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#Vaadiraj10ThCentury
दार्शनिक, चिन्तक और महाकविके रूपमें वादिराज ख्यात हैं। ये उच्च कोटिके तार्किक होनेके साथ भावप्रवण महाकाव्यके प्रणेता भी हैं। इनकी बुद्धिरूपो गायने जीवनपर्यन्त शुष्कतकरूपी घास खाकर काव्य-दुग्धसे सहदम जनोंको तृप्त किया है। इनकी तुलना जैन कवियोंमें सोमदेवसूरिसे और इतर संस्कृतकवियोंमें नैषधकार श्रीहर्षसे की जा सकती है।
वादिराज मिल या द्रविड़ संघके प्राचार्य थे। इसमें भी एक नन्दिसंघ था, जिसकी अरुङ्गल शाखाके अन्तर्गत इनकी गणना की गयी है। अनुमान है कि
अरुङ्गल किसी स्थान या ग्रामका नाम है, जहाँकी मुनिपरम्परा अरुजालान्वय के नामसे प्रसिद्ध हुई है।
१. अध्यात्मतरंगिणी, तस्वानुमासनादिसंबहके अन्तर्गत , माणिकचंद दि ० जैनग्रन्थमाला , वि० सं० १९७५ ।
वादिराजको षट्तर्ककंषण्मुख, स्यावादविद्यापति और जगदेकमल्लवादी' उपाधियाँ थीं। एकीमावस्तोत्रके अन्समें निम्नलिखित पद्य पाया जाता है--
वादिराजमनुगाब्दिकलोको वादिराजमनुताकिसिंहः ।
वादिराजममुकाव्यकृतस्ते वादिराजमनुभव्यसहायः ।।
अर्थात् समस्त वैयाकरण, तार्किक और भव्यसहायक वादिराजसे हीन हैं, अर्थात् वादिराजको समता नहीं कर सकते हैं।
एक शिलालेखमें कहा गया है कि वे सभामें अकलंकदेव ( जैन ), धर्मकीर्ति ( बौद्ध ), बृहस्पति ( चार्वाक् ) और गौतम ( नैयायिक ) के तुल्य हैं। इससे स्पष्ट है कि वादिराज अनेक धर्मगुरुओंके प्रतिनिधि थे। ___
मस्लिषेणप्रशस्तिमें. वादि विजेता और कविके रूपमें इनकी स्तुति की गयी गयी है। इन्हें जिनेन्द्रके समान शक्तिशाली वक्ता और चिन्तकके रूपमें बताया गया है
त्रैलोक्य-दीपिका वाणी द्वाभ्यामेवोदमादिह ।
जिनराजत एकस्मादेकस्माद्वादिराजतः ।।
वादिराज श्रीपालदेवके प्रशिष्य, मत्तिसागरके शिष्य और रूपसिद्धिके कर्ता दयापाल मुनिके गुरुभाई थे | वादिराज यह नाम उपाधि जैसा प्रतीत होता है । सम्भवतः अधिक प्रचलित होनेके कारण ही कवि इस नामसे ख्यात हो गया होगा। ऐतिहासिक शोध और खोजके आधार पर कुछ विद्वानोंने कविका नाम कनकसेन बतलाया है। पर सबल तर्कों से इसकी सिद्धि नहीं हो पाती है । अतः अभी तक उक्त तथ्य मान्य नहीं हो सका है।
पार्श्वनाथचरितको प्रशस्ति में अपने दादागुरु श्रीपालदेवको "सिंहपुरैक
१. षटतर्कण्मुस स्वादावविद्यापति गलु अगदकमालवादिगलु एमिसिद श्रीवादिराज
देवरुम -श्रीराइस द्वारा सम्पाषित नगर तालुकाका इन्सक्रपनाम्स नं. ३६ ।
२. सदसि यमकला कीर्तने धर्मकीतिर्वचसि सुरपुरोषा न्यायवादेशपादः । इति समयगुरनामेकव: संगतानां प्रतिनिधिरिष देवो राजते वादिराजः ।।
-इन्सापास नं. ३९ ।
३. जैन शिलालेखसंग्रह , प्रथम भाग , अभिलेखसंस्था ५४, मल्लिषेणप्रशस्ति, पद्य ४० ।
४. हितैषिणा यस्य गुणानुवात-वाचानिबद्धा हित-रूप -सिद्धिः ।
वंघो दयापालमुनि:स वाचासितस्तताम्मूनि य: प्रभावै :॥ -वही , पद्य ३८ ।
५. Introduction of Yashodhar charitra, Dharwar Edition 1963,
page 5.
मुख्य;' कहा है और न्यायविनिश्चयको प्रशस्तिमें अपने आपको 'सिंहपुरेश्वर" लिखा है। इन दोनों पदोंका आशय सिंहपुरनामक स्थानके स्वामीसे है । अतः प्रेमीजीका अनुमान है कि सिंहपुर उन्हें जागीरमें मिला हुआ था और वहाँ पर उनका मठ भी था ।
श्रवणबेलगोलके शक संवत् १०४७ के अभिलेखमें वादिराजकी शिष्य परम्पराके श्रीपार; मनिधदेवणे होयगल नरेश विष्णुवर्धन मेगमलदेव द्वारा जिनमन्दिरोंके जीर्णोद्धार और मुनियोंके आहारदानके हेतु शल्यनामक ग्रामको दानरूप देनेका वर्णन है। शक सं०११२२ में उत्कीर्ण किये गये ४९५ संख्यक अभिलेखमें बताया गया है कि षट्दर्शन के अध्येता श्रीपालदेवके स्वर्गवासी होने पर उनके शिष्य वादिराजने परवादिमल्लनामका जिनालय निर्मित कराया था और उसके पूजन एवं मुनियोंके आहारदानके हेतु भूमिदान दिया था ।
उपर्युक्त कथनसे यह स्पष्ट है कि वादिराजकी गुरुपरम्परा मठाधीशोंकी थी, जिसमें दान लिया और दिया जाता था। ये स्वयं जिनन्दिरोंका निर्माण कराते, जीणोद्धार कराते एवं अन्य मुनियों के लिए आहारदानको व्यवस्था करते थे।
देवसेनसूरिके दर्शनसारके अनुसार द्रमिल या द्रविड़ संघके मुनि कच्छ, खेत, वसत्ति ( मन्दिर ) और वाणिज्यरूपमें आजीविका करते थे तथा शीतल जलसे स्नान भी करते थे। इसी कारण मिल संघको जैनाभास कहा गया है। कर्नाटक और तमिलनाड इस संघके कार्यक्षेत्र थे।
बादिराजसूरिक विषयमें एक कथा प्रचलित है कि इन्हें कुष्ठ रोग हो गया था। एक बार राजाकी सभा में इसकी चर्चा हुई, तो इनके एक अनन्य भक्तने अपने गुरुके अपवादके भयसे झूठ ही कह दिया कि उन्हें कोई रोग नहीं है। इस पर वाद-विवाद हुआ और अन्तमें राजाने स्वयं ही परीक्षा करनेका निश्चय किया । भक्त घबराया हुआ वादिराजसरिख पास पहुँचा और समस्त घटना कह सुनायी । गुरुने भक्तको आश्वासन देते हुए कहा--"धर्मके प्रसादसे ठीक होगा, चिन्ता मत करो" | अनन्तर एकीभावस्तोत्रकी रचना कर अपनी व्याधि दूर की।
१. सम्पादक डॉ महेन्द्रकुमार म्यायाचार्य, प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ काशी, सन्
१९५४ ई०, अन्तिम प्रशस्ति ।
२. प्रेमी -जैन साहित्य और इतिहास, बम्बई, द्वितीय संस्करण, पु. २९४ ।
३. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख संख्या ४९३ , पृ. ३९५ ।
४. धापविनिश्वविबरण, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, प्रस्तावना, पृ. ५९ -६१ ।
एकीभावस्तोत्रके संस्कृतटीककरण ..चन्द्रकीर्तिभटार्क ..उक्तग्रन्थको पूर्णरूपसे तो उद्धृत नहीं की है, पर जो अंश लिखा है, उससे कुष्ठ-व्याधिका संकेत मिलता है। बताया है-"मेरे अन्तःकरणमें जब आप प्रतिष्ठित हैं, तब मेरा यह कुष्ठ रोगाक्रान्त शरीर यदि सुवर्ण हो जाये, तो क्या आश्चर्य है।"
वादिराजने अपने ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों में रचना-कालका निर्देश किया है। ये प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के रचयिता प्रभाचन्द्र के समकालीन और अकलंकदेवके अन्योंके व्याख्याता हैं। कहा जाता है कि चालुक्य नरेश जयसिंहकी राज्यसभामें इनका बड़ा सम्मान था और ये प्रख्यात वादी गिने जाते थे। जयसिंह ( प्रथम ) दक्षिणके सोलंकीवंशके प्रसिद्ध महाराज थे। इनके राज्यकालके तीस से अधिक दानपत्र और अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं, जिनमें सबसे पहला अभिलेख शक संवत् ९३८ ( ई० सन् १०१६) का है और अन्तिम शक संवत् १६४( ई० सन् १०४२) का है। अतएव इनका राज्यकाल ई० सन् १०१६-१०४२ ई० तक है।
वादिराजने अपना पार्श्वनाथचरित 'सिंहचके श्वर' या 'चालुक्यचक्रवर्ती जयसिंहदेवकी राजधानी में निवास करते हुए शक संवत् ९४७ (ई० सन् १०२५) कात्तिक शुक्ला तृतीयाको पूर्ण किया था। यह राजधानी लक्ष्मीका निवास और सरस्वतीकी जन्मभूमि थी।
यशोधरचरितके तृतीय सर्गके अन्तिम पद्य और चतुर्थ सर्गके उपान्त्य पद्यमें कविने कौशलपूर्वक महाराज जयसिंहदेवका उल्लेख किया है। अतः इससे स्पष्ट है कि यशोधरचरितकी रचना भी कविने जयसिंहके समयमें की है। पाश्वनाथचरितकी प्रशस्तिके आधारपर जयसिंहकी राजधानी कट्टर नामक स्थान माना जाता है। यह स्थान मद्रास प्रान्तमें एक साधारण गांव है, जो बादामीसे बारह मील उत्तरकी ओर है।
१. हे मिन मम स्वान्तः गेहं ममान्तःकरणमन्दिरं त्वं प्रतिष्ठ सन् इदं मदीयं कुष्ठरोगा
का """एकीभाव, वृत्ति, श्लोक ४ ।
२. शाकाने नगाधिरन्ध्रगणमे संवत्सरे क्रोधने
. मासे कातिकनाम्नि इद्धिहिते शुद्ध तृतीयादिने । सिंहे याति जपादिके वसुमती जैनी कपेयं मया
निष्पोतं गमिता सती भवतु वः कल्याणनिष्पतये । पृ ०. ५ पद्य ।
डॉ. कीथने 'History of Sanskrit Literature' नामक ग्रन्थमें बताया है
"दक्षिणदेश निवासी कनकसेन वादिराज द्वारा रचित ऐसा ही काव्य है, जिसमें चार सर्ग और २९६ पद्य हैं। उनके शिष्य श्रीविजयका समय लगभग ९५०ई० है।"
इससे स्पष्ट है कि डॉ० कीथ वादिराजको सोमदेवसे पूर्ववर्ती मानते हैं और इनका समय दसवीं शतीका उत्तरार्द्ध सिद्ध करते हैं। हुल्त्स् ( Huiltzsth) ने लिखा है कि अजितसेन बादीसिंह वादिराज द्वितीयक शिष्य थे और यादवराज ऐरेयंग तथा शान्तराज तेलगुके ( सन् ११०३ ई.) गुरु थे। __ डॉ. कीथने जिन कनकसेन वादिराजका उल्लेख किया है, वे प्रस्तुत वादिराज से भिन्न काई वादिराज है। हुस् ..द्वारा विद्रिष्ट भी पार्श्वनाथचरित के रचयितासे भिन्न ही कोई अन्य व्यक्ति है। प्रस्तुत वादिराज जगदेकमरूल द्वारा सम्मानित हुए थे, अतः इनका समय सन् १०१० से १०६५ ई० प्रतीत होता है। यतः जगदेकमाल्लका समय अनुमानतः सन् १०१८-१०३२ ई. के बीच होना चाहिये ।
पार्श्वनाथचरिसके अतिरिक्त यशोधरचरित, एकीभावस्तोत्र,न्यापविनिश्चय विवरण और प्रमाणनिर्णय रचनाएँ भी वादिराजकी प्राप्त हैं।
महाकाव्यकी दृष्टि से वादिराजका पाश्र्वनाथचरित श्रेष्ठ काव्य है । इसमें बारह सर्ग हैं । कथावस्तु निम्न प्रकार है।
पोदनपुरमें अरबिन्दनामका एक अत्यन्त प्रतापी एवं श्रोनिलय सजा रहता था। यह नगर समृद्ध और महिमामण्डित था। राजा दानी, कृपालु और यशस्वी था । मन्त्री विश्वभूति विलक्षण गुणयुक्त था । उसने एक दिन राजासे निवेदन किया कि अब संसारके विषय-भोगोंसे मुझे वितृष्णा हो गयी है, अत: आत्मकल्याण करनेकी अनुमति प्रदान कीजिए । विश्वभूतिके प्रवजित होनेपर राजाने उसके छोटे पुत्र मरुभूतिको मन्त्री नियुक्त कर लिया। विश्वभूतिके बड़े पुत्रका नाम कमठ था।
एक समय वजवीर नामक प्रान्तिक शत्रु अरविन्दका विरोध करने लगा। उसे पराजित करनेके लिए अरविन्द के साथ मरुभूतिको भी जाना पड़ा और उसके बड़े भाई कमठको राजाने मन्त्रीपद पर प्रतिष्ठित किया । जब अरविन्द अपनी चतुरंगिणी सेना लेकर चला, तो वजवीरने भी सैनिकतैयारी की, पर उसकी सेना अरबिन्दकी सेनाके समक्ष ठहर न सकी और विजयलक्ष्मी अरविन्द
१. History of Sanskrit Literature (Oxford 1928 ), Page 142.
२. Introduction of Yashodhar charita | Dharwar 1963) P. 7.
को प्राप्त हुई । वह विजयपताका फहराता हुमा अपने नगरमें लौट आया।--प्रथमसर्ग।
मन्त्रिपद प्राप्त करने के उपरान्त कमठने अपने छोटे भाई मरुभूतिकी पत्नी वसुन्धराको देखा । वह उसके रूप-सौन्दर्यसे अत्यधिक आकृष्ट हुआ, अतः उसके अभावमें उसके प्राण जलने लगे। मदनज्वरने उसे धर दबाया। कमठके मित्रोंको चिन्ता हुई और एक मित्रने वास्तविक तथ्य जानकर वसुन्धराको कमठकी बीमारी का समाचार देकर बुलाया । वसुन्धरा कमठको देखते ही उसके विकारोंको जान गयी, उसने कमठ के अनाचारसे बचनेका पूरा प्रयास किया। पर अन्त में बाध्य होकर उसे कमठ की बातें स्वीकार करनी पड़ी।
राजा अरविन्दको वापस लौटने पर कमठके दुराचारका पता चला, तो उसने उसे नगरसे निर्वासित कर दिया। कमठ तापसियोंके आश्रम मे गया और वहाँ उसने तपस्वियोंके व्रत ग्रहण कर लिये । मरुभूति भाईको बहुत प्यार करता था, अत: वह उसको खोजने लगा । राजा अरबिन्दने मरुभूति को कमठके पास जानेसे बहुत रोका, पर भ्रातृ-बात्सल्य के कारण वह रूक न सका । कमठ भूताचल पर्वत पर तपस्या कर रहा था। मरुभूतिको आया हुआ जानकर उसने पहाड़ की एक चट्टान उसके ऊपर गिरा दो, जिससे मरुभूतिका प्राणान्त हो गया। इधर पोदनपुरमें स्वयंप्रभ नामके मुनिराज पधारे । राजा उनकी बन्दनाके लिए गया ।--द्वितीय सर्ग ।
वन्दना करनेके उपरान्त अरविन्दने मुनिराजसे मरुभूतिके सम्बन्धमें पूछा । मुनिराजने कमठ द्वारा प्राणान्त किये जाने की घटनाफा निरूपण करते हुए कहा कि मरुभूतिका जीव सल्लकीवनमें वचषोष नामका हाथी हुआ है । जब आश्रम वासियोंको कमठको उद्दण्डता और नृशंसताका पता चला तो उन्होंने उसे आश्रमसे निकाल दिया । अतएव वह दुःखी होकर फिरातोंके साथ जीवन व्यतीत करने लगा । जीव -हिंसा करनेके कारण उसने भी सल्लकीवनमें कृकवाकु नामक सर्पपर्याय प्राप्त की। मरुभूतिकी माता पुत्रवियोगके दुःखसे मरण कर उसी बनमें बानरी हुई।
अरविन्दनृपति मनिराज से उक्त वृत्तान्त सुनकर विरक्त हो गया और उसने मुनिव्रत धारण किये । मुमिराज अरविन्द अपनी बारह वर्ष बायु अवशिष्ट जानकर सीर्षवन्दनाके लिए ससंघ चल दिये । मार्ग में उन्हें समलकोवन मिला । मनुष्यों के आवागमन एवं कोलाहलको देखकर वज्रघोष बिगड़ गया और लोगोंको कुचलता हुआ आगे आया। जब उसने अरविन्द मुनिराजको देखा तो उसे पूर्वजन्मका स्मरण हो आया और उनके चरणों में स्थिर हो गया । अवधिज्ञानके बलसे मुनिराज ने उसे मरुभूतिका जीब जानकर सम्बोधित किया। बचघोषको सम्यक्त्व उत्पन्न हो गया और मिरतिचार ब्रत पालन करने लगा। संघ सम्मेदाचलकी ओर चला गया । तपश्चरणके कारण बच्नघोष हाथी कृश हो गया । एक दिन वह जल पीने के लिए एक जलाशयमें गया और वहाँ अपनी शारीरिक दुर्बलताके कारण पंकमें फंस गया। कृकबाकुने जब हाथीको देखा तो पूर्वजन्मके वैरके स्मरण हो आनेसे उसे मस्तकमें डस लिया, जिससे हाथीकी मृत्यु हो गयी । मृत्युके समय हाधीके परिणाम बहुत ही शुभ रहे, जिससे वह महाशुक्र स्वर्गके स्वयंप्रभ विमानमें देव हुआ । इधर वानरीने सर्पके उस कुकृत्यको देखकर पत्थर की चट्टान गिरा कर उसे मार डाला, जिससे वह नरक गया स्वर्गक वैभवको देख कर तथा अवधिज्ञानसे अपने उपकारीको जानकर उसने भूमिपर अरविन्द मुनिके चरणों की पूजा की । पश्चात् स्वर्ग में रहकर दिव्य सुख भोगने लगा। .--तृतीय सर्ग ।
विजयार्थ पर त्रिलोकोत्तम नामक नगर है । इस नगरका स्वामी विद्युद्वेग नामका विद्याधर था । इसकी पत्नी विद्युन्माला नामकी थी । इस दम्पतिके यहाँ मरुभुतिका जीव स्वर्गसे व्युत हो रश्मिवेग नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। वह अति तेजस्वी और सुन्दर था । एक दिन पूर्वजन्मका स्मरण हो जानेसे वह विरक्त हो गया और समाधिगुप्त नामक मुनिके पास जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली । एक दिन मुनिराज रश्मिवेग हिमालय पर्वतको गुफामें कायोत्सर्ग कर रहे थे कि कमठका जीव अजगर, जो कि नरकसे निकलकर अजगर पर्याय में आया था, उनपर झपटा और उनके मस्तकमें काट लिया । मुनिराज ने इस असह्य वेदना को बहुत शान्तिपूर्वक सहन किया, जिससे उन्हें अच्युत स्वर्गकी प्राप्ति हुई । यहाँ वे विद्युत्प्रभके नामसे प्रसिद्ध हुए । उस अजगरने भी मरकर तमप्रभा नामक छठी भूमिमें जन्म ग्रहण किया ।
पश्चिम विदेहके अश्वपुर नामक नगरमें वज्रवीर्य शामन करता था। इसकी पत्नी विजया नामकी थी। कालान्तरमें विद्युत्प्रभ स्वयंसे च्युत हो बिजयाके गर्भसे वज्रनाभ नामका पुत्र हुआ। - चतुर्थ सर्ग ।
वज्रनाभ धीरे-धीरे बढ़ने लगा और कुछ ही समय में अस्त्र-शस्त्रमें पारंगत हो गया ! बादमें वह युवराजपद पर प्रतिष्ठित हुआ। बसन्तादि षड् ऋतुओं का आनन्द लेता हुआ वज्रनाभ समय यापन करने लगा। एक दिन किमीने आकर आयुधशालामें चक्ररत्न उत्पन्न होनेकी सूचना दी। -पंचम सर्ग ।
वज्रनाभ चक्ररत्नकी पूजा की और याचकोंको यथेष्ट दान देकर वह दिग्विजयके लिए तैयारियां करने लगा। उसने दिग्विजयके लिए प्रस्थान किया। चक्रवर्ती वज्रनाभ का प्रथम स्कन्धावार सीतोदा नदीके तटपर अवस्थित हुआ !चक्रवर्ती, सेनापति,सामन्त और अन्य राजाओंने अपने-अपने योग्य निवासस्थान का चयन किया -षष्ट सर्ग |
चक्रवर्तीकी सेनाने नदोको पार किया और बारह योजन जानेपर चक्रवर्ती का रथ रुक गया। आकाशभाषित वाणी सुनकर उसने मागध व्यन्तरके पास बाण छोड़ दिया । उसे देख व्यन्तर क्रोधाविष्ट हो गया और उसकी सेना युद्ध के लिए सन्नद्ध हो गयी । एक वृद्ध पुरुषने मागधको समझाया कि बलशाली पुण्यात्माओंसे विग्रह करना उचित नहीं है। उनसे सन्धि करनेपर ही लाभ होता है । अत: मागध देव बहुत-सी अमूलय वस्तुएं लेकर चक्रवर्तीकी सेवामें उपस्थित हुआ । वहाँसे चक्रवर्ती सिन्धु नदीके घाटीमें प्रविष्ट हुआ तथा वरतनु देवको अपने अधीन किया । अनन्तर चक्रवर्तीकी सेना विजयापर पहुंची। इस पर्वतका शासन करनेवाले विजयाकुमारने नर्मीभूत हो चक्रवतीको पूजा को और अनेक वस्तुएँ भेट दी। कृतमालदेवने चौदह आभूषण दिये और गुहाका द्वार खोलनेकी विधि बतलायी। गुहाके भीतर प्रविष्ट होकर सेनापतिने म्लेच्छों को जीत लिया। वहाँसे चलकर वह वृषभाचल पर आया। विद्याधरोंको परा जित कर विद्याधरकुमारियोंका पाणिग्रहण किया। इस प्रकार षट्सपड़की विजय कर वह अश्वपुर नगरमें वापस आया। -सप्तम सर्ग !
वज्रनाभ छयानबे हजार रानियाँ, चौरासी लाख हाथी, अठारह करोड़ घोड़े और इतने ही सवार थे। एक दिन वह राजा बनमालीसे प्रार्थित हो वसन्त की शोभा देखने गया। इस प्रसंगमें कविने वसन्तका बड़ा सुन्दर वर्णन किया है । जब चक्रवर्ती वन से वापस लौटने लगा, तो वसंती समाप्त हो चुकी थी । सर्वत्र प्रकृति में उदासी छायी हुई थी। इस परिवर्तनको देखकर राजाको वैराग्य उत्पन्न हो गया और उसने राज्यभार अपने पुत्रको सौंप दिया । क्षेमंकर मुनिके पास जाकर उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। कमठका जीव उसी वनमें कुरंग नामका किरात हुआ, जिस वन में वज्रनाभ तपस्या कर रहे थे। उस किरातने समाधिस्थ मुनिके ऊपर बाण चलाया, जिससे वे धराशायी हो गये। समाधिपूर्वक शरीर छोड़नेसे चक्रवर्ती मुनिराजने मध्य प्रवेयकमें अहमिन्द्रका शरीर प्राप्त किया। मुनिराजका अन्त करनेवाले उस भीलने सप्तम नरकमें जन्म ग्रह्ण किया । चक्रवर्तीका जीव मध्य प्रवेयकसे च्युत्त हो अयोध्या नगरीके बच्चबाहु राजाकी प्रभाकरी नामक रानीके गर्भ में आया । जन्म लेनेसे समस्त प्रजाको आनन्द हुआ । अतएव राजाने उसका नाम आनन्द रखा । युवा होनेपर राजाने आनन्द को राज्याधिकार दे दिया। आनन्दने राज्यलक्ष्मीको समृद्ध बनाया – अष्टम सर्ग।
आनन्दने समस्त मंगलोंका उत्पादक जिनयज्ञ आरम्भ किया । उसे देखनेके लिए सद्गुण-सम्पन्न दृढमूर्ति मुनि भी आये । राजा आनन्द जिनमहोत्सब करता हुआ निवास करने लगा । एक दिन अपने श्याम केशोंमें एक श्वेत केशको देख कर उसे विरक्ति हो गयी और अपने पुत्रको राज्य देकर वह वनमें तपश्चरण करने चला गया। मुनि आनन्द तपस्यामे लीन था कि कमलके जीव सिंहने देखा । पूर्वजन्मके वैर का स्मरण कर उसने मुनिपर आक्रमण किया । शान्ति और समाधिपूर्वक मरण करनेसे आनत स्वर्ग में अहमिन्द्र हुआ । छ: मास आयुके शेय रहने पर वाराणसी नगरीमें रत्नोंकी वर्षा होने लगी। महाराज विश्वसेन को महिषी ब्रह्मदत्ताने सोलह स्वप्न देखे । प्रातः पति से स्वप्नोंका निवेदन किया । पतिने उन स्वप्नोंका फल त्रिलोकीनाथ तीर्थकरका जन्म बतलाया । - नवम सर्ग ।
ब्रह्मदत्ताने जिनेन्द्र को जन्म दिया ! चतुनिकायके देवजन्मोत्सव सम्पन्न करने आये । इन्द्राणी प्रसूति गृहमें गयी और मायामयी बालक माता के पास सुलाकर जिनेन्द्रको ले आयी और उस बालकको इन्द्रको दे दिया। इन्द्रने सुमेरु पर्वतपर जन्माभिषेक सम्पन्न किया और पार्श्वनाथ नामकरण किया । पार्श्वनाथ का बाल्यकाल बीतने लगा | जब वे युवा हुए तो एक दिन एक अनुचरने आकर निवेदन किया कि एक साधु वन में पंचाग्नि तप कर रहा है । पार्श्वनाथ ने अवधि ज्ञानसे जाना कि वह कमठका ही जीव मनुष्य पर्याय पाकर कुतप कर रहा है। वे उस तपस्वीके पास पहुंचे और कहा कि तुम्हारी यह तपस्या व्यर्थ है। इस हिसक तपसे .-कर्म -निर्जरा नहीं हो सकती है। तुम जिस लकड़ीको जला रहे हो उसमें नाग-नागिन जल रहे हैं। अतः लकड़ीको फाड़कर नाग-नागिन निकाले गये । पार्श्वनाथ ने उन्हें णमोकार मन्त्र सुनाया, जिससे उन नाग-नागिनने धरेंद्र और पद्मावती के रूपमें जन्म ग्रहण किया । धरेंद्र -पदमावतीने आकर पार्श्वनाथकी पूजा की। -दगमसर्ग।
पार्श्वनाथकी सेवामें अनेक राजा कन्या रत्न लेकर आये । महाराज विश्व सेनने उनसे निवेदन किया कि विवाह कर गृहस्थजीवन व्यतीत कीजिए। पार्श्वनाथने विवाह करने से इनकार कर दिया और वे विरक्त हो गये । लौ कान्तिक देवोंने आकर उनके बैराग्यको उत्पतिपर पुष्पवृष्टि की। पार्श्वनाथने पंचमुष्टि लोंच कर दीक्षा ग्रहण की। उन्हें दूसरे ही क्षण मनःपर्ययज्ञान प्राप्त हो गया। उपवासके पश्चात् जुल्ममेदनगरके राजा धर्मोदय यहाँ ..पार्श्नाथ ने पायसानका आहार ग्रहण किया । वन में आकर प्रतिमा-योगमें अवस्थित हो गये । कमटका जीव भतानन्द देव आकाश मार्गसे जा रहा था। तीर्थकरके प्रभावसे विमान रुक गया। वह विमान रुकनेके कारणकी तलाश कर ही रहा था कि उसकी दृष्टि पार्श्वनाथ पर पड़ी । उसने पूर्वजन्मका स्मरण कर वाणवृष्टि की, पर बह तीर्थङ्करके प्रभावसे पुष्पवृष्टि बन गयी। धरणेन्द्र-पद्मावती को जब भूत्तानन्दके उपद्रवों पता लगा, तो दोनों तत्क्षण यहाँ आये और प्रभुके उपसर्ग का निवारण किया। भगवानने शुक्ल-ध्यान द्वारा चातियाकर्मोको नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त किया । देवोंके जय-जयनादको सुनकर भूतानन्द आश्चर्यचकित हो गया और वह तीर्थंकरों की स्तुति करने लगा। .. एकादश सर्ग
इन्द्रकी आज्ञासे कुबेरने समवशरणकी रचना की । तिर्यञ्च, मनुष्यादि सभी भगवान्का उपदेश मुनने लगे । मानव-कल्याणका उपदेश सुनकर सभी प्राणी सन्तुष्ट हुए। रत्नत्रय और तत्त्वज्ञानकी अमृतवर्षा हुई। पश्चात् एक महीने का योगनिरोध कर ावतीयकर्मो का भी नाश किया और निर्वाण-लक्ष्मी प्राप्त की। -- द्वादश सर्ग
पार्श्वनाथकी परम्परा-प्रसिद्ध कथावस्तुको ही कविने अपनाया है। यह कथावस्तु उत्तरपुराणमें निबद्ध है। संस्कृत भाषामें कान्य रूपमें पार्श्वनाथ .चरितको सर्वप्रथम गुम्फित करनेका श्रेय बादिराजको ही है । इनसे पूर्व जिन सेन द्वितीय (ई० सन् ९ वी शती) ने पार्श्वभ्युदय में इस चरितको संक्षेपमें निबद्ध किया है। समग्र जीवनकी कथावस्तु वहाँ नहीं आ पायी है। अपभ्रंश पद्म कीर्तिने वि० सं० १९.२ (ई. सन् ९३५ ) में १८ सन्धियोंमें पासणाहचरिउको रचना अवश्य की है। कवि वादिराजने उक्त अपभ्रंश 'पासणाहूचरित्र का अध्य यन किया हो, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । वि० सं० ११८९ (ई० सन् ११३२) में श्रीधरने १२ सन्धियों में अपभ्रश भाषामें एक अन्य ‘पासणाहरिउकी रचना की है । संस्कृत भाषामें (ई सन् १२१९) माणिक्यचन्द्र द्वारा और सन् १२५५ ई०में भावदेवसूरि द्वारा पाश्र्वनाथचरित नामक काब्य लिखे गये हैं। प्राकृत भाषामें पार्श्वनाथचरितका गुम्फन सर्वप्रथम अभयदेवके प्रशिभ्य देवभद्रसूरि द्वारा वि० सं० १९६८ (ई० सन् १९९१) में किया गया है । अत: काब्य रूपमें अपभ्रंश के पासणाहरिउके पश्चात् संस्कृतमें वादिराजका ही चरितकाव्य उपलब्ध होता है । कथावस्तुका मूल स्रोत तिलोयपपणत्ती', 'चउपन्नमहापुरिस चरिय' (वि० सं० ९२५ , ई० सन् ८६८) एवं उत्तरपुराण (सक सं० ८२०, ई० सन् ८९.८) हैं। उत्तरपुराणमें बताया गया है कि पार्श्वनाथ युवक होने पर क्रीड़ा करने वनमे गये । यहाँ उन्हें महीपाल नामक तापस पंचाग्नि तप करते मिला । यह पाश्र्वनाथका मातामह था। चउम्पन्नमहापुरिसरियमें यही कथानक इस
१. उत्तरपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, ७३ पर्व, पृ ० -४२१-४४२ ।
प्रकार आया है कि एक दिन पार्श्वनाथ अपने भवनके ऊपरी भाग पर बैठे हुए, थे । उन्होंने देखा कि नगरके लोग नगरसे बाहर चले जा रहे हैं । पूछने पर पता चला की कमठ नामक साधु ..नगरी के बाहर आया है ! वह महान तपस्वी है । लोग उसकी वन्दनाके लिए जा रहे है । पुष्पदन्तने अपने महापुराणमें उत्तरपुराणके अनुसार ही कथानक लिखा है, पर इस काव्यमें बताया गया है कि सभामै एक पुरुषने आकर सूचना दी कि नगरके बाहर एक मुभि आया है जो पंचाग्नि तप कर रहा है। अनुचरके वचन सुनकर पार्श्वनाथने अपने अवधिज्ञानसे जाना कि कमलका जीव नरक से निकलकर तप कर रहा है। वे वहाँ पहुँचे और उन्होंने हिंसक तप करने से उसे रोका और अधजले नाग-नागिनको णमोकार मन्त्र सुनाया।
उपर्युक्त कथानकको कविने उत्तरपुराणसे ज्यों-का-त्यों नहीं लिया है। अपनी कल्पनाका भी उपयोग किया है। इसी प्रकार पार्श्वनाथ पर उपसर्ग करने वालेका नाम उत्तरपुराण और पुष्पदन्तके महापुराणमें सम्बर आया है, जबकि इस महाकाव्यमें भूतानन्द नाम बताया है। भगवान् पार्श्वनाथ को आहार देने वाले राजाका नाम उत्तरपुराणमें धन्य बताया है, जबकि इस काव्यमें धर्मोदय नाम आता है । इस प्रकार कथावस्तुका चयन परम्परा-प्राप्त ग्रन्थोंसे किया गया है।
कथावस्तुका गठन सुन्दर हुआ है। शैथिल्य नहीं है। श्रृंगारिक वर्णन .कथावस्तुको सरस बनाने में सहयोगी है । पूर्वभवोंकी योजनाने घटनाओंको विश्रुललित नहीं होने दिया है । कविका मन मरुभूतिके पश्चात् वज्रनाम चक्रवती के जन्मकी घटनाओंके वर्णनमें अधिक रमा है । सभी घटनाएं श्रंखलाबद्ध हैं। कई जन्मोंके आख्यानोंको एक सूत्र में आबद्ध करनेका सफल प्रयास किया गया है। यद्यपि अनेक जन्मोके आल्याम-वर्णनसे पाठकका मन ऊब जाता है और उसे अगले जन्मसे सम्बन्ध जोड़ने के लिए भवाबलिको स्मरण रखना पड़ता है, तो भी कथामें प्रवाहकी कमी नहीं है। समस्त कथानक एक ही केन्द्रके चारों ओर चक्कर लगाता है। एक मनोवैज्ञानिक त्रुटि यह दिखलाई पड़ती है कि कमठ कई भवों तक एकान्तर वैर करता रहता है, जबकि मरुभूतिका जीव सदेव उसकी भलाई करता है। कभी भी वैर-विरोध नहीं करता । अन्तिम पार्श्वनाथ भवमें भी वह कष्ट देता है। पार्श्वनाथको केवलज्ञान होनेपर ही उसका विरोध शान्त होता है ! अतः इस प्रकारका एकाकी विरोध अन्यत्र बहुत कम माता है । 'समराइच्चकहा' में समरादित्यका वैर-विरोध भी अग्नि शर्माके साथ नौ भबों तक चला है। हाँ, अग्निशर्माको गुणसेनके भवमें समरादित्य अवश्य कष्ट देता है और उसको चिढ़ाता है। अतः रुष्ट होकर अग्निशर्मा निदान करता है और नौ भवों तक वैर-विरोध चलता रहता है। पार्श्वनाथचरितमें भी इस प्रकारका बैर-विरोध पाया जाता है । मरुभूति कमठसे अपार स्नेह करता है, पर कमठ उसके निश्छल प्रेमको आशंकाको दृष्टिसे देखता है । अन्विति-मुण कथावस्तुमें निहित है।
शास्त्रीय लक्षणों के अनुसार पार्श्वनाथचरित महाकाव्य है। इसमें १२ सर्ग हैं और मंगलस्तवनपूर्वक काब्यका आरम्भ हुआ है । नगर, वन, पर्वत, नदियाँ, सम, उषा, सध्या, रजनी, चन्द्रोमय, प्रभास आदि प्राकृतिक दृश्योंके वर्णन, जन्म, विवाह, स्कन्धावार, सैनिक अभियान, युद्ध, सामाजिक उत्सव, श्रृंगार , करुण आदि रस, हाव-भाव बिलास एवं सम्पत्ति-विपत्तिमें व्यक्तियोंके सुखःदुखों के उतार-चढ़ावका कलात्मक वर्णन पाया जाता है। तीर्थकरके चरित्रके अति रिक्त राजा-महाराजा, सेठ-साहकार, किरात-भील, चाण्डाल आदिके चरित्र चित्रणके साथ पशु-पक्षियोंके चरित्र भी प्रस्तुत किये गये हैं । व्यक्ति किस प्रकार अपने चरित्रका विकास या पतन अनेक जन्मोंमें करता रहता है, इसका सुन्दर निरूपण किया गया है।
पार्श्वनाथचरित्र मे सुन्दर रस-भावपूर्ण उक्तियोंके साथ विभिन्न संवेगोंका चित्रण आया है। समस्त श्रेष्ठ कवियोंने अपने काब्यको कलात्मक कल्पना और भावनवण बनानेके लिए नवरसोंका समाहार किया है। प्रस्तुत काव्य का अंगी रस शान्त है और अंग रूपमें श्रृंगार , करुण, वीर, भयानक, बीभत्स और रौद्र रसोंका नियोजन पाया जाता है। श्रृंगार ४}६४, ,८|२०, ८|३४,८|३१॥८1४०, २|१२, २|१३, २|१६ एवं २|१७ में विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावके साथ आया है। करुणरस २|६२ में समाहित है। भयानकरस ३|६६ और ३|६७ में पाया जाता है। रौद्ररस ७|५४, ७|५५, ७|५८ और ७|५९ में वर्तमान है। वीररस शताधिक पद्योंमें आया है। ७|६५, ७।६६, ७|७०, ७|१२० एवं ७|१२१ में बीररसका परिपाक बहुत ही सुन्दर हुआ है । शान्तरस का नियोजन इस काव्यमें अनेक स्थानोंपर हुआ है।
चरित्रचित्रणकी दृष्टिसे भी यह महाकाव्य सफल है। नायक पार्श्वनाथका चरित्र अनेक भावोंके बीच उन्नतिशील होकर एक आदर्श उपस्थित करता है । प्रतिनायक कमठ ईर्ष्या -द्धेष , हिंसा एवं अशुभ रागात्मक प्रवृत्तियों के कारण अनेक जन्मोंमें नाना कष्ट भोगता है। नायक सदा प्रतिनायकके प्रति सहानु भूति रखता है। मरुभूतिके भवमें भात-वात्सल्यका बैसा उदाहरण मिलना कठिन है। प्रकृतिचित्रण और अलंकारयोजनाकी दृष्टिसे भी यह काव्य सफल
है। इस काव्यमें उपमालंकारको योजना ४/५४, ५।२७, ५२९९, ८/५२, २०२७, २१३४, २२९९, २।२३, १०१६, १७।११, १२११, ११५१, १११७१, १२०, ११३४, ४।४, ४११८, ४।१११ एवं ७५९ में पायी जाती है। उत्प्रेक्षा २०१०७, महाक २४१, अर्थान्तरन्यास ११४५, अतिशयोक्ति ८९८, उदाहरण ९।६, दृष्टान्त ११३, विभावना १२५, तुल्ययोगिता १३९४, असंगति २८, सन्देश ६।१०', भ्रान्तिमान ३१७३, समासोषित २२११४, कायलिङ्ग ३१२४, विशेषोक्ति १०, श्लोष २६, अनुप्रास ४५२ और यमककी ३२७, ३२३६ एवं ३१.५९, में योजना पायी जाती है।
भाव एवं रसका निरूपण करने वाली प्रसादगुणसम्पन्न, सरल भाषामें भावानुसार शब्दावलीका प्रयोग कर वादिराजने पार्श्वनाथचरितमें सरस शैली का प्रयास किया है। कान्यके सम्बन्धमें कविकी स्वयं मान्यता है
अल्पसारापि मालेव स्फुरन्नायकसद्गुणा 1
कण्ठभूषणतां याति कवीनां काव्यपद्धतिः ।। १।१५ ।।
अल्पसमास और श्रेष्ठ-गुण-पूर्ण नायक ही काव्यके उत्तम होनेका कारण होता है। वर्ग-योजना, शब्द-गठन, अलङ्कार-प्रयोग, भाव-सम्पत्ति एवं उक्ति वैचित्र्य प्रभृति शैलीको समस्त तत्त्व इनके काव्यमें पाये जाते हैं। कविने शैली को सरस और आकर्षक बनाने के लिए मुक्ति-वाक्योंका भी प्रयोग किया है। ऋतुवर्णन-प्रसंगमें लम्बे समासोंका भी प्रयोग आया है। अत: पंचम, षष्ठ और अष्टम सर्गोको वैदर्भी और गौड़ीके मध्यकी पाञ्चालीमें निबद्ध माना जा सकता है । सामान्यतः इस काव्यको वैदर्भी शैलीका काव्य मानना उपयुक्त है।
कविने अपने पूर्ववर्ती आचार्योंका भी स्मरण किया है । १।१६ में गद्धपिच्छ, १।१७-१८ में समन्तभद्र, श२७ में अकाल, शर१ में बादिसिंह, शर में सन्मति, १३ में जिनसेन, श२४ में अनन्तकीति, १२५ में पाल्यकोति, श२६ में धनञ्जय, १२७ में अनन्तवीर्य, १२८ में विद्यानन्द, १२९ में विशेषवादि
और १।३० में बोरनन्दीका स्मरण आया ।
यशोधरचरित हिंसाका दोष और अहिंसाका प्रभाव दिखलानेके लिये बहुत लोकप्रिय रहा है। कवि वादिराजने इसी लोकप्रिय कथानकको लेकर प्रस्तुत कान्यकी रचना की है । इस काव्यमें चार सर्ग हैं । प्रथम सर्गमें ६२ पद्य, द्वितीय में ७५, तृतीयमें ८३ और चतुर्थ में ७४ पद्य हैं। यशोधरचरिषकी कथावस्तु यशस्तिलकचम्पूको कथावस्तु ही है। अतएव कथावस्तुको पुनरावृत्त करना निरर्थक है।
काव्यगुणोंको दृष्टि से यह यशोधरचरित समृद्ध काव्य है। रस, अलंकार एवं उक्ति-वैचिश्यका समावेश है। कथावस्तुमें मर्मस्पर्शी स्थलोंकी योजना भी वर्तमान है। कवि सन्ध्याका चित्रण करता हुआ कहता है-"भवनमें सुगन्धित धूप जलायी जा रही है, इसकी गन्धसे समस्त नगर सुगन्धित हो उठा है । भवनोंने बातायनोंसे कबूतरोंके पंख का रंग लिये हा धाँके पिण्ड-के-पिण्ड निकलने लगे। उस समय प्रज्वलित रत्न-प्रदीपोंकी लाल-लाल कान्तिस धुनि पिण्ड कुछ रक्त और कुछ पीत हो उठे । मनको प्रसन्न करने वाली सुगन्धिसे मस्त होकर लोग प्रफुल्लित चमेलीके पुष्पोंको भी तुच्छ दृष्टिसे देखने लगे।" यथा--
वहन् बहिश्चारुगवाक्षरध
रामोदितान्तर्भबनस्तदानीम् ।
कपोतपक्षच्छविरुज्जजम्मे
निहारिकालागरुपिण्डधूमः ।।
आताम्रकम्रद्युतिरत्नदीपै
स्वस्मिन् जना. पाटल्यमानान् ।
व्याकोशमल्लीकुसुमानि दाम्ना
मवाममस्तन्नवसौरभेण ।।
भवनोंके बातायनोंसे निकलने वाले धूम्रमें कवि गृहदेवताकी सुगन्वित वासका आरोप करता हुआ कहता है
आवर्तमानः परिमन्दवृत्त्या
वातायनद्वारि चिरं विरजे ।
कर्पूरधूलीसुरभि भस्वान्
श्वासायितस्तद्गृहदेवता हि ।।
भवनोंके वातायनोंपर पहुँचनेपर उनमेंसे निकलते हुए धूम्रके छोटे-छोटे कणोंसे उसकी और ही शोभा हो गयो । बह ऐसा प्रतीत होता था, मानों गृह देवताको सुगन्धित श्वास हो ।
व्यंजनावृत्तिका भी कवि ने उपयोग किया है । कुब्जकके साथ दुराचार करने के अपराध महाराज यशोधर अमृतमतीको मार डालना चाहता था, पर स्त्री बधको अपयशका कारण मानकर उसने उसे मारा नहीं। प्रातःकाल होनेपर
१. यशोधरचरित, पारवाई संस्करण, २|२३-२४ ।
२. वहीं, रा२५ ।
यशोधरने अमतमतीको हँसीमें एक पुष्पसे मारा, जिससे बह मूच्छित हो गयी। शीतलोपचारके पश्चात् दयालु राजा कहने लगा
अनेन रम्नेषु रसच्युता ते ।
कृष्णाननेनाद्य निपीडिताया: ।
दवन केनापि पर विदग्धे
निवारितः संनिहितोऽपि मृत्युः ।।
इस रसील, पर कृष्णमुख कमला ने आज तुम्हें बड़ा कष्ट पहुंचाया । यह बहुत कुशल हुई, जो किसी पूर्वकर्मने तुम्हें आज मृत्युके मुखसे बचा लिया-पास आये हुए मरणको टाल दिया ।
व्यंजनावृत्ति द्वारा रानी अमृतमतीक दुराचारकी बात कह दी गयी है और यह भी ब्यक्त कर दिया है कि आज रात्रिमें तुम्हारी मृत्यु इस खासे हो गयी होती, पर किसी शुभोदयने मृत्युसे तुम्हारी रक्षा कर ली है।।
चतुर्थसर्ग में वसन्त, पुष्पावचय एवं वनविहारका सरस चित्रण किया है। कविने यहाँ वसन्तवीमें मानव-भावनाओंका आरोप कर विभिन्न प्रकारकी संवेद नाओंको अभिव्यक्ति की है। बबिहारके समय महारानियोंकी लतासे तुलना की गयी है और उनमें लताके समस्त गुणोंका दर्शन कराया है। यथा--
निकामतन्वयः प्रसवः सुगन्धय:
तदा दधानास्तरलप्रवालताम् ।
इतस्ततो जग्मुरिलापतेः स्त्रियो
लतास्तु न स्थावरतां वित्तत्यजुः ।।
बसन्तविहारके समय राजमहिषयाँ लताके समान श्रीको धारण कर रही थों | अन्तर इतना ही था कि लताएं अपने स्थान पर ही स्थित रहती हैं, पर महिषियाँ चंचल हो इधर-उधर लीला-विनोद कर रही थी ! लताएँ कोमल और पतली होती है, वे महिलाएँ भी पतली और क्षीण कटिबाली थीं । लताएँ पुष्पोंसे सुगन्धित रहती हैं, वे भी अनेक प्रकारके पुष्पोंके आभूषण पहने हुई थी, उन पुष्पोंकी गन्धसे सुगन्धित हो रही थी । लताएँ चंचल पत्तोंसे युक्त होती हैं, वे सुन्दरियाँ भी अपनी चंचलतासे युक्त थीं।
इस काव्यमें सबसे अधिक महत्त्व' संगीतका बताया है। संगीतमें कितनी शक्ति होती है, यह रानी अमृसमसीकी घटनासे सिद्ध है। रानी अमृतमती अष्टभंग
१. यशोधरचरित, धारवाड़ संस्करण, २०७१ ।
२. वही, ४।३।
नामक कुबड़े महावतके मधुर संगीतकी ध्वनिसे आकृष्ट होती है। अष्टभंग कुरूप, अधेड़ एवं वीभत्स आकृतिका है, पर उसके कण्ठमें अमृत है । यही कारण है कि अमृतमती उसपर रीझ जाती है और अपने यथार्थ नामके विपरीत विष मतीका आचरण करती है।
हिंसा और अहिंसाका महत्व अनेक जन्मोंकी कथा निबद्ध कर व्यक्त किया गया है।
इस स्तोत्रमें २६ पद्य हैं । २५ गद्य मन्दाक्रान्ता छन्दमें हैं और एक स्वागता में । इस स्तोत्रमें भक्ति-भावनाका महत्त्व प्रदर्शित किया है। आचार्यने स्तोत्रके आरम्भमें ही कहा है
एकीभावं गत इव मया यः स्वय कर्मबन्धो
घोरदुःरवं भत-भव-गतो दुर्गनगर: कहोति ।
तस्याप्यस्य त्वयि जिन-रचे भक्तिमुक्तये चेत
जेतु शक्यो भवति न तया कोऽपरस्तापहेतुः ॥१॥
हे भगवान् ! आपकी भक्ति जब भव-भव में एकनित दुःखदायी कर्मबन्ध को तोड़ सकती है, तब अन्य शारीरिक संतापका कारण उससे दूर हो जाये, तो इसमें क्या आश्चर्य है।
भगवत्-भक्तिके मनमें रहनेसे समस्त संताप दूर हो जाते हैं ! भक्तिद्वारा मानवको आत्म-बोध प्राप्त होता है, जिससे वह चैतन्याभिराम, गुणग्राम, आत्मभिरामको प्राप्त कर लेता है | कवि वादिराजने भगवानको ज्योतिरूप कहा है। आचार्यकी दृष्टिमें आराध्यका स्वरूप सौन्दर्यमय मधुरभानसे भरा हुआ है । आशाकी नबीन रश्मियाँ उनके मानस-क्षितिजपर उदित होती हैं, जीवन में एक नवीन उल्लास व्याप्त हो जाता है । भक्तिविभोर होकर तन्मयत्ता की स्थिति आनेपर समस्त मंगलोंका द्वार खुल जाता है। आचार्य इसी तन्ययताको स्थितिका चित्रण करते हुए कहते हैं----
आनन्दानु-स्नपित-वदनं गद्गदं चाभिजल्पन्
यश्चायेत त्वयि दृढ़-मनाः स्तोत्र-मन्नेर्भवन्तम् ।
तस्याभ्यस्तादपि च सुचिरं देह-वल्मीक मध्यात्
निष्कास्यन्ते विविध-विषम-व्याधयः काद्याः ॥३॥
अर्थात्, हे भगवन् ! जो आपमें स्थिरचित्त होता हुआ हर्षाश्रुओसे विगलित गदगद वाणीसे स्तोत्र-मंत्रों द्वारा आपका स्मरण करता है, उसके अनेक प्रकारके
असाध्य रोग उसी प्रकार देह से भाग निकलते हैं जिस प्रकार सपेरेकी बीन सुनते ही वामीसे साँप निकल पड़ते हैं ।
भक्त भगवान की बराबरी करता हुआ कहता है कि जो आप है सो मैं हूँ। शक्तिकी अपेक्षा मुझमें और आपमें कोई तात्विक अन्तर नहीं है । अन्तर इतना ही है कि भगवन् ! आप शुद्ध है, रत्नत्रयगुण विशिष्ट हैं, जब कि मेरी आत्मा अभी अशुद्ध हैं। रत्नत्रयगुणका केवल प्रवेश ही हुआ है, पूर्णता तो अभी दूर है। अत: जिस प्रकार दीपककी लोको प्रज्वलित करनेने लिए अन्य दीपकको लौका सहारा आवश्यक होता है, उसी प्रकार भगवन् ! आत्मशुद्धिके हेतु मुझे आपका अवलम्बन लेना है । यथा
प्रादर्भूत-स्थिर-पद-सुख वामनुध्यायतो में
स्वस्येवाह स इति मतिरुत्पद्यते निर्विकल्पा ।
मिथ्यवयं तदपि लनुते तृप्तिमभ्रषरूपां
दोषात्ममित्त कारबाप्रसादार जन्ति ॥१७||
अर्थान, हे भगवन् ! आपका ध्यान करनेसे मेरे मन में यह भावमा उत्पन्न होती है कि जो आप है सो मैं हूँ । यद्यपि यह बुद्धि मिथ्या है, क्योंकि आप अविनाशी सुखको प्राप्त है और मैं भव-भ्रमणके दुःख उठा रहा हूँ, तो भी मुझे आत्माके स्वभावका बोधकर अविनाशी सुख प्राप्त करना है, इतने मात्र से ही सन्तोष होता है । यह सत्य है कि आपके प्रसादसे सदोष आत्माएँ भी इच्छित फलको प्राप्त हो जाती हैं। इस प्रकार आचार्यने भक्ति-भावनाका वैशिष्टय दिखलाया है। स्तोत्र सरस और प्रौढ़ है।
अकलंकदेबने न्याविनिश्चय नामक तर्कग्रन्थ लिखा है। इस ग्रन्थम ४८० कारिकाएँ है और तीन प्रस्ताव है। प्रथम प्रस्ताव में १६८||, द्वितीय प्रस्तावमें २१६।। तथा तृतीय प्रस्ताव में ९५ कारिकाएँ हैं। वादिराजने इस ग्रन्थपर अपना विवरण लिखा है, जो बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसमें पक्षोंको समृद्ध और प्रामाणिक बनाने के लिए अगणित ग्रन्थोंके प्रमाण उद्धृत किये हैं । इन्होंने अपनी इस टीकाको 'न्याधिनिश्चविबरण' नाम स्वयं दिया है।
प्रणिपत्य स्थिरभक्या गुरून परानप्युदारबुद्धिगुणान् ।
न्यायविनिश्चर्यावधरणभिरमणीयं भया क्रियते ॥
वादिराज द्वारा लिखित भाष्यका प्रमाण बीस हजार श्लोक है । वादिराजने
१. न्यायनिनिश्चयाचबरण, भारतीय ज्ञानपीट काशी, प्रस्तावनामें उद्धृत, पृ० ३५ ।
मूलवर्तिकपर अपना भाष्य लिखा है। इनके भाष्य में अन्तर श्लोक और संग्रह श्लोक भी सम्मिलित हैं। इन्होंने वृति या चूणिगत समस्त पदो का व्याख्यान लिखा है । न्यायविनिश्चयविवरणको रचना अत्यन्त प्रसन्न और मौलिक शैली में हुई है । प्रत्येक विषयका स्वयं आत्मसात् करके ही व्यवस्थित का ढंग से युक्तियों का जाल बिछाया है, जिससे प्रतिवादीको निकलने का अवसर नहीं मिलता। सांख्यके पूर्वपक्षमें (पृ ०२३५) योगभाष्यका उल्लेख 'बिन्ध्यवासिनो भाष्यं शब्द से किया है। मांस्यकारिकाके एक प्राचीन निबन्धमे भोगकी परिभाषा उद्भुत की है।
बौद्धमत समीक्षाम धर्मकीतिके प्रमाणवार्तिक और प्रज्ञा करके वात्तिका लंकारकी इतनी गहरी और विस्तृत आलोचना अन्यत्र देखने में नहीं आयी। वातिकालंकारका तो आधा-सा भाग इसमें आलोचित है। धर्मोतर , शान्तिभद्र, अचंट आदि प्रमुख बौद्धदार्शनिकोंकी समीक्षा की है।
मीमांसादर्शन की नम लोगाने मादर, माधर, मण्डन, कुमारिल आदिका गम्भीर पर्यालोचन किया गया है। इसी तरह न्याय-वैशेषिक मतमें व्योमशिब, आत्र य, भासर्वज्ञ, विश्वम्प आदि नाचीच आचार्यों के मत उनके ग्रन्थोंसे उद्धृत करके आलोचित हुए हैं। उपनिषदोंका वेदमस्तक कहकर उल्लेख किया है । इस तरह जितना परपक्ष-समीदाणका भाग है, यह उन-जन मतोंक प्राचीनतम ग्रंथो से ग्रंथो से लेकर ही पूर्वपक्षक रूपमें उपस्थित्त किया है । ___ स्वाक्ष-संस्थापनामें समन्तभद्रादि आचायोंके प्रमाण वाक्योंस पक्षका समर्थन परिपुष्ट रूपमें किया गया है। कारिकाओंक व्याख्यानमें बादिराजका व्याकरणज्ञान भी प्रस्फुटित हुआ है। कई कारिकाओंके उन्होंने पाँच-पाँच अर्थ तक दिये हैं। दो अर्थ तो साधारणतया अनेक कारिकाओंके दृष्टिगोचर होते हैं । समस्त विवरणमें दो ढाई हजार पद्म इनके द्वारा रचे गये हैं। इनकी तर्कणा शक्ति अत्यन्त मौलिक है। इन्होंने न्यायविनिश्चयके प्रत्यक्ष, अनुमान और ..प्रवचन इन तीनों परिच्छेदोंपर विवरणकी रचना की है। ज्ञान-ज्ञेयतत्व, प्रमाण प्रमेयतत्त्व आदिका विवेचन इस ग्रन्थमें पाया जाता है और अकलंकदेवने जिन मल विषयोंकी उत्थापना की है, उनका विस्तृत भाष्य इस विवरणमें आया है। तर्क और दर्शनके तत्त्वोंको स्पष्ट रूपमें समझानेका प्रयास किया है।
इस लघुकाय ग्रन्थमें प्रमाणनिर्णय, प्रत्यक्षनिर्णम, परोक्षनिर्णय और आगम निर्णय ये चार प्रकरण हैं। प्रमाणनिर्णयके अन्तर्गत प्रमाण का स्वरूपनिर्धारण करते हुए सम्यग्ज्ञानको ही प्रमाण बताया है । इस प्रकरणमें नैयायिक , मीमांसक, बौद्ध प्रति दार्शनिकोंकी प्रमाणविषयक मान्यताओंकी समीक्षा की गयी है । बताया है----
सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं प्रमाणत्वान्यथाऽनुपपतेः । इदमेव हि प्रमाणस्य प्रमाण त्वं यत्प्रमितिक्रिया प्रति साधकतमत्वेन करणत्वम । तच्च तस्य सम्यग्ज्ञानत्वे सत्येव भवति नाश्चेतनले माग्यम्यग्ज्ञानत्वे । ननु च तरिक्रयायामस्त्येवाचेत्तन स्थापीन्द्रियलिङ्गादे: करणत्वं, चक्षुषा प्रमीयते धूमादिना प्रमीयत इति । तत्रापि प्रमितिक्रियाकरणत्वस्य प्रसिद्धेरिति चेत् ।
इस प्रकरणमें व्यवसायात्मक सम्यग्ज्ञानको ही प्रमाण सिद्ध किया है। इन्द्रिय, आलोक, सन्निकर्ष आदिको प्रमाणसाकी समीक्षा की गयी है । ज्ञानकीं उत्पत्तिमें अर्थ और आलोकको कारणताका निरसन किया है।
प्रत्यक्षनिर्णय प्रकरणमें स्पष्ट प्रतिभासित होनेवाले ज्ञानको प्रत्यक्ष कहा है । स्पष्टावभास इन्द्रियज्ञान में संभव नहीं है, अतः इन्द्रियज्ञान परोक्ष है। स्पष्ट प्रतिभास प्रत्यक्षज्ञान में पाया जाता है और वह अतीन्द्रिय होता है | इस सन्दर्भमें सन्निकर्षके प्रत्यक्षत्वका निरसन किया है। चक्षुके प्राप्यकारिखका पूर्वपक्ष प्रस्तुत करते हुए लिखा है—'चक्षुः सन्निकृष्टमर्थं प्रकाशयति बाह्मन्द्रिय त्वात्त्वगादिवत्" अर्थात् चक्षु सन्निकृष्ट अर्थको ही प्रकाशित करती है, बाह्य न्द्रिय होनसे, स्पदर्शन के इन्द्रियो समान । इस अनुमान द्वारा चक्षुका प्राप्य कारित्व सिद्ध करके उसका निरसन किया है।
इस ग्रन्थमें परोक्षके दो भेद किये हैं-१. अनुमान और २. आगम | अनुमानके गौण और मुख्य भेद करके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्कको गौण अनुमान माना गया है। इस प्रकारकी भेदकल्पना नवीन प्रतीत होती है, अन्य किसी प्रमाणग्रन्थमें ऐसा दिखलायी नहीं पड़ता है। वादिराजने तर्कप्रमाणकी सिद्धि करते हुए लिखा है कि व्याप्तिके ज्ञानको तर्क कहते हैं तथा साध्य और साधनके अविनाभावको व्याप्ति । अविनाभाव एक नियम है और यह नियम दो प्रकारसे व्यस्थित है—१. तथोपपत्ति और २. अन्यथानपत्ति । साध्य के होने पर ही साधनका होना तथोपपत्ति और साध्य के न होने पर साधन का न होना ही अन्यथानुपपत्ति-अविनाभाव है। व्याप्तिका ज्ञान अन्य किसी प्रमाणसे सम्भव नहीं है, अत: तर्कप्रमाण मानना आवश्यक है। तर्कका अनुमान करनेसे अन्तर्भाव सम्भव नहीं है-'तदवच्छेदेनावगतात्तु तसो नानुमानमन्यत्रा
१. प्रमाणनिर्णय, माणिकवन्ध दि जै ग्रंथमाला , वि-सं० १९७४, पृ० १-२ ।
२. प्रमाणनिर्णय, पृ० १८ ।
न्यदा तदभावेऽपि तद्भावर्शकलस्यानिवृतेः । तस्मात्प्रत्यक्षानुमानाभ्यामन्यत्तयै वायं विकल्पः प्रमायितव्यः ।"
चार्वाक के प्रति अनुमानकी प्रमाणता भी सिद्ध की गयी है। अनुमानके अभावमें न तो किसी भी बुद्धिका परिज्ञान होगा और न स्वेष्टसिद्धि तथा परेष्ट में दोषोद्भावन ही सम्भव होगा। भूतचतुष्टयकी सिद्धि भी अनुमानके बिना नहीं हो सकती है । अतएव चार्वाकको भी अनुमान प्रमाण मानना पड़ेगा।
अभावका अन्तर्भाव प्रत्यक्षप्रमाणमें किया है। अनुमान के वैरूप्य और पाञ्चयोंका निरसन करते हुए अबिनाभावको ही हेतु सिद्ध किया है ।
आगमप्रमाण चर्चा करते हुए बताया है कि शब्दप्रमाणका अन्तर्भाव अनुमानमें सम्भव नहीं है, क्योंकि दोनोंका विषय भिन्न है। शब्द केवल वक्ता की इच्छाम ही प्रमाण है, बाह्य अर्थ में प्रमाण नहीं, यह भी कहना असंगत है । अतः शब्दका विषय केवल विवक्षा ही नहीं है । इसी सन्दर्भ में शब्दको पौद्गलिक
भी सिद्ध किया है।
यह ग्रंथ गद्ये में अकलंकदेव ग्रन्थों का सार लेकर लिखा गया है। ग्रन्थ कर्तने लिखा है
मुख्यसंव्यवहाराभ्यां प्रत्यक्ष यनिरूपित्तम् ।।
दबस्तस्यात्र संक्षेपानिर्णयो चाणतो मया ।
गुरु | आचार्य श्री मतिसागर जी |
शिष्य | आचार्य श्री वादिराज |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Vaadiraj10ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री वादीराज 10वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 24 एप्रिल 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 24-April- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
दार्शनिक, चिन्तक और महाकविके रूपमें वादिराज ख्यात हैं। ये उच्च कोटिके तार्किक होनेके साथ भावप्रवण महाकाव्यके प्रणेता भी हैं। इनकी बुद्धिरूपो गायने जीवनपर्यन्त शुष्कतकरूपी घास खाकर काव्य-दुग्धसे सहदम जनोंको तृप्त किया है। इनकी तुलना जैन कवियोंमें सोमदेवसूरिसे और इतर संस्कृतकवियोंमें नैषधकार श्रीहर्षसे की जा सकती है।
वादिराज मिल या द्रविड़ संघके प्राचार्य थे। इसमें भी एक नन्दिसंघ था, जिसकी अरुङ्गल शाखाके अन्तर्गत इनकी गणना की गयी है। अनुमान है कि
अरुङ्गल किसी स्थान या ग्रामका नाम है, जहाँकी मुनिपरम्परा अरुजालान्वय के नामसे प्रसिद्ध हुई है।
१. अध्यात्मतरंगिणी, तस्वानुमासनादिसंबहके अन्तर्गत , माणिकचंद दि ० जैनग्रन्थमाला , वि० सं० १९७५ ।
वादिराजको षट्तर्ककंषण्मुख, स्यावादविद्यापति और जगदेकमल्लवादी' उपाधियाँ थीं। एकीमावस्तोत्रके अन्समें निम्नलिखित पद्य पाया जाता है--
वादिराजमनुगाब्दिकलोको वादिराजमनुताकिसिंहः ।
वादिराजममुकाव्यकृतस्ते वादिराजमनुभव्यसहायः ।।
अर्थात् समस्त वैयाकरण, तार्किक और भव्यसहायक वादिराजसे हीन हैं, अर्थात् वादिराजको समता नहीं कर सकते हैं।
एक शिलालेखमें कहा गया है कि वे सभामें अकलंकदेव ( जैन ), धर्मकीर्ति ( बौद्ध ), बृहस्पति ( चार्वाक् ) और गौतम ( नैयायिक ) के तुल्य हैं। इससे स्पष्ट है कि वादिराज अनेक धर्मगुरुओंके प्रतिनिधि थे। ___
मस्लिषेणप्रशस्तिमें. वादि विजेता और कविके रूपमें इनकी स्तुति की गयी गयी है। इन्हें जिनेन्द्रके समान शक्तिशाली वक्ता और चिन्तकके रूपमें बताया गया है
त्रैलोक्य-दीपिका वाणी द्वाभ्यामेवोदमादिह ।
जिनराजत एकस्मादेकस्माद्वादिराजतः ।।
वादिराज श्रीपालदेवके प्रशिष्य, मत्तिसागरके शिष्य और रूपसिद्धिके कर्ता दयापाल मुनिके गुरुभाई थे | वादिराज यह नाम उपाधि जैसा प्रतीत होता है । सम्भवतः अधिक प्रचलित होनेके कारण ही कवि इस नामसे ख्यात हो गया होगा। ऐतिहासिक शोध और खोजके आधार पर कुछ विद्वानोंने कविका नाम कनकसेन बतलाया है। पर सबल तर्कों से इसकी सिद्धि नहीं हो पाती है । अतः अभी तक उक्त तथ्य मान्य नहीं हो सका है।
पार्श्वनाथचरितको प्रशस्ति में अपने दादागुरु श्रीपालदेवको "सिंहपुरैक
१. षटतर्कण्मुस स्वादावविद्यापति गलु अगदकमालवादिगलु एमिसिद श्रीवादिराज
देवरुम -श्रीराइस द्वारा सम्पाषित नगर तालुकाका इन्सक्रपनाम्स नं. ३६ ।
२. सदसि यमकला कीर्तने धर्मकीतिर्वचसि सुरपुरोषा न्यायवादेशपादः । इति समयगुरनामेकव: संगतानां प्रतिनिधिरिष देवो राजते वादिराजः ।।
-इन्सापास नं. ३९ ।
३. जैन शिलालेखसंग्रह , प्रथम भाग , अभिलेखसंस्था ५४, मल्लिषेणप्रशस्ति, पद्य ४० ।
४. हितैषिणा यस्य गुणानुवात-वाचानिबद्धा हित-रूप -सिद्धिः ।
वंघो दयापालमुनि:स वाचासितस्तताम्मूनि य: प्रभावै :॥ -वही , पद्य ३८ ।
५. Introduction of Yashodhar charitra, Dharwar Edition 1963,
page 5.
मुख्य;' कहा है और न्यायविनिश्चयको प्रशस्तिमें अपने आपको 'सिंहपुरेश्वर" लिखा है। इन दोनों पदोंका आशय सिंहपुरनामक स्थानके स्वामीसे है । अतः प्रेमीजीका अनुमान है कि सिंहपुर उन्हें जागीरमें मिला हुआ था और वहाँ पर उनका मठ भी था ।
श्रवणबेलगोलके शक संवत् १०४७ के अभिलेखमें वादिराजकी शिष्य परम्पराके श्रीपार; मनिधदेवणे होयगल नरेश विष्णुवर्धन मेगमलदेव द्वारा जिनमन्दिरोंके जीर्णोद्धार और मुनियोंके आहारदानके हेतु शल्यनामक ग्रामको दानरूप देनेका वर्णन है। शक सं०११२२ में उत्कीर्ण किये गये ४९५ संख्यक अभिलेखमें बताया गया है कि षट्दर्शन के अध्येता श्रीपालदेवके स्वर्गवासी होने पर उनके शिष्य वादिराजने परवादिमल्लनामका जिनालय निर्मित कराया था और उसके पूजन एवं मुनियोंके आहारदानके हेतु भूमिदान दिया था ।
उपर्युक्त कथनसे यह स्पष्ट है कि वादिराजकी गुरुपरम्परा मठाधीशोंकी थी, जिसमें दान लिया और दिया जाता था। ये स्वयं जिनन्दिरोंका निर्माण कराते, जीणोद्धार कराते एवं अन्य मुनियों के लिए आहारदानको व्यवस्था करते थे।
देवसेनसूरिके दर्शनसारके अनुसार द्रमिल या द्रविड़ संघके मुनि कच्छ, खेत, वसत्ति ( मन्दिर ) और वाणिज्यरूपमें आजीविका करते थे तथा शीतल जलसे स्नान भी करते थे। इसी कारण मिल संघको जैनाभास कहा गया है। कर्नाटक और तमिलनाड इस संघके कार्यक्षेत्र थे।
बादिराजसूरिक विषयमें एक कथा प्रचलित है कि इन्हें कुष्ठ रोग हो गया था। एक बार राजाकी सभा में इसकी चर्चा हुई, तो इनके एक अनन्य भक्तने अपने गुरुके अपवादके भयसे झूठ ही कह दिया कि उन्हें कोई रोग नहीं है। इस पर वाद-विवाद हुआ और अन्तमें राजाने स्वयं ही परीक्षा करनेका निश्चय किया । भक्त घबराया हुआ वादिराजसरिख पास पहुँचा और समस्त घटना कह सुनायी । गुरुने भक्तको आश्वासन देते हुए कहा--"धर्मके प्रसादसे ठीक होगा, चिन्ता मत करो" | अनन्तर एकीभावस्तोत्रकी रचना कर अपनी व्याधि दूर की।
१. सम्पादक डॉ महेन्द्रकुमार म्यायाचार्य, प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ काशी, सन्
१९५४ ई०, अन्तिम प्रशस्ति ।
२. प्रेमी -जैन साहित्य और इतिहास, बम्बई, द्वितीय संस्करण, पु. २९४ ।
३. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख संख्या ४९३ , पृ. ३९५ ।
४. धापविनिश्वविबरण, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, प्रस्तावना, पृ. ५९ -६१ ।
एकीभावस्तोत्रके संस्कृतटीककरण ..चन्द्रकीर्तिभटार्क ..उक्तग्रन्थको पूर्णरूपसे तो उद्धृत नहीं की है, पर जो अंश लिखा है, उससे कुष्ठ-व्याधिका संकेत मिलता है। बताया है-"मेरे अन्तःकरणमें जब आप प्रतिष्ठित हैं, तब मेरा यह कुष्ठ रोगाक्रान्त शरीर यदि सुवर्ण हो जाये, तो क्या आश्चर्य है।"
वादिराजने अपने ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों में रचना-कालका निर्देश किया है। ये प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के रचयिता प्रभाचन्द्र के समकालीन और अकलंकदेवके अन्योंके व्याख्याता हैं। कहा जाता है कि चालुक्य नरेश जयसिंहकी राज्यसभामें इनका बड़ा सम्मान था और ये प्रख्यात वादी गिने जाते थे। जयसिंह ( प्रथम ) दक्षिणके सोलंकीवंशके प्रसिद्ध महाराज थे। इनके राज्यकालके तीस से अधिक दानपत्र और अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं, जिनमें सबसे पहला अभिलेख शक संवत् ९३८ ( ई० सन् १०१६) का है और अन्तिम शक संवत् १६४( ई० सन् १०४२) का है। अतएव इनका राज्यकाल ई० सन् १०१६-१०४२ ई० तक है।
वादिराजने अपना पार्श्वनाथचरित 'सिंहचके श्वर' या 'चालुक्यचक्रवर्ती जयसिंहदेवकी राजधानी में निवास करते हुए शक संवत् ९४७ (ई० सन् १०२५) कात्तिक शुक्ला तृतीयाको पूर्ण किया था। यह राजधानी लक्ष्मीका निवास और सरस्वतीकी जन्मभूमि थी।
यशोधरचरितके तृतीय सर्गके अन्तिम पद्य और चतुर्थ सर्गके उपान्त्य पद्यमें कविने कौशलपूर्वक महाराज जयसिंहदेवका उल्लेख किया है। अतः इससे स्पष्ट है कि यशोधरचरितकी रचना भी कविने जयसिंहके समयमें की है। पाश्वनाथचरितकी प्रशस्तिके आधारपर जयसिंहकी राजधानी कट्टर नामक स्थान माना जाता है। यह स्थान मद्रास प्रान्तमें एक साधारण गांव है, जो बादामीसे बारह मील उत्तरकी ओर है।
१. हे मिन मम स्वान्तः गेहं ममान्तःकरणमन्दिरं त्वं प्रतिष्ठ सन् इदं मदीयं कुष्ठरोगा
का """एकीभाव, वृत्ति, श्लोक ४ ।
२. शाकाने नगाधिरन्ध्रगणमे संवत्सरे क्रोधने
. मासे कातिकनाम्नि इद्धिहिते शुद्ध तृतीयादिने । सिंहे याति जपादिके वसुमती जैनी कपेयं मया
निष्पोतं गमिता सती भवतु वः कल्याणनिष्पतये । पृ ०. ५ पद्य ।
डॉ. कीथने 'History of Sanskrit Literature' नामक ग्रन्थमें बताया है
"दक्षिणदेश निवासी कनकसेन वादिराज द्वारा रचित ऐसा ही काव्य है, जिसमें चार सर्ग और २९६ पद्य हैं। उनके शिष्य श्रीविजयका समय लगभग ९५०ई० है।"
इससे स्पष्ट है कि डॉ० कीथ वादिराजको सोमदेवसे पूर्ववर्ती मानते हैं और इनका समय दसवीं शतीका उत्तरार्द्ध सिद्ध करते हैं। हुल्त्स् ( Huiltzsth) ने लिखा है कि अजितसेन बादीसिंह वादिराज द्वितीयक शिष्य थे और यादवराज ऐरेयंग तथा शान्तराज तेलगुके ( सन् ११०३ ई.) गुरु थे। __ डॉ. कीथने जिन कनकसेन वादिराजका उल्लेख किया है, वे प्रस्तुत वादिराज से भिन्न काई वादिराज है। हुस् ..द्वारा विद्रिष्ट भी पार्श्वनाथचरित के रचयितासे भिन्न ही कोई अन्य व्यक्ति है। प्रस्तुत वादिराज जगदेकमरूल द्वारा सम्मानित हुए थे, अतः इनका समय सन् १०१० से १०६५ ई० प्रतीत होता है। यतः जगदेकमाल्लका समय अनुमानतः सन् १०१८-१०३२ ई. के बीच होना चाहिये ।
पार्श्वनाथचरिसके अतिरिक्त यशोधरचरित, एकीभावस्तोत्र,न्यापविनिश्चय विवरण और प्रमाणनिर्णय रचनाएँ भी वादिराजकी प्राप्त हैं।
महाकाव्यकी दृष्टि से वादिराजका पाश्र्वनाथचरित श्रेष्ठ काव्य है । इसमें बारह सर्ग हैं । कथावस्तु निम्न प्रकार है।
पोदनपुरमें अरबिन्दनामका एक अत्यन्त प्रतापी एवं श्रोनिलय सजा रहता था। यह नगर समृद्ध और महिमामण्डित था। राजा दानी, कृपालु और यशस्वी था । मन्त्री विश्वभूति विलक्षण गुणयुक्त था । उसने एक दिन राजासे निवेदन किया कि अब संसारके विषय-भोगोंसे मुझे वितृष्णा हो गयी है, अत: आत्मकल्याण करनेकी अनुमति प्रदान कीजिए । विश्वभूतिके प्रवजित होनेपर राजाने उसके छोटे पुत्र मरुभूतिको मन्त्री नियुक्त कर लिया। विश्वभूतिके बड़े पुत्रका नाम कमठ था।
एक समय वजवीर नामक प्रान्तिक शत्रु अरविन्दका विरोध करने लगा। उसे पराजित करनेके लिए अरविन्द के साथ मरुभूतिको भी जाना पड़ा और उसके बड़े भाई कमठको राजाने मन्त्रीपद पर प्रतिष्ठित किया । जब अरविन्द अपनी चतुरंगिणी सेना लेकर चला, तो वजवीरने भी सैनिकतैयारी की, पर उसकी सेना अरबिन्दकी सेनाके समक्ष ठहर न सकी और विजयलक्ष्मी अरविन्द
१. History of Sanskrit Literature (Oxford 1928 ), Page 142.
२. Introduction of Yashodhar charita | Dharwar 1963) P. 7.
को प्राप्त हुई । वह विजयपताका फहराता हुमा अपने नगरमें लौट आया।--प्रथमसर्ग।
मन्त्रिपद प्राप्त करने के उपरान्त कमठने अपने छोटे भाई मरुभूतिकी पत्नी वसुन्धराको देखा । वह उसके रूप-सौन्दर्यसे अत्यधिक आकृष्ट हुआ, अतः उसके अभावमें उसके प्राण जलने लगे। मदनज्वरने उसे धर दबाया। कमठके मित्रोंको चिन्ता हुई और एक मित्रने वास्तविक तथ्य जानकर वसुन्धराको कमठकी बीमारी का समाचार देकर बुलाया । वसुन्धरा कमठको देखते ही उसके विकारोंको जान गयी, उसने कमठ के अनाचारसे बचनेका पूरा प्रयास किया। पर अन्त में बाध्य होकर उसे कमठ की बातें स्वीकार करनी पड़ी।
राजा अरविन्दको वापस लौटने पर कमठके दुराचारका पता चला, तो उसने उसे नगरसे निर्वासित कर दिया। कमठ तापसियोंके आश्रम मे गया और वहाँ उसने तपस्वियोंके व्रत ग्रहण कर लिये । मरुभूति भाईको बहुत प्यार करता था, अत: वह उसको खोजने लगा । राजा अरबिन्दने मरुभूति को कमठके पास जानेसे बहुत रोका, पर भ्रातृ-बात्सल्य के कारण वह रूक न सका । कमठ भूताचल पर्वत पर तपस्या कर रहा था। मरुभूतिको आया हुआ जानकर उसने पहाड़ की एक चट्टान उसके ऊपर गिरा दो, जिससे मरुभूतिका प्राणान्त हो गया। इधर पोदनपुरमें स्वयंप्रभ नामके मुनिराज पधारे । राजा उनकी बन्दनाके लिए गया ।--द्वितीय सर्ग ।
वन्दना करनेके उपरान्त अरविन्दने मुनिराजसे मरुभूतिके सम्बन्धमें पूछा । मुनिराजने कमठ द्वारा प्राणान्त किये जाने की घटनाफा निरूपण करते हुए कहा कि मरुभूतिका जीव सल्लकीवनमें वचषोष नामका हाथी हुआ है । जब आश्रम वासियोंको कमठको उद्दण्डता और नृशंसताका पता चला तो उन्होंने उसे आश्रमसे निकाल दिया । अतएव वह दुःखी होकर फिरातोंके साथ जीवन व्यतीत करने लगा । जीव -हिंसा करनेके कारण उसने भी सल्लकीवनमें कृकवाकु नामक सर्पपर्याय प्राप्त की। मरुभूतिकी माता पुत्रवियोगके दुःखसे मरण कर उसी बनमें बानरी हुई।
अरविन्दनृपति मनिराज से उक्त वृत्तान्त सुनकर विरक्त हो गया और उसने मुनिव्रत धारण किये । मुमिराज अरविन्द अपनी बारह वर्ष बायु अवशिष्ट जानकर सीर्षवन्दनाके लिए ससंघ चल दिये । मार्ग में उन्हें समलकोवन मिला । मनुष्यों के आवागमन एवं कोलाहलको देखकर वज्रघोष बिगड़ गया और लोगोंको कुचलता हुआ आगे आया। जब उसने अरविन्द मुनिराजको देखा तो उसे पूर्वजन्मका स्मरण हो आया और उनके चरणों में स्थिर हो गया । अवधिज्ञानके बलसे मुनिराज ने उसे मरुभूतिका जीब जानकर सम्बोधित किया। बचघोषको सम्यक्त्व उत्पन्न हो गया और मिरतिचार ब्रत पालन करने लगा। संघ सम्मेदाचलकी ओर चला गया । तपश्चरणके कारण बच्नघोष हाथी कृश हो गया । एक दिन वह जल पीने के लिए एक जलाशयमें गया और वहाँ अपनी शारीरिक दुर्बलताके कारण पंकमें फंस गया। कृकबाकुने जब हाथीको देखा तो पूर्वजन्मके वैरके स्मरण हो आनेसे उसे मस्तकमें डस लिया, जिससे हाथीकी मृत्यु हो गयी । मृत्युके समय हाधीके परिणाम बहुत ही शुभ रहे, जिससे वह महाशुक्र स्वर्गके स्वयंप्रभ विमानमें देव हुआ । इधर वानरीने सर्पके उस कुकृत्यको देखकर पत्थर की चट्टान गिरा कर उसे मार डाला, जिससे वह नरक गया स्वर्गक वैभवको देख कर तथा अवधिज्ञानसे अपने उपकारीको जानकर उसने भूमिपर अरविन्द मुनिके चरणों की पूजा की । पश्चात् स्वर्ग में रहकर दिव्य सुख भोगने लगा। .--तृतीय सर्ग ।
विजयार्थ पर त्रिलोकोत्तम नामक नगर है । इस नगरका स्वामी विद्युद्वेग नामका विद्याधर था । इसकी पत्नी विद्युन्माला नामकी थी । इस दम्पतिके यहाँ मरुभुतिका जीव स्वर्गसे व्युत हो रश्मिवेग नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। वह अति तेजस्वी और सुन्दर था । एक दिन पूर्वजन्मका स्मरण हो जानेसे वह विरक्त हो गया और समाधिगुप्त नामक मुनिके पास जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली । एक दिन मुनिराज रश्मिवेग हिमालय पर्वतको गुफामें कायोत्सर्ग कर रहे थे कि कमठका जीव अजगर, जो कि नरकसे निकलकर अजगर पर्याय में आया था, उनपर झपटा और उनके मस्तकमें काट लिया । मुनिराज ने इस असह्य वेदना को बहुत शान्तिपूर्वक सहन किया, जिससे उन्हें अच्युत स्वर्गकी प्राप्ति हुई । यहाँ वे विद्युत्प्रभके नामसे प्रसिद्ध हुए । उस अजगरने भी मरकर तमप्रभा नामक छठी भूमिमें जन्म ग्रहण किया ।
पश्चिम विदेहके अश्वपुर नामक नगरमें वज्रवीर्य शामन करता था। इसकी पत्नी विजया नामकी थी। कालान्तरमें विद्युत्प्रभ स्वयंसे च्युत हो बिजयाके गर्भसे वज्रनाभ नामका पुत्र हुआ। - चतुर्थ सर्ग ।
वज्रनाभ धीरे-धीरे बढ़ने लगा और कुछ ही समय में अस्त्र-शस्त्रमें पारंगत हो गया ! बादमें वह युवराजपद पर प्रतिष्ठित हुआ। बसन्तादि षड् ऋतुओं का आनन्द लेता हुआ वज्रनाभ समय यापन करने लगा। एक दिन किमीने आकर आयुधशालामें चक्ररत्न उत्पन्न होनेकी सूचना दी। -पंचम सर्ग ।
वज्रनाभ चक्ररत्नकी पूजा की और याचकोंको यथेष्ट दान देकर वह दिग्विजयके लिए तैयारियां करने लगा। उसने दिग्विजयके लिए प्रस्थान किया। चक्रवर्ती वज्रनाभ का प्रथम स्कन्धावार सीतोदा नदीके तटपर अवस्थित हुआ !चक्रवर्ती, सेनापति,सामन्त और अन्य राजाओंने अपने-अपने योग्य निवासस्थान का चयन किया -षष्ट सर्ग |
चक्रवर्तीकी सेनाने नदोको पार किया और बारह योजन जानेपर चक्रवर्ती का रथ रुक गया। आकाशभाषित वाणी सुनकर उसने मागध व्यन्तरके पास बाण छोड़ दिया । उसे देख व्यन्तर क्रोधाविष्ट हो गया और उसकी सेना युद्ध के लिए सन्नद्ध हो गयी । एक वृद्ध पुरुषने मागधको समझाया कि बलशाली पुण्यात्माओंसे विग्रह करना उचित नहीं है। उनसे सन्धि करनेपर ही लाभ होता है । अत: मागध देव बहुत-सी अमूलय वस्तुएं लेकर चक्रवर्तीकी सेवामें उपस्थित हुआ । वहाँसे चक्रवर्ती सिन्धु नदीके घाटीमें प्रविष्ट हुआ तथा वरतनु देवको अपने अधीन किया । अनन्तर चक्रवर्तीकी सेना विजयापर पहुंची। इस पर्वतका शासन करनेवाले विजयाकुमारने नर्मीभूत हो चक्रवतीको पूजा को और अनेक वस्तुएँ भेट दी। कृतमालदेवने चौदह आभूषण दिये और गुहाका द्वार खोलनेकी विधि बतलायी। गुहाके भीतर प्रविष्ट होकर सेनापतिने म्लेच्छों को जीत लिया। वहाँसे चलकर वह वृषभाचल पर आया। विद्याधरोंको परा जित कर विद्याधरकुमारियोंका पाणिग्रहण किया। इस प्रकार षट्सपड़की विजय कर वह अश्वपुर नगरमें वापस आया। -सप्तम सर्ग !
वज्रनाभ छयानबे हजार रानियाँ, चौरासी लाख हाथी, अठारह करोड़ घोड़े और इतने ही सवार थे। एक दिन वह राजा बनमालीसे प्रार्थित हो वसन्त की शोभा देखने गया। इस प्रसंगमें कविने वसन्तका बड़ा सुन्दर वर्णन किया है । जब चक्रवर्ती वन से वापस लौटने लगा, तो वसंती समाप्त हो चुकी थी । सर्वत्र प्रकृति में उदासी छायी हुई थी। इस परिवर्तनको देखकर राजाको वैराग्य उत्पन्न हो गया और उसने राज्यभार अपने पुत्रको सौंप दिया । क्षेमंकर मुनिके पास जाकर उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। कमठका जीव उसी वनमें कुरंग नामका किरात हुआ, जिस वन में वज्रनाभ तपस्या कर रहे थे। उस किरातने समाधिस्थ मुनिके ऊपर बाण चलाया, जिससे वे धराशायी हो गये। समाधिपूर्वक शरीर छोड़नेसे चक्रवर्ती मुनिराजने मध्य प्रवेयकमें अहमिन्द्रका शरीर प्राप्त किया। मुनिराजका अन्त करनेवाले उस भीलने सप्तम नरकमें जन्म ग्रह्ण किया । चक्रवर्तीका जीव मध्य प्रवेयकसे च्युत्त हो अयोध्या नगरीके बच्चबाहु राजाकी प्रभाकरी नामक रानीके गर्भ में आया । जन्म लेनेसे समस्त प्रजाको आनन्द हुआ । अतएव राजाने उसका नाम आनन्द रखा । युवा होनेपर राजाने आनन्द को राज्याधिकार दे दिया। आनन्दने राज्यलक्ष्मीको समृद्ध बनाया – अष्टम सर्ग।
आनन्दने समस्त मंगलोंका उत्पादक जिनयज्ञ आरम्भ किया । उसे देखनेके लिए सद्गुण-सम्पन्न दृढमूर्ति मुनि भी आये । राजा आनन्द जिनमहोत्सब करता हुआ निवास करने लगा । एक दिन अपने श्याम केशोंमें एक श्वेत केशको देख कर उसे विरक्ति हो गयी और अपने पुत्रको राज्य देकर वह वनमें तपश्चरण करने चला गया। मुनि आनन्द तपस्यामे लीन था कि कमलके जीव सिंहने देखा । पूर्वजन्मके वैर का स्मरण कर उसने मुनिपर आक्रमण किया । शान्ति और समाधिपूर्वक मरण करनेसे आनत स्वर्ग में अहमिन्द्र हुआ । छ: मास आयुके शेय रहने पर वाराणसी नगरीमें रत्नोंकी वर्षा होने लगी। महाराज विश्वसेन को महिषी ब्रह्मदत्ताने सोलह स्वप्न देखे । प्रातः पति से स्वप्नोंका निवेदन किया । पतिने उन स्वप्नोंका फल त्रिलोकीनाथ तीर्थकरका जन्म बतलाया । - नवम सर्ग ।
ब्रह्मदत्ताने जिनेन्द्र को जन्म दिया ! चतुनिकायके देवजन्मोत्सव सम्पन्न करने आये । इन्द्राणी प्रसूति गृहमें गयी और मायामयी बालक माता के पास सुलाकर जिनेन्द्रको ले आयी और उस बालकको इन्द्रको दे दिया। इन्द्रने सुमेरु पर्वतपर जन्माभिषेक सम्पन्न किया और पार्श्वनाथ नामकरण किया । पार्श्वनाथ का बाल्यकाल बीतने लगा | जब वे युवा हुए तो एक दिन एक अनुचरने आकर निवेदन किया कि एक साधु वन में पंचाग्नि तप कर रहा है । पार्श्वनाथ ने अवधि ज्ञानसे जाना कि वह कमठका ही जीव मनुष्य पर्याय पाकर कुतप कर रहा है। वे उस तपस्वीके पास पहुंचे और कहा कि तुम्हारी यह तपस्या व्यर्थ है। इस हिसक तपसे .-कर्म -निर्जरा नहीं हो सकती है। तुम जिस लकड़ीको जला रहे हो उसमें नाग-नागिन जल रहे हैं। अतः लकड़ीको फाड़कर नाग-नागिन निकाले गये । पार्श्वनाथ ने उन्हें णमोकार मन्त्र सुनाया, जिससे उन नाग-नागिनने धरेंद्र और पद्मावती के रूपमें जन्म ग्रहण किया । धरेंद्र -पदमावतीने आकर पार्श्वनाथकी पूजा की। -दगमसर्ग।
पार्श्वनाथकी सेवामें अनेक राजा कन्या रत्न लेकर आये । महाराज विश्व सेनने उनसे निवेदन किया कि विवाह कर गृहस्थजीवन व्यतीत कीजिए। पार्श्वनाथने विवाह करने से इनकार कर दिया और वे विरक्त हो गये । लौ कान्तिक देवोंने आकर उनके बैराग्यको उत्पतिपर पुष्पवृष्टि की। पार्श्वनाथने पंचमुष्टि लोंच कर दीक्षा ग्रहण की। उन्हें दूसरे ही क्षण मनःपर्ययज्ञान प्राप्त हो गया। उपवासके पश्चात् जुल्ममेदनगरके राजा धर्मोदय यहाँ ..पार्श्नाथ ने पायसानका आहार ग्रहण किया । वन में आकर प्रतिमा-योगमें अवस्थित हो गये । कमटका जीव भतानन्द देव आकाश मार्गसे जा रहा था। तीर्थकरके प्रभावसे विमान रुक गया। वह विमान रुकनेके कारणकी तलाश कर ही रहा था कि उसकी दृष्टि पार्श्वनाथ पर पड़ी । उसने पूर्वजन्मका स्मरण कर वाणवृष्टि की, पर बह तीर्थङ्करके प्रभावसे पुष्पवृष्टि बन गयी। धरणेन्द्र-पद्मावती को जब भूत्तानन्दके उपद्रवों पता लगा, तो दोनों तत्क्षण यहाँ आये और प्रभुके उपसर्ग का निवारण किया। भगवानने शुक्ल-ध्यान द्वारा चातियाकर्मोको नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त किया । देवोंके जय-जयनादको सुनकर भूतानन्द आश्चर्यचकित हो गया और वह तीर्थंकरों की स्तुति करने लगा। .. एकादश सर्ग
इन्द्रकी आज्ञासे कुबेरने समवशरणकी रचना की । तिर्यञ्च, मनुष्यादि सभी भगवान्का उपदेश मुनने लगे । मानव-कल्याणका उपदेश सुनकर सभी प्राणी सन्तुष्ट हुए। रत्नत्रय और तत्त्वज्ञानकी अमृतवर्षा हुई। पश्चात् एक महीने का योगनिरोध कर ावतीयकर्मो का भी नाश किया और निर्वाण-लक्ष्मी प्राप्त की। -- द्वादश सर्ग
पार्श्वनाथकी परम्परा-प्रसिद्ध कथावस्तुको ही कविने अपनाया है। यह कथावस्तु उत्तरपुराणमें निबद्ध है। संस्कृत भाषामें कान्य रूपमें पार्श्वनाथ .चरितको सर्वप्रथम गुम्फित करनेका श्रेय बादिराजको ही है । इनसे पूर्व जिन सेन द्वितीय (ई० सन् ९ वी शती) ने पार्श्वभ्युदय में इस चरितको संक्षेपमें निबद्ध किया है। समग्र जीवनकी कथावस्तु वहाँ नहीं आ पायी है। अपभ्रंश पद्म कीर्तिने वि० सं० १९.२ (ई. सन् ९३५ ) में १८ सन्धियोंमें पासणाहचरिउको रचना अवश्य की है। कवि वादिराजने उक्त अपभ्रंश 'पासणाहूचरित्र का अध्य यन किया हो, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । वि० सं० ११८९ (ई० सन् ११३२) में श्रीधरने १२ सन्धियों में अपभ्रश भाषामें एक अन्य ‘पासणाहरिउकी रचना की है । संस्कृत भाषामें (ई सन् १२१९) माणिक्यचन्द्र द्वारा और सन् १२५५ ई०में भावदेवसूरि द्वारा पाश्र्वनाथचरित नामक काब्य लिखे गये हैं। प्राकृत भाषामें पार्श्वनाथचरितका गुम्फन सर्वप्रथम अभयदेवके प्रशिभ्य देवभद्रसूरि द्वारा वि० सं० १९६८ (ई० सन् १९९१) में किया गया है । अत: काब्य रूपमें अपभ्रंश के पासणाहरिउके पश्चात् संस्कृतमें वादिराजका ही चरितकाव्य उपलब्ध होता है । कथावस्तुका मूल स्रोत तिलोयपपणत्ती', 'चउपन्नमहापुरिस चरिय' (वि० सं० ९२५ , ई० सन् ८६८) एवं उत्तरपुराण (सक सं० ८२०, ई० सन् ८९.८) हैं। उत्तरपुराणमें बताया गया है कि पार्श्वनाथ युवक होने पर क्रीड़ा करने वनमे गये । यहाँ उन्हें महीपाल नामक तापस पंचाग्नि तप करते मिला । यह पाश्र्वनाथका मातामह था। चउम्पन्नमहापुरिसरियमें यही कथानक इस
१. उत्तरपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, ७३ पर्व, पृ ० -४२१-४४२ ।
प्रकार आया है कि एक दिन पार्श्वनाथ अपने भवनके ऊपरी भाग पर बैठे हुए, थे । उन्होंने देखा कि नगरके लोग नगरसे बाहर चले जा रहे हैं । पूछने पर पता चला की कमठ नामक साधु ..नगरी के बाहर आया है ! वह महान तपस्वी है । लोग उसकी वन्दनाके लिए जा रहे है । पुष्पदन्तने अपने महापुराणमें उत्तरपुराणके अनुसार ही कथानक लिखा है, पर इस काव्यमें बताया गया है कि सभामै एक पुरुषने आकर सूचना दी कि नगरके बाहर एक मुभि आया है जो पंचाग्नि तप कर रहा है। अनुचरके वचन सुनकर पार्श्वनाथने अपने अवधिज्ञानसे जाना कि कमलका जीव नरक से निकलकर तप कर रहा है। वे वहाँ पहुँचे और उन्होंने हिंसक तप करने से उसे रोका और अधजले नाग-नागिनको णमोकार मन्त्र सुनाया।
उपर्युक्त कथानकको कविने उत्तरपुराणसे ज्यों-का-त्यों नहीं लिया है। अपनी कल्पनाका भी उपयोग किया है। इसी प्रकार पार्श्वनाथ पर उपसर्ग करने वालेका नाम उत्तरपुराण और पुष्पदन्तके महापुराणमें सम्बर आया है, जबकि इस महाकाव्यमें भूतानन्द नाम बताया है। भगवान् पार्श्वनाथ को आहार देने वाले राजाका नाम उत्तरपुराणमें धन्य बताया है, जबकि इस काव्यमें धर्मोदय नाम आता है । इस प्रकार कथावस्तुका चयन परम्परा-प्राप्त ग्रन्थोंसे किया गया है।
कथावस्तुका गठन सुन्दर हुआ है। शैथिल्य नहीं है। श्रृंगारिक वर्णन .कथावस्तुको सरस बनाने में सहयोगी है । पूर्वभवोंकी योजनाने घटनाओंको विश्रुललित नहीं होने दिया है । कविका मन मरुभूतिके पश्चात् वज्रनाम चक्रवती के जन्मकी घटनाओंके वर्णनमें अधिक रमा है । सभी घटनाएं श्रंखलाबद्ध हैं। कई जन्मोंके आख्यानोंको एक सूत्र में आबद्ध करनेका सफल प्रयास किया गया है। यद्यपि अनेक जन्मोके आल्याम-वर्णनसे पाठकका मन ऊब जाता है और उसे अगले जन्मसे सम्बन्ध जोड़ने के लिए भवाबलिको स्मरण रखना पड़ता है, तो भी कथामें प्रवाहकी कमी नहीं है। समस्त कथानक एक ही केन्द्रके चारों ओर चक्कर लगाता है। एक मनोवैज्ञानिक त्रुटि यह दिखलाई पड़ती है कि कमठ कई भवों तक एकान्तर वैर करता रहता है, जबकि मरुभूतिका जीव सदेव उसकी भलाई करता है। कभी भी वैर-विरोध नहीं करता । अन्तिम पार्श्वनाथ भवमें भी वह कष्ट देता है। पार्श्वनाथको केवलज्ञान होनेपर ही उसका विरोध शान्त होता है ! अतः इस प्रकारका एकाकी विरोध अन्यत्र बहुत कम माता है । 'समराइच्चकहा' में समरादित्यका वैर-विरोध भी अग्नि शर्माके साथ नौ भबों तक चला है। हाँ, अग्निशर्माको गुणसेनके भवमें समरादित्य अवश्य कष्ट देता है और उसको चिढ़ाता है। अतः रुष्ट होकर अग्निशर्मा निदान करता है और नौ भवों तक वैर-विरोध चलता रहता है। पार्श्वनाथचरितमें भी इस प्रकारका बैर-विरोध पाया जाता है । मरुभूति कमठसे अपार स्नेह करता है, पर कमठ उसके निश्छल प्रेमको आशंकाको दृष्टिसे देखता है । अन्विति-मुण कथावस्तुमें निहित है।
शास्त्रीय लक्षणों के अनुसार पार्श्वनाथचरित महाकाव्य है। इसमें १२ सर्ग हैं और मंगलस्तवनपूर्वक काब्यका आरम्भ हुआ है । नगर, वन, पर्वत, नदियाँ, सम, उषा, सध्या, रजनी, चन्द्रोमय, प्रभास आदि प्राकृतिक दृश्योंके वर्णन, जन्म, विवाह, स्कन्धावार, सैनिक अभियान, युद्ध, सामाजिक उत्सव, श्रृंगार , करुण आदि रस, हाव-भाव बिलास एवं सम्पत्ति-विपत्तिमें व्यक्तियोंके सुखःदुखों के उतार-चढ़ावका कलात्मक वर्णन पाया जाता है। तीर्थकरके चरित्रके अति रिक्त राजा-महाराजा, सेठ-साहकार, किरात-भील, चाण्डाल आदिके चरित्र चित्रणके साथ पशु-पक्षियोंके चरित्र भी प्रस्तुत किये गये हैं । व्यक्ति किस प्रकार अपने चरित्रका विकास या पतन अनेक जन्मोंमें करता रहता है, इसका सुन्दर निरूपण किया गया है।
पार्श्वनाथचरित्र मे सुन्दर रस-भावपूर्ण उक्तियोंके साथ विभिन्न संवेगोंका चित्रण आया है। समस्त श्रेष्ठ कवियोंने अपने काब्यको कलात्मक कल्पना और भावनवण बनानेके लिए नवरसोंका समाहार किया है। प्रस्तुत काव्य का अंगी रस शान्त है और अंग रूपमें श्रृंगार , करुण, वीर, भयानक, बीभत्स और रौद्र रसोंका नियोजन पाया जाता है। श्रृंगार ४}६४, ,८|२०, ८|३४,८|३१॥८1४०, २|१२, २|१३, २|१६ एवं २|१७ में विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावके साथ आया है। करुणरस २|६२ में समाहित है। भयानकरस ३|६६ और ३|६७ में पाया जाता है। रौद्ररस ७|५४, ७|५५, ७|५८ और ७|५९ में वर्तमान है। वीररस शताधिक पद्योंमें आया है। ७|६५, ७।६६, ७|७०, ७|१२० एवं ७|१२१ में बीररसका परिपाक बहुत ही सुन्दर हुआ है । शान्तरस का नियोजन इस काव्यमें अनेक स्थानोंपर हुआ है।
चरित्रचित्रणकी दृष्टिसे भी यह महाकाव्य सफल है। नायक पार्श्वनाथका चरित्र अनेक भावोंके बीच उन्नतिशील होकर एक आदर्श उपस्थित करता है । प्रतिनायक कमठ ईर्ष्या -द्धेष , हिंसा एवं अशुभ रागात्मक प्रवृत्तियों के कारण अनेक जन्मोंमें नाना कष्ट भोगता है। नायक सदा प्रतिनायकके प्रति सहानु भूति रखता है। मरुभूतिके भवमें भात-वात्सल्यका बैसा उदाहरण मिलना कठिन है। प्रकृतिचित्रण और अलंकारयोजनाकी दृष्टिसे भी यह काव्य सफल
है। इस काव्यमें उपमालंकारको योजना ४/५४, ५।२७, ५२९९, ८/५२, २०२७, २१३४, २२९९, २।२३, १०१६, १७।११, १२११, ११५१, १११७१, १२०, ११३४, ४।४, ४११८, ४।१११ एवं ७५९ में पायी जाती है। उत्प्रेक्षा २०१०७, महाक २४१, अर्थान्तरन्यास ११४५, अतिशयोक्ति ८९८, उदाहरण ९।६, दृष्टान्त ११३, विभावना १२५, तुल्ययोगिता १३९४, असंगति २८, सन्देश ६।१०', भ्रान्तिमान ३१७३, समासोषित २२११४, कायलिङ्ग ३१२४, विशेषोक्ति १०, श्लोष २६, अनुप्रास ४५२ और यमककी ३२७, ३२३६ एवं ३१.५९, में योजना पायी जाती है।
भाव एवं रसका निरूपण करने वाली प्रसादगुणसम्पन्न, सरल भाषामें भावानुसार शब्दावलीका प्रयोग कर वादिराजने पार्श्वनाथचरितमें सरस शैली का प्रयास किया है। कान्यके सम्बन्धमें कविकी स्वयं मान्यता है
अल्पसारापि मालेव स्फुरन्नायकसद्गुणा 1
कण्ठभूषणतां याति कवीनां काव्यपद्धतिः ।। १।१५ ।।
अल्पसमास और श्रेष्ठ-गुण-पूर्ण नायक ही काव्यके उत्तम होनेका कारण होता है। वर्ग-योजना, शब्द-गठन, अलङ्कार-प्रयोग, भाव-सम्पत्ति एवं उक्ति वैचित्र्य प्रभृति शैलीको समस्त तत्त्व इनके काव्यमें पाये जाते हैं। कविने शैली को सरस और आकर्षक बनाने के लिए मुक्ति-वाक्योंका भी प्रयोग किया है। ऋतुवर्णन-प्रसंगमें लम्बे समासोंका भी प्रयोग आया है। अत: पंचम, षष्ठ और अष्टम सर्गोको वैदर्भी और गौड़ीके मध्यकी पाञ्चालीमें निबद्ध माना जा सकता है । सामान्यतः इस काव्यको वैदर्भी शैलीका काव्य मानना उपयुक्त है।
कविने अपने पूर्ववर्ती आचार्योंका भी स्मरण किया है । १।१६ में गद्धपिच्छ, १।१७-१८ में समन्तभद्र, श२७ में अकाल, शर१ में बादिसिंह, शर में सन्मति, १३ में जिनसेन, श२४ में अनन्तकीति, १२५ में पाल्यकोति, श२६ में धनञ्जय, १२७ में अनन्तवीर्य, १२८ में विद्यानन्द, १२९ में विशेषवादि
और १।३० में बोरनन्दीका स्मरण आया ।
यशोधरचरित हिंसाका दोष और अहिंसाका प्रभाव दिखलानेके लिये बहुत लोकप्रिय रहा है। कवि वादिराजने इसी लोकप्रिय कथानकको लेकर प्रस्तुत कान्यकी रचना की है । इस काव्यमें चार सर्ग हैं । प्रथम सर्गमें ६२ पद्य, द्वितीय में ७५, तृतीयमें ८३ और चतुर्थ में ७४ पद्य हैं। यशोधरचरिषकी कथावस्तु यशस्तिलकचम्पूको कथावस्तु ही है। अतएव कथावस्तुको पुनरावृत्त करना निरर्थक है।
काव्यगुणोंको दृष्टि से यह यशोधरचरित समृद्ध काव्य है। रस, अलंकार एवं उक्ति-वैचिश्यका समावेश है। कथावस्तुमें मर्मस्पर्शी स्थलोंकी योजना भी वर्तमान है। कवि सन्ध्याका चित्रण करता हुआ कहता है-"भवनमें सुगन्धित धूप जलायी जा रही है, इसकी गन्धसे समस्त नगर सुगन्धित हो उठा है । भवनोंने बातायनोंसे कबूतरोंके पंख का रंग लिये हा धाँके पिण्ड-के-पिण्ड निकलने लगे। उस समय प्रज्वलित रत्न-प्रदीपोंकी लाल-लाल कान्तिस धुनि पिण्ड कुछ रक्त और कुछ पीत हो उठे । मनको प्रसन्न करने वाली सुगन्धिसे मस्त होकर लोग प्रफुल्लित चमेलीके पुष्पोंको भी तुच्छ दृष्टिसे देखने लगे।" यथा--
वहन् बहिश्चारुगवाक्षरध
रामोदितान्तर्भबनस्तदानीम् ।
कपोतपक्षच्छविरुज्जजम्मे
निहारिकालागरुपिण्डधूमः ।।
आताम्रकम्रद्युतिरत्नदीपै
स्वस्मिन् जना. पाटल्यमानान् ।
व्याकोशमल्लीकुसुमानि दाम्ना
मवाममस्तन्नवसौरभेण ।।
भवनोंके बातायनोंसे निकलने वाले धूम्रमें कवि गृहदेवताकी सुगन्वित वासका आरोप करता हुआ कहता है
आवर्तमानः परिमन्दवृत्त्या
वातायनद्वारि चिरं विरजे ।
कर्पूरधूलीसुरभि भस्वान्
श्वासायितस्तद्गृहदेवता हि ।।
भवनोंके वातायनोंपर पहुँचनेपर उनमेंसे निकलते हुए धूम्रके छोटे-छोटे कणोंसे उसकी और ही शोभा हो गयो । बह ऐसा प्रतीत होता था, मानों गृह देवताको सुगन्धित श्वास हो ।
व्यंजनावृत्तिका भी कवि ने उपयोग किया है । कुब्जकके साथ दुराचार करने के अपराध महाराज यशोधर अमृतमतीको मार डालना चाहता था, पर स्त्री बधको अपयशका कारण मानकर उसने उसे मारा नहीं। प्रातःकाल होनेपर
१. यशोधरचरित, पारवाई संस्करण, २|२३-२४ ।
२. वहीं, रा२५ ।
यशोधरने अमतमतीको हँसीमें एक पुष्पसे मारा, जिससे बह मूच्छित हो गयी। शीतलोपचारके पश्चात् दयालु राजा कहने लगा
अनेन रम्नेषु रसच्युता ते ।
कृष्णाननेनाद्य निपीडिताया: ।
दवन केनापि पर विदग्धे
निवारितः संनिहितोऽपि मृत्युः ।।
इस रसील, पर कृष्णमुख कमला ने आज तुम्हें बड़ा कष्ट पहुंचाया । यह बहुत कुशल हुई, जो किसी पूर्वकर्मने तुम्हें आज मृत्युके मुखसे बचा लिया-पास आये हुए मरणको टाल दिया ।
व्यंजनावृत्ति द्वारा रानी अमृतमतीक दुराचारकी बात कह दी गयी है और यह भी ब्यक्त कर दिया है कि आज रात्रिमें तुम्हारी मृत्यु इस खासे हो गयी होती, पर किसी शुभोदयने मृत्युसे तुम्हारी रक्षा कर ली है।।
चतुर्थसर्ग में वसन्त, पुष्पावचय एवं वनविहारका सरस चित्रण किया है। कविने यहाँ वसन्तवीमें मानव-भावनाओंका आरोप कर विभिन्न प्रकारकी संवेद नाओंको अभिव्यक्ति की है। बबिहारके समय महारानियोंकी लतासे तुलना की गयी है और उनमें लताके समस्त गुणोंका दर्शन कराया है। यथा--
निकामतन्वयः प्रसवः सुगन्धय:
तदा दधानास्तरलप्रवालताम् ।
इतस्ततो जग्मुरिलापतेः स्त्रियो
लतास्तु न स्थावरतां वित्तत्यजुः ।।
बसन्तविहारके समय राजमहिषयाँ लताके समान श्रीको धारण कर रही थों | अन्तर इतना ही था कि लताएं अपने स्थान पर ही स्थित रहती हैं, पर महिषियाँ चंचल हो इधर-उधर लीला-विनोद कर रही थी ! लताएँ कोमल और पतली होती है, वे महिलाएँ भी पतली और क्षीण कटिबाली थीं । लताएँ पुष्पोंसे सुगन्धित रहती हैं, वे भी अनेक प्रकारके पुष्पोंके आभूषण पहने हुई थी, उन पुष्पोंकी गन्धसे सुगन्धित हो रही थी । लताएँ चंचल पत्तोंसे युक्त होती हैं, वे सुन्दरियाँ भी अपनी चंचलतासे युक्त थीं।
इस काव्यमें सबसे अधिक महत्त्व' संगीतका बताया है। संगीतमें कितनी शक्ति होती है, यह रानी अमृसमसीकी घटनासे सिद्ध है। रानी अमृतमती अष्टभंग
१. यशोधरचरित, धारवाड़ संस्करण, २०७१ ।
२. वही, ४।३।
नामक कुबड़े महावतके मधुर संगीतकी ध्वनिसे आकृष्ट होती है। अष्टभंग कुरूप, अधेड़ एवं वीभत्स आकृतिका है, पर उसके कण्ठमें अमृत है । यही कारण है कि अमृतमती उसपर रीझ जाती है और अपने यथार्थ नामके विपरीत विष मतीका आचरण करती है।
हिंसा और अहिंसाका महत्व अनेक जन्मोंकी कथा निबद्ध कर व्यक्त किया गया है।
इस स्तोत्रमें २६ पद्य हैं । २५ गद्य मन्दाक्रान्ता छन्दमें हैं और एक स्वागता में । इस स्तोत्रमें भक्ति-भावनाका महत्त्व प्रदर्शित किया है। आचार्यने स्तोत्रके आरम्भमें ही कहा है
एकीभावं गत इव मया यः स्वय कर्मबन्धो
घोरदुःरवं भत-भव-गतो दुर्गनगर: कहोति ।
तस्याप्यस्य त्वयि जिन-रचे भक्तिमुक्तये चेत
जेतु शक्यो भवति न तया कोऽपरस्तापहेतुः ॥१॥
हे भगवान् ! आपकी भक्ति जब भव-भव में एकनित दुःखदायी कर्मबन्ध को तोड़ सकती है, तब अन्य शारीरिक संतापका कारण उससे दूर हो जाये, तो इसमें क्या आश्चर्य है।
भगवत्-भक्तिके मनमें रहनेसे समस्त संताप दूर हो जाते हैं ! भक्तिद्वारा मानवको आत्म-बोध प्राप्त होता है, जिससे वह चैतन्याभिराम, गुणग्राम, आत्मभिरामको प्राप्त कर लेता है | कवि वादिराजने भगवानको ज्योतिरूप कहा है। आचार्यकी दृष्टिमें आराध्यका स्वरूप सौन्दर्यमय मधुरभानसे भरा हुआ है । आशाकी नबीन रश्मियाँ उनके मानस-क्षितिजपर उदित होती हैं, जीवन में एक नवीन उल्लास व्याप्त हो जाता है । भक्तिविभोर होकर तन्मयत्ता की स्थिति आनेपर समस्त मंगलोंका द्वार खुल जाता है। आचार्य इसी तन्ययताको स्थितिका चित्रण करते हुए कहते हैं----
आनन्दानु-स्नपित-वदनं गद्गदं चाभिजल्पन्
यश्चायेत त्वयि दृढ़-मनाः स्तोत्र-मन्नेर्भवन्तम् ।
तस्याभ्यस्तादपि च सुचिरं देह-वल्मीक मध्यात्
निष्कास्यन्ते विविध-विषम-व्याधयः काद्याः ॥३॥
अर्थात्, हे भगवन् ! जो आपमें स्थिरचित्त होता हुआ हर्षाश्रुओसे विगलित गदगद वाणीसे स्तोत्र-मंत्रों द्वारा आपका स्मरण करता है, उसके अनेक प्रकारके
असाध्य रोग उसी प्रकार देह से भाग निकलते हैं जिस प्रकार सपेरेकी बीन सुनते ही वामीसे साँप निकल पड़ते हैं ।
भक्त भगवान की बराबरी करता हुआ कहता है कि जो आप है सो मैं हूँ। शक्तिकी अपेक्षा मुझमें और आपमें कोई तात्विक अन्तर नहीं है । अन्तर इतना ही है कि भगवन् ! आप शुद्ध है, रत्नत्रयगुण विशिष्ट हैं, जब कि मेरी आत्मा अभी अशुद्ध हैं। रत्नत्रयगुणका केवल प्रवेश ही हुआ है, पूर्णता तो अभी दूर है। अत: जिस प्रकार दीपककी लोको प्रज्वलित करनेने लिए अन्य दीपकको लौका सहारा आवश्यक होता है, उसी प्रकार भगवन् ! आत्मशुद्धिके हेतु मुझे आपका अवलम्बन लेना है । यथा
प्रादर्भूत-स्थिर-पद-सुख वामनुध्यायतो में
स्वस्येवाह स इति मतिरुत्पद्यते निर्विकल्पा ।
मिथ्यवयं तदपि लनुते तृप्तिमभ्रषरूपां
दोषात्ममित्त कारबाप्रसादार जन्ति ॥१७||
अर्थान, हे भगवन् ! आपका ध्यान करनेसे मेरे मन में यह भावमा उत्पन्न होती है कि जो आप है सो मैं हूँ । यद्यपि यह बुद्धि मिथ्या है, क्योंकि आप अविनाशी सुखको प्राप्त है और मैं भव-भ्रमणके दुःख उठा रहा हूँ, तो भी मुझे आत्माके स्वभावका बोधकर अविनाशी सुख प्राप्त करना है, इतने मात्र से ही सन्तोष होता है । यह सत्य है कि आपके प्रसादसे सदोष आत्माएँ भी इच्छित फलको प्राप्त हो जाती हैं। इस प्रकार आचार्यने भक्ति-भावनाका वैशिष्टय दिखलाया है। स्तोत्र सरस और प्रौढ़ है।
अकलंकदेबने न्याविनिश्चय नामक तर्कग्रन्थ लिखा है। इस ग्रन्थम ४८० कारिकाएँ है और तीन प्रस्ताव है। प्रथम प्रस्ताव में १६८||, द्वितीय प्रस्तावमें २१६।। तथा तृतीय प्रस्ताव में ९५ कारिकाएँ हैं। वादिराजने इस ग्रन्थपर अपना विवरण लिखा है, जो बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसमें पक्षोंको समृद्ध और प्रामाणिक बनाने के लिए अगणित ग्रन्थोंके प्रमाण उद्धृत किये हैं । इन्होंने अपनी इस टीकाको 'न्याधिनिश्चविबरण' नाम स्वयं दिया है।
प्रणिपत्य स्थिरभक्या गुरून परानप्युदारबुद्धिगुणान् ।
न्यायविनिश्चर्यावधरणभिरमणीयं भया क्रियते ॥
वादिराज द्वारा लिखित भाष्यका प्रमाण बीस हजार श्लोक है । वादिराजने
१. न्यायनिनिश्चयाचबरण, भारतीय ज्ञानपीट काशी, प्रस्तावनामें उद्धृत, पृ० ३५ ।
मूलवर्तिकपर अपना भाष्य लिखा है। इनके भाष्य में अन्तर श्लोक और संग्रह श्लोक भी सम्मिलित हैं। इन्होंने वृति या चूणिगत समस्त पदो का व्याख्यान लिखा है । न्यायविनिश्चयविवरणको रचना अत्यन्त प्रसन्न और मौलिक शैली में हुई है । प्रत्येक विषयका स्वयं आत्मसात् करके ही व्यवस्थित का ढंग से युक्तियों का जाल बिछाया है, जिससे प्रतिवादीको निकलने का अवसर नहीं मिलता। सांख्यके पूर्वपक्षमें (पृ ०२३५) योगभाष्यका उल्लेख 'बिन्ध्यवासिनो भाष्यं शब्द से किया है। मांस्यकारिकाके एक प्राचीन निबन्धमे भोगकी परिभाषा उद्भुत की है।
बौद्धमत समीक्षाम धर्मकीतिके प्रमाणवार्तिक और प्रज्ञा करके वात्तिका लंकारकी इतनी गहरी और विस्तृत आलोचना अन्यत्र देखने में नहीं आयी। वातिकालंकारका तो आधा-सा भाग इसमें आलोचित है। धर्मोतर , शान्तिभद्र, अचंट आदि प्रमुख बौद्धदार्शनिकोंकी समीक्षा की है।
मीमांसादर्शन की नम लोगाने मादर, माधर, मण्डन, कुमारिल आदिका गम्भीर पर्यालोचन किया गया है। इसी तरह न्याय-वैशेषिक मतमें व्योमशिब, आत्र य, भासर्वज्ञ, विश्वम्प आदि नाचीच आचार्यों के मत उनके ग्रन्थोंसे उद्धृत करके आलोचित हुए हैं। उपनिषदोंका वेदमस्तक कहकर उल्लेख किया है । इस तरह जितना परपक्ष-समीदाणका भाग है, यह उन-जन मतोंक प्राचीनतम ग्रंथो से ग्रंथो से लेकर ही पूर्वपक्षक रूपमें उपस्थित्त किया है । ___ स्वाक्ष-संस्थापनामें समन्तभद्रादि आचायोंके प्रमाण वाक्योंस पक्षका समर्थन परिपुष्ट रूपमें किया गया है। कारिकाओंक व्याख्यानमें बादिराजका व्याकरणज्ञान भी प्रस्फुटित हुआ है। कई कारिकाओंके उन्होंने पाँच-पाँच अर्थ तक दिये हैं। दो अर्थ तो साधारणतया अनेक कारिकाओंके दृष्टिगोचर होते हैं । समस्त विवरणमें दो ढाई हजार पद्म इनके द्वारा रचे गये हैं। इनकी तर्कणा शक्ति अत्यन्त मौलिक है। इन्होंने न्यायविनिश्चयके प्रत्यक्ष, अनुमान और ..प्रवचन इन तीनों परिच्छेदोंपर विवरणकी रचना की है। ज्ञान-ज्ञेयतत्व, प्रमाण प्रमेयतत्त्व आदिका विवेचन इस ग्रन्थमें पाया जाता है और अकलंकदेवने जिन मल विषयोंकी उत्थापना की है, उनका विस्तृत भाष्य इस विवरणमें आया है। तर्क और दर्शनके तत्त्वोंको स्पष्ट रूपमें समझानेका प्रयास किया है।
इस लघुकाय ग्रन्थमें प्रमाणनिर्णय, प्रत्यक्षनिर्णम, परोक्षनिर्णय और आगम निर्णय ये चार प्रकरण हैं। प्रमाणनिर्णयके अन्तर्गत प्रमाण का स्वरूपनिर्धारण करते हुए सम्यग्ज्ञानको ही प्रमाण बताया है । इस प्रकरणमें नैयायिक , मीमांसक, बौद्ध प्रति दार्शनिकोंकी प्रमाणविषयक मान्यताओंकी समीक्षा की गयी है । बताया है----
सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं प्रमाणत्वान्यथाऽनुपपतेः । इदमेव हि प्रमाणस्य प्रमाण त्वं यत्प्रमितिक्रिया प्रति साधकतमत्वेन करणत्वम । तच्च तस्य सम्यग्ज्ञानत्वे सत्येव भवति नाश्चेतनले माग्यम्यग्ज्ञानत्वे । ननु च तरिक्रयायामस्त्येवाचेत्तन स्थापीन्द्रियलिङ्गादे: करणत्वं, चक्षुषा प्रमीयते धूमादिना प्रमीयत इति । तत्रापि प्रमितिक्रियाकरणत्वस्य प्रसिद्धेरिति चेत् ।
इस प्रकरणमें व्यवसायात्मक सम्यग्ज्ञानको ही प्रमाण सिद्ध किया है। इन्द्रिय, आलोक, सन्निकर्ष आदिको प्रमाणसाकी समीक्षा की गयी है । ज्ञानकीं उत्पत्तिमें अर्थ और आलोकको कारणताका निरसन किया है।
प्रत्यक्षनिर्णय प्रकरणमें स्पष्ट प्रतिभासित होनेवाले ज्ञानको प्रत्यक्ष कहा है । स्पष्टावभास इन्द्रियज्ञान में संभव नहीं है, अतः इन्द्रियज्ञान परोक्ष है। स्पष्ट प्रतिभास प्रत्यक्षज्ञान में पाया जाता है और वह अतीन्द्रिय होता है | इस सन्दर्भमें सन्निकर्षके प्रत्यक्षत्वका निरसन किया है। चक्षुके प्राप्यकारिखका पूर्वपक्ष प्रस्तुत करते हुए लिखा है—'चक्षुः सन्निकृष्टमर्थं प्रकाशयति बाह्मन्द्रिय त्वात्त्वगादिवत्" अर्थात् चक्षु सन्निकृष्ट अर्थको ही प्रकाशित करती है, बाह्य न्द्रिय होनसे, स्पदर्शन के इन्द्रियो समान । इस अनुमान द्वारा चक्षुका प्राप्य कारित्व सिद्ध करके उसका निरसन किया है।
इस ग्रन्थमें परोक्षके दो भेद किये हैं-१. अनुमान और २. आगम | अनुमानके गौण और मुख्य भेद करके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्कको गौण अनुमान माना गया है। इस प्रकारकी भेदकल्पना नवीन प्रतीत होती है, अन्य किसी प्रमाणग्रन्थमें ऐसा दिखलायी नहीं पड़ता है। वादिराजने तर्कप्रमाणकी सिद्धि करते हुए लिखा है कि व्याप्तिके ज्ञानको तर्क कहते हैं तथा साध्य और साधनके अविनाभावको व्याप्ति । अविनाभाव एक नियम है और यह नियम दो प्रकारसे व्यस्थित है—१. तथोपपत्ति और २. अन्यथानपत्ति । साध्य के होने पर ही साधनका होना तथोपपत्ति और साध्य के न होने पर साधन का न होना ही अन्यथानुपपत्ति-अविनाभाव है। व्याप्तिका ज्ञान अन्य किसी प्रमाणसे सम्भव नहीं है, अत: तर्कप्रमाण मानना आवश्यक है। तर्कका अनुमान करनेसे अन्तर्भाव सम्भव नहीं है-'तदवच्छेदेनावगतात्तु तसो नानुमानमन्यत्रा
१. प्रमाणनिर्णय, माणिकवन्ध दि जै ग्रंथमाला , वि-सं० १९७४, पृ० १-२ ।
२. प्रमाणनिर्णय, पृ० १८ ।
न्यदा तदभावेऽपि तद्भावर्शकलस्यानिवृतेः । तस्मात्प्रत्यक्षानुमानाभ्यामन्यत्तयै वायं विकल्पः प्रमायितव्यः ।"
चार्वाक के प्रति अनुमानकी प्रमाणता भी सिद्ध की गयी है। अनुमानके अभावमें न तो किसी भी बुद्धिका परिज्ञान होगा और न स्वेष्टसिद्धि तथा परेष्ट में दोषोद्भावन ही सम्भव होगा। भूतचतुष्टयकी सिद्धि भी अनुमानके बिना नहीं हो सकती है । अतएव चार्वाकको भी अनुमान प्रमाण मानना पड़ेगा।
अभावका अन्तर्भाव प्रत्यक्षप्रमाणमें किया है। अनुमान के वैरूप्य और पाञ्चयोंका निरसन करते हुए अबिनाभावको ही हेतु सिद्ध किया है ।
आगमप्रमाण चर्चा करते हुए बताया है कि शब्दप्रमाणका अन्तर्भाव अनुमानमें सम्भव नहीं है, क्योंकि दोनोंका विषय भिन्न है। शब्द केवल वक्ता की इच्छाम ही प्रमाण है, बाह्य अर्थ में प्रमाण नहीं, यह भी कहना असंगत है । अतः शब्दका विषय केवल विवक्षा ही नहीं है । इसी सन्दर्भ में शब्दको पौद्गलिक
भी सिद्ध किया है।
यह ग्रंथ गद्ये में अकलंकदेव ग्रन्थों का सार लेकर लिखा गया है। ग्रन्थ कर्तने लिखा है
मुख्यसंव्यवहाराभ्यां प्रत्यक्ष यनिरूपित्तम् ।।
दबस्तस्यात्र संक्षेपानिर्णयो चाणतो मया ।
गुरु | आचार्य श्री मतिसागर जी |
शिष्य | आचार्य श्री वादिराज |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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