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Samantabhadra was a Digambara acharya (head of the monastic order) who lived about the later part of the second century CE. He was a proponent of the Jaina doctrine of Anekantavada. The Ratnakaranda śrāvakācāra is the most popular work of Samantabhadra. Samantabhadra lived after Umaswami but before Pujyapada.
रत्नकरण्डकश्रावकाचार्य ग्रन्थ के कर्ता आचार्य श्री समन्तभद्रस्वामी हैं। प्रतिभाशाली आचार्यों, समर्थ विद्वानों एवं पूज्य महात्माओं में आपका स्थान बहुत ऊँचा है। आप समन्तातभद्र थे - बाहर भीतर सब ओर से भद्र रूप थे आप बहुत बड़े योगी, त्यागी, तपस्वी एवं तत्त्वज्ञानी थे। आप जैन धर्म एवं सिद्धांतों के मर्मज्ञ होने के साथ हे साथ तर्क, व्याकरण, छन्द, अलंकार और काव्यकोषादि ग्रन्थों में पूरी तरह निष्णात थे। आपको ‘स्वामी’ पद से विशेष तौर पर विभूषित किया गया है।
जीवनकाल - आपने किस समय इस धरा को सुशोभित किया इसका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। कोई विद्वान आपको ईसा की तीसरी शताब्दी के बाद का बताते हैं तो कोई ईसा की सातवीम-आठवीं शताब्दी का बताते हैं। इस सम्बन्ध में सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ स्वर्गीय पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तार ने अपने विस्तृत लेखों में अनेक प्रमाण देकर यह स्पष्ट किया है कि स्वामी समन्तभद्र तत्त्वार्थ सूत्र के दर्ता आचार्य उमास्वामी के पश्चात् एवं पूज्यपाद स्वामी के पूर्व हुए हैं। अतः आप असन्दिग्ध रूप से विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी के महान् विद्वान् थे। अभी आपके सम्बन्ध में यही विचार सर्वमान्य माना जा रहा है।
संसार की मोहममता से दूर रहने वाले अधिकांश जैनाचार्यों के माता-पिता तथा जन्मस्थान आदि का कुछ भी प्रमाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है। समन्तभद्र स्वामी भी इसके अपवाद नहीं है। श्रवणबेलगोला के विद्वान् श्री दौर्बलिजिनदास शास्त्री के शास्त्र भंडार में सुरक्षित आप्तमीमांसा की एक प्राचीन ताड़पत्रीय प्रति के निम्नांकित पुष्पिकावाक्य ‘इति श्री फणिमंडलालंकार स्योरगपुराधिपसूनोः श्रीस्वामी समन्तभद्रमुनेः कृतौ आप्तमीमांसायाम्’ से स्पष्ट है कि समन्तभद्र फणिमंड्लान्तर्गत उरगपुर के राजा के पुत्र थे। इसके आधार पर उरगपुर आपकी जन्मभूमि अथवा बाल क्रीड़ा भूमि होती है। यह उरग्पुर ही वर्तमान का ‘उरैयूर’ जान पड़ता है। उरगपुर चोल राजाओं की प्रचीन राजधानी रही है। पुरानी त्रिचनापल्ली भी इसी को कहते हैं। आपका प्रारम्भिक नाम शान्तिवर्मा था। दीक्षा के पहले आपकी शिक्षा या तो उरैयूर हुई अथवा कांची य मदुरै में हुई जान पड़्ती है क्योंकि ये तीनों ही स्थान उस समय दक्षिण भारत में विद्य के मुख्य केन्द्र थे। इन सब स्थानों में उस समय जैनियॊं के अच्छे-अच्छे मठ भी मौजूद थे। आपकी दीक्षा का स्थान कांची या उसके आसपास कोई गांव होना चाहिए। आप कांची के दिगम्बर साधु थे। "कांच्यां नग्नाटकोऽहं"।
पितृकुल की तरह समन्तभद्रस्वामी के गुरुकुल का भी कोई स्पष्ट लेख नहीं मिलता है, और न ही आपके दीक्षा गुरु के नाम का ही पता चल पाया है। आप मूल्संघ के प्रधान आचार्य थे। श्रवणबेलगोल के कुछ शिलालेखों से इतना पता चलता है कि आप श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली, उनके शिष्य चन्द्रगुप्तमुनि के वंशज पद्मनन्दि अपर नाम कोन्डकुन्द मुनिराज उनके वंशज उमास्वाति की वंशपरम्परा में हुए थे। (शिलालेख नं. ४०)
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आचार्य समन्तभद्र महाराज जी- २ सदि
Sanjul Jain - Created wiki Page on 30-Dec-2020
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Samantabhadra was a Digambara acharya (head of the monastic order) who lived about the later part of the second century CE. He was a proponent of the Jaina doctrine of Anekantavada. The Ratnakaranda śrāvakācāra is the most popular work of Samantabhadra. Samantabhadra lived after Umaswami but before Pujyapada.
Samantabhadra is said to have lived from 150 CE to 250 CE. He was from southern India during the time of Chola dynasty. He was a poet, logician, eulogist and an accomplished linguist. He is credited with spreading Jainism in southern India.[4]
Samantabhadra, in his early stage of asceticism, was attacked with a disease known as bhasmaka (the condition of insatiable hunger). As, digambara monks don't eat more than once in a day, he endured great pain. Ultimately, he sought the permission of his preceptor to undertake the vow of Sallekhana. The preceptor denied the permission and asked him to leave monasticism and get the disease cured.After getting cured he again joined the monastic order and became a great Jain Acharya
Samantabhadra affirmed Kundakunda's theory of the two nayas - vyavahāranaya (‘mundane') and niścayanaya (ultimate, omniscient). He argued however that the mundane view is not false, but is only a relative form of knowledge mediated by language and concepts, while the ultimate view is an immediate form of direct knowledge. Samantabhadra also developed further the Jain theory of syādvāda.
Acharya Samantbhadra Maharaj Ji-2nd century CE
Acharya Samantbhadra - Ratnakarandak Shravkachar
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15000
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