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#AcharyaJinsenSwami9thCenturyCE
आचार्य जिनसेन प्रथम ऐसे प्रबुद्धाचार्य हैं जिनको वर्णन-क्षमता और काव्य-प्रतिभा अपूर्व है। इन्होंने हरिवंशपुराण नामक कृतिका प्रणयन किया है। ये पुन्नाटसंघके आचार्य हैं। इनके गुरु का नाम कीर्तिषेण था ।
हरिवंश-पुराण के ६६ वें सर्गमें भगवान महावीरसे लेकर लोहाचार्य पर्यन्त आचार्योंकी परम्परा अंकित है।
वीर निर्वाणके ६८३ वर्षके अनन्तर गुरु कीर्तिषेणकी अविक्छिन्न परम्परा इस ग्रन्थ में ली गयी है।
गुरु परंपरा मे अमितसेन को पुन्नाटगणका अग्रणी और शतवर्षजीबी बतलाया है। पुन्नाट कर्नाटकका प्राचीन नाम है ।
हरिषेणके कथाकोषमें आया है कि भद्रबाहु स्वामीके आदेशानुसार उनका संघ चन्द्रगुप्त या विशाखाचार्यके साथ दक्षिणापथके पुन्नाट देशमें गया ।
अतः इस देशके मुनिसंघका नाम पुन्नाठसंघ पड़ गया। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ श्री नाथूराम प्रेमीका अनुमान है कि अमितसेन पुन्नाटसंघको छोड़कर सबसे पहले उत्तर की ओर बढ़े होंगे और पूर्ववर्ती जयसेन गुरु तक यह संघ पुन्नाटमें ही विचरण करता रहा होगा । अतएव यह माना जा सकता है कि जिनसेनसे ५०-६० वर्ष पूर्व ही यह संघ उत्तरभारत में प्रविष्ट हुआ होगा।
हरिवंशकी रचना और रचना-स्थानका निर्देश करते हुए ग्रन्थकर्ताने लिखा है कि शक संवत् ७0५ ( ई० सन् ७८३ ) में जब कि उत्तर दिशाकी इन्द्रायुध, दक्षिण दिशाकी कृष्णका पुत्र श्रीवल्लभ, पूर्वकी अवन्तिनृपति वत्सराज और पश्चिमकी-सौरोंके अधिमण्डल सौराष्ट्रकी वीरजयवराह रक्षा करता था, तब लक्ष्मीसे समृद्ध वर्धमानपुरके पार्श्व -जिनालयमें, जो नन्नराज वसतिके नामसे प्रसिद्ध था, इस ग्रन्थका प्रणयन आरम्भ हुआ और पीछे दोस्त टिकाके शान्ति-जिनालय में पूर्ण किया गया।
इसी वर्धमानपुरमें हरिषेणने भी अपने कथाकोषकी रचना की है। इस नगरकी अवस्थितिके सम्बन्धमें डॉ० ए ० एन० उपाध्ये का मत है कि यह वर्धमान पुर काठियावाड़का वर्तमान बढवान है ।
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१. जैन साहित्य और इतिहास, द्वितीय संस्करण, पृ० ११५ ।
२. शायदशतेषु सप्तसु दिशां पस्योत्तरेषत्तरां
चातीन्द्रायुधमाम्नि कृष्णनपजे श्रीवल्लभे दक्षिणाम् ।
पूर्वा श्रीमदवन्तिभूभूति नृपे वत्सादिराजेऽपरां
सूर्याणामधिमण्डल जमयुत धीरे करावति ।।
कल्याणः परिबधमानविपुलश्रीवर्षमाने पुर
श्रीपापलियनन्न राजवसतो पर्याः शेषः पुरा ।
पश्चास्तटिकाप्रजाप्रजनितप्राज्यानावर्षमै
सान्नेः शास्तगृहे जिनम्य चितो बंशा हगणामयम् ।।
हरिवंशपुराण, सर्ग ६६, पथ ५२, ५३ ।
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डॉ हीरालाल जैन इम नगरको मध्यप्रदेश के बार जिलंके बदनावर स्थानको मानते हैं।
डॉ० जैन का अभिमत है कि इस बदनावरमें प्राचीन जैन मन्दिरोंके भग्नावशेष आज भी विद्यमान हैं और यहाँ से दुतरिया --प्राचीन दोस्तटिका नामक ग्राम भी समीप है तथा.हरिवंश मे वर्णित राज्य -विभाजनकी सीमाएँ भी इस स्थान से सम्यक घटित हो जाती है। डॉ जैनका कथन अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है। यत: जिनसेन सं ५०-६० वर्ष पहले ही पुन्नाट संघका उत्तर भारत में प्रवेश हो चुका था। अत: गिरनारकी यात्राक लिये संघ गया और वहाँ हरिवंशपुराण तथा उसके १५० वर्ष बाद कथा-कोषकी रचना हुई, यह बात संदिग्ध-सी प्रतीत होती है। वर्धमानपुरको जैन संघका केंद्र होना चाहिए, जहाँ उक्त दोनो विशाल ग्रंथ लिखे गए । बहुत सम्भव है राष्ट्रकूट नरेशोंका मालवामें प्रभुत्व स्थापित होनेपर बदनावर में जैन पिठकी स्थापना हुई हो । जिस प्रकार पञ्चस्नुपान्वयी वीरसेन स्वामीका बाटनगर में ज्ञान केंद्र था, सम्भवतः उसी प्रकार अमितसेनने बदनावर में ज्ञान केन्द्रकी स्थापना की हो और उसी केन्द्र में उक्त दोनों ग्रन्थ की रचना संपन्न हुई हो।
जिनसेनने ग्रन्थ-रचनाका समय स्वयं निदिष्ट किया है । अतः इनके स्थिति कालके सम्बन्ध में मतभेदकी आशंका नहीं की जा सकती। शक संवत् ७०५ ( ई० सन् ७८३ ) में हरिवंशपुराणको रचना सम्पन्न हुई है। यदि हरिवंश पुराण के समय कविकी आयु ३०-३५ वर्षकी मानी जाय, तो कवि का जन्म अनुमानतः ई. सन् ७४८ के लगभग आता है। यतः इतनी प्रौढ़ रचना इस अवस्थाके पूर्व नहीं हो सकती | कविकी आयु ७०-७५ वर्ष होना चाहिये । अतएव आचार्य जिनसेन प्रथमका समय लगभग ई० सन् ७४८-८१८ सिद्ध होता है।
कुवलयमालाके कर्ता उघोतनसुरिने अपनी 'कुवलयमाला में जिस तरह रविषेणके 'पद्मचरित' और 'जटासिंहनन्दिके 'वराङृचरित' की स्तुति की है, उसी प्रकार हरिवंशकी भी। उन्होंने लिखा है कि मैं हजारों विद्वज्जनोंके प्रिय हरिवंशोत्पत्तिकारक प्रथम वन्दनीय और विमलपद हरिवंशकी वंदना करता हूँ।
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१. वृहतकथाकोषकी प्रस्तावना, पृ. १२१ ।
२. इण्डियन कल्चर ,खण्ड ११. सन्१९४४-४५, पृ०१६१ तथा जैन सिद्धान्त भास्कर
भाग १२, किरण २ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोपकाचार्य :
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इनकी एक ही रचना प्राप्त है, हरिवंशपुराण | यह दिगम्बर सम्प्रदायका प्रमुख पुराण-ग्रन्थ है। रविषेणाचार्यके पद्मपुराण और जटासिंहनन्दिके वराङ्ग चरित्रका इसपर प्रभाव है । जिनसेनने अपने हरिवंश महासेनकी सुलोचना तथा अन्य अन्यान्य ग्रंथों का भी उल्लेख किया है, किन्तु वे अभी तक प्राप्त नहीं है। हरिवंशपुराण की कथावस्तु जिनसेनको अपने गुरु कीर्तिसेन से प्राप्त हुई थी। वर्णनशैलीपर रविषेणके पद्मचरितका पूर्ण प्रभाव है। जिस प्रकार रविषेण ने पद्मचरितमें वृत्तानुगन्धी गघका प्रयोग किया है, उसी प्रकार जिनसेनने भी हरिवंशके ४९ वे सर्ग मे नेमि जिनेन्द्रका स्तवन करते हुए वृत्तानुगन्धी गद्य का प्रयोग किया है। इस पुराणग्रंथका लोकविभाग एवं शलाकापुरुषोंका वर्णन त्रिलोकप्रज्ञप्तिसे मेल खाता है । द्वादशांगवर्णन तत्त्वार्थवार्तिकके अनुरूप है । संगीतका वर्णन भरतमुनिके नाट्यशास्त्रसे अनुप्राणिन है । तत्व -प्रतिपादन में तत्वार्थसूत्र और सर्वार्थसिद्धिका आधार. ग्रहण किया गया है। अतएव इम पुराण-ग्रन्थपर पूर्वाचार्योंका पूर्ण प्रभाव है।
इस पुराणमें २२ वे तीर्थकर नेमिनाथका चरित्र निबद्ध है, पर प्रसंगोपातअन्य कथानक भी लिखे गये हैं। भगवान नेमिनाथके साथ नारायण श्री कृष्ण और बलभद्रपदके धारक श्री बलरामका भी कौतुकावह चरित्र अंकित हैं। पाण्डवों और कौरवोंका लोकप्रिय चरित भी बड़ी सुन्दरताके साथ निबद्ध किया गया है। कथावस्तु ६६ सर्गो में विभक्त है। प्रथम सर्गमें मंगलाचरण और ग्रंथकी महत्ता, द्वितीय सर्गमें तीर्थकर महावीरका जीवनवृत्त, तृतीय सर्गमें महावीरका समवशरण और विपुलाचर, पर उपदेश तथा त्रिषष्टि शलाकापुरुषोंके चरित्रोंको जाननेकी जिज्ञासा, चतुर्थ सर्गमें अधोलोकका वर्णन, पञ्चम सर्ग में तिर्यकलोकका निरूपण, षष्ठ सर्ग में ज्योतिर्देव एवं उर्ध्व लोकका चित्रण, सप्तम सर्गमें कुलकरोकी उत्पत्ति और उनके द्वारा की गयी समाजव्यवस्थाका चित्रण, अष्टम सर्ग में आदि तीर्थकर ऋषभदेवका जन्म, नवम सर्गमें तीर्थंकर ऋषभदेवकी बाल क्रीड़ा, दीक्षाकल्याणक एवं ज्ञानकल्याणक का वर्णन किया गया है। दशम सर्गमें मुनिधर्म और श्रावकधर्मके निरूपणके पश्चात् श्रुतज्ञानका चित्रण, एकादश सर्ग में भरत का जीवन वृत्त और बाहुबली-दीक्षा, द्वादश सर्ग में जयकुमार और सुलोचना की कथा, त्रयोदश सर्ग में अजितनाथ तीर्थकर से लेकर शीतलनाथ तीर्थकर तक पौराणिक इतिवृत्त, चतुर्दश सर्ग में सुमुख और वनमाला की कथा एवं पञ्चदश सर्ग में हरिवंश का आदि इतिवृत्त अंकित है। षोडश सर्ग में मुनिसुव्रतनाथ तीर्थकरका जीवनवृत्त, सप्तदश सर्गमें मुनिसुव्रतनाथके पुत्र सुव्रतका जीवनवृत्त, अष्टादश सर्गमें अन्धकवृष्णिका जीवनवृत्त, एकोन्नविश सर्गमें वसुदेवका भ्रमणवृत्तान्त, विशति सर्गमें विष्णुकुमारकी कथा, एक विशति सर्गमें चारुदतका आख्यान, द्वाविंशति सर्गमें वसुदेवकी कथा, त्रयोविशति सर्गमें वसुदेव और सोमश्रीके विवाहका वर्णन एवं चतुर्विशति सर्गमें वसुदेव और वनमालाके विवाहकी कथा अंकित है। पच्चोसवें में और छब्बीसवें सर्गमें विभिन्न कन्याओंके साथ वसुदेवके विवाहका चित्रण आया है। सत्तईसवें सर्गमें श्रीभूति पुरोहितकी कथा, अट्ठाईस सर्गमें मृगध्वज केवली और महिषका वृत्तान्त, उनतीसर्वे सर्गमें वसुदेव और बन्धुमती तथा प्रियंगु सुन्दरीकी प्राप्तिका चित्रण है। तीसवें सर्ग में वसुदेवका वेगवती और प्रभावतीकी प्राप्तिका वर्णन आया है। इकतीसवे सर्ग में वसुदेवका अपने बड़े भाई समुद्रविजय से मिलना वर्णित हैं । बत्तीसवें सर्गमें वसुदेवकी रोहिणी नामक स्त्रीसे बलराम नामक पुत्रकी उत्पत्ति का वर्णन है। तेतीसवें सर्गमें जरासंध और कंसकी कथा आयी है । चौंतीसर्व सर्गमें नेमिनाथके पूर्वभवोंका वर्णन, पैतीसवें सर्ग में कृष्ण-जन्म, छत्तीसवें में बलभद्र और कृष्णका कंसके साथ युद्ध, संतीसवें सर्गमें नेमिनाथके गर्भकल्याणक और अड़तीसवें सर्गमें नेमिनाथके जन्मका वर्णन आया है। उनतालीसवे सर्गमें तीर्थंकर नेमिनाथकी परिचर्या और चालीसवें सर्गमें जरासंघ द्वारा शौरीपुर पर आक्रमण करना वर्णित है। इकतालीसवें सर्गमें कृष्ण द्वारा परमेष्ठीका ध्यान; बयालीसवें सर्गमें नारदका द्वारिकामें आगमन और तैतालीसवे सर्गमें प्रद्युम्न के पूर्वभवोंका वर्णन आया है। चवालीसवें सर्गमें श्रीकृष्णका जाम्बवती, लक्ष्मणा, सुधीमा, गौरी, पद्मावती और गान्धारी के साथ विवाहित होना वर्णित है। पैंतालीसवें सर्गमें पाण्डवोंका यादवोके यहाँ द्वारिकामें जाना और लाक्षागृहमें आग लगनेपर अज्ञातरूपसे पाण्डवोंका निकल जाना वर्णित है। छयालीसवें और सैंतालीसवें सर्गमें भीमका कीचकके साथ युद्ध वर्णित है । अड़तालीसवें सर्गमें यदुवंश कुमारओंका वर्णन तथा
उनचासवें सर्गमें कृष्णकी छोटी बहनको सुन्दरता और तपस्याका वर्णन आया है। पचासवे, इक्यावनवे और बावनवे सर्गमें जरासंध और कृष्णके युद्धका वर्णन है। तिरेपनवें सर्गमें कृष्णकी विजय, चौवन- सर्गमें नारदका द्रौपदीसे रुष्ट होकर प्रतिशोध लेना वर्णित है । पचयनवे सर्ग में नेमिनाथके विवाहकी तैयारियाँ
और उनके वैराग्यका चित्रण आया है । छप्पनवें सर्गमें नेमिनाथकी तपस्या और केवलज्ञानकी उत्पत्ति, सत्तावनवें सर्गमें समवशरण, अट्टानवे सर्गमें नेमिनाथकी दिव्यध्वनि एवं उनसठवें सर्गमें नेमिनाथक विहारका वर्णन आया है। साठवें सर्गमें गजकुमारके निवेदका वर्णन आया है | इकसठवें सर्गमें द्वारिकाका भस्म होना, बासठवें सर्गमें कृष्णकी मृत्यु, तिरेसठबौं सर्गमें श्रीकृष्णका दाह-सस्कार वणित है। चौसठवें सर्गमें नेमिनाथका पल्लवदेशमें बिहार, पैंसठवें में पाण्डवोंकी तपस्या एवं छियासठवें सर्गमें भगवान महावीरके निर्वाणका प्रसंग वर्णित है । इस प्रकार इस ग्रन्थ में त्याग, संयम और अहिंसाकी त्रिवेणी समाहित है। नेमिनाथ का पावन जीवन मानव-जीवनके समक्ष कर्त्तव्य और आदर्शकी स्पष्ट रूप रेखा प्रस्तुत करता है।
१. पहजासहस्सदयं हरिवंसुष्पतिकारय पढ़मं।
बंदामि बंदिय पि है हरिदम चैत्र विमलपर्य ।।
कुचलयमाला, गाथा ३८ . ।
-हरिबशपुराण ज्ञानकोष है। इसमें कम-सिद्धान्त, आचारशास्त्र, तत्वज्ञान एवं आत्मानुभूति सम्बन्धी चर्चा निबद्ध हैं । यह पुराणग्रन्थ होने पर भी उच्चकोटिका महाकाव्य है । सैंतीसवें सर्गमे साहित्यिक सुषमाकी बुद्धि उत्तरोत्तर परिलक्षित होने लगती है। इस ग्रन्थका पचवनवा सर्ग तो यमकादि शब्दालंकारोंकी दृष्टि से महत्वपूर्ण है । ऋतु-वर्णन, चन्द्रोदय-वर्णन, वन, पर्वत, नगर, सरोबर, ऊषा, सन्ध्या आदिका चित्रण महाकाव्ये के अनुरूप आये हैं। कृष्णकी मत्यु के उपरान्त बलदेव द्वारा किया गया करुण विलाप पाषाणहृदयको भी द्रवित करने में समर्थ है। नेमिनाथकी वैराग्य चित्रण प्रत्येक संसारीको माया-ममतासे विमुख होनेका संकेत करता है। राजीमतिके परित्यागपर पाठकोंके नेत्रोंस सहानुभूतिकी अश्रुधारा प्रवाहित हुए बिना नहीं रहती । कवि वसन्तऋतुके वर्णन-प्रसंगमें पुष्पावचय-क्रीडाका जीवन्त चित्रण उत्प्रेक्षा द्वारा करता हुआ कहता है--
कुसुमभारभूतः प्रणता भृशं प्रणयभङ्गभियेव नता द्रुमाः ।
युवतिहस्तधुता: कुसुमोच्चयेऽतनुसुखं तरुणा इव भेजिरे ।।
अनसिनम्नसया निजशाखमा कथमपि प्रमदाकरलब्धया ।
तरुमणः कुसुमग्रहणे मजदृढकचग्रहसौख्यमिव प्रभुः ॥
पुष्पोंके भारको धारण करनेवाले वृक्ष अत्यन्त नमीभूत हो रहे थे। उससे वे ऐसे प्रतिभासित होते थे, मानों स्नेहभंगके भयसे ही नम्रीभूत हों, पुरुषोंके समान अतनु- बहुत भारी अथवा कामसम्बन्धी सुखका अनुभव प्राप्त कर
१ हरिवंशपुराण, पचपनयां सर्ग, पद्य ३१ , ४० ।
पुष्पावचय करते समय वृक्षोंकी ऊँची शाखाओंको सुन्दरियाँ किसी प्रकार अपने हाथसे पकड़ कर नीचेकी ओर खींच रही थीं, उससे वे वृक्ष नायकके समान प्रेयमी द्वारा केश खींचनेके गुणानुभव कर रहे हैं।
उपयुक्त मनोरम वर्णनके लिये कविने रस-वर्षक, दुतविलम्बित छन्दको चुना है, जो कि कविको काव्य-ज्ञान सम्बन्धी विशेष प्रज्ञाका सूचक है। कृष्णाकी मृत्यु हो जानेपर बलराम द्वारा जगाये जानेपर भी जब वे जागते नहीं तब बलराम नारायणको सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि अब सोनेका समय नहीं, अतः उठना चाहिये । इस सन्दर्भमें कविने कल्पनाको ऊँची उडानके साथ श्लेषालङ्कारका प्रयोग कर काव्य चमत्कार प्रस्तुत किया है
वारुणीमलिनिषेव्य वारुणश्चक्रवाकनिन हेरुभिः ।
शोचित्तः पतितभाः मानधः को न वा पतितवारुणीप्रियः ।।
सूर्य वारुणी-पश्चिम दिशारूपी मदिरा का अधिक सेवन कर लाल-लाल हो रहा है। इसको मूछित दीन-दशापर चक्रवाकपक्षियों का समूह अश्व-वर्षा करता हुआ शोक प्रकट कर रहा है। सत्य है वारुणीके सेवनसे किसका अधः पतन नहीं होता।
इस पद्य में कविने सूर्य की रूपाकृति बिम्ब द्वारा मन्ध्यासमयका संकेत प्रस्तुत किया है। साथ ही मदिरा-पानके दोषोंपर भी प्रकाश डाला है।
आचार्य जिनसेन द्वन्द्वात्मक स्थितियों के चित्रणमें भी अत्यन्त पटु है । नेमि कुमारके विवाह के अवसरपर एकत्र पशु-समूहको विह्वल स्थितिका तो मूर्तिमान चित्रण है ही, साथ ही नेमिकुमारके हृदयकी आन्तरिक अवस्थाका बहुत ही स्पष्ट चित्र उपस्थित किया है । आचार्य ने लिखा है
स खलु पश्यति तत्र तदा बने विविधजातिभृतस्तृणभक्षिणः ।
भयविकम्पितमानसगाकान् पुरुषरुद्धमगानतिविह्वलान् ।।
रणमुखेषु रणाजितकीतयः करितुरङ्गरथेष्वपि निर्भयान ।
अभिमुखानभिहन्तुधिष्ठितानभिमुखाः प्रहरन्ति न हीतरान् ॥
एकत्रपशु भयसे अत्यन्त विह्वल हैं। उन्हें एक स्थानपर बलपूर्वक अवरुद्ध किया गया है। वे अपने प्राण जानेकी आशंकासे अत्यन्त त्रस्त हैं और अपनी
१. हरिवंशपुराण, सर्ग ६३, पद्य ३० । २. वहीं, सर्ग ५५, पद्य ८५, १० ।
प्रबुद्धचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : "
असमर्थ अवस्थापर आंसू बहाते हैं । जब नेमिकुमारको पशुओंका चीत्कार सुनाई पड़ता है तो बे द्रवीभूत हो जाते हैं और उनके अन्तस्में द्वंदउत्पन्न हो जाता है। वे सोचते हैं कि जिन पशुओका उपयोग रणभूमिमें सवारीके लिये करते हैं, जो ममुष्यको नाना प्रकार की आवश्यकताओंको पूर्ण करते हैं, जो पूर्णत: निर्दोष हैं उन पशुओंपर मांसलोलुपी यह मानव किस प्रकार अस्त्र प्रहार करता है ? उनकी विचारधारा और आगेकी ओर बढ़ती है और दे गम्भीरतापूर्वक सोचने लगते हैं..
चरणकण्टकवेधभयाभूटा विदधते परिधानमुपानहाम् ।।
मृदुमृगान् मृगयासु पुनः स्वयं निशितशस्त्रशतः प्रहन्ति हि ।।
क्रूर मनुष्यको धिक्कार है, जो स्वयं तो पैरमे कांटा चुभनेके भयसे जूता धारण करता है, पर मूक पशुओपर तीक्ष्ण शस्त्र प्रहार करता है ।
आचार्य ने अपने इस पुराणको सरल बनाने के लिये विभिन्न छन्दोंका प्रयोग तो किया ही है, साथ ही मौनं सार्थसाधनम्' (९| १२९ .) 'दुबारा भवितव्यता' (६१| ७७ ) 'किन्न स्याद् गुरुसेवया,' ९ |१३१) 'पुण्यस्य किमु दुष्करम्,' (१६}४६) 'पातकालतनं घ्र बम्, । १७|१५१ ) 'जातनां हि समस्तानां जोवानां नियता मृती,' १६१ ।२० जसो सूक्तियोंका मणि-काञ्चन संयोग वर्तमान हैं 1
साहित्यिक सुषमाके साथ अष्टिविटा धर्मशास्त्र, तत्वज्ञान, षद्रव्य, पञ्चा स्सिकाय आदिका भी विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। आचार्य जिनसेनन अपने समयकी राजनीतिक परिस्थितिका भी चित्रण किया है !
गुरु | आचार्य श्री कोतिषेण |
शिष्य | आचार्य जिनसेन स्वामी (प्रथम) |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Jinasena (c. 9th century CE) was a monk and scholar in the Digambara tradition of Jainism. He was patronized by the Rashtrakuta king Amoghavarsha I. He was the author of Adipurana and Mahapurana.
Jinasena was the disciple of Acharya Virasena and he completed the commentary Dhavala on Ṣaṭkhaṅḍāgama, a revered text in the Digambara tradition. The name is shared by an earlier Acharya Jinasena who was the author of Harivamsa Purana
आचार्य जिनसेन (प्रथम)
आचार्य जिनसेन प्रथम ऐसे प्रबुद्धाचार्य हैं जिनको वर्णन-समता और काव्य-प्रतिभा अपूर्व है। इन्होंने हरिवंशपुराण नामक कृतिका प्रणयन किया है। ये पुन्नाटसंघके आचार्य हैं। इनके गुरुका नाम कोतिषेण था ।
हरिवंश-पुराण के ६६ वें सर्गमें भगवान महावीरसे लेकर लोहाचार्य पर्यन्त आचार्योंकी परम्परा अंकित है।
बीर निर्वाणके ६८३ वर्षके अनन्तर गुरु कोलिषेकी अविक्छिन्न परम्परा इस में ली गयी है।
गुरु भागों अमिनमेनको पुन्नाटगणका अग्रणी और शतवर्षजीबी बतलाया है। पुन्नाट कर्नाटकका प्राचीन नाम है ।
हरिषेणके कथाकोष में आया है कि भद्रबाहु स्वामीके आदेशानुसार उनका संघ चन्द्रगुप्त या विशाखाचार्य के साथ दक्षिणापथके पुन्नाट देश में गया ।
अतः इस देशके मुनिसंघका नाम पुन्नाठमंघ पड़ गया। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ श्री नाथूराम प्रेमीका अनुमान है कि अमितसेन पुन्नाटसंघको छोड़कर सबसे पहले उत्तर की ओर बढ़े होंगे
और पूर्ववर्ती जयसेन गुरु तक ग्रह संघ पुन्नाटमें ही विचरण करता रहा होगा । अतएव यह माना जा सकता है कि जिनसेनसे ५०-६० वर्ष पूर्व ही यह संघ उत्तरभारत में प्रविष्ट हुआ होगा।
हरिवंशकी रचना और रचना-स्थानका निर्देश करते हुए ग्रन्थकर्ताने लिखा है कि शक संवत् ३७५ ( ई० सन् ७८३ ) में जब कि उत्तर दिशाकी इन्द्रायुध, दक्षिण दिशाकी कृष्णका पुत्र श्रीवल्लभ, पूर्वको अन्तिनृपति वत्सराज और पश्चिमकी-सौरोंके अधिमण्डल सौराष्ट्रकी वीरजयवराह रक्षा करता था, तब लक्ष्मीसे समृद्ध बर्द्धमानपुरके पाश्व-जिनालयमें, जो नन्नराज वसतिके नामसे प्रसिद्ध था, इस ग्रन्थका प्रणयन आरम्भ हुआ और पीछे दोस्त टिकाके शान्ति-जिनालय में पूर्ण किया गया।
इसी वर्धमानपुरमें हरिषेणने भी अपने कथाकोषकी रचना की है। इस नगरकी अवस्थितिके सम्बन्धमें डॉ ए एन उपाध्ये का मत है कि यह वर्धमान
१. जैन साहित्य और इतिहास, द्वितीय संस्करण, पृ० ११५ । २. शायदशतेषु सप्तस दिशां पस्योत्तरेषत्तरां
चातीन्द्रायुधमाम्नि कृष्णनपजे श्रीवल्लभे दक्षिणाम् । पूर्वा श्रीमदवन्तिभूभूति नृपे वत्सादिराजेऽपरां
सूर्याणामधिमण्डल जमयुत धीरे करावति ।। कल्याणः परिबधमानविपुलश्रीवर्षमाने पुर
श्रीपापलियनन्न राजवसतो पर्याः शेषः पुरा । पश्चास्तटिकाप्रजाप्रजनितप्राज्यानावर्षमै
सान्नेः शास्तगृहे जिनम्य चितो बंशा हगणामयम् ।। हरिवंशपुराण, सर्ग ६६, पथ ५२, ५३ । २ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
पुर काठियावाड़का वर्तमान बढवान है । डॉ हीरालाल जैन इम नगरको मध्यप्रदेश के बार जिलंके बदनावर स्थानको मानते हैं।
डॉ० जैन का अभिमत है कि इस बदनावरमें प्राचीन जैन मन्दिरोंके भग्नावशेष आज भी विद्यमान हैं और यहाँ देवरिया---प्राचीन दोस्तटिवा नामक ग्राम भो गमीप है तथा हरिवंग, वणित गज्य-विभाजनकी मोमार्ग भी इम म्यानसे मम्यक घटित हो जाती है। डॉ जैन का कथन अधिक तम मंगल प्रतीत होता है। यत: जिनसेन मुनि का ५०-६० वर्ष पहले ही पुन्नाट मंघका उत्तर भारत में प्रबंश हो चुका था। अनः गिरनारकी यात्राक लिये संघ गया और वहाँ इग्निशपुराण नया उसके १.० वर्ष बाद कथा-कोपको रचना हुई, यह बात संदिग्ध-सी प्रतीत होती है। वर्धमानपुरको जन संघका केन्द्र होना चाहिए, जहाँ उक्त दोनो विशाल अन्य लिखे गाए । बहुन सम्भव है राष्ट्रकूट नरेशोंका मालवामें प्रभुत्व स्थापित होनेपर बदनावग्में जन पौटकी स्थापना हुई हो । जिस प्रकार पञ्चस्नुपान्वयी बीरसेन स्वामीका बाटनगरम ज्ञान केन्द्र था, सम्भवतः उसी प्रकार अमितसभने बदनावर में जानकेन्द्रकी म्ापना की हो और उमी केन्द्र में उपत दोनों ग्रन्थ की रचना मम्पन्न हुई हो। स्थिति-काल
जिनसेनने ग्रन्थ-रचनाका समय स्वयं निदिष्ट किया है । अतः इनके स्थिति कालके सम्बन्ध में मतभेदको आशंका नहीं की जा सकती। शक संवत् ७०५ ( ई० मन् ५८३ ) में हरिवंशपुराणको रचना सम्पन्न हुई है। यदि हरिबंशा पुगणक समय कविकी आयु ३०-३५ वर्षकी मानी जाय, तो कविका जन्म अनुमानतः ई. मम् ७४८ के लगभग आता है। यतः इतनी प्रौढ़ रचना इस अवस्थाके पूर्व नहीं हो सकती | कविकी आयु ७०-७५ वर्ष होना चाहिये । अनाव आचार्य जिनमेन प्रथमका समय लगभग ई० मन् ७४८-८१८ सिद्ध होता है।
कुवलयमालाके कर्ता उद्योतनसरिने अपनी 'कुवलयमाला में जिस तरह विषेणके 'पद्मचरित' और 'जासिंहनन्दिके 'बराङ्गचरित' को स्तुति की है, उसी प्रकार हरिवंशकी भी। उन्होंने लिखा है कि मैं हजारों विद्वज्जनोंके
-१. बृहत्कथाकोषको प्रस्तावना, पृ. १२१ । २. इण्डियन कल्चर खण्ड ११. मन् १.४४-४५, १० १६१ तथा जन सिद्धान्त भास्कर
भाग १२, किरण २ ।
प्रवृक्षाचार्य एवं परम्परपोपकाचार्य : ६
निय हरिवंशोत्पत्तिकारक प्रश्चम चन्दनीय और विमलपद हरिबंशकी बन्दना
करता हूँ।
इनकी एक ही रचना प्राप्त है, हरिवंशपुगण | यह दिगम्बर सम्प्रदायका प्रमुख पुराण-ग्रन्य है। रविषेणाचार्य कै पद्मपुराण और जटासिंहनन्दि के वराङ्ग चरित्र का इस पर प्रभाव है । जिनसेनने अपने हरिवंश महासेन की सुलोचना तथा अनन्य अंगोका भी उल्लेख किया है, किन्तु वे अभी तक प्राप्त नहीं है। हरिवंशपुराण की कथा वस्तु जिनमे उनकी अपने गुरु कीर्तिसेन से प्राप्त हुई थी। वर्णनशैली पर रविषेण के पप्रचरीत का पूर्ण प्रभाव है। जिस प्रकार रविषेण ने पप्रचरितमें वृत्तानुगन्धी मद्यका प्रयोग किया है, उसी प्रकार जिनसेनने भी हरिवंशके ४९ संगम नेमि जिनेन्द्रका स्तबन करते हुए वृत्तानुगन्धी गद्य का प्रयोग किया है। इस पुराणमन्यका लोक विभाग एवं शलाका पुरुषों का वर्णन त्रिलोकप्राप्तिसे मेल खाता है । द्वादशांग वर्णन तत्त्वार्थ वार्तिक के अनुरूप है । संगीतका वर्णन भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से अनुप्राणिन है । तस्व-प्रतिपादन में सत्वार्थसूत्र और सर्वार्थसिद्धिका आधार. ग्रहण किया गया है। अतएव इम पुराण-ग्रन्थपर पूर्वाचार्योका पूर्ण प्रभाव है।
हरिवंशपुराणकी कथावस्तु इस पुराणम रच तीर्थकर नेमिनाथका चरित्र निबद्ध है, पर प्रसंगोपात्त अन्य कथानक भी लिखे गये हैं। भगवान नेमिनाथके साथ नारायण श्री कृष्ण और बलभद्रपदके धारक श्री बलरामक भी कौतुकावह चरित्र अंकित हैं। पाण्डवों और कौरवोंका लोकप्रिय चरित भो बड़ा सुन्दरताके साब निबद्ध किया गया है। कथावस्तु १६ सोमें विभक्त है। प्रथम सर्गमें मंगलाचरण और अन्यकी महत्ता, द्वितीय सर्गमें तीर्थकर महावीरका जीवनवृत्त, तृतीय सर्गमें महावीरका समवशरण और विपुलाचर, पर उपदेश तथा त्रिषष्टि शलाकापुरुषके चरित्रोंको जाननेकी जिज्ञासा, चतुर्थ सममें अधोलोकका वर्णन, पञ्चम सर्ग में तिर्यकलोकका निरूपण, पष्ठ सर्ग में ज्योतिर्देव एवं उर्ध्व लोकका चित्रण, सप्तम सर्गमें कुलकरोकी उत्पत्ति और उनके द्वारा की गयो समाजव्यवस्थाका चित्रण, अष्टम सर्ग में आदि तीर्थकर ऋषभदेवका जन्म, नवम सर्गमें तीर्थंकर ऋषभदेवकी बाल कीड़ा, दोशाकल्याणक एवं जानकल्याणक का वर्णन किया गया है। दशम सम में मुनिधर्म और श्रावकधर्मके निरूपणके पश्चात् श्रुतज्ञानका चित्रण, एकादश
१. पहजासहस्सदयं हरिवंसुष्पतिकारय पार्म ।
बंदामि बंदिय पि है हरिदम चैत्र विमलपर्य ।। कुचलायमाला, माथा ३४. । ४ : तीर्थकर महाबीर और उनकी आचार्यपरम्परा
जैन काव्यों की महनीय परम्परा में, आचार्य जिनसेन (द्वितीय) द्वारा प्रणीत ‘पार्श्वाभ्युदय’ काव्य की उपादेयता सर्वविदित है। आचार्य जिनसेन (द्वितीय), आचार्य नेमिचंद्र शास्त्री की ऐतिहासिक कृति ‘तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा’ (खंड २) के अनुसार श्रुतधर और प्रबुद्धाचार्यों के बीच की कड़ी थे। इनकी गणना सारस्वताचार्यों में होती है। यह अपनी अद्वितीय सारस्वत प्रतिभा और अपार कल्पना-शक्ति की महिमा से ‘भगवत् जिनसेनाचार्य’ कहे जाते थे। यह मूलग्रंथों के साथ ही टीका ग्रंथों के भी रचयिता थे। इनके द्वारा रचित चार ग्रंथ प्रसिद्ध हैं-जयधवला टीका का शेष भाग, ‘आदिपुराण’ या ‘महापुराण’, ‘पार्श्वाभ्युदय’ और ‘वर्धमान पुराण’। इनमें ‘वर्धमान पुराण’ या ‘वर्धमान चरित’ उपलब्ध नहीं है।
आचार्य जिनसेन (द्वितीय) ईसा की आठवीं-नवीं शती में वर्तमान थे। यह काव्य, व्याकरण, नाटक, दर्शन, अलंकार, आचारशास्त्र, कर्म सिद्धांत प्रभृति अनेक विषयों में बहुश्रुत विद्वान थे। यह अपने योग्य गुरु के योग्यतम शिष्य थे। जैन सिद्धांत के प्रख्यात ग्रंथ ‘षट्खंडागम’ तथा ‘कसायपाहुड’ के टीकाकार आचार्य वीरसेन (सन् ७९२ से ८२३ ई.) इनके गुरु थे। क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी द्वारा सम्पादित ‘जैनेन्द्र सिद्धांत कोश’ में भी उल्लेख है कि आचार्य जिनसेन, धवला टीका के कत्र्ता श्री वीरसेन स्वामी के शिष्य तथा उत्तरपुराण के कत्र्ता श्री गुणभद्र के गुरु थे और राष्ट्रकूट-नरेश जयतुंग एवं नृपतुंग, अपरनाम अमोघवर्ष (सन् ८१५ से ८७७ ई.) के समकालीन थे। राजा अमोघवर्ष की राजधानी मान्यखेट में उस समय विद्वानों का अच्छा समागम था।
‘जैनेन्द्र सिद्धांत कोश’ के संदर्भानुसार आचार्य जिनसेन आगर्भ दिगम्बर थे; क्योंकि इन्होंने बचपन में आठ वर्ष की आयु तक लंगोटी पहनी ही नहीं और आठ वर्ष की आयु में ही दिगम्बरी दीक्षा ले ली। इन्होंने अपने गुरु आचार्य वीरसेन की, कर्मसिद्धांत-विषयक गं्रथ ‘षट्खंडागम’ की अधूरी ‘जयधवला’ टीका को, भाषा और विषय की समान्तर प्रतिपादन- शैली में पूरी किया था और इनके अधूरे ‘महापुराण’ या ‘आदिपुराण’ को (कुल ४७ पर्व) जो ‘महाभारत’ से भी बड़ा है, इनके शिष्य आचार्य गुणभद्र ने पूरा किया था। गुणसेन द्वारा पूरा किया गया अंश या शेषांश उत्तरपुराण नाम से प्रसिद्ध है। पंचस्तूपसंघ की गुर्वावलि के अनुसार वीरसेन के एक और शिष्य थे-विनयसेन। आचार्य जिनसेन (द्वितीय) ने दर्शन के क्षेत्र में जैसी अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया है, वैसी ही अपूर्व मनीषा काव्य के क्षेत्र में भी प्रदर्शित की है। इस संदर्भ में इनकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व की संस्कृत काव्यकृति ‘पार्श्वाभ्युदय’ उल्लेखनीय है। प्रस्तुत काव्य के अंतिम दो श्लोकों से ज्ञात होता है कि उपर्युक्त राष्ट्रकूटवंशीय नरपति अमोघवर्ष के शासनकाल में इस विलक्षण कृति की रचना हुई।
आचार्य जिनसेन राजा अमोघवर्ष के गुरु थे, यह काव्य के प्रत्येक सर्ग की समाप्ति में, मूल काव्य और उसकी सुबोधिका व्याख्या की पुष्पिका में उल्लिखित है: ‘इत्यमोघवर्षपरमेश्वर-परमगुरु श्री जिनसेनाचार्य विरचित मेघदूतवेष्टितवेष्टिते पार्श्वाभ्युदय....!’ प्रसिद्ध जैन विद्वान् श्री पन्नालाल बाकलीवाल के अनुसार राष्ट्र वूâटवंशीय राजा अमोघवर्ष ७३६ शकाब्द में कर्णाटक और महाराष्ट्र का शासक था। इसने लगातार तिरसठ वर्षों तक राज्य किया। इसने अपनी राजधानी मलखेड या मान्यखेट में विद्या एवं सांस्कृतिक चेतना के प्रचुर प्रचार-प्रसार के कारण विपुल यश र्अिजत किया था। ऐतिहासिकों का कहना है कि इस राजा ने ‘कविराजमार्ग’ नामक अलंकार-ग्रंथ कन्नड-भाषा में लिखा था। इसके अतिरिक्त, ‘प्रश्नोत्तर रत्नमाला’ नामक एक लघुकाव्य की रचना संस्कृत में की थी। यह राजा आचार्य जिनसेन के चरणकमल के नमस्कार से अपने को बड़ा पवित्र मानता था।
‘पार्श्वाभ्युदय के अंत में सुबोधिका-टीका, जिसकी रचना आचार्य मल्लिनाथ की मेघदूत-टीका के अनुकरण पर हुई है, के कत्र्ता पंडिताचार्य योगिराट् की ओर से ‘काव्यावतर’ उपन्यस्त हुआ है, जिससे ‘पार्श्वाभ्युदय’ काव्य की रचना की एक मनोरंजक पृष्ठभूमि की सूचना मिलती है-
एक बार कालिदास नाम का कोई ओजस्वी कवि राजा अमोघवर्ष की सभा में आया और उसने स्वरचित ‘मेघदूत’ नामक काव्य को अनेक राजाओं के बीच, बड़े गर्व से, उपस्थित विद्वानों की अवहेलना करते हुए सुनाया। तब, आचार्य जिनसेन ने अपने सतीथ्र्य आचार्य विनयसेन के आग्रहवश उक्त कवि कालिदास के गर्व-शमन के उद्देश्य से सभा के समक्ष उसका परिहास करते हुए कहा कि यह काव्य (मेघदूत) किसी पुरानी कृति से चोरी करके लिखा गया है, इसीलिए इतना रमणीय बन पड़ा है। इस बात पर कालिदास बहुत रुष्ट हुआ और जिनसेन से कहा-‘यदि यही बात है, तो लिख डालो कोई ऐसी ही कृति।’ इस पर जिनसेन ने कहा-‘ऐसी काव्यकृति तो मैं लिख चुुका हूँ, किन्तु है वह यहाँ से दूर किसी दूसरे नगर में। यदि आठ दिनों की अवधि मिले तो उसे यहाँ लाकर सुना सकता हूूँ।
आचार्य जिनसेन को राज्यसभा की ओर से यथाप्रार्थित अवधि दी गई और उन्होंने इसी बीच तीर्थंकर पापार्श्वथ की कथा के आधार पर ‘मेघदूत’ की पंक्तियों से आवेष्टित करके ‘पार्श्वाभ्युदय’ जैसी महार्घ काव्य रचना कर डाली और उसे सभा के समक्ष उपस्थित कर कवि कालिदास को परास्त कर दिया।
पार्श्वाभ्युदय’ का संक्षिप्त कथावतार इस प्रकार है-भरतक्षेत्र में सुरम्य नामक देश में पोदनपुर नाम का एक नगर था। वहाँ अरविन्द नाम का राजा राज्य करता था। उस राजा के कमठ और मरुभूति नाम के दो मंत्री थे, जो द्विजन्मा विश्वभूति तथा उसकी पत्नी अनुंधरी के पुत्र थे। कमठ की पत्नी का नाम वरुणा था और मरुभूति की पत्नी वसुन्धरा नाम की थी। एक बार छोटा भाई मरुभूति शत्रु-राजा वज्रवीर्य के विजय के लिए अपने स्वामी राजा अरविन्द के साथ युद्ध में गया। इस बीच मौका पाकर दुराचारी अग्रज कमठ ने अपनी पत्नी वरुणा की सहायता से भ्रातृ पत्नी वसुंधरा को अंगीकृत कर लिया। राजा अरविन्द जब शत्रु विजय करके वापस आया, तब उसे कमठ की दुर्वृत्ति की सूचना मिली। राजा ने मरुभूति के अभिप्रायानुसार नगर में प्रवेश करने के पूर्व ही अपने भृत्य के द्वारा कमठ के नगर-निर्वासन की आज्ञा घोषित कराई, क्योंकि राजा ने दुर्वृत्त कमठ का मुँह देखना भी गवारा नहीं किया। कमठ अपने अनुज पर क्रुद्ध होकर जंगल चला गया और वहाँ उसने तापस-वृत्ति स्वीकार कर ली । अपने अग्रज कमठ की निर्वेदात्मक स्थिति से जाने क्यों मरुभूति को बड़ा पश्चाताप हुआ। जंगल जाकर उसने अपने अग्रज कमठ को ढूँढ निकाला और वह उसके पैरों पर गिरकर क्षमा माँगने लगा। क्रोधान्ध कमठ ने पैरों पर गिरे हुए मरुभूति का सिर पत्थर मारकर फोड़ डाला, जिससे उसकी वहीं तत्क्षण मृत्यु हो गई।
इस प्रकार, अकालमृत्यु को प्राप्त मरुभूति आगे भी अनेक बार जन्म-मरण के चक्कर में पड़ता रहा। एक बार वह पुनर्भव के क्रम में काशी जनपद की वाराणसी नगरी में महाराज विश्वसेन और महारानी ब्राह्मी देवी के पुत्र-रूप में उत्पन्न हुआ और तपोबल से तीर्थंकर पापार्श्वथ बनकर पूजित हुआ। अभिनिष्क्रमण के बाद, एक दिन, तपस्या करते समय पापार्श्वथ को पुनर्भवों के प्रचंड में पड़े हुए संबर नाम के प्रसिद्ध कमठ ने देख लिया। देखते ही उसका पूर्व जन्म का वैर भाव जग पड़ा और उसने मुनीन्द्र पापार्श्वथ की तपस्या में विविध विघ्न उपस्थित किये। अंत में मुनीन्द्र के प्रभाव से कमठ को सद्गति प्राप्त हुई। जिज्ञासु जनों के लिए इस कथा का विस्तार जैन पुराणों में द्रष्टव्य है। मरुभूति का अपने भव से पापार्श्वथ के भव में प्रोन्नयन या अभ्युदय के कारण इस काव्यकृति का पार्श्वाभ्युदय नाम सार्थक है।
इस ‘पार्श्वाभ्युदय’ काव्य में कमठ यक्ष के रूप में कल्पित है और उसकी प्रेयसी भ्रातृपत्नी वसुन्धरा की यक्षिणी के रूप में कल्पना की गई है। राजा अरविन्द कुबेर है, जिसने कमठ का एक वर्ष के लिए नगर-निर्वासन का दण्ड दिया था। शेष अलकापुरी आदि की कल्पनाएँ ‘मेघदूत’ का ही अनुसरण-मात्र हैं।
He wrote the encyclopedic Adipurana. Mahapurana includes Ādi purāṇa and Uttarapurana, the project was completed by his pupil Gunabhadra.
Mahapurana is the source of the famous quote, used by Carl Sagan and many others.
https://hi.encyclopediaofjainism.com/index.php/
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#AcharyaJinsenSwami9thCenturyCE
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आचार्य श्री १०८ जिनसेन स्वामी 9वीं शताब्दी ई.पू
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 4 एप्रिल 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Sanjul Jain created wikipage for Maharaj ji on 25-Feb-2021
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 4-April- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
आचार्य जिनसेन प्रथम ऐसे प्रबुद्धाचार्य हैं जिनको वर्णन-क्षमता और काव्य-प्रतिभा अपूर्व है। इन्होंने हरिवंशपुराण नामक कृतिका प्रणयन किया है। ये पुन्नाटसंघके आचार्य हैं। इनके गुरु का नाम कीर्तिषेण था ।
हरिवंश-पुराण के ६६ वें सर्गमें भगवान महावीरसे लेकर लोहाचार्य पर्यन्त आचार्योंकी परम्परा अंकित है।
वीर निर्वाणके ६८३ वर्षके अनन्तर गुरु कीर्तिषेणकी अविक्छिन्न परम्परा इस ग्रन्थ में ली गयी है।
गुरु परंपरा मे अमितसेन को पुन्नाटगणका अग्रणी और शतवर्षजीबी बतलाया है। पुन्नाट कर्नाटकका प्राचीन नाम है ।
हरिषेणके कथाकोषमें आया है कि भद्रबाहु स्वामीके आदेशानुसार उनका संघ चन्द्रगुप्त या विशाखाचार्यके साथ दक्षिणापथके पुन्नाट देशमें गया ।
अतः इस देशके मुनिसंघका नाम पुन्नाठसंघ पड़ गया। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ श्री नाथूराम प्रेमीका अनुमान है कि अमितसेन पुन्नाटसंघको छोड़कर सबसे पहले उत्तर की ओर बढ़े होंगे और पूर्ववर्ती जयसेन गुरु तक यह संघ पुन्नाटमें ही विचरण करता रहा होगा । अतएव यह माना जा सकता है कि जिनसेनसे ५०-६० वर्ष पूर्व ही यह संघ उत्तरभारत में प्रविष्ट हुआ होगा।
हरिवंशकी रचना और रचना-स्थानका निर्देश करते हुए ग्रन्थकर्ताने लिखा है कि शक संवत् ७0५ ( ई० सन् ७८३ ) में जब कि उत्तर दिशाकी इन्द्रायुध, दक्षिण दिशाकी कृष्णका पुत्र श्रीवल्लभ, पूर्वकी अवन्तिनृपति वत्सराज और पश्चिमकी-सौरोंके अधिमण्डल सौराष्ट्रकी वीरजयवराह रक्षा करता था, तब लक्ष्मीसे समृद्ध वर्धमानपुरके पार्श्व -जिनालयमें, जो नन्नराज वसतिके नामसे प्रसिद्ध था, इस ग्रन्थका प्रणयन आरम्भ हुआ और पीछे दोस्त टिकाके शान्ति-जिनालय में पूर्ण किया गया।
इसी वर्धमानपुरमें हरिषेणने भी अपने कथाकोषकी रचना की है। इस नगरकी अवस्थितिके सम्बन्धमें डॉ० ए ० एन० उपाध्ये का मत है कि यह वर्धमान पुर काठियावाड़का वर्तमान बढवान है ।
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१. जैन साहित्य और इतिहास, द्वितीय संस्करण, पृ० ११५ ।
२. शायदशतेषु सप्तसु दिशां पस्योत्तरेषत्तरां
चातीन्द्रायुधमाम्नि कृष्णनपजे श्रीवल्लभे दक्षिणाम् ।
पूर्वा श्रीमदवन्तिभूभूति नृपे वत्सादिराजेऽपरां
सूर्याणामधिमण्डल जमयुत धीरे करावति ।।
कल्याणः परिबधमानविपुलश्रीवर्षमाने पुर
श्रीपापलियनन्न राजवसतो पर्याः शेषः पुरा ।
पश्चास्तटिकाप्रजाप्रजनितप्राज्यानावर्षमै
सान्नेः शास्तगृहे जिनम्य चितो बंशा हगणामयम् ।।
हरिवंशपुराण, सर्ग ६६, पथ ५२, ५३ ।
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डॉ हीरालाल जैन इम नगरको मध्यप्रदेश के बार जिलंके बदनावर स्थानको मानते हैं।
डॉ० जैन का अभिमत है कि इस बदनावरमें प्राचीन जैन मन्दिरोंके भग्नावशेष आज भी विद्यमान हैं और यहाँ से दुतरिया --प्राचीन दोस्तटिका नामक ग्राम भी समीप है तथा.हरिवंश मे वर्णित राज्य -विभाजनकी सीमाएँ भी इस स्थान से सम्यक घटित हो जाती है। डॉ जैनका कथन अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है। यत: जिनसेन सं ५०-६० वर्ष पहले ही पुन्नाट संघका उत्तर भारत में प्रवेश हो चुका था। अत: गिरनारकी यात्राक लिये संघ गया और वहाँ हरिवंशपुराण तथा उसके १५० वर्ष बाद कथा-कोषकी रचना हुई, यह बात संदिग्ध-सी प्रतीत होती है। वर्धमानपुरको जैन संघका केंद्र होना चाहिए, जहाँ उक्त दोनो विशाल ग्रंथ लिखे गए । बहुत सम्भव है राष्ट्रकूट नरेशोंका मालवामें प्रभुत्व स्थापित होनेपर बदनावर में जैन पिठकी स्थापना हुई हो । जिस प्रकार पञ्चस्नुपान्वयी वीरसेन स्वामीका बाटनगर में ज्ञान केंद्र था, सम्भवतः उसी प्रकार अमितसेनने बदनावर में ज्ञान केन्द्रकी स्थापना की हो और उसी केन्द्र में उक्त दोनों ग्रन्थ की रचना संपन्न हुई हो।
जिनसेनने ग्रन्थ-रचनाका समय स्वयं निदिष्ट किया है । अतः इनके स्थिति कालके सम्बन्ध में मतभेदकी आशंका नहीं की जा सकती। शक संवत् ७०५ ( ई० सन् ७८३ ) में हरिवंशपुराणको रचना सम्पन्न हुई है। यदि हरिवंश पुराण के समय कविकी आयु ३०-३५ वर्षकी मानी जाय, तो कवि का जन्म अनुमानतः ई. सन् ७४८ के लगभग आता है। यतः इतनी प्रौढ़ रचना इस अवस्थाके पूर्व नहीं हो सकती | कविकी आयु ७०-७५ वर्ष होना चाहिये । अतएव आचार्य जिनसेन प्रथमका समय लगभग ई० सन् ७४८-८१८ सिद्ध होता है।
कुवलयमालाके कर्ता उघोतनसुरिने अपनी 'कुवलयमाला में जिस तरह रविषेणके 'पद्मचरित' और 'जटासिंहनन्दिके 'वराङृचरित' की स्तुति की है, उसी प्रकार हरिवंशकी भी। उन्होंने लिखा है कि मैं हजारों विद्वज्जनोंके प्रिय हरिवंशोत्पत्तिकारक प्रथम वन्दनीय और विमलपद हरिवंशकी वंदना करता हूँ।
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१. वृहतकथाकोषकी प्रस्तावना, पृ. १२१ ।
२. इण्डियन कल्चर ,खण्ड ११. सन्१९४४-४५, पृ०१६१ तथा जैन सिद्धान्त भास्कर
भाग १२, किरण २ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोपकाचार्य :
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इनकी एक ही रचना प्राप्त है, हरिवंशपुराण | यह दिगम्बर सम्प्रदायका प्रमुख पुराण-ग्रन्थ है। रविषेणाचार्यके पद्मपुराण और जटासिंहनन्दिके वराङ्ग चरित्रका इसपर प्रभाव है । जिनसेनने अपने हरिवंश महासेनकी सुलोचना तथा अन्य अन्यान्य ग्रंथों का भी उल्लेख किया है, किन्तु वे अभी तक प्राप्त नहीं है। हरिवंशपुराण की कथावस्तु जिनसेनको अपने गुरु कीर्तिसेन से प्राप्त हुई थी। वर्णनशैलीपर रविषेणके पद्मचरितका पूर्ण प्रभाव है। जिस प्रकार रविषेण ने पद्मचरितमें वृत्तानुगन्धी गघका प्रयोग किया है, उसी प्रकार जिनसेनने भी हरिवंशके ४९ वे सर्ग मे नेमि जिनेन्द्रका स्तवन करते हुए वृत्तानुगन्धी गद्य का प्रयोग किया है। इस पुराणग्रंथका लोकविभाग एवं शलाकापुरुषोंका वर्णन त्रिलोकप्रज्ञप्तिसे मेल खाता है । द्वादशांगवर्णन तत्त्वार्थवार्तिकके अनुरूप है । संगीतका वर्णन भरतमुनिके नाट्यशास्त्रसे अनुप्राणिन है । तत्व -प्रतिपादन में तत्वार्थसूत्र और सर्वार्थसिद्धिका आधार. ग्रहण किया गया है। अतएव इम पुराण-ग्रन्थपर पूर्वाचार्योंका पूर्ण प्रभाव है।
इस पुराणमें २२ वे तीर्थकर नेमिनाथका चरित्र निबद्ध है, पर प्रसंगोपातअन्य कथानक भी लिखे गये हैं। भगवान नेमिनाथके साथ नारायण श्री कृष्ण और बलभद्रपदके धारक श्री बलरामका भी कौतुकावह चरित्र अंकित हैं। पाण्डवों और कौरवोंका लोकप्रिय चरित भी बड़ी सुन्दरताके साथ निबद्ध किया गया है। कथावस्तु ६६ सर्गो में विभक्त है। प्रथम सर्गमें मंगलाचरण और ग्रंथकी महत्ता, द्वितीय सर्गमें तीर्थकर महावीरका जीवनवृत्त, तृतीय सर्गमें महावीरका समवशरण और विपुलाचर, पर उपदेश तथा त्रिषष्टि शलाकापुरुषोंके चरित्रोंको जाननेकी जिज्ञासा, चतुर्थ सर्गमें अधोलोकका वर्णन, पञ्चम सर्ग में तिर्यकलोकका निरूपण, षष्ठ सर्ग में ज्योतिर्देव एवं उर्ध्व लोकका चित्रण, सप्तम सर्गमें कुलकरोकी उत्पत्ति और उनके द्वारा की गयी समाजव्यवस्थाका चित्रण, अष्टम सर्ग में आदि तीर्थकर ऋषभदेवका जन्म, नवम सर्गमें तीर्थंकर ऋषभदेवकी बाल क्रीड़ा, दीक्षाकल्याणक एवं ज्ञानकल्याणक का वर्णन किया गया है। दशम सर्गमें मुनिधर्म और श्रावकधर्मके निरूपणके पश्चात् श्रुतज्ञानका चित्रण, एकादश सर्ग में भरत का जीवन वृत्त और बाहुबली-दीक्षा, द्वादश सर्ग में जयकुमार और सुलोचना की कथा, त्रयोदश सर्ग में अजितनाथ तीर्थकर से लेकर शीतलनाथ तीर्थकर तक पौराणिक इतिवृत्त, चतुर्दश सर्ग में सुमुख और वनमाला की कथा एवं पञ्चदश सर्ग में हरिवंश का आदि इतिवृत्त अंकित है। षोडश सर्ग में मुनिसुव्रतनाथ तीर्थकरका जीवनवृत्त, सप्तदश सर्गमें मुनिसुव्रतनाथके पुत्र सुव्रतका जीवनवृत्त, अष्टादश सर्गमें अन्धकवृष्णिका जीवनवृत्त, एकोन्नविश सर्गमें वसुदेवका भ्रमणवृत्तान्त, विशति सर्गमें विष्णुकुमारकी कथा, एक विशति सर्गमें चारुदतका आख्यान, द्वाविंशति सर्गमें वसुदेवकी कथा, त्रयोविशति सर्गमें वसुदेव और सोमश्रीके विवाहका वर्णन एवं चतुर्विशति सर्गमें वसुदेव और वनमालाके विवाहकी कथा अंकित है। पच्चोसवें में और छब्बीसवें सर्गमें विभिन्न कन्याओंके साथ वसुदेवके विवाहका चित्रण आया है। सत्तईसवें सर्गमें श्रीभूति पुरोहितकी कथा, अट्ठाईस सर्गमें मृगध्वज केवली और महिषका वृत्तान्त, उनतीसर्वे सर्गमें वसुदेव और बन्धुमती तथा प्रियंगु सुन्दरीकी प्राप्तिका चित्रण है। तीसवें सर्ग में वसुदेवका वेगवती और प्रभावतीकी प्राप्तिका वर्णन आया है। इकतीसवे सर्ग में वसुदेवका अपने बड़े भाई समुद्रविजय से मिलना वर्णित हैं । बत्तीसवें सर्गमें वसुदेवकी रोहिणी नामक स्त्रीसे बलराम नामक पुत्रकी उत्पत्ति का वर्णन है। तेतीसवें सर्गमें जरासंध और कंसकी कथा आयी है । चौंतीसर्व सर्गमें नेमिनाथके पूर्वभवोंका वर्णन, पैतीसवें सर्ग में कृष्ण-जन्म, छत्तीसवें में बलभद्र और कृष्णका कंसके साथ युद्ध, संतीसवें सर्गमें नेमिनाथके गर्भकल्याणक और अड़तीसवें सर्गमें नेमिनाथके जन्मका वर्णन आया है। उनतालीसवे सर्गमें तीर्थंकर नेमिनाथकी परिचर्या और चालीसवें सर्गमें जरासंघ द्वारा शौरीपुर पर आक्रमण करना वर्णित है। इकतालीसवें सर्गमें कृष्ण द्वारा परमेष्ठीका ध्यान; बयालीसवें सर्गमें नारदका द्वारिकामें आगमन और तैतालीसवे सर्गमें प्रद्युम्न के पूर्वभवोंका वर्णन आया है। चवालीसवें सर्गमें श्रीकृष्णका जाम्बवती, लक्ष्मणा, सुधीमा, गौरी, पद्मावती और गान्धारी के साथ विवाहित होना वर्णित है। पैंतालीसवें सर्गमें पाण्डवोंका यादवोके यहाँ द्वारिकामें जाना और लाक्षागृहमें आग लगनेपर अज्ञातरूपसे पाण्डवोंका निकल जाना वर्णित है। छयालीसवें और सैंतालीसवें सर्गमें भीमका कीचकके साथ युद्ध वर्णित है । अड़तालीसवें सर्गमें यदुवंश कुमारओंका वर्णन तथा
उनचासवें सर्गमें कृष्णकी छोटी बहनको सुन्दरता और तपस्याका वर्णन आया है। पचासवे, इक्यावनवे और बावनवे सर्गमें जरासंध और कृष्णके युद्धका वर्णन है। तिरेपनवें सर्गमें कृष्णकी विजय, चौवन- सर्गमें नारदका द्रौपदीसे रुष्ट होकर प्रतिशोध लेना वर्णित है । पचयनवे सर्ग में नेमिनाथके विवाहकी तैयारियाँ
और उनके वैराग्यका चित्रण आया है । छप्पनवें सर्गमें नेमिनाथकी तपस्या और केवलज्ञानकी उत्पत्ति, सत्तावनवें सर्गमें समवशरण, अट्टानवे सर्गमें नेमिनाथकी दिव्यध्वनि एवं उनसठवें सर्गमें नेमिनाथक विहारका वर्णन आया है। साठवें सर्गमें गजकुमारके निवेदका वर्णन आया है | इकसठवें सर्गमें द्वारिकाका भस्म होना, बासठवें सर्गमें कृष्णकी मृत्यु, तिरेसठबौं सर्गमें श्रीकृष्णका दाह-सस्कार वणित है। चौसठवें सर्गमें नेमिनाथका पल्लवदेशमें बिहार, पैंसठवें में पाण्डवोंकी तपस्या एवं छियासठवें सर्गमें भगवान महावीरके निर्वाणका प्रसंग वर्णित है । इस प्रकार इस ग्रन्थ में त्याग, संयम और अहिंसाकी त्रिवेणी समाहित है। नेमिनाथ का पावन जीवन मानव-जीवनके समक्ष कर्त्तव्य और आदर्शकी स्पष्ट रूप रेखा प्रस्तुत करता है।
१. पहजासहस्सदयं हरिवंसुष्पतिकारय पढ़मं।
बंदामि बंदिय पि है हरिदम चैत्र विमलपर्य ।।
कुचलयमाला, गाथा ३८ . ।
-हरिबशपुराण ज्ञानकोष है। इसमें कम-सिद्धान्त, आचारशास्त्र, तत्वज्ञान एवं आत्मानुभूति सम्बन्धी चर्चा निबद्ध हैं । यह पुराणग्रन्थ होने पर भी उच्चकोटिका महाकाव्य है । सैंतीसवें सर्गमे साहित्यिक सुषमाकी बुद्धि उत्तरोत्तर परिलक्षित होने लगती है। इस ग्रन्थका पचवनवा सर्ग तो यमकादि शब्दालंकारोंकी दृष्टि से महत्वपूर्ण है । ऋतु-वर्णन, चन्द्रोदय-वर्णन, वन, पर्वत, नगर, सरोबर, ऊषा, सन्ध्या आदिका चित्रण महाकाव्ये के अनुरूप आये हैं। कृष्णकी मत्यु के उपरान्त बलदेव द्वारा किया गया करुण विलाप पाषाणहृदयको भी द्रवित करने में समर्थ है। नेमिनाथकी वैराग्य चित्रण प्रत्येक संसारीको माया-ममतासे विमुख होनेका संकेत करता है। राजीमतिके परित्यागपर पाठकोंके नेत्रोंस सहानुभूतिकी अश्रुधारा प्रवाहित हुए बिना नहीं रहती । कवि वसन्तऋतुके वर्णन-प्रसंगमें पुष्पावचय-क्रीडाका जीवन्त चित्रण उत्प्रेक्षा द्वारा करता हुआ कहता है--
कुसुमभारभूतः प्रणता भृशं प्रणयभङ्गभियेव नता द्रुमाः ।
युवतिहस्तधुता: कुसुमोच्चयेऽतनुसुखं तरुणा इव भेजिरे ।।
अनसिनम्नसया निजशाखमा कथमपि प्रमदाकरलब्धया ।
तरुमणः कुसुमग्रहणे मजदृढकचग्रहसौख्यमिव प्रभुः ॥
पुष्पोंके भारको धारण करनेवाले वृक्ष अत्यन्त नमीभूत हो रहे थे। उससे वे ऐसे प्रतिभासित होते थे, मानों स्नेहभंगके भयसे ही नम्रीभूत हों, पुरुषोंके समान अतनु- बहुत भारी अथवा कामसम्बन्धी सुखका अनुभव प्राप्त कर
१ हरिवंशपुराण, पचपनयां सर्ग, पद्य ३१ , ४० ।
पुष्पावचय करते समय वृक्षोंकी ऊँची शाखाओंको सुन्दरियाँ किसी प्रकार अपने हाथसे पकड़ कर नीचेकी ओर खींच रही थीं, उससे वे वृक्ष नायकके समान प्रेयमी द्वारा केश खींचनेके गुणानुभव कर रहे हैं।
उपयुक्त मनोरम वर्णनके लिये कविने रस-वर्षक, दुतविलम्बित छन्दको चुना है, जो कि कविको काव्य-ज्ञान सम्बन्धी विशेष प्रज्ञाका सूचक है। कृष्णाकी मृत्यु हो जानेपर बलराम द्वारा जगाये जानेपर भी जब वे जागते नहीं तब बलराम नारायणको सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि अब सोनेका समय नहीं, अतः उठना चाहिये । इस सन्दर्भमें कविने कल्पनाको ऊँची उडानके साथ श्लेषालङ्कारका प्रयोग कर काव्य चमत्कार प्रस्तुत किया है
वारुणीमलिनिषेव्य वारुणश्चक्रवाकनिन हेरुभिः ।
शोचित्तः पतितभाः मानधः को न वा पतितवारुणीप्रियः ।।
सूर्य वारुणी-पश्चिम दिशारूपी मदिरा का अधिक सेवन कर लाल-लाल हो रहा है। इसको मूछित दीन-दशापर चक्रवाकपक्षियों का समूह अश्व-वर्षा करता हुआ शोक प्रकट कर रहा है। सत्य है वारुणीके सेवनसे किसका अधः पतन नहीं होता।
इस पद्य में कविने सूर्य की रूपाकृति बिम्ब द्वारा मन्ध्यासमयका संकेत प्रस्तुत किया है। साथ ही मदिरा-पानके दोषोंपर भी प्रकाश डाला है।
आचार्य जिनसेन द्वन्द्वात्मक स्थितियों के चित्रणमें भी अत्यन्त पटु है । नेमि कुमारके विवाह के अवसरपर एकत्र पशु-समूहको विह्वल स्थितिका तो मूर्तिमान चित्रण है ही, साथ ही नेमिकुमारके हृदयकी आन्तरिक अवस्थाका बहुत ही स्पष्ट चित्र उपस्थित किया है । आचार्य ने लिखा है
स खलु पश्यति तत्र तदा बने विविधजातिभृतस्तृणभक्षिणः ।
भयविकम्पितमानसगाकान् पुरुषरुद्धमगानतिविह्वलान् ।।
रणमुखेषु रणाजितकीतयः करितुरङ्गरथेष्वपि निर्भयान ।
अभिमुखानभिहन्तुधिष्ठितानभिमुखाः प्रहरन्ति न हीतरान् ॥
एकत्रपशु भयसे अत्यन्त विह्वल हैं। उन्हें एक स्थानपर बलपूर्वक अवरुद्ध किया गया है। वे अपने प्राण जानेकी आशंकासे अत्यन्त त्रस्त हैं और अपनी
१. हरिवंशपुराण, सर्ग ६३, पद्य ३० । २. वहीं, सर्ग ५५, पद्य ८५, १० ।
प्रबुद्धचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : "
असमर्थ अवस्थापर आंसू बहाते हैं । जब नेमिकुमारको पशुओंका चीत्कार सुनाई पड़ता है तो बे द्रवीभूत हो जाते हैं और उनके अन्तस्में द्वंदउत्पन्न हो जाता है। वे सोचते हैं कि जिन पशुओका उपयोग रणभूमिमें सवारीके लिये करते हैं, जो ममुष्यको नाना प्रकार की आवश्यकताओंको पूर्ण करते हैं, जो पूर्णत: निर्दोष हैं उन पशुओंपर मांसलोलुपी यह मानव किस प्रकार अस्त्र प्रहार करता है ? उनकी विचारधारा और आगेकी ओर बढ़ती है और दे गम्भीरतापूर्वक सोचने लगते हैं..
चरणकण्टकवेधभयाभूटा विदधते परिधानमुपानहाम् ।।
मृदुमृगान् मृगयासु पुनः स्वयं निशितशस्त्रशतः प्रहन्ति हि ।।
क्रूर मनुष्यको धिक्कार है, जो स्वयं तो पैरमे कांटा चुभनेके भयसे जूता धारण करता है, पर मूक पशुओपर तीक्ष्ण शस्त्र प्रहार करता है ।
आचार्य ने अपने इस पुराणको सरल बनाने के लिये विभिन्न छन्दोंका प्रयोग तो किया ही है, साथ ही मौनं सार्थसाधनम्' (९| १२९ .) 'दुबारा भवितव्यता' (६१| ७७ ) 'किन्न स्याद् गुरुसेवया,' ९ |१३१) 'पुण्यस्य किमु दुष्करम्,' (१६}४६) 'पातकालतनं घ्र बम्, । १७|१५१ ) 'जातनां हि समस्तानां जोवानां नियता मृती,' १६१ ।२० जसो सूक्तियोंका मणि-काञ्चन संयोग वर्तमान हैं 1
साहित्यिक सुषमाके साथ अष्टिविटा धर्मशास्त्र, तत्वज्ञान, षद्रव्य, पञ्चा स्सिकाय आदिका भी विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। आचार्य जिनसेनन अपने समयकी राजनीतिक परिस्थितिका भी चित्रण किया है !
गुरु | आचार्य श्री कोतिषेण |
शिष्य | आचार्य जिनसेन स्वामी (प्रथम) |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Jinasena (c. 9th century CE) was a monk and scholar in the Digambara tradition of Jainism. He was patronized by the Rashtrakuta king Amoghavarsha I. He was the author of Adipurana and Mahapurana.
Jinasena was the disciple of Acharya Virasena and he completed the commentary Dhavala on Ṣaṭkhaṅḍāgama, a revered text in the Digambara tradition. The name is shared by an earlier Acharya Jinasena who was the author of Harivamsa Purana
Acharya Jinasena was a 9th-century CE Jain scholar who belonged to the Panchastupanvaya.He was a disciple of Virasena. He claimed that Rishabhanatha first taught humanity how to extract sugarcane juice and that the fire by itself was not divine. Rastrakuta king Amoghavarsha was his disciple.
He wrote the encyclopedic Adipurana. Mahapurana includes Ādi purāṇa and Uttarapurana, the project was completed by his pupil Gunabhadra.
Mahapurana is the source of the famous quote, used by Carl Sagan and many others.
https://en.wikipedia.org/wiki/Jinasena
Acharya Shri 108 Jinsen Swami 9th Century CE
Sanjul Jain created wikipage for Maharaj ji on 25-Feb-2021
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 4-April- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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