते हैं। और उसके विद्यानन्दि तथा विजयंकीत्ति विषयक सम्पर्कके साथ भी अच्छी तरह संगत जान पड़ता है। इस तरह नेमिचन्द्र के सालुब मल्लिरायक समकालीन होनेस हम संस्कृत-जीवत्तत्त्वप्रदीपिकाकी रचनाको ईसाकी १६वीं शताब्दीके प्रारम्भ की ठहरा सकते हैं।"
डॉ. उपाध्येके उनी कथनसे स्पष्ट है कि टीकाकार नेमिचन्द्र का समय १६ वीं शती है। अब यह विचारणीय है कि प्रशस्ति और मंगलाचरणमें जिन ज्ञान
१. अनेकान्त वर्ष ४, किरण १, पृ० १२० ।
भूषणका उल्लेख आया है, उनके ममयप विचार करने से भी नामचन्द्रको तिथि ज्ञात की जा सकती है । जैन साहित्यमें पार ज्ञान भूषणोंका उल्लेख मिलना है। गक ज्ञान भूपण भुबनकोतिक शिष्ट्य है. गर नकीतिक सिम है, नीमर वीरचन्द्र के शिष्य हैं और चौथे गोलभुषण शिस । भवनको निमः शिष्य ज्ञान भूषण बलात्कारमण ईडरमायाक भट्टारक थे । उन्होंने नंबन् १९६८ म चारित्र यन्त्र, संवत् १५३५ में एक रानमिति और गं ::४२ में प्रगतिवी प्रतिष्ठा करायी थी । विगं में [तगणीची रचना' भी इन्हीं ज्ञानभूषणने की है। नन्दिपकी पट्टानला जावा गचय दिया गया है । अतः भुवनकोत्तिके शिष्य ज्ञानभूपणही नांगमन्द्रः होमवत है । जानमाण गज रातके रहनेवाले थे और दक्षिण तथा उत्तरगः प्रशाम मगन्य थे। नामचन्द्र भी गुजरातसे चित्रकूट गये थे।
नेमिचन्द्रको सूरिषद भट्टारक प्रभा'चन्द्रने प्रदान किया था। बाद चन्द्रन विक्रम संवत् १५४० में पाश्चपुराण और वि० सं०१६४८ में ज्ञानमयांदण नाक लिखा है। इन्होंने अपने गुरुका नाम भट्टारक प्रभाचन्द्र बतलाया है, साथ ही अपनेको ज्ञानभूषणका प्रशिक्षण और प्रभाबका शिष्य बताया है। इनके द्वारा रचित श्रीपालाख्याम नामक गुजराती ग्रन्धमें इनकी गुरुपरम्परामें विद्यानन्दि, मल्लिभूषण, लक्ष्मीचन्द्र, वीरचन्द्र, ज्ञानभूषण, प्रभाचन्द्र और वादिचन्द्र के माम आये हैं । अतः इस परम्पराके अनुसार तत्त्वज्ञानतरंगिणीने रचयिता भट्टारक ज्ञानभूषणके शिध्य भट्टारक प्रभाचन्द्र थे। इन्हीं प्रभाचन्द्र भट्टारकने नेमिचन्द्र को सूरिपद प्रदान किया था। अत: ज्ञानभूषण और प्रभाचन्द्रकी संगति नेमि' चन्द्र के साथ बैठ जाती है। अतएव टीकाकार नेमिचन्द्रका समय १६वीं शती सिद्ध होता है और जीवतत्त्वप्रदीपिकाका समाप्तिकाल ई सन् १५१५ के लगभग आता है। श्री पं० नाथूराम प्रेमीने भी दीर निर्वाण संवत् २१७५६-६०५ = १५७२ माना है। पर वे इसे शक संवत् मानते हैं, जो गलत है। यह विक्रम संवत् है, शक नहीं । इस प्रकार नेमिचन्द्रका समय ईस्वी सन्की १५वीं शतीका मध्य भाग है।
नेमिचन्द्रवी 'जीवतत्त्वप्रदीपिका' नामक गोम्मटसारकी संस्कृत-टीका प्राप्त
१. अदैव विक्रमातीताः शतपश्चदशाधिकाः ।
षष्टिः संवत्सरा जातास्तदेयं निर्मिता कृतिः ।।
तत्वज्ञान० कलकत्ता १९१६,१८।२३ ।
२. जैनसिद्धान्तभास्कर भाग १, किरण ४, पृ० ४३-४५ ।
है | यःलाकात ही नावपूर्ण है। इसमें गम्भीर और कठिन विषयको अत्यन्त मरल-
नवंक म्पष्ट किया गया है। सैद्धान्तिक विषयोंकी च के साथ ही साथ आदि गणन. संन्यात, असंञ्चान, अनन्त, अंणि, जगनतर, धनलोक आदि
नियोका कान है, 31 मनामियांक द्वारा अंकसंदष्टिको रूपमें स्पष्ट किया गया । । गमन गृह और टुमद विषयोंका स्पष्टीकरण सम्यक्त्तया किया है। जीवबिगल भई कर्मविपणन प्रत्येक चचित विषयका सैद्धान्तिक रूपमें सुन्दर विवचननामा गोकाने अध्ययनमे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि टीकाकारको
वाय, मामा मणिन. मित्रान्त, आचार आदिका स्पष्ट ज्ञान था।
सन की लीकी यह विटो पता है कि इसमें न तो अनावश्यक बिस्तार है और अधिया संकोच हो । विषयके विवेचनमें पाप्त सन्तुलन रखा गया है।
हम वा लस्स, प्रावास आदि भाषाओक शताधिक उद्धरण प्रस्तुत किये गय: । ननं मगन्तभदाजायंक आप्तमीमांसा, विद्यानन्दके आन्तपरीक्षा, नामदेव मस्तिकम, नमिचन्द्रनः त्रिलोक सार और आगाधरके अनगार बमामा प्रति अन्बास अपने विषयको पुष्टि के लिए उद्धरण दिये हैं। दीका में घनिषभ, गूतवली, समन्तभद्र, भट्टाकलंक, नेमिचन्द्र, माधवचन्द्र, अभयचन्द्र
और केन्चमणी आदि ग्रन्ः कारोंक नामोंका भी निर्देश किया है।
यह ग़ल्य है कि यह संस्कृत-टीका न होती, तो पं० टोडरमलजी गोम्मटसार का रहस्योद्घाटन नहीं कर पात । केशववर्णीकी कर्णाटक वृत्तिका आश्य लिया गया है।
गुरु | आचार्य श्री ग्यानभूषण |
शिष्य | आचार्य श्री टिकाकार नेमिचंद्र |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Tikakar Nemichandra 16th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 06-June- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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