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#Veerchandra16ThCentury
भट्टारकीय बलात्कारगण सूरत-शास्त्राके भट्टारक देवेन्द्रकीतिको पर म्परामें लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य आचार्य वीरचन्द्र हुए हैं। वीरचन्द्र अत्यन्त प्रतिभा सम्पन्न विद्वान थे। व्याकरण एवं न्यायशास्त्रके प्रकाण्डवेत्ता था। छन्द, अलंकार एवं संगम रायगी नसली नाम सार बादामें भी वे निपुण थे। साघुजीवनका निर्वाह करते हुए वे गृहस्थोंको भी संयमित जीवन यापन करनेको शिक्षा देते थे। भट्टारकपट्टावलीमें उनका परिचय निम्न प्रकार प्राप्त होता है
सूरिश्रीमल्लिभूषण जयो जयो श्रीलक्ष्मीचंद्र ।।
तास वंश विद्यानिल लाड नाति श्रृंगार ।
श्रीवीरचंद्र सूरी मणी चित्तनिरोध विचार
"तद्वंशमंडनकंदपंदलनविश्वलोकहृदयरंजन-महाबसिपुरंदराणां नवसहस्र प्रमुखदेशाधिपतिराजाधिराज-श्रीअर्जुनजीयराजसभामध्यप्रामसन्माना षोडश वर्षपर्यन्तशाकपाकपक्वान्नशाल्योदनादिसपिःप्रभूतिसरसाहारपरिवजिताना..... सकलमूलोत्सरगुणगणमणिमंउित्तविबुधवरश्रीधोरचंद्रभट्टारकाणाम्" ।
उपयुक्त प्रशस्तिसे यह स्पष्ट है कि आचार्य वीरचन्द्रने नवसारीके शासक अर्जुन जीवराजसे सम्मान प्राप्त किया था तथा १६ वर्षों तक नीरस आहारका सेवन किया था । वीरचन्द्रको विद्वत्ताके सम्बन्धमें अन्य विद्वानोंने भी प्रकाश
१. भट्टारक सम्प्रवाय, शोलापुर, लेखांक ४५८ ।
२. वही, लेखांक, ४७८, ४७९ ।
डाला है। भवारक शुभचन्द्र ने अपनी कौतिकेयानुपेक्षाकी संस्कृतटीकामें इनकी प्रशंसा की है
भट्टारकपदाधीशाः मूलसंघ विदांबगः ।
रमावोरेन्दु-चिद्रूपाः गुरखो हि गणेशिनः ।।
भट्टारक सुमतकीतिने भी इन्हें वादियोंके लिये अजेय बतलाया है। प्राकृत पंचसंग्रहको टोकामें इन्हें यशस्वी, अतिम विद्वान बतलाया है
दुरदुर्वादिकपर्वताना वजायमानी बरबोरचन्द्रः ।
तदन्वये सूरिवरप्रधाना ज्ञानादिभूषो गणिगच्छ राजः ।।
लक्ष्मीचन्द्रक शिष्य होने के कारण बोर चन्द्रका समय वि० सं० १५५६ . १५८२ के मध्य है । इनके द्वारा संचत कृतियों में जो समय प्राप्त होता है, उससे
भोपनमा कार्यकाल लिहीनों लालगन्दी सित होता है।
बाचार्य वीर चन्द्र संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी और गुजराती के निष्णात विद्वान थे । इनके द्वारा लिखित आठ रचनाएँ प्राप्त हैं।
१. वीरविलासफाग
२. जम्बूस्वामीवेलि
३. जिनान्तर
४. सीमन्धरस्वामीगीत
५. सम्बोधसत्ताणु
६. नेमिनाथरास
७. चित्तनिरोधकथा
८. बाहुबलिवेलि
इस काव्यमें रखें तीर्थकर नेमिनाथके जीवनकी एक घटना वर्णित है। इस फाग में ५३७ पद्म हैं । रचनाके प्रारम्भमें नेमिनाथके सौन्दर्य एवं शक्तिका वर्णन है, तत्पश्चात् राजुलको सुन्दरताका चित्रण किया गया है। बिबाहके अबसर पर नगरकी शोभा दर्शनीय होती है। बारात बड़ी साज-सज्जाके साथ पहुँचती है, पर तोरणद्वारके निकट पहुँचने के पूर्व ही पश चोरकारको सूमकर नेमिनाथ विरक्त हो जाते हैं। जब राजुलको उनके वैरा ग्यकी घटना ज्ञात होती है, तो वह घोर विलाप करने लगती है। वह स्वयं आभूषणोंका त्याग कर तपस्विनी बन जाती है । आचार्यने नेमिनाथके तपस्वी
जीवनका अच्छा चित्रण किया है । नेमिनाथकी सुन्दरताका चित्रण करते हुए लिखा है
वेलि कमलदल कोमल, सामल बरण शरीर |
त्रिभुवनपत्ति त्रिभुवन निलो, नीलो गुण गंभीर ।।
माननी मोहन जिनवर, दिन दिन देह दिपंत ।
प्रलंब प्रताप प्रभाकर, भवहर श्री भगवंत ।।
राजुलकी सुन्दरताका चित्रण करते हुए लिखा है
कठिन सुपीन पयोधर, मनोहर अति उतंग ।
चंपक वर्णी चंद्राननी, माननी सोहि सुरंग ।।
हरणी हरखी निज नयपोउ बयणीउ साह सुग ।
दंत सुपती दीपंती, सोहंती सिखेणी बंध |
कनक केरी जसी पूसली, पातली पदमनी नारि ।
मतीय शिरोमणि सुन्दरी, भवतरौ अनि मझारि ।।
कविका राजुल-विलाप वर्णन भी बहुत हो मर्मस्पर्शी है । इस फागके रचना कालका निर्देश नहीं है, पर यह वि० सं० १६०० के पूर्वकी रचना है ।।
अन्तिम केवली जम्बस्वामीका जीबन जैन कवियोंको बहुत प्रिय रहा है । यही कारण है कि संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी एवं राजस्थानी आदि विभिन्न भाषाओंमें रचनाएँ लिखी गयी हैं। इस देलिकी भाषा गुजराती मिश्रित राजस्थानी है। कविने आरम्भमें अपने पट्टका परिचय प्रस्तुत किया है
श्री मूलसंधे महिमा निलो, अने देवेन्द्र कीरति सूरि राय ।
श्री विद्यानंदि वसुधां निलो, नरपति सेवे पाय ।।
तेह बारें उदयो गति, लक्ष्मीचन्द्र श्रेण आण ।
श्री मल्लिभूषण महिमा धणो, नमे ग्यासुदीन सुलतान ।।
तेह गुरुचरणकमलनमी, अनें बेल्लि रची छे रसाल ।
श्री वोरचन्द्र सूरीवर कहें, गांसा पुण्य अपार ।।
इस कृति में चतुविशति तीर्थकरोंके मध्यमें होनेवाले अन्तर कालका इसमें वर्णन किया गया है। काव्यसौष्ठवको दृष्टिसे यह रचना सामान्य है। उदाहरण निम्न प्रकार है
श्री लक्ष्मीचन्द्र गरु गच्छपती, तिस पाटें सार भूगार ।
श्री वीरचन्द्र मोरें कहा, जिन अांतरा उदार ।।
यह एक उपदेशात्मक कति है, इसमें ५७ पद्य है। सभी दोहे भावपूर्ण हैं । यहाँ उदाहरणार्थ कुछ दोहे प्रस्तुत हैं
धर्म धर्म नर उच्चरे, न घरे धर्मनो मर्म ।
धर्म कारन प्राणि हणे, न गणे निष्ठुर कर्म ॥३॥
x x x x x x x x x x x x x x x x x x x x x x x x x x
धर्म धर्म सहु को कहो, गहे धर्म नाम ।
रास राम पोपट पड़े, बूझे नते निज राम ।।६।।
x x x x x x x x x x x x x x x x x x x x x x x x x
दया बीज विणजे किया, ते सबली अप्रमाण ।
शीतल संजल जल भर्या, जेम जण्डाल न बाण ॥१९॥
x x x x x x x x x x x x x x x x x x x x x x x x x
नीचनी संगति परिहरो, धारो उत्तम आचार ।
दुल्लभ भव मानव तणो, जीव तूं आलिम हार ॥४०॥
इस कृतिमें नेमिनाथको वैवाहिक घटनाका वर्णन है। डा. कस्तूरचन्द काशलीवालकी सूचनाके अनुसार इसकी पाण्डुलिपि उदयपुरके अग्रवाल दिगम्बर जैन मन्दिरके शास्त्र भण्डारमें सुरक्षित है। इम ग्रन्थकी रचना वि० सं० १६७ में समाप्त हुई है । आचार्य ने लिन है--
संवत सोलताहोत्तरि, श्रावण सुदि गुरूवार ।
दशमी को दिन संपदो, रास रच्चो मनोहार ।।
चित्त निरोधकथा, बाहवेलि और सीमन्धर स्वामीगीत छोटी रचनाएं हैं। इनमें नामानुसार विषयोंका अंकन हैं। चित्तविरोध कथामें चित्तको वश करनेका उपदेश दिया गया है । इस कृतिमें केबल १५ पद्य हैं ।
बीरचन्द्रकी उपलब्ध रचनाओं में सभी रचनाएं गुजराती मिश्रित राज स्थानी में है। विषयसे अधिक महत्त्व भाषाका है। १६वीं शताब्दीको हिन्दी भाषाका रूप अवगत करनेके लिये ये सभी रचनाएं उपादेय है।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक लक्ष्मिचंद्र |
शिष्य | आचार्य श्री वीरचंद्र |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Veerchandra16ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री वीरचन्द्र 16वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 31-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 31-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
भट्टारकीय बलात्कारगण सूरत-शास्त्राके भट्टारक देवेन्द्रकीतिको पर म्परामें लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य आचार्य वीरचन्द्र हुए हैं। वीरचन्द्र अत्यन्त प्रतिभा सम्पन्न विद्वान थे। व्याकरण एवं न्यायशास्त्रके प्रकाण्डवेत्ता था। छन्द, अलंकार एवं संगम रायगी नसली नाम सार बादामें भी वे निपुण थे। साघुजीवनका निर्वाह करते हुए वे गृहस्थोंको भी संयमित जीवन यापन करनेको शिक्षा देते थे। भट्टारकपट्टावलीमें उनका परिचय निम्न प्रकार प्राप्त होता है
सूरिश्रीमल्लिभूषण जयो जयो श्रीलक्ष्मीचंद्र ।।
तास वंश विद्यानिल लाड नाति श्रृंगार ।
श्रीवीरचंद्र सूरी मणी चित्तनिरोध विचार
"तद्वंशमंडनकंदपंदलनविश्वलोकहृदयरंजन-महाबसिपुरंदराणां नवसहस्र प्रमुखदेशाधिपतिराजाधिराज-श्रीअर्जुनजीयराजसभामध्यप्रामसन्माना षोडश वर्षपर्यन्तशाकपाकपक्वान्नशाल्योदनादिसपिःप्रभूतिसरसाहारपरिवजिताना..... सकलमूलोत्सरगुणगणमणिमंउित्तविबुधवरश्रीधोरचंद्रभट्टारकाणाम्" ।
उपयुक्त प्रशस्तिसे यह स्पष्ट है कि आचार्य वीरचन्द्रने नवसारीके शासक अर्जुन जीवराजसे सम्मान प्राप्त किया था तथा १६ वर्षों तक नीरस आहारका सेवन किया था । वीरचन्द्रको विद्वत्ताके सम्बन्धमें अन्य विद्वानोंने भी प्रकाश
१. भट्टारक सम्प्रवाय, शोलापुर, लेखांक ४५८ ।
२. वही, लेखांक, ४७८, ४७९ ।
डाला है। भवारक शुभचन्द्र ने अपनी कौतिकेयानुपेक्षाकी संस्कृतटीकामें इनकी प्रशंसा की है
भट्टारकपदाधीशाः मूलसंघ विदांबगः ।
रमावोरेन्दु-चिद्रूपाः गुरखो हि गणेशिनः ।।
भट्टारक सुमतकीतिने भी इन्हें वादियोंके लिये अजेय बतलाया है। प्राकृत पंचसंग्रहको टोकामें इन्हें यशस्वी, अतिम विद्वान बतलाया है
दुरदुर्वादिकपर्वताना वजायमानी बरबोरचन्द्रः ।
तदन्वये सूरिवरप्रधाना ज्ञानादिभूषो गणिगच्छ राजः ।।
लक्ष्मीचन्द्रक शिष्य होने के कारण बोर चन्द्रका समय वि० सं० १५५६ . १५८२ के मध्य है । इनके द्वारा संचत कृतियों में जो समय प्राप्त होता है, उससे
भोपनमा कार्यकाल लिहीनों लालगन्दी सित होता है।
बाचार्य वीर चन्द्र संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी और गुजराती के निष्णात विद्वान थे । इनके द्वारा लिखित आठ रचनाएँ प्राप्त हैं।
१. वीरविलासफाग
२. जम्बूस्वामीवेलि
३. जिनान्तर
४. सीमन्धरस्वामीगीत
५. सम्बोधसत्ताणु
६. नेमिनाथरास
७. चित्तनिरोधकथा
८. बाहुबलिवेलि
इस काव्यमें रखें तीर्थकर नेमिनाथके जीवनकी एक घटना वर्णित है। इस फाग में ५३७ पद्म हैं । रचनाके प्रारम्भमें नेमिनाथके सौन्दर्य एवं शक्तिका वर्णन है, तत्पश्चात् राजुलको सुन्दरताका चित्रण किया गया है। बिबाहके अबसर पर नगरकी शोभा दर्शनीय होती है। बारात बड़ी साज-सज्जाके साथ पहुँचती है, पर तोरणद्वारके निकट पहुँचने के पूर्व ही पश चोरकारको सूमकर नेमिनाथ विरक्त हो जाते हैं। जब राजुलको उनके वैरा ग्यकी घटना ज्ञात होती है, तो वह घोर विलाप करने लगती है। वह स्वयं आभूषणोंका त्याग कर तपस्विनी बन जाती है । आचार्यने नेमिनाथके तपस्वी
जीवनका अच्छा चित्रण किया है । नेमिनाथकी सुन्दरताका चित्रण करते हुए लिखा है
वेलि कमलदल कोमल, सामल बरण शरीर |
त्रिभुवनपत्ति त्रिभुवन निलो, नीलो गुण गंभीर ।।
माननी मोहन जिनवर, दिन दिन देह दिपंत ।
प्रलंब प्रताप प्रभाकर, भवहर श्री भगवंत ।।
राजुलकी सुन्दरताका चित्रण करते हुए लिखा है
कठिन सुपीन पयोधर, मनोहर अति उतंग ।
चंपक वर्णी चंद्राननी, माननी सोहि सुरंग ।।
हरणी हरखी निज नयपोउ बयणीउ साह सुग ।
दंत सुपती दीपंती, सोहंती सिखेणी बंध |
कनक केरी जसी पूसली, पातली पदमनी नारि ।
मतीय शिरोमणि सुन्दरी, भवतरौ अनि मझारि ।।
कविका राजुल-विलाप वर्णन भी बहुत हो मर्मस्पर्शी है । इस फागके रचना कालका निर्देश नहीं है, पर यह वि० सं० १६०० के पूर्वकी रचना है ।।
अन्तिम केवली जम्बस्वामीका जीबन जैन कवियोंको बहुत प्रिय रहा है । यही कारण है कि संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी एवं राजस्थानी आदि विभिन्न भाषाओंमें रचनाएँ लिखी गयी हैं। इस देलिकी भाषा गुजराती मिश्रित राजस्थानी है। कविने आरम्भमें अपने पट्टका परिचय प्रस्तुत किया है
श्री मूलसंधे महिमा निलो, अने देवेन्द्र कीरति सूरि राय ।
श्री विद्यानंदि वसुधां निलो, नरपति सेवे पाय ।।
तेह बारें उदयो गति, लक्ष्मीचन्द्र श्रेण आण ।
श्री मल्लिभूषण महिमा धणो, नमे ग्यासुदीन सुलतान ।।
तेह गुरुचरणकमलनमी, अनें बेल्लि रची छे रसाल ।
श्री वोरचन्द्र सूरीवर कहें, गांसा पुण्य अपार ।।
इस कृति में चतुविशति तीर्थकरोंके मध्यमें होनेवाले अन्तर कालका इसमें वर्णन किया गया है। काव्यसौष्ठवको दृष्टिसे यह रचना सामान्य है। उदाहरण निम्न प्रकार है
श्री लक्ष्मीचन्द्र गरु गच्छपती, तिस पाटें सार भूगार ।
श्री वीरचन्द्र मोरें कहा, जिन अांतरा उदार ।।
यह एक उपदेशात्मक कति है, इसमें ५७ पद्य है। सभी दोहे भावपूर्ण हैं । यहाँ उदाहरणार्थ कुछ दोहे प्रस्तुत हैं
धर्म धर्म नर उच्चरे, न घरे धर्मनो मर्म ।
धर्म कारन प्राणि हणे, न गणे निष्ठुर कर्म ॥३॥
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धर्म धर्म सहु को कहो, गहे धर्म नाम ।
रास राम पोपट पड़े, बूझे नते निज राम ।।६।।
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दया बीज विणजे किया, ते सबली अप्रमाण ।
शीतल संजल जल भर्या, जेम जण्डाल न बाण ॥१९॥
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नीचनी संगति परिहरो, धारो उत्तम आचार ।
दुल्लभ भव मानव तणो, जीव तूं आलिम हार ॥४०॥
इस कृतिमें नेमिनाथको वैवाहिक घटनाका वर्णन है। डा. कस्तूरचन्द काशलीवालकी सूचनाके अनुसार इसकी पाण्डुलिपि उदयपुरके अग्रवाल दिगम्बर जैन मन्दिरके शास्त्र भण्डारमें सुरक्षित है। इम ग्रन्थकी रचना वि० सं० १६७ में समाप्त हुई है । आचार्य ने लिन है--
संवत सोलताहोत्तरि, श्रावण सुदि गुरूवार ।
दशमी को दिन संपदो, रास रच्चो मनोहार ।।
चित्त निरोधकथा, बाहवेलि और सीमन्धर स्वामीगीत छोटी रचनाएं हैं। इनमें नामानुसार विषयोंका अंकन हैं। चित्तविरोध कथामें चित्तको वश करनेका उपदेश दिया गया है । इस कृतिमें केबल १५ पद्य हैं ।
बीरचन्द्रकी उपलब्ध रचनाओं में सभी रचनाएं गुजराती मिश्रित राज स्थानी में है। विषयसे अधिक महत्त्व भाषाका है। १६वीं शताब्दीको हिन्दी भाषाका रूप अवगत करनेके लिये ये सभी रचनाएं उपादेय है।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक लक्ष्मिचंद्र |
शिष्य | आचार्य श्री वीरचंद्र |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Veerchandra 16 Th Century
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
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