नाम
आचार्य श्री १०८ वाडिभसिंह 12वीं शताब्दी
श्रेण्य--गद्ये -संस्कृत साहित्य में जो स्थान महाकवि बाणका है, जैन-संस्कृत गद्य-साहित्यमें वही स्थान वादीसिंहका । कवि
'कादम्बरीसे प्रतिस्पर्धा करनेका दूसरा प्रयत्न ओडयदेव (वादीभसिंह) के गद्यचिन्तामणिमें परिलक्षित होता है। उनका उपनाम
था । वे एक दिगम्बर जैन थे और पुष्पसेनके शिष्य थे। जिनकी प्रशंसा इन्होंने अपनी रचनामें अत्युक्तिपूर्ण शैली मे की है। इनकी रचनाका सम्बन्ध जीवक अथवा जीवन्धरके उपाख्यानसे है, जो जीवन्धरचम्पुका भी प्रतिपाद्य विषय है। इन्होंने बाणका अनुकरण किया है, यह बात बिल्कुल स्पष्ट है। मनोषी शुक नास द्वारा युवक चन्द्रापीडको दिये गये उपदेशको अधिक सुन्दररूपमें प्रस्तुत करनेका प्रयल भी सम्मिलित है।'
कविका वादीसिंह यह नाम बास्तविक नाम नहीं, उपाधिप्राप्त नाम हैं। वास्तविक नाम तो ओडयदेव है। गद्यचिन्तामणि तंजौर वाली पाण्डुलिपि की प्रशस्तिमे यही नाम अंकित मिलता है। यद्यपि प्रशस्तिके ये पद्य सभी पाण्डुलिपियोंमें नहीं मिलते, तो भी उपलब्ध पाण्डुलिपिके प्रशस्ति-पद्योंकी
१. History of sanskrit Litrature by Keith, London, 1941, l'age 331.
२. श्रीमहादीभसिंहेन गचिन्तामणिः कृतः ।
स्थेयादौत्यदेवेन चिरायास्थानभूषणः ।।
स्थयादोडयदेवेन वादीभहरिणा कृतः ।
गचिन्तामणिोंके चिन्तामणिरिवापरः ॥
------गधचिन्तामणि प्रशस्ति, पृ. २५७, श्रीरंगम् १९१६ ई.।
उपेक्षा नहीं की जा सकती है। जब तक कविका वास्तविक नाम किसी सबल प्रमाणके आधार पर कोई दूसरा सिद्ध नहीं होता, तब तक ओडयदेव मान लेना तर्कसंगत ही है ।
कवि वादीसिंहके निवासस्थान .के सम्बन्ध में अभी वाद विवाद है। पण्डित के भुजवली शास्त्री इन्हें तमिल या द्रविड़ प्रान्तका निवासी मानते हैं। वी० शेष गिरि रावने कलिंग ( तेलुगु ) के गञ्जामजिलेके आस-पासका निवासी बताया है । गजाम जिला मद्रासके उत्तर में है और अब उड़ीसामे
सम्मिलित कर दिया गया है । यहॉपर ओडेय और गोडेय दो जातियाँ निवास करती हैं । सम्भवत: वादीभसिंह ओडेय जातिके रहे होंगे। गञ्जामजिले में प्रचलित लोक-कथाओंमें जीवनचरित्र आज भी उपलब्ध होता है। तमिल भाषामें जो लोक-कथाएँ प्रचलित हैं, उनमें जीवन्धरकी कथा महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। तमिल भाषाके जीवकचिन्तामणि-काव्यके कर्ता तिरुत्तक्कदेव नामक कवि हैं, जिनका निवासस्थान तमिलनाड है। अत: हमें श्री शेषगिरिराबका मत अधिक समीचीन प्रतीत होता है। तञ्जौरमें गद्यचिंतामणि पाण्डु लिपियोंका प्राप्त होना भो इस बातको ओर संकेत करता है कि कविका निवास तमिलनाडमें या उसके आस-पास किसी स्थानमें होना चाहिये।
ओडयदेव या वादीसिंह ने गद्यचिन्तामणिके प्रारम्भमें अपने गुरुका नाम पुष्पसेन लिखा है और बताया है कि गुरुके प्रसादसे ही उन्हें वादीभसिंहता और मुनिपुंगवता प्राप्त हुई। कविने गद्यचिन्तामणिके मंगलवाक्यों में अपने गुरुका स्मरण निम्न प्रकार किया है.-.
श्रीपुष्पसेनमुनिनाथ इति प्रतीतो दिव्यो मनुर्ममसदा हृदि संनिदध्यात् ।
यच्छक्तित: प्रकृतिमूढ़मतिर्जनोऽपि वादीभसिंहमुनिपुङ्गवतामुपैति ।।
इससे स्पष्ट है कि पुष्पसेन कविके काव्यगुरु ही नहीं थे, अपितु वे विद्या और दीक्षा गुरु भी थे।
बादीभसिंहके समय-निर्णयके सम्बन्धमें विद्वानोंमें पर्याप्त मतभेद है। अभी
१. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग ६, किरण २, पृ.७८-८७ ।
२. वहीं, भाग ८, किरण २, पृ० ११७ ।
३. गद्यचिंतामणि , भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, १| ६ ।
तक उपलब्ध साहित्य में इनकं समय सम्बन्धमें निम्नलिखित विचार-धाराएँ प्राप्त होती है
१. ई सन् ७७०-८६५ ई० की मान्यता
२. विक्रमकी ११वीं शतीके प्रारम्भकी मान्यता
३. ग्यारहवीं शतीके उत्तरार्द्धकी मान्यता
४. बारहवीं शतीकी मान्यता
(१) प्रथम मान्यताके पोषक पण्डित कैलाशचंद्र शास्त्री और डा० प्रो० दरबारीलाल कोठिया हैं। आप दोनों महानुभावोंने जिनसेनके आदिपुराण (ई० मन् ८३८), वादिराजके पार्श्वनायचरित' ( ई सन् १०२५ ) एवं लघु समन्तभद्रके आटसहस्रीटिप्पण" ( विक्रम १३वीं शतो ) के वादीभसिंहविषयक उल्लेखोंके के आधारपर उनका समय ई- सन् ८-९ वीं शती माना है। डा० दरवारीलाल कोठियाने 'स्यादवादसिद्धि के संदर्भाशोंके साथ जयन्तभट्टको 'न्याय मञ्जरी', कुमारिलके 'मीमांसाश्लोकवार्तिक ' एवं बौद्ध दार्शनिक शंकरा नन्दको 'अपोहसिद्धि' और 'प्रतिबन्धसिद्धि' के तुलनात्मक उद्धरण प्रस्तुत कर वादीसिंहका समय ई० सन ७७० -७६० के मध्य सिद्ध किया है। डॉ० कोठियाने श्री कैलाशचन्द्र शास्त्रीके समान ही वादीसिंह और वादीभसिंहको एक ही विद्वान स्वीकार किया है।
पण्डित नाथूराम प्रेमी भी वादिसिंह और वादीभसिंहको एक ही व्यक्ति मानते थे। पर जैन साहित्य और इतिहासके द्वितीय संस्करणमें उक्त दोनों नामोंको एक ही मानने में अस्वीकृति प्रकट की है। पर प्रेमीजीने इस मत-परिवर्तनका कोई कारण नहीं बतलाया है ।
(२) द्वितीय मान्यताके समर्थक विद्वानोंमें पण्डित नाथूराम प्रेमी और टी०
१. न्याय कुमुदचन्द्रकी प्रस्तावना, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, पृ० १११ ।
२. स्याद्वादसिद्धि, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, प्रस्तावना, पृ० ११ ।
३. कवित्वस्य परा सीमा वाग्मित्वस्य परं पदम् ।
गमकत्वस्थ पर्यन्तो बादिसिहोयते न कैः।।
---महापुराण ( भारतीय ज्ञान. १९५१ ) १| ५४
४.स्पाहादगिरमाश्रित्य वादीसिंहस्थ गजिते ।
दिग्नागस्य मध्वंसे कीर्तिभंगो न दुर्घट: ।। —पार्श्व० १| २१ ।
५. तदेवं महाभामस्ताकिका स्पज्ञातां श्रीमता वादीसिंहनोपलालितामासमीमांसामल विकीर्षवः स्याद्वादोद्भासिसत्यवाक्यमाणिक्यमकारिकापटमदेवाटकारा: सूरयो........... प्रतिज्ञापलोकमेकमाह–अष्टसहस्री-टिप्पण, पृ o १।।
एस. कुप्पुस्वामी शास्त्री प्रमुख हैं । उक्त दोनों विद्वानोंने "अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती" परिमल कविकी इस धारानरेश भोज सम्बन्धी उक्तिका पूर्वाद्ध सत्यन्धर महाराजके शोकके प्रसंगमें गद्मचिन्तामणिमें प्राप्त कर वादीभ सिंहका समय भोजदेवके पश्चात् माना है। भोजदेवका राज्यकाल विक्रम संवत् १०७६ से वि० संवत् १११२ माना जाता है। अतएव पण्डित प्रेमी और कुप्पु स्वामी शास्त्री दोनों ही विद्वान् वादीसिंहको वि० सं० की ११वीं शताब्दीका आचार्य मानते हैं।
(३) ११वीं शतीको उत्तरार्द्धसम्बन्धी मान्यताके समर्थक श्री पण्डित के० भुजबली शास्त्री हैं। इन्होंने अजितसेनको वादोभसिंहका ही अपर नाम मानकर, उनका काल ११ वीं शताब्दीका उत्तराद्धं माना है। शास्त्रीजी का दूसरा तर्क क्षत्रचूड़ामणिके-"राजता राजराजोज्य राजराजा महादयैः । तेजसा वयसा शूर: क्षत्रचूडामणिगुणैः ।।" पद्यमें आया हुआ 'राजराज' पद है । इस पदको शास्त्रीजी ने श्लेषात्मक मानकर चरितनायक जीवेश्वर अतिरिक्त तत्कालीन शासक राज राजसे सम्बद्ध माना है। यह शासक चोलवंशी 'राजराज' हो सकता है। चोल राजाओंमें इस नामके दो ब्यक्ति हुए हैं। प्रथम राजराजका काल ई. सन् ९८५ -१०१२ तक तथा द्वितीयका ई० सन् १९४६-११७८ तक माना गया है। शास्त्रीजीने द्वितीय राजराजका ही वादीभसिंहको समकालीन माना है। तथा उन्होंने श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं ० ५४, ३, ४० और ३७ द्वारा अपने तथ्यांकी पुष्टि की है। अन्तिम निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है-"मेरे पूर्व कथनानुसार जब वादीभसिंहका समय ११वीं शताब्दीका उत्तराने निर्विवाद सिद्ध होता है, तब वादीभसिंहका दशम शतकका मानना ठीक नहीं है ।"
"मेरे इस अनुमानको श्रीयुत् स्व० आर० नरसिंहाचार्य और श्रीयुत् प्रोफे सर एस. श्रीकण्ठशास्त्रो इन दोनों पुरातत्त्वविशारदोंने स्वीकार किया है। परन्तु पूर्वोक्त अपने-अपने निर्धारित समयानुकूल आर० नरसिंहाचार्य वादीभ सिंहको द्वितीय राजराजका समकालीन एवं प्रो०एस० श्रीकण्ठशास्त्री प्रथम राज राजका समकालीन मानते हैं। शास्त्रीजीका कहना है कि द्वितीय राजराजकी अपेक्षा प्रथम राजराज बहुत प्रसिद्ध था, पर मेरे जानते यह कोई सबल तर्क
१. जैन साहित्य और इतिहास, बम्बई १९५६, प० ३२५ ।
२. क्षत्रचूड़ामणि, ११।१०६ ।।
३. जैन सिद्धान्त भास्कर भाग ६, किरण २, पृ० ७८-८७ तथा भाग ७, किरण १ पृ ० १-८।
४. वही, भाग ६, किरण २, पृ. ८६ ।
नहीं है, क्योंकि ग्रन्थ को, तो प्रायः प्रसिद्ध अथवा अप्रसिद्ध तत्कालीन शासकका उल्लेख कर देना भर ही ध्येय रहता है।
स्पष्ट है कि पण्डित के भुजबली शास्त्री वादीसिहका समय ११वीं शती का उत्तरार्द्ध मानते हैं।
(४) ।१२ वीं शताब्दीकी मान्यता संस्कृत साहित्यके इतिहास लेखक श्री राम कृष्णमाचारियर की है। इन्होंने श्री कुप्युस्वामीने तर्कके आधारपर ही भोजका राव्यकाल १२वीं सदी मानकर अपना अभिमत प्रकट किया है। लिखा है ---
-"King Bhaja flourished in the 11th century A. D. and Vadibhsingha who must havę therefore come after him way be orgsigned to the 12th century A. D.2
- उपयुक्त अभिमतोंपर विचार करनेसे तथा वादीभसिंहकी कृतियों के अवलोकनसे ऐसा प्रतीत होता है कि महाकवि वादीसिंहके समयके सम्बन्धमें विद्वानोंने पर्याप्त ऊहापोह किया है। द्वितीय मतके प्रवर्तक श्रीप्रेमीजी और कुष्प स्वामीने परिमल कविकी उक्तिकी छाया गद्यचिन्तामणि प्राप्त की है। पर यह मान्यता नि:सार है। गद्यचिन्तामणिके समस्त सन्दर्भका अवलोकन करनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि वादीभसिंहका सक्त गद्य-खण्ड अपनेमें मौलिक और पूर्ण है, बह किसीका अनुकरण नहीं है। प्रेमीजी एवं कुम्पु स्वामी उक्त सन्दभांशको सत्यधर महाराजक शोकके प्रसंगमें बतलाते हैं, पर वस्तुत: वह सन्दर्भ उस समयका है जबकि जीवन्धर ने काष्टांगारके हाथीको कड़ा मारा था, जिससे काष्ट्रांगार क्रोधित हुआ | गन्धोत्कटने जीवन्धर स्वामीको बांधकर काष्ठांगारके पास भेज दिया और उसने उनके प्राण-वधका आदेश दिया,सो समस्त नगरमें शोक व्याप्त हो गया और नगरवासी सन्तापसे मग्न हो कहने लगे ___ "अद्य निराश्रया श्रीः, निगधारा धरा, निरालम्बा सरस्वती, निष्फलं लोक लोचनविधानम्, निस्सार: संसारः, नीरसा रसिकता, निरास्पदा वीरता, इति मिथः प्रवर्तयति प्रणयोद्गारिणी वाणी, सखेदायां च खेचरचक्रवर्ति दुहतरि
दयितबिमोक्षणाय'....|''
१. जैन सिद्धांत भास्कर, भाग ७, किरण १, पृ०७ ।
२. History of classical Sanskrit literature by M, krishna machari
yar, page 477 Madras| 1937.
३. डॉ. दरबारीलाल कोटियाने हम तध्यका उद्घाटन स्याहादसिद्दिकी प्रस्तावना पृ. २७ में किया है।
४. गद्यचिन्तामणि, पंचम लम्ब, पृ० १३१, श्रीरंगम्, १९१६ ई० ।
यदि उक्त सन्दर्भाशमें परिमल कविके पद्यकी छाया मानी जाय, तो गद्यके रूपमें "निराश्रया थी:" यह पद पहले नहीं आता। अत: बहुत सम्भव है कि परिमल कविने ही गद्यचिन्तामणिके उक्त सन्दर्भके आधारपर अपने पद्यको रचा हो । परिमल कविकी रचनापर पूर्ववर्ती कवियोंका ऋण सुस्पष्ट है । अतः वादीसिंहपर परिमलका ऋण न स्वीकार कर परिमलपर ही वादीभसिंहका ऋण स्वीकार करना अधिक उचित है। ऐसा मान लेनेसे आदिपुराण और पार्श्वनाथचरितके उल्लेखोंका भी औचित्य सिद्ध हो जाता है।
महाकवि वादीसिंहने अपने क्षत्रचूड़ामणि और गद्यचिन्तामणिमें क्षत्रिय कुलचूडामणि जीवन्धरका चरित निबद्ध किया है। इस चरितका आधार कोई पुराणग्रन्थ अवश्य है। मुझे डॉ० प्रो० दरबारीलाल कोठियाका यह अनुमान ठीक मालूम पड़ता है कि कविने उक्त कथानक कवि परमेष्ठीके 'वागर्थ-संग्रह से लिया हो । जीवकचिन्तामणि ग्रन्धका निर्माण तो निश्चयत्तः क्षत्रचुडामणि समक्ष रग्नकर ही किया गया है। श्री प्रेमजीने लिखा है-"तमिलसाहित्यके विशेष पण्डित स्वामीनाथैयाका मत है कि इस ग्रन्धकी रचना क्षत्रचूड़ामणिऔर गद्यचिन्तामणिकी छाया लेकर की गयी है और श्री कुप्पुस्वामी शास्त्री अपने सम्पादित किये हुए क्षत्रचूड़ामणिमें इस तरहके छायामूलक बीसों पद्य टिप्पणके रूपमें उद्धृत करके इस बातकी पुष्टि भी की है ।"
तमिल विद्वानोंने तिरुत्तक्कदेवका समय ई० सन की १०वीं शताब्दी माना है। अत: वादीसिंहका समय इनसे पूर्व सुनिश्चित है। वादीभसिंहने गद्यचिन्तामणिमें जिस कथाके आधारका निरूपण किया है उस सम्बन्धमें उन्होंने स्वयं ही गणधर द्वारा प्रथित परम्पराका निर्देश किया है
इत्येवं गणनायकेन कथितं पुण्यासवं शृण्वता
तज्जीवन्धरवृत्तमत्र जगति प्रख्यापितं सूरिभिः ।
विद्यास्फूतिविधायिधर्मजननीवाणीगुणाभ्यर्थिनां
वक्ष्ये गद्यमयेन वाङ्मयसुधावर्षेण वाक्सिद्धये ॥
श्री पं० के० भुजबली शास्त्रीने वादीसिंहका दूसरा नाम अजितसेन माना है, पर अजितसेनके गुरुका नाम पुष्पसेन नहीं मिलता। शास्त्री जीने खींचतान कर एक पुष्पसेनको अजितसेनका गुरु सिद्ध करनेका आयास किया है, पर आश्चर्य
१. जैन साहित्य और इतिहास, पु० ३२५ ।
२. गद्चिन्तामणि, १| १५ ।
यह है कि उन पुष्पसेनका अजितसेन नामका कोई शिष्य ही नहीं है। उनके शिष्यका नाम वासुपूज्य सिद्धान्तदेव मिलता है। साथ ही अजितसेन और पुष्प सेनके स्थिति-कालके एक होने में भी बाधा है। अजितसेनके सम्बन्धमें कहीं भी ऐमा निर्देश नहीं मिलता कि वे महाकवि या काव्यग्रन्धोंके निर्माता थे। गद्य चिन्तामणि जैसे श्रेष्ठ गद्य-कान्यके निर्माताके रूपमें मल्लिषण-प्रशस्तिमें उनका उल्लेख अवश्य ही होना चाहिए था, जबकि इस प्रशस्तिमें उनकी प्रशंसा लगभग ५० पंक्तियों में की गयी है । एक दूसरी बात यह भी है कि जिन अजित सेनको शास्त्रीजी वादीभसिंह कहते हैं वे अजित्तसेन दार्शनिक विद्वान् हैं, कवि नहीं । अत: के० भुजबली शास्त्री द्वारा समर्थित वादीभसिंहका समय तर्कसंगत नहीं है।
श्री कृष्णमाचारियरने जो अपना अभिमत प्रकट किया है, उसका आधार तो श्री टी० एस० कुप्पु स्वामी द्वारा प्रस्तुत तर्क ही है। अतएव वादीसिंह का समय डा० प्रो० दरबारीलाल कोठिया द्वारा समश्चित ही तर्कसंगत प्रतीत होता है। श्रीमान पं ० कैलाशचन्द्र जी शास्त्रीने अकलंकदेवका गुरुभाई पुष्प सेनको माना है। इन्हीं पुष्पसेनके शिष्य वादीसिंह थे। अतः जिनसेन और बादिराज द्वारा उल्लिखिल वादीसिंह ही वादीसिंह है, इसमें कोई संदेह नहीं । संक्षेपमें समस्त प्रमाणोंका अध्ययन करनेसे यही निष्कर्ष निकालता है कि वादीभसिंह समय नवम शती है ।
वादीसिंहको दो ही रचनाएँ उपलब्ध है—(१) क्षत्रचूड़ामणि और (२) गद्य चिन्तामणि । तीसरी रचना स्याद्वादसिद्धि इनकी बतायी जाती है, पर इसेअजित्तसेनकी होना चाहिए। अतः मेरी दृष्टि में इसके कर्ता संदिग्ध हैं।
१. क्षत्रचुडामणि- क्षत्रचूड़ामणि अनुष्टुप् छन्दोंमें लिखित एकार्थक प्रबन्ध काव्य है। इस काव्यमें ११ लम्ब हैं और जीवन्धरस्वामीकी कथा वर्णित है। नीति और सूक्तिवाक्योंके कारण यह काव्य अत्यन्त सरस है ।
हेमांगद देशकी राजधानी राजपुरीमें महाराज सत्यन्धर राज्य करते थे। ये अपनी महारानी विजयामें अत्यासक्त थे। अतः राज्यका भार मंत्री काष्ठां गारको सौंप दिया । कृतघ्न काष्ठांगारने राज्यतृष्णाके वशीभूत होकर राज्य पर अपना अधिकार कर लिया । युद्धभूमिमें क्षात्र धर्मका पालन करते हुए सत्यन्धर काम आये। महाराज रानी विजया गर्भ-धारणि थी, अतएव राजवंशकी आशाके एकमात्र केन्द्र गर्भस्थ शिशुके संरक्षणार्थ महाराजने पहलेसे ही आकाश मे उड़ने वाला मयुरयंत्र बनवाया था और उसमें युद्धकी विकट स्थितिके समय महारानीको बैठाकर आकाशमें उड़ा दिया गया | सौभाग्यवश वायुयान श्मशान भूमिमें पहुँचा और वहीं महारानीके एक तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ। महारानी तपस्वियोंके आश्रममें रहकर अपना समय व्यतीत करने लगी और पुत्रका पालन गन्धोत्कटके यहाँ होने लगा । बालक जीवन्धरने आयनन्दि नामक आचार्यसे विद्या ग्रहण की। तरुण होने पर कुमारको ज्ञात हुआ कि मैं क्षत्रियपुत्र हूँ। मेरे राज्यका अधिकारी काष्ठांगार बन गया है। अतएव अक्सर पाकर वीरशिरो मणि जीवन्धरने काष्टांगारको मारकर अपना राज्य प्राप्त कर लिया। बहुत समय तक वैभव-विभूतिका आनन्द प्राप्तकर स्थायी शान्ति प्राप्तिके हेतु जीवन्धर अपने पुत्र वसुन्धरको राज्यका भार सौंपकर प्रबजित हो गये और भगवान् महावीरके समवशरणमें रहकर कर्मोंकी निर्जरा कर मुक्तिलाभ प्राप्त किया। ___ कविने कथावस्तुको बहुत ही सुन्दर रूपमें ग्रथित किया है। प्रत्येक पद्य में प्रायः अर्थान्तरन्यास अलंकार पाया जाता है। नीति और सूक्तियोंका तो यह सागर है। शिक्षाके सम्बन्धमें कहा गया है—'अनवद्या हि विद्या स्यात् लोक दूयफलाबहा' ( ३| ४५ ) अर्थात् निर्दोषज्ञान ही इस लोक और परलोकमें फल दायी है । इसीकी पुष्टिमें कविने दूसरी उक्तिमें बतलाया है- 'हेयोपादेयविज्ञानं नो चेद् व्यर्थः श्रमः श्रुती' (२| ४४) यदि हेय-उपादेयरूप बिवेकबुद्धि जागृत न हुई तो शास्याभ्यासमें किया गया श्र्म व्यर्थ है। कविने निर्धनताका सफला चित्रण करते हुए लिखा है
दारिद्रयादपर नास्ति जन्तुनामप्यरुन्तुदम् ।
अत्मक्तं मरणं प्राणे: प्राणिनां हि दरिद्रता ।।
रिक्तस्य हि न जागति, कीर्तनीयोऽखिलो गुणः ।
हन्त कि तेन विद्यापि, विद्यमाना न शोभते ।।
निर्धनतासे बहकर संसारमें अन्य कोई भी कष्टदायक वस्तु नहीं है। यह प्राण ही नहीं लेती, पर अन्य सभी प्रकारके कष्टोंको प्रदान करती है। वस्तुतः यह विपत्तियोंका घर है।
निर्धन ब्यक्तिके प्रशंसनीय सम्पूर्ण गुण जागृत नहीं होते और तो क्या विद्यमान गुण भी शोभित नहीं होते।
कवि विषयासक्तिके दुष्परिणाम, बद्धावस्था, उदारता, आत्मनिरीक्षण, आत्मोद्धार, विपत्ति, वैराग्य, सज्जन-दुर्जन स्वभाव आदिका सफल चित्रण किया है । इस काव्यमें गर्भित सूक्तियोंका सांस्कृतिक अध्ययन करने पर ८ वीं, ९ वीं शताब्दीको अनेक मान्यताएँ मुखरित हो उठती हैं।
१. क्षत्रचूडामणि ३| ६, ७ ।
गद्य -चिन्तामणि
यह गद्काव्य है । इसकी भी कथावस्तु पूर्वोक्त क्षत्रचूड़ामणिकी कथा ही है । कविने कथानकको ११ लम्बोंमें विभक्त किया है। कविकी गद्यशैली कादम्बरीकी गद्यशैली के समान है। कविने इस कथामें काव्यका पूर्णतया समावेश किया है । पात्रोंके चरित्र भी जीवन्तरूपमें चित्रित हुए हैं। इस कृति में अप्रतिम कल्पना-वैभव, वर्णन -पटुता और मानव-मनोवृत्तियोंका मार्मिक निरीक्षण पाया जाता है। महाराज पगार काष्टांगारक भावप्रण .आशा-निराशा के द्वन्द्व में पड़ जाते हैं। उनकी इस द्वन्द्वात्मक विचारधाराका कबिने हृदयग्राही चित्रण किया है।
प्रासाद, नगर, वन, श्मशान, राजसभा एवं पूर्वभवावलीका ब्योरेवार चित्रण किया गया है। वर्णन-विविधताके साथ भावानुकूल भाषाका प्रयोग भी श्लाघ्य है । "बाणोच्छिष्टं जगत्सर्वम्' की उक्ति इस ग्रन्थके समक्ष झूठी प्रतीत होती है । कविने भाषाका प्रयोग रमणीय और भावोंके अनुसार दीर्घ समास एवं अल्प समासके रूपमें किया है। जहाँ विषय भाव-प्रधान मार्मिक अथवा गम्भीर होता है वहाँ शैली बड़ी हो सशक्त एवं प्रभावोत्पादक पायी जाती है। जब जीवन्धर अपने राज्यको पुनः प्राप्त करने के लिए काष्टांगारपर आक्रमण करता है, उस समय काष्ठांगारका रौद्र रूप दर्शनीय है यथा ----
"स रुष्टः काष्टांगारः क्रोधवेगस्फुरदोष्टपुटतया निकटवतिनो निजाह्वानकते कृतागमान्कृतान्तदूतानिव स्वान्तसन्तोषिभिः सान्त्वयन्वचोभिः नातिचिरभावि नरकावसश्रेभवदवतमसप्रचमिवात्मानं प्रतिग्रहीतुकाममागतं करालं कालमेघा भिधानं करिणमारुह्य रोषाशुशक्षणि विज़म्भमाणशोणेक्षणतीक्ष्णाचिश्मटा मन्नाङ्गतया सप्ताचिषि निमज्जयन्निजस्वामिद्रोहभावं विभावयितं सत्याप पन्निव सत्यन्धरमहाराजतनयाभिमुखमभोयाय । ......''''''
कवि जिस समय किसी उत्सव या बिलासका चित्रण करता है उस समय उसकी शैली अपेक्षाकृत क्लिष्ट एवं प्रगाढ़ हो जाती है। दीर्घकाय समास, विपुल वाक्य, विशिष्ट एवं दिलष्ट पदावली चित्रकान्यके समस्त साधनों को उपलब्ध कर देती है। जीवन्धरके जन्मोत्सवका चित्रण करता हुआ कवि कहता है---
"यस्मिश्च जातवति जातपिष्टातकमष्टिवर्षपिरित्तरिम्मखमन्मखकुरुन बामनहठाकृष्यमाणनरेन्द्राभरणं प्रणयभरप्रवृत्तवारयुतिबर्गबल्गनरणितमणि भूषणनिनदरित हरिदवकाश निमर्यादमदपरवापण्ययोपिदारलोपलज्जभानगज वल्लभं ' ' ' ' . '
१. गद्यचिन्तामणि, दशम लम्ब, प० २१९ ।
२. वही, प्रथम लम्ब, पृ० ४३ ।
वस्तुतः गद्यचिन्तामणिकाब्यका महत्व कथानकगठन, चरित्रचित्रण, वस्तु-विन्यास एवं रसोन्मेषमें है।
३. स्याद्वादसिद्धि
महाकवि' वादीसिंहकी एक तीसरी कृति स्याद्धादसिद्धिनामक न्यायरचना भी मानी जाती है। डॉ. प्रो दरबारीलाल कोठियाने इस कृतिका सम्पादन किया है और माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला बम्बई द्वारा यह प्रकाशित है । कोठियाजी ने इसे महाकवि वादीभसिंहकी रचना बतलायी है । पर मेरा विचार है कि यह काल माहाकवि वादीभसिंहकी न होकर अजितसेनकी है। अजितसेनको उपाधि वादीभसिंह थी और मल्लिषेण-प्रशस्तिके अनुसार ये ..दार्शनिक आचार्य थे। अतएव इस रचनाके कर्ता ओडयदेव वादीसिंह न होकरअजितसेन वादीसिंह हैं।
क्षत्रचुडामणि और गद्यचिन्तामणिको परम्परा इसमें उपलब्ध नहीं है। इन दोनों ग्रन्थोंके मंगलाचरणमें कबिने 'श्रीपति ' शब्दका प्रयोग किया है, पर स्याद्धादसिद्धिका मंगलाचरण उक्त दोनों ग्रन्थोंको मंगलाचरणशैलीसे भिन्न शैलीमें निबद्ध है।
तीसरी बात यह है कि 'गद्यचिन्तामणि' और 'क्षत्रचूड़ामणि' के अध्ययनसे वादीभसिंह के दार्शनिक और तार्किक ज्ञान पर कुछ भी प्रकाश नहीं पड़ता है। यदि ओडयदेव वादीभसिंह स्याद्धादसिद्धिके रचयिता होते तो इन रचनाओंमें दार्शनिक तथ्य अवश्य सम्मिलित रहते । अतएव स्याद्धादसिद्धिके रचयिता अजितसेन वादीभसिंह है, ओडयदेव वादीसिंह नहीं।
गुरु | आचार्य श्री पुष्पसेन |
शिष्य | आचार्य श्री वादीभसिंह |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री १०८ वाडिभसिंह 12वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 8 एप्रिल 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 8-April- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
श्रेण्य--गद्ये -संस्कृत साहित्य में जो स्थान महाकवि बाणका है, जैन-संस्कृत गद्य-साहित्यमें वही स्थान वादीसिंहका । कवि
'कादम्बरीसे प्रतिस्पर्धा करनेका दूसरा प्रयत्न ओडयदेव (वादीभसिंह) के गद्यचिन्तामणिमें परिलक्षित होता है। उनका उपनाम
था । वे एक दिगम्बर जैन थे और पुष्पसेनके शिष्य थे। जिनकी प्रशंसा इन्होंने अपनी रचनामें अत्युक्तिपूर्ण शैली मे की है। इनकी रचनाका सम्बन्ध जीवक अथवा जीवन्धरके उपाख्यानसे है, जो जीवन्धरचम्पुका भी प्रतिपाद्य विषय है। इन्होंने बाणका अनुकरण किया है, यह बात बिल्कुल स्पष्ट है। मनोषी शुक नास द्वारा युवक चन्द्रापीडको दिये गये उपदेशको अधिक सुन्दररूपमें प्रस्तुत करनेका प्रयल भी सम्मिलित है।'
कविका वादीसिंह यह नाम बास्तविक नाम नहीं, उपाधिप्राप्त नाम हैं। वास्तविक नाम तो ओडयदेव है। गद्यचिन्तामणि तंजौर वाली पाण्डुलिपि की प्रशस्तिमे यही नाम अंकित मिलता है। यद्यपि प्रशस्तिके ये पद्य सभी पाण्डुलिपियोंमें नहीं मिलते, तो भी उपलब्ध पाण्डुलिपिके प्रशस्ति-पद्योंकी
१. History of sanskrit Litrature by Keith, London, 1941, l'age 331.
२. श्रीमहादीभसिंहेन गचिन्तामणिः कृतः ।
स्थेयादौत्यदेवेन चिरायास्थानभूषणः ।।
स्थयादोडयदेवेन वादीभहरिणा कृतः ।
गचिन्तामणिोंके चिन्तामणिरिवापरः ॥
------गधचिन्तामणि प्रशस्ति, पृ. २५७, श्रीरंगम् १९१६ ई.।
उपेक्षा नहीं की जा सकती है। जब तक कविका वास्तविक नाम किसी सबल प्रमाणके आधार पर कोई दूसरा सिद्ध नहीं होता, तब तक ओडयदेव मान लेना तर्कसंगत ही है ।
कवि वादीसिंहके निवासस्थान .के सम्बन्ध में अभी वाद विवाद है। पण्डित के भुजवली शास्त्री इन्हें तमिल या द्रविड़ प्रान्तका निवासी मानते हैं। वी० शेष गिरि रावने कलिंग ( तेलुगु ) के गञ्जामजिलेके आस-पासका निवासी बताया है । गजाम जिला मद्रासके उत्तर में है और अब उड़ीसामे
सम्मिलित कर दिया गया है । यहॉपर ओडेय और गोडेय दो जातियाँ निवास करती हैं । सम्भवत: वादीभसिंह ओडेय जातिके रहे होंगे। गञ्जामजिले में प्रचलित लोक-कथाओंमें जीवनचरित्र आज भी उपलब्ध होता है। तमिल भाषामें जो लोक-कथाएँ प्रचलित हैं, उनमें जीवन्धरकी कथा महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। तमिल भाषाके जीवकचिन्तामणि-काव्यके कर्ता तिरुत्तक्कदेव नामक कवि हैं, जिनका निवासस्थान तमिलनाड है। अत: हमें श्री शेषगिरिराबका मत अधिक समीचीन प्रतीत होता है। तञ्जौरमें गद्यचिंतामणि पाण्डु लिपियोंका प्राप्त होना भो इस बातको ओर संकेत करता है कि कविका निवास तमिलनाडमें या उसके आस-पास किसी स्थानमें होना चाहिये।
ओडयदेव या वादीसिंह ने गद्यचिन्तामणिके प्रारम्भमें अपने गुरुका नाम पुष्पसेन लिखा है और बताया है कि गुरुके प्रसादसे ही उन्हें वादीभसिंहता और मुनिपुंगवता प्राप्त हुई। कविने गद्यचिन्तामणिके मंगलवाक्यों में अपने गुरुका स्मरण निम्न प्रकार किया है.-.
श्रीपुष्पसेनमुनिनाथ इति प्रतीतो दिव्यो मनुर्ममसदा हृदि संनिदध्यात् ।
यच्छक्तित: प्रकृतिमूढ़मतिर्जनोऽपि वादीभसिंहमुनिपुङ्गवतामुपैति ।।
इससे स्पष्ट है कि पुष्पसेन कविके काव्यगुरु ही नहीं थे, अपितु वे विद्या और दीक्षा गुरु भी थे।
बादीभसिंहके समय-निर्णयके सम्बन्धमें विद्वानोंमें पर्याप्त मतभेद है। अभी
१. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग ६, किरण २, पृ.७८-८७ ।
२. वहीं, भाग ८, किरण २, पृ० ११७ ।
३. गद्यचिंतामणि , भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, १| ६ ।
तक उपलब्ध साहित्य में इनकं समय सम्बन्धमें निम्नलिखित विचार-धाराएँ प्राप्त होती है
१. ई सन् ७७०-८६५ ई० की मान्यता
२. विक्रमकी ११वीं शतीके प्रारम्भकी मान्यता
३. ग्यारहवीं शतीके उत्तरार्द्धकी मान्यता
४. बारहवीं शतीकी मान्यता
(१) प्रथम मान्यताके पोषक पण्डित कैलाशचंद्र शास्त्री और डा० प्रो० दरबारीलाल कोठिया हैं। आप दोनों महानुभावोंने जिनसेनके आदिपुराण (ई० मन् ८३८), वादिराजके पार्श्वनायचरित' ( ई सन् १०२५ ) एवं लघु समन्तभद्रके आटसहस्रीटिप्पण" ( विक्रम १३वीं शतो ) के वादीभसिंहविषयक उल्लेखोंके के आधारपर उनका समय ई- सन् ८-९ वीं शती माना है। डा० दरवारीलाल कोठियाने 'स्यादवादसिद्धि के संदर्भाशोंके साथ जयन्तभट्टको 'न्याय मञ्जरी', कुमारिलके 'मीमांसाश्लोकवार्तिक ' एवं बौद्ध दार्शनिक शंकरा नन्दको 'अपोहसिद्धि' और 'प्रतिबन्धसिद्धि' के तुलनात्मक उद्धरण प्रस्तुत कर वादीसिंहका समय ई० सन ७७० -७६० के मध्य सिद्ध किया है। डॉ० कोठियाने श्री कैलाशचन्द्र शास्त्रीके समान ही वादीसिंह और वादीभसिंहको एक ही विद्वान स्वीकार किया है।
पण्डित नाथूराम प्रेमी भी वादिसिंह और वादीभसिंहको एक ही व्यक्ति मानते थे। पर जैन साहित्य और इतिहासके द्वितीय संस्करणमें उक्त दोनों नामोंको एक ही मानने में अस्वीकृति प्रकट की है। पर प्रेमीजीने इस मत-परिवर्तनका कोई कारण नहीं बतलाया है ।
(२) द्वितीय मान्यताके समर्थक विद्वानोंमें पण्डित नाथूराम प्रेमी और टी०
१. न्याय कुमुदचन्द्रकी प्रस्तावना, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, पृ० १११ ।
२. स्याद्वादसिद्धि, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, प्रस्तावना, पृ० ११ ।
३. कवित्वस्य परा सीमा वाग्मित्वस्य परं पदम् ।
गमकत्वस्थ पर्यन्तो बादिसिहोयते न कैः।।
---महापुराण ( भारतीय ज्ञान. १९५१ ) १| ५४
४.स्पाहादगिरमाश्रित्य वादीसिंहस्थ गजिते ।
दिग्नागस्य मध्वंसे कीर्तिभंगो न दुर्घट: ।। —पार्श्व० १| २१ ।
५. तदेवं महाभामस्ताकिका स्पज्ञातां श्रीमता वादीसिंहनोपलालितामासमीमांसामल विकीर्षवः स्याद्वादोद्भासिसत्यवाक्यमाणिक्यमकारिकापटमदेवाटकारा: सूरयो........... प्रतिज्ञापलोकमेकमाह–अष्टसहस्री-टिप्पण, पृ o १।।
एस. कुप्पुस्वामी शास्त्री प्रमुख हैं । उक्त दोनों विद्वानोंने "अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती" परिमल कविकी इस धारानरेश भोज सम्बन्धी उक्तिका पूर्वाद्ध सत्यन्धर महाराजके शोकके प्रसंगमें गद्मचिन्तामणिमें प्राप्त कर वादीभ सिंहका समय भोजदेवके पश्चात् माना है। भोजदेवका राज्यकाल विक्रम संवत् १०७६ से वि० संवत् १११२ माना जाता है। अतएव पण्डित प्रेमी और कुप्पु स्वामी शास्त्री दोनों ही विद्वान् वादीसिंहको वि० सं० की ११वीं शताब्दीका आचार्य मानते हैं।
(३) ११वीं शतीको उत्तरार्द्धसम्बन्धी मान्यताके समर्थक श्री पण्डित के० भुजबली शास्त्री हैं। इन्होंने अजितसेनको वादोभसिंहका ही अपर नाम मानकर, उनका काल ११ वीं शताब्दीका उत्तराद्धं माना है। शास्त्रीजी का दूसरा तर्क क्षत्रचूड़ामणिके-"राजता राजराजोज्य राजराजा महादयैः । तेजसा वयसा शूर: क्षत्रचूडामणिगुणैः ।।" पद्यमें आया हुआ 'राजराज' पद है । इस पदको शास्त्रीजी ने श्लेषात्मक मानकर चरितनायक जीवेश्वर अतिरिक्त तत्कालीन शासक राज राजसे सम्बद्ध माना है। यह शासक चोलवंशी 'राजराज' हो सकता है। चोल राजाओंमें इस नामके दो ब्यक्ति हुए हैं। प्रथम राजराजका काल ई. सन् ९८५ -१०१२ तक तथा द्वितीयका ई० सन् १९४६-११७८ तक माना गया है। शास्त्रीजीने द्वितीय राजराजका ही वादीभसिंहको समकालीन माना है। तथा उन्होंने श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं ० ५४, ३, ४० और ३७ द्वारा अपने तथ्यांकी पुष्टि की है। अन्तिम निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है-"मेरे पूर्व कथनानुसार जब वादीभसिंहका समय ११वीं शताब्दीका उत्तराने निर्विवाद सिद्ध होता है, तब वादीभसिंहका दशम शतकका मानना ठीक नहीं है ।"
"मेरे इस अनुमानको श्रीयुत् स्व० आर० नरसिंहाचार्य और श्रीयुत् प्रोफे सर एस. श्रीकण्ठशास्त्रो इन दोनों पुरातत्त्वविशारदोंने स्वीकार किया है। परन्तु पूर्वोक्त अपने-अपने निर्धारित समयानुकूल आर० नरसिंहाचार्य वादीभ सिंहको द्वितीय राजराजका समकालीन एवं प्रो०एस० श्रीकण्ठशास्त्री प्रथम राज राजका समकालीन मानते हैं। शास्त्रीजीका कहना है कि द्वितीय राजराजकी अपेक्षा प्रथम राजराज बहुत प्रसिद्ध था, पर मेरे जानते यह कोई सबल तर्क
१. जैन साहित्य और इतिहास, बम्बई १९५६, प० ३२५ ।
२. क्षत्रचूड़ामणि, ११।१०६ ।।
३. जैन सिद्धान्त भास्कर भाग ६, किरण २, पृ० ७८-८७ तथा भाग ७, किरण १ पृ ० १-८।
४. वही, भाग ६, किरण २, पृ. ८६ ।
नहीं है, क्योंकि ग्रन्थ को, तो प्रायः प्रसिद्ध अथवा अप्रसिद्ध तत्कालीन शासकका उल्लेख कर देना भर ही ध्येय रहता है।
स्पष्ट है कि पण्डित के भुजबली शास्त्री वादीसिहका समय ११वीं शती का उत्तरार्द्ध मानते हैं।
(४) ।१२ वीं शताब्दीकी मान्यता संस्कृत साहित्यके इतिहास लेखक श्री राम कृष्णमाचारियर की है। इन्होंने श्री कुप्युस्वामीने तर्कके आधारपर ही भोजका राव्यकाल १२वीं सदी मानकर अपना अभिमत प्रकट किया है। लिखा है ---
-"King Bhaja flourished in the 11th century A. D. and Vadibhsingha who must havę therefore come after him way be orgsigned to the 12th century A. D.2
- उपयुक्त अभिमतोंपर विचार करनेसे तथा वादीभसिंहकी कृतियों के अवलोकनसे ऐसा प्रतीत होता है कि महाकवि वादीसिंहके समयके सम्बन्धमें विद्वानोंने पर्याप्त ऊहापोह किया है। द्वितीय मतके प्रवर्तक श्रीप्रेमीजी और कुष्प स्वामीने परिमल कविकी उक्तिकी छाया गद्यचिन्तामणि प्राप्त की है। पर यह मान्यता नि:सार है। गद्यचिन्तामणिके समस्त सन्दर्भका अवलोकन करनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि वादीभसिंहका सक्त गद्य-खण्ड अपनेमें मौलिक और पूर्ण है, बह किसीका अनुकरण नहीं है। प्रेमीजी एवं कुम्पु स्वामी उक्त सन्दभांशको सत्यधर महाराजक शोकके प्रसंगमें बतलाते हैं, पर वस्तुत: वह सन्दर्भ उस समयका है जबकि जीवन्धर ने काष्टांगारके हाथीको कड़ा मारा था, जिससे काष्ट्रांगार क्रोधित हुआ | गन्धोत्कटने जीवन्धर स्वामीको बांधकर काष्ठांगारके पास भेज दिया और उसने उनके प्राण-वधका आदेश दिया,सो समस्त नगरमें शोक व्याप्त हो गया और नगरवासी सन्तापसे मग्न हो कहने लगे ___ "अद्य निराश्रया श्रीः, निगधारा धरा, निरालम्बा सरस्वती, निष्फलं लोक लोचनविधानम्, निस्सार: संसारः, नीरसा रसिकता, निरास्पदा वीरता, इति मिथः प्रवर्तयति प्रणयोद्गारिणी वाणी, सखेदायां च खेचरचक्रवर्ति दुहतरि
दयितबिमोक्षणाय'....|''
१. जैन सिद्धांत भास्कर, भाग ७, किरण १, पृ०७ ।
२. History of classical Sanskrit literature by M, krishna machari
yar, page 477 Madras| 1937.
३. डॉ. दरबारीलाल कोटियाने हम तध्यका उद्घाटन स्याहादसिद्दिकी प्रस्तावना पृ. २७ में किया है।
४. गद्यचिन्तामणि, पंचम लम्ब, पृ० १३१, श्रीरंगम्, १९१६ ई० ।
यदि उक्त सन्दर्भाशमें परिमल कविके पद्यकी छाया मानी जाय, तो गद्यके रूपमें "निराश्रया थी:" यह पद पहले नहीं आता। अत: बहुत सम्भव है कि परिमल कविने ही गद्यचिन्तामणिके उक्त सन्दर्भके आधारपर अपने पद्यको रचा हो । परिमल कविकी रचनापर पूर्ववर्ती कवियोंका ऋण सुस्पष्ट है । अतः वादीसिंहपर परिमलका ऋण न स्वीकार कर परिमलपर ही वादीभसिंहका ऋण स्वीकार करना अधिक उचित है। ऐसा मान लेनेसे आदिपुराण और पार्श्वनाथचरितके उल्लेखोंका भी औचित्य सिद्ध हो जाता है।
महाकवि वादीसिंहने अपने क्षत्रचूड़ामणि और गद्यचिन्तामणिमें क्षत्रिय कुलचूडामणि जीवन्धरका चरित निबद्ध किया है। इस चरितका आधार कोई पुराणग्रन्थ अवश्य है। मुझे डॉ० प्रो० दरबारीलाल कोठियाका यह अनुमान ठीक मालूम पड़ता है कि कविने उक्त कथानक कवि परमेष्ठीके 'वागर्थ-संग्रह से लिया हो । जीवकचिन्तामणि ग्रन्धका निर्माण तो निश्चयत्तः क्षत्रचुडामणि समक्ष रग्नकर ही किया गया है। श्री प्रेमजीने लिखा है-"तमिलसाहित्यके विशेष पण्डित स्वामीनाथैयाका मत है कि इस ग्रन्धकी रचना क्षत्रचूड़ामणिऔर गद्यचिन्तामणिकी छाया लेकर की गयी है और श्री कुप्पुस्वामी शास्त्री अपने सम्पादित किये हुए क्षत्रचूड़ामणिमें इस तरहके छायामूलक बीसों पद्य टिप्पणके रूपमें उद्धृत करके इस बातकी पुष्टि भी की है ।"
तमिल विद्वानोंने तिरुत्तक्कदेवका समय ई० सन की १०वीं शताब्दी माना है। अत: वादीसिंहका समय इनसे पूर्व सुनिश्चित है। वादीभसिंहने गद्यचिन्तामणिमें जिस कथाके आधारका निरूपण किया है उस सम्बन्धमें उन्होंने स्वयं ही गणधर द्वारा प्रथित परम्पराका निर्देश किया है
इत्येवं गणनायकेन कथितं पुण्यासवं शृण्वता
तज्जीवन्धरवृत्तमत्र जगति प्रख्यापितं सूरिभिः ।
विद्यास्फूतिविधायिधर्मजननीवाणीगुणाभ्यर्थिनां
वक्ष्ये गद्यमयेन वाङ्मयसुधावर्षेण वाक्सिद्धये ॥
श्री पं० के० भुजबली शास्त्रीने वादीसिंहका दूसरा नाम अजितसेन माना है, पर अजितसेनके गुरुका नाम पुष्पसेन नहीं मिलता। शास्त्री जीने खींचतान कर एक पुष्पसेनको अजितसेनका गुरु सिद्ध करनेका आयास किया है, पर आश्चर्य
१. जैन साहित्य और इतिहास, पु० ३२५ ।
२. गद्चिन्तामणि, १| १५ ।
यह है कि उन पुष्पसेनका अजितसेन नामका कोई शिष्य ही नहीं है। उनके शिष्यका नाम वासुपूज्य सिद्धान्तदेव मिलता है। साथ ही अजितसेन और पुष्प सेनके स्थिति-कालके एक होने में भी बाधा है। अजितसेनके सम्बन्धमें कहीं भी ऐमा निर्देश नहीं मिलता कि वे महाकवि या काव्यग्रन्धोंके निर्माता थे। गद्य चिन्तामणि जैसे श्रेष्ठ गद्य-कान्यके निर्माताके रूपमें मल्लिषण-प्रशस्तिमें उनका उल्लेख अवश्य ही होना चाहिए था, जबकि इस प्रशस्तिमें उनकी प्रशंसा लगभग ५० पंक्तियों में की गयी है । एक दूसरी बात यह भी है कि जिन अजित सेनको शास्त्रीजी वादीभसिंह कहते हैं वे अजित्तसेन दार्शनिक विद्वान् हैं, कवि नहीं । अत: के० भुजबली शास्त्री द्वारा समर्थित वादीभसिंहका समय तर्कसंगत नहीं है।
श्री कृष्णमाचारियरने जो अपना अभिमत प्रकट किया है, उसका आधार तो श्री टी० एस० कुप्पु स्वामी द्वारा प्रस्तुत तर्क ही है। अतएव वादीसिंह का समय डा० प्रो० दरबारीलाल कोठिया द्वारा समश्चित ही तर्कसंगत प्रतीत होता है। श्रीमान पं ० कैलाशचन्द्र जी शास्त्रीने अकलंकदेवका गुरुभाई पुष्प सेनको माना है। इन्हीं पुष्पसेनके शिष्य वादीसिंह थे। अतः जिनसेन और बादिराज द्वारा उल्लिखिल वादीसिंह ही वादीसिंह है, इसमें कोई संदेह नहीं । संक्षेपमें समस्त प्रमाणोंका अध्ययन करनेसे यही निष्कर्ष निकालता है कि वादीभसिंह समय नवम शती है ।
वादीसिंहको दो ही रचनाएँ उपलब्ध है—(१) क्षत्रचूड़ामणि और (२) गद्य चिन्तामणि । तीसरी रचना स्याद्वादसिद्धि इनकी बतायी जाती है, पर इसेअजित्तसेनकी होना चाहिए। अतः मेरी दृष्टि में इसके कर्ता संदिग्ध हैं।
१. क्षत्रचुडामणि- क्षत्रचूड़ामणि अनुष्टुप् छन्दोंमें लिखित एकार्थक प्रबन्ध काव्य है। इस काव्यमें ११ लम्ब हैं और जीवन्धरस्वामीकी कथा वर्णित है। नीति और सूक्तिवाक्योंके कारण यह काव्य अत्यन्त सरस है ।
हेमांगद देशकी राजधानी राजपुरीमें महाराज सत्यन्धर राज्य करते थे। ये अपनी महारानी विजयामें अत्यासक्त थे। अतः राज्यका भार मंत्री काष्ठां गारको सौंप दिया । कृतघ्न काष्ठांगारने राज्यतृष्णाके वशीभूत होकर राज्य पर अपना अधिकार कर लिया । युद्धभूमिमें क्षात्र धर्मका पालन करते हुए सत्यन्धर काम आये। महाराज रानी विजया गर्भ-धारणि थी, अतएव राजवंशकी आशाके एकमात्र केन्द्र गर्भस्थ शिशुके संरक्षणार्थ महाराजने पहलेसे ही आकाश मे उड़ने वाला मयुरयंत्र बनवाया था और उसमें युद्धकी विकट स्थितिके समय महारानीको बैठाकर आकाशमें उड़ा दिया गया | सौभाग्यवश वायुयान श्मशान भूमिमें पहुँचा और वहीं महारानीके एक तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ। महारानी तपस्वियोंके आश्रममें रहकर अपना समय व्यतीत करने लगी और पुत्रका पालन गन्धोत्कटके यहाँ होने लगा । बालक जीवन्धरने आयनन्दि नामक आचार्यसे विद्या ग्रहण की। तरुण होने पर कुमारको ज्ञात हुआ कि मैं क्षत्रियपुत्र हूँ। मेरे राज्यका अधिकारी काष्ठांगार बन गया है। अतएव अक्सर पाकर वीरशिरो मणि जीवन्धरने काष्टांगारको मारकर अपना राज्य प्राप्त कर लिया। बहुत समय तक वैभव-विभूतिका आनन्द प्राप्तकर स्थायी शान्ति प्राप्तिके हेतु जीवन्धर अपने पुत्र वसुन्धरको राज्यका भार सौंपकर प्रबजित हो गये और भगवान् महावीरके समवशरणमें रहकर कर्मोंकी निर्जरा कर मुक्तिलाभ प्राप्त किया। ___ कविने कथावस्तुको बहुत ही सुन्दर रूपमें ग्रथित किया है। प्रत्येक पद्य में प्रायः अर्थान्तरन्यास अलंकार पाया जाता है। नीति और सूक्तियोंका तो यह सागर है। शिक्षाके सम्बन्धमें कहा गया है—'अनवद्या हि विद्या स्यात् लोक दूयफलाबहा' ( ३| ४५ ) अर्थात् निर्दोषज्ञान ही इस लोक और परलोकमें फल दायी है । इसीकी पुष्टिमें कविने दूसरी उक्तिमें बतलाया है- 'हेयोपादेयविज्ञानं नो चेद् व्यर्थः श्रमः श्रुती' (२| ४४) यदि हेय-उपादेयरूप बिवेकबुद्धि जागृत न हुई तो शास्याभ्यासमें किया गया श्र्म व्यर्थ है। कविने निर्धनताका सफला चित्रण करते हुए लिखा है
दारिद्रयादपर नास्ति जन्तुनामप्यरुन्तुदम् ।
अत्मक्तं मरणं प्राणे: प्राणिनां हि दरिद्रता ।।
रिक्तस्य हि न जागति, कीर्तनीयोऽखिलो गुणः ।
हन्त कि तेन विद्यापि, विद्यमाना न शोभते ।।
निर्धनतासे बहकर संसारमें अन्य कोई भी कष्टदायक वस्तु नहीं है। यह प्राण ही नहीं लेती, पर अन्य सभी प्रकारके कष्टोंको प्रदान करती है। वस्तुतः यह विपत्तियोंका घर है।
निर्धन ब्यक्तिके प्रशंसनीय सम्पूर्ण गुण जागृत नहीं होते और तो क्या विद्यमान गुण भी शोभित नहीं होते।
कवि विषयासक्तिके दुष्परिणाम, बद्धावस्था, उदारता, आत्मनिरीक्षण, आत्मोद्धार, विपत्ति, वैराग्य, सज्जन-दुर्जन स्वभाव आदिका सफल चित्रण किया है । इस काव्यमें गर्भित सूक्तियोंका सांस्कृतिक अध्ययन करने पर ८ वीं, ९ वीं शताब्दीको अनेक मान्यताएँ मुखरित हो उठती हैं।
१. क्षत्रचूडामणि ३| ६, ७ ।
गद्य -चिन्तामणि
यह गद्काव्य है । इसकी भी कथावस्तु पूर्वोक्त क्षत्रचूड़ामणिकी कथा ही है । कविने कथानकको ११ लम्बोंमें विभक्त किया है। कविकी गद्यशैली कादम्बरीकी गद्यशैली के समान है। कविने इस कथामें काव्यका पूर्णतया समावेश किया है । पात्रोंके चरित्र भी जीवन्तरूपमें चित्रित हुए हैं। इस कृति में अप्रतिम कल्पना-वैभव, वर्णन -पटुता और मानव-मनोवृत्तियोंका मार्मिक निरीक्षण पाया जाता है। महाराज पगार काष्टांगारक भावप्रण .आशा-निराशा के द्वन्द्व में पड़ जाते हैं। उनकी इस द्वन्द्वात्मक विचारधाराका कबिने हृदयग्राही चित्रण किया है।
प्रासाद, नगर, वन, श्मशान, राजसभा एवं पूर्वभवावलीका ब्योरेवार चित्रण किया गया है। वर्णन-विविधताके साथ भावानुकूल भाषाका प्रयोग भी श्लाघ्य है । "बाणोच्छिष्टं जगत्सर्वम्' की उक्ति इस ग्रन्थके समक्ष झूठी प्रतीत होती है । कविने भाषाका प्रयोग रमणीय और भावोंके अनुसार दीर्घ समास एवं अल्प समासके रूपमें किया है। जहाँ विषय भाव-प्रधान मार्मिक अथवा गम्भीर होता है वहाँ शैली बड़ी हो सशक्त एवं प्रभावोत्पादक पायी जाती है। जब जीवन्धर अपने राज्यको पुनः प्राप्त करने के लिए काष्टांगारपर आक्रमण करता है, उस समय काष्ठांगारका रौद्र रूप दर्शनीय है यथा ----
"स रुष्टः काष्टांगारः क्रोधवेगस्फुरदोष्टपुटतया निकटवतिनो निजाह्वानकते कृतागमान्कृतान्तदूतानिव स्वान्तसन्तोषिभिः सान्त्वयन्वचोभिः नातिचिरभावि नरकावसश्रेभवदवतमसप्रचमिवात्मानं प्रतिग्रहीतुकाममागतं करालं कालमेघा भिधानं करिणमारुह्य रोषाशुशक्षणि विज़म्भमाणशोणेक्षणतीक्ष्णाचिश्मटा मन्नाङ्गतया सप्ताचिषि निमज्जयन्निजस्वामिद्रोहभावं विभावयितं सत्याप पन्निव सत्यन्धरमहाराजतनयाभिमुखमभोयाय । ......''''''
कवि जिस समय किसी उत्सव या बिलासका चित्रण करता है उस समय उसकी शैली अपेक्षाकृत क्लिष्ट एवं प्रगाढ़ हो जाती है। दीर्घकाय समास, विपुल वाक्य, विशिष्ट एवं दिलष्ट पदावली चित्रकान्यके समस्त साधनों को उपलब्ध कर देती है। जीवन्धरके जन्मोत्सवका चित्रण करता हुआ कवि कहता है---
"यस्मिश्च जातवति जातपिष्टातकमष्टिवर्षपिरित्तरिम्मखमन्मखकुरुन बामनहठाकृष्यमाणनरेन्द्राभरणं प्रणयभरप्रवृत्तवारयुतिबर्गबल्गनरणितमणि भूषणनिनदरित हरिदवकाश निमर्यादमदपरवापण्ययोपिदारलोपलज्जभानगज वल्लभं ' ' ' ' . '
१. गद्यचिन्तामणि, दशम लम्ब, प० २१९ ।
२. वही, प्रथम लम्ब, पृ० ४३ ।
वस्तुतः गद्यचिन्तामणिकाब्यका महत्व कथानकगठन, चरित्रचित्रण, वस्तु-विन्यास एवं रसोन्मेषमें है।
३. स्याद्वादसिद्धि
महाकवि' वादीसिंहकी एक तीसरी कृति स्याद्धादसिद्धिनामक न्यायरचना भी मानी जाती है। डॉ. प्रो दरबारीलाल कोठियाने इस कृतिका सम्पादन किया है और माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला बम्बई द्वारा यह प्रकाशित है । कोठियाजी ने इसे महाकवि वादीभसिंहकी रचना बतलायी है । पर मेरा विचार है कि यह काल माहाकवि वादीभसिंहकी न होकर अजितसेनकी है। अजितसेनको उपाधि वादीभसिंह थी और मल्लिषेण-प्रशस्तिके अनुसार ये ..दार्शनिक आचार्य थे। अतएव इस रचनाके कर्ता ओडयदेव वादीसिंह न होकरअजितसेन वादीसिंह हैं।
क्षत्रचुडामणि और गद्यचिन्तामणिको परम्परा इसमें उपलब्ध नहीं है। इन दोनों ग्रन्थोंके मंगलाचरणमें कबिने 'श्रीपति ' शब्दका प्रयोग किया है, पर स्याद्धादसिद्धिका मंगलाचरण उक्त दोनों ग्रन्थोंको मंगलाचरणशैलीसे भिन्न शैलीमें निबद्ध है।
तीसरी बात यह है कि 'गद्यचिन्तामणि' और 'क्षत्रचूड़ामणि' के अध्ययनसे वादीभसिंह के दार्शनिक और तार्किक ज्ञान पर कुछ भी प्रकाश नहीं पड़ता है। यदि ओडयदेव वादीभसिंह स्याद्धादसिद्धिके रचयिता होते तो इन रचनाओंमें दार्शनिक तथ्य अवश्य सम्मिलित रहते । अतएव स्याद्धादसिद्धिके रचयिता अजितसेन वादीभसिंह है, ओडयदेव वादीसिंह नहीं।
गुरु | आचार्य श्री पुष्पसेन |
शिष्य | आचार्य श्री वादीभसिंह |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
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