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#Yashkirti16ThCentury
काष्ठासंचके माथगन्वय पुष्करगणके भट्टारकों में भट्टारक यशःीतिका नाम आया है। यों तो यशःनीनि नामके कई आचार्य और भट्टारक हुए हैं। एक यश कीति पद्मनन्दिके शिष्य जेरट शाखाके भट्टारक हैं। इनका समय विकी १७वीं शती है। दुसरे प्रश:कोति मिचन्द्र के शिष्य हार हैं। ये नौ वर्ष गृहस्थीम रहे थे और ४० वर्ष तक न्होंने पट पर निवाम किया था। तीसरे यशनीति मागच्छक पद्मनन्दिके शिष्य हैं। इनका ममम बिल्की १८वीं शनाब्दी है। चतुर्थ यश की नि रत्न कत्तित्रे दिगाम्य हैं। वि०सं० १५३' ने पश्चात् नांगाममें इनका पट्टाभिषेक हुआ था और विमांक १६१३में इनका स्वर्गवाय हुआ । इन यश कीतिन पश्चात् मिहनन्दि नथा उनक पचात् गुणचन्द्र भट्टा रव हो । या कौति रामकोतिके शिष्य हैं । रामकीर्तिका म्ममय विकी १५.वीं शती है। ये बलात्कारगण ईदर माग्वावा भट्टारक थे । इनके दादागुरु चन्द्रवीतिने वि०म० १८३२में बीमारियाजी तोयंक्षेपमें २४ तीर्थक शेकी चरण पादुका स्थापित की थी। चन्द्रवीति के पश्चात् समाति और उनके पश्चात् यशःकीति भट्टारक हुए। इनके उपदेशसे संवत् १८६३की आषाढशुक्ला तृतीयाको केगरियाजी मन्दिरके परकोटेका निर्माण पूरा हुआ था। श्रीब्रह्म चारी शीतलप्रमादजोमे ईडरके भट्टारकोंका जो वृतान्त लिखा है, इसमें यश कौतिके पश्चात् कमशः सुरेन्द्रक ति, मकोति, वनक्रकीति और विजय कीर्तिका उल्लेख किया है। माता यश कीति विजयसेनके शिष्मा हैं और बें यमकीति विमलकोतिक निध्य बताये गये है। जगतसुन्दरोप्रयोगमालामें
१. दानवोर माणिक चन्द्र, पृ० ३३ ।
विमलकीतिको प्रशंसा की गयी है और उनके शिष्य यश कीर्ति भी प्रशंसनीय माने गये हैं।
संजाउ तस्न सोमो विबुहो मिरिचिमलइत्ति विवरखाओ ।
विमलपनि डिया धलिया धूणिय गयणाययले ।।
जमाईत्ति गाष पपडो पथमयम्जुअलपडियभन्दमणो ।
ममि जणलई सेण हहिय समुद्धरियं ।।
अध्यनोस माकोनि यासंघ, माथुरगच्छको पुष्करगण शाखाके सर्वाधिक यशस्वी, उच्चकोटिक साहित्यकार, कठिन तपस्वी, प्राचीन जीर्ण-शीर्ण ग्रन्थों के उद्धारक, यी पोहोर साहित्यकारों के प्रेरकः, उगदेष्टा एवं कला-साहित्य सम्बन्धी विभिन्न प्रवृत्तियोंके मर्मज्ञ विद्वान थे। इनकी प्रतिभाग राजन्यवर्ग, श्रेष्टिवर्ग एवं सामान्य जन-गमह प्रभावित था। भविष्यदत्ताञ्चमीकथायी प्रशस्ति में इन्हें गणकीतिका गिय कसा गया है __ "संवत् १४८६ वर्षे आपगढ़वाद ७ गुदिने गोपाचलदुर्ग राजाउंगरसिंह राज्य प्रवर्तमाने श्रोकाष्ठासंघे माथुरगच्छं पुष्करगण आचार्यश्रीसहस्रकीर्तिदेवा: तपट्टे आचार्यश्रीगुणकीर्तिदेवाः तच्म्यि श्रीयशःकीर्तिदेवाः तत्प? आचार्य श्रीगुणकात्तिदेवा: तच्छिाश्य श्रीयश:कोतिदेवा: तेन निजज्ञानावरणीकर्मक्षयार्थ इदं भविष्यदत्तपञ्चमीका लिन्त्राषितम् ।"
महाकवि रइधून इन्हें आगन गुरुवा रूपमं स्मरण किया है । उन्होंने लिखा है--
..........' सिरि गर्णाकत्तिमूरि पायउजणि ।
सहुशिहामण सिहर परिट्छि । मुत्तिरमणि रागणीव-कंठिउ ||
सुजसायपर चागि दिवासा । सिरि जकित्ति णाम दिग्वासउँ ।।
सम्मइ० १०| ३०| ११-१३
तह पुणु सुतवतावविरांगो। भन्बकमलसंबोपयंगो।
णिचान्भासियश्वमणअंगो। बंदिवि शिरि जसकित्ति अरांगो।।
-मम्मतगुण १|२|६-७
पुणु तहु पट्टि पदर जसभायागु । सिरि जसकित्ति भञ्च सुहृदायणु ।।
-महेसर १|३|५
अर्थात् गुणकीर्त्तिके सिंहासन पर स्थित, मुक्तिरूपी रमणीसे अनुराग करनेके लिए उत्कंठित, प्रातःकालीन सूर्य के समान तेजोन्मुख, यशस्वी, दिव्य नाम धारी और तपायुक्त यशःकोर्ति हुए। ये भव्यजन-कमलोंको सम्बोधित
१. भट्टारक सम्प्रदाय, शोलापुर, लेखांक ५५७ ।
करनेबाले, अंगसाहित्य के प्रवचनकर्ता, निष्परिग्रही, यतीश्चर', मन्दर, गौम्य. मुनिगणतिलक और धर्मानुरागी थे।
महाकवि रइधूने इनको गुणकोनिका भाई भी बतलाया है । लिखा है--
......''ज[ गुणसुकिति गामसो ॥
सुतासु पट्टि भायरो। दि आपत्थसायगे।
रिसीस गच्छणायको ! जगतमिम्बदायको ।।
जसलुकित्ति सुंदरो। अंकपु णायमंदिरो ||
—पामणाह० १|२|८-११
इस कथन पुष्टि अन्य प्रशस्तिसे भी होती है
संयमविवेक निलयान विबुधकुलतिलकान् मदारका-लघु-भ्राता याःकीर्ति देवाः।
अर्थात् भट्टारकयश-कीर्ति भट्टारकगणकीर्तिके भाई, आगमग्रन्योंके अर्थ के लिए सागरके समान, ऋपीश्वरोंके गच्छनायक, विजयकी शिक्षा देनेवाले, सुन्दर, निर्भीक, ज्ञानमन्दिर, भट्टारक गुणकीर्तिके शिष्य तथा क्षमागुणसे सुशोभित थे। ___ भट्टारकयश:कोतिको गुणकीर्तिका लत्रुभाई महाकविसिंहने 'पज्जुण्या चरिउ'की अन्य पुष्पिकामें बताया है। भट्टारकयश कीर्तिने भी अपनेको गुणकीर्तिका भाई लिखा है
तह विक्खायउ मुणि गुणकित्तिणामु ।
सब ते जासु सरीस खाम् ।
तहो णियबघउ जसकित्ति जाउ ।।
-यश कीर्ति पाण्डवपुराण, अन्त्य प्रशस्ति ।
अतः यह सम्भव है कि यशःकीति गृहस्थाबस्थामें गुणकीर्तिके लधुभाई रहे हों। गुणकीर्तिके पट्टासीन होनेपर ये उनके शिष्य हो गये होंगे।
भट्टारक परम्पराके इतिहास पर दृष्टिपात करनेसे अवगत होता है कि मध्यकालीन माथुरगच्छ परम्पराका आरम्भ माधवसेनसे हुआ है। इनके दो शिध्य हुए-उद्धरसेन और बिजयसेन । उद्धरसेनके पश्चात् क्रमशः देवसेन, विमलसेन, धर्मसेन, भावसेन, सहस्रकीर्ति और गुणकीर्तिभट्टारक हुए 1 गुण कौतिके आम्नायमें वि०सं०१४६८में ग्वालियर में राजा वीरमदेवके राज्यकालमें अग्रवाल साध्वी देवश्रीने पञ्चास्तिकायकी प्रति लिखवायी थी। आपने संवत् १४७३में एक मूर्ति स्थापित की थी।
१. आमेर प्रशस्ति संग्रह ( जयपुर ), पृ० १३७ ।
मुणकीर्तिके पट्टशिष्य-यश कीर्ति हुए तथा इनके पट्टशिष्य मलयकीर्ति हुए। यतःकीर्ति अपने समयके अत्यन्त प्रसिद्ध और यशस्वी व्यक्ति थे ।
'भविष्यदत्तरित के प्रतिलिपिकी पुष्पिकासे स्पष्ट है कि बिसं० १४८६में डूंगरसिंहके राज्यकाल में भट्टारकयश कीर्ति यशस्वी हो चुके थे । भट्टारक अगःकीर्तिने जीर्ण-शीर्ण अन्धोद्धावे
लागु अन्योंकी लिपियोंका भी कार्य कराया था। इन ग्रन्थोंमें दो रचनाएँ प्रधान हैं-१. सुकुमालचरितः . ( अपनश ) और . भवित्र्यदत्तचरित 1 इन दोनों ग्रन्थोंके लेखक पं० विबुध श्रीधर थे। पंथल कायस्थने इन दोनों ग्रन्थोंकी प्रतिलिपियाँ की थीं। इन प्रतिलिपियोंके पुष्पिकाओं एबं ग्वालियरके एक मूर्ति लेखमे यश कीर्तिका समय वि०सं० १४८६-१५१० सिद्ध होता है ।
प्रशाकीर्तिने पाण्डवपुराणको रचना वि० सं० १४२.७ में की है तथा गोपाचल दुर्ग की श्रीआदिनाथ मुर्तिका एक अभिलेख वि० सं० १४२७ का प्राप्त है, जिसमें गुणकीर्तिक पट टपर यश-कीतिक आसीन होनेकी चर्चा है । इस मूर्तिका प्रतिष्टाकार्य पं० रहने सम्पन्न किया था। वि० सं० १५१० के मूर्ति लेखोंमें मलयकीतिका उल्लेख मिलने लगता है तथा एकाध मूर्ति लेबल में यमः कीर्शिका भी नाम है । इगमे यह निष्कर्ष निकलता है कि वि सं० १५१० के लगभग याःतीति अपना पद बिमलकीर्तिको दे चुके थे। वि० सं० १५४२ के एक मन्त्र लेख में भी मलब कीर्तिका निर्देश है। इस आधार पर श्री जोहरापुरकग्ने यश कीत्तिका गभय १४८६-१४५७ वि० सं० माना है। पर गोपाचलके मूर्ति लेखोंमें इनका निर्देश वि० ११ तक पाया जाता है। अतएव इनका समय वि० मंकी पन्द्रहवीं मतीका अन्तिम भाग तथा सोलहवींका पूर्व भाग है।
यग.कीतिका व्यक्तित्व बहुमुखी है । ग्रन्थकता, ग्रंथोद्धारका, ग्रन्यसंरक्षक होनेके माश्च नये साहित्यकारों के प्रेरणास्त्रोत भी ये रहे हैं। मूर्ति प्रतिष्टाओं में भी इन्होंने योगदान दिया है। इस प्रकार जैन संस्कृतिके प्रचार और प्रसारको दष्टिसे यमकीनिक कार्योंका महत्त्व कम नहीं है।
१. म०४४.६ वर्षे अहिणाबाद १: सोगदिने गोपापलदुर्गे राजा डूंगर सिंह विजय
रामनवमाने श्रीनाष्टा ये माथु रान्वये पुस्करगणे आचार्य श्रीभावसेन देवास्त पट्टे श्रीराहस्रको लिं देवास्तपट्टे श्रीगुणको ति देवात्तच्छिष्येण श्री यशःकी ति दवन'' |
आचार्ययशःकीनिकी चार रचनाएँ प्राप्त हैं
१. पाण्डवपुराण ( अपनश)।
२. हरिवंशपुराण ( अपभ्रश)।
३. जिणरतिकहा ( अपभ्रश)।
४. रविवायकहा ( अपभ्रश)।
इस ग्रन्थ में ३४ सन्धियाँ हैं। इस ग्रन्थकी रचना मुबा बिशाहके राज्यकालमें साधुवील्हाके पुत्र हेमराजकी प्रेरणासे की गयी है। हेमराज योगिनीपुर के निवासी और अग्रवालबंशीय थे। ग्रन्थमें हेमराजकी प्रशंसा करते हुए बतलाया है कि ये सत्यवादी, व्यबसनरहित, जिनपूजक, पर स्त्रीत्यागो, उदार और परोपकारी हैं। इनकी माताका नाम घेताही और पिता का नाम साधुबील्हा तथा धर्मपत्नीका नाम गंधा था। हेमराजका परिवार धर्मात्मा और कर्तव्यपरायण था । __ इस ग्रन्थमें पाण्डव और कौरवोंके साथ श्रीकृष्णका चरित भी अकित किया गया है। रचनाकी भाषाशैली प्रौढ़ है।
इस रचनाका प्रणयन हिसारनियामी अग्रवाल गर्ग गोत्रीयसाहूदिबंड्ढाके अनुरोधसे किया गया है। ग्रन्थकर्ताने प्रशस्तिमें बत लाया है कि योगिनीपुरमें पं०डूंगरसिंह और दिवड्ढा निवास करते थे। दिवड्डा संरसुदर्शनके समान शुद्धमनबाल, कर्मपरायण, दैनिक घट्कर्मोका आचरण करनेवाले, दयालु, एकादश प्रतिमाओंके अनुष्ठाता एवं ज्ञानी थे । इनकी प्रेरणा प्राप्त कर यशःकीर्तिने हरिवंशपुराणकी अपभ्रश भाषामें रचना की। इसमें १३ सन्त्रियाँ और २७१ कड़वक है। हरिवंशकी कथा अंकित्त है ।
है.
इस लघुकाय काव्यमें महावीरकी निर्वाण रात्रि कार्तिक ऋष्णा चतुर्दशीकी रात्रिका काव्यात्मक चित्रण है।।
इसमें रचिव्रतकथा अंकित है। छोटी-सी यह रचना भी उपादेय है।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक गुणकीर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री यश:किर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री मलयकिर्ती |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Yashkirti16ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री यशकीर्ति 16वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 04-June- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 04-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
काष्ठासंचके माथगन्वय पुष्करगणके भट्टारकों में भट्टारक यशःीतिका नाम आया है। यों तो यशःनीनि नामके कई आचार्य और भट्टारक हुए हैं। एक यश कीति पद्मनन्दिके शिष्य जेरट शाखाके भट्टारक हैं। इनका समय विकी १७वीं शती है। दुसरे प्रश:कोति मिचन्द्र के शिष्य हार हैं। ये नौ वर्ष गृहस्थीम रहे थे और ४० वर्ष तक न्होंने पट पर निवाम किया था। तीसरे यशनीति मागच्छक पद्मनन्दिके शिष्य हैं। इनका ममम बिल्की १८वीं शनाब्दी है। चतुर्थ यश की नि रत्न कत्तित्रे दिगाम्य हैं। वि०सं० १५३' ने पश्चात् नांगाममें इनका पट्टाभिषेक हुआ था और विमांक १६१३में इनका स्वर्गवाय हुआ । इन यश कीतिन पश्चात् मिहनन्दि नथा उनक पचात् गुणचन्द्र भट्टा रव हो । या कौति रामकोतिके शिष्य हैं । रामकीर्तिका म्ममय विकी १५.वीं शती है। ये बलात्कारगण ईदर माग्वावा भट्टारक थे । इनके दादागुरु चन्द्रवीतिने वि०म० १८३२में बीमारियाजी तोयंक्षेपमें २४ तीर्थक शेकी चरण पादुका स्थापित की थी। चन्द्रवीति के पश्चात् समाति और उनके पश्चात् यशःकीति भट्टारक हुए। इनके उपदेशसे संवत् १८६३की आषाढशुक्ला तृतीयाको केगरियाजी मन्दिरके परकोटेका निर्माण पूरा हुआ था। श्रीब्रह्म चारी शीतलप्रमादजोमे ईडरके भट्टारकोंका जो वृतान्त लिखा है, इसमें यश कौतिके पश्चात् कमशः सुरेन्द्रक ति, मकोति, वनक्रकीति और विजय कीर्तिका उल्लेख किया है। माता यश कीति विजयसेनके शिष्मा हैं और बें यमकीति विमलकोतिक निध्य बताये गये है। जगतसुन्दरोप्रयोगमालामें
१. दानवोर माणिक चन्द्र, पृ० ३३ ।
विमलकीतिको प्रशंसा की गयी है और उनके शिष्य यश कीर्ति भी प्रशंसनीय माने गये हैं।
संजाउ तस्न सोमो विबुहो मिरिचिमलइत्ति विवरखाओ ।
विमलपनि डिया धलिया धूणिय गयणाययले ।।
जमाईत्ति गाष पपडो पथमयम्जुअलपडियभन्दमणो ।
ममि जणलई सेण हहिय समुद्धरियं ।।
अध्यनोस माकोनि यासंघ, माथुरगच्छको पुष्करगण शाखाके सर्वाधिक यशस्वी, उच्चकोटिक साहित्यकार, कठिन तपस्वी, प्राचीन जीर्ण-शीर्ण ग्रन्थों के उद्धारक, यी पोहोर साहित्यकारों के प्रेरकः, उगदेष्टा एवं कला-साहित्य सम्बन्धी विभिन्न प्रवृत्तियोंके मर्मज्ञ विद्वान थे। इनकी प्रतिभाग राजन्यवर्ग, श्रेष्टिवर्ग एवं सामान्य जन-गमह प्रभावित था। भविष्यदत्ताञ्चमीकथायी प्रशस्ति में इन्हें गणकीतिका गिय कसा गया है __ "संवत् १४८६ वर्षे आपगढ़वाद ७ गुदिने गोपाचलदुर्ग राजाउंगरसिंह राज्य प्रवर्तमाने श्रोकाष्ठासंघे माथुरगच्छं पुष्करगण आचार्यश्रीसहस्रकीर्तिदेवा: तपट्टे आचार्यश्रीगुणकीर्तिदेवाः तच्म्यि श्रीयशःकीर्तिदेवाः तत्प? आचार्य श्रीगुणकात्तिदेवा: तच्छिाश्य श्रीयश:कोतिदेवा: तेन निजज्ञानावरणीकर्मक्षयार्थ इदं भविष्यदत्तपञ्चमीका लिन्त्राषितम् ।"
महाकवि रइधून इन्हें आगन गुरुवा रूपमं स्मरण किया है । उन्होंने लिखा है--
..........' सिरि गर्णाकत्तिमूरि पायउजणि ।
सहुशिहामण सिहर परिट्छि । मुत्तिरमणि रागणीव-कंठिउ ||
सुजसायपर चागि दिवासा । सिरि जकित्ति णाम दिग्वासउँ ।।
सम्मइ० १०| ३०| ११-१३
तह पुणु सुतवतावविरांगो। भन्बकमलसंबोपयंगो।
णिचान्भासियश्वमणअंगो। बंदिवि शिरि जसकित्ति अरांगो।।
-मम्मतगुण १|२|६-७
पुणु तहु पट्टि पदर जसभायागु । सिरि जसकित्ति भञ्च सुहृदायणु ।।
-महेसर १|३|५
अर्थात् गुणकीर्त्तिके सिंहासन पर स्थित, मुक्तिरूपी रमणीसे अनुराग करनेके लिए उत्कंठित, प्रातःकालीन सूर्य के समान तेजोन्मुख, यशस्वी, दिव्य नाम धारी और तपायुक्त यशःकोर्ति हुए। ये भव्यजन-कमलोंको सम्बोधित
१. भट्टारक सम्प्रदाय, शोलापुर, लेखांक ५५७ ।
करनेबाले, अंगसाहित्य के प्रवचनकर्ता, निष्परिग्रही, यतीश्चर', मन्दर, गौम्य. मुनिगणतिलक और धर्मानुरागी थे।
महाकवि रइधूने इनको गुणकोनिका भाई भी बतलाया है । लिखा है--
......''ज[ गुणसुकिति गामसो ॥
सुतासु पट्टि भायरो। दि आपत्थसायगे।
रिसीस गच्छणायको ! जगतमिम्बदायको ।।
जसलुकित्ति सुंदरो। अंकपु णायमंदिरो ||
—पामणाह० १|२|८-११
इस कथन पुष्टि अन्य प्रशस्तिसे भी होती है
संयमविवेक निलयान विबुधकुलतिलकान् मदारका-लघु-भ्राता याःकीर्ति देवाः।
अर्थात् भट्टारकयश-कीर्ति भट्टारकगणकीर्तिके भाई, आगमग्रन्योंके अर्थ के लिए सागरके समान, ऋपीश्वरोंके गच्छनायक, विजयकी शिक्षा देनेवाले, सुन्दर, निर्भीक, ज्ञानमन्दिर, भट्टारक गुणकीर्तिके शिष्य तथा क्षमागुणसे सुशोभित थे। ___ भट्टारकयश:कोतिको गुणकीर्तिका लत्रुभाई महाकविसिंहने 'पज्जुण्या चरिउ'की अन्य पुष्पिकामें बताया है। भट्टारकयश कीर्तिने भी अपनेको गुणकीर्तिका भाई लिखा है
तह विक्खायउ मुणि गुणकित्तिणामु ।
सब ते जासु सरीस खाम् ।
तहो णियबघउ जसकित्ति जाउ ।।
-यश कीर्ति पाण्डवपुराण, अन्त्य प्रशस्ति ।
अतः यह सम्भव है कि यशःकीति गृहस्थाबस्थामें गुणकीर्तिके लधुभाई रहे हों। गुणकीर्तिके पट्टासीन होनेपर ये उनके शिष्य हो गये होंगे।
भट्टारक परम्पराके इतिहास पर दृष्टिपात करनेसे अवगत होता है कि मध्यकालीन माथुरगच्छ परम्पराका आरम्भ माधवसेनसे हुआ है। इनके दो शिध्य हुए-उद्धरसेन और बिजयसेन । उद्धरसेनके पश्चात् क्रमशः देवसेन, विमलसेन, धर्मसेन, भावसेन, सहस्रकीर्ति और गुणकीर्तिभट्टारक हुए 1 गुण कौतिके आम्नायमें वि०सं०१४६८में ग्वालियर में राजा वीरमदेवके राज्यकालमें अग्रवाल साध्वी देवश्रीने पञ्चास्तिकायकी प्रति लिखवायी थी। आपने संवत् १४७३में एक मूर्ति स्थापित की थी।
१. आमेर प्रशस्ति संग्रह ( जयपुर ), पृ० १३७ ।
मुणकीर्तिके पट्टशिष्य-यश कीर्ति हुए तथा इनके पट्टशिष्य मलयकीर्ति हुए। यतःकीर्ति अपने समयके अत्यन्त प्रसिद्ध और यशस्वी व्यक्ति थे ।
'भविष्यदत्तरित के प्रतिलिपिकी पुष्पिकासे स्पष्ट है कि बिसं० १४८६में डूंगरसिंहके राज्यकाल में भट्टारकयश कीर्ति यशस्वी हो चुके थे । भट्टारक अगःकीर्तिने जीर्ण-शीर्ण अन्धोद्धावे
लागु अन्योंकी लिपियोंका भी कार्य कराया था। इन ग्रन्थोंमें दो रचनाएँ प्रधान हैं-१. सुकुमालचरितः . ( अपनश ) और . भवित्र्यदत्तचरित 1 इन दोनों ग्रन्थोंके लेखक पं० विबुध श्रीधर थे। पंथल कायस्थने इन दोनों ग्रन्थोंकी प्रतिलिपियाँ की थीं। इन प्रतिलिपियोंके पुष्पिकाओं एबं ग्वालियरके एक मूर्ति लेखमे यश कीर्तिका समय वि०सं० १४८६-१५१० सिद्ध होता है ।
प्रशाकीर्तिने पाण्डवपुराणको रचना वि० सं० १४२.७ में की है तथा गोपाचल दुर्ग की श्रीआदिनाथ मुर्तिका एक अभिलेख वि० सं० १४२७ का प्राप्त है, जिसमें गुणकीर्तिक पट टपर यश-कीतिक आसीन होनेकी चर्चा है । इस मूर्तिका प्रतिष्टाकार्य पं० रहने सम्पन्न किया था। वि० सं० १५१० के मूर्ति लेखोंमें मलयकीतिका उल्लेख मिलने लगता है तथा एकाध मूर्ति लेबल में यमः कीर्शिका भी नाम है । इगमे यह निष्कर्ष निकलता है कि वि सं० १५१० के लगभग याःतीति अपना पद बिमलकीर्तिको दे चुके थे। वि० सं० १५४२ के एक मन्त्र लेख में भी मलब कीर्तिका निर्देश है। इस आधार पर श्री जोहरापुरकग्ने यश कीत्तिका गभय १४८६-१४५७ वि० सं० माना है। पर गोपाचलके मूर्ति लेखोंमें इनका निर्देश वि० ११ तक पाया जाता है। अतएव इनका समय वि० मंकी पन्द्रहवीं मतीका अन्तिम भाग तथा सोलहवींका पूर्व भाग है।
यग.कीतिका व्यक्तित्व बहुमुखी है । ग्रन्थकता, ग्रंथोद्धारका, ग्रन्यसंरक्षक होनेके माश्च नये साहित्यकारों के प्रेरणास्त्रोत भी ये रहे हैं। मूर्ति प्रतिष्टाओं में भी इन्होंने योगदान दिया है। इस प्रकार जैन संस्कृतिके प्रचार और प्रसारको दष्टिसे यमकीनिक कार्योंका महत्त्व कम नहीं है।
१. म०४४.६ वर्षे अहिणाबाद १: सोगदिने गोपापलदुर्गे राजा डूंगर सिंह विजय
रामनवमाने श्रीनाष्टा ये माथु रान्वये पुस्करगणे आचार्य श्रीभावसेन देवास्त पट्टे श्रीराहस्रको लिं देवास्तपट्टे श्रीगुणको ति देवात्तच्छिष्येण श्री यशःकी ति दवन'' |
आचार्ययशःकीनिकी चार रचनाएँ प्राप्त हैं
१. पाण्डवपुराण ( अपनश)।
२. हरिवंशपुराण ( अपभ्रश)।
३. जिणरतिकहा ( अपभ्रश)।
४. रविवायकहा ( अपभ्रश)।
इस ग्रन्थ में ३४ सन्धियाँ हैं। इस ग्रन्थकी रचना मुबा बिशाहके राज्यकालमें साधुवील्हाके पुत्र हेमराजकी प्रेरणासे की गयी है। हेमराज योगिनीपुर के निवासी और अग्रवालबंशीय थे। ग्रन्थमें हेमराजकी प्रशंसा करते हुए बतलाया है कि ये सत्यवादी, व्यबसनरहित, जिनपूजक, पर स्त्रीत्यागो, उदार और परोपकारी हैं। इनकी माताका नाम घेताही और पिता का नाम साधुबील्हा तथा धर्मपत्नीका नाम गंधा था। हेमराजका परिवार धर्मात्मा और कर्तव्यपरायण था । __ इस ग्रन्थमें पाण्डव और कौरवोंके साथ श्रीकृष्णका चरित भी अकित किया गया है। रचनाकी भाषाशैली प्रौढ़ है।
इस रचनाका प्रणयन हिसारनियामी अग्रवाल गर्ग गोत्रीयसाहूदिबंड्ढाके अनुरोधसे किया गया है। ग्रन्थकर्ताने प्रशस्तिमें बत लाया है कि योगिनीपुरमें पं०डूंगरसिंह और दिवड्ढा निवास करते थे। दिवड्डा संरसुदर्शनके समान शुद्धमनबाल, कर्मपरायण, दैनिक घट्कर्मोका आचरण करनेवाले, दयालु, एकादश प्रतिमाओंके अनुष्ठाता एवं ज्ञानी थे । इनकी प्रेरणा प्राप्त कर यशःकीर्तिने हरिवंशपुराणकी अपभ्रश भाषामें रचना की। इसमें १३ सन्त्रियाँ और २७१ कड़वक है। हरिवंशकी कथा अंकित्त है ।
है.
इस लघुकाय काव्यमें महावीरकी निर्वाण रात्रि कार्तिक ऋष्णा चतुर्दशीकी रात्रिका काव्यात्मक चित्रण है।।
इसमें रचिव्रतकथा अंकित है। छोटी-सी यह रचना भी उपादेय है।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक गुणकीर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री यश:किर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री मलयकिर्ती |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Yashkirti 16 Th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 04-June- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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