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#SupaarswaSagarJiMaharaj1901ShivSagarJi
Acharya Shri was born in the year 1901 in village Sarsop,Jaipur,Rajasthan.His name was Ghansilal before diksha.He received the initiation from Acharya Shri Shiv Sagar Ji Maharaj.
जयपुर प्रान्त के सारसोप ग्राम में चैत्र बदी चौथ सम्बत १६५८ के दिन मंगल बेला में परम शीलवती माता सुन्दरबाई की कुक्षि से अग्रवाल सिंहल गोत्र में प्रापका जन्म हुआ। आपके पिता श्री छगनलालजी ने आपका जन्म नाम घासीलाल रखा। आपके पिताजी ग्राम के प्रमुख प्रतिष्ठित व्यक्ति थे । ग्राम में इन्हीं का शासन था। जब आपका जन्म हुआ था, आपके पिताजी एक बड़े जमींदार थे । आप अपने माता पिता के प्रथम पुत्र होने के कारण अत्यन्त प्रिय व लाडले थे। जन्म के समय बड़ा उत्सव मनाया गया था । आपके पिताजी तीन भाई थे।
आपसे छोटे दो भाई और हुए । बड़े श्री रामनिवासजी हैं । इन्होंने शादी कराने का विचार नहीं किया। आजकल घर पर ही व्यापार करते हुये श्रावकों के कर्तव्यों का पालन कर जीवनयापन कर रहे हैं । छोटे भाई श्री राजूलालजो थे। माता पिता को दो सन्ताने प्रायः विशेष लाडली होती हैं । प्रथम और अन्त की सन्तान । अत: आपके छोटे भाई श्री राजूलालजी विशेष प्रिय व लाडले होने के साथ ही उदार प्रकृति, सन्तोषी एवं कार्य कुशल युवक थे । शादी के बाद उनके एक पुत्र श्री भैरवलालजी हुए इसके पश्चात् असमय ही में उनका देहावसान हो गया।
विक्रम सम्वत् १९७१ में जबकि आपकी उम्र मात्र १३ वर्ष की थी, पिताजी ने आपके विवाह का निश्चय किया, एवं ग्राम बैंड के सेठ रामनाथजी की सुपुत्री श्रीमती ज्ञारसीदेवी के साथ आपका विवाह कर दिया । बैंड ग्राम एक अच्छा कस्बा है जहाँ पर जैनियों की अच्छी जन-संख्या के साथ ही सुन्दर जैन मन्दिर है।
शादी के पश्चात् आपके तीन पुत्र हुए । अन्तिम पुत्र का जन्म विक्रम सम्बत् १९८६ में शादी के १५ वें वर्ष बाद हुआ था । प्रथम दो पुत्रों की तो बाल्यावस्था ही में मृत्यु हो चुकी थी। तृतीय पुत्र श्री रामपालजी के जन्म के ६ मास बाद ही आपकी धर्म पत्नी का साधारण सी बीमारी में धर्म-ध्यान पूर्वक देहावसान हो गया। पुत्र रामपाल का लालन-पालन आपकी माताजो ने ही किया। आजकल श्री रामपाल जी लेन-देन एवं कपड़े का ही व्यवसाय करते हैं । व्यवहार कुशल, योग्य एवं उदार होने के कारण ग्राम में आपकी प्रतिष्ठा है । श्री रामपालजी की प्रथम पत्नी का शादी के कुछ वर्षों बाद ही देहावसान हो जाने से दूसरा शादी कर दी गई। अपने गृहस्थी के कर्तव्यों के साथ ही भाई रामपालजी धार्मिक कर्तव्यों का पूर्णरूपेण पालन करते हुये सुखमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
घासीलालजी को प्रारम्भिक स्कूली शिक्षा बिल्कुल भी नहीं हुई, घर पर ही एक ब्राह्मण अध्यापक से आपने मात्र बारहखड़ी की शिक्षा प्राप्त की थी। अल्प शिक्षित होने पर भी अपना उद्योग सफलता पूर्वक करते थे। जब आप मात्र १२ वर्ष को अवस्था में थे आपके पिताजी म्यादी बुखार से पीड़ित होने के कारण असमय ही में सम्बत् १९७० के बैसाख महीने में नश्वर शरीर से मोह छोड़ हमेशा के लिये संसार से विदा हो गए।
पिताजी की मृत्यु के बाद अपने भाई बन्धुओं, परिजनों एवं विशेषकर श्री चिरंजीलालजी दरोगा का शुभ निमित्त पाकर आप में जैन धर्म के प्रति विशेष आस्था का उदय हुआ। ठीक भी है जब किसी जीवात्मा का कल्याण होना होता है तब वह किसी भी स्थिति में हो ज्ञानी या अज्ञानी, बाल या वृद्ध उसकी परिणति काल-लब्धि द्वारा उसी प्रकार कल्याण की ओर प्रवृत्त हो जाती है। इस विषय में उदाहरण प्रायः सबके सुनने व देखने में आते हैं । ठीक यही स्थिति आपकी भी हुई। सम्बत् १९८० में जब आपको उम्र लगभग २२ वर्ष की होने जा रही थी आपने जीवन पर्यन्त रात्रि भोजन, बिना छना हुआ जल का त्याग करते हुए,
दैनिक जिनेन्द्र दर्शन, पूजन, प्रक्षाल आदि करने के नियम धारण कर लिये।
समय का चक्र बदला और सम्वत् २००० में एक साधारण सी बीमारी में जिनेन्द्र प्रभु की भक्ति करते हुये आपकी माताजी का देहावसान हो गया। माता की मृत्यु हो जाने से आपके अन्तर में संसार की नश्वरता का नग्न चित्र उपस्थित हुआ और आपके हृदय में वैराग्य ने प्रवेश किया तथा दिन प्रतिदिन अग्नि शिखा की तरह वैराग्य भावना का उदय होता गया।
विक्रम सम्वत् २०१० में परम पूज्य आचार्यवर श्री वीरसागरजी महाराज का संघ जयपुर खानियाँ में आया हआ था । आप संघ के दर्शनार्थ गए, एवं प्रथम बार मुनियों को आहार देने का सौभाग्य प्राप्त कर परम पूज्य मुनि श्री सन्मतिसागरजी महाराज की सत्प्रेरणा से आपने द्वितीय प्रतिमा के
व्रत अंगीकार कर लिये, तथा घर चले आए। इतने पर भी आपको संतोष नहीं की बैराग्य भावना दिन प्रति दिन बढ़ती ही गई । फलतः अपना सारा कारोबार अपने पुत्र को देकर व पूत्र मित्र परिजनों के साथ ग्रह सम्पदा का परित्याग कर, प्राचार्य शिवसागरजी महाराज का संघ सीकर ( राजस्थान ) में आया हुआ था तब, आपने पौष बदी एकम सम्वत् २०१७ की शुभ घडी में आचार्यश्री से क्षुल्लक दीक्षा धारण कर ली। प्राचार्य श्री ने आपका दीक्षित नाम सुपाश्वसागर रखा। क्षुल्लक अवस्था में आकर आपने जैनागम का ज्ञान पाते हुये धर्म का निर्दोष आचरण कर कठोर व्रतों का अभ्यास किया तथा अपने शरीर को दुद्धर तपस्या का अभ्यासी बनाया।
क्षुल्लक अवस्था में जब आपका चातुर्मास सम्बत् २०१६ में लाडनू ( राजस्थान ) में हो रहा था, आपने ३० दिन के कठोर उपवास किए थे। इस अवधि में ४ दिन मात्र दूध लिया था। इसी प्रकार जयपुर खानियां में भी चातुर्मास के शुभावसर पर सम्बत् २०२० में ३२ दिन का उपवास करते हुए चार दिन प्रासुक जल लेकर अपनी तप साधना का उत्तम परिचय दिया। उपवास के बाद पारणा श्री हरिश्चन्द्रजो टकसाली की सप्तम प्रतिमा धारणी माताजी श्री रामदेई के यहाँ हुई थी। उस समय जयपुर के २००० नर-नारियों का अपार जन-समूह आहार दान का दृश्य देखने के लिए उमड़ पड़ा था।
क्षुल्लक अवस्था में आपकी इस तपस्या एवं कठिन साधना के अभ्यास को देखकर महामुनि श्री वृषभसागरजी महाराज (प्रा० श्री शिवसागरजी संघस्थ ) ने संसार को क्षणभंगुर असारता को दिखाते हए आत्म-कल्याण के मार्ग पर चलने का उत्तम पथ दर्शाते हए मुनि दीक्षा लेने की प्रेरणा दी। मुनिश्री की इस प्रेरणा से प्रेरित होकर आपने कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी विक्रम सम्बत् २०२० में जयपुर खानियां में चातुर्मास के शुभावसर पर पन्द्रह हजार से अधिक जन-समूह के बीच आचार्यवर परम पूज्य श्री शिवसागरजी महाराज से समस्त अन्तरङ्ग बहिरङ्ग परिग्रह का त्याग करके आत्म शान्ति तथा विशुद्धता के लिये दिगम्बर मुनि का जीवन अंगीकार कर लिया। इस प्रकार कठिन साधना में निरत दुर्द्ध र तप करते हुए संघ सहित विहार कर बुन्देलखण्ड में प्रविष्ट हुए एवं मुनि दीक्षा के बाद प्रथम चातुर्मास अतिशय क्षेत्र पपौराजी में हुआ।
मुनि अवस्था में अतिशय क्षेत्र पपौराजी में भी पूरे भाद्र मास में ३२ दिवस का कठोर उपवासों का व्रत निर्विघ्नता से पूरा कर आपने अपनी तप साधना का परिचय दिया । पारणा के समय ७-८ हजार जन-समूह आहार दान के दृश्य को देखने के लिए आकाश में आच्छादित मेघों की भांति पपौरा प्रांगण में फैला हुआ था। पारणा श्रीमान् गोविन्ददासजी कापड़िया खिरिया बालों के यहाँ हुई थी। दिल्ली में ६१ दिनों का उपवास किया गया मात्र ५-६ दिनों बाद दूध एवं पानी लेते थे।
इस प्रकार की कठोर तप साधना एवं उपवास अवधि में आपका दैनिक कार्यक्रम उसी प्रकार रहता था जैसा कि पूर्व में होता था । प्रतिदिन स्वाध्याय शास्त्र प्रवचन के साथ ही आप अपने नैमित्तिक कर्तव्यों को दृढ़ता पूर्वक करते थे। शारीरिक शिथिलता लेशमात्र भी नहीं पाई जाता था, मात्र ४ घण्टे रात्रि के अन्तिम प्रहर में जिनेन्द्र स्मरण करते हये आपका शयन होता था । आपकी इस तप साधना को देखकर हजारों अजैन भी धन्य-धन्य करते हये नत हो जाते थे।
आप आचार्यवर श्री शिवसागरजी महाराज के परम बिनयी शिष्य हैं । आपका दैनिक कार्य क्रम का अधिकांश समय जैनागम के अध्ययन एवं लगन में ही व्यतीत होता है। आप यथार्थ में मूक साधक हैं।
आचार्य धर्म सागरजी के संघ सान्निध्य में मुजफ्फरनगर ( U. P. ) में आपने सल्लेखना धारण की तथा ८ माह तक दूध, छाछ, पानी लिया अंत में वह भी त्यागकर ५७ साधुओं के मध्य में आपने समाधि मरण किया बहलना ( मुजफ्फरनगर में ) आपकी विशाल चरण छतरियों का निर्माण हुवा है । धन्य है आपका जीवन ।
धन्य है आपकी इस वैराग्यमयी भावना को । आप इस भौतिक शरीर से ममता को अनुपयोगी वस्तु की भांति छोड़कर आत्म-कल्याण में अग्रसर हैं । आपके पावन चरणों में कोटिशः नमन है।'
Book written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
#SupaarswaSagarJiMaharaj1901ShivSagarJi
Book written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
आचार्य श्री १०८ सुपार्श्व सागरजी महाराज
आचार्य श्री १०८ शिव सागर जी महाराज १९०१ Aacharya Shri 108 Shiv Sagar Ji Maharaj 1901
ShivSagarJiMaharaj1901VeersagarJi
Acharya Shri was born in the year 1901 in village Sarsop,Jaipur,Rajasthan.His name was Ghansilal before diksha.He received the initiation from Acharya Shri Shiv Sagar Ji Maharaj.
Book-Jain Digamberacharya;Prerak Sant Avam Sadvichar
Book written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
Acharya Shri 108 Supaarswa Sagarji Maharaj
आचार्य श्री १०८ शिव सागर जी महाराज १९०१ Aacharya Shri 108 Shiv Sagar Ji Maharaj 1901
आचार्य श्री १०८ शिव सागर जी महाराज १९०१ Aacharya Shri 108 Shiv Sagar Ji Maharaj 1901
#SupaarswaSagarJiMaharaj1901ShivSagarJi
ShivSagarJiMaharaj1901VeersagarJi
#SupaarswaSagarJiMaharaj1901ShivSagarJi
SupaarswaSagarJiMaharaj1901ShivSagarJi
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