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#AcharyaShriAklankDev
Acharya Shri 108 Aklank Dev (also known as Aklank Deva and Bhatta Aklank) was a Jain logician whose Sanskrit-language works are seen as landmarks in Indian logic. He lived from 720-780 A.D. and belonged to the Digambara sect of Jainism. His work Astasati, a commentary on Aptamimamsa of Acharya Samantabhadra deals mainly with jaina logic. He was a contemporary of Rashtrakuta king Krishna I. He is the author of Tattvārtharājavārtika, a commentary on major Jain text Tattvartha Sutra. He greatly contributed to the development of the philosophy of Anekantavada and is therefore called the "Master of Jain logic".
जैन दर्शन में अकलंकदेव एक प्रखर तार्किक और महान दार्शनिक आचार्य हुए हैं। बौद्धदर्शन में जो स्थान धर्मकीर्ति को प्राप्त है, जैन दर्शन में वही स्थान अकलंकदेव का है। इनके द्वारा रचित प्राय: सभी ग्रन्थ जैनदर्शन और जैन न्यायविषयक हैं। श्री अकलंकदेव के सम्बन्ध में श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में अनेक स्थान पर स्मरण आया है।
अभिलेख संख्या ४७ में लिखा है-
षट्तर्केष्वकलंकदेव विबुध: साक्षादयं भूतले।
अर्थात् अकलंकदेव षट्दर्शन और तर्वâशास्त्र में इस पृथ्वी पर साक्षात् वृहस्पति देव थे।
अभिलेख नं. १०८ में पूज्यपाद के पश्चात् अकलंकदेव का स्मरण किया गया है-
‘‘तत: परं शास्त्रविदां मुनीनामग्रे, सरोऽभूदकलंकसूरि:।
मिथ्यान्धकार स्थगिताखिलार्था:, प्रकाशिता यस्य वचोमयूखै:।।’’
इनके बाद शास्त्रज्ञानी महामुनियों के अग्रणी श्री अकलंकदेव हुए जिनकी वचनरूपी किरणों के द्वारा मिथ्या अंधकार से ढके हुए अखिल पदार्थ प्रकाशित हुए हैं।
इनका जीवन परिचय, समय, गुरु परम्परा और इनके द्वारा रचित ग्रन्थ इन चार बातों को संक्षेप से यहां दिखाया जाएगा-
जीवन परिचय-तत्त्वार्थवार्तिक के प्रथम अध्याय के अंत में जो प्रशस्ति है उसके आधार से ये ‘‘लघुहव्वनृपति’’ के पुत्र प्रतीत होते हैं। यथा-
‘‘जीयाच्चिरम कलंकब्रह्मा लघुहव्वनृपतिवरतनय:।
अनवरतनिखिलजननुतविध: प्रशस्तजनहृदय:।।’’
लघुहव्वनृपति के श्रेष्ठ पुत्र श्री अकलंक ब्रह्मा चिरकाल तक जयशील होवें, जिनको हमेशा सभी जन नमस्कार करते थे और जो प्रशस्तजनों के हृदय के अतिशय प्रिय हैं।
ये कौन थे ? किस देश के थे ? यह कुछ पता नहीं चल पाया है। हो सकता है ये दक्षिण देश के राजा रहे हों। श्री नेमिचन्द्रकृत आराधना कथाकोष में इन्हें मंत्रीपुत्र कहा है। यथा-
मान्यखेट के राजा शुभतुंग के मन्त्री का नाम पुरुषोत्तम था, उनकी पत्नी पद्मावती थीं। इनके दो पुत्र थे-अकलंक और निकलंक। एक दिन आष्टान्हिक पर्व में पुरुषोत्तम मंत्री ने चित्रगुप्त मुनिराज के समीप आठ दिन का ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया और उसी समय विनोद में दोनों पुत्रों को भी व्रत दिला दिया।
जब दोनों पुत्र युवा हुए तब पिता के द्वारा विवाह की चर्चा आने पर विवाह करने से इंकार कर दिया। यद्यपि पिता ने बहुत समझाया कि तुम दोनों को व्रत विनोद में दिलाया था तथा वह आठ दिन के लिए ही था किन्तु इन युवकों ने यही उत्तर दिया कि-पिताजी व्रत ग्रहण में विनोद कैसा ? और हमारे लिए आठ दिन की मर्यादा नहीं की थी।
पुन: ये दोनों बाल ब्रह्मचर्य के पालन में दृढ़प्रतिज्ञ हो गए और धर्माराधना में तथा विद्याध्ययन में तत्पर हो गए। ये बौद्ध शास्त्रों के अध्ययन हेतु ‘‘महाबोधि’’ स्थान में बौद्ध धर्माचार्य के पास पढ़ने लगे। एक दिन बौद्ध गुरु पढ़ाते-पढ़ाते कुछ विषय को नहीं समझा सके तो वे चिन्तित हो बाहर चले गए। वह प्रकरण सप्त- भंगी का था, अकलंक ने समय पाकर उसे देखा, वहां कुछ पाठ समझकर उसे शुद्ध कर दिया। वापस आने पर गुरु को शंका हो गई कि यहां कोई विद्यार्थी जैनधर्मी अवश्य है। उसकी परीक्षा की जाने पर ये अकलंक-निकलंक पकड़े गए। इन्हें जेल में डाल दिया गया। उस समय रात्रि में धर्म की शरण लेकर ये दोनों वहां से भाग निकले। प्रात: इनकी खोज शुरू हुई। नंगी तलवार हाथ में लिए घुड़सवार दौड़ाए गए।
जब भागते हुए इन्हें आहट मिली, तब निकलंक ने भाई से कहा-भाई! आप एकपाठी हैं अत: आपके द्वारा जैनशासन की विशेष प्रभावना हो सकती है अत: आप इस तालाब के कमलपत्र में छिपकर अपनी रक्षा कीजिए। इतना कहकर वे अत्यधिक वेग से भागने लगे। इधर अकलंक ने कोई उपाय न देख अपनी रक्षा कमलपत्र में छिपकर की और निकलंक के साथ एक धोबी भी भागा। तब ये दोनों मारे गए।
कुछ दिन बाद एक घटना हुई वह ऐसी है कि-
रत्नसंचयपुर के राजा हिमशीतल की रानी मदनसुन्दरी ने फाल्गुन की आष्टान्हिका में रथयात्रा महोत्सव कराना चाहा। उस समय बौद्धों के प्रधान आचार्य संघश्री ने राजा के पास आकर कहा कि जब कोई जैन मेरे से शास्त्रार्थ करके विजय प्राप्त कर सकेगा तभी यह जैन रथ निकल सकेगा अन्यथा नहीं। महाराज ने यह बात रानी से कह दी। रानी अत्यधिक चिंतित हो जिनमन्दिर में गई और वहां मुनियों को नमस्कार कर बोली-प्रभो! आप में से कोई भी इस बौद्ध गुरु से शास्त्रार्थ करके उसे पराजित कर मेरा रथ निकलवाइये। मुनि बोले-रानी! हम लोगों में एक भी ऐसा विद्वान नहीं है। हाँ, मान्यखेटपुर में ऐसे विद्वान मिल सकते हैं। रानी बोली-गुरुवर! अब मान्यखेटपुर से विद्वान आने का समय कहाँ है ? वह चिंतित हो जिनेन्द्रदेव के समक्ष पहुँची और प्रार्थना करते हुए बोली-भगवन्! यदि इस समय जैनशासन की रक्षा नहीं होगी तो मेरा जीना किस काम का ? अत: अब मैं चतुराहार का त्याग कर आपकी ही शरण लेती हूँ। ऐसा कहकर उसने कायोत्सर्ग धारण कर लिया।
उसके निश्चल ध्यान के प्रभाव से पद्मावती देवी का आसन कंपित हुआ। उसने जाकर कहा-देवि! तुम चिन्ता छोड़ो, उठो, कल ही निकलंक देव आयेंगे जो कि तुम्हारे मनोरथ को पूर्ण करने के लिए कल्पवृक्ष होंगे। रानी ने घर आकर यत्र-तत्र किंकर दौड़ाए। अकलंकदेव बगीचे में अशोकवृक्ष के नीचे ठहरे हैं सुनकर वहां पहुँची। भक्तिभाव से उनकी पूजा की और अश्रु गिराते हुए अपनी विपदा कह सुनाई। अकलंकदेव ने उसे आश्वासन दिया और वहां आये। राज्यसभा में शास्त्रार्थ शुरू हुआ। प्रथम दिन ही संघश्री घबड़ा गया और उसने अपने इष्टदेव की आराधना करके तारादेवी को शास्त्रार्थ करने के लिए घट में उतारा।
छह महीने तक शास्त्रार्थ चलता रहा किन्तु तारादेवी भी अकलंकदेव को पराजित नहीं कर सकी। अंत में अकलंक को चिंतातुर देख चक्रेश्वरी देवी ने उन्हें उपाय बतलाया। प्रात: अकलंकदेव ने देवी से समुचित प्रत्युत्तर न मिलने से परदे के अन्दर घुसकर घड़े को लात मारी जिससे वह देवी पराजित हो भाग गई और अकलंकदेव के साथ-साथ जैनशासन की विजय हो गई। रानी के द्वारा कराई जाने वाली रथयात्रा बड़े धूमधाम से निकली और जैनधर्म की महती प्रभावना हुई। श्री मल्लिषेण प्रशस्ति में इनके विषय में विशेष श्लोक पाए जाते हैं। यथा-
तारा येन विनिर्जिता घटकुटीगूढ़ावतारा समं।
बौद्धैर्यो धृतपीठपीडितकुदृग्देवात्तसेवांजलि:।।
प्रायश्चित्तमिवांघ्रिवारिजरजस्नानं च यस्याचरत्।
दोषाणां सुगतस्स कस्य विषयो देवाकलंक: कृती।।२०।।
चूर्णि ‘‘यस्येदमात्मनोऽनन्यसामान्यनिरवद्यविद्या-विभवोपवर्णनमाकण्र्यते।’’
राजन्साहसतुंग संति वहव: श्वेतातपत्रा नृपा:
किन्तु त्वत्सदृशा रणे विजयिनस्त्यागोन्नता दुर्लभा:।
त्वद्वत्संति बुधा न संति कवयो वादीश्वरा वाग्मिनो,
नानाशास्त्रविचारचातुरधिय: काले कलौ मद्विधा:।।२१।।
आगे २३ वें श्लोक में कहते हैं-
नाहंकारवशीकृतेन मनसा न द्वेषिणा केवलं,
नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यति जने कारुण्यबुद्ध्या मया।
राज्ञ: श्रीहिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मनो
बौद्धौघान् सकलान् विजित्य सुगत: पादेन विस्फोटित:१।।
अर्थात् महाराज हिमशीतल की सभा में मैंने सर्व बौद्ध विद्वानों को पराजित कर सुगत को पैर से ठुकराया। यह न तो मैंने अभिमान के वश होकर किया, न किसी प्रकार के द्वेष भाव से किन्तु नास्तिक बनकर नष्ट होते हुए जनों पर मुझे बड़ी दया आई इसलिए मुझे बाध्य होकर ऐसा करना पड़ा है।
इस प्रकार से संक्षेप में इनका जीवन परिचय दिया गया है।
समय-डॉ. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य ने इनका समय ईस्वी सन् की ८वीं शती सिद्ध किया है। पं. वैâलाशचन्द्र जी शास्त्री ने इनका समय ईस्वी सन् ६२०-६८० तक निश्चित किया है किन्तु महेन्द्रकुमार जी न्या. के अनुसार यह समय ई. सन् ७२०-७८० आता है।
गुरुपरम्परा-देवकीर्ति की पट्टावली में श्री कुन्दकुन्ददेव के पट्ट पर उमास्वामी अपरनाम गृद्धपिच्छ आचार्य हुए। उनके पट्ट पर श्री पूज्यपाद हुए पुन: उनके पट्ट पर श्रीअकलंकदेव हुए।
‘‘अजनिष्टाकलंक यज्जिनशासनमादित:।
अकलंक बभौ येन सोऽकलंको महामति:।।१०।।’’
‘‘श्रुतमुनि-पट्टावली’’ में इन्हें पूज्यपाद स्वामी के पट्ट३ पर आचार्य माना है। इसके संघ भेद की चर्चा की है।
इनके द्वारा रचित ग्रन्थ-
इनके द्वारा रचित स्वतन्त्र ग्रन्थ चार हैं और टीका ग्रन्थ दो हैं-
१. लघीस्त्रय (स्वोपज्ञविवृति सहित),
२. न्यायविनिश्चय (सवृत्ति),
३. सिद्धिविनिश्चय (सवृत्ति),
४. प्रमाण संग्रह (सवृत्ति)।
टीका ग्रन्थ-
१. तत्त्वार्थवार्तिक (सभाष्य),
२. अष्टशती (देवागम विवृत्ति)।
लघीयस्त्रय-इस ग्रन्थ में प्रमाण प्रवेश, नय प्रवेश और निक्षेप प्रवेश ये तीन प्रकरण हैं। ७८ कारिकायें हैं, मुद्रित प्रति में ७७ ही हैं। श्री अकलंकदेव ने इस पर संक्षिप्त विवृत्ति भी लिखी है, जिसे स्वोपज्ञविवृत्ति कहते हैं। श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने इसी ग्रन्थ पर ‘‘न्याय कुमुदचन्द्र’’ नाम से व्याख्या रची है जो कि न्याय का एक अनूठा ग्रन्थ है।
न्यायविनिश्चय-इस ग्रन्थ में प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रवचन ये तीन प्रस्ताव हैं। कारिकायें ४८० हैं।
इनकी विस्तृत टीका श्री वादिराजसूरि ने की है। यह ग्रन्थ ज्ञानपीठ काशी द्वारा प्रकाशित हो चुका है।
सिद्धि विनिश्चय-इस ग्रन्थ में १२ प्रस्ताव हैं। इसकी टीका श्री अनन्तवीर्यसूरि ने की है। यह भी ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित हो चुका है।
प्रमाण संग्रह-इसमें ९ प्रस्ताव हैं और ८७ कारिकाएं हैं। यह ग्रन्थ ‘‘अकलंक ग्रन्थत्रय’’ में सिंधी ग्रन्थमाला से प्रकाशित हो चुका है। इस ग्रन्थ की प्रशंसा में धनंजय कवि ने नाममाला में एक पद्य लिखा है-
प्रमाणमकलंकस्य, पूज्यपादस्य लक्षणम्।
धनंजयकवे: काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम्।।
अकलंकदेव का प्रमाण, पूज्यपाद का व्याकरण और धनंजय कवि का काव्य ये अपश्चिम-सर्वोत्कृष्ट रत्नत्रय-तीन रत्न हैं।
वास्तव में जैन न्याय को अकलंक की सबसे बड़ी देन है, इनके द्वारा की गई प्रमाण व्यवस्था दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के आचार्यों को मान्य रही है।
तत्त्वार्थवार्तिक-यह ग्रन्थ श्री उमास्वामी आचार्य के तत्त्वार्थसूत्र की टीकारूप है। तत्त्वार्थसूत्र के प्रत्येक सूत्र पर वार्तिकरूप में व्याख्या लिखे जाने के कारण इसका ‘‘तत्त्वार्थवार्तिक’’ यह सार्थक नाम श्री भट्टाकलंकदेव ने ही दिया। इस ग्रन्थ की विशेषता यही है कि इसमें तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों पर वार्तिक रचकर उन वार्तिकों पर भी भाष्य लिखा गया है अत: यह ग्रन्थ अतीव प्रांजल और सरल प्रतीत होता है।
अष्टशती-श्री स्वामी समन्तभद्र द्वारा रचित आप्तमीमांसा की यह भाष्यरूप टीका है। इस वृत्ति का प्रमाण ८०० श्लोक प्रमाण है अत: इसका ‘‘अष्टशती’’ यह नाम सार्थक है।
जैनदर्शन अनेकांतवादी दर्शन है। आचार्य समन्तभद्र अनेकांतवाद के सबसे बड़े व्यवस्थापक हैं। उन्होंने श्री उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र के मंगलाचरण ‘‘मोक्षमार्गस्य नेतारं’’ आदि को लेकर आप्त-सच्चे देव की मीमांसा करते हुए ११५ कारिकाओं द्वारा स्याद्वाद की प्रक्रिया को दर्शाया है। उस पर श्री भट्टाकलंकदेव ने ‘‘अष्टशती’’ नाम से भाष्य बनाया है और इस भाष्य को वेष्टित करके श्री विद्यानन्द आचार्य ने ८००० श्लोक प्रमाणरूप से ‘‘अष्टसहस्री’’ नाम का सार्थक टीका ग्रन्थ तैयार किया और इसे ‘‘कष्टसहस्री’’ नाम भी दिया है। जैन दर्शन का यह सर्वोपरि ग्रन्थ है। मैंने पूर्वाचार्यों और अपने दीक्षा, शिक्षा आदि गुरुओं के प्रसाद से इस ‘‘अष्टसहस्री’’ ग्रन्थ का हिन्दी भाषा में अनुवाद किया है जिसके तीनों खण्ड ‘‘वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला’’ से प्रकाशित हो चुके हैं।
इस प्रकार से श्रीमद् भट्टाकलंक देव के बारे में मैंने संक्षिप्त वर्णन किया है। वर्तमान में ‘‘निकलंक का बलिदान’’ नाम से इनका नाटक खेला जाता है जो कि प्रत्येक मानव के मानसपटल पर जैनशासन की रक्षा और प्रभावना की भावना को अंकित किए बिना नहीं रहता है।
बाल्यकाल में ‘‘अकलंक निकलंक नाटक’’ देखकर ही मेरे हृदय में एक पंक्ति अंकित हो गई थी कि-
‘‘प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरम्’’
कीचड़ में पैर रखकर धोने की अपेक्षा कीचड़ में पैर न रखना ही अच्छा है। उसी प्रकार से गृहस्थावस्था में फंसकर पुन: निकलकर दीक्षा लेने की अपेक्षा गृहस्थ में न फंसना ही अच्छा है। इस पंक्ति ने ही मेरे हृदय में वैराग्य का अंकुर प्रगट किया था जिसके फलस्वरूप आज मैं उनके पदचिन्हों पर चलने का प्रयास करते हुए उनके विषय में कुछ लिखने के लिए सक्षम हुई हूँ।
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आचार्य श्री १०८ अकलंक देव
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Acharya Shri 108 Aklank Dev (also known as Aklank Deva and Bhatta Aklank) was a Jain logician whose Sanskrit-language works are seen as landmarks in Indian logic. He lived from 720-780 A.D. and belonged to the Digambara sect of Jainism. His work Astasati, a commentary on Aptamimamsa of Acharya Samantabhadra deals mainly with jaina logic. He was a contemporary of Rashtrakuta king Krishna I. He is the author of Tattvārtharājavārtika, a commentary on major Jain text Tattvartha Sutra. He greatly contributed to the development of the philosophy of Anekantavada and is therefore called the "Master of Jain logic".
Aklank flourished in 750 AD He was aware of the contents of the Angas, although it cannot be said whether they represent an idea rather than a reality for him, and he also seems to have been the first Digambara to have introduced as a valid form of scriptural classification the division into kalika and utkalika texts which was also employed by the Svetambaras. He is mentioned as a logician and a contemporary of Subhatunga and Rashtrakuta king Krishna I.
The following Sanskrit-language works are attributed to Akalanka. Some of these are:
Laghiyastraya
Pramānasangraha
Nyāyaviniscaya-vivarana
Siddhiviniscaya-vivarana
Astasati
Tattvārtharājavārtika
https://en.wikipedia.org/wiki/Akalanka
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Acharya Shri 108 Aklank Dev
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