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#akalankdevmaharaj
जैन परम्परामें यदि समन्तभद्र जैन न्यायके दादा है, तो अकलंक पिता। सारस्वसाचार्यों की परंपरा मे नाम आता है। ये बड़े प्रखर तार्किक और दार्शनिक थे। बौद्ध दर्शनमें जो स्थान धर्मकीर्तिको प्राप्त है, जैन दर्शनमें वहीं स्थान अकलंकदेवका है। इनके द्वारा रचित प्राय: सभी ग्रंथ जैन दर्शन और जैन न्याय विषयक हैं। इनके इन ग्रन्थोंको, इन विषयोंका 'महान' ग्रन्थ कहा हा सकता है।
अकलंकके सम्बन्ध में श्रवणबेलगोलाके अभिलेखों में अनेक स्थान पर स्मरण आया है। अभिलेखसंख्या ४७ में लिखा है-
"षट्तर्केष्वकदेवविबुध: साक्षादयं भूतले"
अर्थात् अकलंकदेव षट्दर्शन और तर्कशास्त्रमें इस पृथ्वी पर साक्षात् विबुध (बृहस्पतिदेव) थे।
एक अन्य अभिलेखमें इनके द्वारा बौद्धादि एकान्तवादियोंको परास्त किये जानेकी चर्चा की गयी है-
भट्टाकलङ्गोऽकृत सौगतादिदुवकि्यङ्कस्सकलङ्कभूतं।
जगत्स्वनामेव विधातुमुच्चेः सार्थ सामन्तादकलङ्कमेव।।
निश्चयत: अकलंकदेव द्वारा जैन न्यायका सम्बर्द्धन हुआ है। अभिलेख नं. १०८ में पूज्यपादके पश्चात् अकलंकदेवका स्मरण किया गया है और मिथ्यात्व अन्धकारको दूर करने के लिये सूर्यके तुल्य बताया गया है-
ततः परं शास्त्रविदां मुनीना
मसरोऽभूदकल डूसूरिः।
मिथ्यान्धकारस्थगिताखिलात्था:
प्रकाशिता यस्य वचोमयूखैः॥
अकलंक मान्यखेटके राजा, शुभतुंगके मंत्री भनी पुरुशोतमक पुत्र थे। 'राजावलिकथे' में इन्हें काञ्चोंके जिनदास नामक ब्राह्मणका पुत्र कहा गया है। पर तत्वार्थवार्तिकके प्रथम अध्यायके अन्त में उपलब्ध प्रशस्तिसे ये लघुहव्व नृपत्ति के पुत्र प्रतीत होते हैं। प्रशस्तिमें लिखा है-
जीयाच्चीरमकलब्रह्मा लघुहन्ननुपतिवरतनयः।
अनवरतनिखिलजननुसविधः प्रशस्तजनहुद्यः।।
ये लघुहव्वनृपति कौन हैं और किस प्रदेशके राजा थे, यह इरा पद्यसे या अन्य स्तोत्रसे ज्ञात नहीं होता। नामसे इतना प्रतीत होता है कि उन्हें दक्षिणका होना चाहिए और उसी क्षेत्रके वे नृपति रहे होंगे।
प्रभाचन्द्र के कथाकोषमें अकलंकको कथा देते हुए लिखा है कि एकबार अष्टालिका पर्वके अवसरपर अकलंकके माता-पिता अपने पुत्र अकलंक और निष्कलंक महित मुनिराजके पास दर्शन करने गये। धर्मोपदेश श्रवण करनेके पश्चात उन्होंने आठ दिनों के लिये ब्रह्मचर्य ब्रत ग्रहण किया और पुत्रोंको भी ब्रह्मचर्यव्रत दिलाया। जब दोनों भाई वयस्क हुए और माता-पिताने उनका विवाह करना चाहा, तो उन्होंने मुनिके समक्ष ली गयी प्रतिज्ञाकी याद दिलायी और विवाह करनेसे इन्कार कर दिया। पिताने पुत्रोंको समझाते हुये कहा कि "वह व्रत तो केवल आठ दिनोंके लिये ही ग्रहण किया गया था। अतः विवाह करने में कोई भी रुकावट नहीं है।" पिताके उक्त वचनोंको सुनकर पुत्रोंने उत्तर दिया-"उस समय, समय-सीमाका जिक्र नहीं किया गया था। अत: ली गयी प्रतिज्ञाको तोड़ा नहीं जा सकता।"
पिताने पुन: कहा- "वत्स! तुम लोग उस समय अबुद्ध थे। अत: ली गयी प्रतिज्ञामें समय-सीमाका ध्यान नहीं रखा। वहाँ लिये गये व्रतका आशय केवल आठ दिनोंके लिये ही था, जीवन-पर्यन्तके लिये नहीं। अतएक विवाह कर तुम्हें हमारी इच्छाओंको पूर्ण करना चाहिये।"
पुत्र बोले- "पिताजी! एक बार ली गयी प्रतिज्ञाको तोड़ा नहीं जा सकता। अत: यह व्रत तो जीवन-पर्यन्त के लिये है। विवाह करनेका अब प्रश्न ही नहीं उठता।"
पुत्रोंकी दृढ़ताको देखकर माता-पिताको आश्चर्य हुआ। पर वे उनके अभ्युदयका ख्यालकर उनका विवाह करने में समर्थ न हुए। अकलंक और निष्कलंक ब्रह्मचर्यकी साधना करते हुए विद्याध्ययन करने लगे।
काञ्चीपुरीमें बौद्धधर्मके पालक पल्लवराजको छत्रच्छायामें अकलंकने बौद्धन्यायका अध्ययन किया। अकलंक शास्त्रार्थी विद्वान् थे। इन्होंने दीक्षा लेकर सुधापुरके देशीयगणका आचार्यपद सुशोभित किया। अकलंकने हिमशीतल राजाकी सभामें शास्त्रार्थ कर तारादेवीको परास्त किया।
'ब्रह्म नेमिदत्तकृत आराधनाकथाकोष और मल्लिषेण-प्रशस्तिसे भी उक्त तथ्य पुष्ट होता है। मल्लिषेण-प्रशस्तिका अंकनकाल शक सं. १०५० है। अतएव ई. सन् १०७१ के लगभग अकलंकदेवके सम्बन्धमें उक्त मान्यता प्रचलित हो गयी थी-
तारा येन विनिज्जिता घट-कुटी-गूढ़ावतारा समं
बौद्धैयों धृत-पीठ-पीडित-कुदृग्देवात्त-सेवाज्जलि:। प्रायश्चित्तमिवात्रि-वारिज रज-स्नानं च यस्याचरत्
दोषाणां सुगतस्स कस्य विषयो देवाकलकुः कृती।।
चूण्णि॥ यस्येदमात्मनोऽनन्य-सामान्य-निरवद्य-विद्या-विभवोपवर्णनमाकण्यं।।
राजन्साहसतुङ्ग सन्ति बहवः श्वेतासपत्रा नृपाः
किन्तु त्वत्सदशा रणे विजयिनस्त्यांगोत्रता दुल्लभाः।
त्वद्वत्सन्ति बुधा न सन्ति कवयो वादोश्वरा वाग्मिनो
नाना-शास्त्र-विचारचातुरधियः काले कलो मद्विधाः।।
नेमिदत्तके आरावनाकथाकोषमें बताया है- 'मान्यखेटके राजा शुभतुंग थे। उनके मंत्रीका नाम पुरुषोत्तम था। पद्मावती उनकी पत्नी थी। पद्मावतीके गर्भसे दो पुत्र उत्पन्न हुए-अकलंक और निष्कलंक। अष्टाह्निका महोत्सवके प्रारम्भमें पुरुषोत्तम मन्त्री सकुटुम्ब रविगुप्त नामक मुनिके दर्शनार्थ गये और वहां उन्होंने पुत्रों सहित आठ दिनोंका बहाचर्य व्रत ग्रहण किया। युवावस्था होनेपर पुषोंने विवाह करनेसे इन्कार कर दिया और विद्याध्ययनमें संलग्न हो गये। उस सयय बौद्धधर्मका सर्वत्र प्रचार था। अतएव वे दोनों महाबोधि-विद्यालयमें बौद्ध-शास्त्रोंका अध्ययन करने लगे।
एक दिन गुरुमहोदय शिष्योंको सप्तभंगो-सिद्धान्त समझा रहे थे, पर पाठ अशुद्ध होने के कारण वे उसे ठीक नहीं समझा सके। गुरुके कहीं चले जाने पर अकलंकने उस पाठको शुद्ध कर दिया। इससे गुरुमहोदयको उनपर जैन होने का सन्देह हआ। कुछ दिनों में उन्होंने अपने प्रयत्नों द्वारा उनको जैन प्रमाणित कर लिया। दोनों भाई कारागृहमें बन्द कर दिये गये। रात्रिके समय दोनों भाईयोंने कारागृहसे निकल जानेका प्रयत्न किया। वे अपने प्रयत्नमें सफल भी हुये और कारागृहसे निकल भागे। प्रातःकाल ही बौद्ध गुरुको उनके भाग जानेका पता चला। उन्होंने चारों ओर घुड़सवारोंको दौड़ाकर दोनों भाईयों को पकड़ लानेका आदेश दिया।
घुड़सवारोंने उनका पीछा किया। कुछ दूर आगे चलने पर दोनों भाईयोंने अपने पीछे आनेवाले घुड़सवारों को देखा और अपने प्राणोंको रक्षा न होते देख अकलंक निकट के एक तालाब में कूद पड़े। और कमलपत्रोंसे अपने आपको आच्छादित कर लिया। निष्कलंक भी प्राणरक्षाके लिये शीघ्रतासे भाग रहे थे। उन्हें भागता देख तालाबका एक धोबी भी भयभीत होकर साथ-साथ भागने लगा। घुड़सवार निकट आ चुके थे। उन्होंने उन दोनोंको शीघ्र ही पकड़ लिया और उनका वध कर डाला। घुड़सवारोके चले जाने पर, अकलंक तालाबसे निकल निर्भय होकर भ्रमण करने लगे।
कलिंग देशके रतनसंचयपुरका राजा हिमशीतल था। उसकी रानी मदन सुन्दरी जिनधर्मकी भक्त थी। वह बड़े उत्साहके साथ जैनरथ निकालना चाहती थो । किन्तु बौद्ध गुरु रथ निकलने देने के पक्षमें नहीं थे। उनका कहना था कि कोई भी जैन विद्वान जब तक मुझे शास्त्रार्थ में पराजित नहीं कर देगा, तब तक रथ नहीं निकाला जा सकता है। गुरुके विरुद्ध राजा कुछ नहीं कर सकता था। बड़े धर्मसंकटका समय उपस्थित था। जब अकलंकको यह समाचार मिला, तो वे राजा हिमशीतलकी सभा में गये और बौद्ध गुरुसे शास्त्रार्थ करनेको कहा। दोनोंमें छ: मास तक परदे के अन्दर शास्त्रार्थ होता रहा। अकलंकको इस शास्त्रार्थसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने इसका रहस्य जानना चाहा। उन्हें शीघ्र ही ज्ञात हो गया कि बौद्ध गुरुके स्थान पर, परदेके अन्दर घड़े में बैठी बौद्ध देवी तारा शाल्वार्थ कर रही है। उन्होंने परदेको खोलकर घड़ेको फोड़ डाला। तारादेवी भाग गयी और बौद्ध गुरु पराजित हुए। जैनरथ निकाला गया और जैनधर्मका महत्त्व प्रकट हुआ।
'राजावलिकथे' में भी उक्त कथा प्रायः समान रूपमें मिलती है। अन्तर इतना ही है कि काञ्चीके बौध्दोंने हिमशीतलकी सभामें जैनोंसे इसी शर्त पर शास्त्रार्थ किया कि हारने पर उस सम्प्रदायके सभी मनुष्य कोल्हूमें पेलवा दिये दिये जायं। इस कथाके अनुसार यह शास्त्रार्थ १७ दिनों तक चला है। अकलंकको कुसुमाण्डिनी देवाने स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि तुम अपने प्रश्नोंको प्रकारान्तरस उपस्थित करने पर जीत सकोगे। अकलंकने वैसा ही किया और वे विजयी हुए। बौद्ध कलिंगसे सिलोन चले गये।
उपर्युक्त कथानकोंसे यह स्पष्ट है कि अकलंकदेव दिग्विजयी शास्त्रार्थी विद्वान थे। मल्लिषेण-प्रशस्तिके दूसरे पद्यमें आया है कि राष्ट्रकूटवंशी राजा साहसतुंगकी सभा में उन्होंने सम्पूर्ण बौद्ध विद्वानोंको पराजित किया। काञ्चीके पल्लववंशो राजा हिमशीतलको राजसभामें भी उन्होंने अपूर्व विजय प्राप्त की थी। इसी कारण विद्यानंदने अकलंकको सकलपायलमान कहा है।
समय-निर्धारण- अकलंकदेवके समयके सम्बन्धमें दो धारणाएँ प्रचलित हैं। प्रथम धारणाके प्रवर्तक डा. के. बी. पाठक हैं और दूसरी धारणाके प्रवर्तक प्रो. श्रीकण्ठ शास्त्री तथा आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार हैं। डा. पाठकने मल्लिषेण-प्रशस्तिके 'राजन् साहसतुग' श्लोकके आधार पर इन्हें राष्ट्र कूट-वंशी राजा दन्तिदुर्ग या कृष्णराज प्रथमका समकालीन सिद्ध किया है तथा अकलंकचरितके निम्नलिखित पद्यमें आये हुए "विक्रमार्क' पदका अर्थ शक संवत् किया है-
विक्रमार्कशकाब्दीयशतसप्तप्रमाजुषि।
काले अकलंकयतिनो बौद्धेर्वादो महानभूत्।।
अतः इनके मतानुसार अकलंका समय शक सं . ७०० (७७८ ई.) है।
दुसरी विचारधाराके पोषक श्रीकण्ठशास्त्री और आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार उक्त पद्यमें आये हुए 'विक्रमार्क' पदका अर्थ विक्रम संवत् करते हैं। अतः अकलंकका समय वि. सं. ७०० (ई. सन् ६४३) का विद्वान मानते हैं। प्रथम परम्पराके समर्थकों में स्व. डा. आर. जी. भण्डारकर, स्व. डा. सतीशचन्द्र विद्याभूषण और स्व श्री पं. नाथूरामजी प्रेमी हैं। दूसरी धारणाके पोषकोंमें डा. ए. एन. उपाध्ये, आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार और श्री पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री प्रभृति विद्वान हैं।
उक्त दोनों धारणाओंका आलोडन कर डा. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य ने अकलंकद्वारा भर्तृहरि, कुनारिल, धर्मकीर्ती, और कर्मयोगी आदि आचार्योंके विचारोंकी आलोचना पाकर अकलंकका समय ई. सन् ८ वीं शती सिद्ध किया है। न्यायाचार्यजीके प्रमाण पर्याप्त सबल हैं। आपने अकलंक देयके ग्रन्थोंका सुक्ष्म अध्ययन कर उक्त निष्कर्ष निकाला है।
आचार्य कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने गहन अध्ययन कर अकलंकदेवका समय ई. सन् ६२०–६६० तक निश्चित किया है और महेन्द्रकुमारजीके अनुसार यह समय ई. सन् ७२०-७८० आता है। इस तरह इन दोनों समयोंके मध्य में १०० वर्षाका अन्तर है।
धनञ्जयने अपनी नाममालामें एक पद्य लिखा है, जिसमें अकलंकके प्रमाणका जिक्र आया है। लिखा है-
प्रमाणमकलस्य पूज्यपादस्य लक्षणम्।
धनम्जयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम्।।
अकलंकका प्रमाण, पूज्यपादका व्याकरण और धनञ्जय कविका काव्य ये तीनों अपश्चिम रत्न हैं।
अकलंकदेवकी जैनन्यायको सबसे बड़ी देन है प्रमाण ! इनके द्वारा की गयी प्रमाणव्यवस्था दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोके आचार्याने अपनी-अपनी प्रमाणमीमांसाविषयक रचनाओं में ज्यों-का-त्यों अनुकरण किया है। अतः धनंजयने इस पद्यमें जैन तार्किक अकलंकदेव और उनके प्रमाण शास्त्रका उल्लेख किया है।
धनञ्जयके पश्चात् वीरसेनस्वामीने अपनी धवला तथा जयधवला टीकाओं में और उनके शिष्य जिनसेनने महापुराणमें अकलंकका निर्देश किया है। वीरसेन स्वामीने अकलंकदेवका नामोल्लेख किये बिना 'तत्वार्थभाष्य’ के नामसे उनके तत्त्वार्थवातिकका तथा सिद्धिविनिश्चयका उल्लेख करके उनके उद्धरण दिये हैं। जिनसेनने लिखा है-
भट्टाकलहुश्रीपालपात्रकेसरिणां गुणा:।
विदुषां हृदयानः हारायन्तेऽतिनिर्माता।।
अर्थात् भट्ट अकलंक, श्रीपाल और पात्रकेसरी आदि आचार्योंके अत्यन्त निर्मल गुण विद्वानों के हृदय में मणिमालाके समान सुशोभित होते हैं।
वीरसेनने धवलाटीकामें 'इति' शब्दका अर्थ बतलानेके लिए एक पद्य उद्धृत किया है, जो धनञ्जय कविकी अनेकार्थनाममालाका ३९ वा पद्य है। अतः धनञ्जय वीरसेनसे पूर्ववर्ती हैं और धनन्जयसे पूर्ववर्ती अकलंक हुए हैं। अतएव अकलंकका समय सातवीं शतीका उत्तरार्द्ध सिद्ध होता है।
अकलंकदेवकी रचनाओंकी दो वर्षों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम वर्गमें उनके स्वतन्त्र-ग्रन्थ और द्वितीय वर्गमें टीका-ग्रन्थ रखे जा सकते हैं। स्वतन्त्र-मन्थ निम्नलिखित है-
१. स्वोपत्रवृत्तिसहित लघीयस्त्रय
२. न्यायविनिश्चय सवृति
३. सिद्धिविनिश्चय सवृत्ति
४. प्रमाणसंसह सवृत्ति
१. तत्त्वार्थबात्तिक सभाष्य।
२. अष्टशती- देवागमविवृति।
१. लधीयस्त्रय- में तीन छोटे-छोटे प्रकरणोंका संग्रह है- (१) प्रमाण प्रवेश (२) नयप्रवेश और (३) निक्षेपप्रवेश| प्रमाणप्रवेशके चार परिच्छेद हैं- (१) प्रत्यक्षपरिच्छेद (२) विषयपरिच्छेद (३) परोक्षपरिच्छेद और (४) आगम परिच्छेद। इन चार परिच्छेदोंके साथ नयप्रवेश तथा प्रवचनप्रवेशको मिलाकर कुल छ; परिछेद स्वोपज्ञविवृत्तिमें पाये जाते हैं। लघीयस्त्रयके व्याख्याकार आचार्य प्रभाचन्द्रने प्रवचनप्रवेशके भी दो परिच्छेद करके कुल सात परिच्छेदों पर अपनी 'न्यायकुमुदचन्द्र' व्याख्या लिखी है। लघीयस्त्रयमें कुल ७८ कारिकाएँ हैं किन्तु मुद्रित लघीयस्त्रयमें ७७ ही कारिकाएँ हैं, 'लक्षणं क्षणिकैकान्ते"(कारिका ३५) नहीं है। इसके प्रथम परिच्छेदमें साढ़े छः, द्वितीय परिच्छेदमें ३, तृतीयमें १२, चतुर्थ में ७,पंचममें २१ तथा षष्ठमें २८ इस प्रकार कुल ७८ कारिकाएँ हैं।
अकलंकदेवने इसपर संक्षिप्त विवृति भी लिखी है। पर यह विवृत्ति कारिकाओंका व्याख्यानरूप न होकर सूचित विषयोंकी पूरक है। यह मूल श्लोकोंके साथ ही साथ लिखी गयी है। पं. महेन्द्रकुमारजीने लिखा है- 'मालूम होता है कि अकलंकदेव जिस पदार्थको कहना चाहते हैं, वे उसके अमुक अंशकी कारिका बनाकर बाकीको गद्यभागमें लिखते हैं। अत: विषयकी दृष्टि से गद्य और पद्य दोनों मिलकर ही ग्रंथकी अखण्डता स्थिर रखते हैं। धर्मकीर्तिकी प्रमाणवार्तिककी वृत्ति भी कुछ इसी प्रकारको है। उसमें भी कारिकोक्त पदार्थकी पूर्ति तथा स्पष्टताके लिए बहुत कुछ लिखा गया है।"
लघीयस्त्रयके प्रथम परिच्छेदमें सम्यक्ज्ञानकी प्रमाणता, प्रत्यक्ष-परोक्षका लक्षण, प्रत्यक्षके सांव्यवहारिक और मुख्य रूपसे दो भेद, सांव्यवहारिकके इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्षरूपसे दो भेद, मुख्यप्रत्यक्षका समर्थन, सांव्यवहारिकके अवग्रहादिरूप भेद तथा उनके लक्षण, अवग्रहाद्रिके बहादिरूप भेद, भावइन्द्रिय, द्रव्यइन्द्रियके लक्षण, पूर्व-पूर्व ज्ञानकी प्रमाणता और उत्तरोत्तर ज्ञानोंकी फकरूपता आदि विषयोंका कथन आया है।
द्वितीय परिच्छेदमेंद्रव्य पर्यायात्मक वस्तुका प्रमाणविषयत्व तथा अर्थक्रियाकारित्वके विवेचनके पश्चात् नित्यैकान्त और क्षणिकैकान्तमै क्रम-योग पद्यसे अर्थक्रियाकारित्वका अमाव प्रतिपादित किया है। वस्तुको नित्य माननेपर आनेवाले दोषोंकी समीक्षा की है। वस्तु न सर्वथा नित्य है और न अनित्य। वह किसी नयविशेषकी अपेक्षासे नित्य है और इतर नयकी अपेक्षासे अनित्य। लिखा है कि भेदाभेदात्मक वस्तु द्रव्यार्थिक और पर्यार्थिक नयकी अपेक्षासे ही घटित होती है। द्रव्यार्थिक अभेदका आश्रय करता है और पर्यार्थिक भेदका। यथा-
अर्थक्रिया न युज्यते नित्य-क्षणिकपक्षयोः।
क्रमाक्रमाभ्यां भावानां सा लक्षणतया मता॥
तृतीय परिच्छेदमें मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता तथा अभिनिवोधका शब्द योजनास पूर्व अवस्थामें मतिव्यपदेश तथा उत्तर अवस्थामें श्रुतव्यपदेश, व्याप्तिका ग्रहण प्रत्यक्ष और अनुमानके द्वारा सम्भव न होनेसे व्याप्तीग्राही तर्कका प्रामाण्य, अनुमानका लक्षण, जलचन्द्रको दृष्टान्तसे कारणहेतुका समर्थन, कृत्तिकोदय आदि पूर्वचर हेतुका समर्थन, अदुश्वानुपलब्धिसे परचैतन्य आदिका अभावज्ञान, नैयायिकाभिमत उपमानका सादृश्यप्रत्यभिज्ञानमें अन्तर्भाव, प्रत्यभिज्ञानके देसादृश्य, आपेक्षिक प्रतियोगी आदि मेदोंका निरूपण, बौद्धमतमें स्वभावादि हेतुओंके प्रयोगमें कठिनता, अनुमान- अनुमेयव्यवहारकी वास्तविकता एवं विकल्पबुद्धिकी प्रमाणता आदि परोक्षजानसे सम्बन्ध रखनेवाले विषयोंका निरूपण किया है।
चतुर्थ परीछेद ज्ञानसे निषेध कर प्रमाणाभासका स्वरूप, सविकल्प ज्ञानमें प्रत्यक्षभासताका अभाव, अविसंवाद और विसंवादसे प्रमाण-प्रमाणभासव्यवस्था, विप्रकृष्ट विषयोंमें श्रुतकी प्रमाणता, हेतुबाद और आप्तोक्त रूपसे द्विविध श्रुतकी अविसंवादि होनेसे प्रमाणता, शब्दोंके विवक्षावाचित्वका खण्डनकर उनकी अर्थवाचकता आदि श्रुतसम्बन्धी विषयों का विवेचन किया गया है। प्रमाणके स्वरूप, संख्या, विषय और फलका निरूपण मी प्रमाणप्रवेशमें किया है।
पञ्चम परिच्छेदमें नय-दुर्नसके लक्षण, द्रव्याथिक और पर्यायाथिक रूपसे नयके मूल भेद, सद्ररुपसे समस्त वस्तुओंके ग्रहणका संग्रहनयत्व, ब्रह्मवादका संग्रहाभासत्व, बौद्धाभिमत क्षणिक एकान्तका निरास, गुण-गुणी, धर्म-धर्मीको गौण-मुख्य विषक्षामें नेगमत्रयकी प्रवृत्ति, वैशेषिकसम्मत गुण-मण्यादिके एकान्त भेदका नेगमाभासत्व, प्रमाणिक भेदका व्यवहारनयत्व, काल्पनिक भेदका व्यव हाराभासत्व, कालकारकादिके मेदसे अर्थभेदनिरूपणको शब्दमयता, पर्याय भेदसे अर्थभेदक कश्चनका समभिरूढ़ नयब, क्रियाभेदसे अर्थभेदप्ररूपणका एवं. भूतनयत्व, सामग्री-भेदसे अभिन्न वस्तुमें भी षटकारकीका सम्भवत्व प्रति पादित किया गया है। यहाँ लधीयस्त्रयका द्वितीय प्रकरण नयप्रवेश समास होता है। शब्दज्ञानको प्रत्यक्षताका निरसनकर अनुमानवत् उसको परोक्षता सिद्ध करते हुए अकलंकदेवने लिखा है-
'अक्षशब्दार्थविज्ञानमविसंवादतः समम्।
अस्पष्ट शब्दविज्ञानं प्रमाणमनुमानवत्।।'
तदुत्पत्तिसारूप्यादिलक्षणव्यभिचारेऽपि आत्मना यदर्थपरिच्छेदलक्षणं ज्ञानं तत्तस्येति सम्बन्धात्। वागर्थशानस्यापि स्वयमविसंवादात् प्रमाणत्वं समक्षबत्। विवक्षाव्यतिरेकेण वागर्थज्ञानं वस्तुतत्त्वं प्रत्यायति अनुमानवत्, सम्बन्ध नियमाभावात्। वाच्यवाचकलक्षणस्यापि सम्बन्धस्य बहिरर्थप्रतिपत्तिहेतुतोप लब्धे।''
प्रवचनप्रवेशमें प्रमाण, नय और निक्षेपके कथनकी प्रतिमा, अर्थ और आलोककी ज्ञानकारणताका खण्डन, अन्धकारको ज्ञानका विषय होनेसे आवरणरूपताका अभाव, तज्जन्म, ताद्रष्य और तदध्यवसायका प्रमाणमें अप्रयोंजकत्व, श्रुतके सकलादेश और विकलादेशरूप उपयोग, "स्यादस्त्येव जीवः" इस वाक्यकी विकलादेशसा, "स्याज्जीव एव" इस वाक्यकी सकलादेशता, शब्दकी विवक्षासे भिन्न वास्तविक अर्थकी वाचकता, नैगमादि सात नयोंमेसे आदिके चार नयोंका अर्थनयत्व, शेष तीन नयोंका शब्दनयत्व, नामादि चार निक्षेपोंके लक्षण, अप्रस्तुनिराकरण तथा प्रस्तुत अर्थका निरूपणरूप निक्षेपका फल इत्यादि प्रवचनके अधिगमोपायभूत प्रमाण, नय और निक्षेपका निरूपण किया गया है। शास्त्रज्ञानका सादित्व-अनादित्व सिद्ध करते हुए लिखा है। यथा-
श्रुतादर्थमनेकान्तमधिगम्याभिसन्धिभिः।
परीक्ष्य तांस्तान तद्धर्माननेकान् व्यावहारिकान्।।
नयानुगनिक्षेपेरुपायेभैदवेदने।
विरचय्यार्थवांकप्रत्ययात्ममेदान श्रुतार्पितान्॥
अनुयुज्यानुयोगैश्च निर्देशादिभिदां गतः।
द्रष्याणि जीवादीन्यात्मा विवद्धाभिनिवेशनः।।
जीवस्थानगुणस्थानमार्गणास्थानतत्ववित्।
तपोनिर्जीणकर्माऽयं विमुक्त: सुखमृच्छति।
इस प्रकार इसमें प्रमाण, नय और निक्षेपका निरूपण किया है।
२. न्यायविनिश्चय सवृत्ति
विनिश्चयान्त ग्रन्थ लिखनेको प्रणाली प्राधीन रही है। धर्मकीर्तिका भी प्रमाणविनिश्चय नामक ग्रंथ मिलता है। ‘तिलोयपण्णत्ति' में भी 'लोकविनिश्चय' नामक ग्रंथकी सूचना है। न्यायबिनिश्चयमें प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रवचन ये तीन प्रस्ताव हैं। प्रथम प्रस्तावमें १६९ १/२, द्वितीयमें २१६ १/२ और तुतीयमें ९४, कुल ४८० कारिकाएँ हैं। सिद्धसेनके न्यायावतारमें भी प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द इन तीन प्रमाणोंका विवेचन किया गया है।
प्रथम प्रत्यक्षप्रस्तावमें प्रत्यक्ष-प्रमाणपर विस्तारपूर्वक विचार किया गया है। इसमें इन्द्रिय प्रत्यक्षका लक्षण, प्रमाणसम्प्लवसुचन, चक्षुरादि बुद्धियोंक, व्यवसापागा, त्रिकाले अगिलास आदि लक्षणोंका खण्डन, ज्ञानके परोक्षवादका निराकरण, ज्ञानके स्वसंवेदनकी सिद्धि, ज्ञानान्तर वेद्यज्ञानका निरास, अचेतनज्ञाननिरास, साकारज्ञाननिरास, निराकारज्ञान सिद्धि, सवेदनाद्वैतनिरास, विभ्रमवादनिरास, बहिरर्थसिद्धि, चित्रज्ञानखण्डन, परमाणुरूप बहिरर्थका निराकरण, अवयवोंसे भिन्न अवयवीका खण्डन, द्रव्यका लक्षण, गुण-पर्यायका स्वरूप, सामान्यका स्वरूप, अर्थके उत्पाद-व्यय भ्रौव्यका समर्थन, अपोहरूप सामान्यका निरास, व्यक्तीसे भिन्न सामान्यका खण्डन, धर्मकीर्तिसम्मत प्रत्यक्षलक्षणका खण्डन, बौद्धकल्पित स्वसंवेदन, योगि, मानस प्रत्यक्षनिरास, सांख्यकल्पित प्रत्यक्षलक्षणका खण्डन, नैयायिकके प्रत्यक्षका समालोचन, अतीन्द्रियप्रत्यक्षका लक्षण आदि विषयोंका विवेचन किया गया है।
द्वितीय अनुमानप्रस्ताव अनुमानसे सम्बद्ध है। इसमें अनुमानका लक्षण, प्रत्यक्षकी तरह अनुमानकी बहिरर्थविषयता, साध्य-साध्याभासके लक्षण, बौद्धादि मतोंमें साध्य-प्रयोगकी असम्भवत्ता, शब्दका अर्थवाचकत्व, शब्दसङ्कत ग्रहणप्रकार, भूतचैतन्यवादका निराकरण, गुण-गुणीभेदका निराकरण, साधन-साधनाभासके लक्षण, प्रमेयत्वहेतुकी अनेकान्तसाधकता, सत्वहेतुकी परिणामिता प्रसाधकता, त्रैरूप्यखण्डनपूर्वक अन्यथानुपपत्तिसमर्थन, तर्ककी प्रमाणता, अनुपलम्भहेतुका समर्थन, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर हेतुका समर्थन, असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिञ्चित्कर हेत्वाभासोंका विवेचन, दूषणाभासलक्षण, जातिलक्षण, जयेतरव्यवस्था, दृष्टान्त, दृष्टान्ताभासविचार, वादका लक्षण, निग्रहस्थानलक्षण, वादाभासलक्षण आदि अनुमानसे सम्बन्ध रखनेवाले विषयोंका वर्णन आया है।
तृतीय प्रवचनप्रस्तावमें आगमसम्बन्धी विचार किया गया है। इसमें प्रवचनका स्वरूप, सुगतके आप्तत्वका निरास, सुगतके करुणावत्व तथा चतुरार्यसत्यप्रतिपादकत्वका समालोचन, आगमके अपौरुषेयत्वका खण्डन, सर्वज्ञत्व समर्थन, ज्योतिर्ज्ञानोपदेश, सत्यस्वप्नज्ञान तथा ईक्षणिकादि विद्याके दृष्टान्त द्वारा सर्वज्ञत्वसिद्धि, शब्दनित्यत्वनिरास, जीवादितत्त्वनिरूपण, नैरात्म्य भावनाकी निरर्थकता, मोक्षका स्वरूप, सप्तभंगीनिरूपण, स्याद्वादमें दिये जाने वाले संशयादि दोषोंका परिहार, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदिका प्रामाण्य, प्रमाणका फल आदि विषयोंका विवेचन आया है।
यह ग्रन्थ कई दृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण है। कारिकाओंके साथ उत्थानिका वाक्य भी गद्यमें निबद्ध हैं। विवृति टीकात्मक न होकर विशेष विषयके सूचन रूपमें लिखी गयी है। कारिकाएँ और वृत्ति दोनों प्रौढ़ एवं गम्भीर भाषामें निबद्ध हैं। उनसे अकलंकदेवकी सूक्ष्म प्रज्ञा और तीक्ष्ण समालोचना अवगत कर पाठक प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। उदाहरणार्थ नित्यैकान्त, क्षणिकैकान्त आदिकी उनके द्वारा की गयी समीक्षा दृष्टव्य है-
अत्यन्ताभेदभेदी न तद्वतो न परस्परम्।
दृश्यादृश्यात्ममोर्बुद्धिनिर्भासक्षणभङ्गयोः॥
सर्वथाऽर्थक्रियाश्योगात् तथा सुप्तप्रबुद्धयोः।
अंशयोर्यदि तादात्म्यमभिज्ञानमनन्यवत्।।
संयोगसमवायादिसम्बन्धाद्यादि वर्तते।
अनेकत्रैकमेत्रानेक वा परिणामिनः।।
सर्वथा नित्यका खण्डन करते हुए लिखा है-
नित्यं सर्वगतं सत्वं निरंशं व्यक्तीभियंदि।।
व्यक्तं व्यक्तं सदा व्यक्तं लोक्यं सचराचरम्।
सत्तायोगाद्विना सन्ति यथा सत्तादयस्तथा।।
सर्वेऽर्थाः देशकालाश्च सामान्य सकलं मतम्।
सर्वभेदप्रभेदं सत् सकलाङ्ग शरीरवत्।।
३. प्रमाणसंग्रह
इसमें ९ प्रस्ताव और ८७ १/२ कारिकाएँ हैं। प्रथम प्रस्तावमें ९ कारिकाएँ, द्वितीयमें ९, तृतीयमें १०, चतुर्थमें ११ १/२, पञ्चममें १० १/२, षष्ठमें १२ १/२, सप्तममें १०, अष्टममें १३ और नवममें २ कारिकाएँ हैं। प्रथम प्रस्तावमें प्रत्यक्षका लक्षण, श्रुतका प्रत्यक्षानुमानागमपूर्वकत्व, प्रमाणका फल, मुख्यप्रत्यक्षका लक्षण आदि प्रत्यक्षविषयक सामग्री वर्णित है।
द्वितीय प्रस्तावमें स्मतिकी प्रमाणता, प्रत्यभिज्ञानका प्रामाण्य, तर्कका लक्षण, प्रत्यक्षानुपलम्भसे तर्कका उद्भव, कुतर्कका लक्षण, विवक्षाके बिना भी शब्दप्रयोगका सम्भव, परोक्ष पदार्थोंमें श्रुतसे अविनाभावग्रहण आदिका कथन है।
इस प्रस्तावमें परोक्षके भेद, स्मृति प्रत्यभिज्ञान और तर्कका विशेष रूपसे कथन आया है।
तृतीय प्रस्तावमें अनुमानके अवयव, साध्य सांधनका लक्षण, साध्याभासका लक्षण, सदसदेकान्तमें साध्यप्रयोगकी असम्भवता, सामान्यविशेषात्मक वस्तुकी साध्यता एवं अनेकान्तात्मक वस्तुमें दिये जानेवाले संशयादि आठ दोषोंकी समीक्षा अङ्कित है। चतुर्थ प्रस्तावमें हेतुसम्बन्धी विचार आया है। इसमें त्रिरूप हेतुका खण्डन करके अन्यथानुपपत्तिरूप हेतुलक्षणका समर्थन किया गया है। हेतुके उपलब्धि और अमुलब्धिरूप भेदोंका विवेचन कर पूर्व घर, उत्तरचर और सहचर हेतुसम्बन्धी विचार किया गया है। इस प्रस्ताव में विभिन्न मतोंकी समीक्षापूर्वक हेतुका स्वरूप निर्धारित किया है।
पञ्चम प्रस्तावमें असिद्ध, विरुद्धादि हेत्वाभासोंका निरूपण, सर्वथा एकान्तमें सत्वहेतुकी विरुद्धता, सहोपलभनियम, हेतुकी विरुद्धता, विरुद्धाव्यभिचारीका बिरुद्धमें अन्तर्भाव, अज्ञातहेतुका अकिञ्चित्करमें अन्तर्भाव आदि हेत्वाभासविषयक प्ररूपण आया है तथा इसमें अन्तयतिका भी समर्थन किया है।
षष्ट प्रस्ताव में वादका लक्षण, जय-पराजयव्यवस्थाका स्वरूप, जातिका लक्षण, दध्युष्टत्वादिके अभेदप्रसंगका सयुक्तिक उत्तर, उत्पादादित्रयात्मकत्व समर्थन, सर्वथा नित्य सिद्ध करने में सत्वहेतुका असिद्धत्वादि निरूपण आया है। इस प्रस्तावमें शून्यवाय मानिनाद, विशाग, निनामान अपोलाद, क्षणभंगवाद, असत्कार्यवाद आदिकी भी समीक्षा की गयी है।
सप्तम प्रस्ताव में प्रवचनका लक्षण, सर्वसिद्धि, अपौरुषेयत्वका निरसन, तत्त्वज्ञानसहित चारित्रको मोक्षहेतुत्ता आदि विषयोंका विवेचन आया है।
अष्टम प्रस्ताव में सप्तभंगीके निरूपणके साथ मैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजु सूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवम्भूत इन सात नयोंका कथन आया है।
नवम प्रस्तावमें प्रमाण, नय और निक्षेपका उपसंहार किया गया है।
४. सिद्विविनिश्चय सवृति
सिद्धिविनिश्चयमें १२ प्रस्ताव हैं। इनमें प्रमाण, नय और निक्षेपका विवेचन है। प्रथम प्रस्ताव प्रत्यक्ष-सिद्धि है। इसमें प्रमाणका सामान्य लक्षण, प्रमाणका फल, बाह्यार्थकी सिद्धि, व्यवसायात्मक विकल्पको प्रमाणता और विशदता, चित्रज्ञानकी तरह विचित्र बाह्य पदार्थोकी सिद्धि, निर्विकल्पक प्रत्यक्षका निरास, स्वसंवेदनप्रत्यक्षके निर्विकल्पकत्वका खण्डन, अविसंवादकी बहुलतासे प्रमाणव्यवस्था आदि विषयोंका विचार किया गया है।
द्वितीय सविकल्प सिद्धि-प्रस्तावमें अवग्रहादि ज्ञानोंका वर्णन, मानस-प्रत्यक्ष की आलोचना, निर्विकल्पसे सविकल्पकी उत्पत्ति एवं अवगरहादिमें पूर्व-पूर्वकी प्रमाणता और उत्तर-उत्तरमें फलरूपताकी सिद्धि को गयी है।
तृतीय प्रमाणान्तर-सिद्धिमें स्मरणको प्रमाणता, प्रत्यभिज्ञानका प्रामाण्य, उपमानका सादृश्यप्रत्यभिज्ञानमें अन्तर्भाव, तर्कको प्रमाणताका समर्थन, क्षणिकपक्षमें अर्थक्रियाका अभाव आदिकी समीक्षा आयी है।
चतुर्थ जीवसिद्धि-प्रस्ताव में ज्ञानको ज्ञानावरणके उदयसे मिथ्याज्ञान, क्षणिकचित्तमें कार्यकारणभाव, सन्तान आदिकी अनुत्पांत, जीव और कर्म चेतन और अचेतन होकर भी बन्धके प्रति एक हैं, कर्मास्त्रव तत्तोपप्लववाद, भूतचैतन्यवाद एवं विभिन्न दर्शनोंमें मान्य आत्मस्वरूपका विवेचन किया है।
पञ्चम प्रस्ताव जल्प-सिद्धि है। इसमें जल्पका लक्षण, उसकी चतुरङ्गता, जल्पका फलमार्ग प्रभावना, शब्दकी अर्थवाचकता, निग्रहस्थान एवं जयपराजयव्यवस्थाकी समीक्षा की गयी है।
छठा हेतुलक्षणसिद्धि-प्रस्ताव है। इसमें हेतुका अन्यथानुपपत्तिलक्षण, तादात्म्य-तदुत्पत्तिसे ही अविनाभावको व्याप्ति नहीं, हेतुके भेद, कारण आदि का कथन आया है।
सप्तम प्रस्ताव शास्त्र-सिद्धि है। इसमें श्रुतका श्रेयोमार्गसाधकत्व शब्दका अर्थवाचकत्व, स्वप्नादि दशामेंभी जीवकी चेतनता, भेदकान्तमें कारक, ज्ञापक स्थितिका अभाव, ईश्वरवाद, पुरुषाद्वैतवाद, वेदका अपौरुषेयवाद आदिका समालोचन किया है।
अष्टम सर्वज्ञसिद्धि-प्रस्तावमें सर्वज्ञकी सिद्धि और नवम शब्दसिद्धि प्रस्तावमें शब्दका पोद्गलिकत्व सिद्ध किया है। दशम प्रस्तावका नाम अर्थनयसिद्धि है। इसमें नयका स्वरूप, नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजु-सूत्र इन चार अर्थ नयों और नयाभासोंका वर्णन आया है।
ग्यारहवां शब्दनयसिद्धि-प्रस्ताव है। इसमें शब्दका स्वरूप, स्फोटवादका खण्डन, शन्दनित्यत्वका निरास, शब्दनय, समभिरूदमन एवं एवम्भतनय आदिका वर्णन आया है।
बारहवाँ निक्षेपसिद्धि-प्रस्ताव है। इसमें निक्षेपका लक्षण, भेद, उपभेदोंका स्वरूप एवं उनकी सम्भावनाओं पर विचार किया गया है।
५. तस्वार्थवार्तिक सभाष्य
इस ग्रन्थके मंगल चतुर्थ चरणसे तत्वार्थवार्त्तिका लिखकर अकलंकदेवने इस ग्रंथको 'तत्वार्थवार्त्तिक' कहा है। तत्त्वार्थसूत्रके प्रत्येक सूत्रपर वार्त्तिकरूपमें व्याख्या लिखे जानेके कारण यह तत्वार्थवार्त्तिक कही गयी है। वार्त्तिक श्लोकात्मक भी होते हैं और गद्यात्मक भी। कुमारिलका मीमांसाश्लोकवार्त्तिक और धर्मकीर्त्तिका 'प्रमाणवार्त्तिक' पद्योंमें लिखे गये हैं। पर न्यायदर्शनके सूत्रोंपर उद्योतकरने जो वार्त्तिक रचा है, वह गद्यात्मक है। अतएव यह अनुमान लगाना सहज है कि अकलंकने उद्योतकरके अनुकरण पर गद्यात्मक तत्त्वार्थवार्त्तिक रचा है। अकलङ्ककी विशेषता यह है कि उन्होंने तत्वार्थसूत्रके सूत्रोंपर वार्त्तिक रचे और वार्त्तिकोंपर भाष्य भी लिखा है। इस तरह इस ग्रन्थमें वार्त्तिक पृथक हैं और उनकी व्याख्या-भाष्य अलग है। इसी कारण इसकी पुष्पिकाओंमें इसे 'तत्वार्थवार्त्तिकव्याख्यानालंकार' संज्ञा दी गयी है।
यह ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्रकी व्याख्या होने के कारण दश अध्यायों में विभक्त है। इसका विषय भी तन्वार्थसूत्र के विषयके समान ही सैद्धान्तिक और दार्शनिक है। तत्त्वार्थसूत्रके प्रथम तथा पंचम अध्यायमें क्रमशः ज्ञान एवं द्रव्योंकी चर्चा आयी है और ये दोनों विषय ही दर्शनशास्त्रके प्रधान अंग हैं। अतः अकलंकदेवने इन दोनों अध्यायोंमें अनेक दार्शनिक विषयों की समीक्षा की है। दर्शन शास्त्रके अध्येताओंके लिये तत्वार्थवार्त्तिकके ये दोनों अध्याय विशेष महत्त्वपूर्ण हैं।
तत्त्वार्थवार्त्तिककी एक प्रमुख विशेषता यह है कि जिसने भी मन्तव्य उसमें चर्चित हुए, उन सबका समाधान अनेकान्त के द्वारा किया गया है। अतः दार्शनिक विषयोंसे सम्बद्ध सूत्रों के व्याख्यानमें अनेकान्तात्वार्त्तिक अवश्य पाया जाता है। यहाँ यह स्मरणीय है कि वार्त्तिककारने दार्शनिक विषयोंके कथनसन्दर्भ में आगमिक विषयोंको भी प्रस्तुत कर अनेकान्तवादकी प्रतिष्ठा को है।
तृतीय, चतुर्थ अध्यायोंमें लोकानुयोगसे सम्बद्ध विषय आये हैं । इस विषयके प्रतिपादन में 'तिलोयपण्णत्ति' आदि प्राचीन ग्रन्थों की अपेक्षा अनेक नवीनताओं का समावेश किया गया है। इस ग्रन्थकी विशेषताओंके सम्बन्धमें प्रज्ञाचक्षु पं. सुखलालजीने लिखा है- "राजवार्त्तिक और श्लोकवार्त्तिकके इतिहासज्ञ अभ्यासीको मालूम पड़ेगा कि दक्षिण हिन्दुस्तान में जो दार्शनिक विद्या और स्पर्धाका समय आया और अनेकमुख पाण्डित्य विकसित हुआ, उसीका प्रतिबिम्ब इन दोनों ग्रन्थों में है। प्रस्तुत दोनों वार्त्तिक जैनदर्शनका प्रामाणिक अभ्यास करने के पर्याप्त साधन है। परन्तु इनमेसे 'राजवार्त्तिक'का गद्य सरल और विस्तृत होनेसे तत्त्वार्थके सम्पूर्ण टीका ग्रन्थोंकी गरज अकेला ही पूर्ण करता है। ये दो वाीर्तिक यदि नहीं होते, तो दशवीं शताब्दी तकके दिगम्बर साहित्यमें जो विशिष्टता आयी, और उसकी जो प्रतिष्ठा बँधी वह निश्चयसे अधूरी ही रहती। ये दो वार्तिक साम्प्रदायिक होनेपर भी अनेक दृष्टीयोंसे भारतीय दार्शनिक साहित्यमें विशिष्ट स्थान प्राप्त करें, ऐसी, योग्यता रखते हैं। इनका बौद्ध और वैदिक परम्परा के अनेक विषयों पर तथा अनेक ग्रन्थों पर ऐतिहासिक प्रकाश डालता है।"
'तत्त्वार्थवार्तिक'का मूल आधार पूज्यपादकी सवार्थसिद्धि है। सवार्थसिद्धि की वाक्यरचना, सूत्र जैसी संतुलित और परिमित है। यही कारण है कि अकलंकदेवने उसके सभी विशेष वाक्योंको अपने वार्तिक बना डाले हैं, और उनका व्याख्यान किया है। आवश्यकतानुसार नये वार्तिकोंको भी रचना की है, पर सर्वार्थसिद्धिका उपयोग पूरी तरहसे किया है। जिस प्रकार बीज वृक्षमें समाविष्ट हो जाता है, उसी प्रकार समस्त सर्वार्थसिद्धि तत्वार्थवार्तिकमें समाविष्ट है, पर विशेषता यह है कि सर्वार्थसिद्धि के विशिष्ट अम्यासीको भी यह प्रतीति नहीं हो पाती कि वह प्रकारान्तरसे सर्वार्थसिद्धिका अध्ययन कर रहा है।
तत्त्वार्थवार्तिक में यों तो अनेक विषयोंकी चर्चा की गयी है, पर विशेषरूपसे जिन विषयोंपर प्रकाश डाला गया है, वे निम्नलिखित हैं-
१. कर्ता और करण के भेदाभेदको चर्चा। तीनों वाच्यों द्वारा ज्ञानकी व्युत्पत्ति
२. आत्माका ज्ञानसे भिन्नाभिन्नत्व।
३. केवल ज्ञानप्राप्तिके द्वारा मोक्षकी मान्यताका निरसन कर मोक्षमार्गका निरूपण। सन्दर्भानुसार सांख्य, वैशेषिक, न्याय और बौद्ध दर्शनोंकी समीक्षा
४. मुख्य और अमुख्योंका विवेचन करते हुए अनेकान्तदृष्टिका समर्थन।
५. सप्तभंगीके निरूपणके पश्चात् अनेकान्तमें अनेकान्तकी सुघटना।
६. अनेकान्तमें प्रतिपादित छल, संशय आदि दोषोंका निराकरण करते हुए अनेकान्तात्मकताको सिद्धि।
७. एकान्तवादमें ज्ञानके करण-कर्तृत्वका अभाव।
८. आत्म-अनात्मवादियोंको समीक्षा।
९. प्रत्यक्ष-परोक्षसम्बन्धो ज्ञानको व्याख्याओंका विस्तृत विवेचन्। इस सन्दर्भ में पूर्वपक्षके रूपमें बौद्ध, न्याय, वैशेषिक, मीमांसक आदि दार्शनिकोंकी समीक्षा।
१०. चक्षु के प्राप्यकारित्व और श्रोत्रके अप्राप्यकारित्वका निराकरण।
११. श्रुतज्ञान के अन्तर्गत अनुमानके पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट भेद तथा उपमान, ऐतिह्म, अर्थापत्ति, सम्भव और अभावका समावेश।
१२. आत्मसिद्धि।
१३. स्वात्मा और परमात्माके विश्लेषणके साथ सप्तभंगीके सकलादेश और विकलादेशोंका विवेचन।
१४. 'द्रव्यत्वयोगात् द्रव्यं' और 'गुणसंद्रावो द्रव्य’ की विस्तृत समीक्षा।
१५. विभिन्न दर्शनोंके आलोक में शब्दके मूर्तिकत्वका विवेचन।
१६. स्फोटवाद-समीक्षा।
१७. कोक्वल, काण्ठेचिद्दि, कौशिक, हरि, शमश्रुमान, कपिल, रोमस, हरिताश्व, मुण्ड
१८. मरीचिकुमार, उलूक, कपिल, गाग्री, व्याघ्रभूति, माठर, मौद्गलायन आदि अक्रियावादी दार्शनिकोंकी समीक्षा।
१९. साकल्य, वासकल, कुथुमि, सात्यमुग्री, चारायण, कठ, माध्यन्दिन, मौद, पेपलादि, वादरायण, येतिकायन, वसु और जैमिनि आदि अज्ञानवादियों का समालोचन।
२०. वशिष्ठ, पाराशर, जतुकर्ण, वाल्मीकि, रोमहर्षिणी, व्यास, एलापुत्र, औपमन्यव, इन्द्रदत्त आदि बैंनिक वादियोंकी समीक्षा।
२१. जीव-अजीव आदि तत्वोंका निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधानपूर्वक विवेचन।
२२. ज्ञानोंके विषयक्षेत्रका कथन।
२३. नयोंका सोपपत्तिक निरूपण।
२४. शरीरोंका सविस्तर निरूपण।
२५. लोकरचना- क्षेत्रफल और घनफलोंका निरूपण।
२६. गुणस्थान, ध्यान, अनुप्रेक्षा एवं मार्गणा आदिका विस्तृत कथन।
२७. द्रव्य और तत्वोंकी व्यवस्थाका कथन।
इस प्रकार 'सस्वार्थराजवार्त्तिक' में अनेक विशेष बातोंका कथन आया है। यह ग्रन्थ अध्याय, आह्निक और वार्तिकों में विभक्त है। यहाँ उदाहरणार्थ एकाध वार्तिक प्रस्तुत करते हैं, जिससे अकलंकदेवको विषयप्रतिपादनसम्बन्धी विशेषता अभिव्यक्त हो जायगी।
प्रमाणनयाणाभेवात- "एकान्तो द्विविधः सम्यगेकान्तो मिथ्येकान्त इति। अनेकान्तोऽपि द्विविधः-सम्यगनेकान्तो मिथ्यानेकान्त इति। तत्र सम्य गेकान्तो हेतुविशेषसामर्थ्यापेक्षः प्रमाणप्ररूपिताथै कदेशादेशः। एकात्मावधारणेन अन्याशेषनिराकरणप्रवणनाणिधिमिथ्यकान्तः। एकत्र सप्प्रतिपक्षानेकधर्मस्वरूप निरूपणो युक्त्यागमाभ्यामबिरुद्धः सम्यगनेकान्तः। तदतत्स्वभाववस्तुशन्यं परि कल्पितानेकात्मक केवलं वाग्विज्ञानं मिथ्याऽनेकान्तः। तत्र सम्यगेकान्तो नय इत्युच्यते। सम्यगनेकान्तः प्रमाणम्। नयार्पणादेकान्तो भवति एकनिश्चयप्रवण त्वात्, प्रमाणार्पणादनेकान्तो भवति अनेकनिश्चयाधिकरणत्वात्।"
६. अष्टशती
जैनदर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है। आचार्य समन्तभद्र अनेकान्तवादके सबसे बड़े व्यवस्थापक हैं। उन्होंने आप्तमीमांसा नामक ग्रन्थ द्वारा उसकी व्यवस्था की है। इसी आप्तमीमांसापर अकलंकदेवने अपनी 'अष्टशती' वृत्ति लिखी है। इस बुत्तिका प्रमाण ८०० श्लोक है, अतः यह अष्टशती कहलाती है। विद्यानन्दने समन्तभद्रके उक्त प्रन्यपर अष्टसहन नाममोसा लिसी है, जिनमें अष्टशतीको 'धमें चीनी' की तरह समाविष्ट कर लिया है। शतीके रचयिता अकलंकदेवने इसमें अनेक नये तथ्योंपर प्रकाश डाला है। विभिन्न दर्शनोंके द्वैत-अद्वैतवाद, शाश्वत-अशाश्वतवाद, वक्तव्य-अवक्तव्यबाद, अन्यता-अनन्य तावाद, सापेक्ष-अनपेक्षवाद, हेतु-अहेनुवाद, विज्ञान बहिरर्थवाद, देव-पुरुषार्थ वाद, पुण्य-पापवाद और बन्ध-मोक्षकारणवादकी समीक्षा की गयी है। उनके प्रतिपादनका एक उदाहरण प्रस्तुत है-
"स्वभावान्तरात्स्वभावव्यावृत्तिरस्यापोह:" संविदो साझाकारात्कञ्चिद व्यावृत्तौं- अनेकान्तसंविते स्वलक्षणप्रत्यक्षवृत्तावपि संवेद्याकार विवेक स्वभावान्तरानुपलब्धेः स्वभावव्यावृत्तिः शवलविधर्मानसऽपि लोहितादीनां परस्परव्यावृत्तिरन्यथाचित्रप्रतिभासासंभवात्, तदन्यत्तमवत्तदालम्बनस्यापि नीला देरभेदस्वभावापत्तेः तद्वतस्तेभ्यो व्यावृत्तिरेकानेकस्वभावत्वात् रूपादिवत् अन्यथा द्रव्यमेव स्यान्न रूपादयः"।
अनेकान्तात्मकवस्तुकी सिद्धि करते हुए लिखा है-
"यत्सत् तत्सर्वमनेकान्सात्मक वस्तुतत्त्वं सर्वथा तदर्थक्रियाकारित्वात्। स्वविषयाकारसंवित्तिवत्। न किञ्चिदेकान्तं वस्तुतत्त्वं सर्वथा तदर्थक्रियासंभवात् गगनकुसुमादिवत्। नास्ति सदेकान्तः सर्वव्यापारविरोधप्रसंगात असदेकान्तदित्ति विधिना प्रतिषेधेन था वस्तुतत्त्वं नियम्यते"
अकलंकदेवकी शैली गूढ़ एवं शब्दार्थभित है। ये जिस विषयको भी ग्रहण करते हैं, उसका गम्भीर और अर्थपूर्ण बाक्शोंमें विवेचन करते हैं। अतः काम से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक विषयका निरूपण करना इनका लक्ष्य है। अकलंकदेवका उनकी रचनाओंपरसे षड्दर्शनोंका गम्भीर और सूक्ष्म चिन्सन अवगत होता है। फलत: उनका अतल तलस्पर्शी ज्ञान सर्वत्र उपलब्ध है। इनकी कारिकाओंमें अर्थगाम्भीर्य है, प्रसंगवश वे वादियोंपर करारा व्यंग्य करनेसे भी चूकते नहीं हैं। व्यंग्य के समय इनको रचनाओं में सरसता आ जाती है, और दर्शनके शुष्क विषय भी साहित्यके समान सरस प्रतीत होने लगते हैं। प्रदश्यानुपलब्धिसे अभाग की सिद्धि न माननेपर वे बौद्धोंपर व्यंग करते हुए कहते हैं-
दध्यादो न प्रवर्सत बौद्धः तदभुक्तये जनः।
अदृश्यां सौगतीं तत्र तनुं संशङ्कमानक:||
दध्यादिके तथा भुक्ते न भुक्तं काजिकादिकम्।
इत्यसौ वेत्तु नो वेत्ति न भुक्ता सौगती तनुः।।
अदृश्यकी आशंकासे बौद्ध दही स्वाने में नि:शंक प्रवृत्ति नहीं कर सकेंगे, क्योंकि वहाँ सुगतके अदृश्य शरीरको शंका बनी रहेगी। दही खानेपर काफी नहीं खायी, यह तो वे समझ सकते हैं, पर बुद्ध शरीर नहीं खाया, यह समझना उन्हें असम्भव है।
यह कितना मार्मिक भ्यंग्य है। धर्मकीर्तिके अभेदप्रसंगका उत्तर भी अकलंकदेवने व्यंग्यात्मक रूपमें दिया है। अकलंकदेव कठिन-से-कठिन विषयको भी व्यंग्यात्मक सरलरूपमें प्रस्तुत करते हैं। यों तो अकलंकदेवने अनुष्टुप छन्दोंमें ही अधिकांश कारिकाएँ लिखी हैं, पर उन्हें शार्दूलविक्रीडित और स्रग्धरा छन्द भी विशेष प्रिय हैं। जहाँ उन्हें थोड़ा-सा भी अवसर मिलता है कि वे इन छन्दों का प्रयोग करने लगते हैं। न्यायके प्रकरणों में उद्देश्य निर्देशक और उपसंहारात्मक पद्योंमें इन छन्दोंका प्रयोग पाया जाता है। मंगलाचरणके पद्योंमें अलंकारोंका नियोजन भी विद्यमान है। निम्नलिखित पद्यमें सम्यकज्ञानको जल रूपक प्रदान कर मलिन हुए न्यायमार्ग के प्रक्षालनकी बात वे कितनी सदयतासे व्यक्त करते हैं-
बालानां हितकामिनामतिमहापापैः पुरोपार्जितै:
माहात्म्यात्तमसः स्वयं कलिबलात् प्रायो गुणद्वेषिभिः।
न्यायोऽयं मलिमीकृतः कथमपि प्रक्षाल्य नेनीयते,
सम्यग्ज्ञानजलेबचोभिरमलं तत्रानुकम्पापरः॥
इसी प्रकार अनुप्रास, यमक आदि अलंकार भी इनके दर्शन-ग्रन्थों में काव्य रचना न होनेपर भी प्राप्त हैं। शैलीकी दृष्टिसे अकलंक निश्चय ही उद्योतकर और धर्मकीर्ति के समकक्ष हैं।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
जैन परम्परामें यदि समन्तभद्र जैन न्यायके दादा है, तो अकलंक पिता। सारस्वसाचार्यों की परंपरा मे नाम आता है। ये बड़े प्रखर तार्किक और दार्शनिक थे। बौद्ध दर्शनमें जो स्थान धर्मकीर्तिको प्राप्त है, जैन दर्शनमें वहीं स्थान अकलंकदेवका है। इनके द्वारा रचित प्राय: सभी ग्रंथ जैन दर्शन और जैन न्याय विषयक हैं। इनके इन ग्रन्थोंको, इन विषयोंका 'महान' ग्रन्थ कहा हा सकता है।
अकलंकके सम्बन्ध में श्रवणबेलगोलाके अभिलेखों में अनेक स्थान पर स्मरण आया है। अभिलेखसंख्या ४७ में लिखा है-
"षट्तर्केष्वकदेवविबुध: साक्षादयं भूतले"
अर्थात् अकलंकदेव षट्दर्शन और तर्कशास्त्रमें इस पृथ्वी पर साक्षात् विबुध (बृहस्पतिदेव) थे।
एक अन्य अभिलेखमें इनके द्वारा बौद्धादि एकान्तवादियोंको परास्त किये जानेकी चर्चा की गयी है-
भट्टाकलङ्गोऽकृत सौगतादिदुवकि्यङ्कस्सकलङ्कभूतं।
जगत्स्वनामेव विधातुमुच्चेः सार्थ सामन्तादकलङ्कमेव।।
निश्चयत: अकलंकदेव द्वारा जैन न्यायका सम्बर्द्धन हुआ है। अभिलेख नं. १०८ में पूज्यपादके पश्चात् अकलंकदेवका स्मरण किया गया है और मिथ्यात्व अन्धकारको दूर करने के लिये सूर्यके तुल्य बताया गया है-
ततः परं शास्त्रविदां मुनीना
मसरोऽभूदकल डूसूरिः।
मिथ्यान्धकारस्थगिताखिलात्था:
प्रकाशिता यस्य वचोमयूखैः॥
अकलंक मान्यखेटके राजा, शुभतुंगके मंत्री भनी पुरुशोतमक पुत्र थे। 'राजावलिकथे' में इन्हें काञ्चोंके जिनदास नामक ब्राह्मणका पुत्र कहा गया है। पर तत्वार्थवार्तिकके प्रथम अध्यायके अन्त में उपलब्ध प्रशस्तिसे ये लघुहव्व नृपत्ति के पुत्र प्रतीत होते हैं। प्रशस्तिमें लिखा है-
जीयाच्चीरमकलब्रह्मा लघुहन्ननुपतिवरतनयः।
अनवरतनिखिलजननुसविधः प्रशस्तजनहुद्यः।।
ये लघुहव्वनृपति कौन हैं और किस प्रदेशके राजा थे, यह इरा पद्यसे या अन्य स्तोत्रसे ज्ञात नहीं होता। नामसे इतना प्रतीत होता है कि उन्हें दक्षिणका होना चाहिए और उसी क्षेत्रके वे नृपति रहे होंगे।
प्रभाचन्द्र के कथाकोषमें अकलंकको कथा देते हुए लिखा है कि एकबार अष्टालिका पर्वके अवसरपर अकलंकके माता-पिता अपने पुत्र अकलंक और निष्कलंक महित मुनिराजके पास दर्शन करने गये। धर्मोपदेश श्रवण करनेके पश्चात उन्होंने आठ दिनों के लिये ब्रह्मचर्य ब्रत ग्रहण किया और पुत्रोंको भी ब्रह्मचर्यव्रत दिलाया। जब दोनों भाई वयस्क हुए और माता-पिताने उनका विवाह करना चाहा, तो उन्होंने मुनिके समक्ष ली गयी प्रतिज्ञाकी याद दिलायी और विवाह करनेसे इन्कार कर दिया। पिताने पुत्रोंको समझाते हुये कहा कि "वह व्रत तो केवल आठ दिनोंके लिये ही ग्रहण किया गया था। अतः विवाह करने में कोई भी रुकावट नहीं है।" पिताके उक्त वचनोंको सुनकर पुत्रोंने उत्तर दिया-"उस समय, समय-सीमाका जिक्र नहीं किया गया था। अत: ली गयी प्रतिज्ञाको तोड़ा नहीं जा सकता।"
पिताने पुन: कहा- "वत्स! तुम लोग उस समय अबुद्ध थे। अत: ली गयी प्रतिज्ञामें समय-सीमाका ध्यान नहीं रखा। वहाँ लिये गये व्रतका आशय केवल आठ दिनोंके लिये ही था, जीवन-पर्यन्तके लिये नहीं। अतएक विवाह कर तुम्हें हमारी इच्छाओंको पूर्ण करना चाहिये।"
पुत्र बोले- "पिताजी! एक बार ली गयी प्रतिज्ञाको तोड़ा नहीं जा सकता। अत: यह व्रत तो जीवन-पर्यन्त के लिये है। विवाह करनेका अब प्रश्न ही नहीं उठता।"
पुत्रोंकी दृढ़ताको देखकर माता-पिताको आश्चर्य हुआ। पर वे उनके अभ्युदयका ख्यालकर उनका विवाह करने में समर्थ न हुए। अकलंक और निष्कलंक ब्रह्मचर्यकी साधना करते हुए विद्याध्ययन करने लगे।
काञ्चीपुरीमें बौद्धधर्मके पालक पल्लवराजको छत्रच्छायामें अकलंकने बौद्धन्यायका अध्ययन किया। अकलंक शास्त्रार्थी विद्वान् थे। इन्होंने दीक्षा लेकर सुधापुरके देशीयगणका आचार्यपद सुशोभित किया। अकलंकने हिमशीतल राजाकी सभामें शास्त्रार्थ कर तारादेवीको परास्त किया।
'ब्रह्म नेमिदत्तकृत आराधनाकथाकोष और मल्लिषेण-प्रशस्तिसे भी उक्त तथ्य पुष्ट होता है। मल्लिषेण-प्रशस्तिका अंकनकाल शक सं. १०५० है। अतएव ई. सन् १०७१ के लगभग अकलंकदेवके सम्बन्धमें उक्त मान्यता प्रचलित हो गयी थी-
तारा येन विनिज्जिता घट-कुटी-गूढ़ावतारा समं
बौद्धैयों धृत-पीठ-पीडित-कुदृग्देवात्त-सेवाज्जलि:। प्रायश्चित्तमिवात्रि-वारिज रज-स्नानं च यस्याचरत्
दोषाणां सुगतस्स कस्य विषयो देवाकलकुः कृती।।
चूण्णि॥ यस्येदमात्मनोऽनन्य-सामान्य-निरवद्य-विद्या-विभवोपवर्णनमाकण्यं।।
राजन्साहसतुङ्ग सन्ति बहवः श्वेतासपत्रा नृपाः
किन्तु त्वत्सदशा रणे विजयिनस्त्यांगोत्रता दुल्लभाः।
त्वद्वत्सन्ति बुधा न सन्ति कवयो वादोश्वरा वाग्मिनो
नाना-शास्त्र-विचारचातुरधियः काले कलो मद्विधाः।।
नेमिदत्तके आरावनाकथाकोषमें बताया है- 'मान्यखेटके राजा शुभतुंग थे। उनके मंत्रीका नाम पुरुषोत्तम था। पद्मावती उनकी पत्नी थी। पद्मावतीके गर्भसे दो पुत्र उत्पन्न हुए-अकलंक और निष्कलंक। अष्टाह्निका महोत्सवके प्रारम्भमें पुरुषोत्तम मन्त्री सकुटुम्ब रविगुप्त नामक मुनिके दर्शनार्थ गये और वहां उन्होंने पुत्रों सहित आठ दिनोंका बहाचर्य व्रत ग्रहण किया। युवावस्था होनेपर पुषोंने विवाह करनेसे इन्कार कर दिया और विद्याध्ययनमें संलग्न हो गये। उस सयय बौद्धधर्मका सर्वत्र प्रचार था। अतएव वे दोनों महाबोधि-विद्यालयमें बौद्ध-शास्त्रोंका अध्ययन करने लगे।
एक दिन गुरुमहोदय शिष्योंको सप्तभंगो-सिद्धान्त समझा रहे थे, पर पाठ अशुद्ध होने के कारण वे उसे ठीक नहीं समझा सके। गुरुके कहीं चले जाने पर अकलंकने उस पाठको शुद्ध कर दिया। इससे गुरुमहोदयको उनपर जैन होने का सन्देह हआ। कुछ दिनों में उन्होंने अपने प्रयत्नों द्वारा उनको जैन प्रमाणित कर लिया। दोनों भाई कारागृहमें बन्द कर दिये गये। रात्रिके समय दोनों भाईयोंने कारागृहसे निकल जानेका प्रयत्न किया। वे अपने प्रयत्नमें सफल भी हुये और कारागृहसे निकल भागे। प्रातःकाल ही बौद्ध गुरुको उनके भाग जानेका पता चला। उन्होंने चारों ओर घुड़सवारोंको दौड़ाकर दोनों भाईयों को पकड़ लानेका आदेश दिया।
घुड़सवारोंने उनका पीछा किया। कुछ दूर आगे चलने पर दोनों भाईयोंने अपने पीछे आनेवाले घुड़सवारों को देखा और अपने प्राणोंको रक्षा न होते देख अकलंक निकट के एक तालाब में कूद पड़े। और कमलपत्रोंसे अपने आपको आच्छादित कर लिया। निष्कलंक भी प्राणरक्षाके लिये शीघ्रतासे भाग रहे थे। उन्हें भागता देख तालाबका एक धोबी भी भयभीत होकर साथ-साथ भागने लगा। घुड़सवार निकट आ चुके थे। उन्होंने उन दोनोंको शीघ्र ही पकड़ लिया और उनका वध कर डाला। घुड़सवारोके चले जाने पर, अकलंक तालाबसे निकल निर्भय होकर भ्रमण करने लगे।
कलिंग देशके रतनसंचयपुरका राजा हिमशीतल था। उसकी रानी मदन सुन्दरी जिनधर्मकी भक्त थी। वह बड़े उत्साहके साथ जैनरथ निकालना चाहती थो । किन्तु बौद्ध गुरु रथ निकलने देने के पक्षमें नहीं थे। उनका कहना था कि कोई भी जैन विद्वान जब तक मुझे शास्त्रार्थ में पराजित नहीं कर देगा, तब तक रथ नहीं निकाला जा सकता है। गुरुके विरुद्ध राजा कुछ नहीं कर सकता था। बड़े धर्मसंकटका समय उपस्थित था। जब अकलंकको यह समाचार मिला, तो वे राजा हिमशीतलकी सभा में गये और बौद्ध गुरुसे शास्त्रार्थ करनेको कहा। दोनोंमें छ: मास तक परदे के अन्दर शास्त्रार्थ होता रहा। अकलंकको इस शास्त्रार्थसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने इसका रहस्य जानना चाहा। उन्हें शीघ्र ही ज्ञात हो गया कि बौद्ध गुरुके स्थान पर, परदेके अन्दर घड़े में बैठी बौद्ध देवी तारा शाल्वार्थ कर रही है। उन्होंने परदेको खोलकर घड़ेको फोड़ डाला। तारादेवी भाग गयी और बौद्ध गुरु पराजित हुए। जैनरथ निकाला गया और जैनधर्मका महत्त्व प्रकट हुआ।
'राजावलिकथे' में भी उक्त कथा प्रायः समान रूपमें मिलती है। अन्तर इतना ही है कि काञ्चीके बौध्दोंने हिमशीतलकी सभामें जैनोंसे इसी शर्त पर शास्त्रार्थ किया कि हारने पर उस सम्प्रदायके सभी मनुष्य कोल्हूमें पेलवा दिये दिये जायं। इस कथाके अनुसार यह शास्त्रार्थ १७ दिनों तक चला है। अकलंकको कुसुमाण्डिनी देवाने स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि तुम अपने प्रश्नोंको प्रकारान्तरस उपस्थित करने पर जीत सकोगे। अकलंकने वैसा ही किया और वे विजयी हुए। बौद्ध कलिंगसे सिलोन चले गये।
उपर्युक्त कथानकोंसे यह स्पष्ट है कि अकलंकदेव दिग्विजयी शास्त्रार्थी विद्वान थे। मल्लिषेण-प्रशस्तिके दूसरे पद्यमें आया है कि राष्ट्रकूटवंशी राजा साहसतुंगकी सभा में उन्होंने सम्पूर्ण बौद्ध विद्वानोंको पराजित किया। काञ्चीके पल्लववंशो राजा हिमशीतलको राजसभामें भी उन्होंने अपूर्व विजय प्राप्त की थी। इसी कारण विद्यानंदने अकलंकको सकलपायलमान कहा है।
समय-निर्धारण- अकलंकदेवके समयके सम्बन्धमें दो धारणाएँ प्रचलित हैं। प्रथम धारणाके प्रवर्तक डा. के. बी. पाठक हैं और दूसरी धारणाके प्रवर्तक प्रो. श्रीकण्ठ शास्त्री तथा आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार हैं। डा. पाठकने मल्लिषेण-प्रशस्तिके 'राजन् साहसतुग' श्लोकके आधार पर इन्हें राष्ट्र कूट-वंशी राजा दन्तिदुर्ग या कृष्णराज प्रथमका समकालीन सिद्ध किया है तथा अकलंकचरितके निम्नलिखित पद्यमें आये हुए "विक्रमार्क' पदका अर्थ शक संवत् किया है-
विक्रमार्कशकाब्दीयशतसप्तप्रमाजुषि।
काले अकलंकयतिनो बौद्धेर्वादो महानभूत्।।
अतः इनके मतानुसार अकलंका समय शक सं . ७०० (७७८ ई.) है।
दुसरी विचारधाराके पोषक श्रीकण्ठशास्त्री और आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार उक्त पद्यमें आये हुए 'विक्रमार्क' पदका अर्थ विक्रम संवत् करते हैं। अतः अकलंकका समय वि. सं. ७०० (ई. सन् ६४३) का विद्वान मानते हैं। प्रथम परम्पराके समर्थकों में स्व. डा. आर. जी. भण्डारकर, स्व. डा. सतीशचन्द्र विद्याभूषण और स्व श्री पं. नाथूरामजी प्रेमी हैं। दूसरी धारणाके पोषकोंमें डा. ए. एन. उपाध्ये, आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार और श्री पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री प्रभृति विद्वान हैं।
उक्त दोनों धारणाओंका आलोडन कर डा. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य ने अकलंकद्वारा भर्तृहरि, कुनारिल, धर्मकीर्ती, और कर्मयोगी आदि आचार्योंके विचारोंकी आलोचना पाकर अकलंकका समय ई. सन् ८ वीं शती सिद्ध किया है। न्यायाचार्यजीके प्रमाण पर्याप्त सबल हैं। आपने अकलंक देयके ग्रन्थोंका सुक्ष्म अध्ययन कर उक्त निष्कर्ष निकाला है।
आचार्य कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने गहन अध्ययन कर अकलंकदेवका समय ई. सन् ६२०–६६० तक निश्चित किया है और महेन्द्रकुमारजीके अनुसार यह समय ई. सन् ७२०-७८० आता है। इस तरह इन दोनों समयोंके मध्य में १०० वर्षाका अन्तर है।
धनञ्जयने अपनी नाममालामें एक पद्य लिखा है, जिसमें अकलंकके प्रमाणका जिक्र आया है। लिखा है-
प्रमाणमकलस्य पूज्यपादस्य लक्षणम्।
धनम्जयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम्।।
अकलंकका प्रमाण, पूज्यपादका व्याकरण और धनञ्जय कविका काव्य ये तीनों अपश्चिम रत्न हैं।
अकलंकदेवकी जैनन्यायको सबसे बड़ी देन है प्रमाण ! इनके द्वारा की गयी प्रमाणव्यवस्था दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोके आचार्याने अपनी-अपनी प्रमाणमीमांसाविषयक रचनाओं में ज्यों-का-त्यों अनुकरण किया है। अतः धनंजयने इस पद्यमें जैन तार्किक अकलंकदेव और उनके प्रमाण शास्त्रका उल्लेख किया है।
धनञ्जयके पश्चात् वीरसेनस्वामीने अपनी धवला तथा जयधवला टीकाओं में और उनके शिष्य जिनसेनने महापुराणमें अकलंकका निर्देश किया है। वीरसेन स्वामीने अकलंकदेवका नामोल्लेख किये बिना 'तत्वार्थभाष्य’ के नामसे उनके तत्त्वार्थवातिकका तथा सिद्धिविनिश्चयका उल्लेख करके उनके उद्धरण दिये हैं। जिनसेनने लिखा है-
भट्टाकलहुश्रीपालपात्रकेसरिणां गुणा:।
विदुषां हृदयानः हारायन्तेऽतिनिर्माता।।
अर्थात् भट्ट अकलंक, श्रीपाल और पात्रकेसरी आदि आचार्योंके अत्यन्त निर्मल गुण विद्वानों के हृदय में मणिमालाके समान सुशोभित होते हैं।
वीरसेनने धवलाटीकामें 'इति' शब्दका अर्थ बतलानेके लिए एक पद्य उद्धृत किया है, जो धनञ्जय कविकी अनेकार्थनाममालाका ३९ वा पद्य है। अतः धनञ्जय वीरसेनसे पूर्ववर्ती हैं और धनन्जयसे पूर्ववर्ती अकलंक हुए हैं। अतएव अकलंकका समय सातवीं शतीका उत्तरार्द्ध सिद्ध होता है।
अकलंकदेवकी रचनाओंकी दो वर्षों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम वर्गमें उनके स्वतन्त्र-ग्रन्थ और द्वितीय वर्गमें टीका-ग्रन्थ रखे जा सकते हैं। स्वतन्त्र-मन्थ निम्नलिखित है-
१. स्वोपत्रवृत्तिसहित लघीयस्त्रय
२. न्यायविनिश्चय सवृति
३. सिद्धिविनिश्चय सवृत्ति
४. प्रमाणसंसह सवृत्ति
१. तत्त्वार्थबात्तिक सभाष्य।
२. अष्टशती- देवागमविवृति।
१. लधीयस्त्रय- में तीन छोटे-छोटे प्रकरणोंका संग्रह है- (१) प्रमाण प्रवेश (२) नयप्रवेश और (३) निक्षेपप्रवेश| प्रमाणप्रवेशके चार परिच्छेद हैं- (१) प्रत्यक्षपरिच्छेद (२) विषयपरिच्छेद (३) परोक्षपरिच्छेद और (४) आगम परिच्छेद। इन चार परिच्छेदोंके साथ नयप्रवेश तथा प्रवचनप्रवेशको मिलाकर कुल छ; परिछेद स्वोपज्ञविवृत्तिमें पाये जाते हैं। लघीयस्त्रयके व्याख्याकार आचार्य प्रभाचन्द्रने प्रवचनप्रवेशके भी दो परिच्छेद करके कुल सात परिच्छेदों पर अपनी 'न्यायकुमुदचन्द्र' व्याख्या लिखी है। लघीयस्त्रयमें कुल ७८ कारिकाएँ हैं किन्तु मुद्रित लघीयस्त्रयमें ७७ ही कारिकाएँ हैं, 'लक्षणं क्षणिकैकान्ते"(कारिका ३५) नहीं है। इसके प्रथम परिच्छेदमें साढ़े छः, द्वितीय परिच्छेदमें ३, तृतीयमें १२, चतुर्थ में ७,पंचममें २१ तथा षष्ठमें २८ इस प्रकार कुल ७८ कारिकाएँ हैं।
अकलंकदेवने इसपर संक्षिप्त विवृति भी लिखी है। पर यह विवृत्ति कारिकाओंका व्याख्यानरूप न होकर सूचित विषयोंकी पूरक है। यह मूल श्लोकोंके साथ ही साथ लिखी गयी है। पं. महेन्द्रकुमारजीने लिखा है- 'मालूम होता है कि अकलंकदेव जिस पदार्थको कहना चाहते हैं, वे उसके अमुक अंशकी कारिका बनाकर बाकीको गद्यभागमें लिखते हैं। अत: विषयकी दृष्टि से गद्य और पद्य दोनों मिलकर ही ग्रंथकी अखण्डता स्थिर रखते हैं। धर्मकीर्तिकी प्रमाणवार्तिककी वृत्ति भी कुछ इसी प्रकारको है। उसमें भी कारिकोक्त पदार्थकी पूर्ति तथा स्पष्टताके लिए बहुत कुछ लिखा गया है।"
लघीयस्त्रयके प्रथम परिच्छेदमें सम्यक्ज्ञानकी प्रमाणता, प्रत्यक्ष-परोक्षका लक्षण, प्रत्यक्षके सांव्यवहारिक और मुख्य रूपसे दो भेद, सांव्यवहारिकके इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्षरूपसे दो भेद, मुख्यप्रत्यक्षका समर्थन, सांव्यवहारिकके अवग्रहादिरूप भेद तथा उनके लक्षण, अवग्रहाद्रिके बहादिरूप भेद, भावइन्द्रिय, द्रव्यइन्द्रियके लक्षण, पूर्व-पूर्व ज्ञानकी प्रमाणता और उत्तरोत्तर ज्ञानोंकी फकरूपता आदि विषयोंका कथन आया है।
द्वितीय परिच्छेदमेंद्रव्य पर्यायात्मक वस्तुका प्रमाणविषयत्व तथा अर्थक्रियाकारित्वके विवेचनके पश्चात् नित्यैकान्त और क्षणिकैकान्तमै क्रम-योग पद्यसे अर्थक्रियाकारित्वका अमाव प्रतिपादित किया है। वस्तुको नित्य माननेपर आनेवाले दोषोंकी समीक्षा की है। वस्तु न सर्वथा नित्य है और न अनित्य। वह किसी नयविशेषकी अपेक्षासे नित्य है और इतर नयकी अपेक्षासे अनित्य। लिखा है कि भेदाभेदात्मक वस्तु द्रव्यार्थिक और पर्यार्थिक नयकी अपेक्षासे ही घटित होती है। द्रव्यार्थिक अभेदका आश्रय करता है और पर्यार्थिक भेदका। यथा-
अर्थक्रिया न युज्यते नित्य-क्षणिकपक्षयोः।
क्रमाक्रमाभ्यां भावानां सा लक्षणतया मता॥
तृतीय परिच्छेदमें मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता तथा अभिनिवोधका शब्द योजनास पूर्व अवस्थामें मतिव्यपदेश तथा उत्तर अवस्थामें श्रुतव्यपदेश, व्याप्तिका ग्रहण प्रत्यक्ष और अनुमानके द्वारा सम्भव न होनेसे व्याप्तीग्राही तर्कका प्रामाण्य, अनुमानका लक्षण, जलचन्द्रको दृष्टान्तसे कारणहेतुका समर्थन, कृत्तिकोदय आदि पूर्वचर हेतुका समर्थन, अदुश्वानुपलब्धिसे परचैतन्य आदिका अभावज्ञान, नैयायिकाभिमत उपमानका सादृश्यप्रत्यभिज्ञानमें अन्तर्भाव, प्रत्यभिज्ञानके देसादृश्य, आपेक्षिक प्रतियोगी आदि मेदोंका निरूपण, बौद्धमतमें स्वभावादि हेतुओंके प्रयोगमें कठिनता, अनुमान- अनुमेयव्यवहारकी वास्तविकता एवं विकल्पबुद्धिकी प्रमाणता आदि परोक्षजानसे सम्बन्ध रखनेवाले विषयोंका निरूपण किया है।
चतुर्थ परीछेद ज्ञानसे निषेध कर प्रमाणाभासका स्वरूप, सविकल्प ज्ञानमें प्रत्यक्षभासताका अभाव, अविसंवाद और विसंवादसे प्रमाण-प्रमाणभासव्यवस्था, विप्रकृष्ट विषयोंमें श्रुतकी प्रमाणता, हेतुबाद और आप्तोक्त रूपसे द्विविध श्रुतकी अविसंवादि होनेसे प्रमाणता, शब्दोंके विवक्षावाचित्वका खण्डनकर उनकी अर्थवाचकता आदि श्रुतसम्बन्धी विषयों का विवेचन किया गया है। प्रमाणके स्वरूप, संख्या, विषय और फलका निरूपण मी प्रमाणप्रवेशमें किया है।
पञ्चम परिच्छेदमें नय-दुर्नसके लक्षण, द्रव्याथिक और पर्यायाथिक रूपसे नयके मूल भेद, सद्ररुपसे समस्त वस्तुओंके ग्रहणका संग्रहनयत्व, ब्रह्मवादका संग्रहाभासत्व, बौद्धाभिमत क्षणिक एकान्तका निरास, गुण-गुणी, धर्म-धर्मीको गौण-मुख्य विषक्षामें नेगमत्रयकी प्रवृत्ति, वैशेषिकसम्मत गुण-मण्यादिके एकान्त भेदका नेगमाभासत्व, प्रमाणिक भेदका व्यवहारनयत्व, काल्पनिक भेदका व्यव हाराभासत्व, कालकारकादिके मेदसे अर्थभेदनिरूपणको शब्दमयता, पर्याय भेदसे अर्थभेदक कश्चनका समभिरूढ़ नयब, क्रियाभेदसे अर्थभेदप्ररूपणका एवं. भूतनयत्व, सामग्री-भेदसे अभिन्न वस्तुमें भी षटकारकीका सम्भवत्व प्रति पादित किया गया है। यहाँ लधीयस्त्रयका द्वितीय प्रकरण नयप्रवेश समास होता है। शब्दज्ञानको प्रत्यक्षताका निरसनकर अनुमानवत् उसको परोक्षता सिद्ध करते हुए अकलंकदेवने लिखा है-
'अक्षशब्दार्थविज्ञानमविसंवादतः समम्।
अस्पष्ट शब्दविज्ञानं प्रमाणमनुमानवत्।।'
तदुत्पत्तिसारूप्यादिलक्षणव्यभिचारेऽपि आत्मना यदर्थपरिच्छेदलक्षणं ज्ञानं तत्तस्येति सम्बन्धात्। वागर्थशानस्यापि स्वयमविसंवादात् प्रमाणत्वं समक्षबत्। विवक्षाव्यतिरेकेण वागर्थज्ञानं वस्तुतत्त्वं प्रत्यायति अनुमानवत्, सम्बन्ध नियमाभावात्। वाच्यवाचकलक्षणस्यापि सम्बन्धस्य बहिरर्थप्रतिपत्तिहेतुतोप लब्धे।''
प्रवचनप्रवेशमें प्रमाण, नय और निक्षेपके कथनकी प्रतिमा, अर्थ और आलोककी ज्ञानकारणताका खण्डन, अन्धकारको ज्ञानका विषय होनेसे आवरणरूपताका अभाव, तज्जन्म, ताद्रष्य और तदध्यवसायका प्रमाणमें अप्रयोंजकत्व, श्रुतके सकलादेश और विकलादेशरूप उपयोग, "स्यादस्त्येव जीवः" इस वाक्यकी विकलादेशसा, "स्याज्जीव एव" इस वाक्यकी सकलादेशता, शब्दकी विवक्षासे भिन्न वास्तविक अर्थकी वाचकता, नैगमादि सात नयोंमेसे आदिके चार नयोंका अर्थनयत्व, शेष तीन नयोंका शब्दनयत्व, नामादि चार निक्षेपोंके लक्षण, अप्रस्तुनिराकरण तथा प्रस्तुत अर्थका निरूपणरूप निक्षेपका फल इत्यादि प्रवचनके अधिगमोपायभूत प्रमाण, नय और निक्षेपका निरूपण किया गया है। शास्त्रज्ञानका सादित्व-अनादित्व सिद्ध करते हुए लिखा है। यथा-
श्रुतादर्थमनेकान्तमधिगम्याभिसन्धिभिः।
परीक्ष्य तांस्तान तद्धर्माननेकान् व्यावहारिकान्।।
नयानुगनिक्षेपेरुपायेभैदवेदने।
विरचय्यार्थवांकप्रत्ययात्ममेदान श्रुतार्पितान्॥
अनुयुज्यानुयोगैश्च निर्देशादिभिदां गतः।
द्रष्याणि जीवादीन्यात्मा विवद्धाभिनिवेशनः।।
जीवस्थानगुणस्थानमार्गणास्थानतत्ववित्।
तपोनिर्जीणकर्माऽयं विमुक्त: सुखमृच्छति।
इस प्रकार इसमें प्रमाण, नय और निक्षेपका निरूपण किया है।
२. न्यायविनिश्चय सवृत्ति
विनिश्चयान्त ग्रन्थ लिखनेको प्रणाली प्राधीन रही है। धर्मकीर्तिका भी प्रमाणविनिश्चय नामक ग्रंथ मिलता है। ‘तिलोयपण्णत्ति' में भी 'लोकविनिश्चय' नामक ग्रंथकी सूचना है। न्यायबिनिश्चयमें प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रवचन ये तीन प्रस्ताव हैं। प्रथम प्रस्तावमें १६९ १/२, द्वितीयमें २१६ १/२ और तुतीयमें ९४, कुल ४८० कारिकाएँ हैं। सिद्धसेनके न्यायावतारमें भी प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द इन तीन प्रमाणोंका विवेचन किया गया है।
प्रथम प्रत्यक्षप्रस्तावमें प्रत्यक्ष-प्रमाणपर विस्तारपूर्वक विचार किया गया है। इसमें इन्द्रिय प्रत्यक्षका लक्षण, प्रमाणसम्प्लवसुचन, चक्षुरादि बुद्धियोंक, व्यवसापागा, त्रिकाले अगिलास आदि लक्षणोंका खण्डन, ज्ञानके परोक्षवादका निराकरण, ज्ञानके स्वसंवेदनकी सिद्धि, ज्ञानान्तर वेद्यज्ञानका निरास, अचेतनज्ञाननिरास, साकारज्ञाननिरास, निराकारज्ञान सिद्धि, सवेदनाद्वैतनिरास, विभ्रमवादनिरास, बहिरर्थसिद्धि, चित्रज्ञानखण्डन, परमाणुरूप बहिरर्थका निराकरण, अवयवोंसे भिन्न अवयवीका खण्डन, द्रव्यका लक्षण, गुण-पर्यायका स्वरूप, सामान्यका स्वरूप, अर्थके उत्पाद-व्यय भ्रौव्यका समर्थन, अपोहरूप सामान्यका निरास, व्यक्तीसे भिन्न सामान्यका खण्डन, धर्मकीर्तिसम्मत प्रत्यक्षलक्षणका खण्डन, बौद्धकल्पित स्वसंवेदन, योगि, मानस प्रत्यक्षनिरास, सांख्यकल्पित प्रत्यक्षलक्षणका खण्डन, नैयायिकके प्रत्यक्षका समालोचन, अतीन्द्रियप्रत्यक्षका लक्षण आदि विषयोंका विवेचन किया गया है।
द्वितीय अनुमानप्रस्ताव अनुमानसे सम्बद्ध है। इसमें अनुमानका लक्षण, प्रत्यक्षकी तरह अनुमानकी बहिरर्थविषयता, साध्य-साध्याभासके लक्षण, बौद्धादि मतोंमें साध्य-प्रयोगकी असम्भवत्ता, शब्दका अर्थवाचकत्व, शब्दसङ्कत ग्रहणप्रकार, भूतचैतन्यवादका निराकरण, गुण-गुणीभेदका निराकरण, साधन-साधनाभासके लक्षण, प्रमेयत्वहेतुकी अनेकान्तसाधकता, सत्वहेतुकी परिणामिता प्रसाधकता, त्रैरूप्यखण्डनपूर्वक अन्यथानुपपत्तिसमर्थन, तर्ककी प्रमाणता, अनुपलम्भहेतुका समर्थन, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर हेतुका समर्थन, असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिञ्चित्कर हेत्वाभासोंका विवेचन, दूषणाभासलक्षण, जातिलक्षण, जयेतरव्यवस्था, दृष्टान्त, दृष्टान्ताभासविचार, वादका लक्षण, निग्रहस्थानलक्षण, वादाभासलक्षण आदि अनुमानसे सम्बन्ध रखनेवाले विषयोंका वर्णन आया है।
तृतीय प्रवचनप्रस्तावमें आगमसम्बन्धी विचार किया गया है। इसमें प्रवचनका स्वरूप, सुगतके आप्तत्वका निरास, सुगतके करुणावत्व तथा चतुरार्यसत्यप्रतिपादकत्वका समालोचन, आगमके अपौरुषेयत्वका खण्डन, सर्वज्ञत्व समर्थन, ज्योतिर्ज्ञानोपदेश, सत्यस्वप्नज्ञान तथा ईक्षणिकादि विद्याके दृष्टान्त द्वारा सर्वज्ञत्वसिद्धि, शब्दनित्यत्वनिरास, जीवादितत्त्वनिरूपण, नैरात्म्य भावनाकी निरर्थकता, मोक्षका स्वरूप, सप्तभंगीनिरूपण, स्याद्वादमें दिये जाने वाले संशयादि दोषोंका परिहार, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदिका प्रामाण्य, प्रमाणका फल आदि विषयोंका विवेचन आया है।
यह ग्रन्थ कई दृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण है। कारिकाओंके साथ उत्थानिका वाक्य भी गद्यमें निबद्ध हैं। विवृति टीकात्मक न होकर विशेष विषयके सूचन रूपमें लिखी गयी है। कारिकाएँ और वृत्ति दोनों प्रौढ़ एवं गम्भीर भाषामें निबद्ध हैं। उनसे अकलंकदेवकी सूक्ष्म प्रज्ञा और तीक्ष्ण समालोचना अवगत कर पाठक प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। उदाहरणार्थ नित्यैकान्त, क्षणिकैकान्त आदिकी उनके द्वारा की गयी समीक्षा दृष्टव्य है-
अत्यन्ताभेदभेदी न तद्वतो न परस्परम्।
दृश्यादृश्यात्ममोर्बुद्धिनिर्भासक्षणभङ्गयोः॥
सर्वथाऽर्थक्रियाश्योगात् तथा सुप्तप्रबुद्धयोः।
अंशयोर्यदि तादात्म्यमभिज्ञानमनन्यवत्।।
संयोगसमवायादिसम्बन्धाद्यादि वर्तते।
अनेकत्रैकमेत्रानेक वा परिणामिनः।।
सर्वथा नित्यका खण्डन करते हुए लिखा है-
नित्यं सर्वगतं सत्वं निरंशं व्यक्तीभियंदि।।
व्यक्तं व्यक्तं सदा व्यक्तं लोक्यं सचराचरम्।
सत्तायोगाद्विना सन्ति यथा सत्तादयस्तथा।।
सर्वेऽर्थाः देशकालाश्च सामान्य सकलं मतम्।
सर्वभेदप्रभेदं सत् सकलाङ्ग शरीरवत्।।
३. प्रमाणसंग्रह
इसमें ९ प्रस्ताव और ८७ १/२ कारिकाएँ हैं। प्रथम प्रस्तावमें ९ कारिकाएँ, द्वितीयमें ९, तृतीयमें १०, चतुर्थमें ११ १/२, पञ्चममें १० १/२, षष्ठमें १२ १/२, सप्तममें १०, अष्टममें १३ और नवममें २ कारिकाएँ हैं। प्रथम प्रस्तावमें प्रत्यक्षका लक्षण, श्रुतका प्रत्यक्षानुमानागमपूर्वकत्व, प्रमाणका फल, मुख्यप्रत्यक्षका लक्षण आदि प्रत्यक्षविषयक सामग्री वर्णित है।
द्वितीय प्रस्तावमें स्मतिकी प्रमाणता, प्रत्यभिज्ञानका प्रामाण्य, तर्कका लक्षण, प्रत्यक्षानुपलम्भसे तर्कका उद्भव, कुतर्कका लक्षण, विवक्षाके बिना भी शब्दप्रयोगका सम्भव, परोक्ष पदार्थोंमें श्रुतसे अविनाभावग्रहण आदिका कथन है।
इस प्रस्तावमें परोक्षके भेद, स्मृति प्रत्यभिज्ञान और तर्कका विशेष रूपसे कथन आया है।
तृतीय प्रस्तावमें अनुमानके अवयव, साध्य सांधनका लक्षण, साध्याभासका लक्षण, सदसदेकान्तमें साध्यप्रयोगकी असम्भवता, सामान्यविशेषात्मक वस्तुकी साध्यता एवं अनेकान्तात्मक वस्तुमें दिये जानेवाले संशयादि आठ दोषोंकी समीक्षा अङ्कित है। चतुर्थ प्रस्तावमें हेतुसम्बन्धी विचार आया है। इसमें त्रिरूप हेतुका खण्डन करके अन्यथानुपपत्तिरूप हेतुलक्षणका समर्थन किया गया है। हेतुके उपलब्धि और अमुलब्धिरूप भेदोंका विवेचन कर पूर्व घर, उत्तरचर और सहचर हेतुसम्बन्धी विचार किया गया है। इस प्रस्ताव में विभिन्न मतोंकी समीक्षापूर्वक हेतुका स्वरूप निर्धारित किया है।
पञ्चम प्रस्तावमें असिद्ध, विरुद्धादि हेत्वाभासोंका निरूपण, सर्वथा एकान्तमें सत्वहेतुकी विरुद्धता, सहोपलभनियम, हेतुकी विरुद्धता, विरुद्धाव्यभिचारीका बिरुद्धमें अन्तर्भाव, अज्ञातहेतुका अकिञ्चित्करमें अन्तर्भाव आदि हेत्वाभासविषयक प्ररूपण आया है तथा इसमें अन्तयतिका भी समर्थन किया है।
षष्ट प्रस्ताव में वादका लक्षण, जय-पराजयव्यवस्थाका स्वरूप, जातिका लक्षण, दध्युष्टत्वादिके अभेदप्रसंगका सयुक्तिक उत्तर, उत्पादादित्रयात्मकत्व समर्थन, सर्वथा नित्य सिद्ध करने में सत्वहेतुका असिद्धत्वादि निरूपण आया है। इस प्रस्तावमें शून्यवाय मानिनाद, विशाग, निनामान अपोलाद, क्षणभंगवाद, असत्कार्यवाद आदिकी भी समीक्षा की गयी है।
सप्तम प्रस्ताव में प्रवचनका लक्षण, सर्वसिद्धि, अपौरुषेयत्वका निरसन, तत्त्वज्ञानसहित चारित्रको मोक्षहेतुत्ता आदि विषयोंका विवेचन आया है।
अष्टम प्रस्ताव में सप्तभंगीके निरूपणके साथ मैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजु सूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवम्भूत इन सात नयोंका कथन आया है।
नवम प्रस्तावमें प्रमाण, नय और निक्षेपका उपसंहार किया गया है।
४. सिद्विविनिश्चय सवृति
सिद्धिविनिश्चयमें १२ प्रस्ताव हैं। इनमें प्रमाण, नय और निक्षेपका विवेचन है। प्रथम प्रस्ताव प्रत्यक्ष-सिद्धि है। इसमें प्रमाणका सामान्य लक्षण, प्रमाणका फल, बाह्यार्थकी सिद्धि, व्यवसायात्मक विकल्पको प्रमाणता और विशदता, चित्रज्ञानकी तरह विचित्र बाह्य पदार्थोकी सिद्धि, निर्विकल्पक प्रत्यक्षका निरास, स्वसंवेदनप्रत्यक्षके निर्विकल्पकत्वका खण्डन, अविसंवादकी बहुलतासे प्रमाणव्यवस्था आदि विषयोंका विचार किया गया है।
द्वितीय सविकल्प सिद्धि-प्रस्तावमें अवग्रहादि ज्ञानोंका वर्णन, मानस-प्रत्यक्ष की आलोचना, निर्विकल्पसे सविकल्पकी उत्पत्ति एवं अवगरहादिमें पूर्व-पूर्वकी प्रमाणता और उत्तर-उत्तरमें फलरूपताकी सिद्धि को गयी है।
तृतीय प्रमाणान्तर-सिद्धिमें स्मरणको प्रमाणता, प्रत्यभिज्ञानका प्रामाण्य, उपमानका सादृश्यप्रत्यभिज्ञानमें अन्तर्भाव, तर्कको प्रमाणताका समर्थन, क्षणिकपक्षमें अर्थक्रियाका अभाव आदिकी समीक्षा आयी है।
चतुर्थ जीवसिद्धि-प्रस्ताव में ज्ञानको ज्ञानावरणके उदयसे मिथ्याज्ञान, क्षणिकचित्तमें कार्यकारणभाव, सन्तान आदिकी अनुत्पांत, जीव और कर्म चेतन और अचेतन होकर भी बन्धके प्रति एक हैं, कर्मास्त्रव तत्तोपप्लववाद, भूतचैतन्यवाद एवं विभिन्न दर्शनोंमें मान्य आत्मस्वरूपका विवेचन किया है।
पञ्चम प्रस्ताव जल्प-सिद्धि है। इसमें जल्पका लक्षण, उसकी चतुरङ्गता, जल्पका फलमार्ग प्रभावना, शब्दकी अर्थवाचकता, निग्रहस्थान एवं जयपराजयव्यवस्थाकी समीक्षा की गयी है।
छठा हेतुलक्षणसिद्धि-प्रस्ताव है। इसमें हेतुका अन्यथानुपपत्तिलक्षण, तादात्म्य-तदुत्पत्तिसे ही अविनाभावको व्याप्ति नहीं, हेतुके भेद, कारण आदि का कथन आया है।
सप्तम प्रस्ताव शास्त्र-सिद्धि है। इसमें श्रुतका श्रेयोमार्गसाधकत्व शब्दका अर्थवाचकत्व, स्वप्नादि दशामेंभी जीवकी चेतनता, भेदकान्तमें कारक, ज्ञापक स्थितिका अभाव, ईश्वरवाद, पुरुषाद्वैतवाद, वेदका अपौरुषेयवाद आदिका समालोचन किया है।
अष्टम सर्वज्ञसिद्धि-प्रस्तावमें सर्वज्ञकी सिद्धि और नवम शब्दसिद्धि प्रस्तावमें शब्दका पोद्गलिकत्व सिद्ध किया है। दशम प्रस्तावका नाम अर्थनयसिद्धि है। इसमें नयका स्वरूप, नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजु-सूत्र इन चार अर्थ नयों और नयाभासोंका वर्णन आया है।
ग्यारहवां शब्दनयसिद्धि-प्रस्ताव है। इसमें शब्दका स्वरूप, स्फोटवादका खण्डन, शन्दनित्यत्वका निरास, शब्दनय, समभिरूदमन एवं एवम्भतनय आदिका वर्णन आया है।
बारहवाँ निक्षेपसिद्धि-प्रस्ताव है। इसमें निक्षेपका लक्षण, भेद, उपभेदोंका स्वरूप एवं उनकी सम्भावनाओं पर विचार किया गया है।
५. तस्वार्थवार्तिक सभाष्य
इस ग्रन्थके मंगल चतुर्थ चरणसे तत्वार्थवार्त्तिका लिखकर अकलंकदेवने इस ग्रंथको 'तत्वार्थवार्त्तिक' कहा है। तत्त्वार्थसूत्रके प्रत्येक सूत्रपर वार्त्तिकरूपमें व्याख्या लिखे जानेके कारण यह तत्वार्थवार्त्तिक कही गयी है। वार्त्तिक श्लोकात्मक भी होते हैं और गद्यात्मक भी। कुमारिलका मीमांसाश्लोकवार्त्तिक और धर्मकीर्त्तिका 'प्रमाणवार्त्तिक' पद्योंमें लिखे गये हैं। पर न्यायदर्शनके सूत्रोंपर उद्योतकरने जो वार्त्तिक रचा है, वह गद्यात्मक है। अतएव यह अनुमान लगाना सहज है कि अकलंकने उद्योतकरके अनुकरण पर गद्यात्मक तत्त्वार्थवार्त्तिक रचा है। अकलङ्ककी विशेषता यह है कि उन्होंने तत्वार्थसूत्रके सूत्रोंपर वार्त्तिक रचे और वार्त्तिकोंपर भाष्य भी लिखा है। इस तरह इस ग्रन्थमें वार्त्तिक पृथक हैं और उनकी व्याख्या-भाष्य अलग है। इसी कारण इसकी पुष्पिकाओंमें इसे 'तत्वार्थवार्त्तिकव्याख्यानालंकार' संज्ञा दी गयी है।
यह ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्रकी व्याख्या होने के कारण दश अध्यायों में विभक्त है। इसका विषय भी तन्वार्थसूत्र के विषयके समान ही सैद्धान्तिक और दार्शनिक है। तत्त्वार्थसूत्रके प्रथम तथा पंचम अध्यायमें क्रमशः ज्ञान एवं द्रव्योंकी चर्चा आयी है और ये दोनों विषय ही दर्शनशास्त्रके प्रधान अंग हैं। अतः अकलंकदेवने इन दोनों अध्यायोंमें अनेक दार्शनिक विषयों की समीक्षा की है। दर्शन शास्त्रके अध्येताओंके लिये तत्वार्थवार्त्तिकके ये दोनों अध्याय विशेष महत्त्वपूर्ण हैं।
तत्त्वार्थवार्त्तिककी एक प्रमुख विशेषता यह है कि जिसने भी मन्तव्य उसमें चर्चित हुए, उन सबका समाधान अनेकान्त के द्वारा किया गया है। अतः दार्शनिक विषयोंसे सम्बद्ध सूत्रों के व्याख्यानमें अनेकान्तात्वार्त्तिक अवश्य पाया जाता है। यहाँ यह स्मरणीय है कि वार्त्तिककारने दार्शनिक विषयोंके कथनसन्दर्भ में आगमिक विषयोंको भी प्रस्तुत कर अनेकान्तवादकी प्रतिष्ठा को है।
तृतीय, चतुर्थ अध्यायोंमें लोकानुयोगसे सम्बद्ध विषय आये हैं । इस विषयके प्रतिपादन में 'तिलोयपण्णत्ति' आदि प्राचीन ग्रन्थों की अपेक्षा अनेक नवीनताओं का समावेश किया गया है। इस ग्रन्थकी विशेषताओंके सम्बन्धमें प्रज्ञाचक्षु पं. सुखलालजीने लिखा है- "राजवार्त्तिक और श्लोकवार्त्तिकके इतिहासज्ञ अभ्यासीको मालूम पड़ेगा कि दक्षिण हिन्दुस्तान में जो दार्शनिक विद्या और स्पर्धाका समय आया और अनेकमुख पाण्डित्य विकसित हुआ, उसीका प्रतिबिम्ब इन दोनों ग्रन्थों में है। प्रस्तुत दोनों वार्त्तिक जैनदर्शनका प्रामाणिक अभ्यास करने के पर्याप्त साधन है। परन्तु इनमेसे 'राजवार्त्तिक'का गद्य सरल और विस्तृत होनेसे तत्त्वार्थके सम्पूर्ण टीका ग्रन्थोंकी गरज अकेला ही पूर्ण करता है। ये दो वाीर्तिक यदि नहीं होते, तो दशवीं शताब्दी तकके दिगम्बर साहित्यमें जो विशिष्टता आयी, और उसकी जो प्रतिष्ठा बँधी वह निश्चयसे अधूरी ही रहती। ये दो वार्तिक साम्प्रदायिक होनेपर भी अनेक दृष्टीयोंसे भारतीय दार्शनिक साहित्यमें विशिष्ट स्थान प्राप्त करें, ऐसी, योग्यता रखते हैं। इनका बौद्ध और वैदिक परम्परा के अनेक विषयों पर तथा अनेक ग्रन्थों पर ऐतिहासिक प्रकाश डालता है।"
'तत्त्वार्थवार्तिक'का मूल आधार पूज्यपादकी सवार्थसिद्धि है। सवार्थसिद्धि की वाक्यरचना, सूत्र जैसी संतुलित और परिमित है। यही कारण है कि अकलंकदेवने उसके सभी विशेष वाक्योंको अपने वार्तिक बना डाले हैं, और उनका व्याख्यान किया है। आवश्यकतानुसार नये वार्तिकोंको भी रचना की है, पर सर्वार्थसिद्धिका उपयोग पूरी तरहसे किया है। जिस प्रकार बीज वृक्षमें समाविष्ट हो जाता है, उसी प्रकार समस्त सर्वार्थसिद्धि तत्वार्थवार्तिकमें समाविष्ट है, पर विशेषता यह है कि सर्वार्थसिद्धि के विशिष्ट अम्यासीको भी यह प्रतीति नहीं हो पाती कि वह प्रकारान्तरसे सर्वार्थसिद्धिका अध्ययन कर रहा है।
तत्त्वार्थवार्तिक में यों तो अनेक विषयोंकी चर्चा की गयी है, पर विशेषरूपसे जिन विषयोंपर प्रकाश डाला गया है, वे निम्नलिखित हैं-
१. कर्ता और करण के भेदाभेदको चर्चा। तीनों वाच्यों द्वारा ज्ञानकी व्युत्पत्ति
२. आत्माका ज्ञानसे भिन्नाभिन्नत्व।
३. केवल ज्ञानप्राप्तिके द्वारा मोक्षकी मान्यताका निरसन कर मोक्षमार्गका निरूपण। सन्दर्भानुसार सांख्य, वैशेषिक, न्याय और बौद्ध दर्शनोंकी समीक्षा
४. मुख्य और अमुख्योंका विवेचन करते हुए अनेकान्तदृष्टिका समर्थन।
५. सप्तभंगीके निरूपणके पश्चात् अनेकान्तमें अनेकान्तकी सुघटना।
६. अनेकान्तमें प्रतिपादित छल, संशय आदि दोषोंका निराकरण करते हुए अनेकान्तात्मकताको सिद्धि।
७. एकान्तवादमें ज्ञानके करण-कर्तृत्वका अभाव।
८. आत्म-अनात्मवादियोंको समीक्षा।
९. प्रत्यक्ष-परोक्षसम्बन्धो ज्ञानको व्याख्याओंका विस्तृत विवेचन्। इस सन्दर्भ में पूर्वपक्षके रूपमें बौद्ध, न्याय, वैशेषिक, मीमांसक आदि दार्शनिकोंकी समीक्षा।
१०. चक्षु के प्राप्यकारित्व और श्रोत्रके अप्राप्यकारित्वका निराकरण।
११. श्रुतज्ञान के अन्तर्गत अनुमानके पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट भेद तथा उपमान, ऐतिह्म, अर्थापत्ति, सम्भव और अभावका समावेश।
१२. आत्मसिद्धि।
१३. स्वात्मा और परमात्माके विश्लेषणके साथ सप्तभंगीके सकलादेश और विकलादेशोंका विवेचन।
१४. 'द्रव्यत्वयोगात् द्रव्यं' और 'गुणसंद्रावो द्रव्य’ की विस्तृत समीक्षा।
१५. विभिन्न दर्शनोंके आलोक में शब्दके मूर्तिकत्वका विवेचन।
१६. स्फोटवाद-समीक्षा।
१७. कोक्वल, काण्ठेचिद्दि, कौशिक, हरि, शमश्रुमान, कपिल, रोमस, हरिताश्व, मुण्ड
१८. मरीचिकुमार, उलूक, कपिल, गाग्री, व्याघ्रभूति, माठर, मौद्गलायन आदि अक्रियावादी दार्शनिकोंकी समीक्षा।
१९. साकल्य, वासकल, कुथुमि, सात्यमुग्री, चारायण, कठ, माध्यन्दिन, मौद, पेपलादि, वादरायण, येतिकायन, वसु और जैमिनि आदि अज्ञानवादियों का समालोचन।
२०. वशिष्ठ, पाराशर, जतुकर्ण, वाल्मीकि, रोमहर्षिणी, व्यास, एलापुत्र, औपमन्यव, इन्द्रदत्त आदि बैंनिक वादियोंकी समीक्षा।
२१. जीव-अजीव आदि तत्वोंका निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधानपूर्वक विवेचन।
२२. ज्ञानोंके विषयक्षेत्रका कथन।
२३. नयोंका सोपपत्तिक निरूपण।
२४. शरीरोंका सविस्तर निरूपण।
२५. लोकरचना- क्षेत्रफल और घनफलोंका निरूपण।
२६. गुणस्थान, ध्यान, अनुप्रेक्षा एवं मार्गणा आदिका विस्तृत कथन।
२७. द्रव्य और तत्वोंकी व्यवस्थाका कथन।
इस प्रकार 'सस्वार्थराजवार्त्तिक' में अनेक विशेष बातोंका कथन आया है। यह ग्रन्थ अध्याय, आह्निक और वार्तिकों में विभक्त है। यहाँ उदाहरणार्थ एकाध वार्तिक प्रस्तुत करते हैं, जिससे अकलंकदेवको विषयप्रतिपादनसम्बन्धी विशेषता अभिव्यक्त हो जायगी।
प्रमाणनयाणाभेवात- "एकान्तो द्विविधः सम्यगेकान्तो मिथ्येकान्त इति। अनेकान्तोऽपि द्विविधः-सम्यगनेकान्तो मिथ्यानेकान्त इति। तत्र सम्य गेकान्तो हेतुविशेषसामर्थ्यापेक्षः प्रमाणप्ररूपिताथै कदेशादेशः। एकात्मावधारणेन अन्याशेषनिराकरणप्रवणनाणिधिमिथ्यकान्तः। एकत्र सप्प्रतिपक्षानेकधर्मस्वरूप निरूपणो युक्त्यागमाभ्यामबिरुद्धः सम्यगनेकान्तः। तदतत्स्वभाववस्तुशन्यं परि कल्पितानेकात्मक केवलं वाग्विज्ञानं मिथ्याऽनेकान्तः। तत्र सम्यगेकान्तो नय इत्युच्यते। सम्यगनेकान्तः प्रमाणम्। नयार्पणादेकान्तो भवति एकनिश्चयप्रवण त्वात्, प्रमाणार्पणादनेकान्तो भवति अनेकनिश्चयाधिकरणत्वात्।"
६. अष्टशती
जैनदर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है। आचार्य समन्तभद्र अनेकान्तवादके सबसे बड़े व्यवस्थापक हैं। उन्होंने आप्तमीमांसा नामक ग्रन्थ द्वारा उसकी व्यवस्था की है। इसी आप्तमीमांसापर अकलंकदेवने अपनी 'अष्टशती' वृत्ति लिखी है। इस बुत्तिका प्रमाण ८०० श्लोक है, अतः यह अष्टशती कहलाती है। विद्यानन्दने समन्तभद्रके उक्त प्रन्यपर अष्टसहन नाममोसा लिसी है, जिनमें अष्टशतीको 'धमें चीनी' की तरह समाविष्ट कर लिया है। शतीके रचयिता अकलंकदेवने इसमें अनेक नये तथ्योंपर प्रकाश डाला है। विभिन्न दर्शनोंके द्वैत-अद्वैतवाद, शाश्वत-अशाश्वतवाद, वक्तव्य-अवक्तव्यबाद, अन्यता-अनन्य तावाद, सापेक्ष-अनपेक्षवाद, हेतु-अहेनुवाद, विज्ञान बहिरर्थवाद, देव-पुरुषार्थ वाद, पुण्य-पापवाद और बन्ध-मोक्षकारणवादकी समीक्षा की गयी है। उनके प्रतिपादनका एक उदाहरण प्रस्तुत है-
"स्वभावान्तरात्स्वभावव्यावृत्तिरस्यापोह:" संविदो साझाकारात्कञ्चिद व्यावृत्तौं- अनेकान्तसंविते स्वलक्षणप्रत्यक्षवृत्तावपि संवेद्याकार विवेक स्वभावान्तरानुपलब्धेः स्वभावव्यावृत्तिः शवलविधर्मानसऽपि लोहितादीनां परस्परव्यावृत्तिरन्यथाचित्रप्रतिभासासंभवात्, तदन्यत्तमवत्तदालम्बनस्यापि नीला देरभेदस्वभावापत्तेः तद्वतस्तेभ्यो व्यावृत्तिरेकानेकस्वभावत्वात् रूपादिवत् अन्यथा द्रव्यमेव स्यान्न रूपादयः"।
अनेकान्तात्मकवस्तुकी सिद्धि करते हुए लिखा है-
"यत्सत् तत्सर्वमनेकान्सात्मक वस्तुतत्त्वं सर्वथा तदर्थक्रियाकारित्वात्। स्वविषयाकारसंवित्तिवत्। न किञ्चिदेकान्तं वस्तुतत्त्वं सर्वथा तदर्थक्रियासंभवात् गगनकुसुमादिवत्। नास्ति सदेकान्तः सर्वव्यापारविरोधप्रसंगात असदेकान्तदित्ति विधिना प्रतिषेधेन था वस्तुतत्त्वं नियम्यते"
अकलंकदेवकी शैली गूढ़ एवं शब्दार्थभित है। ये जिस विषयको भी ग्रहण करते हैं, उसका गम्भीर और अर्थपूर्ण बाक्शोंमें विवेचन करते हैं। अतः काम से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक विषयका निरूपण करना इनका लक्ष्य है। अकलंकदेवका उनकी रचनाओंपरसे षड्दर्शनोंका गम्भीर और सूक्ष्म चिन्सन अवगत होता है। फलत: उनका अतल तलस्पर्शी ज्ञान सर्वत्र उपलब्ध है। इनकी कारिकाओंमें अर्थगाम्भीर्य है, प्रसंगवश वे वादियोंपर करारा व्यंग्य करनेसे भी चूकते नहीं हैं। व्यंग्य के समय इनको रचनाओं में सरसता आ जाती है, और दर्शनके शुष्क विषय भी साहित्यके समान सरस प्रतीत होने लगते हैं। प्रदश्यानुपलब्धिसे अभाग की सिद्धि न माननेपर वे बौद्धोंपर व्यंग करते हुए कहते हैं-
दध्यादो न प्रवर्सत बौद्धः तदभुक्तये जनः।
अदृश्यां सौगतीं तत्र तनुं संशङ्कमानक:||
दध्यादिके तथा भुक्ते न भुक्तं काजिकादिकम्।
इत्यसौ वेत्तु नो वेत्ति न भुक्ता सौगती तनुः।।
अदृश्यकी आशंकासे बौद्ध दही स्वाने में नि:शंक प्रवृत्ति नहीं कर सकेंगे, क्योंकि वहाँ सुगतके अदृश्य शरीरको शंका बनी रहेगी। दही खानेपर काफी नहीं खायी, यह तो वे समझ सकते हैं, पर बुद्ध शरीर नहीं खाया, यह समझना उन्हें असम्भव है।
यह कितना मार्मिक भ्यंग्य है। धर्मकीर्तिके अभेदप्रसंगका उत्तर भी अकलंकदेवने व्यंग्यात्मक रूपमें दिया है। अकलंकदेव कठिन-से-कठिन विषयको भी व्यंग्यात्मक सरलरूपमें प्रस्तुत करते हैं। यों तो अकलंकदेवने अनुष्टुप छन्दोंमें ही अधिकांश कारिकाएँ लिखी हैं, पर उन्हें शार्दूलविक्रीडित और स्रग्धरा छन्द भी विशेष प्रिय हैं। जहाँ उन्हें थोड़ा-सा भी अवसर मिलता है कि वे इन छन्दों का प्रयोग करने लगते हैं। न्यायके प्रकरणों में उद्देश्य निर्देशक और उपसंहारात्मक पद्योंमें इन छन्दोंका प्रयोग पाया जाता है। मंगलाचरणके पद्योंमें अलंकारोंका नियोजन भी विद्यमान है। निम्नलिखित पद्यमें सम्यकज्ञानको जल रूपक प्रदान कर मलिन हुए न्यायमार्ग के प्रक्षालनकी बात वे कितनी सदयतासे व्यक्त करते हैं-
बालानां हितकामिनामतिमहापापैः पुरोपार्जितै:
माहात्म्यात्तमसः स्वयं कलिबलात् प्रायो गुणद्वेषिभिः।
न्यायोऽयं मलिमीकृतः कथमपि प्रक्षाल्य नेनीयते,
सम्यग्ज्ञानजलेबचोभिरमलं तत्रानुकम्पापरः॥
इसी प्रकार अनुप्रास, यमक आदि अलंकार भी इनके दर्शन-ग्रन्थों में काव्य रचना न होनेपर भी प्राप्त हैं। शैलीकी दृष्टिसे अकलंक निश्चय ही उद्योतकर और धर्मकीर्ति के समकक्ष हैं।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
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डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री अकलंकदेव- 7वीं शताब्दी (प्राचीन)
जैन परम्परामें यदि समन्तभद्र जैन न्यायके दादा है, तो अकलंक पिता। सारस्वसाचार्यों की परंपरा मे नाम आता है। ये बड़े प्रखर तार्किक और दार्शनिक थे। बौद्ध दर्शनमें जो स्थान धर्मकीर्तिको प्राप्त है, जैन दर्शनमें वहीं स्थान अकलंकदेवका है। इनके द्वारा रचित प्राय: सभी ग्रंथ जैन दर्शन और जैन न्याय विषयक हैं। इनके इन ग्रन्थोंको, इन विषयोंका 'महान' ग्रन्थ कहा हा सकता है।
अकलंकके सम्बन्ध में श्रवणबेलगोलाके अभिलेखों में अनेक स्थान पर स्मरण आया है। अभिलेखसंख्या ४७ में लिखा है-
"षट्तर्केष्वकदेवविबुध: साक्षादयं भूतले"
अर्थात् अकलंकदेव षट्दर्शन और तर्कशास्त्रमें इस पृथ्वी पर साक्षात् विबुध (बृहस्पतिदेव) थे।
एक अन्य अभिलेखमें इनके द्वारा बौद्धादि एकान्तवादियोंको परास्त किये जानेकी चर्चा की गयी है-
भट्टाकलङ्गोऽकृत सौगतादिदुवकि्यङ्कस्सकलङ्कभूतं।
जगत्स्वनामेव विधातुमुच्चेः सार्थ सामन्तादकलङ्कमेव।।
निश्चयत: अकलंकदेव द्वारा जैन न्यायका सम्बर्द्धन हुआ है। अभिलेख नं. १०८ में पूज्यपादके पश्चात् अकलंकदेवका स्मरण किया गया है और मिथ्यात्व अन्धकारको दूर करने के लिये सूर्यके तुल्य बताया गया है-
ततः परं शास्त्रविदां मुनीना
मसरोऽभूदकल डूसूरिः।
मिथ्यान्धकारस्थगिताखिलात्था:
प्रकाशिता यस्य वचोमयूखैः॥
अकलंक मान्यखेटके राजा, शुभतुंगके मंत्री भनी पुरुशोतमक पुत्र थे। 'राजावलिकथे' में इन्हें काञ्चोंके जिनदास नामक ब्राह्मणका पुत्र कहा गया है। पर तत्वार्थवार्तिकके प्रथम अध्यायके अन्त में उपलब्ध प्रशस्तिसे ये लघुहव्व नृपत्ति के पुत्र प्रतीत होते हैं। प्रशस्तिमें लिखा है-
जीयाच्चीरमकलब्रह्मा लघुहन्ननुपतिवरतनयः।
अनवरतनिखिलजननुसविधः प्रशस्तजनहुद्यः।।
ये लघुहव्वनृपति कौन हैं और किस प्रदेशके राजा थे, यह इरा पद्यसे या अन्य स्तोत्रसे ज्ञात नहीं होता। नामसे इतना प्रतीत होता है कि उन्हें दक्षिणका होना चाहिए और उसी क्षेत्रके वे नृपति रहे होंगे।
प्रभाचन्द्र के कथाकोषमें अकलंकको कथा देते हुए लिखा है कि एकबार अष्टालिका पर्वके अवसरपर अकलंकके माता-पिता अपने पुत्र अकलंक और निष्कलंक महित मुनिराजके पास दर्शन करने गये। धर्मोपदेश श्रवण करनेके पश्चात उन्होंने आठ दिनों के लिये ब्रह्मचर्य ब्रत ग्रहण किया और पुत्रोंको भी ब्रह्मचर्यव्रत दिलाया। जब दोनों भाई वयस्क हुए और माता-पिताने उनका विवाह करना चाहा, तो उन्होंने मुनिके समक्ष ली गयी प्रतिज्ञाकी याद दिलायी और विवाह करनेसे इन्कार कर दिया। पिताने पुत्रोंको समझाते हुये कहा कि "वह व्रत तो केवल आठ दिनोंके लिये ही ग्रहण किया गया था। अतः विवाह करने में कोई भी रुकावट नहीं है।" पिताके उक्त वचनोंको सुनकर पुत्रोंने उत्तर दिया-"उस समय, समय-सीमाका जिक्र नहीं किया गया था। अत: ली गयी प्रतिज्ञाको तोड़ा नहीं जा सकता।"
पिताने पुन: कहा- "वत्स! तुम लोग उस समय अबुद्ध थे। अत: ली गयी प्रतिज्ञामें समय-सीमाका ध्यान नहीं रखा। वहाँ लिये गये व्रतका आशय केवल आठ दिनोंके लिये ही था, जीवन-पर्यन्तके लिये नहीं। अतएक विवाह कर तुम्हें हमारी इच्छाओंको पूर्ण करना चाहिये।"
पुत्र बोले- "पिताजी! एक बार ली गयी प्रतिज्ञाको तोड़ा नहीं जा सकता। अत: यह व्रत तो जीवन-पर्यन्त के लिये है। विवाह करनेका अब प्रश्न ही नहीं उठता।"
पुत्रोंकी दृढ़ताको देखकर माता-पिताको आश्चर्य हुआ। पर वे उनके अभ्युदयका ख्यालकर उनका विवाह करने में समर्थ न हुए। अकलंक और निष्कलंक ब्रह्मचर्यकी साधना करते हुए विद्याध्ययन करने लगे।
काञ्चीपुरीमें बौद्धधर्मके पालक पल्लवराजको छत्रच्छायामें अकलंकने बौद्धन्यायका अध्ययन किया। अकलंक शास्त्रार्थी विद्वान् थे। इन्होंने दीक्षा लेकर सुधापुरके देशीयगणका आचार्यपद सुशोभित किया। अकलंकने हिमशीतल राजाकी सभामें शास्त्रार्थ कर तारादेवीको परास्त किया।
'ब्रह्म नेमिदत्तकृत आराधनाकथाकोष और मल्लिषेण-प्रशस्तिसे भी उक्त तथ्य पुष्ट होता है। मल्लिषेण-प्रशस्तिका अंकनकाल शक सं. १०५० है। अतएव ई. सन् १०७१ के लगभग अकलंकदेवके सम्बन्धमें उक्त मान्यता प्रचलित हो गयी थी-
तारा येन विनिज्जिता घट-कुटी-गूढ़ावतारा समं
बौद्धैयों धृत-पीठ-पीडित-कुदृग्देवात्त-सेवाज्जलि:। प्रायश्चित्तमिवात्रि-वारिज रज-स्नानं च यस्याचरत्
दोषाणां सुगतस्स कस्य विषयो देवाकलकुः कृती।।
चूण्णि॥ यस्येदमात्मनोऽनन्य-सामान्य-निरवद्य-विद्या-विभवोपवर्णनमाकण्यं।।
राजन्साहसतुङ्ग सन्ति बहवः श्वेतासपत्रा नृपाः
किन्तु त्वत्सदशा रणे विजयिनस्त्यांगोत्रता दुल्लभाः।
त्वद्वत्सन्ति बुधा न सन्ति कवयो वादोश्वरा वाग्मिनो
नाना-शास्त्र-विचारचातुरधियः काले कलो मद्विधाः।।
नेमिदत्तके आरावनाकथाकोषमें बताया है- 'मान्यखेटके राजा शुभतुंग थे। उनके मंत्रीका नाम पुरुषोत्तम था। पद्मावती उनकी पत्नी थी। पद्मावतीके गर्भसे दो पुत्र उत्पन्न हुए-अकलंक और निष्कलंक। अष्टाह्निका महोत्सवके प्रारम्भमें पुरुषोत्तम मन्त्री सकुटुम्ब रविगुप्त नामक मुनिके दर्शनार्थ गये और वहां उन्होंने पुत्रों सहित आठ दिनोंका बहाचर्य व्रत ग्रहण किया। युवावस्था होनेपर पुषोंने विवाह करनेसे इन्कार कर दिया और विद्याध्ययनमें संलग्न हो गये। उस सयय बौद्धधर्मका सर्वत्र प्रचार था। अतएव वे दोनों महाबोधि-विद्यालयमें बौद्ध-शास्त्रोंका अध्ययन करने लगे।
एक दिन गुरुमहोदय शिष्योंको सप्तभंगो-सिद्धान्त समझा रहे थे, पर पाठ अशुद्ध होने के कारण वे उसे ठीक नहीं समझा सके। गुरुके कहीं चले जाने पर अकलंकने उस पाठको शुद्ध कर दिया। इससे गुरुमहोदयको उनपर जैन होने का सन्देह हआ। कुछ दिनों में उन्होंने अपने प्रयत्नों द्वारा उनको जैन प्रमाणित कर लिया। दोनों भाई कारागृहमें बन्द कर दिये गये। रात्रिके समय दोनों भाईयोंने कारागृहसे निकल जानेका प्रयत्न किया। वे अपने प्रयत्नमें सफल भी हुये और कारागृहसे निकल भागे। प्रातःकाल ही बौद्ध गुरुको उनके भाग जानेका पता चला। उन्होंने चारों ओर घुड़सवारोंको दौड़ाकर दोनों भाईयों को पकड़ लानेका आदेश दिया।
घुड़सवारोंने उनका पीछा किया। कुछ दूर आगे चलने पर दोनों भाईयोंने अपने पीछे आनेवाले घुड़सवारों को देखा और अपने प्राणोंको रक्षा न होते देख अकलंक निकट के एक तालाब में कूद पड़े। और कमलपत्रोंसे अपने आपको आच्छादित कर लिया। निष्कलंक भी प्राणरक्षाके लिये शीघ्रतासे भाग रहे थे। उन्हें भागता देख तालाबका एक धोबी भी भयभीत होकर साथ-साथ भागने लगा। घुड़सवार निकट आ चुके थे। उन्होंने उन दोनोंको शीघ्र ही पकड़ लिया और उनका वध कर डाला। घुड़सवारोके चले जाने पर, अकलंक तालाबसे निकल निर्भय होकर भ्रमण करने लगे।
कलिंग देशके रतनसंचयपुरका राजा हिमशीतल था। उसकी रानी मदन सुन्दरी जिनधर्मकी भक्त थी। वह बड़े उत्साहके साथ जैनरथ निकालना चाहती थो । किन्तु बौद्ध गुरु रथ निकलने देने के पक्षमें नहीं थे। उनका कहना था कि कोई भी जैन विद्वान जब तक मुझे शास्त्रार्थ में पराजित नहीं कर देगा, तब तक रथ नहीं निकाला जा सकता है। गुरुके विरुद्ध राजा कुछ नहीं कर सकता था। बड़े धर्मसंकटका समय उपस्थित था। जब अकलंकको यह समाचार मिला, तो वे राजा हिमशीतलकी सभा में गये और बौद्ध गुरुसे शास्त्रार्थ करनेको कहा। दोनोंमें छ: मास तक परदे के अन्दर शास्त्रार्थ होता रहा। अकलंकको इस शास्त्रार्थसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने इसका रहस्य जानना चाहा। उन्हें शीघ्र ही ज्ञात हो गया कि बौद्ध गुरुके स्थान पर, परदेके अन्दर घड़े में बैठी बौद्ध देवी तारा शाल्वार्थ कर रही है। उन्होंने परदेको खोलकर घड़ेको फोड़ डाला। तारादेवी भाग गयी और बौद्ध गुरु पराजित हुए। जैनरथ निकाला गया और जैनधर्मका महत्त्व प्रकट हुआ।
'राजावलिकथे' में भी उक्त कथा प्रायः समान रूपमें मिलती है। अन्तर इतना ही है कि काञ्चीके बौध्दोंने हिमशीतलकी सभामें जैनोंसे इसी शर्त पर शास्त्रार्थ किया कि हारने पर उस सम्प्रदायके सभी मनुष्य कोल्हूमें पेलवा दिये दिये जायं। इस कथाके अनुसार यह शास्त्रार्थ १७ दिनों तक चला है। अकलंकको कुसुमाण्डिनी देवाने स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि तुम अपने प्रश्नोंको प्रकारान्तरस उपस्थित करने पर जीत सकोगे। अकलंकने वैसा ही किया और वे विजयी हुए। बौद्ध कलिंगसे सिलोन चले गये।
उपर्युक्त कथानकोंसे यह स्पष्ट है कि अकलंकदेव दिग्विजयी शास्त्रार्थी विद्वान थे। मल्लिषेण-प्रशस्तिके दूसरे पद्यमें आया है कि राष्ट्रकूटवंशी राजा साहसतुंगकी सभा में उन्होंने सम्पूर्ण बौद्ध विद्वानोंको पराजित किया। काञ्चीके पल्लववंशो राजा हिमशीतलको राजसभामें भी उन्होंने अपूर्व विजय प्राप्त की थी। इसी कारण विद्यानंदने अकलंकको सकलपायलमान कहा है।
समय-निर्धारण- अकलंकदेवके समयके सम्बन्धमें दो धारणाएँ प्रचलित हैं। प्रथम धारणाके प्रवर्तक डा. के. बी. पाठक हैं और दूसरी धारणाके प्रवर्तक प्रो. श्रीकण्ठ शास्त्री तथा आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार हैं। डा. पाठकने मल्लिषेण-प्रशस्तिके 'राजन् साहसतुग' श्लोकके आधार पर इन्हें राष्ट्र कूट-वंशी राजा दन्तिदुर्ग या कृष्णराज प्रथमका समकालीन सिद्ध किया है तथा अकलंकचरितके निम्नलिखित पद्यमें आये हुए "विक्रमार्क' पदका अर्थ शक संवत् किया है-
विक्रमार्कशकाब्दीयशतसप्तप्रमाजुषि।
काले अकलंकयतिनो बौद्धेर्वादो महानभूत्।।
अतः इनके मतानुसार अकलंका समय शक सं . ७०० (७७८ ई.) है।
दुसरी विचारधाराके पोषक श्रीकण्ठशास्त्री और आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार उक्त पद्यमें आये हुए 'विक्रमार्क' पदका अर्थ विक्रम संवत् करते हैं। अतः अकलंकका समय वि. सं. ७०० (ई. सन् ६४३) का विद्वान मानते हैं। प्रथम परम्पराके समर्थकों में स्व. डा. आर. जी. भण्डारकर, स्व. डा. सतीशचन्द्र विद्याभूषण और स्व श्री पं. नाथूरामजी प्रेमी हैं। दूसरी धारणाके पोषकोंमें डा. ए. एन. उपाध्ये, आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार और श्री पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री प्रभृति विद्वान हैं।
उक्त दोनों धारणाओंका आलोडन कर डा. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य ने अकलंकद्वारा भर्तृहरि, कुनारिल, धर्मकीर्ती, और कर्मयोगी आदि आचार्योंके विचारोंकी आलोचना पाकर अकलंकका समय ई. सन् ८ वीं शती सिद्ध किया है। न्यायाचार्यजीके प्रमाण पर्याप्त सबल हैं। आपने अकलंक देयके ग्रन्थोंका सुक्ष्म अध्ययन कर उक्त निष्कर्ष निकाला है।
आचार्य कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने गहन अध्ययन कर अकलंकदेवका समय ई. सन् ६२०–६६० तक निश्चित किया है और महेन्द्रकुमारजीके अनुसार यह समय ई. सन् ७२०-७८० आता है। इस तरह इन दोनों समयोंके मध्य में १०० वर्षाका अन्तर है।
धनञ्जयने अपनी नाममालामें एक पद्य लिखा है, जिसमें अकलंकके प्रमाणका जिक्र आया है। लिखा है-
प्रमाणमकलस्य पूज्यपादस्य लक्षणम्।
धनम्जयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम्।।
अकलंकका प्रमाण, पूज्यपादका व्याकरण और धनञ्जय कविका काव्य ये तीनों अपश्चिम रत्न हैं।
अकलंकदेवकी जैनन्यायको सबसे बड़ी देन है प्रमाण ! इनके द्वारा की गयी प्रमाणव्यवस्था दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोके आचार्याने अपनी-अपनी प्रमाणमीमांसाविषयक रचनाओं में ज्यों-का-त्यों अनुकरण किया है। अतः धनंजयने इस पद्यमें जैन तार्किक अकलंकदेव और उनके प्रमाण शास्त्रका उल्लेख किया है।
धनञ्जयके पश्चात् वीरसेनस्वामीने अपनी धवला तथा जयधवला टीकाओं में और उनके शिष्य जिनसेनने महापुराणमें अकलंकका निर्देश किया है। वीरसेन स्वामीने अकलंकदेवका नामोल्लेख किये बिना 'तत्वार्थभाष्य’ के नामसे उनके तत्त्वार्थवातिकका तथा सिद्धिविनिश्चयका उल्लेख करके उनके उद्धरण दिये हैं। जिनसेनने लिखा है-
भट्टाकलहुश्रीपालपात्रकेसरिणां गुणा:।
विदुषां हृदयानः हारायन्तेऽतिनिर्माता।।
अर्थात् भट्ट अकलंक, श्रीपाल और पात्रकेसरी आदि आचार्योंके अत्यन्त निर्मल गुण विद्वानों के हृदय में मणिमालाके समान सुशोभित होते हैं।
वीरसेनने धवलाटीकामें 'इति' शब्दका अर्थ बतलानेके लिए एक पद्य उद्धृत किया है, जो धनञ्जय कविकी अनेकार्थनाममालाका ३९ वा पद्य है। अतः धनञ्जय वीरसेनसे पूर्ववर्ती हैं और धनन्जयसे पूर्ववर्ती अकलंक हुए हैं। अतएव अकलंकका समय सातवीं शतीका उत्तरार्द्ध सिद्ध होता है।
अकलंकदेवकी रचनाओंकी दो वर्षों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम वर्गमें उनके स्वतन्त्र-ग्रन्थ और द्वितीय वर्गमें टीका-ग्रन्थ रखे जा सकते हैं। स्वतन्त्र-मन्थ निम्नलिखित है-
१. स्वोपत्रवृत्तिसहित लघीयस्त्रय
२. न्यायविनिश्चय सवृति
३. सिद्धिविनिश्चय सवृत्ति
४. प्रमाणसंसह सवृत्ति
१. तत्त्वार्थबात्तिक सभाष्य।
२. अष्टशती- देवागमविवृति।
१. लधीयस्त्रय- में तीन छोटे-छोटे प्रकरणोंका संग्रह है- (१) प्रमाण प्रवेश (२) नयप्रवेश और (३) निक्षेपप्रवेश| प्रमाणप्रवेशके चार परिच्छेद हैं- (१) प्रत्यक्षपरिच्छेद (२) विषयपरिच्छेद (३) परोक्षपरिच्छेद और (४) आगम परिच्छेद। इन चार परिच्छेदोंके साथ नयप्रवेश तथा प्रवचनप्रवेशको मिलाकर कुल छ; परिछेद स्वोपज्ञविवृत्तिमें पाये जाते हैं। लघीयस्त्रयके व्याख्याकार आचार्य प्रभाचन्द्रने प्रवचनप्रवेशके भी दो परिच्छेद करके कुल सात परिच्छेदों पर अपनी 'न्यायकुमुदचन्द्र' व्याख्या लिखी है। लघीयस्त्रयमें कुल ७८ कारिकाएँ हैं किन्तु मुद्रित लघीयस्त्रयमें ७७ ही कारिकाएँ हैं, 'लक्षणं क्षणिकैकान्ते"(कारिका ३५) नहीं है। इसके प्रथम परिच्छेदमें साढ़े छः, द्वितीय परिच्छेदमें ३, तृतीयमें १२, चतुर्थ में ७,पंचममें २१ तथा षष्ठमें २८ इस प्रकार कुल ७८ कारिकाएँ हैं।
अकलंकदेवने इसपर संक्षिप्त विवृति भी लिखी है। पर यह विवृत्ति कारिकाओंका व्याख्यानरूप न होकर सूचित विषयोंकी पूरक है। यह मूल श्लोकोंके साथ ही साथ लिखी गयी है। पं. महेन्द्रकुमारजीने लिखा है- 'मालूम होता है कि अकलंकदेव जिस पदार्थको कहना चाहते हैं, वे उसके अमुक अंशकी कारिका बनाकर बाकीको गद्यभागमें लिखते हैं। अत: विषयकी दृष्टि से गद्य और पद्य दोनों मिलकर ही ग्रंथकी अखण्डता स्थिर रखते हैं। धर्मकीर्तिकी प्रमाणवार्तिककी वृत्ति भी कुछ इसी प्रकारको है। उसमें भी कारिकोक्त पदार्थकी पूर्ति तथा स्पष्टताके लिए बहुत कुछ लिखा गया है।"
लघीयस्त्रयके प्रथम परिच्छेदमें सम्यक्ज्ञानकी प्रमाणता, प्रत्यक्ष-परोक्षका लक्षण, प्रत्यक्षके सांव्यवहारिक और मुख्य रूपसे दो भेद, सांव्यवहारिकके इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्षरूपसे दो भेद, मुख्यप्रत्यक्षका समर्थन, सांव्यवहारिकके अवग्रहादिरूप भेद तथा उनके लक्षण, अवग्रहाद्रिके बहादिरूप भेद, भावइन्द्रिय, द्रव्यइन्द्रियके लक्षण, पूर्व-पूर्व ज्ञानकी प्रमाणता और उत्तरोत्तर ज्ञानोंकी फकरूपता आदि विषयोंका कथन आया है।
द्वितीय परिच्छेदमेंद्रव्य पर्यायात्मक वस्तुका प्रमाणविषयत्व तथा अर्थक्रियाकारित्वके विवेचनके पश्चात् नित्यैकान्त और क्षणिकैकान्तमै क्रम-योग पद्यसे अर्थक्रियाकारित्वका अमाव प्रतिपादित किया है। वस्तुको नित्य माननेपर आनेवाले दोषोंकी समीक्षा की है। वस्तु न सर्वथा नित्य है और न अनित्य। वह किसी नयविशेषकी अपेक्षासे नित्य है और इतर नयकी अपेक्षासे अनित्य। लिखा है कि भेदाभेदात्मक वस्तु द्रव्यार्थिक और पर्यार्थिक नयकी अपेक्षासे ही घटित होती है। द्रव्यार्थिक अभेदका आश्रय करता है और पर्यार्थिक भेदका। यथा-
अर्थक्रिया न युज्यते नित्य-क्षणिकपक्षयोः।
क्रमाक्रमाभ्यां भावानां सा लक्षणतया मता॥
तृतीय परिच्छेदमें मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता तथा अभिनिवोधका शब्द योजनास पूर्व अवस्थामें मतिव्यपदेश तथा उत्तर अवस्थामें श्रुतव्यपदेश, व्याप्तिका ग्रहण प्रत्यक्ष और अनुमानके द्वारा सम्भव न होनेसे व्याप्तीग्राही तर्कका प्रामाण्य, अनुमानका लक्षण, जलचन्द्रको दृष्टान्तसे कारणहेतुका समर्थन, कृत्तिकोदय आदि पूर्वचर हेतुका समर्थन, अदुश्वानुपलब्धिसे परचैतन्य आदिका अभावज्ञान, नैयायिकाभिमत उपमानका सादृश्यप्रत्यभिज्ञानमें अन्तर्भाव, प्रत्यभिज्ञानके देसादृश्य, आपेक्षिक प्रतियोगी आदि मेदोंका निरूपण, बौद्धमतमें स्वभावादि हेतुओंके प्रयोगमें कठिनता, अनुमान- अनुमेयव्यवहारकी वास्तविकता एवं विकल्पबुद्धिकी प्रमाणता आदि परोक्षजानसे सम्बन्ध रखनेवाले विषयोंका निरूपण किया है।
चतुर्थ परीछेद ज्ञानसे निषेध कर प्रमाणाभासका स्वरूप, सविकल्प ज्ञानमें प्रत्यक्षभासताका अभाव, अविसंवाद और विसंवादसे प्रमाण-प्रमाणभासव्यवस्था, विप्रकृष्ट विषयोंमें श्रुतकी प्रमाणता, हेतुबाद और आप्तोक्त रूपसे द्विविध श्रुतकी अविसंवादि होनेसे प्रमाणता, शब्दोंके विवक्षावाचित्वका खण्डनकर उनकी अर्थवाचकता आदि श्रुतसम्बन्धी विषयों का विवेचन किया गया है। प्रमाणके स्वरूप, संख्या, विषय और फलका निरूपण मी प्रमाणप्रवेशमें किया है।
पञ्चम परिच्छेदमें नय-दुर्नसके लक्षण, द्रव्याथिक और पर्यायाथिक रूपसे नयके मूल भेद, सद्ररुपसे समस्त वस्तुओंके ग्रहणका संग्रहनयत्व, ब्रह्मवादका संग्रहाभासत्व, बौद्धाभिमत क्षणिक एकान्तका निरास, गुण-गुणी, धर्म-धर्मीको गौण-मुख्य विषक्षामें नेगमत्रयकी प्रवृत्ति, वैशेषिकसम्मत गुण-मण्यादिके एकान्त भेदका नेगमाभासत्व, प्रमाणिक भेदका व्यवहारनयत्व, काल्पनिक भेदका व्यव हाराभासत्व, कालकारकादिके मेदसे अर्थभेदनिरूपणको शब्दमयता, पर्याय भेदसे अर्थभेदक कश्चनका समभिरूढ़ नयब, क्रियाभेदसे अर्थभेदप्ररूपणका एवं. भूतनयत्व, सामग्री-भेदसे अभिन्न वस्तुमें भी षटकारकीका सम्भवत्व प्रति पादित किया गया है। यहाँ लधीयस्त्रयका द्वितीय प्रकरण नयप्रवेश समास होता है। शब्दज्ञानको प्रत्यक्षताका निरसनकर अनुमानवत् उसको परोक्षता सिद्ध करते हुए अकलंकदेवने लिखा है-
'अक्षशब्दार्थविज्ञानमविसंवादतः समम्।
अस्पष्ट शब्दविज्ञानं प्रमाणमनुमानवत्।।'
तदुत्पत्तिसारूप्यादिलक्षणव्यभिचारेऽपि आत्मना यदर्थपरिच्छेदलक्षणं ज्ञानं तत्तस्येति सम्बन्धात्। वागर्थशानस्यापि स्वयमविसंवादात् प्रमाणत्वं समक्षबत्। विवक्षाव्यतिरेकेण वागर्थज्ञानं वस्तुतत्त्वं प्रत्यायति अनुमानवत्, सम्बन्ध नियमाभावात्। वाच्यवाचकलक्षणस्यापि सम्बन्धस्य बहिरर्थप्रतिपत्तिहेतुतोप लब्धे।''
प्रवचनप्रवेशमें प्रमाण, नय और निक्षेपके कथनकी प्रतिमा, अर्थ और आलोककी ज्ञानकारणताका खण्डन, अन्धकारको ज्ञानका विषय होनेसे आवरणरूपताका अभाव, तज्जन्म, ताद्रष्य और तदध्यवसायका प्रमाणमें अप्रयोंजकत्व, श्रुतके सकलादेश और विकलादेशरूप उपयोग, "स्यादस्त्येव जीवः" इस वाक्यकी विकलादेशसा, "स्याज्जीव एव" इस वाक्यकी सकलादेशता, शब्दकी विवक्षासे भिन्न वास्तविक अर्थकी वाचकता, नैगमादि सात नयोंमेसे आदिके चार नयोंका अर्थनयत्व, शेष तीन नयोंका शब्दनयत्व, नामादि चार निक्षेपोंके लक्षण, अप्रस्तुनिराकरण तथा प्रस्तुत अर्थका निरूपणरूप निक्षेपका फल इत्यादि प्रवचनके अधिगमोपायभूत प्रमाण, नय और निक्षेपका निरूपण किया गया है। शास्त्रज्ञानका सादित्व-अनादित्व सिद्ध करते हुए लिखा है। यथा-
श्रुतादर्थमनेकान्तमधिगम्याभिसन्धिभिः।
परीक्ष्य तांस्तान तद्धर्माननेकान् व्यावहारिकान्।।
नयानुगनिक्षेपेरुपायेभैदवेदने।
विरचय्यार्थवांकप्रत्ययात्ममेदान श्रुतार्पितान्॥
अनुयुज्यानुयोगैश्च निर्देशादिभिदां गतः।
द्रष्याणि जीवादीन्यात्मा विवद्धाभिनिवेशनः।।
जीवस्थानगुणस्थानमार्गणास्थानतत्ववित्।
तपोनिर्जीणकर्माऽयं विमुक्त: सुखमृच्छति।
इस प्रकार इसमें प्रमाण, नय और निक्षेपका निरूपण किया है।
२. न्यायविनिश्चय सवृत्ति
विनिश्चयान्त ग्रन्थ लिखनेको प्रणाली प्राधीन रही है। धर्मकीर्तिका भी प्रमाणविनिश्चय नामक ग्रंथ मिलता है। ‘तिलोयपण्णत्ति' में भी 'लोकविनिश्चय' नामक ग्रंथकी सूचना है। न्यायबिनिश्चयमें प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रवचन ये तीन प्रस्ताव हैं। प्रथम प्रस्तावमें १६९ १/२, द्वितीयमें २१६ १/२ और तुतीयमें ९४, कुल ४८० कारिकाएँ हैं। सिद्धसेनके न्यायावतारमें भी प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द इन तीन प्रमाणोंका विवेचन किया गया है।
प्रथम प्रत्यक्षप्रस्तावमें प्रत्यक्ष-प्रमाणपर विस्तारपूर्वक विचार किया गया है। इसमें इन्द्रिय प्रत्यक्षका लक्षण, प्रमाणसम्प्लवसुचन, चक्षुरादि बुद्धियोंक, व्यवसापागा, त्रिकाले अगिलास आदि लक्षणोंका खण्डन, ज्ञानके परोक्षवादका निराकरण, ज्ञानके स्वसंवेदनकी सिद्धि, ज्ञानान्तर वेद्यज्ञानका निरास, अचेतनज्ञाननिरास, साकारज्ञाननिरास, निराकारज्ञान सिद्धि, सवेदनाद्वैतनिरास, विभ्रमवादनिरास, बहिरर्थसिद्धि, चित्रज्ञानखण्डन, परमाणुरूप बहिरर्थका निराकरण, अवयवोंसे भिन्न अवयवीका खण्डन, द्रव्यका लक्षण, गुण-पर्यायका स्वरूप, सामान्यका स्वरूप, अर्थके उत्पाद-व्यय भ्रौव्यका समर्थन, अपोहरूप सामान्यका निरास, व्यक्तीसे भिन्न सामान्यका खण्डन, धर्मकीर्तिसम्मत प्रत्यक्षलक्षणका खण्डन, बौद्धकल्पित स्वसंवेदन, योगि, मानस प्रत्यक्षनिरास, सांख्यकल्पित प्रत्यक्षलक्षणका खण्डन, नैयायिकके प्रत्यक्षका समालोचन, अतीन्द्रियप्रत्यक्षका लक्षण आदि विषयोंका विवेचन किया गया है।
द्वितीय अनुमानप्रस्ताव अनुमानसे सम्बद्ध है। इसमें अनुमानका लक्षण, प्रत्यक्षकी तरह अनुमानकी बहिरर्थविषयता, साध्य-साध्याभासके लक्षण, बौद्धादि मतोंमें साध्य-प्रयोगकी असम्भवत्ता, शब्दका अर्थवाचकत्व, शब्दसङ्कत ग्रहणप्रकार, भूतचैतन्यवादका निराकरण, गुण-गुणीभेदका निराकरण, साधन-साधनाभासके लक्षण, प्रमेयत्वहेतुकी अनेकान्तसाधकता, सत्वहेतुकी परिणामिता प्रसाधकता, त्रैरूप्यखण्डनपूर्वक अन्यथानुपपत्तिसमर्थन, तर्ककी प्रमाणता, अनुपलम्भहेतुका समर्थन, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर हेतुका समर्थन, असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिञ्चित्कर हेत्वाभासोंका विवेचन, दूषणाभासलक्षण, जातिलक्षण, जयेतरव्यवस्था, दृष्टान्त, दृष्टान्ताभासविचार, वादका लक्षण, निग्रहस्थानलक्षण, वादाभासलक्षण आदि अनुमानसे सम्बन्ध रखनेवाले विषयोंका वर्णन आया है।
तृतीय प्रवचनप्रस्तावमें आगमसम्बन्धी विचार किया गया है। इसमें प्रवचनका स्वरूप, सुगतके आप्तत्वका निरास, सुगतके करुणावत्व तथा चतुरार्यसत्यप्रतिपादकत्वका समालोचन, आगमके अपौरुषेयत्वका खण्डन, सर्वज्ञत्व समर्थन, ज्योतिर्ज्ञानोपदेश, सत्यस्वप्नज्ञान तथा ईक्षणिकादि विद्याके दृष्टान्त द्वारा सर्वज्ञत्वसिद्धि, शब्दनित्यत्वनिरास, जीवादितत्त्वनिरूपण, नैरात्म्य भावनाकी निरर्थकता, मोक्षका स्वरूप, सप्तभंगीनिरूपण, स्याद्वादमें दिये जाने वाले संशयादि दोषोंका परिहार, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदिका प्रामाण्य, प्रमाणका फल आदि विषयोंका विवेचन आया है।
यह ग्रन्थ कई दृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण है। कारिकाओंके साथ उत्थानिका वाक्य भी गद्यमें निबद्ध हैं। विवृति टीकात्मक न होकर विशेष विषयके सूचन रूपमें लिखी गयी है। कारिकाएँ और वृत्ति दोनों प्रौढ़ एवं गम्भीर भाषामें निबद्ध हैं। उनसे अकलंकदेवकी सूक्ष्म प्रज्ञा और तीक्ष्ण समालोचना अवगत कर पाठक प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। उदाहरणार्थ नित्यैकान्त, क्षणिकैकान्त आदिकी उनके द्वारा की गयी समीक्षा दृष्टव्य है-
अत्यन्ताभेदभेदी न तद्वतो न परस्परम्।
दृश्यादृश्यात्ममोर्बुद्धिनिर्भासक्षणभङ्गयोः॥
सर्वथाऽर्थक्रियाश्योगात् तथा सुप्तप्रबुद्धयोः।
अंशयोर्यदि तादात्म्यमभिज्ञानमनन्यवत्।।
संयोगसमवायादिसम्बन्धाद्यादि वर्तते।
अनेकत्रैकमेत्रानेक वा परिणामिनः।।
सर्वथा नित्यका खण्डन करते हुए लिखा है-
नित्यं सर्वगतं सत्वं निरंशं व्यक्तीभियंदि।।
व्यक्तं व्यक्तं सदा व्यक्तं लोक्यं सचराचरम्।
सत्तायोगाद्विना सन्ति यथा सत्तादयस्तथा।।
सर्वेऽर्थाः देशकालाश्च सामान्य सकलं मतम्।
सर्वभेदप्रभेदं सत् सकलाङ्ग शरीरवत्।।
३. प्रमाणसंग्रह
इसमें ९ प्रस्ताव और ८७ १/२ कारिकाएँ हैं। प्रथम प्रस्तावमें ९ कारिकाएँ, द्वितीयमें ९, तृतीयमें १०, चतुर्थमें ११ १/२, पञ्चममें १० १/२, षष्ठमें १२ १/२, सप्तममें १०, अष्टममें १३ और नवममें २ कारिकाएँ हैं। प्रथम प्रस्तावमें प्रत्यक्षका लक्षण, श्रुतका प्रत्यक्षानुमानागमपूर्वकत्व, प्रमाणका फल, मुख्यप्रत्यक्षका लक्षण आदि प्रत्यक्षविषयक सामग्री वर्णित है।
द्वितीय प्रस्तावमें स्मतिकी प्रमाणता, प्रत्यभिज्ञानका प्रामाण्य, तर्कका लक्षण, प्रत्यक्षानुपलम्भसे तर्कका उद्भव, कुतर्कका लक्षण, विवक्षाके बिना भी शब्दप्रयोगका सम्भव, परोक्ष पदार्थोंमें श्रुतसे अविनाभावग्रहण आदिका कथन है।
इस प्रस्तावमें परोक्षके भेद, स्मृति प्रत्यभिज्ञान और तर्कका विशेष रूपसे कथन आया है।
तृतीय प्रस्तावमें अनुमानके अवयव, साध्य सांधनका लक्षण, साध्याभासका लक्षण, सदसदेकान्तमें साध्यप्रयोगकी असम्भवता, सामान्यविशेषात्मक वस्तुकी साध्यता एवं अनेकान्तात्मक वस्तुमें दिये जानेवाले संशयादि आठ दोषोंकी समीक्षा अङ्कित है। चतुर्थ प्रस्तावमें हेतुसम्बन्धी विचार आया है। इसमें त्रिरूप हेतुका खण्डन करके अन्यथानुपपत्तिरूप हेतुलक्षणका समर्थन किया गया है। हेतुके उपलब्धि और अमुलब्धिरूप भेदोंका विवेचन कर पूर्व घर, उत्तरचर और सहचर हेतुसम्बन्धी विचार किया गया है। इस प्रस्ताव में विभिन्न मतोंकी समीक्षापूर्वक हेतुका स्वरूप निर्धारित किया है।
पञ्चम प्रस्तावमें असिद्ध, विरुद्धादि हेत्वाभासोंका निरूपण, सर्वथा एकान्तमें सत्वहेतुकी विरुद्धता, सहोपलभनियम, हेतुकी विरुद्धता, विरुद्धाव्यभिचारीका बिरुद्धमें अन्तर्भाव, अज्ञातहेतुका अकिञ्चित्करमें अन्तर्भाव आदि हेत्वाभासविषयक प्ररूपण आया है तथा इसमें अन्तयतिका भी समर्थन किया है।
षष्ट प्रस्ताव में वादका लक्षण, जय-पराजयव्यवस्थाका स्वरूप, जातिका लक्षण, दध्युष्टत्वादिके अभेदप्रसंगका सयुक्तिक उत्तर, उत्पादादित्रयात्मकत्व समर्थन, सर्वथा नित्य सिद्ध करने में सत्वहेतुका असिद्धत्वादि निरूपण आया है। इस प्रस्तावमें शून्यवाय मानिनाद, विशाग, निनामान अपोलाद, क्षणभंगवाद, असत्कार्यवाद आदिकी भी समीक्षा की गयी है।
सप्तम प्रस्ताव में प्रवचनका लक्षण, सर्वसिद्धि, अपौरुषेयत्वका निरसन, तत्त्वज्ञानसहित चारित्रको मोक्षहेतुत्ता आदि विषयोंका विवेचन आया है।
अष्टम प्रस्ताव में सप्तभंगीके निरूपणके साथ मैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजु सूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवम्भूत इन सात नयोंका कथन आया है।
नवम प्रस्तावमें प्रमाण, नय और निक्षेपका उपसंहार किया गया है।
४. सिद्विविनिश्चय सवृति
सिद्धिविनिश्चयमें १२ प्रस्ताव हैं। इनमें प्रमाण, नय और निक्षेपका विवेचन है। प्रथम प्रस्ताव प्रत्यक्ष-सिद्धि है। इसमें प्रमाणका सामान्य लक्षण, प्रमाणका फल, बाह्यार्थकी सिद्धि, व्यवसायात्मक विकल्पको प्रमाणता और विशदता, चित्रज्ञानकी तरह विचित्र बाह्य पदार्थोकी सिद्धि, निर्विकल्पक प्रत्यक्षका निरास, स्वसंवेदनप्रत्यक्षके निर्विकल्पकत्वका खण्डन, अविसंवादकी बहुलतासे प्रमाणव्यवस्था आदि विषयोंका विचार किया गया है।
द्वितीय सविकल्प सिद्धि-प्रस्तावमें अवग्रहादि ज्ञानोंका वर्णन, मानस-प्रत्यक्ष की आलोचना, निर्विकल्पसे सविकल्पकी उत्पत्ति एवं अवगरहादिमें पूर्व-पूर्वकी प्रमाणता और उत्तर-उत्तरमें फलरूपताकी सिद्धि को गयी है।
तृतीय प्रमाणान्तर-सिद्धिमें स्मरणको प्रमाणता, प्रत्यभिज्ञानका प्रामाण्य, उपमानका सादृश्यप्रत्यभिज्ञानमें अन्तर्भाव, तर्कको प्रमाणताका समर्थन, क्षणिकपक्षमें अर्थक्रियाका अभाव आदिकी समीक्षा आयी है।
चतुर्थ जीवसिद्धि-प्रस्ताव में ज्ञानको ज्ञानावरणके उदयसे मिथ्याज्ञान, क्षणिकचित्तमें कार्यकारणभाव, सन्तान आदिकी अनुत्पांत, जीव और कर्म चेतन और अचेतन होकर भी बन्धके प्रति एक हैं, कर्मास्त्रव तत्तोपप्लववाद, भूतचैतन्यवाद एवं विभिन्न दर्शनोंमें मान्य आत्मस्वरूपका विवेचन किया है।
पञ्चम प्रस्ताव जल्प-सिद्धि है। इसमें जल्पका लक्षण, उसकी चतुरङ्गता, जल्पका फलमार्ग प्रभावना, शब्दकी अर्थवाचकता, निग्रहस्थान एवं जयपराजयव्यवस्थाकी समीक्षा की गयी है।
छठा हेतुलक्षणसिद्धि-प्रस्ताव है। इसमें हेतुका अन्यथानुपपत्तिलक्षण, तादात्म्य-तदुत्पत्तिसे ही अविनाभावको व्याप्ति नहीं, हेतुके भेद, कारण आदि का कथन आया है।
सप्तम प्रस्ताव शास्त्र-सिद्धि है। इसमें श्रुतका श्रेयोमार्गसाधकत्व शब्दका अर्थवाचकत्व, स्वप्नादि दशामेंभी जीवकी चेतनता, भेदकान्तमें कारक, ज्ञापक स्थितिका अभाव, ईश्वरवाद, पुरुषाद्वैतवाद, वेदका अपौरुषेयवाद आदिका समालोचन किया है।
अष्टम सर्वज्ञसिद्धि-प्रस्तावमें सर्वज्ञकी सिद्धि और नवम शब्दसिद्धि प्रस्तावमें शब्दका पोद्गलिकत्व सिद्ध किया है। दशम प्रस्तावका नाम अर्थनयसिद्धि है। इसमें नयका स्वरूप, नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजु-सूत्र इन चार अर्थ नयों और नयाभासोंका वर्णन आया है।
ग्यारहवां शब्दनयसिद्धि-प्रस्ताव है। इसमें शब्दका स्वरूप, स्फोटवादका खण्डन, शन्दनित्यत्वका निरास, शब्दनय, समभिरूदमन एवं एवम्भतनय आदिका वर्णन आया है।
बारहवाँ निक्षेपसिद्धि-प्रस्ताव है। इसमें निक्षेपका लक्षण, भेद, उपभेदोंका स्वरूप एवं उनकी सम्भावनाओं पर विचार किया गया है।
५. तस्वार्थवार्तिक सभाष्य
इस ग्रन्थके मंगल चतुर्थ चरणसे तत्वार्थवार्त्तिका लिखकर अकलंकदेवने इस ग्रंथको 'तत्वार्थवार्त्तिक' कहा है। तत्त्वार्थसूत्रके प्रत्येक सूत्रपर वार्त्तिकरूपमें व्याख्या लिखे जानेके कारण यह तत्वार्थवार्त्तिक कही गयी है। वार्त्तिक श्लोकात्मक भी होते हैं और गद्यात्मक भी। कुमारिलका मीमांसाश्लोकवार्त्तिक और धर्मकीर्त्तिका 'प्रमाणवार्त्तिक' पद्योंमें लिखे गये हैं। पर न्यायदर्शनके सूत्रोंपर उद्योतकरने जो वार्त्तिक रचा है, वह गद्यात्मक है। अतएव यह अनुमान लगाना सहज है कि अकलंकने उद्योतकरके अनुकरण पर गद्यात्मक तत्त्वार्थवार्त्तिक रचा है। अकलङ्ककी विशेषता यह है कि उन्होंने तत्वार्थसूत्रके सूत्रोंपर वार्त्तिक रचे और वार्त्तिकोंपर भाष्य भी लिखा है। इस तरह इस ग्रन्थमें वार्त्तिक पृथक हैं और उनकी व्याख्या-भाष्य अलग है। इसी कारण इसकी पुष्पिकाओंमें इसे 'तत्वार्थवार्त्तिकव्याख्यानालंकार' संज्ञा दी गयी है।
यह ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्रकी व्याख्या होने के कारण दश अध्यायों में विभक्त है। इसका विषय भी तन्वार्थसूत्र के विषयके समान ही सैद्धान्तिक और दार्शनिक है। तत्त्वार्थसूत्रके प्रथम तथा पंचम अध्यायमें क्रमशः ज्ञान एवं द्रव्योंकी चर्चा आयी है और ये दोनों विषय ही दर्शनशास्त्रके प्रधान अंग हैं। अतः अकलंकदेवने इन दोनों अध्यायोंमें अनेक दार्शनिक विषयों की समीक्षा की है। दर्शन शास्त्रके अध्येताओंके लिये तत्वार्थवार्त्तिकके ये दोनों अध्याय विशेष महत्त्वपूर्ण हैं।
तत्त्वार्थवार्त्तिककी एक प्रमुख विशेषता यह है कि जिसने भी मन्तव्य उसमें चर्चित हुए, उन सबका समाधान अनेकान्त के द्वारा किया गया है। अतः दार्शनिक विषयोंसे सम्बद्ध सूत्रों के व्याख्यानमें अनेकान्तात्वार्त्तिक अवश्य पाया जाता है। यहाँ यह स्मरणीय है कि वार्त्तिककारने दार्शनिक विषयोंके कथनसन्दर्भ में आगमिक विषयोंको भी प्रस्तुत कर अनेकान्तवादकी प्रतिष्ठा को है।
तृतीय, चतुर्थ अध्यायोंमें लोकानुयोगसे सम्बद्ध विषय आये हैं । इस विषयके प्रतिपादन में 'तिलोयपण्णत्ति' आदि प्राचीन ग्रन्थों की अपेक्षा अनेक नवीनताओं का समावेश किया गया है। इस ग्रन्थकी विशेषताओंके सम्बन्धमें प्रज्ञाचक्षु पं. सुखलालजीने लिखा है- "राजवार्त्तिक और श्लोकवार्त्तिकके इतिहासज्ञ अभ्यासीको मालूम पड़ेगा कि दक्षिण हिन्दुस्तान में जो दार्शनिक विद्या और स्पर्धाका समय आया और अनेकमुख पाण्डित्य विकसित हुआ, उसीका प्रतिबिम्ब इन दोनों ग्रन्थों में है। प्रस्तुत दोनों वार्त्तिक जैनदर्शनका प्रामाणिक अभ्यास करने के पर्याप्त साधन है। परन्तु इनमेसे 'राजवार्त्तिक'का गद्य सरल और विस्तृत होनेसे तत्त्वार्थके सम्पूर्ण टीका ग्रन्थोंकी गरज अकेला ही पूर्ण करता है। ये दो वाीर्तिक यदि नहीं होते, तो दशवीं शताब्दी तकके दिगम्बर साहित्यमें जो विशिष्टता आयी, और उसकी जो प्रतिष्ठा बँधी वह निश्चयसे अधूरी ही रहती। ये दो वार्तिक साम्प्रदायिक होनेपर भी अनेक दृष्टीयोंसे भारतीय दार्शनिक साहित्यमें विशिष्ट स्थान प्राप्त करें, ऐसी, योग्यता रखते हैं। इनका बौद्ध और वैदिक परम्परा के अनेक विषयों पर तथा अनेक ग्रन्थों पर ऐतिहासिक प्रकाश डालता है।"
'तत्त्वार्थवार्तिक'का मूल आधार पूज्यपादकी सवार्थसिद्धि है। सवार्थसिद्धि की वाक्यरचना, सूत्र जैसी संतुलित और परिमित है। यही कारण है कि अकलंकदेवने उसके सभी विशेष वाक्योंको अपने वार्तिक बना डाले हैं, और उनका व्याख्यान किया है। आवश्यकतानुसार नये वार्तिकोंको भी रचना की है, पर सर्वार्थसिद्धिका उपयोग पूरी तरहसे किया है। जिस प्रकार बीज वृक्षमें समाविष्ट हो जाता है, उसी प्रकार समस्त सर्वार्थसिद्धि तत्वार्थवार्तिकमें समाविष्ट है, पर विशेषता यह है कि सर्वार्थसिद्धि के विशिष्ट अम्यासीको भी यह प्रतीति नहीं हो पाती कि वह प्रकारान्तरसे सर्वार्थसिद्धिका अध्ययन कर रहा है।
तत्त्वार्थवार्तिक में यों तो अनेक विषयोंकी चर्चा की गयी है, पर विशेषरूपसे जिन विषयोंपर प्रकाश डाला गया है, वे निम्नलिखित हैं-
१. कर्ता और करण के भेदाभेदको चर्चा। तीनों वाच्यों द्वारा ज्ञानकी व्युत्पत्ति
२. आत्माका ज्ञानसे भिन्नाभिन्नत्व।
३. केवल ज्ञानप्राप्तिके द्वारा मोक्षकी मान्यताका निरसन कर मोक्षमार्गका निरूपण। सन्दर्भानुसार सांख्य, वैशेषिक, न्याय और बौद्ध दर्शनोंकी समीक्षा
४. मुख्य और अमुख्योंका विवेचन करते हुए अनेकान्तदृष्टिका समर्थन।
५. सप्तभंगीके निरूपणके पश्चात् अनेकान्तमें अनेकान्तकी सुघटना।
६. अनेकान्तमें प्रतिपादित छल, संशय आदि दोषोंका निराकरण करते हुए अनेकान्तात्मकताको सिद्धि।
७. एकान्तवादमें ज्ञानके करण-कर्तृत्वका अभाव।
८. आत्म-अनात्मवादियोंको समीक्षा।
९. प्रत्यक्ष-परोक्षसम्बन्धो ज्ञानको व्याख्याओंका विस्तृत विवेचन्। इस सन्दर्भ में पूर्वपक्षके रूपमें बौद्ध, न्याय, वैशेषिक, मीमांसक आदि दार्शनिकोंकी समीक्षा।
१०. चक्षु के प्राप्यकारित्व और श्रोत्रके अप्राप्यकारित्वका निराकरण।
११. श्रुतज्ञान के अन्तर्गत अनुमानके पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट भेद तथा उपमान, ऐतिह्म, अर्थापत्ति, सम्भव और अभावका समावेश।
१२. आत्मसिद्धि।
१३. स्वात्मा और परमात्माके विश्लेषणके साथ सप्तभंगीके सकलादेश और विकलादेशोंका विवेचन।
१४. 'द्रव्यत्वयोगात् द्रव्यं' और 'गुणसंद्रावो द्रव्य’ की विस्तृत समीक्षा।
१५. विभिन्न दर्शनोंके आलोक में शब्दके मूर्तिकत्वका विवेचन।
१६. स्फोटवाद-समीक्षा।
१७. कोक्वल, काण्ठेचिद्दि, कौशिक, हरि, शमश्रुमान, कपिल, रोमस, हरिताश्व, मुण्ड
१८. मरीचिकुमार, उलूक, कपिल, गाग्री, व्याघ्रभूति, माठर, मौद्गलायन आदि अक्रियावादी दार्शनिकोंकी समीक्षा।
१९. साकल्य, वासकल, कुथुमि, सात्यमुग्री, चारायण, कठ, माध्यन्दिन, मौद, पेपलादि, वादरायण, येतिकायन, वसु और जैमिनि आदि अज्ञानवादियों का समालोचन।
२०. वशिष्ठ, पाराशर, जतुकर्ण, वाल्मीकि, रोमहर्षिणी, व्यास, एलापुत्र, औपमन्यव, इन्द्रदत्त आदि बैंनिक वादियोंकी समीक्षा।
२१. जीव-अजीव आदि तत्वोंका निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधानपूर्वक विवेचन।
२२. ज्ञानोंके विषयक्षेत्रका कथन।
२३. नयोंका सोपपत्तिक निरूपण।
२४. शरीरोंका सविस्तर निरूपण।
२५. लोकरचना- क्षेत्रफल और घनफलोंका निरूपण।
२६. गुणस्थान, ध्यान, अनुप्रेक्षा एवं मार्गणा आदिका विस्तृत कथन।
२७. द्रव्य और तत्वोंकी व्यवस्थाका कथन।
इस प्रकार 'सस्वार्थराजवार्त्तिक' में अनेक विशेष बातोंका कथन आया है। यह ग्रन्थ अध्याय, आह्निक और वार्तिकों में विभक्त है। यहाँ उदाहरणार्थ एकाध वार्तिक प्रस्तुत करते हैं, जिससे अकलंकदेवको विषयप्रतिपादनसम्बन्धी विशेषता अभिव्यक्त हो जायगी।
प्रमाणनयाणाभेवात- "एकान्तो द्विविधः सम्यगेकान्तो मिथ्येकान्त इति। अनेकान्तोऽपि द्विविधः-सम्यगनेकान्तो मिथ्यानेकान्त इति। तत्र सम्य गेकान्तो हेतुविशेषसामर्थ्यापेक्षः प्रमाणप्ररूपिताथै कदेशादेशः। एकात्मावधारणेन अन्याशेषनिराकरणप्रवणनाणिधिमिथ्यकान्तः। एकत्र सप्प्रतिपक्षानेकधर्मस्वरूप निरूपणो युक्त्यागमाभ्यामबिरुद्धः सम्यगनेकान्तः। तदतत्स्वभाववस्तुशन्यं परि कल्पितानेकात्मक केवलं वाग्विज्ञानं मिथ्याऽनेकान्तः। तत्र सम्यगेकान्तो नय इत्युच्यते। सम्यगनेकान्तः प्रमाणम्। नयार्पणादेकान्तो भवति एकनिश्चयप्रवण त्वात्, प्रमाणार्पणादनेकान्तो भवति अनेकनिश्चयाधिकरणत्वात्।"
६. अष्टशती
जैनदर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है। आचार्य समन्तभद्र अनेकान्तवादके सबसे बड़े व्यवस्थापक हैं। उन्होंने आप्तमीमांसा नामक ग्रन्थ द्वारा उसकी व्यवस्था की है। इसी आप्तमीमांसापर अकलंकदेवने अपनी 'अष्टशती' वृत्ति लिखी है। इस बुत्तिका प्रमाण ८०० श्लोक है, अतः यह अष्टशती कहलाती है। विद्यानन्दने समन्तभद्रके उक्त प्रन्यपर अष्टसहन नाममोसा लिसी है, जिनमें अष्टशतीको 'धमें चीनी' की तरह समाविष्ट कर लिया है। शतीके रचयिता अकलंकदेवने इसमें अनेक नये तथ्योंपर प्रकाश डाला है। विभिन्न दर्शनोंके द्वैत-अद्वैतवाद, शाश्वत-अशाश्वतवाद, वक्तव्य-अवक्तव्यबाद, अन्यता-अनन्य तावाद, सापेक्ष-अनपेक्षवाद, हेतु-अहेनुवाद, विज्ञान बहिरर्थवाद, देव-पुरुषार्थ वाद, पुण्य-पापवाद और बन्ध-मोक्षकारणवादकी समीक्षा की गयी है। उनके प्रतिपादनका एक उदाहरण प्रस्तुत है-
"स्वभावान्तरात्स्वभावव्यावृत्तिरस्यापोह:" संविदो साझाकारात्कञ्चिद व्यावृत्तौं- अनेकान्तसंविते स्वलक्षणप्रत्यक्षवृत्तावपि संवेद्याकार विवेक स्वभावान्तरानुपलब्धेः स्वभावव्यावृत्तिः शवलविधर्मानसऽपि लोहितादीनां परस्परव्यावृत्तिरन्यथाचित्रप्रतिभासासंभवात्, तदन्यत्तमवत्तदालम्बनस्यापि नीला देरभेदस्वभावापत्तेः तद्वतस्तेभ्यो व्यावृत्तिरेकानेकस्वभावत्वात् रूपादिवत् अन्यथा द्रव्यमेव स्यान्न रूपादयः"।
अनेकान्तात्मकवस्तुकी सिद्धि करते हुए लिखा है-
"यत्सत् तत्सर्वमनेकान्सात्मक वस्तुतत्त्वं सर्वथा तदर्थक्रियाकारित्वात्। स्वविषयाकारसंवित्तिवत्। न किञ्चिदेकान्तं वस्तुतत्त्वं सर्वथा तदर्थक्रियासंभवात् गगनकुसुमादिवत्। नास्ति सदेकान्तः सर्वव्यापारविरोधप्रसंगात असदेकान्तदित्ति विधिना प्रतिषेधेन था वस्तुतत्त्वं नियम्यते"
अकलंकदेवकी शैली गूढ़ एवं शब्दार्थभित है। ये जिस विषयको भी ग्रहण करते हैं, उसका गम्भीर और अर्थपूर्ण बाक्शोंमें विवेचन करते हैं। अतः काम से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक विषयका निरूपण करना इनका लक्ष्य है। अकलंकदेवका उनकी रचनाओंपरसे षड्दर्शनोंका गम्भीर और सूक्ष्म चिन्सन अवगत होता है। फलत: उनका अतल तलस्पर्शी ज्ञान सर्वत्र उपलब्ध है। इनकी कारिकाओंमें अर्थगाम्भीर्य है, प्रसंगवश वे वादियोंपर करारा व्यंग्य करनेसे भी चूकते नहीं हैं। व्यंग्य के समय इनको रचनाओं में सरसता आ जाती है, और दर्शनके शुष्क विषय भी साहित्यके समान सरस प्रतीत होने लगते हैं। प्रदश्यानुपलब्धिसे अभाग की सिद्धि न माननेपर वे बौद्धोंपर व्यंग करते हुए कहते हैं-
दध्यादो न प्रवर्सत बौद्धः तदभुक्तये जनः।
अदृश्यां सौगतीं तत्र तनुं संशङ्कमानक:||
दध्यादिके तथा भुक्ते न भुक्तं काजिकादिकम्।
इत्यसौ वेत्तु नो वेत्ति न भुक्ता सौगती तनुः।।
अदृश्यकी आशंकासे बौद्ध दही स्वाने में नि:शंक प्रवृत्ति नहीं कर सकेंगे, क्योंकि वहाँ सुगतके अदृश्य शरीरको शंका बनी रहेगी। दही खानेपर काफी नहीं खायी, यह तो वे समझ सकते हैं, पर बुद्ध शरीर नहीं खाया, यह समझना उन्हें असम्भव है।
यह कितना मार्मिक भ्यंग्य है। धर्मकीर्तिके अभेदप्रसंगका उत्तर भी अकलंकदेवने व्यंग्यात्मक रूपमें दिया है। अकलंकदेव कठिन-से-कठिन विषयको भी व्यंग्यात्मक सरलरूपमें प्रस्तुत करते हैं। यों तो अकलंकदेवने अनुष्टुप छन्दोंमें ही अधिकांश कारिकाएँ लिखी हैं, पर उन्हें शार्दूलविक्रीडित और स्रग्धरा छन्द भी विशेष प्रिय हैं। जहाँ उन्हें थोड़ा-सा भी अवसर मिलता है कि वे इन छन्दों का प्रयोग करने लगते हैं। न्यायके प्रकरणों में उद्देश्य निर्देशक और उपसंहारात्मक पद्योंमें इन छन्दोंका प्रयोग पाया जाता है। मंगलाचरणके पद्योंमें अलंकारोंका नियोजन भी विद्यमान है। निम्नलिखित पद्यमें सम्यकज्ञानको जल रूपक प्रदान कर मलिन हुए न्यायमार्ग के प्रक्षालनकी बात वे कितनी सदयतासे व्यक्त करते हैं-
बालानां हितकामिनामतिमहापापैः पुरोपार्जितै:
माहात्म्यात्तमसः स्वयं कलिबलात् प्रायो गुणद्वेषिभिः।
न्यायोऽयं मलिमीकृतः कथमपि प्रक्षाल्य नेनीयते,
सम्यग्ज्ञानजलेबचोभिरमलं तत्रानुकम्पापरः॥
इसी प्रकार अनुप्रास, यमक आदि अलंकार भी इनके दर्शन-ग्रन्थों में काव्य रचना न होनेपर भी प्राप्त हैं। शैलीकी दृष्टिसे अकलंक निश्चय ही उद्योतकर और धर्मकीर्ति के समकक्ष हैं।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
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