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#AcharyaGunabhadra4thCentury
प्रतिभामूति गुणभद्राचार्य संस्कृत भाषाके श्रेष्ठ कवि हैं। ये योग्य गुरुके योग्यतम शिष्य हैं। सरसता और सरलताक साथ प्रसादगुण भी इनकी रच नाओंमें समाहित है। गुणभद्रका समस्त जीवन साहित्य-साधनामें ही व्यतीत हुआ। ये उत्कृष्ट झानी और महान तपस्वी थे।
गुणभद्राचार्यका निवास स्थान दक्षिणं आरकट जिलेका 'तिरुम रुङ कुण्डम' नगर माना जाता है। इनके गृहस्थ जीवन के सम्बन्धमें सथ्य अज्ञात हैं ! इनके ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंसे स्पष्ट है कि ये सेनसंघके आचार्य थे। इनके गुरुका नाम आचार्य जिनसेन द्वितीय और दादा गुरुका नाम बीरसेन है। गुण मदने आचार्य दशरथको भी अपना गुरु लिखा है। सम्भवतः ये दशरथ इनके विद्यागुरु रहे होंगे।
१. हरिबंशपुराण, सर्ग ५५, पा ९२ ।
१. : सीकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
आचार्य जिनसेन प्रथम या द्वितीयके समान गुणभद्को भी साधना-भूमि कर्नाटक और महाराष्ट्रकी भमि रही है। इन्हीं प्रान्तोंमें रहकर इन्होंने अपने
अन्योंका प्रणयन किया है।
गुणभद्राचार्य जिनमेन द्वितीयके शिष्य थे तथा उनके अपूर्ण महापुराण आदिपुराण) को इन्होंने पूर्ण किया था। अतः इनका समय आचार्य जिनसेन द्वितीयके कुछ वर्ष बाद ही होना चाहिये। उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें ४२ पद्म हैं, जिनमें से आरम्भके २० पद्य गणभद्रद्वारा विचिन और अवशेष १५ पद्य उनके शिष्य लोकसन द्वारा विचित माने जाते हैं। गण भद्र स्वयं उत्तरपुराण के रचना कालके सम्बन्धमें मौन हैं, पर ३२वेंसे ३६वें पद्यतक बताया है कि राष्ट्रकूट अकालबपके सामन्त लोकादित्म बंकापुर राजधानी में रहकर ममस्त वनवास देशका शासन करते थे। उस समय शक संवत् ८२० में श्रावण कृष्णा पञ्चमी गुरुवार के दिन यह उत्तरपुराण पूर्ण हुआ और जनताने इसको पुजा की । अत: गुणभद्रका समय शक संवत् ८२०, ई० यन् ८९.८ अर्थात् ई० मन्
की नवम शतीका अन्तिम चराग सिद्ध होता है।
(१) आदिपुराण--गुण भद्राचार्य ने अपने गुरु जिनसन द्वितीय द्वारा अधुर छोड़े आदियुगणक ८३ वें धर्बक चौथे पद्यस समाप्ति पर्यन्त कुल १६२० पद्य लिखे हैं।
(२) उत्तरपुराण--यह महापुराणका उत्तर भाग है।
(३) आत्मानुशासन ।
(४) जिनदत्तरित-काश्य ।
अजितनाथ तीर्थंकरसे लेकर महाबीर पर्यन्त २३ तीर्थकर, ग्यारह चक्रवर्ती, नौ नारायण, ना बलभद्र, ना प्रतिनारायण और जोबन्धर स्वामी आदि कुछ विशिष्ट पुरुषोंके चरित इसमें दिये गये हैं । कथावस्तु पर्याप्त बिस्तृत है। आचार्यने जहाँ-तहाँ कथानकोंको नये रूपमें भी उपस्थित किया है | रामकथा पद्मपुराणको अपेक्षा भिन्न है। इस कथामें बताया है कि राजा दशरथ काशी देशमें वाराणसीके राजा थे। रामकी माताका नाम सुबाला और लक्ष्मणकी माताका नाम कैकेयी था । भरत, शत्रुघ्न किसके गर्भमें आये थे, यह स्पष्ट नहीं है। सौता मन्दोदरीके गर्भसे उत्पन्न हुई थी । परन्तु भविष्य बक्ताओंके यह कहनेसे कि वह नाशकारिणी है, रावणने उसे मंजूषामें रखवा कर मरीचिके द्वारा मिथिलामें भेजकर पृथ्वीमें गड़वा दिया। संयोगसे हल
को नोकमें उलझ जानेसे बह मजूषा राजा जनकको मिल गयी और उन्होंने उससे प्राप्त सीताको अपनी पुत्रीके रूपमें स्वीकार किया। इसके पश्चात् जब वह विवाहके योग्य हुई, तन्त्र जनकको चिन्ता हुई। उन्होंने एक बंदिक यज्ञ किया और उसकी रक्षाके लिये गम-लक्ष्मणको आग्रहपूर्वक बुलवाया। गमके माथ सोताका विवाह हो गया। यमक समम गवणको आमन्त्रण नहीं भेजा गया, इसस बह अत्यन्त नद्ध हो गया और इसके बाद जब नारदके द्वारा उसने सीताले हपकी अतिशय प्रशंसा सुनी, नव उमका हरण करने के लिये मांचने लगा।
यांक हट करने, रामको बनबास दमे आदिकी इस कथामें कोई चर्चा नहीं है । पंचवटी, दण्डकवन, जटायु, मूर्पणखा, लरदूषण आदिकं प्रसगोंका भी अभाव है। बनारसके पास ही चित्रकट नामक वनसे गवण मीताका हरण करता है और सीताक उद्धार हेतु लंकामें सम-रावण शुद्ध होता है। गवणको मारकर राम दिग्विजय करते हा लौटते हैं और दोनों भाई बनारस में राज्य करने लगते हैं। मीत्ताके अपबादका और उसके कारण उस निर्वासित कग्नका भी जिक्र नहीं है। लक्ष्मण एक अमाध्य रोग में ग्रसित होकर मत्यु प्राप्त करते हैं। इसमें गमको उद्बग होता है। वे लक्ष्मण के पुत्र पृथ्वीसुन्दर को गजपदपर और सीताके पुत्र अजितजयको अवगज पदपर अभिषिक्त कारक अनेक राजा र सीता आदि शानियों के साथ जिनदीक्षा ले लेते हैं। यह कथा प्रचलित गमकथासे बिल्कुल भिन्न है। कविको यह किस पर परासे प्राप्त हुई, यह नहीं कहा जा सकता है। दशरथजातकसे कुछ कथा सूत्र साम्य रखते है।
अन्य कथाओंमे बल राम और श्रीकृष्णकी कथा हरिवंशपुराणको कथास भिन्न है । इसी प्रकार पचहत्तरनें पर्वमें जीबन्धरस्वामीका चरित निबद्ध किया गया है । इस चरितमं भी वादोभसिंह द्वारा लिखित गद्यचिन्तार्माण और छत्र बडामणिके कथानकमें पर्याप्त अन्तर है। इन सभी कया-मुत्रोंक देन्बनेसे यह ज्ञात होता है कि गुणभद्राचार्यने किसी अन्य परम्परास कथानकोंको ग्रहण किया है।
कथानकोंकी शैलो रोचक और प्रवाहपूर्ण है। ८ ३, १६ वें, २२ में, २३ व और २४ व तोयंकरको छोड़कर अन्य तीर्थकरोंके चरित्र अत्यन्त संक्षेपमें लिखे गये हैं, पर वर्णन-शैलोको मधुरताके कारण यह संक्षेप भी रुचिकर हो गया है। कथानकोंके साथ रत्नत्रय, द्रव्य, गुण, कर्म, सृष्टि एवं सृष्टिकर्तृत्व आदि विषयोंका भी विवेचन किया गया है ।
उत्तरपुराणका रचनास्थल बकापुर हैं। यह स्थान पूना-बैंगलोर रेलवं लाइनमें हरिहर स्टेशन के समीपवर्ती हानेर रेलने स्टेशनसे पन्द्रह मीलपर धारवाड़ जिले में है। उत्तरपुराणके समाप्तिकालमें बंकापुरमें जन बोर वकयका सुयोग्य पुत्र लोकादित्य कृष्णराज द्वितीयके सामन्तक रूपमें राज्य करता था । बंकापुर को स्थापना लोकादित्यने अपने बीर पिता बंकेय नामपर की थी। यकी धर्मपत्नी विजया बड़ी विदुषी थी। इसने संस्कृत में एक काव्य रचा है, जो भीमगवने कर्नाटकगत वैभव नामक अपनी रचनाम उदाहरण के रूप में उद्धृत किया है । गमभद्रके अनुसार होकादित्य स्वतन्त्र सामन्त था और इसने बका पूरम जैन मन्दिगेकी सुन्दर व्यवस्था की थी। निश्चयत: उन दिनाम बंकापुर में अनेक जनाचार्य निवास करते थे । यही कारण है कि गङ्गनरेश मामिहने यहाँ आकर सल्लेखना ब्रत ग्रहण किया था । इमी बंकापुरमें मुणभद्र ने अपने उत्तर पुगणकी रचना की है।
इस महत्वपूर्ण धर्म एवं नीति-अन्य २६६, पद्म ई । आत्माके यथार्थ स्वरूप की शिक्षा दनक लिाग इमका प्रणयन किया गया है। इसपर प्रभाचन्द्राचार्यने संस्कन-टीका और पण्डित टोडरमल ने हिन्दी-टीका लिखी है । ग्रन्के अन्तिम पद्यम आचार्यने स्वय म्पाट कर दिया है कि व जिनसेनाचार्य द्वितीयक शिश्य है।
उत्थानिकाके अनन्तर सुभाषितरूपमें सुख-दुःखविधक, सम्यग्दर्शन, देवकी प्रबलता, मत्माधु-प्रशंसा, मृत्युको अनिवार्यता, तपाराधना, ज्ञानागधना, स्त्री निन्दा, समीचीन गुरु, साधुओंको असाधुता, मनोनिग्रह, कषायविजय, यथार्थ तपस्वी, प्रति विषयोंपर पन्य-रचना प्रस्तुत की गयी है। इस ग्रन्यको शैली भतृहरिके 'शतकत्रय के समान है। कबिने इस सूक्ति-काव्य में अन्योक्तियोंका आधार ग्रहण कर विषयको सरस बनाया है
हे चन्द्रमः किाित लाञ्छनवानभूस्त्वं तहान भवः किमिति तन्मय एव नाभूः ।
कि ज्योत्स्नया मलमल तब घोषयन्त्या स्वर्भानुबन्ननु तथा ति नासि लक्ष्यः ।।
हे चन्द्रमा ! तु मलिनसारूप दोषसे सहित क्यों हुआ? यदि तुझे मलिन हो होना था, तो पूर्णरूपस उस मलिन स्वरूपको क्यों नहीं प्राप्त हुआ ?
तेरी उम मलिनताके अतिशयको प्रकट करनेवाली चाँदनीसे क्या लाभ ? यदि तू सर्वथा मलिन हुआ होता,
तो वैसी अवस्थामें राहुके समान सदोष तो दिखलाई पड़ता।
१. आत्मानुशासन, जन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, पद्य १४० ।
इस पद्यमें चन्द्रमाको लक्ष्य बनाकर ऐसे साधुको निन्दा की गयी है, जो साधुवष में रहकर साधुल्यको मलिन करता है। यदि बत संयमादिसे युक्त दम्भी साधु न होता, तो किसीका ध्यान ही उस ओर न जाता ।
सत्यं वदात्र यदि जन्मनि बन्धुकृत्यमाप्तं त्वया किर्माप बन्धुजनाद्धितार्थम् ।
एतावदेव परमस्ति मृतस्य पश्चात् संभूय कायमहितं तब भस्मयन्ति ||
हे प्राण ! यदि तूने संसारमें भाई-बन्धु आदि कुटुम्बी जनोंसे कुछ भी हितकर बन्धुत्वका कार्य प्राप्त किया है, तो उसे सत्य बत्तला । उनका इतना ही कार्य है कि मर जानेके पश्चात् वे एकत्र होकर तेरे अहितकारक शरीरको जला देते है।
इस पद्य में अन्योक्ति द्वारा यह बतलाया गया है कि बन्धुजन राग-द्वपके कारण ही बनते हैं। अतएव बन्धुजनोंमें अनुरक्त रहकर आत्म-कल्याणसे बञ्चित रहना उचित नहीं। सुख-दुःखविवेकके अन्तर्गत बताया गया है कि साताक्दनीय कर्मके उदयमे प्राणोको कुछ कालके लिये जो सुखका अनुभव होता है, वह यथार्थ सुस्व नहीं है, किन्तु सुखका आभास है। इन्द्रियजन्य विषयसुख विद्म के प्रकाशके समान विनश्वर है। विषय-तृष्णाके कारण हो प्राणी संतप्त रहता है और इस संताप को दूर करने के लिये विषयोंकी ओर अनुधावित होता है । अतएव इन्द्रि जन्य विषयसुख दुःख ही है। अतः परद्रव्योंकी अपेक्षा रहनेके कारण पराधीन, अनेक प्रकारकी बाधाओंसे सहित, प्रतिपक्षमत, असालावेदनीय आदिके उदयसे संयुक्त, अत्तएव विनश्वर है ! संसारके प्राणी दुःखसे डरते हैं और सुख चाहते है, पर अविनश्वर सुखका कार्य नहीं करते । यथा--
दुःखादिभेषि नितरामभिवाञ्छसि सुखमतो हमप्यात्मन् ।
दुःखापहारि मुखकरमनुशास्मि तवानुमतमेव ।।'
ससारमें सुखका कारण सम्यग्दर्शन है, अपने स्वरूपको पहचानना है। जो आत्मानुर्भात कर लेता है उसीको समता और शान्तिको प्राप्ति होती है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप इन चारों आराधनाओंका सबन करनेसे जन्म, जरा और मरण रोगका विनाश होता है। श्रद्धागुण जब तक स्वानुभूलिसे संयुक्त नहीं होता, तबतक सम्यक्त्वरूप परिणमन नहीं होता। स्वानुभूतिके बिना जो श्रुतमात्रके आलम्बनसे श्रद्धा होती है, वह
१. आत्मानुशासन, जैन संस्कृति संरक्षक संच, शोलापुर, पलोक १३ । २. वही, पंद्य २ ।
तत्त्वार्थ से सम्बद्ध होनेपर भी यथार्थ श्रद्धा नहीं है, क्योंकि वहाँ तत्त्वार्थको उपलब्धि नहीं है । जिस प्रकार बीज के बिना वृक्ष न उत्पन्न होता है, न अव स्थित रहता है, न बढ़ता है और न फलोंको उत्पन्न कर सकता है, उसी प्रकार मम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान और चारित्र भी यथार्थ स्वरूपमें न उत्पन्न हो सकते है, न अबस्थित रह सकते हैं और न मानका काकी प्राप्नि ही हो मगनी है। अतएब चारों आराधनाआम सम्यग्दर्शनकी आराधना प्रधान है।
देवकी प्रबलताका विश्लेषण करते हग इन्द्र और ऋषभदेव तीर्थकरका उदाहरण दिया गया है | बताया है कि इन्द्रका बृहस्पति मन्त्री है, शस्त्र बघ्र है, मंनिक दव हैं, ऐरावत हाथीं बाहन है और माक्षात् विष्णुका अनुग्रह भी है, तो भी इन्द्र शत्रुओं द्वारा पाजिल होता है, यह अहष्टकी ही क्रीड़ा है । यदि पूर्वापाजित पुण्य शम्प है, नो प्राणों के लिये आयु. बन-सम्पत्ति एवं शरीगदि सभी अनुकूल सामग्री प्राप्त हो जाती है। और यदि पुण्य शेष नहीं है, तो प्राणी उसकी प्राप्ति के लिये कितना भी पश्चिम क्यों न करें, उसे कुछ भी प्राप्त
होला ! या
नेता यत्र बृहस्पनि प्रहरणं बच्न मुग: सैनिका
म्वर्गा दुर्गमनुग्रहः बल होगवणो वारण ।
इत्याश्चर्यबलान्वितो पि बाभद्भग्न: पर: सङ्गरे
तव्यक्तं ननु देवमंब भरणं घिग्धिम्वृथा पौरुपम् ॥
दुष्ट देवकी प्रबलता बतलाते हुए ग्रन्धकारने आदि तीर्थकारका उदाहरण प्रस्तुत किया है और बतलाया है कि जिन ऋपजिनेन्द्रने समस्त साम्राज्यको तृणके समान तुच्छ समझ कर छोड़ दिया था और तपस्याको स्वीकार किया था । वे ही भगवान क्षुधित होकर दीन की तरह दुमरोंके धरोपर घूमे, पर उन्ह भोजनप्राप्त नहीं हुआ, जब आदिदेव गर्भम आये थे, तब उसके छह महीने पूर्वस ही इन्द्र हाथ जोड़कर दाम के समान सेवामें संलग्न रहा। इधर इनका पुत्र भरत चक्रवर्ती चौदह रत्न और नौ निधियोंका स्वामी था । युगके आदिमें स्वयं सष्टिके स्रष्टा थे, फिर भी उन्हें क्षुधाके बामें होकर छह महीने तक पृथ्वी पर घूमना पड़ा । यह उस देवकी प्रबलता नहीं तो और क्या है
समस्त साम्राज्यं तमिव परित्यज्य भगवान
तपस्यम् निर्माण: क्षुधित इव दीन: परगृहान् ।
१. आत्मानुशासन, अन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, श्लोक ३२ ।
किलादिक्षार्थी स्वयमलभमानोऽपि मुचि
न मोठ्यं किं वा परमिह परैः कार्यवशमः ।।
मरण-मम्बन्धी पद्यॉमें जन्म और मरणका अबिनाभाव मम्बन्ध बनाते हा मत्युको अनिवार्यता सिद्ध की गयो है। यौनिन्दा-प्रसंगमें प्रकागन्नर स विषय वामनाकी ही निन्दा की गयी है। जो नारी विगय वामनाको जागन करती है, आध्यात्मिक इष्टिमे बह त्याज्य है। ममीचीन गुमका स्वरूप बतलाते हा मंयम, त्याग और नगम्याका महन्त्र बनलाया है। मंयम गज्य के संरक्षणार्थ जिम प्रकार वाद्य शत्रुओंका जीतना आवश्यक है, उमी प्रकार अन्तरंग माओंका भी। मन बन्दक समान चपल है, अतएव उसे आत्म नियन्त्रण में रखनेके लिये श्रुतम्प वृक्षों कार विचरण कगना चाहिये । मन को वामें करनेका कमात्र साधन नमज्ञान है। उम्मी प्रकार कंपायविजय. मंमारकी अनित्यता, ज्ञानागधना, तपागधना, चारित्रागधना आदिका विद पण किया है। गुणभद्राचायने अनुमाम अलंकारका भी मुन्दर नियोजन किया है। अन्य अलंकागेम उपमा । प ८? अतिशयोकिम् । पन अ५) पक ( पद्म 561. अपहनि ( पत्र ८६), अप्रस्तुतप्रशंमा ( प , लेग ( पद्य १०६.! बिभावना { पय १७६, आदि अलंकागेका योजन पाया जाना है। अनुप्राम
की छटा दर्शनीय है
प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः प्रत्यक्तलोकस्थितिः
प्रास्ताशः प्रतिभापर: प्रगमवान प्रागेव दृष्टोत्तरः ।
प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिन्दया
व यादमकथा मणी गणनिधिः प्रम्पटमाटाक्षरः ।।
गुरु | आचार्य श्री जिनसेन स्वामी द्वितीय |
शिष्य | आचार्य श्री गुणभद्राचार्य |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Gunabhadra (fl. fourth century CE) was a Digambara monk in India. He co-authored Mahapurana along with Jinasena.
आचार्य जिनसेन द्वितीय के शिष्य ई. ८७०-९१० उत्तरपुरंज आदि के करता इस नाम के और भी कुछ आचार्य हुए ।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#AcharyaGunabhadra4thCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री १०८ गुणभद्र- ४ थी सदि
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 05 एप्रिल 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Sanjul Jain created wiki page on 06-April-2021
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 05 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
प्रतिभामूति गुणभद्राचार्य संस्कृत भाषाके श्रेष्ठ कवि हैं। ये योग्य गुरुके योग्यतम शिष्य हैं। सरसता और सरलताक साथ प्रसादगुण भी इनकी रच नाओंमें समाहित है। गुणभद्रका समस्त जीवन साहित्य-साधनामें ही व्यतीत हुआ। ये उत्कृष्ट झानी और महान तपस्वी थे।
गुणभद्राचार्यका निवास स्थान दक्षिणं आरकट जिलेका 'तिरुम रुङ कुण्डम' नगर माना जाता है। इनके गृहस्थ जीवन के सम्बन्धमें सथ्य अज्ञात हैं ! इनके ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंसे स्पष्ट है कि ये सेनसंघके आचार्य थे। इनके गुरुका नाम आचार्य जिनसेन द्वितीय और दादा गुरुका नाम बीरसेन है। गुण मदने आचार्य दशरथको भी अपना गुरु लिखा है। सम्भवतः ये दशरथ इनके विद्यागुरु रहे होंगे।
१. हरिबंशपुराण, सर्ग ५५, पा ९२ ।
१. : सीकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
आचार्य जिनसेन प्रथम या द्वितीयके समान गुणभद्को भी साधना-भूमि कर्नाटक और महाराष्ट्रकी भमि रही है। इन्हीं प्रान्तोंमें रहकर इन्होंने अपने
अन्योंका प्रणयन किया है।
गुणभद्राचार्य जिनमेन द्वितीयके शिष्य थे तथा उनके अपूर्ण महापुराण आदिपुराण) को इन्होंने पूर्ण किया था। अतः इनका समय आचार्य जिनसेन द्वितीयके कुछ वर्ष बाद ही होना चाहिये। उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें ४२ पद्म हैं, जिनमें से आरम्भके २० पद्य गणभद्रद्वारा विचिन और अवशेष १५ पद्य उनके शिष्य लोकसन द्वारा विचित माने जाते हैं। गण भद्र स्वयं उत्तरपुराण के रचना कालके सम्बन्धमें मौन हैं, पर ३२वेंसे ३६वें पद्यतक बताया है कि राष्ट्रकूट अकालबपके सामन्त लोकादित्म बंकापुर राजधानी में रहकर ममस्त वनवास देशका शासन करते थे। उस समय शक संवत् ८२० में श्रावण कृष्णा पञ्चमी गुरुवार के दिन यह उत्तरपुराण पूर्ण हुआ और जनताने इसको पुजा की । अत: गुणभद्रका समय शक संवत् ८२०, ई० यन् ८९.८ अर्थात् ई० मन्
की नवम शतीका अन्तिम चराग सिद्ध होता है।
(१) आदिपुराण--गुण भद्राचार्य ने अपने गुरु जिनसन द्वितीय द्वारा अधुर छोड़े आदियुगणक ८३ वें धर्बक चौथे पद्यस समाप्ति पर्यन्त कुल १६२० पद्य लिखे हैं।
(२) उत्तरपुराण--यह महापुराणका उत्तर भाग है।
(३) आत्मानुशासन ।
(४) जिनदत्तरित-काश्य ।
अजितनाथ तीर्थंकरसे लेकर महाबीर पर्यन्त २३ तीर्थकर, ग्यारह चक्रवर्ती, नौ नारायण, ना बलभद्र, ना प्रतिनारायण और जोबन्धर स्वामी आदि कुछ विशिष्ट पुरुषोंके चरित इसमें दिये गये हैं । कथावस्तु पर्याप्त बिस्तृत है। आचार्यने जहाँ-तहाँ कथानकोंको नये रूपमें भी उपस्थित किया है | रामकथा पद्मपुराणको अपेक्षा भिन्न है। इस कथामें बताया है कि राजा दशरथ काशी देशमें वाराणसीके राजा थे। रामकी माताका नाम सुबाला और लक्ष्मणकी माताका नाम कैकेयी था । भरत, शत्रुघ्न किसके गर्भमें आये थे, यह स्पष्ट नहीं है। सौता मन्दोदरीके गर्भसे उत्पन्न हुई थी । परन्तु भविष्य बक्ताओंके यह कहनेसे कि वह नाशकारिणी है, रावणने उसे मंजूषामें रखवा कर मरीचिके द्वारा मिथिलामें भेजकर पृथ्वीमें गड़वा दिया। संयोगसे हल
को नोकमें उलझ जानेसे बह मजूषा राजा जनकको मिल गयी और उन्होंने उससे प्राप्त सीताको अपनी पुत्रीके रूपमें स्वीकार किया। इसके पश्चात् जब वह विवाहके योग्य हुई, तन्त्र जनकको चिन्ता हुई। उन्होंने एक बंदिक यज्ञ किया और उसकी रक्षाके लिये गम-लक्ष्मणको आग्रहपूर्वक बुलवाया। गमके माथ सोताका विवाह हो गया। यमक समम गवणको आमन्त्रण नहीं भेजा गया, इसस बह अत्यन्त नद्ध हो गया और इसके बाद जब नारदके द्वारा उसने सीताले हपकी अतिशय प्रशंसा सुनी, नव उमका हरण करने के लिये मांचने लगा।
यांक हट करने, रामको बनबास दमे आदिकी इस कथामें कोई चर्चा नहीं है । पंचवटी, दण्डकवन, जटायु, मूर्पणखा, लरदूषण आदिकं प्रसगोंका भी अभाव है। बनारसके पास ही चित्रकट नामक वनसे गवण मीताका हरण करता है और सीताक उद्धार हेतु लंकामें सम-रावण शुद्ध होता है। गवणको मारकर राम दिग्विजय करते हा लौटते हैं और दोनों भाई बनारस में राज्य करने लगते हैं। मीत्ताके अपबादका और उसके कारण उस निर्वासित कग्नका भी जिक्र नहीं है। लक्ष्मण एक अमाध्य रोग में ग्रसित होकर मत्यु प्राप्त करते हैं। इसमें गमको उद्बग होता है। वे लक्ष्मण के पुत्र पृथ्वीसुन्दर को गजपदपर और सीताके पुत्र अजितजयको अवगज पदपर अभिषिक्त कारक अनेक राजा र सीता आदि शानियों के साथ जिनदीक्षा ले लेते हैं। यह कथा प्रचलित गमकथासे बिल्कुल भिन्न है। कविको यह किस पर परासे प्राप्त हुई, यह नहीं कहा जा सकता है। दशरथजातकसे कुछ कथा सूत्र साम्य रखते है।
अन्य कथाओंमे बल राम और श्रीकृष्णकी कथा हरिवंशपुराणको कथास भिन्न है । इसी प्रकार पचहत्तरनें पर्वमें जीबन्धरस्वामीका चरित निबद्ध किया गया है । इस चरितमं भी वादोभसिंह द्वारा लिखित गद्यचिन्तार्माण और छत्र बडामणिके कथानकमें पर्याप्त अन्तर है। इन सभी कया-मुत्रोंक देन्बनेसे यह ज्ञात होता है कि गुणभद्राचार्यने किसी अन्य परम्परास कथानकोंको ग्रहण किया है।
कथानकोंकी शैलो रोचक और प्रवाहपूर्ण है। ८ ३, १६ वें, २२ में, २३ व और २४ व तोयंकरको छोड़कर अन्य तीर्थकरोंके चरित्र अत्यन्त संक्षेपमें लिखे गये हैं, पर वर्णन-शैलोको मधुरताके कारण यह संक्षेप भी रुचिकर हो गया है। कथानकोंके साथ रत्नत्रय, द्रव्य, गुण, कर्म, सृष्टि एवं सृष्टिकर्तृत्व आदि विषयोंका भी विवेचन किया गया है ।
उत्तरपुराणका रचनास्थल बकापुर हैं। यह स्थान पूना-बैंगलोर रेलवं लाइनमें हरिहर स्टेशन के समीपवर्ती हानेर रेलने स्टेशनसे पन्द्रह मीलपर धारवाड़ जिले में है। उत्तरपुराणके समाप्तिकालमें बंकापुरमें जन बोर वकयका सुयोग्य पुत्र लोकादित्य कृष्णराज द्वितीयके सामन्तक रूपमें राज्य करता था । बंकापुर को स्थापना लोकादित्यने अपने बीर पिता बंकेय नामपर की थी। यकी धर्मपत्नी विजया बड़ी विदुषी थी। इसने संस्कृत में एक काव्य रचा है, जो भीमगवने कर्नाटकगत वैभव नामक अपनी रचनाम उदाहरण के रूप में उद्धृत किया है । गमभद्रके अनुसार होकादित्य स्वतन्त्र सामन्त था और इसने बका पूरम जैन मन्दिगेकी सुन्दर व्यवस्था की थी। निश्चयत: उन दिनाम बंकापुर में अनेक जनाचार्य निवास करते थे । यही कारण है कि गङ्गनरेश मामिहने यहाँ आकर सल्लेखना ब्रत ग्रहण किया था । इमी बंकापुरमें मुणभद्र ने अपने उत्तर पुगणकी रचना की है।
इस महत्वपूर्ण धर्म एवं नीति-अन्य २६६, पद्म ई । आत्माके यथार्थ स्वरूप की शिक्षा दनक लिाग इमका प्रणयन किया गया है। इसपर प्रभाचन्द्राचार्यने संस्कन-टीका और पण्डित टोडरमल ने हिन्दी-टीका लिखी है । ग्रन्के अन्तिम पद्यम आचार्यने स्वय म्पाट कर दिया है कि व जिनसेनाचार्य द्वितीयक शिश्य है।
उत्थानिकाके अनन्तर सुभाषितरूपमें सुख-दुःखविधक, सम्यग्दर्शन, देवकी प्रबलता, मत्माधु-प्रशंसा, मृत्युको अनिवार्यता, तपाराधना, ज्ञानागधना, स्त्री निन्दा, समीचीन गुरु, साधुओंको असाधुता, मनोनिग्रह, कषायविजय, यथार्थ तपस्वी, प्रति विषयोंपर पन्य-रचना प्रस्तुत की गयी है। इस ग्रन्यको शैली भतृहरिके 'शतकत्रय के समान है। कबिने इस सूक्ति-काव्य में अन्योक्तियोंका आधार ग्रहण कर विषयको सरस बनाया है
हे चन्द्रमः किाित लाञ्छनवानभूस्त्वं तहान भवः किमिति तन्मय एव नाभूः ।
कि ज्योत्स्नया मलमल तब घोषयन्त्या स्वर्भानुबन्ननु तथा ति नासि लक्ष्यः ।।
हे चन्द्रमा ! तु मलिनसारूप दोषसे सहित क्यों हुआ? यदि तुझे मलिन हो होना था, तो पूर्णरूपस उस मलिन स्वरूपको क्यों नहीं प्राप्त हुआ ?
तेरी उम मलिनताके अतिशयको प्रकट करनेवाली चाँदनीसे क्या लाभ ? यदि तू सर्वथा मलिन हुआ होता,
तो वैसी अवस्थामें राहुके समान सदोष तो दिखलाई पड़ता।
१. आत्मानुशासन, जन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, पद्य १४० ।
इस पद्यमें चन्द्रमाको लक्ष्य बनाकर ऐसे साधुको निन्दा की गयी है, जो साधुवष में रहकर साधुल्यको मलिन करता है। यदि बत संयमादिसे युक्त दम्भी साधु न होता, तो किसीका ध्यान ही उस ओर न जाता ।
सत्यं वदात्र यदि जन्मनि बन्धुकृत्यमाप्तं त्वया किर्माप बन्धुजनाद्धितार्थम् ।
एतावदेव परमस्ति मृतस्य पश्चात् संभूय कायमहितं तब भस्मयन्ति ||
हे प्राण ! यदि तूने संसारमें भाई-बन्धु आदि कुटुम्बी जनोंसे कुछ भी हितकर बन्धुत्वका कार्य प्राप्त किया है, तो उसे सत्य बत्तला । उनका इतना ही कार्य है कि मर जानेके पश्चात् वे एकत्र होकर तेरे अहितकारक शरीरको जला देते है।
इस पद्य में अन्योक्ति द्वारा यह बतलाया गया है कि बन्धुजन राग-द्वपके कारण ही बनते हैं। अतएव बन्धुजनोंमें अनुरक्त रहकर आत्म-कल्याणसे बञ्चित रहना उचित नहीं। सुख-दुःखविवेकके अन्तर्गत बताया गया है कि साताक्दनीय कर्मके उदयमे प्राणोको कुछ कालके लिये जो सुखका अनुभव होता है, वह यथार्थ सुस्व नहीं है, किन्तु सुखका आभास है। इन्द्रियजन्य विषयसुख विद्म के प्रकाशके समान विनश्वर है। विषय-तृष्णाके कारण हो प्राणी संतप्त रहता है और इस संताप को दूर करने के लिये विषयोंकी ओर अनुधावित होता है । अतएव इन्द्रि जन्य विषयसुख दुःख ही है। अतः परद्रव्योंकी अपेक्षा रहनेके कारण पराधीन, अनेक प्रकारकी बाधाओंसे सहित, प्रतिपक्षमत, असालावेदनीय आदिके उदयसे संयुक्त, अत्तएव विनश्वर है ! संसारके प्राणी दुःखसे डरते हैं और सुख चाहते है, पर अविनश्वर सुखका कार्य नहीं करते । यथा--
दुःखादिभेषि नितरामभिवाञ्छसि सुखमतो हमप्यात्मन् ।
दुःखापहारि मुखकरमनुशास्मि तवानुमतमेव ।।'
ससारमें सुखका कारण सम्यग्दर्शन है, अपने स्वरूपको पहचानना है। जो आत्मानुर्भात कर लेता है उसीको समता और शान्तिको प्राप्ति होती है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप इन चारों आराधनाओंका सबन करनेसे जन्म, जरा और मरण रोगका विनाश होता है। श्रद्धागुण जब तक स्वानुभूलिसे संयुक्त नहीं होता, तबतक सम्यक्त्वरूप परिणमन नहीं होता। स्वानुभूतिके बिना जो श्रुतमात्रके आलम्बनसे श्रद्धा होती है, वह
१. आत्मानुशासन, जैन संस्कृति संरक्षक संच, शोलापुर, पलोक १३ । २. वही, पंद्य २ ।
तत्त्वार्थ से सम्बद्ध होनेपर भी यथार्थ श्रद्धा नहीं है, क्योंकि वहाँ तत्त्वार्थको उपलब्धि नहीं है । जिस प्रकार बीज के बिना वृक्ष न उत्पन्न होता है, न अव स्थित रहता है, न बढ़ता है और न फलोंको उत्पन्न कर सकता है, उसी प्रकार मम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान और चारित्र भी यथार्थ स्वरूपमें न उत्पन्न हो सकते है, न अबस्थित रह सकते हैं और न मानका काकी प्राप्नि ही हो मगनी है। अतएब चारों आराधनाआम सम्यग्दर्शनकी आराधना प्रधान है।
देवकी प्रबलताका विश्लेषण करते हग इन्द्र और ऋषभदेव तीर्थकरका उदाहरण दिया गया है | बताया है कि इन्द्रका बृहस्पति मन्त्री है, शस्त्र बघ्र है, मंनिक दव हैं, ऐरावत हाथीं बाहन है और माक्षात् विष्णुका अनुग्रह भी है, तो भी इन्द्र शत्रुओं द्वारा पाजिल होता है, यह अहष्टकी ही क्रीड़ा है । यदि पूर्वापाजित पुण्य शम्प है, नो प्राणों के लिये आयु. बन-सम्पत्ति एवं शरीगदि सभी अनुकूल सामग्री प्राप्त हो जाती है। और यदि पुण्य शेष नहीं है, तो प्राणी उसकी प्राप्ति के लिये कितना भी पश्चिम क्यों न करें, उसे कुछ भी प्राप्त
होला ! या
नेता यत्र बृहस्पनि प्रहरणं बच्न मुग: सैनिका
म्वर्गा दुर्गमनुग्रहः बल होगवणो वारण ।
इत्याश्चर्यबलान्वितो पि बाभद्भग्न: पर: सङ्गरे
तव्यक्तं ननु देवमंब भरणं घिग्धिम्वृथा पौरुपम् ॥
दुष्ट देवकी प्रबलता बतलाते हुए ग्रन्धकारने आदि तीर्थकारका उदाहरण प्रस्तुत किया है और बतलाया है कि जिन ऋपजिनेन्द्रने समस्त साम्राज्यको तृणके समान तुच्छ समझ कर छोड़ दिया था और तपस्याको स्वीकार किया था । वे ही भगवान क्षुधित होकर दीन की तरह दुमरोंके धरोपर घूमे, पर उन्ह भोजनप्राप्त नहीं हुआ, जब आदिदेव गर्भम आये थे, तब उसके छह महीने पूर्वस ही इन्द्र हाथ जोड़कर दाम के समान सेवामें संलग्न रहा। इधर इनका पुत्र भरत चक्रवर्ती चौदह रत्न और नौ निधियोंका स्वामी था । युगके आदिमें स्वयं सष्टिके स्रष्टा थे, फिर भी उन्हें क्षुधाके बामें होकर छह महीने तक पृथ्वी पर घूमना पड़ा । यह उस देवकी प्रबलता नहीं तो और क्या है
समस्त साम्राज्यं तमिव परित्यज्य भगवान
तपस्यम् निर्माण: क्षुधित इव दीन: परगृहान् ।
१. आत्मानुशासन, अन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, श्लोक ३२ ।
किलादिक्षार्थी स्वयमलभमानोऽपि मुचि
न मोठ्यं किं वा परमिह परैः कार्यवशमः ।।
मरण-मम्बन्धी पद्यॉमें जन्म और मरणका अबिनाभाव मम्बन्ध बनाते हा मत्युको अनिवार्यता सिद्ध की गयो है। यौनिन्दा-प्रसंगमें प्रकागन्नर स विषय वामनाकी ही निन्दा की गयी है। जो नारी विगय वामनाको जागन करती है, आध्यात्मिक इष्टिमे बह त्याज्य है। ममीचीन गुमका स्वरूप बतलाते हा मंयम, त्याग और नगम्याका महन्त्र बनलाया है। मंयम गज्य के संरक्षणार्थ जिम प्रकार वाद्य शत्रुओंका जीतना आवश्यक है, उमी प्रकार अन्तरंग माओंका भी। मन बन्दक समान चपल है, अतएव उसे आत्म नियन्त्रण में रखनेके लिये श्रुतम्प वृक्षों कार विचरण कगना चाहिये । मन को वामें करनेका कमात्र साधन नमज्ञान है। उम्मी प्रकार कंपायविजय. मंमारकी अनित्यता, ज्ञानागधना, तपागधना, चारित्रागधना आदिका विद पण किया है। गुणभद्राचायने अनुमाम अलंकारका भी मुन्दर नियोजन किया है। अन्य अलंकागेम उपमा । प ८? अतिशयोकिम् । पन अ५) पक ( पद्म 561. अपहनि ( पत्र ८६), अप्रस्तुतप्रशंमा ( प , लेग ( पद्य १०६.! बिभावना { पय १७६, आदि अलंकागेका योजन पाया जाना है। अनुप्राम
की छटा दर्शनीय है
प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः प्रत्यक्तलोकस्थितिः
प्रास्ताशः प्रतिभापर: प्रगमवान प्रागेव दृष्टोत्तरः ।
प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिन्दया
व यादमकथा मणी गणनिधिः प्रम्पटमाटाक्षरः ।।
गुरु | आचार्य श्री जिनसेन स्वामी द्वितीय |
शिष्य | आचार्य श्री गुणभद्राचार्य |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Gunabhadra (fl. fourth century CE) was a Digambara monk in India. He co-authored Mahapurana along with Jinasena.
Acharya Gunabhadra 4th Century
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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