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#VeerSagarJiMaharaj1876AcharyaShantiSagarji
Acharya Shri Veer Sagar ji was born on the full moon day of 1876 ( Vikram Samvat 1933) in the 'Ere' salt village of Aurangabad district of Maharashtra province.
His mother's name was Bhagyavati and father Ramsukh ji. Maharaj ji’s childhood name was Hiralal Jain.
He performed the Yajnopavit rituals at the age of 6, with the ashta moolaguna. He accepted brahmachari .
Acharya Shiv Sagar ji was the first Muni initated by Acharya shri Veer Sagar Ji Maharaj .
आचार्य प्रवर श्री वीर सागरजी महाराज
पूर्व नाम | : | श्री हीरालालजी गंगवाल |
पिता श्री | : | श्री रामसुखजी गंगवाल |
माता श्री | : | श्रीमती भागूबाई जी (भाग्यवती बाई) |
जन्म स्थान | : | ईरगाँव (औरंगाबाद), महाराष्ट्र |
जन्म तिथि | : | आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा वि.सं. १९३३, सन् १८७६ |
क्षुल्लक दीक्षा तिथि | : | फाल्गुन शुक्ल सप्तमी, वि.सं. १९८० सन् १९२३ |
क्षुल्लक दीक्षा स्थल | : | समडोली, सांगली (महाराष्ट्र) |
मुनि दीक्षा तिथि | : | आश्विन शुक्ल एकादशी वि.सं. १९८१ सन् १९२४ |
दीक्षा गुरु | : | आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज |
आचार्य पद तिथि | : | द्वितीय भाद्रपद कृष्ण सप्तमी, वि.सं. २०१२ गुरुवार |
आचार्य पद स्थल | : | श्री दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र चूलगिरी (खानियाजी), जयपुर |
समाधि स्थल | : | श्री दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र, चूलगिरि (खानियाजी |
समाधि तिथि | : | आसौज कृष्ण अमावस्या, वि सं. २०१४ सोमवार २३-०९-१९५७ |
आचार्य श्री वीर सागर जी का जन्म महाराष्ट्र प्रान्त के ओरंगाबाद जिले के 'ईर' नमक ग्राम में विक्रम संवत १९३३ सन १८७६ में पूर्णिमा के दिन हुआ था ।इनकी माता जी का नाम भाग्यवती और पिताजी रामसुख जी थे ।आपके बचपन का नाम हीरालाल जैन था ।आपके जन्म के पूर्व आपकी माता जी ने एक सफ़ेद बैल सपने में देखा था ।कक्षा ७ वी तक आपने हिंदी व् उर्दू दोनों भाषाओँ में लोकिक अध्ययन किया और उसके बाद अपने पिता जी के साथ व्यापार में उनका साथ देने लगे । आपने ८ साल की उम्र में ही अष्ट मूलगुण सहित यज्ञोपवीत संस्कार कराया ।आप बाल ब्रह्मचारी थे । आपने विवाह नहीं किया था । आपने बचपन में स्वयं ही ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया था ,जब आपके माता-पिता ने आपके विवाह की चर्चा करी तब आपने अपने व्रत के बारे में उन्हें बता दिया ।आप की त्याग की भावना बचपन से ही थी । आप रसपरित्याग पूर्वक भोजन करते थे तथा समय समय पर उपवास भी किया करते थे ।माता-पिता के वियोग के बाद आपने कचनेर में धार्मिक पाठशाला खोलकर बच्चों को निशुल्क अध्ययन करना प्रारंभ किया ।
विक्रम संवत १९७८ सन १९२१ में ऐलक श्री पन्ना लाल जी से नंदगाँव में चातुर्मास में सप्तम प्रतिमा के व्रत लिए और ब्रहमचारी खुशालचंद जी के साथ रहने लगे ।दक्षिण भारत के कोन्नुर ग्राम में आपने सर्वप्रथम आचार्य शांति सागर जी (चरित्र चक्रवर्ती) के दर्शन किये और विक्रम संवत १९८० सन १९२३ में आचार्य शांति सागर जी (चरित्र चक्रवर्ती) जी से क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण करी । क्षुल्लक अवस्था में प्रथम चातुर्मास समडोली में हुआ ।और सन १९२४ में समडोली में ही मुनि दीक्षा हुई,और आचार्य शांति सागर जी के प्रथम शिष्य होने का गौरव प्राप्त हुआ ।आपने अपने गुरु के साथ १२ चातुर्मास किये ।और फिर गुरु आज्ञा से अलग होकर धर्म की प्रभावना के लिए प्रथम चातुर्मास ईडर नगर में किया ।आचार्य शिव सागर जी आपसे दीक्षित पहले मुनि हुए ।समाधि के पूर्व आचार्य शांति सागर जी ने पत्र लिख कर अपना आचार्य पद आपको प्रदान किया ।
एक बार कर्म उदय आने पर आपके पीठ पर बहुत बड़ा फोड़ा हो गया था जिसे डॉ. के कहने पर बिना बेहोशी के डॉ. द्वारा ऑपरेशन करवाया ।इस घटना से आपकी सहनशीलता का पता चला ।आपको मृगी का रोग भी था ,जब कभी आपको मृगी का दोरा पड़ता तब आप सूत्र- श्लोक को बहत जोर जोर से बोलने लगते थे ।
आपके प्रमुख शिष्यों में मुनि शिव सागर जी , मुनि धर्म सागर जी ,मुनि पद्म सागर जी ,मुनि जय सागर जी ,मुनि सन्मति सागर जी मुनि श्रुत सागर जी ,आचार्य कल्प श्रुत सागर जी प्रमुख है ।आचार्य श्री से दीक्षित आर्यिका में आर्यिका वीरमति माताजी ,आर्यिका कुन्थुमति माताजी ,आर्यिका सुमतिमति माताजी,आर्यिका पार्श्वमति माताजी जी ,आर्यिका इंदुमती माताजी जी ,आर्यिका सिद्धमति माताजी जी ,आर्यिका ज्ञान मति माताजी जी ,आर्यिका वासुमती माताजी ,आर्यिका सुपार्श्वमति माताजी जी प्रमुख है ।
आचार्य शांति सागर जी से आचार्य पद मिलने के बाद आपने उस पद को सफलता पूर्वक निभाया और २ वर्ष तक जयपुर में ही चातुर्मास किये,क्योकि आप शारीरिक रूप से अस्वस्थ थे और विहार करने की शक्ति आपने नहीं थी। विक्रम संवत २०१४ का चातुर्मास सानंद जयपुर संपन्न हो गया था कि इसी बीच आश्विन कृष्णा १५ को आचार्य श्री वीर सागर जी का सहसा ही समाधि मरण हो गया । आचार्य वीर सागर जी के समाधि मरण के बाद आचार्य शिव सागर जी को उनका आचार पद प्रदान किया गया ।
From Book-Digambar Jain Sadhu
सः जातो येन जातेन, याति धर्म : समुन्नतिम । परिबति नि ससारे मृतः को वा न जायते ।।
जीते तो सभी जीव हैं परन्तु जीना उन्हीं का सार्थक है जिनके जीवन से धर्म का उद्योत हो, धार्मिकता का विकास हो। आध्यात्मिक ज्योतिर्धर परम पूज्य १०८ चारित्र चक्रवर्ती शान्तिसागरजी महाराज के प्रधान शिष्य प्राचार्य वीरसागरजी महाराज ऐसे ही पुरुषों में से थे जिन्होंने न केवल अपना ही जीवन सार्थक बनाया अपितु कई भव्यजीव भी आपके निमित्त । से 'स्व धर्म' की ओर मुड़े।
ऐसी इस दिव्य विभूति का जन्म -निजाम प्रान्त हैदराबाद स्टेट औरंगाबाद( दक्षिण ) जिले के अन्तर्गत वीरग्राम में खण्डेलवाल जातीय गंगवाल गोत्रीय श्रीमान् श्रेष्ठिवर रामसुखजी की धर्मपत्नी सौ० भाग्यवती की दक्षिण कुक्षि से विक्रम संवत् १९३२ आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा की प्रातः शुभ वेला में हुआ था ।
जब आप गर्भ में थे तब माता कुछ-न-कुछ शुभ स्वप्न देखा करती थी और उनकी भावना दान-पूजा, तीर्थ वन्दनादि कार्यों को करने की रहा करती थी । माता-पिता ने बच्चे का नाम हीरालाल रखा। बालक के सुभग नाम कर्म के उदय के कारण उसे गोद में लेकर खिलाने वाला प्रत्येक स्त्री-पुरुष अपार हर्ष का अनुभव करता था।
दिगम्बर जैन साधु शैशवावस्था बीती, बचपन पाया, पाठशाला में पढ़ने हेतु भेजे गए। अध्ययन की रुचि जाग्रत हई पर घर के धार्मिक वातावरण ने प्रापको संस्कारवान बनने में बहुत सहायता की। देव दर्शन किये बिना आप भोजनादि नहीं करते थे। १६ वर्ष की अवस्था में माता-पिता ने आपका पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न करना चाहा परन्तु आपने उसे स्वीकार नहीं किया । आप अपना अधिकांश समय जिनालय में पूजन, पाठ, स्वाध्यायादि में बिताते, उदासीन रूप से व्यापारादि भी करते, तभी आपके सौभाग्य से विहार करते हुए ऐलक श्री पन्नालाल जी महाराज नांदगांव पधारे । ऐलक महाराज ने आपकी प्रवृत्ति देखकर आपको व्रत ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया। आपने महाराज श्री से सप्तम प्रतिमा के व्रत धारण कर लिये। कुछ दिन ऐलक जी के साथ रहकर ही आपने धर्म-ध्यान साधा।
व्यापार में आपका मन नहीं लगा तो आपने अतिशय क्षेत्र कचनेर में समाज के बालकों में धार्मिक संस्कार डालने हेतु एक नि:शुल्क पाठशाला चलाई, पाठशाला खूब चली। बड़े योग्य विद्यार्थी निकले जिन्होंने अपने गुरु के समान ही गौरव अजित किया। आचार्य १०८ श्री शिवसागरजी महाराज और मुनि श्री सुमति सागरजी महाराज आपकी इसी पाठशाला के प्रारम्भिक शिष्य रहे थे।
आपको धार्मिक शिक्षा से प्रेरणा प्राप्त कर इसी प्रकार अनेक जीवों ने अपना कल्याण किया।
शनैः शनै: आपको पाठशाला से भी अरुचि होने लगी-मन किसी और साधना के लिए उत्सुक था, तभी आपके कानों में चा० च० प्राचार्य शान्तिसागरजी की कीत्ति पहुंची कि वे चारित्र धारी भी हैं और उत्कृष्ट विद्वान् भी तब वे कोहनूर (महाराष्ट्र) में विराज रहे थे। यह जानकर आप ( ब्र० हीरालालजी ) तथा नांदगाँव निवासी सेठ श्रो खुशालचन्दजी पहाड़े ( पूज्य १०८ श्री चन्द्र सागर जी महाराज ), जिन्हें सातवीं प्रतिमा के व्रत चरितनायक ने ही दिए थे-दोनों कोहनूर पहुंचे। वहाँ महाराजश्री के दर्शन से दोनों को अपार हर्ष और सन्तोष हुआ। आप दोनों वहाँ तीन चार दिन रुककर महाराज की चर्या और अन्यगतिविधियों का निरीक्षण करते रहे परन्तु महाराज की चर्या में कोई त्रुटि निकाल पाने में दोनों ही असफल रहे ।
___ अब तो दोनों ने सोचा कि ऐसे गुरुदेव को छोड़कर अन्यत्र नहीं जाना चाहिए । यह अपना परम सौभाग्य एवं असीम पुण्योदय है कि ऐसे गुरु मिले । दोनों ब्रह्मचारी गुरुदेव के पास पहुंचे और उनसे अपने जैसा बनाने की प्रार्थना करने लगे । महाराज श्री ने दोनों का परिचय प्राप्त किया और कहा कि पहले आप दोनों अपने घरेलू और व्यापार सम्बन्धी कार्यों से निवृत्त हो जाओ, फिर दीक्षा की बात सोचेंगे । गुरु की आज्ञा पाकर दोनों अपने-अपने स्थानों को आए .
दिगम्बर जैन साधु सम्बन्धी अपने सारे उत्तरदायित्वों से मुक्त होकर आचार्य श्री के पास वि० सं० १९७६ में कुम्भोज जा पहुंचे । वहाँ फिर दीक्षा की याचना की। महाराज ने दीक्षा की गुरु गम्भीरता और कठोरता के बारे में तथा उपसर्ग, परीषहों व व्रत उपवासों के सम्बन्ध में खूब कहकर इन्हें अपने संकल्प से विरत करना चाहा परन्तु ये दोनों डटे रहे । दोनों का दृढ़ संकल्प जानकर वि० सं० १९८० भाद्रपद शुक्ला सप्तमी को दोनों को क्षुल्लक दीक्षा दी गई । ब्र० हीरालालजी अब महाराज वीरसागरजी हो गए पौर व खुशालचन्द्रजी चन्द्रसागर बन गए। दोनों ने वर्षों तक गुरु महाराज के सान्निध्य में रहकर ध्यानाध्ययन किया । कुछ ही समय बाद फिर क्षु० वीरसागरजी महाराज ने मुनिदीक्षा हेतु प्रार्थना की। प्राचार्य श्री ने इन्हें योग्य पात्र समझ कर ७ माह के बाद ही वि० सं० १९८१ में आश्विन शुक्ला ११ को समडोली नगर में कर्मोच्छे दिनी दैगम्बरी दीक्षा दे दी । दिगम्बर वेष धारण कर ग्राम अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा अपने मनुष्य जन्म को धन्य समझने लगे ।
आचार्यश्री के साथ ही आपने सब सिद्धक्षेत्रों व अतिशय क्षेत्रों की बन्दना की। १२ चातुर्मास भी आपने साथ ही किए। आपकी गुरुभक्ति अनुपम थी।
संघ के विशाल हो जाने के कारण संघस्थ सर्व मुनियों को प्राचार्यश्री ने अलग-अलग विहार करने की आज्ञा दे दी । पूज्य वीरसागरजी और मुनि आदिसागरजी-दोनों को साथ रखकर स्वतन्त्र कर दिया । पृथक् होने के बाद आपका प्रथम वर्षा योग वि० सं० १६६३ में ईडर ( वेथपूर ) में हुआ । अनन्तर क्रमश: टांका टूका, इन्दौर (२), कचनेर, कन्नड़, कारंजा, खातेगाँव, उज्जैन, झालरापाटन, रामगंज मण्डी, नैनवां, सवाई माधोपुर, नागौर, सुजानगढ़, फुलेरा, ईसरी, निवाई, टोडारायसिंह और जयपुर खानियां (३) में आपके चातुर्मास हुए। सर्वत्र अभूतपूर्व धर्मप्रभावना हुई। आपने अपने साधु जीवन में छह क्षुल्लक दीक्षाएँ, ८ क्षुल्लिका दीक्षाएँ, ११ आयिका दीक्षाएं और ७ मुनिदीक्षाएं प्रदान कर इन्हें धर्म मार्ग में योजित किया तथा परम्परा को गति प्रदान करते हुए आने । वाली सन्तति के लिए आदर्श प्रस्तुत किया।
विक्रम सम्वत् २०१२ में जब महाराजश्री संघ सहित खानियाँ जयपुर में विराज रहे थे। तब आपके गुरुदेव चा० च० प्राचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज ने कुन्थलगिरि में अपनी यम सल्लेखना के अवसर पर अपना आचार्य पद वहाँ उपस्थित बिशाल जनसमुदाय के बीच आपको प्रदान करने की घोषणा की थी। प्राचार्यश्री द्वारा प्रदत्त पीछी-कमण्डलु आपको जयपुर में एक विशाल प्रायोजन में विशाल चतुविधसंघ के समक्ष विधिपूर्वक अर्पित किए गए।
आपके सान्निध्य में सं० १९९७ में कचनेर में, सं० १९६८ में मांगी तुगी में, सं० १९६६ में सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरि में, सं० २००१ में पिड़ावा में पंचकल्याणक प्रतिष्ठाए तथा सं० २०११ म दिगम्बर जैन साधु निवाई, में मानस्तम्भ प्रतिष्ठा सानन्द सम्पन्न हुई । आचार्यश्री ने संघ सहित भारत के अनेक प्रान्तों राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र में निर्भीकतापूर्वक विहार किया । विहार में कभी किसी प्रकार की विपत्ति नहीं आई । मुक्तागिरि से खातेगाँव का रास्ता बड़ा भयानक है, ऐसे मार्ग में भी महराज के तप के प्रभाव से कोई अप्रिय घटना नहीं घटी । आपके सदुपदेश से प्रभावित होकर कई मांसाहारियों ने मांस भक्षण का त्याग किया, रात्रि भोजन का त्याग किया।
महाराजश्री साधुचर्या के इतने पाबन्द थे कि अस्वस्थ दशा में भी कभी प्रमाद नहीं करते थे । अपस्मार और कम्पन रोगों ने भी आप पर आक्रमण किया किन्तु आपके तपोबल व पुण्यप्रभाव से वे शीघ्र दूर हो गए। नागौर में आपकी पीठ पर नारियल के आकार का एक भयानक फोड़ा हो गया फिर भी महाराज ने अध्ययन-अध्यापन सम्बन्धी अपनी क्रियाओं में कभी प्रमाद नहीं किया।
वि० सं० २०१४ का वर्षायोग जयपुर खानियाँ में था । आप अस्वस्थ तो नहीं थे किन्तु आपकी शारीरिक दुर्बलता बढ़ती जा रही थी कि अचानक ही आश्विन कृष्णा अमावस्या को प्रातः १० बजकर ५० मिनट पर आप इस लोक और नश्वर देह को छोड़कर सुरलोक को प्रयाण कर गए ।
आचार्यश्री परमदयालु, स्वाध्यायशील, तपस्वी, अध्यात्मयोगी, निस्पृह साधु शिरोमणि थे। आपके आदर्श जीवन ने हजारों को त्याग मार्ग की ओर उन्मुख किया।
ऐसे परमपावन, आचार्यप्रवर के चरणों में सश्रद्ध नमन ।
परम पूज्य आचार्य श्री वीर सागर जी महाराज ने महाराष्ट्र प्रांत के औरंगाबाद जिले में वीर ग्राम में हीरालाल जी गंगवाल के रूप में जन्म लिया पूर्णिमा को आपका जन्म हुआ एक तरह से उनकी जीवन की कथा पूर्णिमा से अमावस्या तक है जन्म के 45 दिन पश्चात जिन मंदिर में णमोकार मंत्र सुना कर 8 वर्ष की उम्र तक के लिए अष्ट मूलगुण पालन का नियम दिया गया
सन 1917 में कचनेर अतिशय क्षेत्र में धार्मिक पाठ शाला का संचालन प्रारम्भ किया
सन 1921 में नांद गांव में चातुर्मास कर रहे ऐलक श्री पन्ना लाल जी से प्रेरणा पाकर 7 प्रतिमा के नियम लिए
81 वर्ष के जीवन में वह बाल ब्रह्मचारी रहे
ऐलक श्री पन्नालाल जी से उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत लिया
श्री रामसुख जी पिता एवं श्रीमती भागवती माता जी थी
प्रथम आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के प्रथम मुनि शिष्य बनने का सौभाग्य श्री हीरालाल जी को मिलाऔर वह मुनिश्री वीर सागर जी कहलाए 81 वर्ष का संयमी जीवन रहा 12 वर्ष तक गुरु सानिध्य में रहे जीवन को अमृत तुल्य बनाया बिहार कर उत्तर भारत में चतुर्विध संघ की स्थापना की
20वीं शताब्दी में चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने मुनि धर्म का प्रवर्तन किया था कचनेर में धार्मिक पाठशाला का निर्माण किया जिसमें हीरालाल जी रावका नाम के प्रथम शिष्य बने बाद में वे आचार्य शिव सागर जी के रूप में प्रथम मुनि शिष्य बने आचार्य जी ने 47 वर्ष की उम्र में
क्षुल्लक दीक्षा ली क्षुल्लक अवस्था। मे एक वर्ष रहे आचार्य श्री शान्तिसागर जी आचार्य पदारोहण महोत्सव सम डोली में हुआ उस दिन आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज ने 3 मुनि दीक्षाएं दी
मुनि श्री वीर सागर जी ऐलक श्री चंद्र सागर जी तथा मुनि श्री नेमी सागर जी की मुनि दीक्षा हुई है
79 वर्ष की उम्र में प्रथमाचार्य आचार्य श्री शांति सागर जी ने प्रथम पट्टा धीश धोषित कियाआप ने गुरु आदेश के पालन में आचार्य पद ग्रहण किया आचार्य श्री वीर सागर जी लोकेषणा प्रचार प्रसार से बहुत दूर थे
उन्होंने 28 दीक्षाएं दी 10 मुनि दीक्षा
1 प्रथम मुनि श्री शिवसागर जी
2 मुनि श्री धर्म सागर जी
3 मुनि श्री पदम सागर जी
4 मुनि श्री सन्मति सागर जी
5 मुनि श्री आदि सागर जी
6 मुनि श्री सुमति सागर जी
7 मुनि श्री श्रुत सागर जी
8 मुनि श्री अजीत कीर्ति जी
9 मुनि श्री जय सागर जी
10 मुनि श्री श्रुत सागर जी
1 आर्यिका श्री इंदु मति जी
2 श्री वीर मति जी
3 श्री विमल मति जी
4 श्री कुंथुमति जी
5 श्री सुमति मति जी
6 श्री पार्श्व मति जी
7 श्री सिद्ध मति जी
8 श्री ज्ञान मति जी
9 श्री सुपार्श्व मति जी
10 श्री वासु मति जी
11 आर्यिका श्री शांति मति जी
एक ऐलक दीक्षा
दो क्षुल्लक
1 श्री सिद्ध सागर जी
2 श्री सुमति सागर जी
4 क्षुल्लिका दीक्षा
कुल 28 साधु श्रमण बनाए
अंतिम शिष्य के रूप में आचार्य कल्प श्री श्रुत सागर जी एवं अंतिम शिष्याआर्यिका श्री सुपार्श्वमति माताजी रही
प्रारम्भ के 12 चातुर्मास दीक्षा गुरु आचार्य श्री शांति सागर जी के साथ किये
1 1924 समडोली
2 1925 कुम्भोज बाहुबली
3 1926 नादणी
4 1927 कुम्भोज बाहुबली
5 1928 कटनी mp
6 1929 ललितपुर
7 1930 मथुरा
8 1931 देहली
9 1932 जयपुर
10 1933 व्यावर
11 1934 उदयपुर
12 1935 गौरल
13 1936 ईडर
14 1937 टाका टूका
15 1938 इंदौर mp
16 1939 इंदौर
17 1940 कचनेर
18 1941 कन्नड़
19 1942 कारंजा
20 1943 खातेगांव mp
21 1944 उज्जैन mp
22 1945 झालरापाटन
23 1946 रामगंजमंडी
24 1947 नैनवा
25 1948 सवाई माधोपुर
26 1949 नागौर
27 1950 सुजानगढ़
28 1951 फुलेरा
29 1952 ईसरी
30 1953 निवाई
31 1954 टोडारायसिंह
32 1955 जयपुर आचार्य
33 1956 जयपुर
34 1957 जयपुर समाधि
81 वर्ष की उम्र में जयपुर खनिया जी। में आश्विन कृष्ण अमावस्या सोमवार को आपकी समाधि हुई
समाज मे संगठन का कार्य करो विघटन कभी मत करो सदा सुई का काम करो कैची का नही संध में परस्पर संगठित रहो गांठ लगाना मत भूलो अर्थात दीक्षा के परिणामों को याद रखो कि हमने क्यो दीक्षा ली है कही हम भटक कर ख्याति लाभ पूजा में तो नही लगे है तृण मत बनो पाषाण बनो अर्थात दृढ़ता से अपने व्रतों का पालन करो जिनवाणी जिनागम के स्वाध्याय से असंख्यात कर्मो की निर्जरा होती है
स्वाध्याय चंचल मन को रोकने का महत्वपूर्ण उपाय है
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि ब्रह्मचारी अवस्था मे धी नमक तेल और मीठे इन चार रसों का आजीवन त्याग कर दिया था आचार्य श्री की पीठ में फोड़ा हो जाने पर डॉक्टर ने कहा कि इलाज के लिए दवाई सुधाना होगी आचार्य श्री ने कहा आप इलाज करो 1 धण्टे तक डॉक्टर इलाज करता रहा शारीरिक पीड़ा से अविचलित रह कर स्वाध्याय करते रहे शरीर और आत्मा की भिन्नता को जीवन मे उतारने का इससे बड़ा उदाहरण नही हो सकता है .
http://www.vidyasagar.net/acharya-pravar-virsagar-maharaj/
https://www.jinaagamsaar.com/aacharya/veersagarc.php
#VeerSagarJiMaharaj1876AcharyaShantiSagarji
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आचार्य श्री १०८ वीर सागरजी महाराज
Acharya Shri 108 Shanti Sagarji Maharaj 1872 (Charitrachakravarti)
आचार्य श्री १०८ शांति सागरजी महाराज १८७२ (चरित्रचक्रवर्ती) Acharya Shri 108 Shanti Sagarji Maharaj 1872 (Charitrachakravarti)
1. 1924 Samdoli
2. 1925 Kumbhoj Bahubali
3. 1926 Nadani
4. 1927 Kumbhoj Bahubali
5. 1928 Katni mp
6. 1929 Lalitpur
7. 1930 Mathura
8. 1931 Delhi
9. 1932 Jaipur
10. 1933 Vyavar
11. 1934 Udaipur
12. 1935 Goural
13. 1936 eider
14. 1937 Taka Toka
15. 1938 indore mp
16. 1939 Indore
17. 1940 Kachner
18. 1941 Kannada
19. 1942 Karanja
20. 1943 khategaon mp
21. 1944 ujjain mp
22. 1945 Jhalrapatan
23. 1946 Ramganjmandi
24. 1947 Nainwa
25. 1948 Sawai Madhopur
26.1949 Nagaur
27. 1950 Sujangarh
28. 1951 Phulera
29. 1952 Ishri
30, 1953 Niwai
31. 1954 Todarai Singh
32. 1955 Jaipur Acharya
33. 1956 Jaipur
34. 1957 Jaipur Samadhi
1 Muni Shri Shivsagar ji
2 Muni Shri Dharam Sagar Ji
3 Muni Shri Padma Sagar Ji
4 Muni Shri Sanmati Sagar Ji
5 Muni Shri Adi Sagar
6 Muni Shri Sumati Sagar ji
7 Muni Shri Shrut Sagar Ji
8 Muni Shri Ajit Kirti ji
9 Muni Shri Jai Sagar Ji
10 Muni Shri Shrut Sagar Ji
1 Aaryika Shri Indu Mati ji
2 Aaryika Shri Veer Mati ji
3 Aaryika Shri. Vimal Mataji
4 Aaryika Shri Kunthumathi ji
5 Aaryika Shri Sumati Mati ji
6 Aaryika Shri Parshwa Mataji
7 Aaryika ShriSiddha Mati Ji
8 Aaryika Shri Gyan Mati Ji
9 Aaryika ShriSuparshva Mati ji
10Aaryika Shri Vasu Mati Ji
11 Aaryika Shri Shanti Mataji
1 Shri Siddha Sagar Ji
2 Shri Sumati Sagar Ji
Mr.Rajesh Ji Pancholiya
English updated by -
Aditi Jain
18-12-2020
Information and Book provided by Rajesh Ji Pancholiya
Updated by Sanjul Jain on 04-May-2021
Image courtesy by Shri Rajeshji Pancholiya, Indore. Contact number of Shri Rajeshji 9926065065
Manasi Shaha translated the content from Hindi to English on 4th-June-2022
Updated by Sanjul Jain on 09-Oct-2021
AcharyaShriShantiSagarJiMaharaj1872DevendraKirtiJi
Acharya Shri Veer Sagar ji was born on the full moon day of 1876 ( Vikram Samvat 1933) in the 'Ere' salt village of Aurangabad district of Maharashtra province.
His mother's name was Bhagyavati and father Ramsukh ji. Maharaj ji’s childhood name was Hiralal Jain.
He performed the Yajnopavit rituals at the age of 6, with the ashta moolaguna. He accepted brahmachari .
Acharya Shiv Sagar ji was the first Muni initated by Acharya shri Veer Sagar Ji Maharaj .
Acharya Shri Veer Sagar ji was born on the full moon day of Vikram Samvat 1933 in the year 1876 in Eer village of Aurangabad district of Maharashtra province. His mother's name was Bhagyavati and father Ramsukh. His childhood name was Hiralal Jain. Before his birth, his mother had dreamed of a white bull. Till class 7th, he studied in both Hindi and Urdu languages and then accompanied his father in business with him. At the age of 8, he got the sacrificial ceremony performed with the Ashta Moolgun. He was a Bal Brahmachari. He didn't get married. He himself had taken Brahmacharya vrat in his childhood, when his parents discussed marriage then he told them about his vrat. His sense of sacrifice was with him since childhood. He used to eat food with abstinence and also used to fast from time to time. After the death of parents, he started teaching children free of cost by opening a religious school in Kachner.
In Vikram Samvat 1978, in the year 1921, at Nandgaon Ailak Shri Panna Lal ji took a vow of the seventh idol in Chaturmas and started living with Brahmachari Khushalchand ji. He first had darshan of Acharya Shanti Sagar ji (Charitra Chakraborty) in Konnur village of South India, and in Vikram Samvat 1980, year 1923, received Kshullak initiation from Acharya Shanti Sagar ji (Charitra Chakravarti) ji. His first chaturmas took place in Kshullak state in Samdoli. And in the year 1924, he took Muni Diksha in Samdoli itself, and got the distinction of being the first disciple of Acharya Shanti Sagar. He performed 12 chaturmas with his Guru.
He did the first chaturmas in Idar Nagar for the influence of religion, after separating from Guru's command. Acharya Shiv Sagar ji became the first sage who took Diksha from Acharya Shanti Sagar. Before samadhi, Acharya Shanti Sagar ji gave his Acharya Pad through a letter.
Once on Karma uday, there was a huge boil on his back, which was operated by doctor with complete consciousness. This incident showed his tolerance. He used to chant Sutra shlok loudly when he had an attack.
Muni Shiv Sagar ji, Muni Dharma Sagar ji, Muni Padma Sagar ji, Muni Jai Sagar ji, Muni Sanmati Sagar ji, Muni Shrut Sagar ji, Acharya Kalpa Shrut Sagar ji are prominent amongst his main disciples. Aryika Kunthumati Mataji, Aryika Sumatimati Mataji, Aryika Parsvamati Mataji, Aryika Indumati Mataji, Aaryika Siddhamati Mataji, Aaryika Gyan Mataji, Aaryika Vasumati Mataji, Aaryika Suparswamati Mataji are also prominent.
After getting the post of Acharya from Acharya Shanti Sagar ji, he fulfilled that post successfully and did chaturmas in Jaipur for 2 years, because he was physically unwell and he did not have the strength to do Vihar. On Vikram Samvat 2014, Ashwin Krishna 15, Acharya Shri Veer Sagar Ji suddenly died while doing Chaturmas at Sanand Jaipur. After the death of Acharya Veer Sagar ji, Acharya Shiv Sagar ji was given his post of Acharya Pad.
From Book-Digambar Jain Sadhu
sah jaato yen jaaten, yaati dharm
samunnatim paribati ni sasaare mrtah ko va na jaayate
All living beings do live, but living is worthwhile only for those whose life gives rise to religion and development of righteousness. Adhyatmik Jyotirdhar Param Pujya 108 Charitra Chakravarti Shantisagarji Maharaj's principal disciple Acharya Veersagarji Maharaj was one of such person who not only made his own life worthwhile, but made many people towards religion, who also turned to ‘SwaDharma’.
Such a divine personality was born in the early morning of Vikram Samvat 1932 Ashadh Shukla Purnima in Vikram Samvat, 1932, in Veergram under Nizam's state, Aurangabad (South) district, from the womb of Khandelwal ethnic Gangwal gotri Shriman Shresthivar Ramsukhji's wife, Bhagyavati.
Mother Bhagyamati ji used to see some auspicious dreams and her spirit wished to do charity-worship, pilgrimage, worship etc. when he was in the womb. Parents named the child Hiralal. Due to the rise of good name deeds of the child, every man and woman who fed him in his lap used to experience immense joy.
Digambar Jain sages have passed their infancy, attained childhood, and were sent to study in the school. The interest of study was awakened, but the religious environment of the house helped a lot in becoming cultured. He didn't eat food without praising God. At the age of 16, his parents wanted to perform his adoption ceremony, but he didn't accept it. He spent most of his time in Jinalaya for worship, lessons, self-study, even doing business indifferently, then Ailak Shri Pannalal ji Maharaj came to Nandgaon. Seeing his instincts, Ailak Maharaj inspired him to observe the fast. He took the vow of the seventh idol from Maharaj Shree. After staying with Ailak ji for a few days, he meditated on religion.
He did not feel like doing business, then he ran a free school in Kachner, a free school for instilling religious rites for the children of the society, the school went well. Very deserving students emerged who earned the same glory as their guru. Acharya 108 Shri Shiv sagarji Maharaj and Muni Shri Sumati Sagarji Maharaj were the initial disciples of his school.
By getting inspiration from his religious education, similarly many students have been benefited.
Gradually, he started getting disinterested from school too - the mind was eager for some other spiritual practice, only then the praise of Principal Shantisagarji reached in his ears that he is a charitradhari and an excellent scholar, at that time he stayed in Kohinoor (Maharashtra).
Knowing this, he (Br. Hiralal Ji) and Nandgaon resident Seth Shri Khushalchandji Pahade (Pujya 108 Shri Chandra Sagar Ji Maharaj), to whom Charitnayak had given the Vrat for the seventh idol- both reached Kohinoor. There, both of them got immense joy and satisfaction from the darshan of Maharajshree. Both of them stayed there for three to four days and inspected Maharaj's routine and other activities, but both failed to find any error in Maharaj's routine.
Now both of them thought that leaving such a Gurudev and going elsewhere is wrong. It is their great fortune and immense virtue to get such a guru. Both the brahmacharis approached Gurudev and started praying to make him like them. Maharaj Shri got the introduction of both and said that both of them should first retire from their domestic and business related work, then he will think of initiation. Both of them came to their respective places after getting the permission of the Guru.
They got freed from all his responsibilities related to Digambar Jain sadhu, and reached Kumbhoj to Acharya Shri in Vikram Samvat 1976. There again they prayed for initiation. The Maharaj tried to dissuade them from their resolution by saying a lot about the seriousness and hardness of the Guru of initiation and about the prefixes, efforts and fasting, but both of them stood firm. Knowing the determination of both of them, they were given Shullak Diksha on Vikram Samvat 1980, on Bhadrapada Shukla Saptami. Brahmachari Hiralalji has now become Maharaj Veersagarji and Khushalchandraji has become Chandrasagar. For years, both of them meditated by staying in the company of Guru Maharaj. After some time again Shullak Veer Sagar Ji Maharaj prayed for Muni diksha. Considering him to be eligible, the Pracharya gave Diksha to him on Ashwin Shukla 11 in Samdoli Nagar after 7 months. Wearing the garb of Digambar, the village was very happy and started considering their human birth to be blessed.
Along with Acharyashree, he visited all the Siddha Kshetras and Atishaya Kshetras. He also did 12 Chaturmas together. His devotion to Guru was unmatched.
Due to the growth of the Sangh, the Acharya Shri gave orders to all Muni’s of the Sangha to do separate viharas. Pujya Veerasagarji and Muni Adisagarji - kept both together and set them free. After separating, his first Varsha Yoga took place in Vikram Samvat 1663 at Idar (Vethpur). After that he had chaturmas respectively, in Tanka Tuka, Indore (2), Kachner, Kannada, Karanja, Khategaon, Ujjain, Jhalrapatan, Ramganj Mandi, Nainwan, Sawai Madhopur, Nagaur, Sujangarh, Phulera, Isri, Niwai, Todarai Singh and Jaipur Khanian (3). There was unprecedented religious influence everywhere. In his Sadhu life, he has organised on the path of Dharma by providing six Kshullak Dikshas, 8 Kshullika Dikshas, 11 Aryika Deekshas and 7 Muni Dikshas and gave impetus to the tradition. Presented a role model for the children.
When Maharaj shir was staying at Raipur in Vikram Samvat 2012 with the Sangh. Then his Gurudev Prcharya Shri Shanti Sagar Ji Maharaj, on the occasion of his Yama Sallekhna at Kunthalgiri, announced to confer his Acharya Pad to him among the huge crowd present there. The Pichhi-Kamandalu, given by the Pracharya, was duly presented to him in a huge sponsorship in Jaipur in front of the Great Chaturvidha Sangh.
In his presence in Samvat 1997 at Kachner, in Samvat 1968 at MangiTungi, in Samvat 1966 at Siddhakshetra Muktagiri, in Samvat 2001 at Pidawa for Panchkalyanak Pratishtha and in Samvat 2011 Digambar Jain Sadhu Niwai, for Manastambha Pratishtha at Sanand was completed. Acharyashree with the Sangh did Vihar fearlessly in many provinces of India at Rajasthan, Madhya Pradesh, Gujarat, Maharashtra. There was never any kind of calamity in the vihara. The road from Muktagiri to Khategaon is very dreadful, even in such a way no untoward incident happened due to the effect of Maharaj's penance. Impressed by his good sermon, many non-vegetarians gave up eating meat, and gave up dinner at night.
Maharaj shri was so strict in his spiritual practice that even in unwell conditions, he never used to glorify. Apasmara and trembling diseases also attacked him, but due to his tenacity and virtuous effect, they were quickly overcome. In Nagaur, a terrible boil the size of a coconut occurred on his back, yet Maharaja never gloated in his studies and teaching activities.
The Varsha Yoga of the year Vikram Samvat 2014 was in Jaipur Khaniyan. He was not well, but his physical infirmity was increasing. Suddenly on Ashwin Krishna Amavasya at 10.50 am, he left this world and mortal body. Acharyashree was a very kind, self-study, ascetic, spiritual yogi, selfless sage. His ideal life led thousands to the path of renunciation.
Salutations to the feet of such holiness.
Param Pujya Acharya Shri Veer Sagar Ji Maharaj was born as Hiralal ji Gangwal in Veer village in Aurangabad district of Maharashtra province. He was born in Purnima. In a way, his life story is from full moon to new moon. 45 days after birth he started listening to the Namokar mantra, he was given the rule of following the eight Moolgun till the age of 8.
Dharmik Pathshala Sanchalan
In 1917, started the operation of a religious school in the Kachner Atishay area.
7 Pratima Niyam
In the year 1921, taking inspiration from Shri Panna Lal ji, who was doing chaturmas in Nand gaon, took the rules of 7 Pratima. He remained a child celibate in his life of 81 years. He took a vow of celibacy from Ailak Shri Pannalal ji. Shri Ramsukh ji was father and Smt. Bhagwati was mother. Shri Hiralal ji got the privilege of becoming the first sage disciple of Pratham Acharya Shri Shantisagar ji Maharaj and he was called Munishri Veer Sagar ji, lived a spartan life of 81 years, lived in Guru's presence for 12 years, made life like nectar in did Vihar and established the Chaturvidha Sangh in North India.
In the 20th century, Chakravarti Acharya Shri Shantisagar ji Maharaj had introduced the religion of Muni, built a religious school in Kachner, in which Hiralal ji Rao became the first disciple, later he became the first sage disciple in the form of Acharya Shiv Sagar ji, at the age of 47 he took Kshullak Diksha. Acharya Shri Shantisagar Ji Acharya stayed for one year in Samdoli, where Padarohan Mahotsav took place where Acharya Shri Shantisagar Ji Maharaj gave Diksha to 3 Muni’s.
Muni Shri Veer Sagar ji, Ailak Shri Chandra Sagar ji and Muni Shri Nemi Sagar ji have received Diksha.
At the age of 79, Prathamacharya Acharya Shri Shanti Sagar ji declared the first Patta Dheesh, he took the position of Acharya in compliance with the Guru's order. Acharya Shri Veer Sagar ji was far away from publicity.
He gave 28 initiations, 10 sages initiated.
Important
Do the work of organization in the society, never disintegrate, always work as a needle, not a Scissor, stay organized together in a relationship, don't forget to tie knots, remember the results of initiation, why have we taken initiation, whether we have wandered and not engaged in worship to gain fame, don't be a straw, be a stone, that is, follow your vows firmly, by the self-study of Jinavani Jinagam, innumerable deeds are destroyed. Self-study is an important way to stop a restless mind.
In a Brahmachari state, he renounced the most important thing Ghee, Salt, Oil and Sweets for life. When Acharya Shri's back developed a boil, the doctor said that the medicine would have to be applied for treatment. Acharya Shree said you treat. The doctor kept on treating for 1 hour and he kept doing Swadhyay, remaining unmoved by physical pain. There can be no greater example than this to bring out the difference between body and soul.
1 Muni Shri Shivsagar ji
2 Muni Shri Dharam Sagar Ji
3 Muni Shri Padma Sagar Ji
4 Muni Shri Sanmati Sagar Ji
5 Muni Shri Adi Sagar
6 Muni Shri Sumati Sagar ji
7 Muni Shri Shrut Sagar Ji
8 Muni Shri Ajit Kirti ji
9 Muni Shri Jai Sagar Ji
10 Muni Shri Shrut Sagar Ji
1 Aaryika Shri Indu Mati ji
2 Aaryika Shri Veer Mati ji
3 Aaryika Shri. Vimal Mataji
4 Aaryika Shri Kunthumathi ji
5 Aaryika Shri Sumati Mati ji
6 Aaryika Shri Parshwa Mataji
7 Aaryika ShriSiddha Mati Ji
8 Aaryika Shri Gyan Mati Ji
9 Aaryika ShriSuparshva Mati ji
10Aaryika Shri Vasu Mati Ji
11 Aaryika Shri Shanti Mataji
1 Shri Siddha Sagar Ji
2 Shri Sumati Sagar Ji
Acharya Shri 108 Veer Sagar Ji Maharaj
आचार्य श्री १०८ शांति सागरजी महाराज १८७२ (चरित्रचक्रवर्ती) Acharya Shri 108 Shanti Sagarji Maharaj 1872 (Charitrachakravarti)
आचार्य श्री १०८ शांति सागरजी महाराज १८७२ (चरित्रचक्रवर्ती) Acharya Shri 108 Shanti Sagarji Maharaj 1872 (Charitrachakravarti)
Acharya Shri 108 Shanti Sagarji Maharaj 1872 (Charitrachakravarti)
1. 1924 Samdoli
2. 1925 Kumbhoj Bahubali
3. 1926 Nadani
4. 1927 Kumbhoj Bahubali
5. 1928 Katni mp
6. 1929 Lalitpur
7. 1930 Mathura
8. 1931 Delhi
9. 1932 Jaipur
10. 1933 Vyavar
11. 1934 Udaipur
12. 1935 Goural
13. 1936 eider
14. 1937 Taka Toka
15. 1938 indore mp
16. 1939 Indore
17. 1940 Kachner
18. 1941 Kannada
19. 1942 Karanja
20. 1943 khategaon mp
21. 1944 ujjain mp
22. 1945 Jhalrapatan
23. 1946 Ramganjmandi
24. 1947 Nainwa
25. 1948 Sawai Madhopur
26.1949 Nagaur
27. 1950 Sujangarh
28. 1951 Phulera
29. 1952 Ishri
30, 1953 Niwai
31. 1954 Todarai Singh
32. 1955 Jaipur Acharya
33. 1956 Jaipur
34. 1957 Jaipur Samadhi
English updated by -
Aditi Jain
18-12-2020
Information and Book provided by Rajesh Ji Pancholiya
Updated by Sanjul Jain on 04-May-2021
Image courtesy by Shri Rajeshji Pancholiya, Indore. Contact number of Shri Rajeshji 9926065065
Manasi Shaha translated the content from Hindi to English on 4th-June-2022
Updated by Sanjul Jain on 09-Oct-2021
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