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#AcharyaPrabhachandra11thcentury
आचार्य प्रभाचन्द्र ने परीक्षामुख पर १२००० श्लोकप्रमाण 'प्रमेयकमल मात्तण्ड' नामकी बुहत टीका लिखी है। यह जैन न्यायशास्त्रका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसके नामसे ही यह स्पष्ट है कि यह ग्रन्य प्रमेयरूपी कामलोंको उद्भासित करने के लिए मार्तण्ड–सूर्य के समान है। इनके अध्ययन से प्रभाचन्द्रका वेदुष्षये एवं व्यक्तित्व अत्यन्त महनीय विदित होता है। इन्होंने वैदिक और अवैदिक दर्शनोंका गहन अध्ययन किया था।
इनकी अद्भुत विशेषता है कि किसी भी विषयका समर्थन वा निराम, जो भी हो, प्रचुर युक्तियों से करते हैं। ये तार्किक और दार्शनिक दोनों हैं। इनकी प्रतिपादनशली एवं विचारधारा अपूर्व है।
प्रमेयकमालमार्तण्ड और न्यायकुमुद चन्द्रकी प्रशस्तिके अनुसार इनके गुणका नाम पदननन्दि सैद्धान्तं' है । क्षवणबेलगोलाके ४० संख्यक अभिलेखमें गोल्ला चार्यके शिष्य पद्मनन्दि सैद्धान्तिकका उल्लेख है। इसी अभिलेखमें प्रथित तर्क अन्यकार शब्दाम्भोरुहभास्कर प्रभाचन्द्रको उनका शिष्य बताया है। प्रभाचन्द्र के प्रथित तर्कग्रंथकार और शब्दाम्भोरुहभास्कर ये दोनों विशेषण बतलाते हैं कि प्रभाचन्द्र न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड जैसे तर्कग्रन्थोंके रचयिता होने के साथ शब्दाम्भोजभास्कर नामक जैनेन्द्रन्यासके कर्ता भी थे। इसी अभिलेखमें पद्मनन्दि सैद्धान्तिकको अविद्धकरण और कौमारदेववती लिखा है। इन दोनों विशेषणोंसे अवगत होता है कि पहननन्दि सैद्धान्तिकने कर्णवेध होनेके पहले ही दीक्षा धारण की होगी और इसी कारण वे कौमारदेवबती कहे जाते थे। ये मूलसंघान्तर्गत नन्दिमणके प्रभेदरूप देशीय गणके गोल्लाचार्यके शिष्य थे । प्रभाचन्द्रके सधर्मा कुलभूषणमुनि थे। कुलभूषणमुनि भी सिद्धान्त शास्त्रोंके पारगामी और चारित्रसागर थे। इस अभिलेख में कुलभूषणमुनिकी शिष्यपरम्पराका उल्लेख हैं, जो दक्षिण भारतमें हुई थी। प्रभाचन्द्र पद्ननन्दि से शिक्षा-दीक्षा लेकर उत्तर भारतमें धारा नगरीमें चले आये और यहाँ आचार्य माणिक्यनन्दिके सम्पर्कमें आये। प्रभाचन्द्रने अपनेको माणिक्य नन्दिके पदमें रत कहा है। इससे उनका साक्षात् शिष्यत्व प्रकट होता है। अत: यह सम्भव है कि प्रभाचन्द्रने जैन न्यायका अभ्यास माणिक्यनन्दिसे किया हो और उन्हींके जीवनकालमें प्रमेयकमलमार्तण्डको रचना की हो । बताया है
शास्त्रां करोमि बरमल्पतरावबोधो
माणिक्यनन्दिपदपङ्कजसत्प्रसादात् ।
अर्थ न कि स्फुटधति प्रकृतं लधीयाँ
ल्लोकस्य भानुकरविस्फुरिसादगवाक्षः ॥
गुरु: श्रीनन्दिमाणिक्यो नन्दिताशेषसज्जनः ।
नन्दतादुरितकान्तरजाजैनमतार्णवः ॥
श्रीपयनन्दिसैद्धान्तशिष्योऽनेक गुणालयः ।
प्रभाचन्द्रश्चिरं जीयाद्रलनन्दिपदे रत: ।।
श्रवणबेलगोलके अभिलेख संख्या ५५ में मूल-संघके देशोयगणके देवेन्द्र सिद्धान्तदेवका उल्लेख है। इनके शिष्य चतुर्मुखदेव और चतुमुखदेवके शिष्य गोपनन्दि थे 1 इन गोपनन्दिके संघर्मा एक प्रभाचन्द्रका उल्लेख आता है । पद्य निम्न प्रकार है
श्रीधाराधिपभोजराज-मुकुट-प्रोतारम-रश्मि-च्छटा
च्छाया कुङ्कम-पङ्क-लिप्त-चरणाम्भोजात-लक्ष्मीधवः ।
१. प्रमेयकमलमार्तण्ड, मंगलापरणपद्य २ ।
२. बही, प्रशस्तिपद्य, संख्या ३-४ 1
न्यायजाकरमण्डने दिनमणिशब्दाज-रोदोमणि
स्थेयात्पण्डित-पुण्डरीक-सरणिश्रीमत्प्रभाचन्द्रमाः ॥
श्रीचतुर्मुख देवानां शिष्योऽधृष्यःप्रबादिभिः ।
पण्डितश्रीप्रभाचन्द्रो रुद्रवादि-गजातशः' ||
इन पदोंमे वणित प्रभाचन्द्र धाराधीश भोजके द्वारा पूज्य थे। न्यायरूप कमल समूह--प्रमेयकमलके दिनमणि -मार्तण्ड थे। 'शब्दरूप अब्ज '-शब्दाम्भोजके विकास करनेको 'रोदोमणि'–भास्करके समान थे। पण्डितरूपी कमलोंको प्रफुल्लित करनेवाले सूर्य थे। रुद्रबादि-गजोंको वश करनेके लिये अंकुशके समान थे तथा चतुर्मुखदेवके शिष्य थे ।
उपर्युक्त अभिलेनमें वर्णित प्रभाचन्द्र निश्चय ही प्रमेयकमलमार्तण्डके रचयिता प्रभाचन्द्रसे अभिन्न हैं। एक ही बात यहाँ विचारणीय है कि गुरुरूप से चतुर्मुखदेवका उल्लेख किस प्रकार घटित होता है। इनके आद्य गुरु पद्म नन्दि सैद्धान्तिकदेव हैं। बहुत संभव है कि दिलीय गुरु या गुरुसम चतुर्मुख देव रहे हों। धारानगरीमें आनेके पश्चात् देशीयगणके आचार्य चतुर्मुखदेवको गुरुके रूपमें स्मरण किया गया हो। प्रभाचन्द्र ने अपना 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' धारानगरीमें लिखा है, यह इस ग्रन्थकी प्रशस्तिसे भी प्रकट है ---
"श्रीभोजदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपरमेष्टिपदप्रणामाजिता मलपुनिराकृनिखिलमलकलन श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेन निखिलप्रमाणनमेय स्वरूपोद्योतपरीक्षामुखपदमिदं विवृतमिति" ।
श्रवणवेलगोलके उक्त अभिलेखमें प्रभाचण्द्रको गोपनन्दिका सधर्मा कहा गया है। 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' और 'न्यायकुमुदचन्द्र' को प्रशस्तियों में पण्डित शब्दका उल्लेख प्राप्त होता है, जिससे इनका गृहस्थ होना ज्ञात होता है; पर आराधनागद्यकोषकी 89 कथामें ग्रन्थान्त में तथा प्रशास्तियोंमें 'भट्टारक' लिखा है । अतः जान पड़ता है कि ये जीवन के उत्तरकालमें मुनि हुए होंगे ।
आचार्य प्रभाचन्द्रके समयके सम्बन्धमें कई मान्यताएँ प्रचलित हैं। इन समस्त मान्यताओंक अध्येताओंने पर्याप्त छानबीन की है। हम यहाँ उन सभी मतोंका संक्षेपमें उल्लेख कर प्रभाचन्द्र के समयके सम्बन्धमें निष्कर्ष उपस्थित करेंगे।
१. आदिपुराण, भारतीन ज्ञानपीठ, १| ४७ ।
२, प्रेमीकमलमात्रदण्ड , निर्णयसागर प्रेस, बम्बई १९४१, अन्तिम प्रशस्ति ।
(१) ई० सन् की ८वीं शताब्दीकी मान्यता ।
(२) ई० सन् ११वीं शताब्दीको मान्यता !
(३) ई० सन् १०६५ की मान्यता ।
१. आचार्य प्रभाचन्द्रके समयके सम्बन्धमें डॉ. पाठक, आचार्य जुगल किशोर मुख्तार आदि प्रभाचन्द्रका समय ८वीं शताब्दीका उत्तरार्द्ध एवं ९वीं शताब्दीका पूर्वार्द्ध मानते हैं। इनका मुख्य आधार है जिनसेन कृत 'आदिपुराण' का निम्नलिखित पद्ये , जिसमें प्रभाचन्द्र कवि और उनके चन्द्रोदय ( न्यायकमुद चन्द्र ) का उल्लेख हुआ है ---
"चन्द्रांशुशुभ्रयशसं प्रभाचन्द्रकवि स्तुवे ।
कृत्वा चन्द्रोदयं येन शश्वदान्हादितं जगत् ।।
यहाँ चन्द्रोदयसे तात्पर्य न्यायकुमुदचन्द्रसे लिया गया है। आचार्य जिनसेनने आदिपुराणकी रचना ई० सन् ८४० के लगभग की होगी। अतः उक्त पद्यमें प्रभाचन्द्र और उनके न्यायकुमुदचन्द्रका उल्लेख मानकर डॉ पाठक आदिने प्रभाचन्द्रका समय ई० सन् की ८ बौं शताब्दीका सामना है :
पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने डॉ० पाठक आदिको उक्त मान्यताका निरसन करते हुए बताया है कि जिनसेनने आदिपुराणमें जिस प्रभाचन्द्रका स्मरण किया है, वह प्रभाचन्द्र न्यायकुमुदचन्द्रके कर्ता प्रभाचन्द्रसे भिन्न हैं। हरिवंशपुराणमें भी जिनसेन प्रथमने एक प्रभाचन्द्रका स्मरण किया है, जो कुमार सेनके शिष्य थे । यथा--
"आकूपार यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्जवलम् ।
गुरोः कुमारसेनस्य विचरत्यजितात्मकम् ।।
यदि इन दोनों पुराणोंमें उल्लिखित प्रभाचन्द्र एक ही व्यक्ति हैं, तो वे कुमारसेनके शिष्य होने के कारण न्यायकुमुदचन्द्र के कर्तासे स्वतः पृथक् सिद्ध हो जाते हैं, क्योंकि उनके गुरुका नाम पदमनन्दि था। शास्त्रीजीने तर्क उपस्थित करते हुए लिखा है-"न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता प्रभाचन्द्रने स्वामी विद्यानन्द और अन्तवीर्यका स्मरण किया है। यदि आदिपुराणमें उल्लिखित प्रभाचन्द्र और उनका चन्द्रोदय प्रकृत प्रभाचन्द्र और उनका अन्य न्यायकुमुदचन्द्र ही है, तो यह सम्भव प्रतीत नहीं होता कि आदिपुराणकार न्यायकुमुदचन्द्रका तो स्मरण करें, किन्तु उसमें स्मृत आचार्य विद्यानन्द और अनन्तवीर्य सरीखे यशस्वी
१. अन शिलालेखसंग्रह, भाग १, अभिलेख संख्या ५५, पद्य १७, १८ ।
२. हरिवंशपुराण, १| ३८ ।
ग्रंथकारो को भूल जायें। विद्यानन्द और अनन्तवीयके ग्रन्थोंके उल्लेखोंके आधार पर दोनोंका समय ईसाकी नवीं शताब्दीसे पहले नहीं जाता । अतः उनके स्मरण का प्रभावामका स्मरण नवमी शताब्दीक पूर्वार्द्धकी रचना आदिपुराणमें नहीं किया जा सकता।"
पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने अन्य तर्कों के आधारपर भी डॉ. पाठक आदिके मतका खण्डन किया है और प्रभाचन्द्रका ममय ई० सन् ९५० से १०२० निर्धारित किया है।
प्रभाचन्द्र ने पहले प्रमेयकमलमार्तण्डकी रचना करके ही न्यायकुमुदचन्द्रकी रचना की है । प्रमेयकमलमार्तण्डको अन्तिम प्रशस्तिमें 'भोजदेचराज्ये उल्लिखित मिलता है, पर न्यायकुमुदचन्द्रकी पुष्पिकामें 'श्रीजयसिंहदेवराज्ये' पद उल्लिखित है । अतएव श्रीप्रभाचन्द्रका समय जमिहदेवका राज्यकाल सन् १०६५ तक माना जा सकता है। अदि प्रभाचन्द्रकी ८५ वर्षकी आयु हो, तो उनकी पूर्वावधि ई. सन् १८० सिद्ध होती है। आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार और पण्डित कैलाशचन्द्र जी शास्त्रो प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रके अन्तमें पाये जाने वाले 'श्रीभोजदेवराज्ये' और 'श्रीजयसिंहदेवराज्ये आदि प्रशस्तिलेखोंको स्वयं प्रभाचन्द्रका नहीं मानते। पर न्यायाचार्य पण्डित महेन्द्र कुमारजी उक्त प्रशस्ति-लेखोंको प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुवचन्दके रच यिता प्रभाचन्द्र के हो मानते हैं।
प्रभाचन्द्रने यापनीयसंघाग्रणी शाकटायनाचार्यके केलिमुक्ति और स्त्री मुक्ति प्रकरणोंकी कुछ कारिकारिकाओंको पूर्वपक्षके रूपमें उद्धृत किया है । शाक टायनाचार्यका समय अमोघवर्षका राज्यकाल {ई: सन् ८१४-८७७ ) नवम शती है । अतः प्रभाचन्द्रका समन्च ई० सन् ९०० से पहले नहीं माना जा सकता।
आचार्य देवसेनने अपने 'दर्शनसार' ग्रन्थके बाद 'भावसंग्रह बनाया है । इसकी रचना ई० ९४० के आस-पास हुई होगी। प्रमेयकमलमानण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र में देवसेनकी 'नोकम्मकम्महारो' गाथा उद्धत मिलती है। अतएव प्रभाचन्द्रका समय ई० सन् ९४० के बाद होना चाहिये । श्रीधरकी न्यायकन्दलीको छाया भी प्रभाचन्द्र के ग्रन्थोंपर दिखलाई पड़ती है। श्रीधरने कन्दली टीका ई. सन् १९१ में समाप्त की थी । अतः प्रभाचन्द्रको पूर्वावधि ९९० के लगभग होनी चाहिये ।
शिलालेखके आधारपर प्रभाचन्द्र के सधर्मा गोपनन्दि बताये गये हैं। पहले बेलगोल' के एक अभिलेख ( अभिलेख सं० ४९२ ) में होयसलनरेश, एरेया
१. न्यायकुमुदचन्द्र, प्रथम भाग. माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई, सन १९३८ प्रस्तावना
पृ० ११८ ।
द्धारा पनन्दि पण्डित देवको दिये गये दानका उल्लेख है। यह दान पौष शुक्ला त्रयोदशी संवत् १०१५ में दिया गया है। इस तरह ई० सम् १०९३ में प्रभाचन्द्र सधर्मा गोपनन्दिकी स्थिति होनेसे प्रभाचन्द्रका समय सन् १०९३ ईस्वीके पश्चात् नहीं हो सकता है।
यदि देवसूरिने ई० सन् १९१८ के लगभग अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ स्याद्वाद रत्नाकरकी रचना की है । स्वाहादरलाकरमें प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका न केवल शब्दार्थानुसरण ही किया गया है, किन्तु कवलाहार समर्थनप्रकरणमें तथा प्रतिबिंबचर्चा में प्रभाचन्द्र और प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमल मार्तण्डका नामोल्लेख करके खण्डन भी किया है। अतः प्रभाचन्द्रके समयको उत्तरावधि ई० सन् ११०० सुनिश्चित हो जाती है। ___ श्री पण्डित महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने अनेक पुष्ट प्रमाणोंके आधारपर ई० सन् ९८० से १०६५ ईस्वी तक प्रभाचन्द्रका समय माना है। 'सुदंसणचरिउ' की प्रशस्तिमें नयनन्दिने माणिक्यनन्दिका उल्लेख किया है। 'सुदंसणचरित' की समाप्ति वि० सं० १९०० में हुई है। अतः माणिक्यनन्दिका समय वि० सं० की ११वीं शताब्दीका पूर्वार्द्ध है । प्रमेयकमलमार्तण्डकार आचार्य प्रभाचन्द्रने माणिक्य नन्दिके समक्ष धारानगरीमें प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रकी रचना की है । आचार्य माणिक्यनन्दि भी धारानगरीमें निवास करते थे। अतः बहुत सम्भव है कि माणिक्यनन्दिो परीक्षामुखका अध्ययन कर प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड रचा हो । डॉ दरबारीलालजी कोठियाके सप्रमाण अनुसन्धानके अनुसार प्रभाचन्द्र और माणिक्यनन्दिकी समसामयिकता प्रकट होती है और उनमें परस्पर साक्षात् गुरु-शिष्यत्व भी सिद्ध होता है। इससे भी आचार्य प्रभाचन्द्रका समय ई० सन्की ११ वीं शती निर्णीत होता है।
इनकी निम्नलिखित रचनाएँ मान्य है----
१. प्रमेयकमलमार्तण्ड : परीक्षामुख-व्याख्या
२. न्यायकुमुदचन्द्र : लघीयस्त्रय-व्याख्या
३. तत्वार्थवृत्तिपदविवरण : सर्वार्थसिद्धि-व्याख्या
४. शाकटागनन्यास : शाकटायनन्याकरण व्याख्या
५. शब्दाम्भोजभास्कर : जैनेन्द्रव्याकरण-व्याख्या
६, प्रवचनसारसरोजभास्कर : प्रवचनसार व्याख्या
७, गधकथाकोष : स्वतंत्र रचना
१. आप्तपरीक्षा, प्रस्तावना प० २७-३३, बीर सेवा मन्दिर संस्करण, १९४९ ।
८. रत्नकरण्डकश्रावकाचार-टीका
९.. ममाक्तिंत्र-टीका
१० क्रियाकलाप-रीका
११. आत्मानुशासन-ट्रोका
१२. महापुराण-टिप्पण।
आचार्य जुगुलकिशोर मुख्तारने रत्नकांड श्रावकाचारको प्रस्तावनामें रत्नकांडधाववावकाचारकी दीका और समाधितंत्र की टीकाको प्रस्तुत प्रभाचन्द्र द्वारा रचित न मानकर किसी अन्य प्रभाचन्द्रकी रचनाएं माना है। पर जब प्रभाचन्द्रका समय ११ वीं शताब्दी सिद्ध होता है, तो इन ग्रन्थोंके उद्धरण रह भी सकते हैं। ग्नकरण्इटीका और समाधितंत्र टीका प्रमेयकमलमासंण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका एक साथ विशिष्ट शैली में उल्लेख होना भी इस बात का सूचक है कि ये दोनों टीकाएं प्रसिद्ध प्रभाचन्द्रकी ही हैं । यथा--
"तदनमतिप्रसङ्गेन प्रमेयकमलमानण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे प्रपञ्चतः प्ररूप गान ---रलकरडटीका पृष्ठ-६ । "य: पुनर्योगसांख्यमुक्तौ तत्प्रच्युतिरात्मनो भ्युपगता ने प्रमयकमलमार्तण्हे न्यायकुमुदचन्द्रे च मोक्षविचारे विस्तरतः जन्याख्याताः ।" . ममावितन्त्रटीका, पृष्ठ १५ ।
ये दोनों अवतरण प्रभाचन्द्रकृत शब्दाम्भोजभास्करके उद्धरणसे मिलते जुलते है----
"तदात्मकास्त्र चायंस्य अध्यक्षतोऽनुमानादेश्च यथा सिद्धति तथा प्रमेयकमल मार्तण्डे न्यायकुमुदचन्दं च प्रपितामह ट्रष्टव्यम् ।" शब्दाम्भोजभास्कर।
प्रभाचन्द्रकृत गद्यकथाकोशमें पायी जाने वाली अजनचोर आदिको कथाएँ रत्नकरण्डकवावकाचारगत कथाओंसे पूर्णत: मिलती है। अतएव रत्न करण्डक श्रावकाचार और समाधितन्त्रको टीकाएं प्रस्तुत प्रभाचन्द्रको ही है।
क्रियाकलापकी टीकाकी एक हस्तलिखित प्रति बम्बईके सरस्वतीभवन में है। इस प्रतिकी प्रशस्तिमें क्रियाकलापटीकाके रचयिता प्रभाचन्द्रके गुरुका नाम पद्मनन्दि सेवान्तिक है और न्यायकुमुदचन्द्र आदिके कर्ता प्रभाचन्द्र भी पचनन्दि सैद्धान्तिकके ही शिष्य है। अतएव क्रियाकलापटीकाके रचयिता प्रस्तुत प्रभाचन्द्र ही जान पड़ते हैं। प्रशस्ति निम्न प्रकार है
"बन्दे मोहतमोविनाशनपटुस्त्रलोक्यदीपप्रभुः
संसतिसमन्वितस्य निखिलस्नेहस्य संशोषकः ।
सिद्धान्तादिसमस्तशास्त्रकिरणः श्रीपयनन्दिप्रभुः
तयिष्यात्प्रकटार्थतां स्तुतिपदं प्राप्त प्रभाचन्द्रतः !"
इसी प्रकार आत्मानुशामनतिलकके रचयिता भी प्रस्तुत प्रभाचन्द्र हैं। निश्चयतः आचार्य प्रभाचन्द्र अद्भुत भाष्यकार हैं। इन्होंने जिन टीकाओंका निर्माण किया है वे टीका स्वतन्त्र ग्रन्थका रूप प्राप्त कर चुकी हैं । अतः प्रमेय कमलमातंण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र, तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरण, प्रवचनसारमरोज भास्कर, शब्दाम्भोजभास्कर, महापुराण टिप्पण, गद्यकथाकोश, रत्नकरण्डटीका, समाधितंत्राटिका , क्रियाकलापटीका, आत्मानुशासनतिलक आदि टीका ग्रन्थ प्रभाचन्द्राग चित हैं, यह स्पष्ट है।
गुरु | आचार्य श्री पद्नानंदी जी |
शिष्य | आचार्य श्री प्रभाचंद्र जी |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Prabhachandra was a Digambara monk who flourished in 11th century CE. He denied the possibility of any genuine intensity of action, whether good or bad, on the part of women.
According to him, Kumarapala converted to Jainism and started worshipping Ajitanatha after conquering Ajmer.
1.Nyāyakumudacandra : A commentary on Akalanka's work Laghīyastraya.
2.Prameyakamalamārtaṇḍa : A commentary on Manikyanandi's work Pariksamukha.
3.Tattvārtha-vṛtti-pada-vivaraṇa : A commentary on Pūjyapāda’s work Sarvārtha-siddhi.
4.Śabdāmbhoja-bhāskara-vṛtti : A commentary on Pūjyapāda’s work Jainendra-Vyākaraṇa.
5.Pravacanasāra-saroja-bhāskara : A commentary on Āchārya Kundakunda’s Pravachanasara.It was translated in Hindi by Muni Pranamyasagar
6.Śākatāyana-nyāsa.
7.Prabhavaka Charita (IAST: Prabhavakacarita): Biographies of Jain monks
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#AcharyaPrabhachandra11thcentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री १०८ प्रभाचन्द्र 11वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 21 एप्रिल 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Sanjul Jain created wiki page for Acharya Shri on 08-April-2021
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 21-April- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
आचार्य प्रभाचन्द्र ने परीक्षामुख पर १२००० श्लोकप्रमाण 'प्रमेयकमल मात्तण्ड' नामकी बुहत टीका लिखी है। यह जैन न्यायशास्त्रका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसके नामसे ही यह स्पष्ट है कि यह ग्रन्य प्रमेयरूपी कामलोंको उद्भासित करने के लिए मार्तण्ड–सूर्य के समान है। इनके अध्ययन से प्रभाचन्द्रका वेदुष्षये एवं व्यक्तित्व अत्यन्त महनीय विदित होता है। इन्होंने वैदिक और अवैदिक दर्शनोंका गहन अध्ययन किया था।
इनकी अद्भुत विशेषता है कि किसी भी विषयका समर्थन वा निराम, जो भी हो, प्रचुर युक्तियों से करते हैं। ये तार्किक और दार्शनिक दोनों हैं। इनकी प्रतिपादनशली एवं विचारधारा अपूर्व है।
प्रमेयकमालमार्तण्ड और न्यायकुमुद चन्द्रकी प्रशस्तिके अनुसार इनके गुणका नाम पदननन्दि सैद्धान्तं' है । क्षवणबेलगोलाके ४० संख्यक अभिलेखमें गोल्ला चार्यके शिष्य पद्मनन्दि सैद्धान्तिकका उल्लेख है। इसी अभिलेखमें प्रथित तर्क अन्यकार शब्दाम्भोरुहभास्कर प्रभाचन्द्रको उनका शिष्य बताया है। प्रभाचन्द्र के प्रथित तर्कग्रंथकार और शब्दाम्भोरुहभास्कर ये दोनों विशेषण बतलाते हैं कि प्रभाचन्द्र न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड जैसे तर्कग्रन्थोंके रचयिता होने के साथ शब्दाम्भोजभास्कर नामक जैनेन्द्रन्यासके कर्ता भी थे। इसी अभिलेखमें पद्मनन्दि सैद्धान्तिकको अविद्धकरण और कौमारदेववती लिखा है। इन दोनों विशेषणोंसे अवगत होता है कि पहननन्दि सैद्धान्तिकने कर्णवेध होनेके पहले ही दीक्षा धारण की होगी और इसी कारण वे कौमारदेवबती कहे जाते थे। ये मूलसंघान्तर्गत नन्दिमणके प्रभेदरूप देशीय गणके गोल्लाचार्यके शिष्य थे । प्रभाचन्द्रके सधर्मा कुलभूषणमुनि थे। कुलभूषणमुनि भी सिद्धान्त शास्त्रोंके पारगामी और चारित्रसागर थे। इस अभिलेख में कुलभूषणमुनिकी शिष्यपरम्पराका उल्लेख हैं, जो दक्षिण भारतमें हुई थी। प्रभाचन्द्र पद्ननन्दि से शिक्षा-दीक्षा लेकर उत्तर भारतमें धारा नगरीमें चले आये और यहाँ आचार्य माणिक्यनन्दिके सम्पर्कमें आये। प्रभाचन्द्रने अपनेको माणिक्य नन्दिके पदमें रत कहा है। इससे उनका साक्षात् शिष्यत्व प्रकट होता है। अत: यह सम्भव है कि प्रभाचन्द्रने जैन न्यायका अभ्यास माणिक्यनन्दिसे किया हो और उन्हींके जीवनकालमें प्रमेयकमलमार्तण्डको रचना की हो । बताया है
शास्त्रां करोमि बरमल्पतरावबोधो
माणिक्यनन्दिपदपङ्कजसत्प्रसादात् ।
अर्थ न कि स्फुटधति प्रकृतं लधीयाँ
ल्लोकस्य भानुकरविस्फुरिसादगवाक्षः ॥
गुरु: श्रीनन्दिमाणिक्यो नन्दिताशेषसज्जनः ।
नन्दतादुरितकान्तरजाजैनमतार्णवः ॥
श्रीपयनन्दिसैद्धान्तशिष्योऽनेक गुणालयः ।
प्रभाचन्द्रश्चिरं जीयाद्रलनन्दिपदे रत: ।।
श्रवणबेलगोलके अभिलेख संख्या ५५ में मूल-संघके देशोयगणके देवेन्द्र सिद्धान्तदेवका उल्लेख है। इनके शिष्य चतुर्मुखदेव और चतुमुखदेवके शिष्य गोपनन्दि थे 1 इन गोपनन्दिके संघर्मा एक प्रभाचन्द्रका उल्लेख आता है । पद्य निम्न प्रकार है
श्रीधाराधिपभोजराज-मुकुट-प्रोतारम-रश्मि-च्छटा
च्छाया कुङ्कम-पङ्क-लिप्त-चरणाम्भोजात-लक्ष्मीधवः ।
१. प्रमेयकमलमार्तण्ड, मंगलापरणपद्य २ ।
२. बही, प्रशस्तिपद्य, संख्या ३-४ 1
न्यायजाकरमण्डने दिनमणिशब्दाज-रोदोमणि
स्थेयात्पण्डित-पुण्डरीक-सरणिश्रीमत्प्रभाचन्द्रमाः ॥
श्रीचतुर्मुख देवानां शिष्योऽधृष्यःप्रबादिभिः ।
पण्डितश्रीप्रभाचन्द्रो रुद्रवादि-गजातशः' ||
इन पदोंमे वणित प्रभाचन्द्र धाराधीश भोजके द्वारा पूज्य थे। न्यायरूप कमल समूह--प्रमेयकमलके दिनमणि -मार्तण्ड थे। 'शब्दरूप अब्ज '-शब्दाम्भोजके विकास करनेको 'रोदोमणि'–भास्करके समान थे। पण्डितरूपी कमलोंको प्रफुल्लित करनेवाले सूर्य थे। रुद्रबादि-गजोंको वश करनेके लिये अंकुशके समान थे तथा चतुर्मुखदेवके शिष्य थे ।
उपर्युक्त अभिलेनमें वर्णित प्रभाचन्द्र निश्चय ही प्रमेयकमलमार्तण्डके रचयिता प्रभाचन्द्रसे अभिन्न हैं। एक ही बात यहाँ विचारणीय है कि गुरुरूप से चतुर्मुखदेवका उल्लेख किस प्रकार घटित होता है। इनके आद्य गुरु पद्म नन्दि सैद्धान्तिकदेव हैं। बहुत संभव है कि दिलीय गुरु या गुरुसम चतुर्मुख देव रहे हों। धारानगरीमें आनेके पश्चात् देशीयगणके आचार्य चतुर्मुखदेवको गुरुके रूपमें स्मरण किया गया हो। प्रभाचन्द्र ने अपना 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' धारानगरीमें लिखा है, यह इस ग्रन्थकी प्रशस्तिसे भी प्रकट है ---
"श्रीभोजदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपरमेष्टिपदप्रणामाजिता मलपुनिराकृनिखिलमलकलन श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेन निखिलप्रमाणनमेय स्वरूपोद्योतपरीक्षामुखपदमिदं विवृतमिति" ।
श्रवणवेलगोलके उक्त अभिलेखमें प्रभाचण्द्रको गोपनन्दिका सधर्मा कहा गया है। 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' और 'न्यायकुमुदचन्द्र' को प्रशस्तियों में पण्डित शब्दका उल्लेख प्राप्त होता है, जिससे इनका गृहस्थ होना ज्ञात होता है; पर आराधनागद्यकोषकी 89 कथामें ग्रन्थान्त में तथा प्रशास्तियोंमें 'भट्टारक' लिखा है । अतः जान पड़ता है कि ये जीवन के उत्तरकालमें मुनि हुए होंगे ।
आचार्य प्रभाचन्द्रके समयके सम्बन्धमें कई मान्यताएँ प्रचलित हैं। इन समस्त मान्यताओंक अध्येताओंने पर्याप्त छानबीन की है। हम यहाँ उन सभी मतोंका संक्षेपमें उल्लेख कर प्रभाचन्द्र के समयके सम्बन्धमें निष्कर्ष उपस्थित करेंगे।
१. आदिपुराण, भारतीन ज्ञानपीठ, १| ४७ ।
२, प्रेमीकमलमात्रदण्ड , निर्णयसागर प्रेस, बम्बई १९४१, अन्तिम प्रशस्ति ।
(१) ई० सन् की ८वीं शताब्दीकी मान्यता ।
(२) ई० सन् ११वीं शताब्दीको मान्यता !
(३) ई० सन् १०६५ की मान्यता ।
१. आचार्य प्रभाचन्द्रके समयके सम्बन्धमें डॉ. पाठक, आचार्य जुगल किशोर मुख्तार आदि प्रभाचन्द्रका समय ८वीं शताब्दीका उत्तरार्द्ध एवं ९वीं शताब्दीका पूर्वार्द्ध मानते हैं। इनका मुख्य आधार है जिनसेन कृत 'आदिपुराण' का निम्नलिखित पद्ये , जिसमें प्रभाचन्द्र कवि और उनके चन्द्रोदय ( न्यायकमुद चन्द्र ) का उल्लेख हुआ है ---
"चन्द्रांशुशुभ्रयशसं प्रभाचन्द्रकवि स्तुवे ।
कृत्वा चन्द्रोदयं येन शश्वदान्हादितं जगत् ।।
यहाँ चन्द्रोदयसे तात्पर्य न्यायकुमुदचन्द्रसे लिया गया है। आचार्य जिनसेनने आदिपुराणकी रचना ई० सन् ८४० के लगभग की होगी। अतः उक्त पद्यमें प्रभाचन्द्र और उनके न्यायकुमुदचन्द्रका उल्लेख मानकर डॉ पाठक आदिने प्रभाचन्द्रका समय ई० सन् की ८ बौं शताब्दीका सामना है :
पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने डॉ० पाठक आदिको उक्त मान्यताका निरसन करते हुए बताया है कि जिनसेनने आदिपुराणमें जिस प्रभाचन्द्रका स्मरण किया है, वह प्रभाचन्द्र न्यायकुमुदचन्द्रके कर्ता प्रभाचन्द्रसे भिन्न हैं। हरिवंशपुराणमें भी जिनसेन प्रथमने एक प्रभाचन्द्रका स्मरण किया है, जो कुमार सेनके शिष्य थे । यथा--
"आकूपार यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्जवलम् ।
गुरोः कुमारसेनस्य विचरत्यजितात्मकम् ।।
यदि इन दोनों पुराणोंमें उल्लिखित प्रभाचन्द्र एक ही व्यक्ति हैं, तो वे कुमारसेनके शिष्य होने के कारण न्यायकुमुदचन्द्र के कर्तासे स्वतः पृथक् सिद्ध हो जाते हैं, क्योंकि उनके गुरुका नाम पदमनन्दि था। शास्त्रीजीने तर्क उपस्थित करते हुए लिखा है-"न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता प्रभाचन्द्रने स्वामी विद्यानन्द और अन्तवीर्यका स्मरण किया है। यदि आदिपुराणमें उल्लिखित प्रभाचन्द्र और उनका चन्द्रोदय प्रकृत प्रभाचन्द्र और उनका अन्य न्यायकुमुदचन्द्र ही है, तो यह सम्भव प्रतीत नहीं होता कि आदिपुराणकार न्यायकुमुदचन्द्रका तो स्मरण करें, किन्तु उसमें स्मृत आचार्य विद्यानन्द और अनन्तवीर्य सरीखे यशस्वी
१. अन शिलालेखसंग्रह, भाग १, अभिलेख संख्या ५५, पद्य १७, १८ ।
२. हरिवंशपुराण, १| ३८ ।
ग्रंथकारो को भूल जायें। विद्यानन्द और अनन्तवीयके ग्रन्थोंके उल्लेखोंके आधार पर दोनोंका समय ईसाकी नवीं शताब्दीसे पहले नहीं जाता । अतः उनके स्मरण का प्रभावामका स्मरण नवमी शताब्दीक पूर्वार्द्धकी रचना आदिपुराणमें नहीं किया जा सकता।"
पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने अन्य तर्कों के आधारपर भी डॉ. पाठक आदिके मतका खण्डन किया है और प्रभाचन्द्रका ममय ई० सन् ९५० से १०२० निर्धारित किया है।
प्रभाचन्द्र ने पहले प्रमेयकमलमार्तण्डकी रचना करके ही न्यायकुमुदचन्द्रकी रचना की है । प्रमेयकमलमार्तण्डको अन्तिम प्रशस्तिमें 'भोजदेचराज्ये उल्लिखित मिलता है, पर न्यायकुमुदचन्द्रकी पुष्पिकामें 'श्रीजयसिंहदेवराज्ये' पद उल्लिखित है । अतएव श्रीप्रभाचन्द्रका समय जमिहदेवका राज्यकाल सन् १०६५ तक माना जा सकता है। अदि प्रभाचन्द्रकी ८५ वर्षकी आयु हो, तो उनकी पूर्वावधि ई. सन् १८० सिद्ध होती है। आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार और पण्डित कैलाशचन्द्र जी शास्त्रो प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रके अन्तमें पाये जाने वाले 'श्रीभोजदेवराज्ये' और 'श्रीजयसिंहदेवराज्ये आदि प्रशस्तिलेखोंको स्वयं प्रभाचन्द्रका नहीं मानते। पर न्यायाचार्य पण्डित महेन्द्र कुमारजी उक्त प्रशस्ति-लेखोंको प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुवचन्दके रच यिता प्रभाचन्द्र के हो मानते हैं।
प्रभाचन्द्रने यापनीयसंघाग्रणी शाकटायनाचार्यके केलिमुक्ति और स्त्री मुक्ति प्रकरणोंकी कुछ कारिकारिकाओंको पूर्वपक्षके रूपमें उद्धृत किया है । शाक टायनाचार्यका समय अमोघवर्षका राज्यकाल {ई: सन् ८१४-८७७ ) नवम शती है । अतः प्रभाचन्द्रका समन्च ई० सन् ९०० से पहले नहीं माना जा सकता।
आचार्य देवसेनने अपने 'दर्शनसार' ग्रन्थके बाद 'भावसंग्रह बनाया है । इसकी रचना ई० ९४० के आस-पास हुई होगी। प्रमेयकमलमानण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र में देवसेनकी 'नोकम्मकम्महारो' गाथा उद्धत मिलती है। अतएव प्रभाचन्द्रका समय ई० सन् ९४० के बाद होना चाहिये । श्रीधरकी न्यायकन्दलीको छाया भी प्रभाचन्द्र के ग्रन्थोंपर दिखलाई पड़ती है। श्रीधरने कन्दली टीका ई. सन् १९१ में समाप्त की थी । अतः प्रभाचन्द्रको पूर्वावधि ९९० के लगभग होनी चाहिये ।
शिलालेखके आधारपर प्रभाचन्द्र के सधर्मा गोपनन्दि बताये गये हैं। पहले बेलगोल' के एक अभिलेख ( अभिलेख सं० ४९२ ) में होयसलनरेश, एरेया
१. न्यायकुमुदचन्द्र, प्रथम भाग. माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई, सन १९३८ प्रस्तावना
पृ० ११८ ।
द्धारा पनन्दि पण्डित देवको दिये गये दानका उल्लेख है। यह दान पौष शुक्ला त्रयोदशी संवत् १०१५ में दिया गया है। इस तरह ई० सम् १०९३ में प्रभाचन्द्र सधर्मा गोपनन्दिकी स्थिति होनेसे प्रभाचन्द्रका समय सन् १०९३ ईस्वीके पश्चात् नहीं हो सकता है।
यदि देवसूरिने ई० सन् १९१८ के लगभग अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ स्याद्वाद रत्नाकरकी रचना की है । स्वाहादरलाकरमें प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका न केवल शब्दार्थानुसरण ही किया गया है, किन्तु कवलाहार समर्थनप्रकरणमें तथा प्रतिबिंबचर्चा में प्रभाचन्द्र और प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमल मार्तण्डका नामोल्लेख करके खण्डन भी किया है। अतः प्रभाचन्द्रके समयको उत्तरावधि ई० सन् ११०० सुनिश्चित हो जाती है। ___ श्री पण्डित महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने अनेक पुष्ट प्रमाणोंके आधारपर ई० सन् ९८० से १०६५ ईस्वी तक प्रभाचन्द्रका समय माना है। 'सुदंसणचरिउ' की प्रशस्तिमें नयनन्दिने माणिक्यनन्दिका उल्लेख किया है। 'सुदंसणचरित' की समाप्ति वि० सं० १९०० में हुई है। अतः माणिक्यनन्दिका समय वि० सं० की ११वीं शताब्दीका पूर्वार्द्ध है । प्रमेयकमलमार्तण्डकार आचार्य प्रभाचन्द्रने माणिक्य नन्दिके समक्ष धारानगरीमें प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रकी रचना की है । आचार्य माणिक्यनन्दि भी धारानगरीमें निवास करते थे। अतः बहुत सम्भव है कि माणिक्यनन्दिो परीक्षामुखका अध्ययन कर प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड रचा हो । डॉ दरबारीलालजी कोठियाके सप्रमाण अनुसन्धानके अनुसार प्रभाचन्द्र और माणिक्यनन्दिकी समसामयिकता प्रकट होती है और उनमें परस्पर साक्षात् गुरु-शिष्यत्व भी सिद्ध होता है। इससे भी आचार्य प्रभाचन्द्रका समय ई० सन्की ११ वीं शती निर्णीत होता है।
इनकी निम्नलिखित रचनाएँ मान्य है----
१. प्रमेयकमलमार्तण्ड : परीक्षामुख-व्याख्या
२. न्यायकुमुदचन्द्र : लघीयस्त्रय-व्याख्या
३. तत्वार्थवृत्तिपदविवरण : सर्वार्थसिद्धि-व्याख्या
४. शाकटागनन्यास : शाकटायनन्याकरण व्याख्या
५. शब्दाम्भोजभास्कर : जैनेन्द्रव्याकरण-व्याख्या
६, प्रवचनसारसरोजभास्कर : प्रवचनसार व्याख्या
७, गधकथाकोष : स्वतंत्र रचना
१. आप्तपरीक्षा, प्रस्तावना प० २७-३३, बीर सेवा मन्दिर संस्करण, १९४९ ।
८. रत्नकरण्डकश्रावकाचार-टीका
९.. ममाक्तिंत्र-टीका
१० क्रियाकलाप-रीका
११. आत्मानुशासन-ट्रोका
१२. महापुराण-टिप्पण।
आचार्य जुगुलकिशोर मुख्तारने रत्नकांड श्रावकाचारको प्रस्तावनामें रत्नकांडधाववावकाचारकी दीका और समाधितंत्र की टीकाको प्रस्तुत प्रभाचन्द्र द्वारा रचित न मानकर किसी अन्य प्रभाचन्द्रकी रचनाएं माना है। पर जब प्रभाचन्द्रका समय ११ वीं शताब्दी सिद्ध होता है, तो इन ग्रन्थोंके उद्धरण रह भी सकते हैं। ग्नकरण्इटीका और समाधितंत्र टीका प्रमेयकमलमासंण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका एक साथ विशिष्ट शैली में उल्लेख होना भी इस बात का सूचक है कि ये दोनों टीकाएं प्रसिद्ध प्रभाचन्द्रकी ही हैं । यथा--
"तदनमतिप्रसङ्गेन प्रमेयकमलमानण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे प्रपञ्चतः प्ररूप गान ---रलकरडटीका पृष्ठ-६ । "य: पुनर्योगसांख्यमुक्तौ तत्प्रच्युतिरात्मनो भ्युपगता ने प्रमयकमलमार्तण्हे न्यायकुमुदचन्द्रे च मोक्षविचारे विस्तरतः जन्याख्याताः ।" . ममावितन्त्रटीका, पृष्ठ १५ ।
ये दोनों अवतरण प्रभाचन्द्रकृत शब्दाम्भोजभास्करके उद्धरणसे मिलते जुलते है----
"तदात्मकास्त्र चायंस्य अध्यक्षतोऽनुमानादेश्च यथा सिद्धति तथा प्रमेयकमल मार्तण्डे न्यायकुमुदचन्दं च प्रपितामह ट्रष्टव्यम् ।" शब्दाम्भोजभास्कर।
प्रभाचन्द्रकृत गद्यकथाकोशमें पायी जाने वाली अजनचोर आदिको कथाएँ रत्नकरण्डकवावकाचारगत कथाओंसे पूर्णत: मिलती है। अतएव रत्न करण्डक श्रावकाचार और समाधितन्त्रको टीकाएं प्रस्तुत प्रभाचन्द्रको ही है।
क्रियाकलापकी टीकाकी एक हस्तलिखित प्रति बम्बईके सरस्वतीभवन में है। इस प्रतिकी प्रशस्तिमें क्रियाकलापटीकाके रचयिता प्रभाचन्द्रके गुरुका नाम पद्मनन्दि सेवान्तिक है और न्यायकुमुदचन्द्र आदिके कर्ता प्रभाचन्द्र भी पचनन्दि सैद्धान्तिकके ही शिष्य है। अतएव क्रियाकलापटीकाके रचयिता प्रस्तुत प्रभाचन्द्र ही जान पड़ते हैं। प्रशस्ति निम्न प्रकार है
"बन्दे मोहतमोविनाशनपटुस्त्रलोक्यदीपप्रभुः
संसतिसमन्वितस्य निखिलस्नेहस्य संशोषकः ।
सिद्धान्तादिसमस्तशास्त्रकिरणः श्रीपयनन्दिप्रभुः
तयिष्यात्प्रकटार्थतां स्तुतिपदं प्राप्त प्रभाचन्द्रतः !"
इसी प्रकार आत्मानुशामनतिलकके रचयिता भी प्रस्तुत प्रभाचन्द्र हैं। निश्चयतः आचार्य प्रभाचन्द्र अद्भुत भाष्यकार हैं। इन्होंने जिन टीकाओंका निर्माण किया है वे टीका स्वतन्त्र ग्रन्थका रूप प्राप्त कर चुकी हैं । अतः प्रमेय कमलमातंण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र, तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरण, प्रवचनसारमरोज भास्कर, शब्दाम्भोजभास्कर, महापुराण टिप्पण, गद्यकथाकोश, रत्नकरण्डटीका, समाधितंत्राटिका , क्रियाकलापटीका, आत्मानुशासनतिलक आदि टीका ग्रन्थ प्रभाचन्द्राग चित हैं, यह स्पष्ट है।
गुरु | आचार्य श्री पद्नानंदी जी |
शिष्य | आचार्य श्री प्रभाचंद्र जी |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Prabhachandra was a Digambara monk who flourished in 11th century CE. He denied the possibility of any genuine intensity of action, whether good or bad, on the part of women.
According to him, Kumarapala converted to Jainism and started worshipping Ajitanatha after conquering Ajmer.
1.Nyāyakumudacandra : A commentary on Akalanka's work Laghīyastraya.
2.Prameyakamalamārtaṇḍa : A commentary on Manikyanandi's work Pariksamukha.
3.Tattvārtha-vṛtti-pada-vivaraṇa : A commentary on Pūjyapāda’s work Sarvārtha-siddhi.
4.Śabdāmbhoja-bhāskara-vṛtti : A commentary on Pūjyapāda’s work Jainendra-Vyākaraṇa.
5.Pravacanasāra-saroja-bhāskara : A commentary on Āchārya Kundakunda’s Pravachanasara.It was translated in Hindi by Muni Pranamyasagar
6.Śākatāyana-nyāsa.
7.Prabhavaka Charita (IAST: Prabhavakacarita): Biographies of Jain monks
https://en.wikipedia.org/wiki/Prabh%C4%81candra
Acharya Prabhachandra 11th century
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Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 21-April- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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