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#Vasunandi1st12ThCentury
वसुनन्दि नामके अनेक आचार्य हुए हैं । एक ही बसुनन्दिको आप्तमीमांसा. वस्ति, जिनशतकटीका, मलाचारवृत्ति, प्रतिष्ठासारसंग्रह रचनाएँ सम्भव नहीं हैं । ग्रन्थ परीक्षणोंसे यह अनुमान होता है कि आप्तमीमांसावृत्ति और जिन शतक टीकाके रचयिता एक ही व्यक्ति हैं । इसी प्रकार प्रतिष्ठापाठ और श्रावकाचारके रचयिता भी एक ही वसुनन्दि होंगे, क्योंकि इन दोनों रचनाओं में पर्याप्त साम्य है। वसुर्नान्द प्रथमने प्रतिष्ठासंग्रहकी रचना संस्कृत भाषामें की है और श्रावकाचार या उपासकाध्ययनकी रचना प्राकृत भाषामें | अतः स्पष्ट है कि वे उभय भाषाके माता थे। यही कारण है कि बसुनन्दिको उत्तरवर्ती
आचायोने सैद्धान्तिक उपाधि द्वारा उल्लिखित किया है। श्रावकाचारकी प्रशस्ति में वसुनन्दिने अपनी गुरुपरम्पराका निम्न प्रकार लल्लेख किया है
भासी मामा घरसम्मनित सिमांमदसंताणे ।
भन्वयणकुमुयवसिसिरयरोसिरिदिणामेण ||
कित्ती जस्सिदुसुम्भा सयलभुवणमझे जहिच्छे मित्ता,
णिच्चं सा सज्जणाणं हियय-वयण-सोए णिवासं करेई ।
जो सिद्धसबुससि सुणयतरणमासेज्जलीलावत्तिण्णो ।
वण्णेउ को समल्यो सयलगुणगणं से बियड्ढो विलोए॥
सिस्सो तस्स जिणिदसासणरओ सिद्धांतपारंगयो,
खंती-मेदव-लाहबाइदसहाधम्मम्मिणिमुज्जयो।
पुषणेदुज्जलकित्तिपूरियजमो चारित्तलच्छीहरो,
संजाओ जयशंदिणाममुणिणो भव्यासयाणंदबो।।
सिस्सो तस्स जिणागम-जलगिहिवेलातरंगधोयमणो ।
संजाओ सयलजए विश्खाभो मिचन्दु सि ।।
तस्स पसाएण मए आइरिय परंपरागयं सत्थं ।
बच्छल्लयाए रइयं भवियाण मुवासयजावणं ।।'
श्री कुन्दकुन्दाचार्यको आम्नाय में स्वसमय और परसमयके जायक भव्य जनरूप कुमुदवनको विकसित करनेवाले चन्द्रतुल्य श्रीनन्दि नामके आचार्य हुए।
जिसको चन्द्रसे भी शुभ कीर्ति समस्त भुवनों के भीतर इच्छानुसार परिभ्रमण कर पुनः वह सजनोंके हृदय, मुख और श्रोत्रमें निवास करती है, जो सुनयरूप नौकाका आश्रय लेकर सिद्धान्तरूप समुद्रको लोलामात्रसे पार कर गये उन श्रीनन्दि माचार्यके समस्त गुणगणोंका कोन वर्णन कर सकता है।
उन श्रीनन्दि आचार्यका शिष्य जिनेन्द्रशासनमें रत, सिद्धान्तका पारंगत, क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दक्ष प्रकारके धर्ममें नित्य उद्यत, पूर्णचन्द्र के समान उज्वलकीतिसे जलको पवित्र करनेवाला चारित्ररूपी लक्ष्मीका धारक और
भव्यजीवोंके हृदयको आनन्छित करनेवाला नयनन्दि नामका मुनि हुआ ।
उस नयनन्दिका शिष्य जिनागमरूप जलनिधिको बेलातरंगोंसे धुले हुए हृदयवाला नेमिचन्द्र-इस नामसे सकल जगत् में प्रसिद्ध हुआ।
उन नेमिचन्द्र आचार्य प्रसादसे मैंने आचार्यपरम्परासे आया हुआ यह उपासकाध्ययनशास्त्र वात्सल्यभावनासे प्रेरित होकर भन्यजीवों के लिए रचा है।
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि कुन्दकुन्दाचार्यकी परम्परामें श्रीनन्दि नामके
१. वसुनम्ति श्रावकाचार, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करग, प्रशस्ति, गाया-५४०-५४
आचार्य हुए। उनके शिष्य नयनन्दि और नयनन्दिके शिष्य नेमिचन्द्र हुए। नेमिचन्द्र के प्रसादसे बसुनन्दिने यह उपासकाध्ययन लिखा है।
आचार्य वसुनन्दिने आचार्य नयनन्दिको अपने दादागुरुके रूपमें स्मरण किया है ! 'मुदं सणार ३'को पस्सिमें बताया है। पान महाराज मोज
अनेक विद्वान और आचार्योंके आश्रयदाता थे । लिखा है
आराम-गाम-पुरवर णिवेस, सुपसिद्ध अवंती णाम देस ।
सुरवापुरिव्य विबुहयणइट्ट, हि अस्थि धारणयरो गरिष्ट ।।
रणिदुद्धर अरिवर सेल-वजु, रिद्धिय देवासुर जणिय चोज्जु ।
सिहयण नारायण सिरिणिकेत, तर्हि रवइपुगम भोयदेउ ।
मणि गणपहसियविगभस्थि, ताहि जिणवर यद्धविहारु अस्थि ।
णिव विक्कम्मकालहो बगएम, एयारह संवच्छर स एस ।
तहिं केबलि चरिउ अमरच्छरेण, णयणंदी विरयउ विस्परेण ॥"
इस प्रशस्तिसे यह स्पष्ट है कि नयन्दि धारानरेश महाराज भोजके समय विद्यमान थे और उन्होंने वि० सं० ११०० में 'मुर्दसणचरिउपकी रचना की । नयनन्दि सुप्रसिद्ध ताकिक परीक्षामुख सूत्रकार आचार्य माणिकनन्दिके शिष्य थे। बसुनन्दिने अपनी प्रशस्तिमें नयनन्दिको श्रीनन्दिका शिष्य लिखा है। नग्रनन्दिने अपनी गुरुपरम्परा में श्रीनन्दिके नामका उल्लेख नहीं किया । वसु. नंदिका श्रीनन्दिसे क्या अभिप्राय है-यह स्पष्ट नहीं होता। श्री पं० हीरालाल जो सिद्धान्तशास्त्रीका अनुमान है कि रामभन्दिके लिए ही वसुनन्दिने श्रीनन्दि का प्रयोग किया। क्योंकि जिन विशेषणोंसे नयनन्दिने रामनन्दिका स्मरण किया है, उन्हीं विशेषणोंका प्रयोग वसुनन्दिने श्रीनन्दिके लिए किया है। नय
नन्दिके शिष्य नेमिचन्द्र हुए और उनके शिष्य बसुनन्दि ।
अन्थरचनाकार वसुनन्दिने इस ग्रन्थ के निर्माणका समय नहीं दिया है। परन्तु उनकी इस कृतिका उल्लेख १३ वीं शताब्दीके विद्वान पंडित माशाधरने अपने 'सागारधर्मामृत'को टोकामें किया है। इससे स्पष्ट है कि इनका समय १३ दौं शताब्दीके पूर्व निश्चित है । मूलाचारको आचारवृत्तिमें ११ वीं शताब्दीके विद्वान आचार्य अमितगतिके उपासकाचारसे पांच श्लोक उदधृत किये हैं। इससे स्पष्ट है कि वे अमितगतिके बाद हुए हैं। अतएव वसुनन्दि श्रावकाधारकी रचना विक्रमकी १२ वीं शताब्दीके पूर्वार्धमें हुई है । श्री स्व० पण्डित नाथूराम १. सुदंसणरिज, प्रशस्तिभाग |
जी प्रेमीने लिखा है-"अमित गतिने भी भगवती आरावनाके अन्समें आराधना की स्तुति करते हुए एक वसुनन्दि योगीका उल्लेख किया है
या नि:शेषपरिग्रहेमदलने दुर्वारसिंहायते,
या कुजानतमोघटाविघटने चंद्राशुरोचीयते ।
या चिन्तामणिरेव चिन्तितफलः संयोजयन्ती जनान,
सा वः श्रीवसुनन्दियोगिलहिता पायातदाराधना' ।
या सो ये वसुनन्दियोगी इन वसुनन्दिसे पूर्ववर्ती कोई दूसरे ही है और या फिर अमितगति और वसुनन्दि समकालीन हैं, जिससे वे एक दूसरेका उल्लेख कर सके हैं। यदि समकालीन हैं तो फिर वसुनन्दिको विक्रमको ११ वीं शतीका विद्वान् होना चाहिये । अतएव श्रीप्रेमोजी और आचार्य युगलकिशोर मुख्तार इन दोनोंके मतसे वसुनन्दिका समय अमिततके पश्चात् और आशाचरके पूर्व होना चाहिये । हमारा अनुमान है कि इनका समन ई० सनकी ११ बौं शताब्दीका उत्तरार्ध सम्भव हैं। यत: वसुनन्दिके दादागुरु श्री नयनन्दिने विक्रम संवत् ११०१ में 'सुदंसणचरित' नामक ग्रन्थकी रचना की है । वसुनन्दि द्वारा दी गयी प्रशस्तिसे यह अनुमान होता है कि वसुन्दि और नयनन्दि समकालीन हैं। उन दोनोंके समय में कोई विशेष अन्तर नहीं है। श्री पण्डित होरालालजी सिद्धान्तशास्त्रीने लिखा है-"इतना तो निश्चित ही है कि नयनन्दिके शिष्य नेमिचन्दहुए और उनके शिष्य बसुनन्दि । वसुनन्दिने जिन शब्दोंमें अपने दादागरुका प्रशंसापूर्वक उल्लेख किया है, उससे ऐसा अवश्य ध्वनित होता है कि वे उनके सामने विद्यमान रहे हैं। यदि यह अनुमान लोक हो तो १२ बों शताब्दीका प्रथम चरण वसुनन्दिका समय माना जा सकता है। यदि वे उनके सामने विद्यमान न भी रहे हों, तो भी प्रशिष्य के नाते वसुनन्दिका काल १२ वीं शताब्दीका पूर्वाध ठहरता है" ।।
श्री पण्डित हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्रीके उक्त कथनसे भी यह स्पष्ट है कि वसुर्नान्दका समय ई० सन्की ११वीं शताब्दीका अन्तिम चरण या १२वीं शताब्दीका प्रथम चरण सम्भव है ।
आचार्य वसुनन्दिके 'प्रतिष्ठासारसंग्रह', 'उपासकाचार' और 'मूलाचार की आचारवृत्ति ये तीन ग्रन्थ इनके हैं। आप्तमीमांसावृत्ति और जिनशतक
१. जैन साहित्य और इतिहासमें उदघृत, पु. ४६३ ।
२. बसुनन्विश्रावकाचार, भारतीय ज्ञानपीक काशी संस्करण, प्रस्तावना, पृ० १९ ।
टोकाके रचयिता अन्य बसुनन्दि हैं । इन समस्त ग्रन्थों में इनकी सबसे महत्त्वपूर्ण रचना उपासकाध्ययन या श्रावकाचार है। उपासकाध्ययन या श्रावकाचार
श्रावकाचारमें कुल ५४६ गाथाएं हैं, जो ६५० श्लोकप्रमाण हैं। मंगलाचरण के अनंतर देशविरति नामक पञ्चम गणस्थानमें दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याम, रात्रिभुक्कित्याम, ब्रह्मा पर बारम्भरतानहिमान, तिबार और उद्दिष्टत्याग ये ११ स्थान-(प्रतिमा) होते हैं। श्रावकको व्रती, उपासक, देशसंयमी और आगारी आदि नामोंसे अभिहित किया जाता है, जो अभीष्टदेव, गुरु, धर्मकी उपासना करता है, बहू उपासक पहलाता है। गृहस्थ वीतराग देवकी नित्य पूजा-उपासना करता है, निर्मथगुरुओंकी सेवा वैयावृत्यम नित्य तत्पर रहता है और सत्यार्थधर्मको आराधना करते हुए यथाशक्ति उसे धारण करता है । अतः बह उपासक कहलाता है । बसुनन्दिने, ११ स्थान सम्यग्दृष्टिके होते हैं, अतः सर्वप्रथम सम्यक्त्वका वर्णन किया है। उन्होंने आत आगम और तत्वोंका शंकादि २५ दोषरहित अतिनिर्मल श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है। आप्त और आगमके लक्षणके पश्चात् जीच, अजीव, मानव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्वों के श्रद्धानको सम्यक्त्व बसलाया है। इसी सन्दर्भ में जीवतत्त्वका वर्णन करते हुए जोवोंके भेद-प्रभेद, उनके गुण, आयु, कुल, योनि का कथन किया है । अजीव तस्यके भेद बतलाकर छहों द्रव्योंके स्वरूपका वर्णन किया है। बताया है कि इन द्रव्योंमें जीव और पुद्गल ये दो परिणामी हैं,
और ये दो ही क्रियावान है, क्योंकि इनमें गमन आगमन आदि क्रियाएँ" पायो जाती हैं । शेष चार द्रब्य क्रियारहित हैं, क्योंकि उनमें हलन-चलन क्रियाएं नहीं पायी जाती । जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंको छोड़ शेष चारों बन्योको परमागममें नित्य कहा गया है क्योंकि उनमें व्यजमपर्याय नहीं पायी जाती है। जीव और पुद्गल इन दोनों ट्रव्यों में व्यंजनपर्याय पायी जाती है। अतएव के परिणामी और अनित्य हैं।
पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पाँच तब्य जीवका उपकार करते हैं, अतएव वे कारणभत हैं। जीव सत्तास्वरूप है, इसीलिये किसी भी द्रव्यका कारण नहीं होता। जीव शुभ और अशुभ कोका कर्ता है क्योंकि वहीं कर्मोके फलको प्राप्त होता है । अतएव वह कर्मफलका भोक्ता भी है । शेष द्रव्य न कोंके कर्ता हैं और न भोक्ता ही हैं। छहों द्रव्य एक दुसरेमें प्रवेश करके एक ही क्षेत्रमें रहते हैं। तो भी एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यमें प्रवेश नहीं होता, क्योंकि ये सब द्रव्य एक क्षेत्रावगाही होकर भी अपने-अपने स्वभावको नहीं छोड़ते।
इसके पश्चात् आखव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्वका स्वरूप विश्लेषण किया गया है। अनन्तर सम्यक्त्वके निःशंक, नि:कांक्ष, निवि चिकित्सा, अमुह दृष्टि, उपगहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना इन आठ अंगोंका नाम निर्दिष्ट किया गया है । सम्यग्दर्शनके होनेपर संवेग, निग, निन्दा, महीं, उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा इन आठ गुणोंके उत्पन्न होनेका कथन आया है । आठ अङ्गों में प्रसिद्ध होनेवालोंके नामका कपन करते हुए बताया है कि राजगह नगरमें अजन नामक चोर निःशकित अंगमें प्रसिद्ध हुआ। चम्पानगरीमें अनन्तमती नामकी वणिक पुत्री नि:कांक्षित अंगमें प्रसिद्ध हुई । रुद्दवर नगरमें उद्दायन नामक राजा निर्विचिकित्सा अंगमें प्रसिद्ध हुमा । मथुरा नगरमें रेवती रानी अमलदष्टि अङ्गमें प्रसिद्ध हुई। मागध नगर-राजगहमें बारिषेण नामक राजकुमार स्थितिकरण गुणको प्राप्त हुआ। हस्तिनापुर नामके नगरमें विष्णुकुमार मुनिने वात्सल्य बंग प्रकट किया। ताम्रलिप्त नगरीमें जिनदत्तसेठ उपगृहन गुणसे युक्त प्रसिद्ध हुमा और मथुरा नगरोमें वचकुमारने प्रभावना अंग प्रकट किया। इस प्रकार सम्यादर्शनका स्वरूप बतलाकर दार्शनिक श्रावकका लक्षण कहा गया है। सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध पंच उदुम्बरफलसहित सप्त व्यसनका त्यागी दार्शनिक श्रावक कहलाता है। यह पंच उदुम्बरफल के साथ सन्धानक, वृक्ष, पुष्प आदिका त्याग करता है।
इसके पश्चात् यूस-मद्य-मांस आदि सातों व्यसनोंके दोषोंका विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है तथा किस-किस व्यसनके सेवनसे किस-किस व्यक्ति को कष्ट प्राप्त हुआ, इसका भी वर्णन किया है । व्यसन सेवन करनेवाला व्यक्ति नरकादि गतियोंमें परिभ्रमण करता है। अतएव १३४वीं गाथासे १७६वीं गाथा तक अर्थात् ४२ गाथाओंमें नरकगसिके दुखोंका वर्णन किया है। नरक गतिमें क्षेत्रकृत, कालकृत एवं पारस्परिक वेरनित वेदनाओंका निरूपण किया है। पश्चात् छह गाथाओंमें तिर्यञ्चतिके दुःखोंका, आठ गाथाओं में मनुष्यगतिके दुःखोंका और १४ गाथाओंमें देवगतिके दुःखोंका वर्णन किया गया है । अन्त में उपसंहार करते हुए लिखा है
एवं बहुपयारं दुक्खं संसार-सायरे घोरे ।
जीवो सरण-विहीणो विसणस्स फलेग पाउणइ ।।'
अर्थात्, अनेक प्रकारके दुःखोंको घोर संसारसागरमें यह जीव शरण रहित होकर अकेला ही व्यसनके फलसे प्राप्त होता है ।
१. बसुनन्दि श्रावकाचार, भारतीय नानपीक काशी, लोक २०४।
२०५वीं गाथासे ३१२वीं गाथा तक ११ प्रतिमाओंका वर्णन आया है। बतप्रतिमाके अन्तर्गत पाँच अणुन्नत, तीन गुण ब्रत और चार शिक्षाबतोंका निरूपण किया है। अतिथिसंबिभाग व्रतके अन्तर्गत दानका वर्णन किया है। उत्तम, मध्य और जघन्यके भेदसे तीन प्रकारके पात्र होते हैं। इनमें प्रत, नियम और संयमका धारण करनेवाला साधु उत्तम पात्र कहलाता है । यारह प्रतिमास्थानों में स्थित श्रावक मध्यम पात्र है। अविरत साम्यग्दष्टि जघन्य पात्र है। जो प्रत, तप और शीलसे सम्पन्न है, किन्तु सम्यग्दर्शनसे रहित है, वह कुपात्र है | सम्यक्त्व, शील और अतसे रहित जीव अपात्र है । जिस दातामें श्रद्धा, भक्ति, सन्तोष, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा और शक्ति ये सात गुण होते हैं, वह दाता प्रशंस्य है।
इसके अनन्तर दान विधिका आहार, औषध, शास्त्र और अभय दानोंका, दानके फलका वर्णन किया गया है। सल्लेखनावतका वर्णन भी किया गया है। अनन्तर सामायिक प्रतिमा, प्रोषधप्रतिमा, सचित्तत्यागप्रतिमा, रात्रि मुक्तित्यागप्रतिमा, ब्रह्मचर्यप्रतिमा, आरम्भनिवृत्तप्रतिमा, परिग्रहत्याग प्रतिमा, अनुमतित्यागप्रतिमा और उद्दिष्टत्यागप्रतिमाके स्वरूपका निरूपण किया गया है। रात्रिभोजनके दोषों का वर्णन करनेके अनन्तर श्रावकके अन्य विधेय कत्तब्योंका कथन किया है। यथा --
विणओ बिज्जाविच्वं कार्याकलेसो य पुज्जणबिहाणं ।
सत्तीए जहजोग्ग कायध्वं देसबिरएहिं ।।'
अर्थात-देशविरत श्रावकको अपनी शक्तिके अनुसार यथायोग्य विनय वैयावृत्य, काय-क्लेश और पूजन विधान करना चाहिये । दर्शनविनय, ज्ञान विनय, चारित्रविनय, सप विनय और उपचारविनय य पाँच प्रकारके विनय, बतलाये गये हैं । वैयावृत्यके अन्तर्गत मुनि, आर्यिका, श्नावक और श्राविका इस चतुविध सनके बैंयावृत्य करने का वर्णन किया है। काय-क्लेशके अन्तर्गत प्रत, उपवास एवं पंचमीयत, रोहिणीनत, अश्विनीवत, सौख्यसम्पत्तिवत, नन्दीश्वरपक्ति व्रत और विमानपंक्तिवत आदि यतोंका कथन किया है।
_ इसके पश्चात् नामपूजा, स्थापनापूजा, आदिका कथन करते हुए प्रतिष्ठा चार्य, प्रतिमा-प्रतिष्ठाकी लक्षणविधि और प्रतिष्ठाफलका कथन आया है। कारापक लक्षण, इन्द्रलक्षण, प्रतिमाविधान, प्रतिष्ठाविधानका विस्तारसे वर्णन आया है। पश्चात् द्रव्यपूजा, क्षेत्रपूजा, कालपूजा, और भावपूजाका कथन आया है। इसके पश्चात आचार्यने पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपा.
१, असनन्दि श्रावकाचार, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, लोक ३१९ ।
तीत ध्यानोंका वर्णन किया है । पूजनके फलका कथन करते हुए प्रत्येक द्रव्यके चढ़ानेके फलका पृथक्-पृथक निरूपण किया है। बताया है कि पूजनके समय नियमसे भगवान्के आगे जलधारा छोड़नेसे पापरूपी मैलका शमन होता है। चन्दन रसके लेपसे सौभाग्यको प्राप्ति होती है। अक्षतोंसे पूजा करनेवाला व्यक्ति अक्षय नव निधि और चौदह रनोंका स्वामी चक्रवर्ती होता है और रोग शोकसे रहित हो अक्षीण ऋद्धिसे सम्पन्न होता है। पुष्पोंसे पूजा करने वाला मनुष्य कमलके समान सुन्दर मुखबाला और विभिन्न प्रकारके दिव्य भागोंसे सम्पन्न कामदेव होता है । नैवेदनाके चटानेमे मनस्य शक्तिमान, तेजस्वी और सुन्दर होता है। दीपोंसे पूजा करनेवाला व्यक्ति केवलज्ञानको प्राप्त करता है। धूपसे पूजा करनेवाला निर्मल यश, फलसे पूजा करनेवाला निर्वाण फल एवं अभिषेक करनेवाला व्यक्ति इष्ट सिद्धियोंको प्राप्त करता है । भगवान की पूजा करनेसे संसारके सभी सुख प्राप्त होते हैं । श्वावक धर्मके पालन करनेके फलका विवेचन करते हुए लिखा है
अणुपालिकण एवं सावयधम्म तओवसाणम्मि ।
सल्लेहणं च विहिणा कामण समाहिणा कालं ॥
सोहम्माइसु जायइ कम्पनिमाणेसु अच्युयंतेसु ।
उववादगिहे कोमलसुयंसिलसंपुस्संते ।।
अंतोमुहुसकालेण तो पज्जत्तिको समाणेइ ।
दिव्यामलदेहधरो बायइ णवजुब्धणो चेव ।।
समचउरससंठाणो रसाइघाहिं बज्जियसरीरो ।
दिणायरसहस्समोणवकुवलयसुरहिणिस्सासो।'
इस प्रकार श्रावकधर्मका परिपालनकर और उसके अन्तमें विधिपूर्वक सल्ले. खना करके समाधिसे मरणकर अपने पुण्यके अनुसार सौधर्मस्वर्गको आदि लेकर अच्युतस्वर्गपर्यन्त कल्पविमानों में उत्पन्न होता है । वहाँके उपपादगृहों के कोमल एवं सुगन्धयुक्त शिलासम्पुटके मध्यमें जन्म लेकर अन्तर्मुहर्तकाल द्वारा अपनी छहों पर्यासियोंको सम्पन्न कर लेता है तथा अन्तर्मुहूर्त के भीतर दिव्य निर्मल देहका धारक एवं नवयौवनसे युक्त हो जाता है । वह देव समचतुरस्त्र संस्थानका धारक, रसादि धातुओंसे रहित शरीरवाला, सहस्र सूर्योके समान तेजस्वी, नवीन कमल के समान सुगन्धित निःश्वासवाला होता है ।
इस प्रकार श्रावकधर्मका पालन करनेका फल भोगभूमि, देवगति एवं मनुष्यगतिमें विविध भोगोंकी उपलब्धि होना बतलाया है । बुद्धि, तप, विक्रिया
१. वसुनन्दि बावकाचार, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, पलोक ४९४-४१५ ।
औषध, रस, बल और अक्षीण महानस ऋद्धियोंकी प्राप्ति भी होती है । मनुष्य पर्यायको प्राप्त कर मुनिधर्मका आचरण करता हुआ पुण्यात्मा निर्वाणको प्राप्त कर लेता है।
___ बसुनन्दिने एकादश प्रतिमाओंको आधार मान कर श्रावधर्मका प्रति पादन किया है। इन्होंने कुन्दकुन्दके समान सल्लेखनाको चतुर्थ शिक्षाव्रत बतलाया है। श्रावकके आठ मूलगुगोंका उल्लेख भी नहीं किया गया है। सप्त व्यसनोंमें मांस और मध सेवन ये दो स्वतन्त्र विषय माने गये हैं और मद्य सेबनके अन्तर्गत मधुके परित्याग का भी स्पष्ट निर्देश किया है तथा दर्शनप्रतिमा धारामः दिए साध्यसनोंक साप बांध उदुम्भ रफाड त्यागका भी स्पष्ट कथन आया है । वसुनन्दीने अपने इन विचारों द्वारा अष्टमलगुणवाली परम्पराका भी समन्वय करनेकी चेष्टा की है।
वसुनन्दोके इस श्रावकाचारमें व्रतोंके अतिचारोंका कथन नहीं आया है । प्रतीत होता है कि इन्होंने आचार्य कुन्दकुन्दले 'चारित्रपाहुड'को शैलीका अनुसरण कर अतिचारोंका कथन नहीं किया है । स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा और देवसेनके भावसंग्रह में भी अतिचारोंका कथन नहीं आया है। इस प्रकार वसु नन्दिने अपने उपासकाध्ययनमें अनेक नये तथ्योंका समावेश किया है।
इस ग्रन्थमें छः परिच्छेद है। प्रथम और द्वितीय परिच्छेदमें पंचांग शुद्धि और लग्न-शुद्धिका वर्णन आया है। लान-शुद्धिके साथ षड्वर्ग-शुद्धि, गोचर ग्रह-शुद्धि आदि भी वर्णित हैं। तृतीय परिच्छेदमें भूमि-शुद्धि, भूमि-परीक्षा, दिग्देवता, वास्तु-पूजा, वास्तुपूजाके मन्त्र, दिशाओंके स्वामो आदि वर्णित हैं। अन्यकर्ताने इस परिच्छेदका नाम वास्तुविचार रस्त्रा है।
चतुर्थ परिच्छेदके प्रारम्भमें जिनबिम्बके बनानेको विधिका वर्णन करते हुए लिखा है
अथ बिबं जिनेंद्रस्य कसंध्यं लक्षणान्वितम् ।
ऋज्वायतसुसंस्थान तरुणांगं दिगंबरम् ।।
श्रीवृक्षभूषितोरस्कं जानुप्राप्तकराग्रजम् ।
निजांगुलप्रमाणेन साष्टांगुलशतायुतम् ।।
१. जन सिद्धान्त भवम आराको हस्तलिखित प्रति
चतुर्थ परिच्छेद, पञ्च १-२ ।
प्रतिमाके करु, नाभि, कर्ण, जानु आदि विभिन्न अंगोंके प्रमाणका विवेचन किया गया है। इस परिच्छेदमें ८२ पद्य हैं और मूर्तिनिर्माणको विधिका पूर्णतया वर्णन किया गया है।
पञ्चम परिच्छेदमें प्रतिष्ठाकी बेदीका वर्णन है और क्षेत्रपाल एवं दिग्पालके स्वरूपका चित्रण किया गया है। अनन्तर २४ तीर्थकरोंके यक्षोंके वाहनोंका वर्णन आया है। पश्चात् २४ मन्त्रों द्वारा यक्षोंकी आहुतियाँ वर्णित हैं 1 षष्ठ परिच्छेदमें मण्डप-विधि, विषा-निमांग, कणिका-ननाम तथा देवा शुद्धि विभिन्न मन्त्र आये हैं।
षोडश विद्या-देवियों की स्थापनाके अनातर उनकी पूजाके मन्त्र दिये गये हैं। चतुर्विति जिन-मात्रिकाओं, ३२ इन्द्रोंके स्थापना-मन्त्र एवं पूजन-मन्त्र दिये गये हैं। द्वारपाल और दिकपालकी स्थापनाविधि भी आयी है। माला स्थापना एवं विभिन्न द्रव्यों के स्थापना-मन्त्र भी अंकित किये गये हैं।
सकलीकरणको विशिष्ट विधि दी गयी है तथा वेदीशुद्धि और वेदो प्रतिष्ठाके विभिन्न मन्त्र और विधियाँ अंकित हैं। ध्वजारोपण, कलश-स्थापना
आदिकी विधि आयी है । अन्तमें निम्नलिखित प्रशस्ति अंकित है
"इति श्री वसुनन्दिगैद्धान्तिकविरचिते प्रतिष्ठासारसंग्रहे षष्ठपरिच्छेदः स्वस्ति थी काष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे लोहाचार्यआम्नाये भट्रारक दिल्लीपट्टाधीशा श्री १०८ राजेन्द्रकीतिदेवाः तेषां शिष्यपण्डितपरमानन्देन लिखितमिदम् ।।"
गुरु | आचार्य श्री नेमिचंद्र जी |
शिष्य | आचार्य श्री वसुनंदी प्रथम |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Vasunandi1st12ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री वसुनंदी प्रथम 12वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 03-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 03-May- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
वसुनन्दि नामके अनेक आचार्य हुए हैं । एक ही बसुनन्दिको आप्तमीमांसा. वस्ति, जिनशतकटीका, मलाचारवृत्ति, प्रतिष्ठासारसंग्रह रचनाएँ सम्भव नहीं हैं । ग्रन्थ परीक्षणोंसे यह अनुमान होता है कि आप्तमीमांसावृत्ति और जिन शतक टीकाके रचयिता एक ही व्यक्ति हैं । इसी प्रकार प्रतिष्ठापाठ और श्रावकाचारके रचयिता भी एक ही वसुनन्दि होंगे, क्योंकि इन दोनों रचनाओं में पर्याप्त साम्य है। वसुर्नान्द प्रथमने प्रतिष्ठासंग्रहकी रचना संस्कृत भाषामें की है और श्रावकाचार या उपासकाध्ययनकी रचना प्राकृत भाषामें | अतः स्पष्ट है कि वे उभय भाषाके माता थे। यही कारण है कि बसुनन्दिको उत्तरवर्ती
आचायोने सैद्धान्तिक उपाधि द्वारा उल्लिखित किया है। श्रावकाचारकी प्रशस्ति में वसुनन्दिने अपनी गुरुपरम्पराका निम्न प्रकार लल्लेख किया है
भासी मामा घरसम्मनित सिमांमदसंताणे ।
भन्वयणकुमुयवसिसिरयरोसिरिदिणामेण ||
कित्ती जस्सिदुसुम्भा सयलभुवणमझे जहिच्छे मित्ता,
णिच्चं सा सज्जणाणं हियय-वयण-सोए णिवासं करेई ।
जो सिद्धसबुससि सुणयतरणमासेज्जलीलावत्तिण्णो ।
वण्णेउ को समल्यो सयलगुणगणं से बियड्ढो विलोए॥
सिस्सो तस्स जिणिदसासणरओ सिद्धांतपारंगयो,
खंती-मेदव-लाहबाइदसहाधम्मम्मिणिमुज्जयो।
पुषणेदुज्जलकित्तिपूरियजमो चारित्तलच्छीहरो,
संजाओ जयशंदिणाममुणिणो भव्यासयाणंदबो।।
सिस्सो तस्स जिणागम-जलगिहिवेलातरंगधोयमणो ।
संजाओ सयलजए विश्खाभो मिचन्दु सि ।।
तस्स पसाएण मए आइरिय परंपरागयं सत्थं ।
बच्छल्लयाए रइयं भवियाण मुवासयजावणं ।।'
श्री कुन्दकुन्दाचार्यको आम्नाय में स्वसमय और परसमयके जायक भव्य जनरूप कुमुदवनको विकसित करनेवाले चन्द्रतुल्य श्रीनन्दि नामके आचार्य हुए।
जिसको चन्द्रसे भी शुभ कीर्ति समस्त भुवनों के भीतर इच्छानुसार परिभ्रमण कर पुनः वह सजनोंके हृदय, मुख और श्रोत्रमें निवास करती है, जो सुनयरूप नौकाका आश्रय लेकर सिद्धान्तरूप समुद्रको लोलामात्रसे पार कर गये उन श्रीनन्दि माचार्यके समस्त गुणगणोंका कोन वर्णन कर सकता है।
उन श्रीनन्दि आचार्यका शिष्य जिनेन्द्रशासनमें रत, सिद्धान्तका पारंगत, क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दक्ष प्रकारके धर्ममें नित्य उद्यत, पूर्णचन्द्र के समान उज्वलकीतिसे जलको पवित्र करनेवाला चारित्ररूपी लक्ष्मीका धारक और
भव्यजीवोंके हृदयको आनन्छित करनेवाला नयनन्दि नामका मुनि हुआ ।
उस नयनन्दिका शिष्य जिनागमरूप जलनिधिको बेलातरंगोंसे धुले हुए हृदयवाला नेमिचन्द्र-इस नामसे सकल जगत् में प्रसिद्ध हुआ।
उन नेमिचन्द्र आचार्य प्रसादसे मैंने आचार्यपरम्परासे आया हुआ यह उपासकाध्ययनशास्त्र वात्सल्यभावनासे प्रेरित होकर भन्यजीवों के लिए रचा है।
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि कुन्दकुन्दाचार्यकी परम्परामें श्रीनन्दि नामके
१. वसुनम्ति श्रावकाचार, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करग, प्रशस्ति, गाया-५४०-५४
आचार्य हुए। उनके शिष्य नयनन्दि और नयनन्दिके शिष्य नेमिचन्द्र हुए। नेमिचन्द्र के प्रसादसे बसुनन्दिने यह उपासकाध्ययन लिखा है।
आचार्य वसुनन्दिने आचार्य नयनन्दिको अपने दादागुरुके रूपमें स्मरण किया है ! 'मुदं सणार ३'को पस्सिमें बताया है। पान महाराज मोज
अनेक विद्वान और आचार्योंके आश्रयदाता थे । लिखा है
आराम-गाम-पुरवर णिवेस, सुपसिद्ध अवंती णाम देस ।
सुरवापुरिव्य विबुहयणइट्ट, हि अस्थि धारणयरो गरिष्ट ।।
रणिदुद्धर अरिवर सेल-वजु, रिद्धिय देवासुर जणिय चोज्जु ।
सिहयण नारायण सिरिणिकेत, तर्हि रवइपुगम भोयदेउ ।
मणि गणपहसियविगभस्थि, ताहि जिणवर यद्धविहारु अस्थि ।
णिव विक्कम्मकालहो बगएम, एयारह संवच्छर स एस ।
तहिं केबलि चरिउ अमरच्छरेण, णयणंदी विरयउ विस्परेण ॥"
इस प्रशस्तिसे यह स्पष्ट है कि नयन्दि धारानरेश महाराज भोजके समय विद्यमान थे और उन्होंने वि० सं० ११०० में 'मुर्दसणचरिउपकी रचना की । नयनन्दि सुप्रसिद्ध ताकिक परीक्षामुख सूत्रकार आचार्य माणिकनन्दिके शिष्य थे। बसुनन्दिने अपनी प्रशस्तिमें नयनन्दिको श्रीनन्दिका शिष्य लिखा है। नग्रनन्दिने अपनी गुरुपरम्परा में श्रीनन्दिके नामका उल्लेख नहीं किया । वसु. नंदिका श्रीनन्दिसे क्या अभिप्राय है-यह स्पष्ट नहीं होता। श्री पं० हीरालाल जो सिद्धान्तशास्त्रीका अनुमान है कि रामभन्दिके लिए ही वसुनन्दिने श्रीनन्दि का प्रयोग किया। क्योंकि जिन विशेषणोंसे नयनन्दिने रामनन्दिका स्मरण किया है, उन्हीं विशेषणोंका प्रयोग वसुनन्दिने श्रीनन्दिके लिए किया है। नय
नन्दिके शिष्य नेमिचन्द्र हुए और उनके शिष्य बसुनन्दि ।
अन्थरचनाकार वसुनन्दिने इस ग्रन्थ के निर्माणका समय नहीं दिया है। परन्तु उनकी इस कृतिका उल्लेख १३ वीं शताब्दीके विद्वान पंडित माशाधरने अपने 'सागारधर्मामृत'को टोकामें किया है। इससे स्पष्ट है कि इनका समय १३ दौं शताब्दीके पूर्व निश्चित है । मूलाचारको आचारवृत्तिमें ११ वीं शताब्दीके विद्वान आचार्य अमितगतिके उपासकाचारसे पांच श्लोक उदधृत किये हैं। इससे स्पष्ट है कि वे अमितगतिके बाद हुए हैं। अतएव वसुनन्दि श्रावकाधारकी रचना विक्रमकी १२ वीं शताब्दीके पूर्वार्धमें हुई है । श्री स्व० पण्डित नाथूराम १. सुदंसणरिज, प्रशस्तिभाग |
जी प्रेमीने लिखा है-"अमित गतिने भी भगवती आरावनाके अन्समें आराधना की स्तुति करते हुए एक वसुनन्दि योगीका उल्लेख किया है
या नि:शेषपरिग्रहेमदलने दुर्वारसिंहायते,
या कुजानतमोघटाविघटने चंद्राशुरोचीयते ।
या चिन्तामणिरेव चिन्तितफलः संयोजयन्ती जनान,
सा वः श्रीवसुनन्दियोगिलहिता पायातदाराधना' ।
या सो ये वसुनन्दियोगी इन वसुनन्दिसे पूर्ववर्ती कोई दूसरे ही है और या फिर अमितगति और वसुनन्दि समकालीन हैं, जिससे वे एक दूसरेका उल्लेख कर सके हैं। यदि समकालीन हैं तो फिर वसुनन्दिको विक्रमको ११ वीं शतीका विद्वान् होना चाहिये । अतएव श्रीप्रेमोजी और आचार्य युगलकिशोर मुख्तार इन दोनोंके मतसे वसुनन्दिका समय अमिततके पश्चात् और आशाचरके पूर्व होना चाहिये । हमारा अनुमान है कि इनका समन ई० सनकी ११ बौं शताब्दीका उत्तरार्ध सम्भव हैं। यत: वसुनन्दिके दादागुरु श्री नयनन्दिने विक्रम संवत् ११०१ में 'सुदंसणचरित' नामक ग्रन्थकी रचना की है । वसुनन्दि द्वारा दी गयी प्रशस्तिसे यह अनुमान होता है कि वसुन्दि और नयनन्दि समकालीन हैं। उन दोनोंके समय में कोई विशेष अन्तर नहीं है। श्री पण्डित होरालालजी सिद्धान्तशास्त्रीने लिखा है-"इतना तो निश्चित ही है कि नयनन्दिके शिष्य नेमिचन्दहुए और उनके शिष्य बसुनन्दि । वसुनन्दिने जिन शब्दोंमें अपने दादागरुका प्रशंसापूर्वक उल्लेख किया है, उससे ऐसा अवश्य ध्वनित होता है कि वे उनके सामने विद्यमान रहे हैं। यदि यह अनुमान लोक हो तो १२ बों शताब्दीका प्रथम चरण वसुनन्दिका समय माना जा सकता है। यदि वे उनके सामने विद्यमान न भी रहे हों, तो भी प्रशिष्य के नाते वसुनन्दिका काल १२ वीं शताब्दीका पूर्वाध ठहरता है" ।।
श्री पण्डित हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्रीके उक्त कथनसे भी यह स्पष्ट है कि वसुर्नान्दका समय ई० सन्की ११वीं शताब्दीका अन्तिम चरण या १२वीं शताब्दीका प्रथम चरण सम्भव है ।
आचार्य वसुनन्दिके 'प्रतिष्ठासारसंग्रह', 'उपासकाचार' और 'मूलाचार की आचारवृत्ति ये तीन ग्रन्थ इनके हैं। आप्तमीमांसावृत्ति और जिनशतक
१. जैन साहित्य और इतिहासमें उदघृत, पु. ४६३ ।
२. बसुनन्विश्रावकाचार, भारतीय ज्ञानपीक काशी संस्करण, प्रस्तावना, पृ० १९ ।
टोकाके रचयिता अन्य बसुनन्दि हैं । इन समस्त ग्रन्थों में इनकी सबसे महत्त्वपूर्ण रचना उपासकाध्ययन या श्रावकाचार है। उपासकाध्ययन या श्रावकाचार
श्रावकाचारमें कुल ५४६ गाथाएं हैं, जो ६५० श्लोकप्रमाण हैं। मंगलाचरण के अनंतर देशविरति नामक पञ्चम गणस्थानमें दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याम, रात्रिभुक्कित्याम, ब्रह्मा पर बारम्भरतानहिमान, तिबार और उद्दिष्टत्याग ये ११ स्थान-(प्रतिमा) होते हैं। श्रावकको व्रती, उपासक, देशसंयमी और आगारी आदि नामोंसे अभिहित किया जाता है, जो अभीष्टदेव, गुरु, धर्मकी उपासना करता है, बहू उपासक पहलाता है। गृहस्थ वीतराग देवकी नित्य पूजा-उपासना करता है, निर्मथगुरुओंकी सेवा वैयावृत्यम नित्य तत्पर रहता है और सत्यार्थधर्मको आराधना करते हुए यथाशक्ति उसे धारण करता है । अतः बह उपासक कहलाता है । बसुनन्दिने, ११ स्थान सम्यग्दृष्टिके होते हैं, अतः सर्वप्रथम सम्यक्त्वका वर्णन किया है। उन्होंने आत आगम और तत्वोंका शंकादि २५ दोषरहित अतिनिर्मल श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है। आप्त और आगमके लक्षणके पश्चात् जीच, अजीव, मानव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्वों के श्रद्धानको सम्यक्त्व बसलाया है। इसी सन्दर्भ में जीवतत्त्वका वर्णन करते हुए जोवोंके भेद-प्रभेद, उनके गुण, आयु, कुल, योनि का कथन किया है । अजीव तस्यके भेद बतलाकर छहों द्रव्योंके स्वरूपका वर्णन किया है। बताया है कि इन द्रव्योंमें जीव और पुद्गल ये दो परिणामी हैं,
और ये दो ही क्रियावान है, क्योंकि इनमें गमन आगमन आदि क्रियाएँ" पायो जाती हैं । शेष चार द्रब्य क्रियारहित हैं, क्योंकि उनमें हलन-चलन क्रियाएं नहीं पायी जाती । जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंको छोड़ शेष चारों बन्योको परमागममें नित्य कहा गया है क्योंकि उनमें व्यजमपर्याय नहीं पायी जाती है। जीव और पुद्गल इन दोनों ट्रव्यों में व्यंजनपर्याय पायी जाती है। अतएव के परिणामी और अनित्य हैं।
पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पाँच तब्य जीवका उपकार करते हैं, अतएव वे कारणभत हैं। जीव सत्तास्वरूप है, इसीलिये किसी भी द्रव्यका कारण नहीं होता। जीव शुभ और अशुभ कोका कर्ता है क्योंकि वहीं कर्मोके फलको प्राप्त होता है । अतएव वह कर्मफलका भोक्ता भी है । शेष द्रव्य न कोंके कर्ता हैं और न भोक्ता ही हैं। छहों द्रव्य एक दुसरेमें प्रवेश करके एक ही क्षेत्रमें रहते हैं। तो भी एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यमें प्रवेश नहीं होता, क्योंकि ये सब द्रव्य एक क्षेत्रावगाही होकर भी अपने-अपने स्वभावको नहीं छोड़ते।
इसके पश्चात् आखव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्वका स्वरूप विश्लेषण किया गया है। अनन्तर सम्यक्त्वके निःशंक, नि:कांक्ष, निवि चिकित्सा, अमुह दृष्टि, उपगहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना इन आठ अंगोंका नाम निर्दिष्ट किया गया है । सम्यग्दर्शनके होनेपर संवेग, निग, निन्दा, महीं, उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा इन आठ गुणोंके उत्पन्न होनेका कथन आया है । आठ अङ्गों में प्रसिद्ध होनेवालोंके नामका कपन करते हुए बताया है कि राजगह नगरमें अजन नामक चोर निःशकित अंगमें प्रसिद्ध हुआ। चम्पानगरीमें अनन्तमती नामकी वणिक पुत्री नि:कांक्षित अंगमें प्रसिद्ध हुई । रुद्दवर नगरमें उद्दायन नामक राजा निर्विचिकित्सा अंगमें प्रसिद्ध हुमा । मथुरा नगरमें रेवती रानी अमलदष्टि अङ्गमें प्रसिद्ध हुई। मागध नगर-राजगहमें बारिषेण नामक राजकुमार स्थितिकरण गुणको प्राप्त हुआ। हस्तिनापुर नामके नगरमें विष्णुकुमार मुनिने वात्सल्य बंग प्रकट किया। ताम्रलिप्त नगरीमें जिनदत्तसेठ उपगृहन गुणसे युक्त प्रसिद्ध हुमा और मथुरा नगरोमें वचकुमारने प्रभावना अंग प्रकट किया। इस प्रकार सम्यादर्शनका स्वरूप बतलाकर दार्शनिक श्रावकका लक्षण कहा गया है। सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध पंच उदुम्बरफलसहित सप्त व्यसनका त्यागी दार्शनिक श्रावक कहलाता है। यह पंच उदुम्बरफल के साथ सन्धानक, वृक्ष, पुष्प आदिका त्याग करता है।
इसके पश्चात् यूस-मद्य-मांस आदि सातों व्यसनोंके दोषोंका विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है तथा किस-किस व्यसनके सेवनसे किस-किस व्यक्ति को कष्ट प्राप्त हुआ, इसका भी वर्णन किया है । व्यसन सेवन करनेवाला व्यक्ति नरकादि गतियोंमें परिभ्रमण करता है। अतएव १३४वीं गाथासे १७६वीं गाथा तक अर्थात् ४२ गाथाओंमें नरकगसिके दुखोंका वर्णन किया है। नरक गतिमें क्षेत्रकृत, कालकृत एवं पारस्परिक वेरनित वेदनाओंका निरूपण किया है। पश्चात् छह गाथाओंमें तिर्यञ्चतिके दुःखोंका, आठ गाथाओं में मनुष्यगतिके दुःखोंका और १४ गाथाओंमें देवगतिके दुःखोंका वर्णन किया गया है । अन्त में उपसंहार करते हुए लिखा है
एवं बहुपयारं दुक्खं संसार-सायरे घोरे ।
जीवो सरण-विहीणो विसणस्स फलेग पाउणइ ।।'
अर्थात्, अनेक प्रकारके दुःखोंको घोर संसारसागरमें यह जीव शरण रहित होकर अकेला ही व्यसनके फलसे प्राप्त होता है ।
१. बसुनन्दि श्रावकाचार, भारतीय नानपीक काशी, लोक २०४।
२०५वीं गाथासे ३१२वीं गाथा तक ११ प्रतिमाओंका वर्णन आया है। बतप्रतिमाके अन्तर्गत पाँच अणुन्नत, तीन गुण ब्रत और चार शिक्षाबतोंका निरूपण किया है। अतिथिसंबिभाग व्रतके अन्तर्गत दानका वर्णन किया है। उत्तम, मध्य और जघन्यके भेदसे तीन प्रकारके पात्र होते हैं। इनमें प्रत, नियम और संयमका धारण करनेवाला साधु उत्तम पात्र कहलाता है । यारह प्रतिमास्थानों में स्थित श्रावक मध्यम पात्र है। अविरत साम्यग्दष्टि जघन्य पात्र है। जो प्रत, तप और शीलसे सम्पन्न है, किन्तु सम्यग्दर्शनसे रहित है, वह कुपात्र है | सम्यक्त्व, शील और अतसे रहित जीव अपात्र है । जिस दातामें श्रद्धा, भक्ति, सन्तोष, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा और शक्ति ये सात गुण होते हैं, वह दाता प्रशंस्य है।
इसके अनन्तर दान विधिका आहार, औषध, शास्त्र और अभय दानोंका, दानके फलका वर्णन किया गया है। सल्लेखनावतका वर्णन भी किया गया है। अनन्तर सामायिक प्रतिमा, प्रोषधप्रतिमा, सचित्तत्यागप्रतिमा, रात्रि मुक्तित्यागप्रतिमा, ब्रह्मचर्यप्रतिमा, आरम्भनिवृत्तप्रतिमा, परिग्रहत्याग प्रतिमा, अनुमतित्यागप्रतिमा और उद्दिष्टत्यागप्रतिमाके स्वरूपका निरूपण किया गया है। रात्रिभोजनके दोषों का वर्णन करनेके अनन्तर श्रावकके अन्य विधेय कत्तब्योंका कथन किया है। यथा --
विणओ बिज्जाविच्वं कार्याकलेसो य पुज्जणबिहाणं ।
सत्तीए जहजोग्ग कायध्वं देसबिरएहिं ।।'
अर्थात-देशविरत श्रावकको अपनी शक्तिके अनुसार यथायोग्य विनय वैयावृत्य, काय-क्लेश और पूजन विधान करना चाहिये । दर्शनविनय, ज्ञान विनय, चारित्रविनय, सप विनय और उपचारविनय य पाँच प्रकारके विनय, बतलाये गये हैं । वैयावृत्यके अन्तर्गत मुनि, आर्यिका, श्नावक और श्राविका इस चतुविध सनके बैंयावृत्य करने का वर्णन किया है। काय-क्लेशके अन्तर्गत प्रत, उपवास एवं पंचमीयत, रोहिणीनत, अश्विनीवत, सौख्यसम्पत्तिवत, नन्दीश्वरपक्ति व्रत और विमानपंक्तिवत आदि यतोंका कथन किया है।
_ इसके पश्चात् नामपूजा, स्थापनापूजा, आदिका कथन करते हुए प्रतिष्ठा चार्य, प्रतिमा-प्रतिष्ठाकी लक्षणविधि और प्रतिष्ठाफलका कथन आया है। कारापक लक्षण, इन्द्रलक्षण, प्रतिमाविधान, प्रतिष्ठाविधानका विस्तारसे वर्णन आया है। पश्चात् द्रव्यपूजा, क्षेत्रपूजा, कालपूजा, और भावपूजाका कथन आया है। इसके पश्चात आचार्यने पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपा.
१, असनन्दि श्रावकाचार, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, लोक ३१९ ।
तीत ध्यानोंका वर्णन किया है । पूजनके फलका कथन करते हुए प्रत्येक द्रव्यके चढ़ानेके फलका पृथक्-पृथक निरूपण किया है। बताया है कि पूजनके समय नियमसे भगवान्के आगे जलधारा छोड़नेसे पापरूपी मैलका शमन होता है। चन्दन रसके लेपसे सौभाग्यको प्राप्ति होती है। अक्षतोंसे पूजा करनेवाला व्यक्ति अक्षय नव निधि और चौदह रनोंका स्वामी चक्रवर्ती होता है और रोग शोकसे रहित हो अक्षीण ऋद्धिसे सम्पन्न होता है। पुष्पोंसे पूजा करने वाला मनुष्य कमलके समान सुन्दर मुखबाला और विभिन्न प्रकारके दिव्य भागोंसे सम्पन्न कामदेव होता है । नैवेदनाके चटानेमे मनस्य शक्तिमान, तेजस्वी और सुन्दर होता है। दीपोंसे पूजा करनेवाला व्यक्ति केवलज्ञानको प्राप्त करता है। धूपसे पूजा करनेवाला निर्मल यश, फलसे पूजा करनेवाला निर्वाण फल एवं अभिषेक करनेवाला व्यक्ति इष्ट सिद्धियोंको प्राप्त करता है । भगवान की पूजा करनेसे संसारके सभी सुख प्राप्त होते हैं । श्वावक धर्मके पालन करनेके फलका विवेचन करते हुए लिखा है
अणुपालिकण एवं सावयधम्म तओवसाणम्मि ।
सल्लेहणं च विहिणा कामण समाहिणा कालं ॥
सोहम्माइसु जायइ कम्पनिमाणेसु अच्युयंतेसु ।
उववादगिहे कोमलसुयंसिलसंपुस्संते ।।
अंतोमुहुसकालेण तो पज्जत्तिको समाणेइ ।
दिव्यामलदेहधरो बायइ णवजुब्धणो चेव ।।
समचउरससंठाणो रसाइघाहिं बज्जियसरीरो ।
दिणायरसहस्समोणवकुवलयसुरहिणिस्सासो।'
इस प्रकार श्रावकधर्मका परिपालनकर और उसके अन्तमें विधिपूर्वक सल्ले. खना करके समाधिसे मरणकर अपने पुण्यके अनुसार सौधर्मस्वर्गको आदि लेकर अच्युतस्वर्गपर्यन्त कल्पविमानों में उत्पन्न होता है । वहाँके उपपादगृहों के कोमल एवं सुगन्धयुक्त शिलासम्पुटके मध्यमें जन्म लेकर अन्तर्मुहर्तकाल द्वारा अपनी छहों पर्यासियोंको सम्पन्न कर लेता है तथा अन्तर्मुहूर्त के भीतर दिव्य निर्मल देहका धारक एवं नवयौवनसे युक्त हो जाता है । वह देव समचतुरस्त्र संस्थानका धारक, रसादि धातुओंसे रहित शरीरवाला, सहस्र सूर्योके समान तेजस्वी, नवीन कमल के समान सुगन्धित निःश्वासवाला होता है ।
इस प्रकार श्रावकधर्मका पालन करनेका फल भोगभूमि, देवगति एवं मनुष्यगतिमें विविध भोगोंकी उपलब्धि होना बतलाया है । बुद्धि, तप, विक्रिया
१. वसुनन्दि बावकाचार, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, पलोक ४९४-४१५ ।
औषध, रस, बल और अक्षीण महानस ऋद्धियोंकी प्राप्ति भी होती है । मनुष्य पर्यायको प्राप्त कर मुनिधर्मका आचरण करता हुआ पुण्यात्मा निर्वाणको प्राप्त कर लेता है।
___ बसुनन्दिने एकादश प्रतिमाओंको आधार मान कर श्रावधर्मका प्रति पादन किया है। इन्होंने कुन्दकुन्दके समान सल्लेखनाको चतुर्थ शिक्षाव्रत बतलाया है। श्रावकके आठ मूलगुगोंका उल्लेख भी नहीं किया गया है। सप्त व्यसनोंमें मांस और मध सेवन ये दो स्वतन्त्र विषय माने गये हैं और मद्य सेबनके अन्तर्गत मधुके परित्याग का भी स्पष्ट निर्देश किया है तथा दर्शनप्रतिमा धारामः दिए साध्यसनोंक साप बांध उदुम्भ रफाड त्यागका भी स्पष्ट कथन आया है । वसुनन्दीने अपने इन विचारों द्वारा अष्टमलगुणवाली परम्पराका भी समन्वय करनेकी चेष्टा की है।
वसुनन्दोके इस श्रावकाचारमें व्रतोंके अतिचारोंका कथन नहीं आया है । प्रतीत होता है कि इन्होंने आचार्य कुन्दकुन्दले 'चारित्रपाहुड'को शैलीका अनुसरण कर अतिचारोंका कथन नहीं किया है । स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा और देवसेनके भावसंग्रह में भी अतिचारोंका कथन नहीं आया है। इस प्रकार वसु नन्दिने अपने उपासकाध्ययनमें अनेक नये तथ्योंका समावेश किया है।
इस ग्रन्थमें छः परिच्छेद है। प्रथम और द्वितीय परिच्छेदमें पंचांग शुद्धि और लग्न-शुद्धिका वर्णन आया है। लान-शुद्धिके साथ षड्वर्ग-शुद्धि, गोचर ग्रह-शुद्धि आदि भी वर्णित हैं। तृतीय परिच्छेदमें भूमि-शुद्धि, भूमि-परीक्षा, दिग्देवता, वास्तु-पूजा, वास्तुपूजाके मन्त्र, दिशाओंके स्वामो आदि वर्णित हैं। अन्यकर्ताने इस परिच्छेदका नाम वास्तुविचार रस्त्रा है।
चतुर्थ परिच्छेदके प्रारम्भमें जिनबिम्बके बनानेको विधिका वर्णन करते हुए लिखा है
अथ बिबं जिनेंद्रस्य कसंध्यं लक्षणान्वितम् ।
ऋज्वायतसुसंस्थान तरुणांगं दिगंबरम् ।।
श्रीवृक्षभूषितोरस्कं जानुप्राप्तकराग्रजम् ।
निजांगुलप्रमाणेन साष्टांगुलशतायुतम् ।।
१. जन सिद्धान्त भवम आराको हस्तलिखित प्रति
चतुर्थ परिच्छेद, पञ्च १-२ ।
प्रतिमाके करु, नाभि, कर्ण, जानु आदि विभिन्न अंगोंके प्रमाणका विवेचन किया गया है। इस परिच्छेदमें ८२ पद्य हैं और मूर्तिनिर्माणको विधिका पूर्णतया वर्णन किया गया है।
पञ्चम परिच्छेदमें प्रतिष्ठाकी बेदीका वर्णन है और क्षेत्रपाल एवं दिग्पालके स्वरूपका चित्रण किया गया है। अनन्तर २४ तीर्थकरोंके यक्षोंके वाहनोंका वर्णन आया है। पश्चात् २४ मन्त्रों द्वारा यक्षोंकी आहुतियाँ वर्णित हैं 1 षष्ठ परिच्छेदमें मण्डप-विधि, विषा-निमांग, कणिका-ननाम तथा देवा शुद्धि विभिन्न मन्त्र आये हैं।
षोडश विद्या-देवियों की स्थापनाके अनातर उनकी पूजाके मन्त्र दिये गये हैं। चतुर्विति जिन-मात्रिकाओं, ३२ इन्द्रोंके स्थापना-मन्त्र एवं पूजन-मन्त्र दिये गये हैं। द्वारपाल और दिकपालकी स्थापनाविधि भी आयी है। माला स्थापना एवं विभिन्न द्रव्यों के स्थापना-मन्त्र भी अंकित किये गये हैं।
सकलीकरणको विशिष्ट विधि दी गयी है तथा वेदीशुद्धि और वेदो प्रतिष्ठाके विभिन्न मन्त्र और विधियाँ अंकित हैं। ध्वजारोपण, कलश-स्थापना
आदिकी विधि आयी है । अन्तमें निम्नलिखित प्रशस्ति अंकित है
"इति श्री वसुनन्दिगैद्धान्तिकविरचिते प्रतिष्ठासारसंग्रहे षष्ठपरिच्छेदः स्वस्ति थी काष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे लोहाचार्यआम्नाये भट्रारक दिल्लीपट्टाधीशा श्री १०८ राजेन्द्रकीतिदेवाः तेषां शिष्यपण्डितपरमानन्देन लिखितमिदम् ।।"
गुरु | आचार्य श्री नेमिचंद्र जी |
शिष्य | आचार्य श्री वसुनंदी प्रथम |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Aacharya Shri Vasunandi 1 st 12 Th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 03-May- 2022
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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