हैशटैग
#UgradityacharyaPrachin
आयुर्वेदके विशेषज्ञ विद्वान् उग्रादित्याचायने अपना विशेष परिचय नहीं लिखा है। इन्होंने अपने गुरुका नाम श्रीनन्दि, ग्रन्थनिर्माणस्थान रामगिरि पर्वत बताया है। रामगिरि पर्वत बँगीमें स्थित था। बेंगी त्रिकलिंग देशमें प्रधान स्थान है । मंगासे कटक तकके स्थानको उत्कल देश कहा गया है । यही उत्तर कलिंग है। कटकसे महेन्द्रगिरि तकके पर्वतीय स्थानका नाम मध्य कलिंग है। महेन्द्रगिरिसे गोदावरी तकके स्थानको दक्षिण कलिंग कहते हैं। इन सोनों का सम्मिलित नाम विलिंग है। इस विकलिंगके बेंगीमें सुन्दर रामगिरि पर्वतके जिनालयमें स्थित होकर उग्रादित्यने इस ग्रन्थको रचना की है।
वेङ्गीशत्रिकलिङ्गदेशजननप्रस्तुत्य सानूत्कट:
प्रोद्यवृक्षलताविताननिरतः सिद्धेश्च विद्याधरैः ।
सर्वे मन्दिरकन्दरोपमगुहाचैत्यालयालङ्कृते
रम्ये रामगिराविदं विरचितं शास्त्र हित प्राणिनाम् ।।
यह रामगिरि पर्वत सम्भवतः वही है जिसका पधपुराणमें निर्देश आया है । हिन्दी विश्वकोषके सम्पादकने लिखा है-त्रिकलिंग जनपद मन्द्राजके उत्तर पलिकट नामक स्थानसे लेकर उत्तर गंजाम और पश्चिममें त्रिपति बेल्लारी कल, बिदर तथा चन्दा सक विस्तृत है। श्री नन्दलाल डेने अपने 'Thc gcographical Dictonary of Ancient and Madicvel India' नामक कोषमें मध्यभारतको त्रिकलिंग माना है और नागपुरसे २४ मील उत्तर
१. कल्याणकारक, अंतिम प्रशस्ति, प्रशस्तिसंग्रह, आराके पृ० ५३से उद्धृत ।
विद्यमान रामटेकको रामगिरि माना गया। श्री पं० के० मुजबली शास्त्रीने भी नागपुरके निकटवर्ती रामटेकको ही रामगिरि बताया है और यहीं पर उग्रा. दित्याचार्य द्वारा कल्याणकारककी रचना हुई होगी।
उग्रादित्याचार्य ने अपने गुरुका नाम श्रीनन्दि बताया है। श्रीनन्दि नामके कई आचार्य हुए हैं। प्रायश्चित्तचूलिका एवं योगसारके कर्ता गुरुदासके मुरुका नाम श्रीनन्दि बताया गया है। नन्दिसंघकी पट्टावली में एक श्रीनन्दिका नाम नाया है। इसमें इनका समय वि० संवत् ७४५, बताया गया है और इन्हें उज्जैनका पट्टाधीश बताया गया है। श्रीचन्द्र के गुरु भी श्रीनन्दि बताये गये हैं । आचार्य वसुनन्दिने भी अपने प्रावकाचारमें एक श्रीनन्दिका उल्लेख किया है जो इनके प्रगुरु थे। हमारा अनुमान है कि नन्दिसंघको पट्टावलीमें उल्लि खित श्रीनन्दि ही उगादित्याचार्यके गुरु हैं ।
उग्रादित्य ने अपने इस ग्रन्धमें पूज्यपाद, समन्तभद्र, पात्रस्वामी, सिद्धसेन, दशरथगुरु, मेघनाद, और सिंहसेनका उल्लेख किया है। इनके अतिरिक्त श्रुत कोति, कुमारसेन, बीरसेन और जटाचार्यके उल्लेख भी आये हैं । अतः यह स्पष्ट है कि उग्रादित्याचार्य इन आचार्योंसे उत्तरवर्ती हैं । ग्रन्थकारने लिखा है ___इत्यशेषविशेविशिष्टदुष्टपिशिताशिवैद्यशास्त्रंष मांसनिराकरणार्थमुग्रा दित्याचार्यपतुंगवल्लभेन्द्रमभायामुघोषितं प्रकरणम्" __इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि औषधिमें मांसको निरुपयोगिताको सिद्ध करनेके लिए स्वयं आचार्यने श्रीनुपर्तुगवल्लभेन्द्रको सभामें इस प्रकरणका प्रतिपादन किया । ग्रंथके अन्त में एक दिये हुए पद्यसे भी यह अवगत होता है कि नपतुंग अमोघवर्ष प्रथमको राजसभामें औषधिमें मांस सेवनका निराकरण करने के लिए इस ग्रन्थकी रचना सम्पन्न की गयी है।
ख्यातः श्रीनृपतुंगवल्लभमहाराजाधिराजस्थितः
प्रोद्यन रिसभान्तरे बहुविधप्रख्यातविद्वज्जने ।
मासाशिप्रकरेंद्रताखिलभिषग्विद्याविदामग्रतो
मांसे निष्फलतां निरूप्य नितरां जैनेंद्रवैद्यस्थितम् ॥
अर्थात् प्रसिद्ध नपतुंगवल्लभ महाराजाधिराजको सभामें जहाँ अनेक प्रकारके उद्भट विद्वान थे एवं. मांसाशनकी प्रधानताको पोषण करनेवाले बहतसे आयुर्वेदके विद्वान् थे। उनके समक्ष मांसको निष्फलताको सिद्ध करके इस
१. कल्याणकारक. हिताहित अध्याय, अन्तिम प्रशस्ति ।
जैनेन्द्र वैद्यने विजय प्राप्त की। अमोघवर्ष प्रथमको नपतुंग, वल्लभ और महाराजाधिराज उपाधियाँ प्राप्त थीं । इतिहासकारोंके मतसे अमोघवर्षके राज्या रोहणका समय शक संवत् ७३६ (वि० सं०८१) है। शुभद्रसूरिकृत उत्तर पुराणसे भी ज्ञात होता है कि अमोघवर्ष प्रसिद्ध जैनाचार्य जिनसेनका शिष्य था।
यस्य प्रांशु नखांशुजालांवसरद्धारान्तराविर्भवत्
पादाम्भोजरजःपिशङ्गमुकुटप्रत्यमरलवृत्तिः ।
संस्मर्ती स्वममोघवर्षनपतिः पूतोऽहमात्यलं
स श्रीमान्जिनसेनपूज्यभगवत्पादो जगन्मंगलम् ।।'
श्रीजिनसेनस्वामी के देदीप्यमान नखोंके किरणसमह धाराके समान फैलते थे और उसके बीच उनके चरण, कमलके समान जान पड़ते थे। उनके चरण कमलोंकी रजसे जब राजा अमोघवर्षके मुकुटमें लगे हुए नबोन रत्नोंको कान्ति पीली पड़ जाती थी तब वह अपने आपको ऐसा स्मरण करता था कि में आज अत्यन्त पवित्र हुआ हूँ । स्पष्ट है कि अमोघवर्षका समय जिनसेनका कार्यकाल हैं। प्रो सालेतोरने लिखा है
F'The next promincnt Rastrakuta ruler who extended his patronage to Jainism was Amoghavarsa I, Nripatunga, Atishaya dhawala (A. D. 815-877). From Gunabhadra's Uttarpuranu (A. D. 898), we know that king Amoghavarsa I, was the disciple of Jinasena, the anthor of the Sankrit work Adipurana (A, D), 783) The Jaina leaning of king Amoghavársa is turther corroborated by Mahabiracharya, the author of the Jain Mathmatical work Ganita sangangraha, who relates that, that nonarch was a follower of the Syadwad Doctrine."
इस उबरणसे भी स्पष्ट है कि अमोघवर्ष भगवत् जिनसेनाचार्यके शिष्य थे। अमोघवर्ष स्याहादमतका अनुयायी था—इस बातका समर्थन गणितसारसंग्रहके कर्ती महावीरचायके धनसे भी होता है। इसी अमोघवर्ष के शासनकाल में सिद्धान्तग्रन्थकी जयघव लाटीका वि० सं० ८९४ में समाप्त हुई।
जिनसेनने अपने पार्खाभ्युदयमें भी अमोघवर्षको परमेश्वरको उपाधिसे
१. उत्तरपुराण, प्रशस्ति पलोक ९ ।
२. Mediaeval Jainism, Page 38 |
विभूषित बतलाया है। पच्चीस कल्पाधिकारके अन्त में जो प्रशस्ति दी गयी है उसमें श्रीविष्णुराजका उल्लेख आया है
श्री विष्णुराज परमेश्वर मौलिमाला
संलालितांघ्रियुगल: सकलागमज्ञः ।।
आलापनीयगुणसोन्नतसन्मुनीन्द्रः ।
श्रीनदिनंदितगुरुहरू जितोऽहम् ।।
महाराज विष्णुराजके मुकुटको मालासे जिनके चरणयुगल शोभित हैं, जो सम्पूर्ण आगमके ज्ञाता हैं, प्रशंसनीय गुणोंके धारी, प्रशस्वी, श्रेष्ठ मुनियोंक स्वामी है-ऐसे श्रीनन्दिनामके प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। ये आचार्य ही उना दित्यके गुरु हैं । यहाँ यह विचारणीय है कि विष्णुराज परमेश्वर कौन है ? श्री पं. केर भुजबली शास्त्रीने इन्हें कलचुरी राजबंशका अनुमानित किया है । पर यह अनुमान भ्रान्त है। डा. ज्योतिप्रसाद जैनने उक्त विष्णुराजको बेगिका पूर्वी चालुक्यनरेश विष्णुवर्धन चतुर्थ सिद्ध किया है और उसी राजाके राज्यके अन्तर्गत रामतीर्थ पर्वतको उग्रादित्यका रामगिरि सूचित किया है।
हमारी दृष्टिसे यह विष्णुराज अमोघवर्ष के पिता गोविन्दराज तृतीयका ही अपर नाम है। जिनसेनने पार्वाभ्युदयमें अमोघवर्षको परमेश्वर उपाधि बस लायी है। बहुत सम्भव है कि यह उपाधि राष्ट्रकूटोंको गित-परम्परागत हो । कतिपय ऐतिहासिक विद्वान् विष्णुराजको चालुक्य राजा विष्णुवर्धन मानते हैं, पर इससे उग्रादित्याचार्यके समय-निर्णयमें कोई बाधा नहीं आती। सम्भव है कि उस समय इस नामका कोई चालुक्य राजा भी रहा हो । पुरातत्त्ववेत्ता नरसिंहाचार्य ने भी यह तथ्य स्वीकार किया है कि कल्याण कारककी रचना उपादित्यने अमोघवर्ष प्रथमके शासनकाल में की है । लिखा है
Another manuscript of snmc interest is the medical work kalyatakaraka of Ugraditya, a Jajna author, who was a contempo try of the Rastrakuta king Amoghavisa-I and of the Eastern chalukya king kali Vishnuvardhana V, The work opens with the stattment that the science of medicine is divided into two parts,
SIC
१. कल्याणकारक, परिच्छेद २५, पद्य ५१ ।
२. प्रशस्तिसंग्रह, मारा, पृष्ठ १४
। . Jaina Sources of the History of Ancient India pp. 204-206,
oamcly prcvcntion and cure, and gives at the end a long discourse in Sanskrit prosc on the uselessness of a flesh clied, said to have been delivercd by the author at the court of Angliavarsha, where inany learned men and doctors hal assembled.' ___ अर्थात अनेक महत्त्वपूर्ण विषयोंसे परिपूर्ण आयुर्वेदका कल्याणकारक नामक ग्रन्थ उप्रादित्याचार्य द्वारा बिरचित मिलता है । ये जैनाचार्य राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष प्रथम एवं चालुक्य राजा कलिविष्णुवर्धन पंचमके समकालीन थे । अन्धका आरम्भ आयु- द तत्त्वके प्रतिपादनसं हुआ है, जिसके दो विभाग किये गये है-(१) रोगरोधन और (२) चिकित्सा । अन्तिम एक गद्यखण्डमें उस विस्तृत भाषणको अंकित किया है, जिसमें मांसकी निष्फलता सिद्ध की गयी है और जिसे अनेक विद्वान और बंद्योंकी उपस्थितिमें नपतुंगको सभामें उग्रा दित्याचायने दिया था।
उग्रादित्याचार्यके गुरुका नाम श्रीनन्दि है । इन श्रीमन्दिका समय वि०सं० ७४९ है। यदि इसको शक संवत् मान लिया जाय तो उपादित्य आचार्य नन्दि संघके आचार्य सिद्ध होते हैं ।
उग्रादित्याचार्यका कल्याणकारक नामक एक बृहद्काय मन्थ प्राप्त है । इस ग्रन्यमें २५ परिच्छेदोंके अतिरिक्त अन्तमें परिशिष्ट रूपमें अरिष्टाध्याय और हिताध्याय ये दो अध्याय भी आये हैं। अन्यकर्त्ताने प्रत्येक परिच्छेदके आरम्भमें जिनेन्द्र भगवानको नमस्कार किया है। ग्रन्थ रचनेकी प्रतिज्ञा, उद्देश्य आदिका वर्णन किया गया है। २५ परिच्छेदोंके विषय-फ्रेम निम्न प्रकार है
(१) स्वास्थ्य-संरक्षणाधिकार-इसमें ४५, पद्य हैं। वैद्यशास्त्रके संक्षिप्त विषय-वर्णनके पश्चात् शकुन, निमित्त और सामुद्रिक शास्त्र द्वारा आयु एवं स्वास्थ्य की परीक्षा की गयी है ।
(२) गर्भोत्पत्ति-लक्षण-इस परिच्छेदमें ६० पद्य है। गर्भसंरक्षणकी विधि गर्भाधानक्रम, गर्भ-पोषण और गर्भमें शरीर-वृद्धि होनेके क्रमका कथन किया गया है।
(३) सूत्रव्यावर्णन इस परिच्छेदमें ६९ पर हैं। इनमें अस्थि, सन्धि,
1. Mysore Archacological Report 1922, Page 22.
धमनी, मांसरज्जु, मर्मस्थान, दन्त, वात, मूत्र, मल, औषध, स्थूल शरीर, क्षीण-शरीर, मध्यम शरीर, वात-पित-कफ आदिका वर्णन आया है।
(४) धान्यादि-गुणाधिकार--इस परिच्छेदमें ४८ पद्यों द्वारा समय-वर्णनके पश्चात् विशेष-निले पालुओंमें नित होने का गोषों और शोजनमें प्रयुक्त होनेवाले विशेष धान्योंका गुण-वर्णन किया गया है।
(५) अन्नपानविधि-वर्णनाधिकार-इस अधिकारमें ४५ पद्य हैं। जल, यवागू, मण्ड, मुद्गयूष, दुग्ध, दधि, तक्र, नवनीत, घृत, तैल आदिके गुणधर्मोक वर्णनके पश्चात् विभिन्न पशुओंके मूत्रोंका गुणधर्म बताया गया है ।
(६) रसायनविधि इस परिच्छेदमें ४५ पद्य हैं । उद्वर्तन, स्नान, ताम्बूल भक्षण, पादाभ्यंग, ब्रह्मचर्य, निद्रा, गोधूमचूर्ण, निफला, यष्टिचूर्ण, विडंग-सार, नागबल, बाकुचीरसायन, बज्रादिरसायन, चन्द्रामृतरसायन आदिका निरूपण किया है।
(७) व्याधिसमुद्देश--इस परिच्छेदमें ६३ पद्म हैं। रोगोंकी उत्पत्तिके हेतुका वर्णन करनेके अनन्तर रोगोको शय्या, शयन-विधि, दिनचर्या, चिकित्सा,
औषधके गुण आदिका कथन आया है ।
(८) वातरोगाधिकार- इस परिच्छेदमें ७३ पद्य हैं और विविध प्रकारके बात रोगोंका वर्णन किया गया है।
(९) पित्तरोगाधिकार-१०३ पद्योंमें विभिन्न प्रकारको पित्तव्याधियों और उनके शमनके उपाय बतलाये गये हैं।
(१०) कफरोगाधिकार-इस परिच्छेदमें २८ पद्य हैं। इसमें विविध प्रकारके कफरोगों और उनकी चिकित्साका वर्णन आया है।
(११) महामायाधिकार-इस परिच्छेद में १८० पद्य हैं और विभिन्न प्रकारकी कुष्ठादि महाव्याधियोंका कपन आया है।
(१) द्वादशम परिच्छेदमें १३६ पद्य हैं और इसमें भी वात-पिस जन्य महा ध्यावियोंका स्वरूप और उनकी चिकित्सा बसलायी गयी है।
(१३-१४-१५-१६-१७) -इन पांच परिच्छेदोंमें क्षुद्र रोगोंका वर्णन आया है । वयोदशम परिच्छेदमें ९१ पद्य हैं और इसमें भगन्दर और उपदंश जैसी व्याधियोंकी चिकित्सा वणित है । चतुर्दश परिच्छेदके ९१ पद्योंमें शोथ, श्लोपद घरमीक-पाद, गलगण्ड , नाड़ी-व्रण, प्रभूति रोगोंकी चिकित्सा बतलायी गयी है । पञ्चदश परिच्छेदमें २९२ पा हैं। इनमें तालुरोग, जिह्वारोग, दन्तरोग, नेत्ररोग, शिरोरोग आदिकी चिकित्सा बतलायी गयी है। षोडश अधिकारमें १०१ पच है । इनमें स्वास, महास्वास; तृष्णारोग, छदि रोग, मूत्रावरोध आदि
अनेक रोगोंकी चिकित्सा प्रतिपादित है । सप्तदश अधिकारमें १२० पद्य हैं और इनमें त्रिदोषीत्पन्न लघुव्याधियोंको चिकित्सा बतलायो गयो है ।
(१८) बालग्रहभूत तन्त्राधिकार इस परिच्छेदमें १३७ पद्य हैं और विभिन्न बालरोगोंकी चिकित्सा वर्णित है ।
(१९) विषरोगाधिकार इस अधिकारमें विभिन्न प्रकारके विषोंकी चिकि त्सा वर्णित है।
(२०) शास्त्रसंग्रहाधिकार--९५ पद्योंमें धातुओं एवं विभिन्न प्रकारके शरीरस्थ सेंगोंको चिकित्सा बताई गयी हैं।
(२१) कर्मचिकित्साधिकार--इस परिच्छेदमें ६६ पद्य हैं और वमन-बिरे चनादि चिकित्साविधियोंका वर्णन है।
(२२) भैषज्यकर्मोपद्रवचिकित्साधिकार--इस परिच्छेदमें १७२ पद्य हैं। वमन, विरेचन, परित्राव, बस्मिादि विधियों का वर्णः है ।
(२३) सर्वोषधकर्मब्यापच्चिकित्साधिकार-इसमें १०९ पद्य है। विभिन्न प्रकारकी वमन-विरेचन विधियों का वर्णन आया है।
(२४) रसरसायनसियधिकार-इस परिच्छेदमें ५६ पद्य हैं । रसको महत्ता रंसके भेद, रस-शुद्धि तथा पारदसिद्ध रस आदिका वर्णन आया है ।
(२५) कल्पाधिकारमें ५७ पद्य हैं। हरीतिकी, त्रिफला, शिलाजतु, पायस, भल्लातपाषाणकल्प, मृत्तिकाकल्प, एरण्द्धकल्प, क्षारखाल्प आदि कल्पोंका प्रतिपादन किया।
परिशिष्ट रूपमें रिष्टाधिकारमें अरिष्टोंका वर्णन और हिताहिताधिकारमें पथ्यापथ्यका निरूपण आया है । आयुर्वेदकी दृष्टिसे यह अन्ध अत्यन्त उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है।
गुरु | आचार्य श्री श्रीनन्दि जी |
शिष्य | आचार्य श्री उग्रादित्याचार्या |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#UgradityacharyaPrachin
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री उग्रादित्याचार्य (प्राचीन)
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 11-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 11-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
आयुर्वेदके विशेषज्ञ विद्वान् उग्रादित्याचायने अपना विशेष परिचय नहीं लिखा है। इन्होंने अपने गुरुका नाम श्रीनन्दि, ग्रन्थनिर्माणस्थान रामगिरि पर्वत बताया है। रामगिरि पर्वत बँगीमें स्थित था। बेंगी त्रिकलिंग देशमें प्रधान स्थान है । मंगासे कटक तकके स्थानको उत्कल देश कहा गया है । यही उत्तर कलिंग है। कटकसे महेन्द्रगिरि तकके पर्वतीय स्थानका नाम मध्य कलिंग है। महेन्द्रगिरिसे गोदावरी तकके स्थानको दक्षिण कलिंग कहते हैं। इन सोनों का सम्मिलित नाम विलिंग है। इस विकलिंगके बेंगीमें सुन्दर रामगिरि पर्वतके जिनालयमें स्थित होकर उग्रादित्यने इस ग्रन्थको रचना की है।
वेङ्गीशत्रिकलिङ्गदेशजननप्रस्तुत्य सानूत्कट:
प्रोद्यवृक्षलताविताननिरतः सिद्धेश्च विद्याधरैः ।
सर्वे मन्दिरकन्दरोपमगुहाचैत्यालयालङ्कृते
रम्ये रामगिराविदं विरचितं शास्त्र हित प्राणिनाम् ।।
यह रामगिरि पर्वत सम्भवतः वही है जिसका पधपुराणमें निर्देश आया है । हिन्दी विश्वकोषके सम्पादकने लिखा है-त्रिकलिंग जनपद मन्द्राजके उत्तर पलिकट नामक स्थानसे लेकर उत्तर गंजाम और पश्चिममें त्रिपति बेल्लारी कल, बिदर तथा चन्दा सक विस्तृत है। श्री नन्दलाल डेने अपने 'Thc gcographical Dictonary of Ancient and Madicvel India' नामक कोषमें मध्यभारतको त्रिकलिंग माना है और नागपुरसे २४ मील उत्तर
१. कल्याणकारक, अंतिम प्रशस्ति, प्रशस्तिसंग्रह, आराके पृ० ५३से उद्धृत ।
विद्यमान रामटेकको रामगिरि माना गया। श्री पं० के० मुजबली शास्त्रीने भी नागपुरके निकटवर्ती रामटेकको ही रामगिरि बताया है और यहीं पर उग्रा. दित्याचार्य द्वारा कल्याणकारककी रचना हुई होगी।
उग्रादित्याचार्य ने अपने गुरुका नाम श्रीनन्दि बताया है। श्रीनन्दि नामके कई आचार्य हुए हैं। प्रायश्चित्तचूलिका एवं योगसारके कर्ता गुरुदासके मुरुका नाम श्रीनन्दि बताया गया है। नन्दिसंघकी पट्टावली में एक श्रीनन्दिका नाम नाया है। इसमें इनका समय वि० संवत् ७४५, बताया गया है और इन्हें उज्जैनका पट्टाधीश बताया गया है। श्रीचन्द्र के गुरु भी श्रीनन्दि बताये गये हैं । आचार्य वसुनन्दिने भी अपने प्रावकाचारमें एक श्रीनन्दिका उल्लेख किया है जो इनके प्रगुरु थे। हमारा अनुमान है कि नन्दिसंघको पट्टावलीमें उल्लि खित श्रीनन्दि ही उगादित्याचार्यके गुरु हैं ।
उग्रादित्य ने अपने इस ग्रन्धमें पूज्यपाद, समन्तभद्र, पात्रस्वामी, सिद्धसेन, दशरथगुरु, मेघनाद, और सिंहसेनका उल्लेख किया है। इनके अतिरिक्त श्रुत कोति, कुमारसेन, बीरसेन और जटाचार्यके उल्लेख भी आये हैं । अतः यह स्पष्ट है कि उग्रादित्याचार्य इन आचार्योंसे उत्तरवर्ती हैं । ग्रन्थकारने लिखा है ___इत्यशेषविशेविशिष्टदुष्टपिशिताशिवैद्यशास्त्रंष मांसनिराकरणार्थमुग्रा दित्याचार्यपतुंगवल्लभेन्द्रमभायामुघोषितं प्रकरणम्" __इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि औषधिमें मांसको निरुपयोगिताको सिद्ध करनेके लिए स्वयं आचार्यने श्रीनुपर्तुगवल्लभेन्द्रको सभामें इस प्रकरणका प्रतिपादन किया । ग्रंथके अन्त में एक दिये हुए पद्यसे भी यह अवगत होता है कि नपतुंग अमोघवर्ष प्रथमको राजसभामें औषधिमें मांस सेवनका निराकरण करने के लिए इस ग्रन्थकी रचना सम्पन्न की गयी है।
ख्यातः श्रीनृपतुंगवल्लभमहाराजाधिराजस्थितः
प्रोद्यन रिसभान्तरे बहुविधप्रख्यातविद्वज्जने ।
मासाशिप्रकरेंद्रताखिलभिषग्विद्याविदामग्रतो
मांसे निष्फलतां निरूप्य नितरां जैनेंद्रवैद्यस्थितम् ॥
अर्थात् प्रसिद्ध नपतुंगवल्लभ महाराजाधिराजको सभामें जहाँ अनेक प्रकारके उद्भट विद्वान थे एवं. मांसाशनकी प्रधानताको पोषण करनेवाले बहतसे आयुर्वेदके विद्वान् थे। उनके समक्ष मांसको निष्फलताको सिद्ध करके इस
१. कल्याणकारक. हिताहित अध्याय, अन्तिम प्रशस्ति ।
जैनेन्द्र वैद्यने विजय प्राप्त की। अमोघवर्ष प्रथमको नपतुंग, वल्लभ और महाराजाधिराज उपाधियाँ प्राप्त थीं । इतिहासकारोंके मतसे अमोघवर्षके राज्या रोहणका समय शक संवत् ७३६ (वि० सं०८१) है। शुभद्रसूरिकृत उत्तर पुराणसे भी ज्ञात होता है कि अमोघवर्ष प्रसिद्ध जैनाचार्य जिनसेनका शिष्य था।
यस्य प्रांशु नखांशुजालांवसरद्धारान्तराविर्भवत्
पादाम्भोजरजःपिशङ्गमुकुटप्रत्यमरलवृत्तिः ।
संस्मर्ती स्वममोघवर्षनपतिः पूतोऽहमात्यलं
स श्रीमान्जिनसेनपूज्यभगवत्पादो जगन्मंगलम् ।।'
श्रीजिनसेनस्वामी के देदीप्यमान नखोंके किरणसमह धाराके समान फैलते थे और उसके बीच उनके चरण, कमलके समान जान पड़ते थे। उनके चरण कमलोंकी रजसे जब राजा अमोघवर्षके मुकुटमें लगे हुए नबोन रत्नोंको कान्ति पीली पड़ जाती थी तब वह अपने आपको ऐसा स्मरण करता था कि में आज अत्यन्त पवित्र हुआ हूँ । स्पष्ट है कि अमोघवर्षका समय जिनसेनका कार्यकाल हैं। प्रो सालेतोरने लिखा है
F'The next promincnt Rastrakuta ruler who extended his patronage to Jainism was Amoghavarsa I, Nripatunga, Atishaya dhawala (A. D. 815-877). From Gunabhadra's Uttarpuranu (A. D. 898), we know that king Amoghavarsa I, was the disciple of Jinasena, the anthor of the Sankrit work Adipurana (A, D), 783) The Jaina leaning of king Amoghavársa is turther corroborated by Mahabiracharya, the author of the Jain Mathmatical work Ganita sangangraha, who relates that, that nonarch was a follower of the Syadwad Doctrine."
इस उबरणसे भी स्पष्ट है कि अमोघवर्ष भगवत् जिनसेनाचार्यके शिष्य थे। अमोघवर्ष स्याहादमतका अनुयायी था—इस बातका समर्थन गणितसारसंग्रहके कर्ती महावीरचायके धनसे भी होता है। इसी अमोघवर्ष के शासनकाल में सिद्धान्तग्रन्थकी जयघव लाटीका वि० सं० ८९४ में समाप्त हुई।
जिनसेनने अपने पार्खाभ्युदयमें भी अमोघवर्षको परमेश्वरको उपाधिसे
१. उत्तरपुराण, प्रशस्ति पलोक ९ ।
२. Mediaeval Jainism, Page 38 |
विभूषित बतलाया है। पच्चीस कल्पाधिकारके अन्त में जो प्रशस्ति दी गयी है उसमें श्रीविष्णुराजका उल्लेख आया है
श्री विष्णुराज परमेश्वर मौलिमाला
संलालितांघ्रियुगल: सकलागमज्ञः ।।
आलापनीयगुणसोन्नतसन्मुनीन्द्रः ।
श्रीनदिनंदितगुरुहरू जितोऽहम् ।।
महाराज विष्णुराजके मुकुटको मालासे जिनके चरणयुगल शोभित हैं, जो सम्पूर्ण आगमके ज्ञाता हैं, प्रशंसनीय गुणोंके धारी, प्रशस्वी, श्रेष्ठ मुनियोंक स्वामी है-ऐसे श्रीनन्दिनामके प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। ये आचार्य ही उना दित्यके गुरु हैं । यहाँ यह विचारणीय है कि विष्णुराज परमेश्वर कौन है ? श्री पं. केर भुजबली शास्त्रीने इन्हें कलचुरी राजबंशका अनुमानित किया है । पर यह अनुमान भ्रान्त है। डा. ज्योतिप्रसाद जैनने उक्त विष्णुराजको बेगिका पूर्वी चालुक्यनरेश विष्णुवर्धन चतुर्थ सिद्ध किया है और उसी राजाके राज्यके अन्तर्गत रामतीर्थ पर्वतको उग्रादित्यका रामगिरि सूचित किया है।
हमारी दृष्टिसे यह विष्णुराज अमोघवर्ष के पिता गोविन्दराज तृतीयका ही अपर नाम है। जिनसेनने पार्वाभ्युदयमें अमोघवर्षको परमेश्वर उपाधि बस लायी है। बहुत सम्भव है कि यह उपाधि राष्ट्रकूटोंको गित-परम्परागत हो । कतिपय ऐतिहासिक विद्वान् विष्णुराजको चालुक्य राजा विष्णुवर्धन मानते हैं, पर इससे उग्रादित्याचार्यके समय-निर्णयमें कोई बाधा नहीं आती। सम्भव है कि उस समय इस नामका कोई चालुक्य राजा भी रहा हो । पुरातत्त्ववेत्ता नरसिंहाचार्य ने भी यह तथ्य स्वीकार किया है कि कल्याण कारककी रचना उपादित्यने अमोघवर्ष प्रथमके शासनकाल में की है । लिखा है
Another manuscript of snmc interest is the medical work kalyatakaraka of Ugraditya, a Jajna author, who was a contempo try of the Rastrakuta king Amoghavisa-I and of the Eastern chalukya king kali Vishnuvardhana V, The work opens with the stattment that the science of medicine is divided into two parts,
SIC
१. कल्याणकारक, परिच्छेद २५, पद्य ५१ ।
२. प्रशस्तिसंग्रह, मारा, पृष्ठ १४
। . Jaina Sources of the History of Ancient India pp. 204-206,
oamcly prcvcntion and cure, and gives at the end a long discourse in Sanskrit prosc on the uselessness of a flesh clied, said to have been delivercd by the author at the court of Angliavarsha, where inany learned men and doctors hal assembled.' ___ अर्थात अनेक महत्त्वपूर्ण विषयोंसे परिपूर्ण आयुर्वेदका कल्याणकारक नामक ग्रन्थ उप्रादित्याचार्य द्वारा बिरचित मिलता है । ये जैनाचार्य राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष प्रथम एवं चालुक्य राजा कलिविष्णुवर्धन पंचमके समकालीन थे । अन्धका आरम्भ आयु- द तत्त्वके प्रतिपादनसं हुआ है, जिसके दो विभाग किये गये है-(१) रोगरोधन और (२) चिकित्सा । अन्तिम एक गद्यखण्डमें उस विस्तृत भाषणको अंकित किया है, जिसमें मांसकी निष्फलता सिद्ध की गयी है और जिसे अनेक विद्वान और बंद्योंकी उपस्थितिमें नपतुंगको सभामें उग्रा दित्याचायने दिया था।
उग्रादित्याचार्यके गुरुका नाम श्रीनन्दि है । इन श्रीमन्दिका समय वि०सं० ७४९ है। यदि इसको शक संवत् मान लिया जाय तो उपादित्य आचार्य नन्दि संघके आचार्य सिद्ध होते हैं ।
उग्रादित्याचार्यका कल्याणकारक नामक एक बृहद्काय मन्थ प्राप्त है । इस ग्रन्यमें २५ परिच्छेदोंके अतिरिक्त अन्तमें परिशिष्ट रूपमें अरिष्टाध्याय और हिताध्याय ये दो अध्याय भी आये हैं। अन्यकर्त्ताने प्रत्येक परिच्छेदके आरम्भमें जिनेन्द्र भगवानको नमस्कार किया है। ग्रन्थ रचनेकी प्रतिज्ञा, उद्देश्य आदिका वर्णन किया गया है। २५ परिच्छेदोंके विषय-फ्रेम निम्न प्रकार है
(१) स्वास्थ्य-संरक्षणाधिकार-इसमें ४५, पद्य हैं। वैद्यशास्त्रके संक्षिप्त विषय-वर्णनके पश्चात् शकुन, निमित्त और सामुद्रिक शास्त्र द्वारा आयु एवं स्वास्थ्य की परीक्षा की गयी है ।
(२) गर्भोत्पत्ति-लक्षण-इस परिच्छेदमें ६० पद्य है। गर्भसंरक्षणकी विधि गर्भाधानक्रम, गर्भ-पोषण और गर्भमें शरीर-वृद्धि होनेके क्रमका कथन किया गया है।
(३) सूत्रव्यावर्णन इस परिच्छेदमें ६९ पर हैं। इनमें अस्थि, सन्धि,
1. Mysore Archacological Report 1922, Page 22.
धमनी, मांसरज्जु, मर्मस्थान, दन्त, वात, मूत्र, मल, औषध, स्थूल शरीर, क्षीण-शरीर, मध्यम शरीर, वात-पित-कफ आदिका वर्णन आया है।
(४) धान्यादि-गुणाधिकार--इस परिच्छेदमें ४८ पद्यों द्वारा समय-वर्णनके पश्चात् विशेष-निले पालुओंमें नित होने का गोषों और शोजनमें प्रयुक्त होनेवाले विशेष धान्योंका गुण-वर्णन किया गया है।
(५) अन्नपानविधि-वर्णनाधिकार-इस अधिकारमें ४५ पद्य हैं। जल, यवागू, मण्ड, मुद्गयूष, दुग्ध, दधि, तक्र, नवनीत, घृत, तैल आदिके गुणधर्मोक वर्णनके पश्चात् विभिन्न पशुओंके मूत्रोंका गुणधर्म बताया गया है ।
(६) रसायनविधि इस परिच्छेदमें ४५ पद्य हैं । उद्वर्तन, स्नान, ताम्बूल भक्षण, पादाभ्यंग, ब्रह्मचर्य, निद्रा, गोधूमचूर्ण, निफला, यष्टिचूर्ण, विडंग-सार, नागबल, बाकुचीरसायन, बज्रादिरसायन, चन्द्रामृतरसायन आदिका निरूपण किया है।
(७) व्याधिसमुद्देश--इस परिच्छेदमें ६३ पद्म हैं। रोगोंकी उत्पत्तिके हेतुका वर्णन करनेके अनन्तर रोगोको शय्या, शयन-विधि, दिनचर्या, चिकित्सा,
औषधके गुण आदिका कथन आया है ।
(८) वातरोगाधिकार- इस परिच्छेदमें ७३ पद्य हैं और विविध प्रकारके बात रोगोंका वर्णन किया गया है।
(९) पित्तरोगाधिकार-१०३ पद्योंमें विभिन्न प्रकारको पित्तव्याधियों और उनके शमनके उपाय बतलाये गये हैं।
(१०) कफरोगाधिकार-इस परिच्छेदमें २८ पद्य हैं। इसमें विविध प्रकारके कफरोगों और उनकी चिकित्साका वर्णन आया है।
(११) महामायाधिकार-इस परिच्छेद में १८० पद्य हैं और विभिन्न प्रकारकी कुष्ठादि महाव्याधियोंका कपन आया है।
(१) द्वादशम परिच्छेदमें १३६ पद्य हैं और इसमें भी वात-पिस जन्य महा ध्यावियोंका स्वरूप और उनकी चिकित्सा बसलायी गयी है।
(१३-१४-१५-१६-१७) -इन पांच परिच्छेदोंमें क्षुद्र रोगोंका वर्णन आया है । वयोदशम परिच्छेदमें ९१ पद्य हैं और इसमें भगन्दर और उपदंश जैसी व्याधियोंकी चिकित्सा वणित है । चतुर्दश परिच्छेदके ९१ पद्योंमें शोथ, श्लोपद घरमीक-पाद, गलगण्ड , नाड़ी-व्रण, प्रभूति रोगोंकी चिकित्सा बतलायी गयी है । पञ्चदश परिच्छेदमें २९२ पा हैं। इनमें तालुरोग, जिह्वारोग, दन्तरोग, नेत्ररोग, शिरोरोग आदिकी चिकित्सा बतलायी गयी है। षोडश अधिकारमें १०१ पच है । इनमें स्वास, महास्वास; तृष्णारोग, छदि रोग, मूत्रावरोध आदि
अनेक रोगोंकी चिकित्सा प्रतिपादित है । सप्तदश अधिकारमें १२० पद्य हैं और इनमें त्रिदोषीत्पन्न लघुव्याधियोंको चिकित्सा बतलायो गयो है ।
(१८) बालग्रहभूत तन्त्राधिकार इस परिच्छेदमें १३७ पद्य हैं और विभिन्न बालरोगोंकी चिकित्सा वर्णित है ।
(१९) विषरोगाधिकार इस अधिकारमें विभिन्न प्रकारके विषोंकी चिकि त्सा वर्णित है।
(२०) शास्त्रसंग्रहाधिकार--९५ पद्योंमें धातुओं एवं विभिन्न प्रकारके शरीरस्थ सेंगोंको चिकित्सा बताई गयी हैं।
(२१) कर्मचिकित्साधिकार--इस परिच्छेदमें ६६ पद्य हैं और वमन-बिरे चनादि चिकित्साविधियोंका वर्णन है।
(२२) भैषज्यकर्मोपद्रवचिकित्साधिकार--इस परिच्छेदमें १७२ पद्य हैं। वमन, विरेचन, परित्राव, बस्मिादि विधियों का वर्णः है ।
(२३) सर्वोषधकर्मब्यापच्चिकित्साधिकार-इसमें १०९ पद्य है। विभिन्न प्रकारकी वमन-विरेचन विधियों का वर्णन आया है।
(२४) रसरसायनसियधिकार-इस परिच्छेदमें ५६ पद्य हैं । रसको महत्ता रंसके भेद, रस-शुद्धि तथा पारदसिद्ध रस आदिका वर्णन आया है ।
(२५) कल्पाधिकारमें ५७ पद्य हैं। हरीतिकी, त्रिफला, शिलाजतु, पायस, भल्लातपाषाणकल्प, मृत्तिकाकल्प, एरण्द्धकल्प, क्षारखाल्प आदि कल्पोंका प्रतिपादन किया।
परिशिष्ट रूपमें रिष्टाधिकारमें अरिष्टोंका वर्णन और हिताहिताधिकारमें पथ्यापथ्यका निरूपण आया है । आयुर्वेदकी दृष्टिसे यह अन्ध अत्यन्त उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है।
गुरु | आचार्य श्री श्रीनन्दि जी |
शिष्य | आचार्य श्री उग्रादित्याचार्या |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Aacharya Shri Ugradityacharya ( Prachin )
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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