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#Joindo
*आचार्य जोइन्दु और उनका साहित्य
आचार्य श्री कुन्दकुन्द जी द्वारा प्रवर्धित एवं पूज्यपाद आदि आचार्यों द्वारा पोषितअध्यात्म-परम्परा को नये आयाम देने वाले जैन योग एवं अध्यात्म के महान आचार्य जोइन्दु के यशःप्रसार के लिये ‘परमात्मप्रकाश' व 'योगसार जैसे ग्रंथों के रहते किसी नवीन परिचय की वस्तुतः आवश्यकता नहीं है। उनके कृतित्व की जितनी जनख्याति है, उनके व्यक्तित्व के बारे में आज भी अनेकों जिज्ञासायें पूर्ववत् विद्यमान हैं।
श्री ‘परमात्मप्रकाश' ग्रन्थ में इन्होंने अपना नाम जोइन्दु दिया है, जोकि विशुद्ध अपभ्रंश रूप में इनका निर्विवाद नाम माना जाता है; किन्तु इसके संस्कृतनिष्ठ रूपों के बारे में पर्याप्त मतभेद हैं । जोइन्दु' की अपेक्षा 'योगीन्दु इनका नाम स्वीकार कर इस समस्या का एकपक्षीय समाधान सोच लिया जबकि आ. ब्रह्मदेव सूरि, आ. श्रुतसागर सूरि तथा आ. पद्मप्रभमलधारिदेव आदि अनेक प्राचीन आचार्यों ने इन्हें 'योगीन्द्र' नाम से अभिहित किया है। ।
व्याकरणिक दृष्टि से विचार किया जाये तो अपभ्रंश भाषा की उकार बहुला-पद्धति को प्रायः सभी विद्वानों व भाषाविदों ने स्वीकार किया है। तदनुसार जैसे नरेन्द्र' का 'नरिंदु', 'पत्र' का पत्रु' रूप अपभ्रंश में बनता हैं। वैसे ही योगीन्द्र>जोईन्द>जोइन्दु रूप भी सहज समझ में आ सकने वाला तथ्य है। केवल इतना ही नहीं, इन्होंने स्वयं भी अपना नाम 'योगीन्द्र' स्वीकारा है। अमृताशीति इनका प्रथम संस्कृत ग्रंथ प्राप्त हुआ है, इसके अंतिम पद्य में “योगीन्द्रो वः सचन्द्रप्रभविभुरविभुमंगलं सर्वकालम्" कहकर अपने नाम का संस्कृत रूपान्तर योगीन्द्र संकेतित किया है। टीकाकार आचार्य बालचन्द्र अध्यात्मी ने भी टीका में अनेकत्र इनका नाम योगीन्द्र प्रयोग किया है, तथा अंत में भी "श्री योगीन्द्रदेवकृतामृताशीतिनामधेययोगग्रन्थः समाप्तः" कहकर उपसंहार किया है। यह तथ्य भी इस संदर्भ में अति विचारणीय है कि आधुनिक विद्वानों के अतिरिक्त किसी भी प्राचीन आचार्य, विद्वान या लिपिकार
प्रसममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
*आचार्य जोइन्दु और उनका साहित्य
आचार्य श्री कुन्दकुन्द जी द्वारा प्रवर्धित एवं पूज्यपाद आदि आचार्यों द्वारा पोषितअध्यात्म-परम्परा को नये आयाम देने वाले जैन योग एवं अध्यात्म के महान आचार्य जोइन्दु के यशःप्रसार के लिये ‘परमात्मप्रकाश' व 'योगसार जैसे ग्रंथों के रहते किसी नवीन परिचय की वस्तुतः आवश्यकता नहीं है। उनके कृतित्व की जितनी जनख्याति है, उनके व्यक्तित्व के बारे में आज भी अनेकों जिज्ञासायें पूर्ववत् विद्यमान हैं।
श्री ‘परमात्मप्रकाश' ग्रन्थ में इन्होंने अपना नाम जोइन्दु दिया है, जोकि विशुद्ध अपभ्रंश रूप में इनका निर्विवाद नाम माना जाता है; किन्तु इसके संस्कृतनिष्ठ रूपों के बारे में पर्याप्त मतभेद हैं । जोइन्दु' की अपेक्षा 'योगीन्दु इनका नाम स्वीकार कर इस समस्या का एकपक्षीय समाधान सोच लिया जबकि आ. ब्रह्मदेव सूरि, आ. श्रुतसागर सूरि तथा आ. पद्मप्रभमलधारिदेव आदि अनेक प्राचीन आचार्यों ने इन्हें 'योगीन्द्र' नाम से अभिहित किया है। ।
व्याकरणिक दृष्टि से विचार किया जाये तो अपभ्रंश भाषा की उकार बहुला-पद्धति को प्रायः सभी विद्वानों व भाषाविदों ने स्वीकार किया है। तदनुसार जैसे नरेन्द्र' का 'नरिंदु', 'पत्र' का पत्रु' रूप अपभ्रंश में बनता हैं। वैसे ही योगीन्द्र>जोईन्द>जोइन्दु रूप भी सहज समझ में आ सकने वाला तथ्य है। केवल इतना ही नहीं, इन्होंने स्वयं भी अपना नाम 'योगीन्द्र' स्वीकारा है। अमृताशीति इनका प्रथम संस्कृत ग्रंथ प्राप्त हुआ है, इसके अंतिम पद्य में “योगीन्द्रो वः सचन्द्रप्रभविभुरविभुमंगलं सर्वकालम्" कहकर अपने नाम का संस्कृत रूपान्तर योगीन्द्र संकेतित किया है। टीकाकार आचार्य बालचन्द्र अध्यात्मी ने भी टीका में अनेकत्र इनका नाम योगीन्द्र प्रयोग किया है, तथा अंत में भी "श्री योगीन्द्रदेवकृतामृताशीतिनामधेययोगग्रन्थः समाप्तः" कहकर उपसंहार किया है। यह तथ्य भी इस संदर्भ में अति विचारणीय है कि आधुनिक विद्वानों के अतिरिक्त किसी भी प्राचीन आचार्य, विद्वान या लिपिकार
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Smirti Granth
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आचार्य श्री १०८ जोइन्दो
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*आचार्य जोइन्दु और उनका साहित्य
आचार्य श्री कुन्दकुन्द जी द्वारा प्रवर्धित एवं पूज्यपाद आदि आचार्यों द्वारा पोषितअध्यात्म-परम्परा को नये आयाम देने वाले जैन योग एवं अध्यात्म के महान आचार्य जोइन्दु के यशःप्रसार के लिये ‘परमात्मप्रकाश' व 'योगसार जैसे ग्रंथों के रहते किसी नवीन परिचय की वस्तुतः आवश्यकता नहीं है। उनके कृतित्व की जितनी जनख्याति है, उनके व्यक्तित्व के बारे में आज भी अनेकों जिज्ञासायें पूर्ववत् विद्यमान हैं।
श्री ‘परमात्मप्रकाश' ग्रन्थ में इन्होंने अपना नाम जोइन्दु दिया है, जोकि विशुद्ध अपभ्रंश रूप में इनका निर्विवाद नाम माना जाता है; किन्तु इसके संस्कृतनिष्ठ रूपों के बारे में पर्याप्त मतभेद हैं । जोइन्दु' की अपेक्षा 'योगीन्दु इनका नाम स्वीकार कर इस समस्या का एकपक्षीय समाधान सोच लिया जबकि आ. ब्रह्मदेव सूरि, आ. श्रुतसागर सूरि तथा आ. पद्मप्रभमलधारिदेव आदि अनेक प्राचीन आचार्यों ने इन्हें 'योगीन्द्र' नाम से अभिहित किया है। ।
व्याकरणिक दृष्टि से विचार किया जाये तो अपभ्रंश भाषा की उकार बहुला-पद्धति को प्रायः सभी विद्वानों व भाषाविदों ने स्वीकार किया है। तदनुसार जैसे नरेन्द्र' का 'नरिंदु', 'पत्र' का पत्रु' रूप अपभ्रंश में बनता हैं। वैसे ही योगीन्द्र>जोईन्द>जोइन्दु रूप भी सहज समझ में आ सकने वाला तथ्य है। केवल इतना ही नहीं, इन्होंने स्वयं भी अपना नाम 'योगीन्द्र' स्वीकारा है। अमृताशीति इनका प्रथम संस्कृत ग्रंथ प्राप्त हुआ है, इसके अंतिम पद्य में “योगीन्द्रो वः सचन्द्रप्रभविभुरविभुमंगलं सर्वकालम्" कहकर अपने नाम का संस्कृत रूपान्तर योगीन्द्र संकेतित किया है। टीकाकार आचार्य बालचन्द्र अध्यात्मी ने भी टीका में अनेकत्र इनका नाम योगीन्द्र प्रयोग किया है, तथा अंत में भी "श्री योगीन्द्रदेवकृतामृताशीतिनामधेययोगग्रन्थः समाप्तः" कहकर उपसंहार किया है। यह तथ्य भी इस संदर्भ में अति विचारणीय है कि आधुनिक विद्वानों के अतिरिक्त किसी भी प्राचीन आचार्य, विद्वान या लिपिकार
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