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#ShreyanshSagarJiMaharaj1919ShivSagarJi
Acharya Kalp Shri 108 Shreyansh Sagar Ji was born on 6 January 1919 in Veergaon,Aurangabad,Maharashtra.His name was Foolchand Khandelwal in Planetary state.He received initiation from Acharya Shri 108 Shiv Sagar Ji Maharaj.He practiced in Mangitungi,MaharashtraTwenty Four Tirthankar Jinalaya in Mangitungi were constructed in presense of him.
ये पृथ्वी रत्नों को उत्पन्न करती है इसलिये इसको रत्नगर्भा कहते हैं । उसी प्रकार जगत् उद्धारक, तरण-तारण पुत्रों को जन्म देने से माता को भी जगन्माता कहते हैं। ऐसे ही एक महान जगन्माता को कूख से महाराष्ट्र प्रान्त औरंगाबाद जिला के अपने ननिहाल वीरगांव में ६ जनवरी ई० सन् 1919 तदनुसार शक संवत् १८४० पौष सुदी ४ चंद्रवार को अरुणसध्या में दैदीप्यमान बालक का जन्म हुआ।
जो अपने त्याग, तपस्या से भारत भूमि में प्रसिद्ध है । जिनको इस भारत भूमि का बच्चा बच्चा जानता है । जिसमें कठोर तपस्वी, महान् विद्वान्, आचार्यकल्प, महा मुनिराज प० पू० स्व० १०८ श्री चन्द्रसागरजी जैसे तपः पूत साधुरत्न ने जन्म लिया। इसी प्रकार स्व० पू० आ० १०८ श्री वीरसागरजी महाराज जैसे श्रेष्ठ रत्न से जो जाति पावन बनी है। ऐसे महान कुल और महान जाति में इस पुण्यात्मा बालक का जन्म हुआ । जिनका शुभनाम फूलचंदजी रक्खा गया।
स्व०प० पू० १०८ श्री चन्द्रसागरजी महाराज आपके बाबाजी; तथा स्व० आ० १०८ श्री बीरसागरजी महाराज आपके गृहस्थावस्था के नानाजी हैं। आपके पिताजी का शुभ नाम श्रीमान सेठ लालचन्दजी और माताजी का नाम कुन्दनबाई है । जो आज आर्यिका १०५ श्री अरहमती नाम से विद्यमान हैं। आपके पिताजी भी व्रती थे।
,सभी मिलके आपके २० भाई बहन थे। लेकिन दुर्भाग्यवश आज ७ भाई १ बहन विद्यमान हैं। इनमें से कोई डॉक्टर, कोई इंजिनियर, कोई व्यापारी सभी अपने अपने कार्य में तत्पर है पटरी पर दौड़ में सबसे आगे रहना आपका बचपन का शौक था। आपने पूना में एस.पी. से इन्टर आर्ट परीक्षा पास की।
सन १९३८ में श्री गोंदा निवासी श्रीमान सेठ दुलीचन्दजी, माणिकचन्दजी बड़जात्या की सुपुत्री सौ( श्रीमती ) लीलाबाई जी के साथ आपका विवाह हुआ । आपके शरद, विकास ये दो सुपुत्र और क्षमा, शीला नामक दो सुपुत्रियाँ हैं । गृहस्थावस्था' में आपने परम्परागत आढत, ताल व्यापारादि के द्वारा न्यायपूर्वक धनोपार्जन किया । फलतः आप श्रीरामपुर नगर के सेठजी कहलाते थे "पहाडेदादा" नाम से भी आप विख्यात थे । दान देना, सहायता करना, परोपकार करना इन में आपकी शुरू से हो रुचि थी।
भरी पूरी जवानी, भरे पूरे परिवार के बीच विषय भोग के लुभावने साधनों के सुलभ होते हुए भी संसार रूपी कीचड़ से निकल कर आत्मकल्याण की तरफ आपका मन आकर्षित होने लगा। धार्मिक संस्कार संपन्न पत्नी की शुभ प्रेरणा से आपने स्व० पू० १०८ श्री सुपार्श्वसागरजी महाराज के पास तम्बाखू सेवन त्याग, रात्रि भोजन त्याग ले लिये । खानिया में स्व० आ० प.प. १०८ श्री वीरसागरजी महाराज से प्रतिदिन पंचामृताभिषेक, पूजन करने का नियम लिया। तदुपरान्त पू० १०८ श्री सुपार्श्वसागरजी महाराज से शूद्रजल त्याग, द्वितीय प्रतिमाव्रत ग्रहण किये। श्रीसिद्धक्षेत्र मांगीतुगीजी के पावन पहाड़ पर अखंड ब्रह्मचर्यव्रत धारण किया। पू० सुपार्श्वसागरजी महाराज के सान्निध्य में सप्तम प्रतिमाव्रत ग्रहण किये ।
भर जवानी अवस्था, इन्द्रिय विषय के सुखोपभोगों से युक्त संपन्नावस्था, पुत्र-पुत्रियाँ एवं अन्य विशाल परिवार के रहते हुए भी उन सभी का निःसंकोच परित्याग कर असिधारा समान कठोर जैनेश्वरी दीक्षा धारण करने के आपके उत्कृष्ट भाव हुए।
सन् १९६५ श्री अतिशय क्षेत्र महावीरजी शांतिवीर नगर के पंच कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के पावन अवसर पर करीब ४० हजार जनसमुदाय के बीच स्व० आ० प० पू० १०८ श्री शिवसागरजी महाराज के करकमलों से आप दोनों पति-पत्नी की दीक्षा ग्रहण विधि बड़े ठाट से हुई। आप दोनों ने दीक्षा धारण कर एक महान आदर्श जैन समाज में उपस्थित किया। आपके इस आदर्श विरक्त जीवन का प्रमुख बीज आपके व्रती माता-पिता के धर्म संस्कार ही हैं । आपके दीक्षा के पूर्व ही २ साल आपकी माता श्री कुन्दनबाईजी ने स्व० पू० १०८ श्री सुपार्श्व सागरजी महाराज से क्षुल्लिका व्रत ग्रहण किये थे। आपके दीक्षा के समय क्षुल्लिका माताजी ने भी पु. आ० १०८ श्री शिवसागरजी से आर्यिका व्रत ग्रहण किये । आपके गुरुदेव ने आपको श्री श्रेयांस सागरजी नाम से, पत्नी को श्री श्रेयांसमतीजी नाम से, माताजी को श्री अर्हमती शुभ नाम से विभूषित किया।
दीक्षा लेने के बाद आपने सबसे प्रथम आत्मसाधना की ओर ध्यान दिया। अभीक्ष्णज्ञानाप योगद्वारा सम्यग्ज्ञान की साधना की । न्याय, धर्म, व्याकरण, सिद्धान्तशास्त्रों का सूक्ष्म अध्ययन किया जिनके फलस्वरूप ज्ञान विकास के साथ साथ आपका चारित्र उज्ज्वल हुआ।तपश्चरण की गंभीरता से आपका तेजोदीप्त मुख मंडल प्रत्येक दर्शनार्थी को विनयावनत जाता है। कठिन से कठिन किसी भी विषय को सरलता से समझाने की आपकी प्रवचन शैली से श्रोतागण सुनकर मंत्र मुग्ध हो जाते हैं।
स्वयं मोक्षमार्ग पर चलते हुए साथ साथ भव्य जीवों को मोक्षमार्ग में प्रेरित करके उनका जमार करने में आप निरन्तर लगे रहते हैं। जिसके फलस्वरूप हर गांव में अनेकों नर-नारी, बच्चा बच्चो हर तरह के व्रतोपवासादि ग्रहण करते हैं।
सन् 1979 में आपके उपस्थिति में जयसिंगपूर में इन्द्रध्वज विधान संपन्न हुआ । उसी समय ऐल्लक, क्षुल्लकादि त्यागियों का विशाल सम्मेलन आयोजित किया गया । सन् १९७२ चौमासा के बीच बारामती में संघस्थ ब्रह्मचारिणी बसंतीबाई हतनौर वालों की आर्यिका दीक्षा तथा नवयुवक श्रीमंधर गांधी फलटण वालों की क्षुल्लक दीक्षा; सन् १९७३ फलटण चौमासा के बीच ब्र० श्री धलिचन्दजी पारसोडा वालों की मुनि दीक्षा, श्री ब्र० रतनबाईजी मेहता फलटण बालों की क्षुल्लिका दीक्षा आदि दीक्षाएँ आपके करकमलों से हुई हैं । जो सांप्रत क्रम से आर्यिका १०५ श्री सुगुणमतीजी, क्ष० १०५ श्रीसुभद्रसागरजी, मुनि १०८ श्री धर्मेन्द्रसागरजी, क्षु० १०५ श्री श्रद्धामतीजी नाम से प्रख्यात हैं । सन् १९७४ अकलूज नगरी में आपके उपस्थिति में विद्वत् सम्मेलन तथा अखिल भारतीय शास्त्री परिषद अधिवेशन संपन्न हुए। जिसमें एकान्त पक्षीय धर्म विरुद्ध सोनगढ़ के मन्तव्यों पर प्रकाश डाला गया। तथा विद्वानों को जैन समाज के उत्थान प्रति जागरूक किया गया।
आपके मंगलमय उपदेश की प्रेरणा से औरंगाबाद दि० जैन मंदिर की नव निर्माण योजना; वैजापूर के समवसरण तुल्य विशाल शिखरबंद मंदिर योजना; पारसोडा, लासूर, उठडादि गांवों में मंदिर निर्माण; तथा और भी जगह चैत्य चैत्यालयों का निर्माण तथा जीर्णोद्धार हुआ है। अभी वर्तमान में श्री सिद्धक्षेत्र मांगीतुगीजी के मंदिर जीर्णोद्धार और नव मंदिर निर्माण का महान कार्य होने जा रहा है । ये सभी कार्य आपकी प्रेरणा के ही उज्ज्वल फल हैं।
मुनि बनने के बाद आ० श्री १०८ शिवसागरजी महाराज के सान्निध्य में ज्ञान, ध्यान, तपोरत रहते हुए आपने महावीरजी, कोटा, उदयपुर प्रतापगढ़ में चातुर्मास किये । गुरुदेव के स्वर्गारोहणो परान्त संघ से पृथक् होकर धर्मप्रचार करते हुए आपके क्रमशः किशनगढ़, औरगाबाद, बाहुबली (कुम्भोज), बारामती, फलटण, श्रीरामपूर, नान्दगांव, इन्दौर, अजमेर, ईसरी, सुजानगढ़ में चातुर्मास संपन्न हुए।
आपने तीर्थराज सम्मेदशिखर जी की यात्रा की जो ब्र० धर्मचन्द शास्त्री ने कराई। ब्र०ऐराजी, ब्र० सुधर्मा जी, ब्र० श्री सुलोचना जी आदि साथ में थे। वर्तमान में आप मांगीतुंगी का उद्धार कर रहे हैं । आपने इस क्षेत्र के लिए १ करोड़ का योगदान दिलाया है।
धन्य है वो धरा, धन्य है वो माता !!! धन्य है वो पिता, धन्य है वो कुल, धन्य है वो जाति जिन्होंने ऐसे तेजस्वी रत्नों को प्रसूत कर धर्मध्वजा फहराई है । ऐसे महान् सन्त के पुनीत चरणों में मेरा शत शत वंदन हो।
धन्य है वो माता, धन्य है वो पिता । जिनके पावन दर्शन से नश जावे मिथ्यातम का माथा ।।
Wife-Leelabati Bai Name after diksha : Aryika Shri 105 Shreyanshmati Mata Ji
Mother-Aryika Shri 105 Arahmati Mata Ji
Muni Shri 108 Chandra Sagar Ji Maharaj also belong to his family
Acharya Veer Sagar Ji Maharaj also belong to his family
Book written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
#ShreyanshSagarJiMaharaj1919ShivSagarJi
Book written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
आचार्य कल्प श्री १०८ श्रेयांश सागरजी महाराज
Aacharya Shri 108 Shiv Sagar Ji Maharaj 1901
आचार्य श्री १०८ शिव सागर जी महाराज १९०१ Aacharya Shri 108 Shiv Sagar Ji Maharaj 1901
ShreyanshSagarJiMaharaj1919ShivSagarJi
Acharya Kalp Shri 108 Shreyansh Sagar Ji was born on 6 January 1919 in Veergaon,Aurangabad,Maharashtra.His name was Foolchand Khandelwal in Planetary state.He received initiation from Acharya Shri 108 Shiv Sagar Ji Maharaj.He practiced in Mangitungi,MaharashtraTwenty Four Tirthankar Jinalaya in Mangitungi were constructed in presense of him.
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Mother-Aryika Shri 105 Arahmati Mata Ji
Muni Shri 108 Chandra Sagar Ji Maharaj also belong to his family
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Acharya Kalp Shri 108 Shreyansh Sagarji Maharaj
आचार्य श्री १०८ शिव सागर जी महाराज १९०१ Aacharya Shri 108 Shiv Sagar Ji Maharaj 1901
आचार्य श्री १०८ शिव सागर जी महाराज १९०१ Aacharya Shri 108 Shiv Sagar Ji Maharaj 1901
Aacharya Shri 108 Shiv Sagar Ji Maharaj 1901
Acharya Kalp Shri 108 Shreyansh Sagar Ji Maharaj
#ShreyanshSagarJiMaharaj1919ShivSagarJi
ShreyanshSagarJiMaharaj1919ShivSagarJi
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