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#GyanSagarJiMaharaj1957SumatisagarJi
Acharya GyanSagarji was born was born on 1 May 1957, at 6:00 to parents Shri Shanti Lal Ji, Ashrafi Devi ji, in the rugged district - headquarters Morena (Madhya Pradesh) of Chambal. His name before diksha was 'Umesh' and from childhood only he has deep interest and inclination towards Jainism.
ये संत कोई ओर नहीं इस युग के श्रेष्ठ आचार्यो में से एक है। जिनमें भगवान महावीर का प्रतिबिम्ब झलकता है । जिनका वर्णन शब्दों में कर पाना बेहद कठिन ही नही, नामुमकिन है । जिनके व्यक्तित्व को कवि की कविता, चित्रकार के चित्र ,वक्ता के शब्द ,लेखक की कलम भी व्यक्त नहीं कर सकती । जिनका व्यक्तित्व हिमालय से ऊँचा है और सागर से भी गहरा है ऐसे विराट ह्रदय में समाने वाले आचार्य श्री 108 ज्ञानसागर जी महाराज का जीवन परिचय देना सूरज को दीपक दिखाने के समान है फिर भी हम अज्ञानीजन आचार्य श्री की गौरव गाथा को संक्षेप में प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे है ।आइए जानते हैं विराट व्यक्तित्व की कुछ विशेषताएं ।
जन्म | बैशाख शुक्ल द्वितीय वि सं. 1 मई 1957 |
जन्म स्थान | मुरैना (मध्यप्रदेश) |
जन्म नाम | श्री उमेश कुमार जी जैन |
पिता का नाम | श्री शांतिलाल जी जैन |
माता का नाम | श्री अशर्फी देवी जैन |
ब्रह्मचर्य व्रत | सं. 2034, सन् 1974 |
क्षुल्लक दीक्षा | सोनागिर जी 5-11-1976 |
क्षु. दीक्षोपरांत नाम | क्षु श्री गुणसागर जी |
क्षुल्लक दीक्षा गुरू | आचार्य श्री सुमतिसागर जी महाराज |
मुनि दीक्षा | सोनागिर जी महावीर जयन्ती 31-03-1988 |
मुनि दीक्षोपरांत नाम | मुनि श्री ज्ञानसागर जी |
दीक्षा गुरु | आचार्य श्री सुमतिसागर जी महाराज |
उपाध्याय पद | सरधना 30-11-1989,जिला मेरठ (उ. प्र.) |
आचार्य पद | बडागांव,बागपत मई 2013 (उ. प्र.) |
चंबल के बीहड़ जिला – मुख्यालय मुरैना (मध्य प्रदेश) में श्रावक श्रेष्ठी श्री शांति लाल जी, अशर्फी देवी जी के घर आंगन में 1 मई 1957, प्रात: 6:00 बजे बालक ‘उमेश’ ने जन्म लिया। जब बचपन में खेलने की उम्र होती है उस समय वह खेल- खेल में देवता की प्रतिमा बनाते नजर आते थे और उसे घंटो तक निहारते रहते थे और प्रतिमा को आधार बनाकर ,ध्यान लगाते रहते थे, कक्षा के प्रतिभाशाली छात्र के रूप में आप विद्यालय के सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी के रुप में जाने जाते थे ।
अपने दादाजी श्री शंकर लाल जी के साथ संस्कारों की सीढ़ी पर उमेश ने चलना सीखा और मुनिसंघो के दर्शन कर अपने जीवन को वैराग्यमय बनाने का संकल्प ले लिया । फिरोजाबाद (उत्तर प्रदेश) में जब दादाजी के साथ आचार्य श्री विमल सागर जी महाराज के दर्शनार्थ पहुंचे तो वहां हो रहे केशलोंच को देखकर बालक मन मैदान में पड़ी धूल को सिर पर डालकर अपने बालों को उखाड़ने लगा मानो वह दृढ़ निश्चयी बालक उमेश केशलोंच का अभ्यास कर रहा हो तभी वहाँ बैठे श्रद्धालुओं ने बालक को रोक दिया लेकिन कुछ उखड़े बालों ने पूरे बाल बनवाने को मजबूर कर दिया परन्तु यह तय हो गया कि मैं केशलोंच तो कर ही सकता हूं और संस्कारों का आरोहण प्रारंभ हो गया ।
मात्र 13 वर्ष की आयु में बाजार की वस्तुएँ ना खाने का नियम ले लिया उमेश ने । पिच्छी और कमंडल से ऐसा अनुराग कि उन्हें अभी ले लूँ ,वेश ब्रह्मचर्य का और घर छोड़ने की ज़िद्द पर ,घर के लोगों ने उन्हें समझाया कि छोटी सी उम्र में गृह त्याग करना उचित नहीं है पहले ज्ञान अर्जन करो जिससे साधु बाने के साथ न्याय किया जा सके , संगीत के यंत्रों के साथ लौकिक शिक्षा में पारंगत उमेश ने जैन धर्म ग्रंथों का अध्ययन भी प्रारंभ कर दिया और कुमार अवस्था में त्याग की उत्कंठा को स्थापित कर त्याग मार्ग पर कदम बढ़ाना प्रारंभ किया ।
जैन धर्म ग्रंथों को पढ़ते उमेश ने यह तय कर लिया कि जिस मार्ग से – पारलौकिक कार्य किया जा सकता है तो लौकिक कार्यों में क्यों समय की बर्बादी की जाए और वे 16 वर्ष के हुए तो इनकी उदासीनता देखकर घरवालों ने विवाह के बन्धन में बाँधने का प्रयास किया ,व्यापार में उलझाने के प्रयास किए , लेकिन जिसे संसार से पार होने का उपाय करना हो वह भला इन में कहाँ रमता हायर सेकेंडरी की परीक्षा भी उन्हें रोक न सकी और मुनिसंघ के विहार के साथ उमेश ने घर से विहार कर दिया और तय कर लिया अब इस संसार में ब्रह्मचर्य लेकर रहूंगा विवाह नहीं करूंगा ।
उस समय वीरगांव जिला अजमेर (राज.) में विराजित इस युग के संत शिरोमणि आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज से 1974 में उमेश जी ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया और विशेष परिस्थिति को छोड़कर आजीवन रेल व बस का त्याग कर दिया आचार्य श्री से ब्र. उमेश जी ने “कातंत्र व्याकरण , तत्वार्थ सूत्र , जैन सिद्धांत प्रवेशिका” जैसे अनेक गूढ़ मूल ग्रंथों को पढ़ा और अपने आपको जैन दर्शन का ज्ञानी बनाया ।
ब्र. उमेश जी को अब वह धोती – दुपट्टा भी भारी लगने लगा और उन्होंने सोनागिर जी में विराजित आचार्य श्री सुमति सागर जी महाराज से दीक्षा हेतु निवेदन किया । 5 नवम्बर 1976 को उन्हें सोनागिर सिद्धक्षेत्र में क्षुल्लक दीक्षा के संस्कार मिले और वह ब्र. उमेश भैया से गुणों के सागर क्षुल्लक श्री गुण सागर जी महाराज के रूप में प्रतिष्ठापित हो गए ।
कर्मों के क्षय की प्रक्रिया में उन्हें क्षुल्लक अवस्था में आहार में अन्तराय आने लगे सुकोमल काया कृष होकर तप के प्रभाव से चमकने लगी, लेकिन विचलित नहीं हुई उन्हें त्यागी वृन्द “अन्तराय सागर” के नाम से जानने लगे । अन्तराय से निर्भीक बने गुण सागर ,अन्तराय से ध्यान हटा अध्ययन में ध्यान लगाकर अपने आप को कठोर चर्या हेतु तैयार करते रहे और अनेक ग्रंथों का अध्ययन करने लगे ।
तप में तपकर कुंदन से निखरें , क्षुल्लक श्री गुण सागर जी महाराज के ज्ञान गुण का प्रभाव सामने दिखने लगा अनेक लोग उनके प्रवचनों से समाधान प्राप्त कर त्याग मार्ग की ओर बढ़ने लगे , सागर जिले के इशुरवारा में प्रवास के दौरान एक युवक जय कुमार क्षुल्लक जी से इतने प्रभावित हुए कि उनके साथ विहार करते हुए बांदरी तक जा पहुंचे और साथ ही साथ वहाँ क्षुल्लक जी की प्रेरणा से वीरेन्द्र जी ने भी मोक्षमार्ग की ओर कदम बढायें और बाद में आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से मुनि दीक्षा ली और वे आज मुनिपुंगव श्री सुधा सागर जी महाराज एवं मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज के नाम से विख्यात हैं। सागर में क्षुल्लक गुण सागर जी के ज्ञान व चर्या से प्रभावित होकर राजकुमारी सी सुकोमल कन्या कुमारी सुनीता ने एक वर्ष का ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया और बाद में आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से आर्यिका दीक्षा प्राप्त कर आर्यिका श्री 105 दृढ़ मति माताजी के नाम से संपूर्ण भारतवर्ष में दृढ निश्चयी साधिका के रुप में धर्म ध्वजा फहरा रही है, उन्हीं की गृहस्थ अवस्था की बहन अनीता जी ने भी आप का सानिध्य प्राप्त किया और आज वह संघस्थ बाल ब्रहम्चारिणी अनीता दीदी के रूप में आत्म कल्याण कर रही है व संघ का संचालन कर अनेक जनों को धर्म मार्ग की ओर प्रेरित कर रही है, ऐसे उपकारी क्षुल्लक गुण सागर जी महाराज ने अनेक सांसारिक जीवों के आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया है ।
क्षुल्लक गुण सागर जी ने यह जान लिया कि मोक्ष मार्ग में यह लंगोटी भी बाधक है इससे छुटकारा पाना चाहिए और आचार्य सुमति सागर जी महाराज से निवेदन किया । विनयपूर्ण निवेदन में साधक की दृढ़ता को देखते हुए वर्तमान शासन नायक भगवान महावीर स्वामी की जन्म जयंती , 31 मार्च 1988 को अनेक चमत्कारो के साक्षी भगवान चंद्रप्रभु जी के समक्ष सोनागिर सिद्धक्षेत्र में आचार्य सुमतिसागर जी महाराज ने 2 दिगम्बर जैनेश्वरी दीक्षाएँ प्रदान की और क्षुल्लक गुण सागर जी के ज्ञान के क्षयोपशम को देखते हुए उन्हे दिगंबर मुनि श्री ज्ञान सागर महाराज के नाम से घोषित किया साथ ही क्षुल्लक श्री सन्मति सागर जी महाराज को मुनि श्री सन्मति सागर जी महाराज घोषित किया ।
गुणों के धारी ज्ञान के माध्यम से सबके उपकारी मुनि ज्ञानसागर जी ने अपने ज्ञान से अपने दीक्षा गुरु आचार्य श्री सुमति सागर जी को प्रभावित कर सोचने पर मजबूर कर दिया ,दीक्षा का 1 वर्ष भी पूर्ण नहीं हुआ और उत्तर प्रदेश के सरधना ,जिला मेरठ (म.प्र) में दिनांक 30 जनवरी 1989 को आपको अपार जनसमूह के मध्य पंच परमेष्ठी में वर्णित चतुर्थ परमेष्ठी उपाध्याय पद प्रदान किया अब आप उपाध्याय ज्ञान सागर जी के नाम से जग में विख्यात हो गए ।
जैनों को जैनत्व की बात कहना आसान है लेकिन ऐसे जैन जो जैन होकर भी अपने आप को जैन नहीं मानते हैं लेकिन उनके वंशज श्रावक कहलाते थे आज वे ‘सराक’ कहलाते हैं । देश के दुर्गम प्रदेश झारखंड ,बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा में ये घोर जंगल में निवास करते हैं, उपाध्याय ज्ञानसागर जी ने अपने ज्ञान के नेत्र खोले और चले गए इन प्रदेशों के बीहड़ क्षेत्र तडाई ग्राम (जिला रांची) में अपने बिछुड़े हुए भाइयों के पास । मानो श्रीराम ने पत्थर की अहिल्या की पुकार सुन ली हो । जहाँ श्रावक की चर्या असंभव हो वहां एक मुनि का पहुँचना बड़े आश्चर्य का विषय था, लेकिन स्व-पर कल्याण के लिए निकले संतो को कब परवाह थी कि क्या होगा… सिर्फ एक विश्वास था जो होगा वह जैनत्व के लिए गौरव होगा । आपने सराक बाहुल इलाके में चातुर्मास स्थापित किया, झोपड़ियों में निवास कर अपने बिछुड़े सराको को बताया कि ,तुम ‘श्रावक’ हो तुम्हारे पूर्वजों ने जैनत्व को धारण किया था, तब उपाध्याय श्री ने उन्हें अपना इतिहास बताया व गर्व की अनुभूति करवाई , सराक क्षेत्रों में धार्मिक पाठशाला , मंदिर, अनेक चिकित्सालय चल रहे हैं , छात्रवृत्ति दी जा रही है ,अनेक शिक्षण प्रशिक्षण शिविर चल रहे हैं,तीर्थयात्रा करने का सौभाग्य प्राप्त कर रहे हैं आदि ।बेरोजगार सराक बंधुओं को , ड्राइविंग टाइपिंग, सिलाई ,कढ़ाई, बुनाई आदि का प्रशिक्षण प्रदान किया और अनेक सराकों का उद्धार कर उन्हें सच्चा श्रावक बना दिया जिनके वंश गोत्र आज भी शांतिनाथ अनंतनाथ आदि तीर्थंकरों के नाम है ऐसे उपाध्याय ज्ञानसागर जी ने मुश्किल कार्यो को आसान किया और जैन समाज की मुख्यधारा में सराकों को सम्मिलित कराया ,तभी से वे “ सराकोंद्धारक” के रूप में प्रसिद्ध हो गए ।
अपने ज्ञान गुण के माध्यम से उपाध्याय ज्ञानसागर जी निरंतर चिंतनशील रहते हैं, वह महसूस करते हैं कि, यदि हम हमारे उच्च शिक्षित व्यवसायिक डॉक्टर, इंजीनियर, चार्टर्ड अकाउंटेंट, प्रशासकीय – शासकीय अधिकारी, बैंक कर्मी , शिक्षक, वैज्ञानिक , विद्वान , ब्रहमचारी आदि को संगठित कर उनको जैनत्व के उन्नयन में सहायक बनायें तो ,अहिंसा , शाकाहार , अपरिग्रह का संदेश बहुत जल्दी प्रसारित होगा ।उपाध्याय पद पर रहते हुए अपने अनेक सम्मेलन गोष्ठियाँ आयोजित सबको संगठित किया ,आज अनेक संगठन जैन जगत के गौरव को स्थापित करने में निरंतर लगे हुए हैं ।
उपाध्याय श्री द्वारा की जाने वाली गतिविधियों का एक अहम भाग है जेलों में प्रवचन ।सैकडों कैदियों को सुधारने कि दृष्टि से आचार्य श्री जेलों में प्रवचन देते हैं जेल अधिकारी उस समय दंग रह जाते है जब प्रवचन के दौरान कैदी रो पड़ते हैं और आजीवन , मांस , मदिरा , जुआ आदि का त्याग कर देते हैं।
उत्तर- दक्षिण, पूर्व- पश्चिम सभी प्रदेशों में आपके पद विहार हुए हैं अनेक पंचकल्याणक वेदी प्रतिष्ठा , मंडल विधान के साथ प्रतिभावान बच्चों को सम्मानित कराना, विद्वत जगत व गणमान्य जनों को अनेक पुरस्कार श्रुत संवर्धन आदि से सम्मानित कर उन्हें समाज के सामने प्रस्तुत करना उपाध्याय श्री की प्रेरणा रही है, जिससे अनेक प्रतिभाएं निकल कर आई है । आज भारतवर्ष में सर्वाधिक सम्मेलन में पुरस्कार ज्ञान सागर जी महाराज के सानिध्य में ही प्रदान किए जा रहे हैं ,जो समाज को निरंतर प्रेरणा प्रदान कर रहे है ।
प्रात: स्मरणीय आचार्य श्री शांति सागर जी महाराज (छाणी) की परम्परा में 25 वर्ष तक उपाध्याय के रूप में संपूर्ण देश में धर्म प्रभावना करने वाले ज्ञान सागर जी महाराज को परम्परा के पंचम पट्टाचार्य श्री सन्मति सागर जी महाराज की समाधि के उपरांत, सम्पूर्ण चतुविंघ संघ व देशभर से उमड़े जन सैलाब के बीच आपको आचार्य शांति सागर जी परम्परा (छाणी) का षष्ठ पट्टाधीश आचार्य पद 27 मई 2013 को प्रतिष्ठापित किया गया, अतिशय क्षेत्र बड़ागाँव(जिला बागपत) जहाँ विश्व का सबसे बड़ा त्रिलोक तीर्थ निर्मित है उसी की तलहटी में यह आयोजन जिसे आचार्य पदारोहण कहते है सम्पन्न हुआ था ।
आचार्य श्री सन्मति सागर जी महाराज का स्वप्न जो उनके सामने पूर्ण नहीं हो पाया उसे पूर्ण करने की सम्पूर्ण जिम्मेदारी अब आचार्य श्री ज्ञान सागर जी महाराज को मिली और 2014 में उनके त्रिलोक तीर्थ बड़ागांव में वर्षायोग का संयोग बना और 4 माह में मानों कार्य को पंख लग गए और स्याद्वाद परिवार ने आचार्य श्री के निर्देशन में कार्य को पूर्ण किया । फरवरी 2015 में देश के अनेक शीर्षस्थ आचार्य , उपाध्याय , साधु , आर्यिका संघ सैकड़ो त्यागी वृतियों व कई हजारो श्रद्धालुओं की उपस्थिति में त्रिलोक तीर्थ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव का अभूतपूर्व विश्वस्तरीय आयोजन संपन्न हुआ ।
2015 का चातुर्मास सिद्ध क्षेत्र सोनागिर जी ,जिला – दतिया (मध्य प्रदेश) में अभूतपूर्व धर्म प्रभावना के साथ सम्पन्न हुआ है जिसमें आचार्य श्री ज्ञानसागर जी सोनागिर प्रवास के दौरान पहाड़ी स्थित 57 नंबर मंदिर (श्री चंद्रप्रभ भगवान मन्दिर) में ही प्रवास रत रहे सिर्फ दिन में ही प्रवचन, आहार व कार्यक्रम में सान्निध्य प्रदान करने हेतु क्रमशः सभी मंदिरों ,आश्रमों एवं धर्मशालाओं में नीचे आते थे ।
इसी श्रृँखला में आचार्य श्री का वर्ष 2016 का मंगल वर्षायोग उसी पावन मातृभूमि की माटी ,जी हाँ मुरैना (मध्य प्रदेश) को प्राप्त हुआ ,इस वर्षायोग के दौरान “ज्ञानतीर्थ” के निर्माण कार्य को गति प्राप्त हुई और यह धर्मप्रभावना की दृष्टि से ऐतिहासिक वर्षायोग सिद्ध हुआ ।
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आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागरजी महाराज
Acharya Shri 108 Sumati Sagarji Maharaj 1917
आचार्य श्री १०८ सुमति सागरजी महाराज १९१७ Acharya Shri 108 Sumati Sagarji Maharaj 1917
Muni Shri Vardhaman Sagar Ji Maharaj
Muni Shri Samyaktasagar Ji Maharaj
Muni Shri Gyeyasagar Ji Maharaj
Aryika Shri Samadhimati Mata ji
Aryika Shri Adhyatmamati Mata ji
Aryika Shri Kumutamati Mata ji
Aryika Shri Aarshamati Mataji
Kshullika Shri Kantamati Ji
Kshullika Shri Antsmati Ji
Kshullika Arhatmati ji
Kshullika Shri Akshayamati Ji
Kshullika Amarshmati Ji
Kshullika Shri Eratmati Ji
Kshullika Samatamati Ji
SumatiSagarJiMaharaj1917
Acharya GyanSagarji was born was born on 1 May 1957, at 6:00 to parents Shri Shanti Lal Ji, Ashrafi Devi ji, in the rugged district - headquarters Morena (Madhya Pradesh) of Chambal. His name before diksha was 'Umesh' and from childhood only he has deep interest and inclination towards Jainism.
Childhood Smiles:
In the Bihad district of Chambal - Morena Headquarters (Madhya Pradesh) in the courtyard of ShravakShresthi Shri Shanti Lal ji and Asharfi Devi ji, on 1 May 1957, at 6:00 am, the child 'Umesh' was born. As a child he was seen making the idol of deity in the games he played and used to look at it for hours and kept meditating by focusing on the statue. He was known as the most brilliant student in his school.
Ascension of the Sanskars:
Umesh, along with his grandfather Shri Shankar Lal Ji, learned to walk on the path of sanskars and after praising Munisangh, took a vow to make his life detached from the common life. Umesh visited Acharya Shri Vimal Sagar ji Maharaj along with his grandfather in Firozabad (Uttar Pradesh). After witnessing the keshlonch of Maharaji, Umesh started uprooting his hair as if he was fully determined. While doing this, the devotees sitting there stopped the child, but some uprooted hair forced the whole head to be cleared, by this it was decided that he could do the keshlonc and the ascent of the rituals started.
The anxiety for renunciation in teen age:
At the age of merely 13, Umesh took the rule of not eating market items. He had such an affection for pichhi and kamandal that he thought of taking them at the very young age. He wanted to disguise as a brahmachari and was dedicated on leaving the house. His family explained to him that it is not appropriate to leave home at a young age, first he must acquire knowledge so that he can be a saint and do justice. Umesh, was proficient in social education along with musical instruments, also started studying Jain religious texts and by establishing the anxiety for renunciation in teen age, he started stepping on the path of renunciation.
Determination of Brahmacharya and detachment from home:
Reading Jain religious texts, Umesh decided to follow the path of renunciation as it is the way to do other worldly task rather than wasting time on worldly things. When he was 16 years old, seeing his neutrality, the family members decided to tie the knot, triedto engage him in business, but the one who has to find a way to cross the world, where even Ramta's Higher Secondary examination could not stop him and Umesh along with Munisang's monastery made his way out of the house and decided now, that he will not marry and will take brahmacharya oath.
Oath of Brahmacharya taken from Acharya Shri Vidyasagar ji:
Umesh ji took a lifelong brahmacharya oath from the Saint Shiromani Acharya Shri 108 Vidyasagar ji Maharaj in the year 1974 who was enshrined in Virgaon district Ajmer (Raj.). Brahmacharya Umesh ji took an oath of lifelong no bus and train travel. From Acharyashri, Brahmacharya Umesh ji read many texts like "Katantra Grammar, Tattvartha Sutra, Jain Siddhant Praveshika" and made himself a scholar of Jain philosophy.
Kshullak Diksha from Acharya Sumati Sagar ji:
Brahmacharya Umesh Ji now found the dhoti-dupatta too heavy and he requested for Diksha from Acharya Shri Sumati Sagar Ji Maharaj, who was enshrined in Sonagir Ji. On 5 November 1976, he received the rites of Kshullak Diksha at Sonagir Siddha Kshetra. From Brahmacharya Umesh Bhaiyyahe became to be known as Gunokesagar, ‘Shri Gun Sagar Ji Maharaj’.
In the process of decay of karma, he started getting interrupted (Antaray) in diet, his soft physique started glowing due to the effect of tenacity, but did not get disturbed, people started knowing him by the name of tyagiwrund"Antarai Sagar". Guna Sagar, who became fearless from antaray, shifted his focus from antaray to study and kept preparing himself for rigorous practice and started studying many books.
Influence of Jainism:
After rigorous penance he shined like pure gold.The effect of the knowledge of Kshullak Shri Gun Sagar Ji Maharaj started to influence people. After hearing his pravachans many people after started moving towards the path of renunciation. During his stay in Ishurwara of Sagar district, a young man Jai Kumar was so impressed with Kshullak Ji that while doing vihar with him, Jai kumar reached Bandri. With the inspiration of Kshullak Ji, Virendra Ji also took steps towards the path of salvation. Later he took muni diksha from Acharya Shree Vidyasagar Ji Maharaj and he is now known as Munipungav Shree Sudha Sagar Ji Maharaj and Muni Shree Kshamasagar Ji Maharaj. Impressed by the ocean of knowledge and behaviour of Kshullak Gun Sagar Ji, a Princess like girl Kumari Sunita took a one-year Brahmacharya oath and later received Aryika Diksha from Acharya Shree Vidyasagar Ji Maharaj and was firmly established in the name of Aryika Shree 105 Dhrudhmatimataji. She is hoisting the Jainism flag all over India. Devotee Anita Ji, sister of Aryika Shree 105 Dhrudhmatimataji, also got in her company and today she is doing self-welfare in the form of Sanghasthbalbrahmcharini. Anita didi is running the Sangh and motivating many people towards the path of Dharma. Kshullak Gun Sagar Ji Maharaj has paved the way for the self-welfare of many worldly beings.
Conch shell of Digambartva:
Kshullak Gun Sagar ji came to know that the langotis also a hindrance in the path of salvation, it should be got rid of and requested Acharya Sumati Sagar Ji Maharaj for more oaths.In view of the perseverance of the seeker, on the birth anniversary of the VartamanShashak Lord Mahavir Swami, on 31 March 1988, in front of the witness of many miracles, Lord Chandraprabhu ji, Acharya Sumatisagar Ji Maharaj gave 2 Digambar Jaineshwaridikshas in SonagirSiddhakshetra and looking at the Kshullak’s great knowledge, he was declared as ‘Digambar Muni Shri Gyan Sagar Maharaj’ and also declared Kshullak Shri Sanmati Sagar Ji Maharaj as Muni Shri Sanmati Sagar Ji Maharaj.
Upadhyay declared by the Guru:
Muni Gyansagar ji, a beneficiary of all through the knowledge of virtues, impressed his diksha guru Acharya Shri Sumati Sagar ji with his knowledge. On January 30, 1989, at Sardhana of Uttar Pradesh Merut District in front of a huge crowd, within one year of his diksha he was awarded the fourth Parameshthi Upadhyaya post mentioned in PanchParmeshthi. Now he is famous as Upadhyay Gyan Sagar ji worldwide.
Sarakoddharak Upadhyay Shri:
It is easy to talk of Jainism to Jains, but such Jains who do not consider themselves as one, but their descendants were called Shravak, today those people are called as 'Sarak'. In the inaccessible states of the country, Jharkhand, Bihar, West Bengal, Orissa, Sarak’s live in the dense forest, Upadhyay Gyansagar Ji opened his eyes of knowledge and went to the rugged region of these states in Tadai village (District Ranchi) to meet his separated brothers.
The arrival of a sage where the care of the Shravak is impossible was a matter of great surprise, but when did the saints who came out for self-welfare didn't care what would happen. There was only one belief that whatever would happen would be a pride for Jainism. He established Chaturmas in the Sarak-dominated area, lived in the huts and told his separated Sarak’s that “you are a 'Shravak', your ancestors had adopted Jainism”, then Upadhyay Shri told them his history and made them feel proud. Sarak areas there are now many religious schools, temples, and hospitals, scholarships are being given, many educational training camps are going on, and individuals are getting the privilege of doing pilgrimage and etc. He provided training to unemployed Sarak brothers in driving, typing, sewing, embroidery, weaving etc., and helped many Saraks and made them true Shravak whose lineage is still in the name of Tirthankars like Shantinath, Anantnath etc. In such a way Upadhyay Gyansagar Ji made difficult tasks easy, and got the Saraks included in the mainstream of Jain society, since then they became famous as "Sarakonddhaar".
Stories and conferences promoting Jainism:
Upadhyay Gyansagar Ji is constantly in worries through his knowledge, he feels that, if we organise our highly educated professional doctors, engineers, chartered accountants, administrative-government officers, bank workers, teachers, scientists, scholars, Brahmacharis etc. making them helpful in the advancement of Jainism, then the message of non-violence, vegetarianism, non-possessiveness will be spread very soon.
While holding the post of Upadhyay, he organized many conferences, today many organizations are continuously engaged in establishing the pride of the Jainism.
An important part of the activities carried out by Upadhyay Shree is the discourses in the jails. Intending to improve hundreds of prisoners, Acharya Shree gave discourses in the jails. The jail officials were stunned when the prisoners cry during the discourses and sacrifice flesh drinking, gambling, etc. for life.
North-south, east-west, in all the states, he has held vihar, many Panchkalyanakvedipratishta, honouring talented children with mandalvidhan, honouring the learners of the world with many awards, promotions etc. Presenting them in front of society has been the inspiration of Upadhyay Shri, from which many talents have emerged. Today, in most conferences in India, awards are being given under the guidance of Gyan Sagar Ji Maharaj, who is continuously providing inspiration to society.
Upadhyay to Acharya Gyan Sagar:
25 years in the tradition of the memorable Acharya Shri Shanti Sagar Ji Maharaj (Chhani), as Upadhyaya, Gyan Sagar Ji Maharaj, influenced religion in the entire country after the samadhi of the fifth Pattacharya of the tradition, Shri Sanmati Sagar Ji Maharaj,In the midst of the entire Chatuvingh Sangh and the influx of people from all over the country, the sixth Pattadhish Acharya post of Acharya Shanti Sagar Ji Parampara (Chhani) was established on 27 May 2013, in the same area, Badagaon (District Baghpat), where the world's largest Trilok Tirth is built. Acharya Padarohan/ convocation was completed in the foothills of Trilok Tirth.
Participated in the completion of Trilok Tirth:
Acharya Shree Sanmati Sagar Ji Maharaj's unfulfilled dream was now taken on by Acharya Shree Gyan Sagar Ji Maharaj and in 2014, in his Trilok Tirth Baragaon, there was a coincidence of Varshayog in 4 months the work got wings and the Syadvad family completed the work under the direction of Acharya Shri.
On February 2015, in the presence of many top Acharyas, Upadhyayas, Sadhus, Aryika Sangha, hundreds of renouncers and many thousands of devotees, an unprecedented world class event of Trilok TeerthPanchkalyanakPratishtha Mahotsav was completed.
Chaturmas of 2015 has been completed with unprecedented religious influence in Siddha KshetraSonagir Ji, District - Datia (Madhya Pradesh), in which Acharya Shri Gyansagar Ji stayed in 57 number temple (Shri ChandraprabhaBhagwan Mandir) located on the hill. During his stay in Sonagir he used to come down to all the temples, ashrams and dharamshalas respectively to provide proximity in discourses, diet and programs.
In this series, the Mangal Varsha Yoga of the year 2016 of Acharya Shri was received from the soil of the same holy motherland, yes Morena (Madhya Pradesh), during this Varsha Yoga the construction work of "Gyan Teerth" gained momentum and it is proven that it's a historical Varsha Yoga from the point of view of religion.
Muni Shri Vardhaman Sagar Ji Maharaj
Muni Shri Samyaktasagar Ji Maharaj
Muni Shri Gyeyasagar Ji Maharaj
Aryika Shri Samadhimati Mata ji
Aryika Shri Adhyatmamati Mata ji
Aryika Shri Kumutamati Mata ji
Aryika Shri Aarshamati Mataji
Kshullika Shri Kantamati Ji
Kshullika Shri Antsmati Ji
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Kshullika Amarshmati Ji
Kshullika Shri Eratmati Ji
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