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#AcharyaDharsenSami(76BC-1stCentury)
During the time of Bhadrabahu swami there was a drought of 12 years and this knowledge started to disappear. In the lineage of Bhadrabahu swami there were 2 great Acharyas - Dharsen Acharya and Gunbhadra Acharya (around 700 years after Mahavir bhagwan - reference: 64 riddhi puja by Swaroopchandji). Dharsen Acharya Dev lived in the caves of the Girnar mountain. Until his time, knowledge was passed verbally but then he noticed that due to reduction in brain power, this verbal knowledge was diminishing and was afraid it would be lost altogether so he called 2 monks from the South of India - Pushpadant and Bhootbali. He tested them when they came, by giving them 2 mantras, one of which contained an extra word and the other one was a word short. Whilst both monks were thinking carefully about these mantras, 2 devis (fairies) appeared - one with one eye and one with one tooth sticking out. Thus they understood that these mantras were not pure. They added the missing word and removed the extra word from the 2 mantras, and as these became pure two beautiful devis appeared. They then took these two mantras to Dharsen Acharya who upon reading them said "Jai Ho to Shrut Devta" (long live correct knowledge). As he was satisfied, Dharsen Acharya gave them the knowledge of "the 5th mahakarma prakarti prabhrut adhikar of Agrayani poorva". The two monks then absorbed this knowledge and wrote the first scripture called the "Shatkhand Agam". On completing this scripture in the town of Ankleshwar on the 5th day of the Jesht Sud month (shrut panchami), the devs performed a special puja. From this scripture, many more scriptures were written and thus started the flow of written knowledge.
Lord Mahavir Swami preached Bhavshruta, so he is the Arthakarta. In the same period, Gautam Gotri Indrabhuti, having four knowledge, composed twelve Anga and fourteen Purvarup texts in a sequence in a single Muhurta. Those Gautamswami also gave both types of Shrutgyan to Loharya. Loharya also gave it to Jambuswami. In the tradition order, all these three are said to be the holders of Sakalshruta and if the tradition order is not expected, then there were thousands of Sakalshrutas holders at that time. Gautamswami, Loharya and Jambuswami all three attained Nirvana. After this, Vishnu, Nandimitra, Aparajita, Govardhan and Bhadrabahu, these five Acharyas, became the holders of the fourteenth preceding the customary order. Then Visakhaacharya, Prosthil, Kshatriya, Jayacharya, Nagacharya, Siddhant, Sthavira, Dhritisen, Vijayacharya, Budhil and Gangdev these eleven great men are the eleven organs in the order of tradition,
After this, Nakshatraacharya, Jaipal, Panduswami, Dhruvasena, Kansacharya, all these five Acharyas became the holders of the entire eleven limbs and the fourteen Purva Ekadesh in the order of tradition.
Subsequently Subhadra, Yashobhadra, Yashobahu and Loharya, all these four Acharyas became the holders of the entire Acharanga and the rest of the Anga and the Ekadesh of the East. After this, Dharsen Acharya received the knowledge of all the parts and a country of the East coming from the Acharya tradition.
Saurashtra (Gujarat-Kathiawad) The Ashtanga Mahanimitta, who lives in the moon cave of the city named Girinagar in the country, will be dissected, and the organ Shruta will be severed, in this way the fear has arisen, Whom, such a Dharasenacharya will have great glory (five-year sadhu conference) Sent an article to the Acharyas of Dakshinapath (resident of the south country) who joined. Having understood well the words of Dharasenacharya written in the article, those Acharyas were able to accept and hold the meaning of the scriptures, having a variety of bright and pure humility, the holder of the garland of modesty, the food in the form of sending (sending) by the gurus. Satisfied with country, clan and caste, born in pure i.e. in the best clan and best caste, well versed in all arts and thrice have asked the Acharyas who sent two such sadhus from the banks of the Venandi flowing in the country of Andhra.
Maghnandi or Indranandi was the guru of Dharsen Acharya, however it is not clear in history.
भगवान महावीर स्वामी ने भावश्रुत का उपदेश दिया अत: वे अर्थकर्ता हैं। उसी काल में चार ज्ञान से युक्त गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति ने बारह अंग और चौदह पूर्वरूप ग्रन्थों की एक ही मुहूत्र्त में क्रम से रचना की है। उन गौतमस्वामी ने भी दोनों प्रकार का श्रुतज्ञान लोहार्य को दिया। लोहार्य ने भी जम्बूस्वामी को दिया। परिपाटी क्रम से ये तीनों ही सकलश्रुत के धारण करने वाले कहे गए हैं और यदि परिपाटी क्रम की अपेक्षा न की जाए तो उस समय संख्यात हजार सकलश्रुत के धारी हुए। गौतमस्वामी, लोहार्य और जम्बूस्वामी ये तीनों निर्वाण को प्राप्त हुए। इसके बाद विष्णु, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँचों ही आचार्य, परिपाटी क्रम से चौदह पूर्व के धारी हुए। तदनन्तर विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयाचार्य, नागाचार्य, सिद्धान्त, स्थविर, धृतिसेन, विजयाचार्य, बुद्धिल और गंगदेव ये ग्यारह ही महापुरुष परिपाटी क्रम से ग्यारह अंग, दशपूर्व के धारक और शेष चार पूर्वों के एकदेश के धारक हुए।
इसके बाद नक्षत्राचार्य, जयपाल, पांडुस्वामी, धु्रवसेन, कंसाचार्य ये पांचों ही आचार्य परिपाटी क्रम से सम्पूर्ण ग्यारह अंगों के और चौदह पूर्वों के एकदेश के धारक हुए।
तदनंतर सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य, ये चारों ही आचार्य संपूर्ण आचारांग के धारक और शेष अंग तथा पूर्वों के एकदेश के धारक हुए। इसके बाद सभी अंग और पूर्वों का एक देश ज्ञान आचार्य परम्परा से आता हुआ धरसेन आचार्य को प्राप्त हुआ।
सौराष्ट (गुजरात-काठियावाड़) देश के गिरिनगर नाम के नगर की चन्द्रगुफा में रहने वाले अष्टांग महानिमित्त के पारगामी, प्रवचनवत्सल और आगे अंग श्रुत का विच्छेद हो जाएगा, इस प्रकार उत्पन्न हो गया है भय जिनको, ऐसे उन धरसेनाचार्य से महामहिमा (पंचवर्षीय साधु सम्मेलन) में सम्मिलित हुए दक्षिणापथ के (दक्षिण देश के निवासी) आचार्यों के पास एक लेख भेजा। लेख में लिखे गए धरसेनाचार्य के वचनों को अच्छी तरह समझकर उन आचार्यों ने शास्त्र के अर्थ को ग्रहण और धारण करने में समर्थ, नाना प्रकार की उज्ज्वल और निर्मल विनय से विभूषित अंग वाले, शीलरूपी माला के धारक, गुरुओं द्वारा प्रेषण (भेजने) रूपी भोजन से तृप्त हुए , देश, कुल और जाति से शुद्ध अर्थात् उत्तम कुल और उत्तम जाति में उत्पन्न हुए, समस्त कलाओं में पारंगत और तीन बार पूछा है आचार्यों को जिन्होंने, ऐसे दो साधुओं को आन्ध्र देश में बहने वाली वेणानदी के तट से भेजा।
दि संघ की प्राकृत पट्टावली में ६८३ वर्ष के अन्दर ही धरसेन को माना है।
यथा-
केवली का काल बासठ वर्ष, श्रुतकेवलियों का १०० वर्ष, दश पूर्वधारियों का १८३ वर्ष, ग्यारह अंगधारियों का १२३ वर्ष, दस, नव व आठ अंगधारी का ९७ वर्ष ऐसे ६२±१००±१८३±१२३±९७·५६५ वर्ष हुए पुन: एक अंगधारियों में अर्हतबलि का २८ वर्ष, माघनंदि का २१ वर्ष, धरसेन का १९ वर्ष, पुष्पदन्त का ३० वर्ष और भूतबलि का २० वर्ष, ऐसे ११८ वर्ष हुए। कुल मिलाकर ५६५±११८·६८३ वर्ष के अन्तर्गत ही धरसेनाचार्य हुए हैं।
इस प्रकार इस पट्टावली और इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार के आधार पर भी श्री धरसेन का समय वीर निर्वाण संवत् ६०० अर्थात् ई. सन् ७३ के लगभग आता है।
धरसेन के गुरु
उपर्युक्त पट्टावली के अनुसार इनके गुरु श्री माघनन्दि आचार्य थे अथवा इन्द्रनन्दि आचार्य ने स्पष्ट कह दिया है कि इनकी गुरु परम्परा का हमें ज्ञान नहीं है।
धरसेनाचार्य की रचना
चूँकि श्री धरसेनाचार्य ने अपने पास में पढ़ने के लिए आये हुए दोनों मुनियों को मन्त्र सिद्ध करने का आदेश दिया था अत: ये मन्त्रों के विशेष ज्ञाता थे। इनका बनाया हुआ योनिप्राभृत नाम का एक ग्रन्थ आज भी उपलब्ध है। यह ग्रन्थ ८०० श्लोकों प्रमाण प्राकृत गाथाओं में है। उसका विषय मन्त्र-तन्त्रवाद है, वृहत् टिप्पणिका नामक इन्स्टीट्यूट पूना में है। इस प्रति में ग्रन्थ का नाम तो योनिप्राभृत ही है किन्तु उसके कर्ता का नाम पण्हसवण मुनि पाया जाता है। इस महामुनि ने उसे वूâष्माण्डिनी महादेवी से प्राप्त किया था और अपने शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलि के लिए लिखा। इन दो नामों के कथन से इस ग्रन्थ का धरसेन कृत होना बहुत सम्भव जंचता है। प्रज्ञाश्रमणत्व एक ऋद्धि का नाम है उसके धारण करने वाले प्रज्ञाश्रमण कहलाते थे। पूना में उपलब्ध जोणिपाहुड की इस प्रति का लेखन काल सं. १५८२ है अर्थात् वह प्रति चार सौ वर्ष से अधिक प्राचीन है। जोणिपाहुड ग्रन्थ का उल्लेख धवला में भी आया है, जो इस प्रकार है-
जोणिपाहुडे भणिदमंत-तंत-सत्तीओ पोग्गलाणु भागोत्ति घेत्तव्वौ।१ धवला अ. प्रति-पत्र।।१८।।
इस प्रकार से धरसेनाचार्य के महान उपकार स्वरूप ही आज हमें षट्खण्डागम ग्रन्थ का स्वाध्याय करने को मिल रहा है। इनके बारहवें दृष्टिवाद अंग के अन्तर्गत पूर्वों के तथा पांचवे सम्प्रदाय की मान्यतानुसार षट्खण्डागम और कषायपाहुड ही ऐसे ग्रन्थ हैं जिनका सीधा सम्बन्ध महावीर स्वामी की द्वादशांग वाणी से माना जाता है। कहा भी है-
जयउ धरसेणणाहो जेण, महाकम्मपयडिपाहुडसेलो।
बुद्धिसिरेणुद्धरिओ, समप्पिओ पुप्फयन्तस्य२।। (धवला अ. ४७५)
वे धरसेनस्वामी जयवन्त होवें जिन्होंने इस महाकर्मप्रकृति प्राभृतरूपी पर्वत को बुद्धिरूपी मस्तक से उठाकर श्री पुष्पदंत आचार्य को समर्पित किया है अर्थात् जिन्होंने पुष्पदन्त मुनि को पढ़ाया है, पुन: इन्होंने ग्रन्थ की रचना की है।
(इस प्रकार से इन धरसेनाचार्य के इतिहास से हमें यह समझना है कि ये आचार्य अंग और पूर्वों के एकदेश के ज्ञाता थे, मंत्रशास्त्र के ज्ञाता थे एवं एक योनिप्राभृत ग्रन्थ भी रचा था। इन्होंने बहुत काल तक चन्द्रगुफा में निवास किया था। योग्य मुनियों को अपना श्रुतज्ञान पढ़ाया था। शिष्यों को मंत्र सिद्ध करने को भी दिया था। इस प्रकार से जो मंत्र देने का विरोध करते हैं उन्हें अवश्य सोचना चाहिए कि आज के मुनि या आचार्य किसी को मिथ्यात्व के प्रपंच से हटाकर शांति हेतु या किसी कार्य सिद्धि हेतु यदि कुछ मंत्र दे देते हैं, तो देने वाले या मंत्र जपने वाले दोनों ही मिथ्यादृष्टि नहीं हैं तथा उन्होंने श्रुत के विच्छेद के भय से जो दो मुनियों को अपना श्रुतज्ञान देकर उनके निमित्त से आज श्रुतज्ञान की परम्परा अविच्छिन्न रखी है उनका यह महान उपकार प्रतिदिन स्मरण करना चाहिए। जिस दिन षट्खण्डागम की रचना पूरी हुई उस दिन चतुर्विध संघ ने मिलकर श्रुत की महापूजा की थी, उस दिन ज्येष्ठ सुदी पंचमी थी अत: उस पंचमी को आज श्रुतपंचमी कहकर सर्वत्र श्रुतपूजा करने की प्रथा चली आ रही है। उसे भी विशेष पर्वरूप में मनाकर श्रुत की, गुरु धरसेनाचार्य, पुष्पदंत तथा भूतबलि आचार्य की पूजा करनी चाहिए।)
श्रेणी: प्राचीन आचार्य
#AcharyaDharsenSami(76BC-1stCentury)
आचार्य श्री १०८ धरसेन सामी (76 ईसा पूर्व - पहली शताब्दी)
Nutan Chougule created Digjainwiki Hindi page for Acharya Dharsen on 15th June 2021
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During the time of Bhadrabahu swami there was a drought of 12 years and this knowledge started to disappear. In the lineage of Bhadrabahu swami there were 2 great Acharyas - Dharsen Acharya and Gunbhadra Acharya (around 700 years after Mahavir bhagwan - reference: 64 riddhi puja by Swaroopchandji). Dharsen Acharya Dev lived in the caves of the Girnar mountain. Until his time, knowledge was passed verbally but then he noticed that due to reduction in brain power, this verbal knowledge was diminishing and was afraid it would be lost altogether so he called 2 monks from the South of India - Pushpadant and Bhootbali. He tested them when they came, by giving them 2 mantras, one of which contained an extra word and the other one was a word short. Whilst both monks were thinking carefully about these mantras, 2 devis (fairies) appeared - one with one eye and one with one tooth sticking out. Thus they understood that these mantras were not pure. They added the missing word and removed the extra word from the 2 mantras, and as these became pure two beautiful devis appeared. They then took these two mantras to Dharsen Acharya who upon reading them said "Jai Ho to Shrut Devta" (long live correct knowledge). As he was satisfied, Dharsen Acharya gave them the knowledge of "the 5th mahakarma prakarti prabhrut adhikar of Agrayani poorva". The two monks then absorbed this knowledge and wrote the first scripture called the "Shatkhand Agam". On completing this scripture in the town of Ankleshwar on the 5th day of the Jesht Sud month (shrut panchami), the devs performed a special puja. From this scripture, many more scriptures were written and thus started the flow of written knowledge.
Lord Mahavir Swami preached Bhavshruta, so he is the Arthakarta. In the same period, Gautam Gotri Indrabhuti, having four knowledge, composed twelve Anga and fourteen Purvarup texts in a sequence in a single Muhurta. Those Gautamswami also gave both types of Shrutgyan to Loharya. Loharya also gave it to Jambuswami. In the tradition order, all these three are said to be the holders of Sakalshruta and if the tradition order is not expected, then there were thousands of Sakalshrutas holders at that time. Gautamswami, Loharya and Jambuswami all three attained Nirvana. After this, Vishnu, Nandimitra, Aparajita, Govardhan and Bhadrabahu, these five Acharyas, became the holders of the fourteenth preceding the customary order. Then Visakhaacharya, Prosthil, Kshatriya, Jayacharya, Nagacharya, Siddhant, Sthavira, Dhritisen, Vijayacharya, Budhil and Gangdev these eleven great men are the eleven organs in the order of tradition,
After this, Nakshatraacharya, Jaipal, Panduswami, Dhruvasena, Kansacharya, all these five Acharyas became the holders of the entire eleven limbs and the fourteen Purva Ekadesh in the order of tradition.
Subsequently Subhadra, Yashobhadra, Yashobahu and Loharya, all these four Acharyas became the holders of the entire Acharanga and the rest of the Anga and the Ekadesh of the East. After this, Dharsen Acharya received the knowledge of all the parts and a country of the East coming from the Acharya tradition.
Saurashtra (Gujarat-Kathiawad) The Ashtanga Mahanimitta, who lives in the moon cave of the city named Girinagar in the country, will be dissected, and the organ Shruta will be severed, in this way the fear has arisen, Whom, such a Dharasenacharya will have great glory (five-year sadhu conference) Sent an article to the Acharyas of Dakshinapath (resident of the south country) who joined. Having understood well the words of Dharasenacharya written in the article, those Acharyas were able to accept and hold the meaning of the scriptures, having a variety of bright and pure humility, the holder of the garland of modesty, the food in the form of sending (sending) by the gurus. Satisfied with country, clan and caste, born in pure i.e. in the best clan and best caste, well versed in all arts and thrice have asked the Acharyas who sent two such sadhus from the banks of the Venandi flowing in the country of Andhra.
Maghnandi or Indranandi was the guru of Dharsen Acharya, however it is not clear in history.
Acharya Dharsen Sami (76BC - 1st Century)
Acharya Dharsen, Dharsenacharya
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