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#NamisagarJiMaharaj1888ShantiSagarJi
Acharya Shri 108 Namisagarji Maharaj was born in year 1888 and he took initiation from Acharya Shri 108 Shanti Sagar Ji Maharaj in year1929 at Sonagiri Siddha Kshetra.
Acharya Shri 108 Devendra Kirti Ji Maharaj | |
1.Charitrachakravarti Acharya Shri Shanti Sagar Ji Maharaj 1872 | |
2.Acharya Shri 108 Namisagar Ji Maharaj 1888 | |
Source 1:-Jinagam Saar
आचार्य श्री १०८ नमिसागर जी महाराज
संक्षिप्त परिचय
जन्म: विक्रम संवत १९४५ ,ज्येष्ठ कृष्णा ४ २९ मई १८८८
जन्म नाम : होनप्पा
जन्म स्थान : शिवपुर नगर जिला बेलगाँव
माता जी नाम : श्रीमती कलादेवी जी
पिताजी नाम : श्री यादवराय
ब्रह्मचर्य व्रत :
क्षुल्लक दीक्षा : सन १९२३
क्षुल्लक दीक्षा स्थान : बोर गाँव
क्षुल्लक दीक्षा गुरु : आचार्य श्री १०८ शांति सागर जी महाराज
ऐलक दीक्षा : सन १९२५
ऐलक दीक्षा स्थान : सम्मेद शिखर जी
ऐलक दीक्षा गुरु : आचार्य श्री १०८ शांति सागर जी महाराज
मुनि दीक्षा : सन १९२९ मार्ग शीर्ष सुदी १५
मुनि दीक्षा स्थान : सोनागिरी सिद्ध क्षेत्र
मुनि दीक्षा गुरु : आचार्य श्री १०८ शांति सागर जी महाराज
आचार्य पद : सन १९४५
आचार्य पद स्थान :
आचार्य पद गुरु : आचार्य श्री १०८ कुन्थु सागर जी महाराज
समाधि मरण : सन १९५७
आचार्य श्री नमिसागरजी महाराज
पूज्य प्राचार्यश्री का जन्म विक्रम १६४५ ज्येष्ठ कृष्णा चतुथीं मंगलवार तदनुसार ता० २६ मई सन् १८८८ को दक्षिण प्रान्त के शिवपुर नगर जिला बेलगांव में हुआ था। इनके शिताजी का नाम श्री यादवराय तथा मातेश्वरी का नाम श्रीमती कलादेवी था । ये दक्षिण प्रान्तीय प्रसिद्ध जैन क्षत्रिय पंचम जाति के व्यापारी थे। श्री यादवरायजी के कुल तीन संतान उत्पन्न हुई, जिनमें पहली संतान कुछ दिन जीवित रहकर चिर निद्रित हो गई। द्वितीय पूज्य आचार्य महाराज हैं, जिनका तत्कालीन नाम होनप्पा रखा गया। इनके पीछे प्राय: दो ढाई वर्ष बाद एक छोटा भाई और हुमा । ये दो वर्ष के भी पूर्ण न होने पाये थे कि इनके पिताजी दिवंगत हो गये और उनकी छत्र-छाया इनके ऊपर से सदैव के लिये उठ गई । उस समय इनके छोटे भाई की अवस्था प्रायः ३ मास की थी इनकी विदुषी माता ने दोनों का लाक्न-पालन किया तथा शिक्षित बनाने के लिये
उसी गांव की राजकीय शाला में बैठा दिया। दो तीन कक्षा तक ही प्रारम्भिक शिक्षा ले पाये थे कि अभाग्यवशत मित्ति का पहाड़ टूट पड़ा और इनकी माताजी का भी स्वर्गवास हो गया । उस समय इनकी प्रायु १२ अर्ष की होगी, घर में कोई बड़ा न होने से खर्च का सारा बोझ इन्हीं के ऊपर पा पड़ा, समस्या खड़ी विकट थी, आजीविका का और कोई उपाय न था, अतः इच्छा न होते हुए भी पढ़ाई का कामा छोड़ना पड़ा। फिर भी अपने भाई को पढ़ाने का पूरा ध्यान रखा।
इनका पैतृक व्यापार बर्तनों की दुकान का था । अपने पूर्वजों की छोड़ी हुई पर्याप्त जमीन भी थी कुछ समय तक तो अभ्यास न होने से कुछ कष्ट सहा, पर बाद में अपनी कुशलता से उन दोनों कार्यों को बड़ी सावधानी से सम्भाल लिया ।
२६ वर्ष की प्रायु अर्थात् सन् १९१४ में आपका विवाह हो गया । चार वर्ष बाद द्विरागमन ( गोना) हुआ । उससे आपके पुत्र उत्पन्न हुआ किन्तु तीन महीने बाद ही वह काल कवलित हो गया। इस दुःख को भूल भी न पाये थे कि उनके तीन मास पीछे ही आपकी धर्मपत्नी का भी सदैव के लिये वियोग हो गया । इस प्रकार प्रायः डेढ़ वर्ष तक ही आपको स्त्री का संयोग रहा अब आपने दूसरा विवाह न करने का निश्चय कर लिया।
हम पहिले ही लिख चुके हैं कि ये व्यापार में बड़े कुशल थे तथा समय समय पर अन्य व्यापार भी करते थे। एक बार कपास (रूई ) के व्यापार निमित्त आपको सेरदाड़ राज्यान्तर्गत जाम्बागी नामक मांव में जाना पड़ा । वहां पर इनको व्यापार सम्बन्धि कार्याधिक्य से दिन में भोजन बनाने का अवकाश न मिला। दक्षिन प्रान्स में अपने ही हाथ से भोजन बनाकर खाने की प्रथा है। मतः रात्रि में ही इन्होंने अपने हाथ से भोजन बनाना प्रारम्भ कर दिया । उन दिनों तक जैन कुल में उत्पन्न होते हुए भी शिक्षा के प्रभाव से धार्मिक भावना जागृत नहीं हुई थी, अतः रात्रि में भी भोजन कर लेते थे । इन्होंने भात बनाने के लिए उबलते हुए पानी में चावल डाले । स्मृति-दोष से उसका ढक्कन न रख पाये । दूध, दही, मीठा लेने के लिये नौकर को बाजार भेज दिया, उधर न मालूम कब दो बड़े बड़े कीड़े उसमें मिर पड़े । जब भोजन करने बैठे तब भात परोसने के साथ वे दोनों कोड़े,भी उस थाल में परस गये । उनको देखकर इनके मन में बड़ी ग्लानि उत्पन्न हुई । विचारने लगे कि अपने पेट भरने के लिये मेरे द्वारा इन दो जीवों का व्यर्थ में वध हो गया, अगर मैं रात्रि को भोजन न करता तो यह जीवों की हिंसा न होती । बहुत पश्चात्तप किया तथा प्रात्मनिन्दा और गहीं भी की । उस समय तो भोजन किया ही नहीं बल्कि रात्रि भोजन को महान् हिंसा का कारण जान जन्म पर्यन्त के लिये त्याग कर दिया।
इस घटना से ही इनके जीवन में परिवर्तन हो गया। कार्यभार अपने छोटे भाई को सौंप दिया और पाप गृह से उदास हो गये । तीन वर्ष तक संवेगी श्रावक दशा में रहे, आपका यह समय तीर्थ-यात्रा और सत्संगति में ही व्यतीत हुआ । सन् १९२३ में प्रापने बोर गांव में श्री १०८ पूज्य आदि सागर मुनिराज से विधिवत् क्षुल्लक दीक्षा ले ली और नाम श्री पायसागर रखा गया।
१९२५ में सम्मेद शिखरजी की यात्रा जाने वाले प्राचार्य शान्तिसागरजी महाराज के विशाल संघ में शामिल होकर आपने इन्हीं से विधिपूर्ण ऐलक दीक्षा ले ली । उस समय आपका नाम नमिसागर रखा गया । ऐलक अवस्था में आप पांच वर्ष रहे । और संघ के साथ १९२६ से १९२६ तक जयपुर, कटनी (मध्यप्रान्त) ललितपुर (उत्तर सान्त) में बापने चतुर्मास किये । इसी मध्य में संघ ने तीर्थराज की वंदना को
सन् १९२९ में आप प्राचार्य कुन्थुसागरजी महाराज के संघ में रहने लगे और उनकी अंत अवस्था जानकर उनको वैयावृत्ति की । आचार्य श्री ने सपना अन्त समय जानकर आचार्य पद के लिय समस्त संघ के मुनियों को प्राज्ञा दी कि नमिसागरचो को अपना प्राचार्य मानना । सन् १९४५ में आप आचार्य पद पर आसीन हुए उसके बाद अनेक स्थानों पर भ्रमण करके जनता को सही मार्ग दर्शन दिया।
ध्यान:
आप जब ध्यान में लीन होते हैं उस समय आपकी मुद्रा दर्शनीय है । प्राये हुए बड़े से बड़े उपसर्गों को आप बड़ी आसानी से सहन कर लेते हैं, कभी कभी तो ऐसे भी अवसर आ गये हैं जबकि उपवासादिकों के दिनों में अशक्तता के कारण आप गिर भी गये हैं पर फिर भी ध्यान से विचलित नहीं हुए । बागपत ( मेरठ ) में जब आप डेढ़ मास रहे तो वहां शीतकाल में जमुना के किनारे चार-चार घन्टे तक ध्यान में लीन रहे । बड़े गांव मेरठ में भी शीत ऋतु में आपने अनेक रात्रियों में मकानों की छतपर बैठकर ध्यान लगाया । ग्रीष्म ऋतु में पारंगा तथा पावागढ़ (बड़ौदा ) के पहाड़ों पर जाकर चार-चार घन्टे तक समाधि में रहे।
ज्ञान:
यह हम पहले ही लिख चुके हैं कि आपकी प्रारम्भिक शिक्षा न कुछ के बराबर थी किन्तु साधु दीक्षा के बाद से आपने इतना अच्छा शास्त्र ज्ञान प्राप्त कर लिया था कि सूक्ष्म से सूक्ष्म विषय को न केवल भली भांति समझ ही लेते थे अपितु दूसरों को भी बहुत अच्छी तरह समझा देते थे। अापने अनेक उच्चकोटि के दार्शनिक सिद्धान्त ग्रन्थों का स्वाध्याय किया था जिस समय प्राप आध्यात्मिक विषय पर व्याख्यान देते तब ऐसा मालूम होता था कि मानों आपको अन्तरात्मा ही बोल रही है। उपदेश:
आपके उपदेश सार्वजनिक भी होते थे हरिजन अमस्या के विषय में आपने अपने भाषणों में अनेक बार कहा था मैं हरिजनों को उतना ही उन्नत देना चाहता हूं जितना कि और जातियां हैं। उनकी भोजन, वस्त्र, स्थान प्रादि की समस्या हल होनी चाहिये, पठन पाठन की व्यवस्था भी
ठीक होनी चाहिये जिससे ये शिक्षित हो जायें और खोटे कर्मों से बचकर अच्छे कार्य करने लगे। इनके अन्दर की बुराईयां मसलन, मद्य, मांससेवन जुमा, शिकार, जीव हिंसा आदि कर्म तथा मैला कुचेला रहना आदि पहिले दूर करना चाहिये । आपका ज्वलंत प्रभाव तब प्रकट हुआ, जब भारत सरकार ने एक बिल पालियामेन्ट में रखा जिसमें जैन धर्म को हिन्दू धर्म स्वीकार किया जा रहा था । इस बिल पर भारत वर्ष की जैन संस्थायें चिन्तिताहो उठीं। परम पूज्य चारित्र चक्रवति श्री १०८ प्राचार्य शान्तिसागरजी महाराज की दृष्टि पूज्य नमिसागरजी महाराज पर गयी । उन्हें आदेश दिया कि दिल्ली में शासन को प्रभावित कर जैन धर्म को हिन्दू धर्म से पृथक् रखवायें। महाराज ने ऐसा प्रयत्न किया कि उन्हें सफलता मिली और गुरु लादेश की पालना की।
अगस्त १९५५ में पूज्य आचार्य शानिसागरजी के कुन्थलगिरि में समाधि मरण लेने के समाचार ज्ञात होते ही आपने फल व मीठे का अजन्म त्याग कर दिया । एक वर्ष तक अन्न का त्याग कर दिया और जो उद्गार प्राचार्य श्री ने अपने गुरु के प्रति प्रकट किये वह चिरस्मरणीय व स्वर्णाक्षरों में अंकित होने योग्य हैं।
आचार्यश्री का स्वभाव नारियल जैमाथा ऊपर से कठोर और अंतरंग में नर्म था । धर्म व धर्मात्मा के प्रति इतने उदार थे कि कभी भी उनका ह्रास देखना पसन्द नहीं करते थे। वे कभी भी संथ में शिथिलाचार नहीं देख सकते और सदैव संघ पर कड़ी दृष्टि आचरण पालन की ओर रखसे। शिक्षण संस्थाओं से उन्हें काफी प्यार था। गरीबों के हितू होने के कारण आपके चरणों में सभी जाति के स्त्री पुरुष भेद भाव भुलाकर पाते थे।
आचार्यश्री १९५१ में जब दिल्ली पधारे तब वे एक संकल्प लेकर पाये थे । हरिजन-मन्दिर प्रवेश को लेकर पूज्य आचार्य शान्तिसागरजी महाराज ने अनशन कर दिया था उनके अनशन को तुड़वाना और जैन मन्दिरों को हिन्दू मन्दिरों से पृथक करना यह संकल्प न्यायाकार्य. पं० दरबारीलालजी कोठिया के सम्पर्क से पूज्य श्री १०५ गणेशप्रसादजी वर्णी को आचार्य श्री ने अपने संकल्प का साधक माना । फलतः आचार्य श्री अपने मिशन में सफल हुए और पूज्य वर्णीजी के प्रति अनन्य. समादर करने लगे । अन्त में प्राचार्य श्री वर्णीजी के सान्निध्य में बड़ौत (मेरठ ) से प्रस्थान कर ईसरी ( सम्मेदशिखर ) पहुंचे और इन्हीं के निकट सन् १९५७ में समाधि पूर्वक देह त्याग किया ।
Below information from book-Digambar Jain Sadhu
जन्म;
पूज्य आचार्यश्री का जन्म विक्रम १९४५ ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्थी मंगलवार तदनुसार ता० २६ मई सन् १८८८ को दक्षिण प्रान्त के शिवपुर नगर जिला बेलगांव में हुमा था। इनके पिताजी का नाम श्री यादवराय तथा मातेश्वरी का नाम श्रीमती कलादेवी था । ये दक्षिण प्रान्तीय प्रसिद्ध जैन क्षत्रिय पंचम जाति के व्यापारी थे। श्री यादवरायजी के कुल तीन संतान उत्पन्न हुई, जिनमें पहली संतान कुछ दिन जीवित रहकर चिर निद्रित हो गई। द्वितीय पूज्य आचार्य महाराज हैं, जिनका तत्कालीन नाम होनप्पा रखा गया। इनके पीछे प्राय: दो ढाई वर्ष बाद एक छोटा भाई और हुआ। ये दो वर्ष के भी पूर्ण न होने पाये थे कि इनके पिताजी दिवंगत हो गये और उनकी छत्र-छाया इनके ऊपर से सदैव के लिये उठ गई । उस समय इनके छोटे भाई की अवस्था प्रायः ३ मास की थी इनकी विदुषी माता ने दोनों का लालन-पालन किया तथा शिक्षित बनाने के लिये
उसी गांव की राजकीय शाला में बैठा दिया। दो तीन कक्षा तक ही प्रारम्भिक शिक्षा ले पाये थे कि अभाग्यवशत् विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा और इनकी माताजी का भी स्वर्गवास हो गया। उस समय इनकी आयु १२ वर्ष की होगी, घर में कोई बड़ा न होने से खर्च का सारा बोझ इन्हीं के ऊपर आ पड़ा, समस्या बड़ी विकट थी, आजीविका का और कोई उपाय न था, अत: इच्छा न होते हुए भी पढ़ाई का काम छोड़ना पड़ा। फिर भी अपने भाई को पढ़ाने का पूरा ध्यान रखा।
- इनका पैतृक व्यापार बर्तनों की दुकान का था। अपने पूर्वजों की छोड़ी हई पर्याप्त जमीन भी थी कुछ समय तक तो अभ्यास न होने से कुछ कष्ट रहा, पर बाद में अपनी कुशलता से उन दोनों कार्यों को बड़ी सावधानी से सम्भाल लिया।
२६ वर्ष की आयु अर्थात् सन् १९१४ में आपका विवाह हो गया । चार वर्ष बाद द्विराग मन ( गोना) हुआ । उससे आपके पुत्र उत्पन्न हुआ किन्तु तीन महीने बाद ही वह काल कवलित हो गया। इस दु:ख को भूल भी न पाये थे कि उनके तीन मास पीछे ही आपकी धर्मपत्नी का भी सदैव के लिये वियोग हो गया । इस प्रकार प्रायः डेढ़ वर्ष तक ही आपको स्त्री का संयोग रहा अब आपने दूसरा विवाह न करने का निश्चय कर लिया। हम पहिले ही लिख चुके हैं कि ये व्यापार में बड़े कुशल थे तथा समय समय पर अन्य व्यापार भी करते थे। एक बार कपास ( रूई ) के ब्यापार निमित्त आपको सेरदाड़ राज्यान्तर्गत जाम्बागी नामक गांव में जाना पड़ा। वहां पर इनको व्यापार सम्बन्धि कार्याधिक्य से दिन में भोजन बनाने का अवकाश न मिला । दक्षिण प्रान्त में अपने ही हाथ से भोजन बनाकर खाने की प्रथा है। अतः रात्रि में ही इन्होंने अपने हाथ से भोजन बनाना प्रारम्भ कर दिया । उन दिनों तक जैन कुल में उत्पन्न होते हुए भी शिक्षा के प्रभाव से धार्मिक भावना जागृत नहीं हुई थी, अतः रात्रि में भी भोजन कर लेते थे। इन्होंने भात बनाने के लिए उबलते हुए पानी में चावल डाले । स्मृति-दोष से उसका हक्कन न रख पाये । दूध, दही, मीठा लेने के लिये नौकर को बाजार भेज दिया, उधर न मालूम कब दो बड़े बड़े कोड़े उसमें गिर पड़े। जब भोजन करने बैठे तब भात परोसने के साथ वे दोनों कोड़े,भी उस थाल में परस गये । उनको देखकर इनके मन में बड़ी ग्लानि उत्पन्न हुई। विचारने लगे कि अपने पेट भरने के लिये मेरे द्वारा इन दो जीवों का व्यर्थ में वध हो गया, अगर मैं रात्रि को भोजन न कर ता तो यह जीवों की हिंसा न होती । बहुत पश्चात्ताप किया तथा आत्मनिन्दा और गर्दा भी की । उस सय लो भोजन किया ही नहीं बल्कि रात्रि भोजन को महान् हिंसा का कारण जान जन्म पर्यन्त के लिये त्याग कर दिया।
इस घटना से ही इनके जीवन में परिवर्तन हो गया । कार्यभार अपने छोटे भाई को सौंप दिया और आप गृह से उदास हो गये । तीन वर्ष तक संवेगी श्रावक दशा में रहे, आपका यह समय तीर्थयात्रा और सत्संगति में ही व्यतीत हुआ । सन् १९२३ में आपने बोर गांव में श्री १०८ पूज्य आदि सागर मुनिराज से विधिवत् क्षुल्लक दीक्षा ले ली और नाम श्री पायसागर रखा गया।
१९२५ में सम्मेद शिखरजी की यात्रा जाने वाले आचार्य शान्तिसागरजी महाराज के विशाल संघ में शामिल होकर आपने इन्हीं से विधिपूर्ण ऐलक दीक्षा ले ली। उस समय आपका नाम नमिसागर रखा गया । ऐलक अवस्था में आप पांच वर्ष रहे । और संघ के साथ १९२६ से १९२६ तक जयपुर, कटनी (मध्यप्रान्त) ललितपुर (उत्तर प्रान्त) में आपने चतुर्मास किये । इसी मध्य में संघ ने तीर्थराज की वंदना को सन् १९२६ में पूज्य आचार्य चारित्र चक्रवति शांतिसागर महाराज से मार्ग शीर्ष सुदी १५ सं १९८६ में सोनागिर पहाड़ के ऊपर मुनि दीक्षा ली।
सन् १९३८ में आप आचार्य कुन्थुसागरजी महाराज के संघ में रहने लगे और उनकी अंत अवस्था जानकर उनको वैयावृत्ति की । आचार्य श्री ने अपना अन्त समय जानकर आचार्य पद के लिये समस्त संघ के मुनियों को आज्ञा दी कि नमिसागरजी को अपना आचार्य मानना । सन् १९४५ में आप आचार्य पद पर आसीन हुए उसके बाद अनेक स्थानों पर भ्रमण करके जनता को सही मार्ग दर्शन दिया।
ध्यान :
आप जब ध्यान में लीन होते हैं उस समय आपकी मुद्रा दर्शनीय है । आये हुए बड़े से बड़े उपसर्गों को आप बड़ी आसानी से सहन कर लेते हैं, कभी कभी तो ऐसे भी अवसर आ गये हैं जबकि उपवासादिकों के दिनों में अशक्तता के कारण आप गिर भी गये हैं पर फिर भी ध्यान से विचलित नहीं हुए। बागपत ( मेरठ) में जब आप डेढ़ मास रहे तो वहां शीतकाल में जमुना के किनारे चार-चार घन्टे तक ध्यान में लीन रहे । बड़े गांव मेरठ में भी शीत ऋतु में आपने अनेक रात्रियों में मकानों की छतपर बैठकर ध्यान लगाया। ग्रीष्म ऋतु में तारंगा तथा पावागढ़ (बड़ौदा ) के पहाड़ों पर जाकर चार-चार घन्टे तक समाधि में रहे।
ज्ञान: - यह हम पहले ही लिख चुके हैं कि आपकी प्रारम्भिक शिक्षा न कुछ के बराबर थी किन्तु साधु दीक्षा के बाद से आपने इतना अच्छा शास्त्र ज्ञान प्राप्त कर लिया था कि सूक्ष्म से सूक्ष्म विषय को न केवल भली भांति समझ ही लेते थे अपितु दूसरों को भी बहुत अच्छी तरह समझा देते थे। आपने अनेक उच्चकोटि के दार्शनिक सिद्धान्त ग्रन्थों का स्वाध्याय किया था जिस समय आप आध्यात्मिक विषय पर व्याख्यान देते तब ऐसा मालूम होता था कि मानों आपको अन्तरात्मा ही बोल रही है।
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उपदेश:
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आपके उपदेश सार्वजनिक भी होते थे हरिजन समस्या के विषय में आपने अपने भाषणों में अनेक बार कहा था मैं हरिजनों को उतना ही उन्नत देखना चाहता हूं जितना कि और जातियां हैं। उनकी भोजन, वस्त्र, स्थान आदि की समस्या हल होनी चाहिये, पठन पाठन की व्यवस्था भी ठाक होनी चाहिये जिससे ये शिक्षित हो जायें और खोटे कर्मों से बचकर अच्छे कार्य करने लगे। इनके अन्दर की बुराईयां मसलन, मद्य, मांससे बन, जुना, शिकार, जीव हिंसा आदि कर्म तथा मैला कुचेला रहना आदि पहिले दूर करना चाहिये । आपका ज्वलंत प्रभाव तब प्रकट हुआ, जब भारत सरकार ने एक बिल पालियामेन्ट में रखा जिसमें जैन धर्म को हिन्दू धर्म स्वीकार किया जा रहा था। इस बिल पर भारत वर्ष की जैन संस्थायें चिन्तित हो उठीं । परम पूज्य चारित्र चक्रवति श्री १०८ आचार्य शान्तिसागरजी महाराज की दृष्टि पूज्य नमिसागरजी महाराज पर गयी । उन्हें आदेश दिया कि दिल्ली में शासन को प्रभावित कर जैन धर्म को हिन्दू धर्म से पृथक् रखवायें। महाराज ने ऐसा प्रयत्न किया कि उन्हें सफलता मिली और गुरु आदेश की पालना की।
अगस्त १९५५ में पूज्य आचार्य शान्तिसागरजी के कुन्थल गिरि में समाधि मरण लेने के समाचार ज्ञात होते ही आपने फल व मीठे का आजन्म त्याग कर दिया। एक वर्ष तक अन्न का त्याग कर दिया और जो उद्गार आचार्य श्री ने अपने गुरु के प्रति प्रकट किये वह चिरस्मरणीय व स्वर्णाक्षरों में अंकित होने योग्य हैं।
आचार्यश्री का स्वभाव नारियल जैसा था ऊपर से कठोर और अंतरंग में नर्म था। धर्म व धर्मात्मा के प्रति इतने उदार थे कि कभी भी उनका ह्रास देखना पसन्द नहीं करते थे। वे कभी भी संघ में शिथिलाचार नहीं देख सकते और सदैव संघ पर कड़ी दृष्टि आचरण पालन की ओर रखते । शिक्षण संस्थाओं से उन्हें काफी प्यार था। गरीबों के हितू होने के कारण आपके चरणों में सभी जाति के स्त्री पुरुष भेद भाव भुलाकर आते थे।
आचार्यश्री १६५१ में जब दिल्ली पधारे तब वे एक संकल्प लेकर आये थे। हरिजन-मन्दिर प्रवेश को लेकर पूज्य आचार्य शान्तिसागरजी महाराज ने अनशन कर दिया था उनके अनशन को तडवाना और जैन मन्दिरों को हिन्दू मन्दिरों से पृथक् करना यह संकल्प न्यायाचार्य पं० दरबारी लालजी कोठिया के सम्पर्क से पूज्य श्री १०५ गणेशप्रसादजी वर्णी को आचार्य श्री ने अपने संकल्प का साधक माना । फलतः आचार्य श्री अपने मिशन में सफल हुए और पूज्य वर्णीजी के प्रति अनन्य सादर करने लगे । अन्त में आचार्य श्री वर्णीजी के सान्निध्य में बड़ौत ( मेरठ ) से प्रस्थान कर ईसरी ( सम्मेदशिखर ) पहुंचे और इन्हीं के निकट सन् १९५७ में समाधि पूर्वक देह त्याग किया ।
#NamisagarJiMaharaj1888ShantiSagarJi
आचार्य श्री १०८ नमिसागरजी महाराज
Acharya Shri Jai Sagar ji Maharaj
आचार्य श्री जय सागर जी महाराज Acharya Shri Jai Sagar ji Maharaj
JaiSagarJiMaharaj1964SanmatiSagarJi
Acharya Shri 108 Namisagarji Maharaj was born in year 1888 and he took initiation from Acharya Shri 108 Shanti Sagar Ji Maharaj in year1929 at Sonagiri Siddha Kshetra.
Acharya Shri 108 Devendra Kirti Ji Maharaj | |
1.Charitrachakravarti Acharya Shri Shanti Sagar Ji Maharaj 1872 | |
2.Acharya Shri 108 Namisagar Ji Maharaj 1888 | |
Acharya Shri Namisagarji Maharaj
Pujya Acharya shri was born Vikram 1645 Jyeshtha Krishna Chatthi on Tuesday, May 26, 1888, in Shivpur Nagar District belgaum of South Province. His father name was Mr. Yadavarai and mother name was Mrs. Kaladevi. These were the merchants of the famous Jain Kshatriya V, the southern provincial caste. A total of three children of Shri Yadavrayaji were born, out of which the first child survived a few days and passed away. The second worshiper is Acharya Maharaj, who was then named Honappa. They were usually followed by a younger brother and Huma after two and a half years. They were not able to complete even after two years that their father had passed away and his shadow rose from them forever. At that time, his younger brother was in the age of 3 months, his female mother had both followed him and educated him
Sitting in the government school of the same village. Two or three were able to get their early education only that the mountain of unfortunate Mithi broke and their mother also died. At that time, they would be of 12 years of happiness, due to not having any big house, the burden of expenditure was incurred on them, the problem was serious, there was no other way of livelihood, so despite having no desire, he had to leave his education . Still took full care of teaching his brother.
His ancestral trade was that of a pottery shop. There was also enough land left by his ancestors and for some time suffered some hardship due to lack of practice, but later on with his skill he took care of both those tasks very carefully.
You got married at the age of 26 years i.e. 1914. Four years later, there was dvaigraman (gona). He gave birth to your son, but only after three months that time has grown. You could not forget this sorrow that even after three months, your wife also got separated forever. Thus, for a year and a half, you had the coincidence of a woman, now you have decided not to have another marriage.
We have already written that they were very skilled in trade and also used to do other business from time to time. Once, for the business of cotton (cotton), you had to go to a manga called Zambagi under the state of Serdad. There, he did not get leave to cook food during the day due to business related tasks. In the Dakshin prance, it is customary to cook and eat food with one's own hand. Opinion: At night, they started cooking with their own hands. Until that time, despite being born in the Jain clan, religious sentiment was not awakened by the effect of education, so they used to eat at night also. They put rice in boiling water to make rice. Could not keep its lid due to memory-defect. He sent the servant to the market to get milk, curd and sweet, there, do not know when two very big insects got stuck in it. When they sat down to eat food, they both whipped along with serving of rice, they also broke into that plate. Seeing them, a lot of guilt arose in his mind. I started thinking that in order to fill my stomach, these two creatures were killed in vain by me, if I had not eaten at night, it would not have been violence of the creatures. He repented a lot and did pranamandha and ghi too. At that time, he did not eat any food, but gave up the food for the birth due to great violence.
This incident changed his life. Handed over the work to his younger brother and got depressed from the sin house. For three years, the impulsive listener remained in the condition, this time was spent in pilgrimage and satsangati. In 1923, in the village of Prane, received the initiation from Shri 108 Pujya Adi Sagar Muniraj, who was duly initiated and named Shri Payasagar.
In 1925, he joined the vast confederation of Principal Shantisagarji Maharaj, who visited Sammed Shikharji, and he took legal initiation from them. At that time, you were named Namisagar. You have lived five years in the elk state. And along with the Sangh, from 1926 to 1927, Father did a Chaturmas in Jaipur, Katni (Madhya Pradesh), Lalitpur (Uttar Pradesh). In the meantime, the Sangh worshiped Tirtha Raj
In 1929, you started living in the union of Principal Kunthusagarji Maharaj and knowing his end state, he married him. Acharya Shri, knowing the dream at the end of time, gave his obeisance to the sages of all the Sangh for the post of Acharya, that Namasagarcho should be considered his principal. In 1945, he joined the post of Acharya, after that he visited many places and gave proper guidance to the public.
Care:
Your posture is visible when you are absorbed in meditation. You easily tolerate the biggest prefixes, sometimes there have been occasions when you have fallen due to disability in the days of fasting people, but still not distracted from meditation. When you lived in Baghpat (Meerut) for one and a half months, then during the winter there, stay on the banks of Jamuna for four to four hours. In the big village Meerut, in winter, you meditated on the roof of houses in many nights. In the summer season, visiting the mountains of Paranga and Pavagadh (Baroda), stayed in the tomb for four hours.
Knowledge:
We have already written that your elementary education was equal to nothing but after the sage initiation you had acquired such good scriptural knowledge that not only did you understand the subtle subject very well, but others too. Used to explain well. You self-taught many philosophical doctrines of high quality at the time when giving lectures on the received spiritual topic, it seemed as if you are speaking the conscience. preaching:
Your sermons were also public, you had said many times in your speeches about Harijan Amasya, I want to give Harijans as much advancement as other castes. The problem of their food, clothes, place and place should be solved, also the system of reading and reading
Should be cured so that they become educated and start doing good works by avoiding bad deeds. The evils inside them like alcohol, meat, zuma, hunting, animal violence, etc., should be removed before deeds and sloppy living. Your fiery influence was manifested when the Government of India placed a bill in Paliamant in which Jainism was being accepted as Hinduism. The Jain Institutions of the year of India arose on this bill. The vision of Param Pujya Charitra Chakravati Shri 108 Principal Shantisagarji Maharaj went to Pujya Namisagarji Maharaj. He ordered that Jainism should be kept separate from Hindu religion by influencing the rule in Delhi. Maharaj made such an effort that he got success and raised Guru Ladesh.
As soon as the news of the death of Samadhi Acharya Shanisagarji in Kunthalgiri was known in August, 1955, you gave up the unborn fruit and sweet. Abandoned grain for one year and the eclipse principal Shri revealed to his master is worth memorizing and inscribed in gold.
Acharyashree's temperament coconut jamatha was soft from above and soft in intimate. He was so generous towards religion and religion that he never liked to see their decline. They can never see the procrastination in the saint and always keep a strict eye on the Sangh towards obedience. He loved the educational institutions. Due to the interests of the poor, women and men of all castes were able to forget the discrimination at your feet.
When Acharyashree came to Delhi in 1951, he was able to take a resolution. Pujya Acharya Shantisagarji Maharaj had fasted for the entry of Harijan-temple, it was a resolution to disband his fast and separate Jain temples from Hindu temples. Acharya Shri considered Shri 105 Ganesh Prasadji Varni as the seeker of his resolve with the contact of Pt. Darbari Lalji Kothia. As a result, Acharya Sri succeeded in his mission and was unique to Pujya Varniji. Started respecting him. In the end, Principal Shree Varniji's departure from Barot (Meerut) reached Isri (Sammed Shikhar) and sacrificed his body in samadhi near him in 1956.
Acharya Shri 108 Namisagarji Maharaj
आचार्य श्री जय सागर जी महाराज Acharya Shri Jai Sagar ji Maharaj
आचार्य श्री जय सागर जी महाराज Acharya Shri Jai Sagar ji Maharaj
Acharya Shri Jai Sagar ji Maharaj
Acharya Shri 108 Shanti Sagarji Maharaj
#NamisagarJiMaharaj1888ShantiSagarJi
JaiSagarJiMaharaj1964SanmatiSagarJi
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