हैशटैग
#amitgatijimaharajdwitiya
आचार्य अमितगति द्वितीय भी प्रथितयश सारस्वताचार्य है। ये माथुर संघके आचार्य थे। दर्शनसारके कर्ता देवसेनने अपने 'दर्शनसार' में माथुर संघको जैनाभासोंमें परिगणित किया है। इसे नि:पिच्छिक भी कहा गया है, क्योंकि इस संघके मुनि मयूरपिच्छि नहीं रखते थे। यह संघ काष्ठासंघको एक शाखा है। इस संघकी उत्पत्ति वीरसेनके शिष्य कुमारसेन द्वारा हुई है।
अमित्तगति द्वितीयने अपनी धर्मपरीक्षामें, जो प्रशस्ति अंकित की है, उससे इनकी गुरुपरम्परापर प्रकाश पड़ता है-
वीरसेन, इनके शिष्य देवसेन, देवसेनके शिष्य अमितगति प्रथम, इनके शिष्य नेमिषेण, नेमिषेणके शिष्य माधवसेन और माधवसेनके शिष्य अमितगति हए। अमितगतिकी शिष्यपरम्पराका परिज्ञान अमरकीर्तिके 'छक्कम्मोवएस’ से भी होता है। इस ग्रंथके अनुसार अमितगति, शान्तिषेण, अमरसेन, श्रीसेन, चन्द्रकीर्ति और चन्द्रकीर्तिके शिष्य अमरकोर्ति हुए हैं। इनकी गुरु-शिष्य परम्परा निम्न प्रकार ज्ञातव्य है-
(अमितति द्वितीयकी धर्मपरीक्षानुसार)
वीरसेन
↓
देवसेन
↓
योगसारप्राभृतकार अमितगति (प्रथम)
↓
नेनिषेण
↓
माधवसेन
↓
धर्मपरीक्षादिकार अमितगति (द्वितीय)
↓
(अमरकीर्तिके 'छक्कम्भावएस’ के अनुसार)
शान्तिषेण
↓
अमरसेन
↓
श्रीसेन
↓
चन्द्रकीर्ति
↓
'छक्कम्मोबएस' के कर्ता अमरकीर्ति
श्री पण्डित विश्वेश्वरनाथ रेउने अमितगति द्वितीयको वाकपतिराज मुज्जकी सभाके एक रत्नके रूपमें स्वीकार किया है।
अमितगति बहश्रुत थे। उन्होंने विविध विषयोंपर ग्रन्थोंका निर्माण किया है। काव्य, न्याय, व्याकरण, अचारप्रभृति अनेक विषयोंके विद्वान थे। इन्होंने पञ्चसंग्रहकी रचना मसूतिकापुरमें की थी। यह स्थान घारसे सात कोस दूर मसीदकिलौदा नामक गाँव बताया जाता है।
श्री विश्वेश्वरनाथ रेउने लिखा है- ''अमितगतिने विक्रम सं. १०५० (ई. सन् ९९३ में राजा मुंजके राज्यकालमें सुभाषितरत्नसंदोहनामक ग्रन्थ बनाया और वि. सं. १०७० (ई. १०१३) में धर्मपरीक्षानामक ग्रन्थकी रचना की। इनके गुरुका माम माधवसेन था"।
'सुभाषितरत्नसंदोह' को प्रशस्तिमें रचनाकालका निर्देश निम्न प्रकार है- "समारूढे पूतत्रिदशवसर्ति विक्रमनृपे सहस्र वर्षाणां प्रभवति हि पंचाशदधिके। समाप्ते पंचभ्यामवत्ति धरणों मुंजनृपतौसितै पक्षे पौषे बुधहितमिदं शास्त्रमनघम्।।"
अर्थात् वि. सं. १०५० पौष शुक्ला पञ्चमीको मुंज राजाके राज्यकालमें यह निर्दोष शास्त्र पूर्ण हुआ।
धर्मपरीक्षाका रचना-काल वि. सं. १०७० और संस्कृतपञ्चसंग्रहका वि. सं. १०७३ है। पंचसंग्रहको प्रशस्तिमें लिखा है-
त्रिसप्तत्याधिकेऽम्दानां सहस्र शकविद्विषः।
मसूतिकापुरे जातमिदं शास्त्रं मनारमम्॥
अर्थात् वि. सं. १०७३ में, जबकि मुंजके राज्यपट्टपर भोज आसीन हुआ, यह ग्रन्थ लिखा गया। अतएव स्पष्ट है कि अमितगतिका समय वि. सं. की ११वीं शताब्दि है।
अमितगतिकी अनेक रचनाएँ मानी जाती हैं। पर जिन्हें निर्विवादरूपसे अमितगतिकी रचना माना गया है उनके नाम निम्नलिखित है-
१. सुभाषितरत्नसंदोह
२. धर्मपरीक्षा
३. उपासकाचार
४. पञ्चसंग्रह
५. आराधना
६. भावनाद्वात्रिशतिका
७. चन्द्र-प्रज्ञप्ति
८. सार्द्धद्धयद्वीप-प्रज्ञप्ति
९. व्याख्या-प्रज्ञप्ति
१. सुभाषितरत्नसंदोह
सुभाषितरत्नसंदोह काव्यमें सुभाषितरूपी रत्नोंका भण्डार निबद्ध है। इसमें ९२२ पद्य हैं। कविने सांसारिक विषयविरासर: लार गाहमार. निराकरण, इन्द्रिय-निग्रहोपदेश, स्त्री-गुण-दोष, कोप-लोभ-निराकरण, सदसदस्वरूपनिरूपण, ज्ञाननिरूपण, चारित्रनिरूपण, जातिनिरूपण, जरा-निरूपण, मृत्यु-सामान्यनित्यता-देव-जठर-जीव-सम्बोधन-दुर्जन-सज्जन दान-मद्यनिषेध-मांसनिषेध-मधुनिषेध - कानिषेध - वेश्यासंग-कृत-आत्मस्वरूप गुरुस्वरूप-धर्म-शोक-शौच-श्रादकधर्म और द्वादशविध तपश्चरण इस प्रकार बत्तीस विषयोंका प्रतिपादन किया है।
कविने अपने सुभाषितोंका उद्देश्य बतलाते हुए लिखा है-
जनयति मुदमन्तर्भव्यपाथोरुहाणा, हरति तिमिरराशि या प्रभा मानवीन।
कृतनिखिलपदार्थद्योतना भारतीद्धा वितरतु युतदोषा सोऽहंति भारती वः।।
अर्थात जिस प्रकार सूर्यकी किरणें अन्धकारका नाश कर समस्त पदार्थोको प्रकाशित करती हैं और कमलोंको विकसित करती हैं, उसी प्रकार ये सुभाषित चेतन-अचेतनविषयक अज्ञानको दूर कर भक्तोंके-सहृदयों के चित्तको प्रसन्न करते हैं।
कविने उत्प्रेक्षाद्वारा वृद्धावस्थाका कितना सजीव और साङ्गोपाङ्ग चित्रण किया है काव्य कलाकी दष्टिसे यह चित्रण रमणीय है-
प्रबलपवनापातध्वस्तप्रदीपशिखोपमे-
रलमलनिचयेः कामोद्भुतैः सुखैविषसंनिभैः।
समपरिचितैर्दु:खप्राप्तैः संतामतिनिन्दितै-
रिति कृतमनाः शङ्ख वृद्धः प्रकम्पयते करौ॥
अर्थात् वृद्धावस्थामें जो हाथ कांपते हैं, वे यह प्रकट करते हैं कि युवावस्थामें जो कामजन्य सुख भोगे थे वे विषतुल्य हानिकारक सिद्ध हुए। औधीके वेगसे शान्त की गयी दीपककी लौंके समान क्षण- विध्वंसी और अत्यन्त दुःखकारक इन विषयभोगोंकी सज्जनोंने पहले निन्दा की थी, वह निन्दा, निन्दा नहीं है, यथार्थ है।
उक्त पद्यमें हाथोंके कांपनेपर कवि द्वारा की गयी कल्पना सहृदयोंको अपनी ओर आकृष्ट करती है। उक्ति-वैचित्र्य भी यहाँ निहित है।
मदिराकी उपमा देकर वृद्धावस्थाका जीवन्त चित्रण किया है। यह उपमा श्लेषमूलक है। विशेषण जरा और मदिरा दोनों पक्षोंमें समानरूपसेघटित होते हैं। यथा-
चलयति तनु दृष्टे कोधि शरीरेण;
रचयति बलादव्यक्तोकि तनोति गतिक्षितिम्।
जनयति जनेनुद्या निन्दामनथपरम्परा
हरति सुरभिगन्धं देहाज्जरा मदिरा यथा।।
जिस प्रकार मदिरा-पान शरीरको अस्त-व्यस्त कर देता है, आँखें घूमने लगती हैं, मुंहसे अस्फुट वचन निकलते हैं, चलनेमें बाधा होती है, लोगोंमें निन्दाका पात्र बन जाता है एवं शरीरसे दुर्गन्धि निकलती है- उसी प्रकार वृद्धावस्था शरीरको कंपा देतो है, नेत्रोंकी ज्योति घट जाती है, दांत टूट जानेसे मुंहसे अस्फुट ध्वनि निकलती है, चलने में कष्ट होता है, शरीरसे दुर्गन्धि निकलती और नाना प्रकारकी अवहेलना होनेसे निन्दा होती है। इस प्रकार कविने मदिरा पानकी स्थितिसे वृद्धावस्थाकी तुलना की है।
इस सुभाषित काव्यमें नारीकी सर्वत्र प्रशंसा की गयी है। कवि नारीको श्रेष्ठरत्नका रूपक देकर उसके गुणोंका उद्घाटन करता हुआ कहता है-
यत्कामार्ति धुनीते सुखमुमचिनुते प्रीतिमाविष्करोति
सत्पात्राहारदानप्रभववरवषस्यास्तदोषस्य हेतुः।
वंशाभ्युद्धारकर्तुभवति तनुभुवः कारणं कान्तकीर्ति
स्तत्सर्वाभीष्टदात्री प्रवदत्त न कथं प्राथ्यंते स्त्रीसुरत्नम्।।
अर्थात् स्त्री वासना शान्त करती है, परम सुख देती है, अपना प्रेम प्रकट करती है, सत्पात्रको आहारदान देने में सहायता करती है, वंशोद्धार करनेवाले पुत्रको जन्म देती है। नारी-श्रेष्ठ रत्न समस्त मनोरथोंको पूर्ण करने में समर्थ है। कवि कहता है कि स्वल्पज्ञानी बकुल और अशोक वृक्ष जब नारीका सम्मान करते हैं उसके सानिध्यसे प्रसन्न हो जाते हैं, तब मनुष्यकी बात ही क्या। जो पुरुष नारीका परित्याग कर देता है, वह जड़ वृक्षोसे मी हीन है, विवेक-शून्य है।
कारणमालालङ्कारकी योजना करते हुए ज्ञानका महत्त्व प्रदर्शित किया है-
ज्ञानं विना नास्त्यहितान्निवृत्तिस्ततः प्रवृत्तिनं हिते जनानाम्।
ततो न पूर्वाजितकर्मनाशस्ततो न सौख्यं लभतेऽप्यमीष्टम्॥
अर्थात् ज्ञानके बिना मनुष्यकी अहितसे निवृत्ति नहीं होती है और अहितको निवृत्ति न होनेसे हितकार्यमें प्रवृत्ति नहीं होती। हितकार्य में प्रवृत्ति न होनेसे पूर्वोपाजित कर्मोंका नाश नहीं होता और पूर्वोपार्जित कर्मके नाश न होनेसे अभीष्ट मोक्ष-सुख नहीं मिलता। कषायका सद्भाव ही चरित्रका असद् भाव है। कषायकी जितने रूपमें कमी होने लगती है उतने ही रूपमें चरित्रका विकास होने लगता है। कविने संसार, कषाय और चरित्र इन तीनोंको व्याख्या बड़े ही सुन्दर रूपमें की है।
शोकाभिभूत व्यक्तिको अवस्थाका चित्रण करता हुवा कवि कहता है-
वितनोति वच: करुणं विमना
विधुनौति करौ च रणौ च भृशाम्।
रमते न गृहे न बने न जने
पुरुषः कुरुते न किमत्र शुचा।।
शोकके कारण व्यक्ति निर्मनस्क हो जाता है, दीन वचन बोलता है, हाथ-पैरोंको पटकता है और घर-बाहर स्वजनों एवं परिजनोंके बीच कहीं भी शान्तिलाभ प्राप्त नहीं करता। शोकके कारण मनुष्यकी स्थिति बहुत विचित्र हो जाती है। कवि द्वारा अङ्कित चित्र बहुत ही सजीव है। अतएव संसारकी यथार्थ स्थितिका चित्रण करता हुआ कवि कहता है-
स्वजनोऽज्यजनः कुरुते न सुखं न धनं न वृषो विषयो न भवेत्।
विमतः स्वहितस्य शुचा विनः स्तुतिमस्य न कोषिकरोति बुधः।।
शोकसे विह्वलचित्त पुरुष हितसे वंचित रहता है। अत: वह न तो स्वजनोंसे सुख प्राप्त करता है और न परिजनोंके सम्बन्धसे हो आनन्दित होता है, न धनसे ही किसी प्रकारकी शान्ति प्राप्त करता है और न किसी धर्म ध्यानका आचरण कर पाता है और न हन्द्रियविषयका सेवन ही कर पाता है। कवि शोक-त्यागके लिए पुन: जोर देता हुमा कहता है-
यदि रक्षणमन्यजनस्य भवेद्यदि कोऽपि करोति बुधः स्तवनं।
यदि किच्चन सौख्यमय स्वतनयार्यदि कञ्चन तस्य गुणो भवति।।
यदि वऽऽगमनं कुरुतेऽन्न मृतः सगुणं भुवि शोचनमस्य तदा।
विगुणं विमना बहु शोचति यो विगुणां स दशां लभते मनुजः।।
यदि शोक करनेसे अन्य व्यक्तिकी रक्षा हो जाय या शोक करनेवाले व्यक्तिको लोग प्रशंसा कर अथवा शोक करनेसे शरीरको सुख प्राप्त हो या शोक करनेसे मृत प्राणि जीवित हो जायं, तभी शोक करना उचित कहा जायगा। शोक करनेसे कोई भी गुण तो प्राप्त नहीं होता है बल्कि शोक करनेसे श्रेष्ठ गुणोंका विनाश हो जाता है। असएव शोक करना निरर्थक है।
इस ग्रन्थमें आध्यात्मिक आचारात्मक और नैतिक तथ्योंकी अभिव्यंजना सुभाषितों द्वारा की गयी है।
२. धर्मपरीक्षा
संस्कृत-साहित्यमें व्यंग्यप्रधान यह अपने ढंगकी अद्भुत रचना है। इसमें पौराणिक ऊटपटांग कथाओं और मान्यताओंको बड़े ही मनोरञ्जकरूपमें अविश्वसनीय सिद्ध किया है। तथ्योंकी अभिव्यञ्जनाके लिए कथानकोंका आश्रय लिया गया है। इस ग्रन्थमें निम्नलिखित मान्यताओंकी समीक्षा कथाओं द्वारा की गयी है-
१. सृष्टि-उत्पत्तिवाद
२. सृष्टि-प्रलयवाद
३. त्रिदेव-ब्रह्मा, विष्णु और महेश सम्बन्धी भ्रान्त धारणाएँ
४. अन्ध-विश्वास
५. अस्वाभाविक मान्यताएँ- अग्निका वीर्यपान, तिलोत्तमाकी उत्पत्ति
६. जातिवाद- सम्भ्रान्त जातिमें उत्पन्न होनेका अहङ्कार
७. ऋषियोंके सम्बन्धमें असम्भव और असंगत मान्यताएँ
८. अमानवीय तस्व
९. अविश्वसनीय और अबुद्धिसंगत पौराणिक उपाख्यान
यद्यपि इस ग्रन्थका आधार हरिभद्रका धूतख्यिान है, पर कविने स्वेच्छया कथावस्तुमें परिवर्तन भी किया है। संस्कृतकाव्यमें इस कोटिके व्यंग्यप्रधान काव्योंका प्राय: अभाव है। इस ग्रंथकी कथाओंकी शैली आक्रमणात्मक नहीं है, सुझावात्मक है। व्यंग्य और संकेतोंके आधारपर असम्भव एवं मनगढन्त बातोंका निराकरण किया गया है।
३. उपासकाचार
यह अमितगति-श्रावकाचारके नामसे प्रसिद्ध है। उपलब्ध श्रावकाचारोंमें यह बहुत विशद, सुगम और विस्तृत है। इसमें १३५२ पद्य और १५ अध्याय हैं। अन्तमें गुरुपरम्परा तो पायी जाती है, पर रचना-काल निर्दिष्ट नहीं है। मिथ्यात्व और सम्यक्त्वका अन्तर, सप्ततत्व, अष्टमूलगुण, द्वादशव्रत और उनके अतिचार, सामायिकादि षट् आवश्यक, दान, पूजा, उपवास एवं १२ भावनाओंका सविस्तृत वर्णन आया है। अन्तिम अध्यायमें ध्यानका वर्णन ११४ पद्योमें किया गया है। ध्यान, ध्याता, ध्येय और ध्यान-फल- इन चारों का विस्तृत वर्णन किया गया है।
४. आराधना
शिवार्यकृत प्राकृत आराधनाका यह संस्कृत रूपान्तर है। कविने इस रूपान्तरको चार महीने में पूर्ण किया है । इसमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों आराधनाओंका प्राकुत आराधनाके समान ही वर्णन किया है। प्रसंगवश जैनधर्मके प्रायः समस्त प्रमेय इसमें समाविष्ट हैं। प्रशस्तिमें देवसेनसे लेकर अमितगति तककी गरुपरम्परा भी दी गयी है।
५. भावना द्वात्रिंशतिका
३२ पद्योंका यह छोटा-सा प्रकरण है। संसारके पदार्थोसे पृथक् अनुभवकर आत्मशुद्धिकी भावना व्यक्त की गयी है। हृदयको पवित्र बनानेके लिए यह एक अच्छा काव्य है। इसके पढ़नेसे पवित्र और उच्च भावनाओंका सञ्चार होता है। प्रारम्भमें ही प्राणी-मात्रके साथ मैत्रीकी भावना प्रकट करते हुए लिखा है-
सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्।
माध्यस्थ्यभाव विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव॥
कविने इसमें परपदार्थोंसे भिन्न आत्मानुभूति करते हुए अपने द्वारा किये गये मिथ्याचरणकी निन्दा की है। प्रत्येक जीवात्मा प्रमाद और कषायके योगसे नाना प्रकारके कदाचारका सेवन करता है। इतस्तत: भ्रमण करनेवाले एक इन्द्रियादि जीवोंकी विराधना करता है और द्वीन्द्रियादि त्रसजीवोंको भी कष्ट पहुंचाता है। इसके लिए उसे अपनी निन्दा आदिके द्वारा प्रायश्चित्त करना चाहिए।
कविने आराध्य देवकी बड़े ही सुन्दररूपमें स्तुति की है। यह आराध्य वीतरागी, हितोपदेशी और सर्वज्ञ ही हो सकता है। कवि उसकी स्तुति करता हुआ कहता है-
यः स्मर्यते सर्वमुनीन्द्रबृन्दर्यः स्तूयते सर्वनरामरेन्द्रै:।
यो गीयते वेदपुराणशास्त्र: स देवदेवी हृदये ममास्ताम्।।
यो दर्शनज्ञान रामाय सनस्ताविकारबाह्यः।
समाधिगम्य: परमात्मसंज्ञः स देवदेवो हृदये ममास्ताम्।।
निषूदते यो भवदुःखजालं निरीक्षते यो जगदन्तराल।
योऽन्तर्गतो योगिनिरीक्षणीयः स देवदेवो हृदये ममास्ताम्।।
विमुक्तीमार्गप्रतिपादको यो यो जन्ममृत्युव्यसनाधतीतः।
त्रिलोकलोकी विकलोऽकलङ्कः स देवदेवो हृदयं ममास्ताम्।।
क्रोडीकूताशेषशरीरिवर्गा रागादयो यस्य न सन्ति दोषाः।
निरिन्द्रियो ज्ञानमयोऽनपायः स देवदेवो हृदये ममास्ताम्॥
यो व्यापको विश्वजनीनवृत्तः सिद्धो विबुद्धो धुतकर्मबन्धः।
ध्यातो धुनीते सकलं विकारं स देवदेवो हृदये ममास्ताम्।।
यह छोटा-सा ग्रन्थ अत्यन्त सरस और हृदयको पावन करनेवाला है। परमात्माका स्वरूप इसमें निर्धारित किया गया है और उसी परमात्माकी स्तुति की गयी है।
६. पञ्चसंग्रह (संस्कृत)
यह पञ्चसंग्रह प्राकृतपञ्चसंग्रहके समान पाँच प्रकरणोंमें विभक्त है। जीवसमास, प्रकृतिस्तव, कर्मबन्धस्तव, शतक और सप्तति। प्रथम प्रकरणमें ३५३ पद्य, द्वितीयमें ४८, तृतीयमें १०६, चतुर्थ में ७७८ और पञ्चममें ९० पद्य हैं। कुल पद्योंकी संख्या १३७५ है। प्राकृतपंचसंग्रह के समान संस्कृतपंचसंग्रहमें भी पद्यों के साथ गद्य भी प्रयुक्त मिलता है। यह प्राकृतपंचसंग्रहका रूपान्तर होनेपर भी कई दृष्टियोंसे विशिष्ट है। जहाँ प्राकृतमें दो गाथाओंमें बात कही गयी है, वहां संस्कृतपंचसंग्रहमें एक ही पद्योंमे उसी तथ्यमें सन्निविष्ट कर दिया गया है और जहाँ एक पद्यमें तथ्य कहा गया है उसे दो या अधिक पद्यों में भी कहा गया है। अमितगतिकी यह रचना अत्यन्त सरल और मधुर है। कहीं-कहीं अन्य ग्रन्थोंसे आधार ग्रहणकर नये पद्य भी लिखे गये हैं। अत: प्राकृतपंचसंग्रहकी अपेक्षा यह संस्कृत पंचसंग्रह किन्हीं रूपोंमें विशिष्ट है। प्राकृतपंचसंग्रहके प्रथम प्रकरणमें वेदमार्गणाके अन्तर्गत द्रव्यवेद और भाववेदकी अपेक्षासे जीवोंकी सदृशता और विसदृशताका वर्णन करनेवाली दो गाथाएँ आयी हैं। इनके स्थानपर अमितगतिने संस्कृतपद्यसंग्रहमें एक ही पद्य रचा है। यथा-
प्राकृतपंचसंग्रह
तिव्वेद एवं सव्वे वि जीवा दिठ्टा हु दव्वभावादो।
ते चेव हु विवरीया संभवति जहाकम सव्वे ।।१०२।।
इत्थी पुरसि णउंसय वेया खलु दव्व-भावदो होति।
ते चेव य विवरीया हवंति सव्वे जहाकमसो॥१०४।।
संस्कृतपंचसंग्रह
स्त्रीपुन्नपुंसका जीवाः सदृशाः द्रव्य-भावतः।
जायन्ते विसदृक्षाश्च कर्मपाकनियन्त्रिताः॥१९२॥
प्राकृतपंचसंग्रह
छद्दव्व-णवपयत्थे दव्वाइचउव्विहेण जाणते।
बंदित्ता अरहंते जीवस्स परूवणं वोच्छ।।१॥
संस्कृतपंचसंग्रह
ये षट् द्रव्याणि बुध्यते द्रव्यक्षेत्रादिभेदतः।
जिनेशास्तास्त्रिया नत्वा करिष्ये जीवरूपणम्।। ३ ।।
प्राकृतपंचसंग्रह
गुण जीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य।
उवओगो वि य कमसो वीसं तु परूवणा भणिया || २ ।।
संस्कृतपंचसंग्रह
विज्ञातव्या गुणा जीवा: प्राणपर्याप्तिमार्गणाः।
उपयोगा बुधैः संज्ञा विशतिर्जीवरूपणाः।। ११ ।।
प्राकृतपंचसंग्रह
जेहि दु लक्खिज्जते उदयादिसु संभवेहि भावेहिं।
जीवा ते गुणसपणा णिहिट्ठा सव्वदरिसीहिं॥ ३ ।।
संस्कृतगंससंग्रह
जीवा पैरवबुध्यन्ते भावैरौदयिकादिभिः।
गुणागुणस्वरूपज्ञैरत्र ते गदिता गुणाः॥ १२ ।।
अमितगतिके पञ्चसंग्रहका वैशिष्टय
प्राकृतपंचसंग्रहकी अपेक्षा संस्कृतपञ्चसंग्रहमें कई विशेषताएं हैं। इन विशेषताओंको हम निम्नलिखित वर्गोंमें विभक्त कर सकते हैं-
१. संक्षेपीकरण,
२. पल्लवन,
३. विषयोंका प्रकारान्तरसे संयोजन।
उपर्युक्त विशेषताओंके स्पष्टीकरणके लिए प्राकृतमंचसंग्रहके साथ तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित है।
जीवसमास नामक प्रथम प्रकरणमें चौदह गुणस्थानों और सिद्धोंका कथन करने के बाद किस गुणस्थानमें कौन भाव होता है, इसका विवेधव किया है। अनन्तर चौदह गुणस्थानों में रहनेवाले जीवोंको संख्याका निरुपण आया है। यह कथन गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ११-१४ तथा ६२२-६३ में किया गया है। संस्कृत पंचसंग्रहमें इससे भी कुछ विशेष कथन आया है। अमितगतिने जीवट्ठाणके द्रव्यप्रमाणानुगमकी घवलाटीकासे उक्त विषय ग्रहण किया गया है। इसी प्रकार योगनिरूपणके अन्तमें पद्य १८१-१८५ तक विग्रहगति आदिमें शरीरोंका कथन आया है। यह कथन प्राकृतपञ्चसंग्रहकी अपेक्षा विशिष्ट है। इसी तरह वेदमार्गणाके कथनके अन्तमें पद्य १९३-२०२ मे वेद वैषम्यके नवभंगोंका विवेचन तथा स्त्रीवेद आदिके चिन्हों का कथन भी प्राकृत पंचसंग्रहको अपेक्षा विशिष्ट है। ज्ञानमार्गणांके निरूपणमें भी कई विशेषताएँ आयी हैं। इन सन्दर्भोंमें प्राकृतपंचसंग्रहका आधार न ग्रहणकर तत्वार्थवार्तिकका आधार ग्रहण किया गया है। मतिज्ञानके २८८, ३३६ और ३८४ भेद आये हैं तथा श्रृंतपूर्वक श्रुतका भी समर्थन किया गया है। अवधिज्ञानके लक्षणों और चिह्नोंका कथन तत्वार्थवार्त्तिकके अनुसार आया है।
प्राकृतपंचसंग्रहमें लेश्याका कथन प्रथम प्रकरणमें दो स्थलोंपर आया है, पर संस्कृतपञ्चसंग्रहमें अमितगतिने इसे एक ही स्थानपर निबद्ध कर दिया है।
रूपान्तरोंमें भी मौलिकताका कई जगह समावेश किया है। यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है-
भव्वो पंचिदिओ सण्णी जीवो पज्जत्तओ तहा।
काललद्धाइ-संजुत्तो सम्मत्त पडिवज्जए।।१।१५८।।
अमितगतिने इसका रूपान्तर निम्न प्रकार किया है-
पूर्णपंचेन्द्रियः संनी लब्धकालादिलब्धिकः।
सम्यक्त्वग्रहणे योग्यो भव्यो भवति शुद्धधीः।। २८६ ।।
अर्थात् संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव कालादिलब्धिकी प्राप्ति होनेपर सम्यक्त्व ग्रहण करने योग्य होता है। अमितगतिने यहाँ लब्धियोंका वर्णन भी विस्तारपूर्वक किया है और तत्त्वार्थवार्तिकके नवम अध्यायके प्रथम सूत्रसे बहुत-सा गद्यांश ज्यों-का-त्यों ले लिया है। सम्यक्त्वके भेद-प्रभेदोंका विवेचन भी विस्तारपूर्वक किया गया है, जो प्राकृतपंचसंग्रह में प्राप्त नहीं है। इसी सन्दर्भमें मिथ्यात्वका कथन करते हुए ३६३ मतोंकी उत्पत्ति दी गयी है, जो कर्मकाण्डके अनुरूप है। प्रथम अध्यायके अधिक अन्न अभावों में भी यतः शिष्टय दृष्टि गोचर होता है। चतुर्थ अध्यागमें ९वे गुणस्थान में होनेवाले प्रत्ययोंका कथन प्राकृतपंचसंग्रह में आया है। यथा-
संजलण-तिवेदाणं णवजोमाणं च होइ एयदरं।
संदणदुवेदाणं एयदरं पुरिसवेदो य १।४।२०१॥ - ज्ञानपीठ संस्करण
अर्थात् नवें गुणस्थानके सवेद भागमें चार संज्वलन कषायमेसे एक, तीन वेदों में से एक और नौ वेदोंमेसे एक होता है। नपुसंकवेदकी उदयव्युच्छित्ति हो जानेपर दो वेदोंमें से एक वेदका उदय होता है और स्त्रीवेदकी उदयच्छित्ति हो जानेपर एक पुरुषवेदका उदय होता है। अत: ४×३×९ = १०८, ४×२×९ = ७२ और ४×१×९ = ३६ भंग होते हैं और कुल भंग १०८ + ७२ + ३६ = २१६ ये भंग सवेद भागके हुए। अवेदभागमें भंगोंका क्रम निम्न प्रकार है-
चदुसंजलणणवण्हं जोगाणं होइ एयदर दो ते।
कोहूणमाणवज्ज मायारहियाण एगदरग वा ॥४॥२०२।। -ज्ञानपीठ संस्करण
अर्थात् अवेदभागमें चार स्वंजलन कषायोंमेंसे एकका, तथा नौ योगोंमेंसे एकका उदय होता है। क्रोधकी उदयव्युच्छिप्ति हो जाने पर तीन कषायोंमेंसे एकका उदय होता है। मानकी व्युच्छित्ति हो जानेपर दो कषायोमेसे एकका उदय और मायाकी व्युच्छित्ति हो जानेपर केवल लोभ कषायका उदय होता है। नौ योगोंमेंसे एक योगका उदय सर्वत्र रहता है। अत्तएव ४×१×९ = ३६, ३×१×९ = २७, २×१×५ = १८ और १×१×९ = ९ इस प्रकार ३९८ अवेदभागके कुल भंग ३६ + २७ + १८+ ९ = ९०। सवेद और अवेद भागके कुल भंग २१६ + ९० = ३०६।
अमितगतिने संस्कृतपञ्चमंग्रह में नवें गणस्थानके अवेद भागमें चार कषाय और २ योगोंमेंसे एक-एकके उदयकी अपेक्षा ४×९ = ३६ भंग बताये हैं-
जघन्यो प्रत्ययौ जयौ द्वारवेदानिवृत्तिके।
संज्वालेषु चतुष्वेकी योगाना नवेक परः||४।६६||
१×१ भंग =४।९ अन्योन्याभ्यस्त करनेपर ४×३×९ = १०८ सवेद भाग। यहाँ ४ कषाय, ३ वेद और ९ योगोंमेसे एक-एक योगका उदय होता है। अवेद भागमें-
कषायवेदयोगानामैकैकग्रहणे सति।
अनिवृत्ते: सदस्य प्रकृष्टाः प्रत्ययास्त्रयः ||४/६७||
४/३/९, अन्योन्याभ्यस्त करनेपर १०८ होते हैं।
इस प्रकार अनिबृत्तिकरण गुणस्थानके सवेदभाग और अवेदभागमें १४४ भंग योगकी अपेक्षा मोहनीयके उदयस्थान बतलाये गये हैं। प्राकृतपंचसंग्रहमें भी इतने ही भंग लिये हैं। गोम्मटसार कर्मकाण्डमें भी १४४ ही भंगसंख्या आयी है। यही कारण है कि अमितगतिने सर्वसम्मत १४४ भेदोंको ही मान्यता दी है, शेष भंगोंका उल्लेख नहीं किया।
पञ्चम अध्यायमें भी कई विशेषताएँ पायी जाती हैं। प्राकृतपंचसंग्रहमें मनुष्यगतिमें नामकर्मके २६०९ भंग बतलाये हैं, पर संस्कृत पत्रसंग्रहमें २६६८ भंग आये हैं। यहाँ २६०९ भंगोंमें सयोगकेवलीके ५९ भंग और जोड़े गये हैं। इसप्रकारके जोड़नेकी प्रक्रिया प्राकृतपंचसंग्रहमें नहीं मिलती है।
प्राकृतपंचसंग्रह और संस्कृतपञ्चसंग्रहमें योगकी अपेक्षा गृगस्थानोंमें मोहनीयकर्मके उदयस्थानोंके भग १३२०९ बतलाये हैं और कर्म-काण्डमें छठे १२९५३ भंग आये हैं। इस अन्तरका कारण यह है कि कर्मकाण्डमें छठे गुणस्थानमें आहारकका उदय स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके उदय में नहीं माना गया है। अत: छठे गुणस्थानमें पञ्चसंग्रहकी अपेक्षा २११२ भंग होते हैं और कर्मकाण्ड की अपेक्षा १८५६ भंग होते हैं। इस प्रकार २५६ भंगका अन्तर पड़ता है। यहाँ यह स्मरणीय है कि अमितगतिने प्रथम अध्यायके ३४३वे पद्य द्वारा इस बातको स्वीकार किया है कि आहारक ऋद्धि, परिहार विशुद्धि, तीर्थंकरप्रकृतिका उदय और मनःपर्ययज्ञान ये स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके उदयमें नहीं होते।
प्रथम प्रकरण जीवसमास है। इसमें गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संजा, चौदह मार्गणा और उपयोग इन २० प्ररूपणाओं द्वारा जीवोंकी विविध दशाओंका वर्णन किया गया है।
मोह और योगके निमित्तसे होनेवाले जीवोंके परिणामोंके तारतम्यरूप क्रमविकसित स्थानों-भावोंको गुणस्थान कहा है। गुणस्थान १४ है- मिथ्यात्व, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व, अविरतसम्यक्ल, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्त विरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली। प्रथम प्रकरणके प्रारम्भमें ही इन गुणस्थानों का स्वरूप विवेचन किया गया है।
दुसरी प्ररूपणा जीवसमास है। जिन धर्मविशेषोंके द्वारा नाना जीव और नाना प्रकारकी उनकी जातियां जानी जाती हैं, उन धर्मविशेषोंको जीवसमास कहते हैं। जीवसमासके संक्षेपकी अपेक्षा १४ मेद हैं और विस्तारकी अपेक्षा २१, ३०, ३२, ३६, ३८, ४८, ५४ और ५७ मेद हैं। प्रथम प्रकरणमें इन समस्त भेदोंका विस्तारपूर्वक विवेचन आया है।
तीसरी पर्यातिप्रारूपणा है। प्राणोंके कारणभूत शक्तिकी प्राप्तिको पर्याप्सि कहते हैं। पर्याप्सियाँ छह है- आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छवासपर्याति, भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति। एकेन्द्रिय जीवके प्रारम्भकी चार पर्याप्तियाँ, द्धीइन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रियपर्यन्त पाँच पर्याप्तियाँ और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवको छह पर्याप्तियां होती हैं।
चौथी प्राणप्ररूपणा है। पर्याप्तियोंके कार्यरूप, इन्द्रियादिकके उत्पन्न होनेको प्राण कहते हैं। प्राणोंके दश भेद हैं- पांच इन्द्रियाँ, मनोबल, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छवास। एकेन्द्रिय जीवके स्पर्शन इन्द्रिय, कायवल, आयु और श्वासोच्छवास ये चार प्राण होते हैं। द्वीन्द्रियजीवके रसनेन्द्रिय और वचनबल इन दो प्राणोंके अधिक होनेसे छह प्राण होते हैं। त्रीन्द्रियजीवके घ्राणेन्द्रिय बसनेसे सात प्राण, चतुरिन्द्रियजीवके चक्षु इन्द्रिय बढ़नेसे आठ प्राण, असंज्ञी पंचेन्द्रियजीवके कर्णन्द्रिय बढ़नेसे ९ प्राण और संज्ञी पचेन्द्रियजीवके मनोबल बढ़नेसे दश प्राण होते हैं।
पांचवीं संज्ञाप्ररूपणा है। आहारादिकी वाच्छाको संज्ञा कहते हैं। संज्ञा के चार भेद हैं- आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा। चारों संज्ञाएँ सभी संसारी जीवोंमें पायी जाती हैं।
जिन अवस्थाविशेषोंमें जीवोंका अन्वेषण किया जाता है, उन्हें मार्गणा कहते हैं। मार्गणाओंके चौदह भेद है- गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संजी और आहारमार्गणा। प्रथम प्रकरणमें इन १४ मार्गणाओंका विस्तारके साथ वर्णन किया गया है।
२० वी उपयोगप्ररूपणा है। वस्तुके स्वरूपको जाननेके लिए जीवका जो भाव प्रवृत्त होता है, उसे उपयोग कहते हैं। उपयोग दो प्रकारका होता है साकारोपयोग और निराकारोपयोग। निराकारोपयोगके चार भेद हैं।
इस प्रकार प्रथम जीवसमासप्रकरणमें २० प्ररूपणाओं द्वारा जीवोंकी विविध दशाओंका विस्तारके साथ वर्णन किया है।
दूसरा प्रकरण प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामका है। इसमें कर्मोंकी मूलप्रकृतियों और उत्तरप्रकृतियोंका वर्णन किया गया है। मूलप्रकृतियाँ आठ है- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। इनकी उत्तर प्रकृतियाँ क्रमशः पांच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, तिरानवे, दो और पाँच हैं। सब उत्तरप्रकृत्तियाँ १४८ होती हैं। इनमें से बन्धयोग्य १२० प्रकृतियाँ, उदययोग्य १२२ प्रकृतियां, उद्वेलन ११ प्रकृतियाँ, ध्रुवबन्धी ४७, अध्रुवबन्धी ११, वर्तमान प्रकृतियाँ एवं सत्त्वयोग्य १४८ प्रकृतियां हैं। पञ्चसंग्रहके पांचों प्रकरणोंमें यह सबसे छोटा प्रकरण है।
कर्मस्तव नामका तीसरा प्रकरण है। इसके अन्य नामान्तर बन्धस्तव और कही कर्मबन्धस्तव भी है। इस प्रकरणमें १४ गुणस्थानोंमें बंधनेवाली, नहीं बंधने वाली और बन्धव्युमिछत्तिको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियोंका तथा सत्वयोग्य, असत्वयोग्य और सत्वसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंका विवेचन किया गया है। अन्तमें चूलिकाके अन्तर्गत नौ प्रश्नोंको उठाकर उनका समाधान करते हुए बतलाया गया है कि किन प्रकृतियोंकी बन्धन्युच्छित्ति, उदयव्युच्छित्ति और सत्वव्युच्छित्ति पहिले, पीछे या साथमें होती है। इस नौ प्रश्नरूप चलिकामें कर्मप्रकृतियोंके बन्ध, उदय और सत्वव्युच्छित्ति सम्बन्धी कितनी ही ज्ञातव्य बातें बतलाई गयी हैं।
चौथे प्रकरण का नाम शतक है। इस प्रकरण में १४ मार्गणाओंके आधारसे जीवसमास, गुणस्थान, उपयोग और योगका वर्णन करनेके अनन्तर कर्मबन्धके कारणभत मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग बन्धप्रत्ययोंका विस्तार से वर्णन किया है। साथ ही मिथ्यात्व आदि गुणस्थानोंमें जघन्य और उत्कृष्ट प्रत्ययोंकी अपेक्षा सम्भव संयोगी भंगोंका विस्तृत विवेचन किया है। तत्पश्चात् खानावरणादि आठ कर्मोके विशेष बन्धप्रत्ययोंका वर्णन किया गया है।
पञ्चम प्रकरणका नाम सप्तति या सप्ततिका है। इसे सित्तरी भी कहते हैं। इस प्रकरणमें मूल कर्मों और उनके अवान्तर भेदोंके बन्धस्थान, उदयस्थान और स्तवस्थानोंका स्वतन्त्र रूपसे एवं चौदह जीवसमास और गुणस्थानोंके आश्रयसे भंगोंका विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। अन्तमें कार्मोंकी उपशमना और क्षमा विवेचन बाधा है। शतक और सप्ततिका इन दोनों ही प्रकरणोंमें भंगोंका विवेचन करनेवाले पद्य प्राकृतपंचसंग्रहके तुल्य ही हैं। कर्मसिद्धान्तको अवगत करनेके लिये यह एक अच्छा साधनग्रन्थ है।
उपर्युक्त ग्रंथोंके अतिरिक लघु एवं बृहत सामायिक पाठ, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सार्द्धद्वयद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति ग्रन्थ मी इनके द्वारा रचे गये माने जाते हैं। सामायिकपाठमें १२० पद्य हैं। इसमें सामायिकका स्वरूप, विधि और महत्व प्रतिपादित किया गया है। शेष चार ग्रंथ अभी तक उपलब्ध नहीं हैं।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
आचार्य अमितगति द्वितीय भी प्रथितयश सारस्वताचार्य है। ये माथुर संघके आचार्य थे। दर्शनसारके कर्ता देवसेनने अपने 'दर्शनसार' में माथुर संघको जैनाभासोंमें परिगणित किया है। इसे नि:पिच्छिक भी कहा गया है, क्योंकि इस संघके मुनि मयूरपिच्छि नहीं रखते थे। यह संघ काष्ठासंघको एक शाखा है। इस संघकी उत्पत्ति वीरसेनके शिष्य कुमारसेन द्वारा हुई है।
अमित्तगति द्वितीयने अपनी धर्मपरीक्षामें, जो प्रशस्ति अंकित की है, उससे इनकी गुरुपरम्परापर प्रकाश पड़ता है-
वीरसेन, इनके शिष्य देवसेन, देवसेनके शिष्य अमितगति प्रथम, इनके शिष्य नेमिषेण, नेमिषेणके शिष्य माधवसेन और माधवसेनके शिष्य अमितगति हए। अमितगतिकी शिष्यपरम्पराका परिज्ञान अमरकीर्तिके 'छक्कम्मोवएस’ से भी होता है। इस ग्रंथके अनुसार अमितगति, शान्तिषेण, अमरसेन, श्रीसेन, चन्द्रकीर्ति और चन्द्रकीर्तिके शिष्य अमरकोर्ति हुए हैं। इनकी गुरु-शिष्य परम्परा निम्न प्रकार ज्ञातव्य है-
(अमितति द्वितीयकी धर्मपरीक्षानुसार)
वीरसेन
↓
देवसेन
↓
योगसारप्राभृतकार अमितगति (प्रथम)
↓
नेनिषेण
↓
माधवसेन
↓
धर्मपरीक्षादिकार अमितगति (द्वितीय)
↓
(अमरकीर्तिके 'छक्कम्भावएस’ के अनुसार)
शान्तिषेण
↓
अमरसेन
↓
श्रीसेन
↓
चन्द्रकीर्ति
↓
'छक्कम्मोबएस' के कर्ता अमरकीर्ति
श्री पण्डित विश्वेश्वरनाथ रेउने अमितगति द्वितीयको वाकपतिराज मुज्जकी सभाके एक रत्नके रूपमें स्वीकार किया है।
अमितगति बहश्रुत थे। उन्होंने विविध विषयोंपर ग्रन्थोंका निर्माण किया है। काव्य, न्याय, व्याकरण, अचारप्रभृति अनेक विषयोंके विद्वान थे। इन्होंने पञ्चसंग्रहकी रचना मसूतिकापुरमें की थी। यह स्थान घारसे सात कोस दूर मसीदकिलौदा नामक गाँव बताया जाता है।
श्री विश्वेश्वरनाथ रेउने लिखा है- ''अमितगतिने विक्रम सं. १०५० (ई. सन् ९९३ में राजा मुंजके राज्यकालमें सुभाषितरत्नसंदोहनामक ग्रन्थ बनाया और वि. सं. १०७० (ई. १०१३) में धर्मपरीक्षानामक ग्रन्थकी रचना की। इनके गुरुका माम माधवसेन था"।
'सुभाषितरत्नसंदोह' को प्रशस्तिमें रचनाकालका निर्देश निम्न प्रकार है- "समारूढे पूतत्रिदशवसर्ति विक्रमनृपे सहस्र वर्षाणां प्रभवति हि पंचाशदधिके। समाप्ते पंचभ्यामवत्ति धरणों मुंजनृपतौसितै पक्षे पौषे बुधहितमिदं शास्त्रमनघम्।।"
अर्थात् वि. सं. १०५० पौष शुक्ला पञ्चमीको मुंज राजाके राज्यकालमें यह निर्दोष शास्त्र पूर्ण हुआ।
धर्मपरीक्षाका रचना-काल वि. सं. १०७० और संस्कृतपञ्चसंग्रहका वि. सं. १०७३ है। पंचसंग्रहको प्रशस्तिमें लिखा है-
त्रिसप्तत्याधिकेऽम्दानां सहस्र शकविद्विषः।
मसूतिकापुरे जातमिदं शास्त्रं मनारमम्॥
अर्थात् वि. सं. १०७३ में, जबकि मुंजके राज्यपट्टपर भोज आसीन हुआ, यह ग्रन्थ लिखा गया। अतएव स्पष्ट है कि अमितगतिका समय वि. सं. की ११वीं शताब्दि है।
अमितगतिकी अनेक रचनाएँ मानी जाती हैं। पर जिन्हें निर्विवादरूपसे अमितगतिकी रचना माना गया है उनके नाम निम्नलिखित है-
१. सुभाषितरत्नसंदोह
२. धर्मपरीक्षा
३. उपासकाचार
४. पञ्चसंग्रह
५. आराधना
६. भावनाद्वात्रिशतिका
७. चन्द्र-प्रज्ञप्ति
८. सार्द्धद्धयद्वीप-प्रज्ञप्ति
९. व्याख्या-प्रज्ञप्ति
१. सुभाषितरत्नसंदोह
सुभाषितरत्नसंदोह काव्यमें सुभाषितरूपी रत्नोंका भण्डार निबद्ध है। इसमें ९२२ पद्य हैं। कविने सांसारिक विषयविरासर: लार गाहमार. निराकरण, इन्द्रिय-निग्रहोपदेश, स्त्री-गुण-दोष, कोप-लोभ-निराकरण, सदसदस्वरूपनिरूपण, ज्ञाननिरूपण, चारित्रनिरूपण, जातिनिरूपण, जरा-निरूपण, मृत्यु-सामान्यनित्यता-देव-जठर-जीव-सम्बोधन-दुर्जन-सज्जन दान-मद्यनिषेध-मांसनिषेध-मधुनिषेध - कानिषेध - वेश्यासंग-कृत-आत्मस्वरूप गुरुस्वरूप-धर्म-शोक-शौच-श्रादकधर्म और द्वादशविध तपश्चरण इस प्रकार बत्तीस विषयोंका प्रतिपादन किया है।
कविने अपने सुभाषितोंका उद्देश्य बतलाते हुए लिखा है-
जनयति मुदमन्तर्भव्यपाथोरुहाणा, हरति तिमिरराशि या प्रभा मानवीन।
कृतनिखिलपदार्थद्योतना भारतीद्धा वितरतु युतदोषा सोऽहंति भारती वः।।
अर्थात जिस प्रकार सूर्यकी किरणें अन्धकारका नाश कर समस्त पदार्थोको प्रकाशित करती हैं और कमलोंको विकसित करती हैं, उसी प्रकार ये सुभाषित चेतन-अचेतनविषयक अज्ञानको दूर कर भक्तोंके-सहृदयों के चित्तको प्रसन्न करते हैं।
कविने उत्प्रेक्षाद्वारा वृद्धावस्थाका कितना सजीव और साङ्गोपाङ्ग चित्रण किया है काव्य कलाकी दष्टिसे यह चित्रण रमणीय है-
प्रबलपवनापातध्वस्तप्रदीपशिखोपमे-
रलमलनिचयेः कामोद्भुतैः सुखैविषसंनिभैः।
समपरिचितैर्दु:खप्राप्तैः संतामतिनिन्दितै-
रिति कृतमनाः शङ्ख वृद्धः प्रकम्पयते करौ॥
अर्थात् वृद्धावस्थामें जो हाथ कांपते हैं, वे यह प्रकट करते हैं कि युवावस्थामें जो कामजन्य सुख भोगे थे वे विषतुल्य हानिकारक सिद्ध हुए। औधीके वेगसे शान्त की गयी दीपककी लौंके समान क्षण- विध्वंसी और अत्यन्त दुःखकारक इन विषयभोगोंकी सज्जनोंने पहले निन्दा की थी, वह निन्दा, निन्दा नहीं है, यथार्थ है।
उक्त पद्यमें हाथोंके कांपनेपर कवि द्वारा की गयी कल्पना सहृदयोंको अपनी ओर आकृष्ट करती है। उक्ति-वैचित्र्य भी यहाँ निहित है।
मदिराकी उपमा देकर वृद्धावस्थाका जीवन्त चित्रण किया है। यह उपमा श्लेषमूलक है। विशेषण जरा और मदिरा दोनों पक्षोंमें समानरूपसेघटित होते हैं। यथा-
चलयति तनु दृष्टे कोधि शरीरेण;
रचयति बलादव्यक्तोकि तनोति गतिक्षितिम्।
जनयति जनेनुद्या निन्दामनथपरम्परा
हरति सुरभिगन्धं देहाज्जरा मदिरा यथा।।
जिस प्रकार मदिरा-पान शरीरको अस्त-व्यस्त कर देता है, आँखें घूमने लगती हैं, मुंहसे अस्फुट वचन निकलते हैं, चलनेमें बाधा होती है, लोगोंमें निन्दाका पात्र बन जाता है एवं शरीरसे दुर्गन्धि निकलती है- उसी प्रकार वृद्धावस्था शरीरको कंपा देतो है, नेत्रोंकी ज्योति घट जाती है, दांत टूट जानेसे मुंहसे अस्फुट ध्वनि निकलती है, चलने में कष्ट होता है, शरीरसे दुर्गन्धि निकलती और नाना प्रकारकी अवहेलना होनेसे निन्दा होती है। इस प्रकार कविने मदिरा पानकी स्थितिसे वृद्धावस्थाकी तुलना की है।
इस सुभाषित काव्यमें नारीकी सर्वत्र प्रशंसा की गयी है। कवि नारीको श्रेष्ठरत्नका रूपक देकर उसके गुणोंका उद्घाटन करता हुआ कहता है-
यत्कामार्ति धुनीते सुखमुमचिनुते प्रीतिमाविष्करोति
सत्पात्राहारदानप्रभववरवषस्यास्तदोषस्य हेतुः।
वंशाभ्युद्धारकर्तुभवति तनुभुवः कारणं कान्तकीर्ति
स्तत्सर्वाभीष्टदात्री प्रवदत्त न कथं प्राथ्यंते स्त्रीसुरत्नम्।।
अर्थात् स्त्री वासना शान्त करती है, परम सुख देती है, अपना प्रेम प्रकट करती है, सत्पात्रको आहारदान देने में सहायता करती है, वंशोद्धार करनेवाले पुत्रको जन्म देती है। नारी-श्रेष्ठ रत्न समस्त मनोरथोंको पूर्ण करने में समर्थ है। कवि कहता है कि स्वल्पज्ञानी बकुल और अशोक वृक्ष जब नारीका सम्मान करते हैं उसके सानिध्यसे प्रसन्न हो जाते हैं, तब मनुष्यकी बात ही क्या। जो पुरुष नारीका परित्याग कर देता है, वह जड़ वृक्षोसे मी हीन है, विवेक-शून्य है।
कारणमालालङ्कारकी योजना करते हुए ज्ञानका महत्त्व प्रदर्शित किया है-
ज्ञानं विना नास्त्यहितान्निवृत्तिस्ततः प्रवृत्तिनं हिते जनानाम्।
ततो न पूर्वाजितकर्मनाशस्ततो न सौख्यं लभतेऽप्यमीष्टम्॥
अर्थात् ज्ञानके बिना मनुष्यकी अहितसे निवृत्ति नहीं होती है और अहितको निवृत्ति न होनेसे हितकार्यमें प्रवृत्ति नहीं होती। हितकार्य में प्रवृत्ति न होनेसे पूर्वोपाजित कर्मोंका नाश नहीं होता और पूर्वोपार्जित कर्मके नाश न होनेसे अभीष्ट मोक्ष-सुख नहीं मिलता। कषायका सद्भाव ही चरित्रका असद् भाव है। कषायकी जितने रूपमें कमी होने लगती है उतने ही रूपमें चरित्रका विकास होने लगता है। कविने संसार, कषाय और चरित्र इन तीनोंको व्याख्या बड़े ही सुन्दर रूपमें की है।
शोकाभिभूत व्यक्तिको अवस्थाका चित्रण करता हुवा कवि कहता है-
वितनोति वच: करुणं विमना
विधुनौति करौ च रणौ च भृशाम्।
रमते न गृहे न बने न जने
पुरुषः कुरुते न किमत्र शुचा।।
शोकके कारण व्यक्ति निर्मनस्क हो जाता है, दीन वचन बोलता है, हाथ-पैरोंको पटकता है और घर-बाहर स्वजनों एवं परिजनोंके बीच कहीं भी शान्तिलाभ प्राप्त नहीं करता। शोकके कारण मनुष्यकी स्थिति बहुत विचित्र हो जाती है। कवि द्वारा अङ्कित चित्र बहुत ही सजीव है। अतएव संसारकी यथार्थ स्थितिका चित्रण करता हुआ कवि कहता है-
स्वजनोऽज्यजनः कुरुते न सुखं न धनं न वृषो विषयो न भवेत्।
विमतः स्वहितस्य शुचा विनः स्तुतिमस्य न कोषिकरोति बुधः।।
शोकसे विह्वलचित्त पुरुष हितसे वंचित रहता है। अत: वह न तो स्वजनोंसे सुख प्राप्त करता है और न परिजनोंके सम्बन्धसे हो आनन्दित होता है, न धनसे ही किसी प्रकारकी शान्ति प्राप्त करता है और न किसी धर्म ध्यानका आचरण कर पाता है और न हन्द्रियविषयका सेवन ही कर पाता है। कवि शोक-त्यागके लिए पुन: जोर देता हुमा कहता है-
यदि रक्षणमन्यजनस्य भवेद्यदि कोऽपि करोति बुधः स्तवनं।
यदि किच्चन सौख्यमय स्वतनयार्यदि कञ्चन तस्य गुणो भवति।।
यदि वऽऽगमनं कुरुतेऽन्न मृतः सगुणं भुवि शोचनमस्य तदा।
विगुणं विमना बहु शोचति यो विगुणां स दशां लभते मनुजः।।
यदि शोक करनेसे अन्य व्यक्तिकी रक्षा हो जाय या शोक करनेवाले व्यक्तिको लोग प्रशंसा कर अथवा शोक करनेसे शरीरको सुख प्राप्त हो या शोक करनेसे मृत प्राणि जीवित हो जायं, तभी शोक करना उचित कहा जायगा। शोक करनेसे कोई भी गुण तो प्राप्त नहीं होता है बल्कि शोक करनेसे श्रेष्ठ गुणोंका विनाश हो जाता है। असएव शोक करना निरर्थक है।
इस ग्रन्थमें आध्यात्मिक आचारात्मक और नैतिक तथ्योंकी अभिव्यंजना सुभाषितों द्वारा की गयी है।
२. धर्मपरीक्षा
संस्कृत-साहित्यमें व्यंग्यप्रधान यह अपने ढंगकी अद्भुत रचना है। इसमें पौराणिक ऊटपटांग कथाओं और मान्यताओंको बड़े ही मनोरञ्जकरूपमें अविश्वसनीय सिद्ध किया है। तथ्योंकी अभिव्यञ्जनाके लिए कथानकोंका आश्रय लिया गया है। इस ग्रन्थमें निम्नलिखित मान्यताओंकी समीक्षा कथाओं द्वारा की गयी है-
१. सृष्टि-उत्पत्तिवाद
२. सृष्टि-प्रलयवाद
३. त्रिदेव-ब्रह्मा, विष्णु और महेश सम्बन्धी भ्रान्त धारणाएँ
४. अन्ध-विश्वास
५. अस्वाभाविक मान्यताएँ- अग्निका वीर्यपान, तिलोत्तमाकी उत्पत्ति
६. जातिवाद- सम्भ्रान्त जातिमें उत्पन्न होनेका अहङ्कार
७. ऋषियोंके सम्बन्धमें असम्भव और असंगत मान्यताएँ
८. अमानवीय तस्व
९. अविश्वसनीय और अबुद्धिसंगत पौराणिक उपाख्यान
यद्यपि इस ग्रन्थका आधार हरिभद्रका धूतख्यिान है, पर कविने स्वेच्छया कथावस्तुमें परिवर्तन भी किया है। संस्कृतकाव्यमें इस कोटिके व्यंग्यप्रधान काव्योंका प्राय: अभाव है। इस ग्रंथकी कथाओंकी शैली आक्रमणात्मक नहीं है, सुझावात्मक है। व्यंग्य और संकेतोंके आधारपर असम्भव एवं मनगढन्त बातोंका निराकरण किया गया है।
३. उपासकाचार
यह अमितगति-श्रावकाचारके नामसे प्रसिद्ध है। उपलब्ध श्रावकाचारोंमें यह बहुत विशद, सुगम और विस्तृत है। इसमें १३५२ पद्य और १५ अध्याय हैं। अन्तमें गुरुपरम्परा तो पायी जाती है, पर रचना-काल निर्दिष्ट नहीं है। मिथ्यात्व और सम्यक्त्वका अन्तर, सप्ततत्व, अष्टमूलगुण, द्वादशव्रत और उनके अतिचार, सामायिकादि षट् आवश्यक, दान, पूजा, उपवास एवं १२ भावनाओंका सविस्तृत वर्णन आया है। अन्तिम अध्यायमें ध्यानका वर्णन ११४ पद्योमें किया गया है। ध्यान, ध्याता, ध्येय और ध्यान-फल- इन चारों का विस्तृत वर्णन किया गया है।
४. आराधना
शिवार्यकृत प्राकृत आराधनाका यह संस्कृत रूपान्तर है। कविने इस रूपान्तरको चार महीने में पूर्ण किया है । इसमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों आराधनाओंका प्राकुत आराधनाके समान ही वर्णन किया है। प्रसंगवश जैनधर्मके प्रायः समस्त प्रमेय इसमें समाविष्ट हैं। प्रशस्तिमें देवसेनसे लेकर अमितगति तककी गरुपरम्परा भी दी गयी है।
५. भावना द्वात्रिंशतिका
३२ पद्योंका यह छोटा-सा प्रकरण है। संसारके पदार्थोसे पृथक् अनुभवकर आत्मशुद्धिकी भावना व्यक्त की गयी है। हृदयको पवित्र बनानेके लिए यह एक अच्छा काव्य है। इसके पढ़नेसे पवित्र और उच्च भावनाओंका सञ्चार होता है। प्रारम्भमें ही प्राणी-मात्रके साथ मैत्रीकी भावना प्रकट करते हुए लिखा है-
सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्।
माध्यस्थ्यभाव विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव॥
कविने इसमें परपदार्थोंसे भिन्न आत्मानुभूति करते हुए अपने द्वारा किये गये मिथ्याचरणकी निन्दा की है। प्रत्येक जीवात्मा प्रमाद और कषायके योगसे नाना प्रकारके कदाचारका सेवन करता है। इतस्तत: भ्रमण करनेवाले एक इन्द्रियादि जीवोंकी विराधना करता है और द्वीन्द्रियादि त्रसजीवोंको भी कष्ट पहुंचाता है। इसके लिए उसे अपनी निन्दा आदिके द्वारा प्रायश्चित्त करना चाहिए।
कविने आराध्य देवकी बड़े ही सुन्दररूपमें स्तुति की है। यह आराध्य वीतरागी, हितोपदेशी और सर्वज्ञ ही हो सकता है। कवि उसकी स्तुति करता हुआ कहता है-
यः स्मर्यते सर्वमुनीन्द्रबृन्दर्यः स्तूयते सर्वनरामरेन्द्रै:।
यो गीयते वेदपुराणशास्त्र: स देवदेवी हृदये ममास्ताम्।।
यो दर्शनज्ञान रामाय सनस्ताविकारबाह्यः।
समाधिगम्य: परमात्मसंज्ञः स देवदेवो हृदये ममास्ताम्।।
निषूदते यो भवदुःखजालं निरीक्षते यो जगदन्तराल।
योऽन्तर्गतो योगिनिरीक्षणीयः स देवदेवो हृदये ममास्ताम्।।
विमुक्तीमार्गप्रतिपादको यो यो जन्ममृत्युव्यसनाधतीतः।
त्रिलोकलोकी विकलोऽकलङ्कः स देवदेवो हृदयं ममास्ताम्।।
क्रोडीकूताशेषशरीरिवर्गा रागादयो यस्य न सन्ति दोषाः।
निरिन्द्रियो ज्ञानमयोऽनपायः स देवदेवो हृदये ममास्ताम्॥
यो व्यापको विश्वजनीनवृत्तः सिद्धो विबुद्धो धुतकर्मबन्धः।
ध्यातो धुनीते सकलं विकारं स देवदेवो हृदये ममास्ताम्।।
यह छोटा-सा ग्रन्थ अत्यन्त सरस और हृदयको पावन करनेवाला है। परमात्माका स्वरूप इसमें निर्धारित किया गया है और उसी परमात्माकी स्तुति की गयी है।
६. पञ्चसंग्रह (संस्कृत)
यह पञ्चसंग्रह प्राकृतपञ्चसंग्रहके समान पाँच प्रकरणोंमें विभक्त है। जीवसमास, प्रकृतिस्तव, कर्मबन्धस्तव, शतक और सप्तति। प्रथम प्रकरणमें ३५३ पद्य, द्वितीयमें ४८, तृतीयमें १०६, चतुर्थ में ७७८ और पञ्चममें ९० पद्य हैं। कुल पद्योंकी संख्या १३७५ है। प्राकृतपंचसंग्रह के समान संस्कृतपंचसंग्रहमें भी पद्यों के साथ गद्य भी प्रयुक्त मिलता है। यह प्राकृतपंचसंग्रहका रूपान्तर होनेपर भी कई दृष्टियोंसे विशिष्ट है। जहाँ प्राकृतमें दो गाथाओंमें बात कही गयी है, वहां संस्कृतपंचसंग्रहमें एक ही पद्योंमे उसी तथ्यमें सन्निविष्ट कर दिया गया है और जहाँ एक पद्यमें तथ्य कहा गया है उसे दो या अधिक पद्यों में भी कहा गया है। अमितगतिकी यह रचना अत्यन्त सरल और मधुर है। कहीं-कहीं अन्य ग्रन्थोंसे आधार ग्रहणकर नये पद्य भी लिखे गये हैं। अत: प्राकृतपंचसंग्रहकी अपेक्षा यह संस्कृत पंचसंग्रह किन्हीं रूपोंमें विशिष्ट है। प्राकृतपंचसंग्रहके प्रथम प्रकरणमें वेदमार्गणाके अन्तर्गत द्रव्यवेद और भाववेदकी अपेक्षासे जीवोंकी सदृशता और विसदृशताका वर्णन करनेवाली दो गाथाएँ आयी हैं। इनके स्थानपर अमितगतिने संस्कृतपद्यसंग्रहमें एक ही पद्य रचा है। यथा-
प्राकृतपंचसंग्रह
तिव्वेद एवं सव्वे वि जीवा दिठ्टा हु दव्वभावादो।
ते चेव हु विवरीया संभवति जहाकम सव्वे ।।१०२।।
इत्थी पुरसि णउंसय वेया खलु दव्व-भावदो होति।
ते चेव य विवरीया हवंति सव्वे जहाकमसो॥१०४।।
संस्कृतपंचसंग्रह
स्त्रीपुन्नपुंसका जीवाः सदृशाः द्रव्य-भावतः।
जायन्ते विसदृक्षाश्च कर्मपाकनियन्त्रिताः॥१९२॥
प्राकृतपंचसंग्रह
छद्दव्व-णवपयत्थे दव्वाइचउव्विहेण जाणते।
बंदित्ता अरहंते जीवस्स परूवणं वोच्छ।।१॥
संस्कृतपंचसंग्रह
ये षट् द्रव्याणि बुध्यते द्रव्यक्षेत्रादिभेदतः।
जिनेशास्तास्त्रिया नत्वा करिष्ये जीवरूपणम्।। ३ ।।
प्राकृतपंचसंग्रह
गुण जीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य।
उवओगो वि य कमसो वीसं तु परूवणा भणिया || २ ।।
संस्कृतपंचसंग्रह
विज्ञातव्या गुणा जीवा: प्राणपर्याप्तिमार्गणाः।
उपयोगा बुधैः संज्ञा विशतिर्जीवरूपणाः।। ११ ।।
प्राकृतपंचसंग्रह
जेहि दु लक्खिज्जते उदयादिसु संभवेहि भावेहिं।
जीवा ते गुणसपणा णिहिट्ठा सव्वदरिसीहिं॥ ३ ।।
संस्कृतगंससंग्रह
जीवा पैरवबुध्यन्ते भावैरौदयिकादिभिः।
गुणागुणस्वरूपज्ञैरत्र ते गदिता गुणाः॥ १२ ।।
अमितगतिके पञ्चसंग्रहका वैशिष्टय
प्राकृतपंचसंग्रहकी अपेक्षा संस्कृतपञ्चसंग्रहमें कई विशेषताएं हैं। इन विशेषताओंको हम निम्नलिखित वर्गोंमें विभक्त कर सकते हैं-
१. संक्षेपीकरण,
२. पल्लवन,
३. विषयोंका प्रकारान्तरसे संयोजन।
उपर्युक्त विशेषताओंके स्पष्टीकरणके लिए प्राकृतमंचसंग्रहके साथ तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित है।
जीवसमास नामक प्रथम प्रकरणमें चौदह गुणस्थानों और सिद्धोंका कथन करने के बाद किस गुणस्थानमें कौन भाव होता है, इसका विवेधव किया है। अनन्तर चौदह गुणस्थानों में रहनेवाले जीवोंको संख्याका निरुपण आया है। यह कथन गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ११-१४ तथा ६२२-६३ में किया गया है। संस्कृत पंचसंग्रहमें इससे भी कुछ विशेष कथन आया है। अमितगतिने जीवट्ठाणके द्रव्यप्रमाणानुगमकी घवलाटीकासे उक्त विषय ग्रहण किया गया है। इसी प्रकार योगनिरूपणके अन्तमें पद्य १८१-१८५ तक विग्रहगति आदिमें शरीरोंका कथन आया है। यह कथन प्राकृतपञ्चसंग्रहकी अपेक्षा विशिष्ट है। इसी तरह वेदमार्गणाके कथनके अन्तमें पद्य १९३-२०२ मे वेद वैषम्यके नवभंगोंका विवेचन तथा स्त्रीवेद आदिके चिन्हों का कथन भी प्राकृत पंचसंग्रहको अपेक्षा विशिष्ट है। ज्ञानमार्गणांके निरूपणमें भी कई विशेषताएँ आयी हैं। इन सन्दर्भोंमें प्राकृतपंचसंग्रहका आधार न ग्रहणकर तत्वार्थवार्तिकका आधार ग्रहण किया गया है। मतिज्ञानके २८८, ३३६ और ३८४ भेद आये हैं तथा श्रृंतपूर्वक श्रुतका भी समर्थन किया गया है। अवधिज्ञानके लक्षणों और चिह्नोंका कथन तत्वार्थवार्त्तिकके अनुसार आया है।
प्राकृतपंचसंग्रहमें लेश्याका कथन प्रथम प्रकरणमें दो स्थलोंपर आया है, पर संस्कृतपञ्चसंग्रहमें अमितगतिने इसे एक ही स्थानपर निबद्ध कर दिया है।
रूपान्तरोंमें भी मौलिकताका कई जगह समावेश किया है। यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है-
भव्वो पंचिदिओ सण्णी जीवो पज्जत्तओ तहा।
काललद्धाइ-संजुत्तो सम्मत्त पडिवज्जए।।१।१५८।।
अमितगतिने इसका रूपान्तर निम्न प्रकार किया है-
पूर्णपंचेन्द्रियः संनी लब्धकालादिलब्धिकः।
सम्यक्त्वग्रहणे योग्यो भव्यो भवति शुद्धधीः।। २८६ ।।
अर्थात् संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव कालादिलब्धिकी प्राप्ति होनेपर सम्यक्त्व ग्रहण करने योग्य होता है। अमितगतिने यहाँ लब्धियोंका वर्णन भी विस्तारपूर्वक किया है और तत्त्वार्थवार्तिकके नवम अध्यायके प्रथम सूत्रसे बहुत-सा गद्यांश ज्यों-का-त्यों ले लिया है। सम्यक्त्वके भेद-प्रभेदोंका विवेचन भी विस्तारपूर्वक किया गया है, जो प्राकृतपंचसंग्रह में प्राप्त नहीं है। इसी सन्दर्भमें मिथ्यात्वका कथन करते हुए ३६३ मतोंकी उत्पत्ति दी गयी है, जो कर्मकाण्डके अनुरूप है। प्रथम अध्यायके अधिक अन्न अभावों में भी यतः शिष्टय दृष्टि गोचर होता है। चतुर्थ अध्यागमें ९वे गुणस्थान में होनेवाले प्रत्ययोंका कथन प्राकृतपंचसंग्रह में आया है। यथा-
संजलण-तिवेदाणं णवजोमाणं च होइ एयदरं।
संदणदुवेदाणं एयदरं पुरिसवेदो य १।४।२०१॥ - ज्ञानपीठ संस्करण
अर्थात् नवें गुणस्थानके सवेद भागमें चार संज्वलन कषायमेसे एक, तीन वेदों में से एक और नौ वेदोंमेसे एक होता है। नपुसंकवेदकी उदयव्युच्छित्ति हो जानेपर दो वेदोंमें से एक वेदका उदय होता है और स्त्रीवेदकी उदयच्छित्ति हो जानेपर एक पुरुषवेदका उदय होता है। अत: ४×३×९ = १०८, ४×२×९ = ७२ और ४×१×९ = ३६ भंग होते हैं और कुल भंग १०८ + ७२ + ३६ = २१६ ये भंग सवेद भागके हुए। अवेदभागमें भंगोंका क्रम निम्न प्रकार है-
चदुसंजलणणवण्हं जोगाणं होइ एयदर दो ते।
कोहूणमाणवज्ज मायारहियाण एगदरग वा ॥४॥२०२।। -ज्ञानपीठ संस्करण
अर्थात् अवेदभागमें चार स्वंजलन कषायोंमेंसे एकका, तथा नौ योगोंमेंसे एकका उदय होता है। क्रोधकी उदयव्युच्छिप्ति हो जाने पर तीन कषायोंमेंसे एकका उदय होता है। मानकी व्युच्छित्ति हो जानेपर दो कषायोमेसे एकका उदय और मायाकी व्युच्छित्ति हो जानेपर केवल लोभ कषायका उदय होता है। नौ योगोंमेंसे एक योगका उदय सर्वत्र रहता है। अत्तएव ४×१×९ = ३६, ३×१×९ = २७, २×१×५ = १८ और १×१×९ = ९ इस प्रकार ३९८ अवेदभागके कुल भंग ३६ + २७ + १८+ ९ = ९०। सवेद और अवेद भागके कुल भंग २१६ + ९० = ३०६।
अमितगतिने संस्कृतपञ्चमंग्रह में नवें गणस्थानके अवेद भागमें चार कषाय और २ योगोंमेंसे एक-एकके उदयकी अपेक्षा ४×९ = ३६ भंग बताये हैं-
जघन्यो प्रत्ययौ जयौ द्वारवेदानिवृत्तिके।
संज्वालेषु चतुष्वेकी योगाना नवेक परः||४।६६||
१×१ भंग =४।९ अन्योन्याभ्यस्त करनेपर ४×३×९ = १०८ सवेद भाग। यहाँ ४ कषाय, ३ वेद और ९ योगोंमेसे एक-एक योगका उदय होता है। अवेद भागमें-
कषायवेदयोगानामैकैकग्रहणे सति।
अनिवृत्ते: सदस्य प्रकृष्टाः प्रत्ययास्त्रयः ||४/६७||
४/३/९, अन्योन्याभ्यस्त करनेपर १०८ होते हैं।
इस प्रकार अनिबृत्तिकरण गुणस्थानके सवेदभाग और अवेदभागमें १४४ भंग योगकी अपेक्षा मोहनीयके उदयस्थान बतलाये गये हैं। प्राकृतपंचसंग्रहमें भी इतने ही भंग लिये हैं। गोम्मटसार कर्मकाण्डमें भी १४४ ही भंगसंख्या आयी है। यही कारण है कि अमितगतिने सर्वसम्मत १४४ भेदोंको ही मान्यता दी है, शेष भंगोंका उल्लेख नहीं किया।
पञ्चम अध्यायमें भी कई विशेषताएँ पायी जाती हैं। प्राकृतपंचसंग्रहमें मनुष्यगतिमें नामकर्मके २६०९ भंग बतलाये हैं, पर संस्कृत पत्रसंग्रहमें २६६८ भंग आये हैं। यहाँ २६०९ भंगोंमें सयोगकेवलीके ५९ भंग और जोड़े गये हैं। इसप्रकारके जोड़नेकी प्रक्रिया प्राकृतपंचसंग्रहमें नहीं मिलती है।
प्राकृतपंचसंग्रह और संस्कृतपञ्चसंग्रहमें योगकी अपेक्षा गृगस्थानोंमें मोहनीयकर्मके उदयस्थानोंके भग १३२०९ बतलाये हैं और कर्म-काण्डमें छठे १२९५३ भंग आये हैं। इस अन्तरका कारण यह है कि कर्मकाण्डमें छठे गुणस्थानमें आहारकका उदय स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके उदय में नहीं माना गया है। अत: छठे गुणस्थानमें पञ्चसंग्रहकी अपेक्षा २११२ भंग होते हैं और कर्मकाण्ड की अपेक्षा १८५६ भंग होते हैं। इस प्रकार २५६ भंगका अन्तर पड़ता है। यहाँ यह स्मरणीय है कि अमितगतिने प्रथम अध्यायके ३४३वे पद्य द्वारा इस बातको स्वीकार किया है कि आहारक ऋद्धि, परिहार विशुद्धि, तीर्थंकरप्रकृतिका उदय और मनःपर्ययज्ञान ये स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके उदयमें नहीं होते।
प्रथम प्रकरण जीवसमास है। इसमें गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संजा, चौदह मार्गणा और उपयोग इन २० प्ररूपणाओं द्वारा जीवोंकी विविध दशाओंका वर्णन किया गया है।
मोह और योगके निमित्तसे होनेवाले जीवोंके परिणामोंके तारतम्यरूप क्रमविकसित स्थानों-भावोंको गुणस्थान कहा है। गुणस्थान १४ है- मिथ्यात्व, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व, अविरतसम्यक्ल, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्त विरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली। प्रथम प्रकरणके प्रारम्भमें ही इन गुणस्थानों का स्वरूप विवेचन किया गया है।
दुसरी प्ररूपणा जीवसमास है। जिन धर्मविशेषोंके द्वारा नाना जीव और नाना प्रकारकी उनकी जातियां जानी जाती हैं, उन धर्मविशेषोंको जीवसमास कहते हैं। जीवसमासके संक्षेपकी अपेक्षा १४ मेद हैं और विस्तारकी अपेक्षा २१, ३०, ३२, ३६, ३८, ४८, ५४ और ५७ मेद हैं। प्रथम प्रकरणमें इन समस्त भेदोंका विस्तारपूर्वक विवेचन आया है।
तीसरी पर्यातिप्रारूपणा है। प्राणोंके कारणभूत शक्तिकी प्राप्तिको पर्याप्सि कहते हैं। पर्याप्सियाँ छह है- आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छवासपर्याति, भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति। एकेन्द्रिय जीवके प्रारम्भकी चार पर्याप्तियाँ, द्धीइन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रियपर्यन्त पाँच पर्याप्तियाँ और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवको छह पर्याप्तियां होती हैं।
चौथी प्राणप्ररूपणा है। पर्याप्तियोंके कार्यरूप, इन्द्रियादिकके उत्पन्न होनेको प्राण कहते हैं। प्राणोंके दश भेद हैं- पांच इन्द्रियाँ, मनोबल, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छवास। एकेन्द्रिय जीवके स्पर्शन इन्द्रिय, कायवल, आयु और श्वासोच्छवास ये चार प्राण होते हैं। द्वीन्द्रियजीवके रसनेन्द्रिय और वचनबल इन दो प्राणोंके अधिक होनेसे छह प्राण होते हैं। त्रीन्द्रियजीवके घ्राणेन्द्रिय बसनेसे सात प्राण, चतुरिन्द्रियजीवके चक्षु इन्द्रिय बढ़नेसे आठ प्राण, असंज्ञी पंचेन्द्रियजीवके कर्णन्द्रिय बढ़नेसे ९ प्राण और संज्ञी पचेन्द्रियजीवके मनोबल बढ़नेसे दश प्राण होते हैं।
पांचवीं संज्ञाप्ररूपणा है। आहारादिकी वाच्छाको संज्ञा कहते हैं। संज्ञा के चार भेद हैं- आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा। चारों संज्ञाएँ सभी संसारी जीवोंमें पायी जाती हैं।
जिन अवस्थाविशेषोंमें जीवोंका अन्वेषण किया जाता है, उन्हें मार्गणा कहते हैं। मार्गणाओंके चौदह भेद है- गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संजी और आहारमार्गणा। प्रथम प्रकरणमें इन १४ मार्गणाओंका विस्तारके साथ वर्णन किया गया है।
२० वी उपयोगप्ररूपणा है। वस्तुके स्वरूपको जाननेके लिए जीवका जो भाव प्रवृत्त होता है, उसे उपयोग कहते हैं। उपयोग दो प्रकारका होता है साकारोपयोग और निराकारोपयोग। निराकारोपयोगके चार भेद हैं।
इस प्रकार प्रथम जीवसमासप्रकरणमें २० प्ररूपणाओं द्वारा जीवोंकी विविध दशाओंका विस्तारके साथ वर्णन किया है।
दूसरा प्रकरण प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामका है। इसमें कर्मोंकी मूलप्रकृतियों और उत्तरप्रकृतियोंका वर्णन किया गया है। मूलप्रकृतियाँ आठ है- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। इनकी उत्तर प्रकृतियाँ क्रमशः पांच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, तिरानवे, दो और पाँच हैं। सब उत्तरप्रकृत्तियाँ १४८ होती हैं। इनमें से बन्धयोग्य १२० प्रकृतियाँ, उदययोग्य १२२ प्रकृतियां, उद्वेलन ११ प्रकृतियाँ, ध्रुवबन्धी ४७, अध्रुवबन्धी ११, वर्तमान प्रकृतियाँ एवं सत्त्वयोग्य १४८ प्रकृतियां हैं। पञ्चसंग्रहके पांचों प्रकरणोंमें यह सबसे छोटा प्रकरण है।
कर्मस्तव नामका तीसरा प्रकरण है। इसके अन्य नामान्तर बन्धस्तव और कही कर्मबन्धस्तव भी है। इस प्रकरणमें १४ गुणस्थानोंमें बंधनेवाली, नहीं बंधने वाली और बन्धव्युमिछत्तिको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियोंका तथा सत्वयोग्य, असत्वयोग्य और सत्वसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंका विवेचन किया गया है। अन्तमें चूलिकाके अन्तर्गत नौ प्रश्नोंको उठाकर उनका समाधान करते हुए बतलाया गया है कि किन प्रकृतियोंकी बन्धन्युच्छित्ति, उदयव्युच्छित्ति और सत्वव्युच्छित्ति पहिले, पीछे या साथमें होती है। इस नौ प्रश्नरूप चलिकामें कर्मप्रकृतियोंके बन्ध, उदय और सत्वव्युच्छित्ति सम्बन्धी कितनी ही ज्ञातव्य बातें बतलाई गयी हैं।
चौथे प्रकरण का नाम शतक है। इस प्रकरण में १४ मार्गणाओंके आधारसे जीवसमास, गुणस्थान, उपयोग और योगका वर्णन करनेके अनन्तर कर्मबन्धके कारणभत मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग बन्धप्रत्ययोंका विस्तार से वर्णन किया है। साथ ही मिथ्यात्व आदि गुणस्थानोंमें जघन्य और उत्कृष्ट प्रत्ययोंकी अपेक्षा सम्भव संयोगी भंगोंका विस्तृत विवेचन किया है। तत्पश्चात् खानावरणादि आठ कर्मोके विशेष बन्धप्रत्ययोंका वर्णन किया गया है।
पञ्चम प्रकरणका नाम सप्तति या सप्ततिका है। इसे सित्तरी भी कहते हैं। इस प्रकरणमें मूल कर्मों और उनके अवान्तर भेदोंके बन्धस्थान, उदयस्थान और स्तवस्थानोंका स्वतन्त्र रूपसे एवं चौदह जीवसमास और गुणस्थानोंके आश्रयसे भंगोंका विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। अन्तमें कार्मोंकी उपशमना और क्षमा विवेचन बाधा है। शतक और सप्ततिका इन दोनों ही प्रकरणोंमें भंगोंका विवेचन करनेवाले पद्य प्राकृतपंचसंग्रहके तुल्य ही हैं। कर्मसिद्धान्तको अवगत करनेके लिये यह एक अच्छा साधनग्रन्थ है।
उपर्युक्त ग्रंथोंके अतिरिक लघु एवं बृहत सामायिक पाठ, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सार्द्धद्वयद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति ग्रन्थ मी इनके द्वारा रचे गये माने जाते हैं। सामायिकपाठमें १२० पद्य हैं। इसमें सामायिकका स्वरूप, विधि और महत्व प्रतिपादित किया गया है। शेष चार ग्रंथ अभी तक उपलब्ध नहीं हैं।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
#amitgatijimaharajdwitiya
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री अमितगति द्वितीया (प्राचीन)
आचार्य अमितगति द्वितीय भी प्रथितयश सारस्वताचार्य है। ये माथुर संघके आचार्य थे। दर्शनसारके कर्ता देवसेनने अपने 'दर्शनसार' में माथुर संघको जैनाभासोंमें परिगणित किया है। इसे नि:पिच्छिक भी कहा गया है, क्योंकि इस संघके मुनि मयूरपिच्छि नहीं रखते थे। यह संघ काष्ठासंघको एक शाखा है। इस संघकी उत्पत्ति वीरसेनके शिष्य कुमारसेन द्वारा हुई है।
अमित्तगति द्वितीयने अपनी धर्मपरीक्षामें, जो प्रशस्ति अंकित की है, उससे इनकी गुरुपरम्परापर प्रकाश पड़ता है-
वीरसेन, इनके शिष्य देवसेन, देवसेनके शिष्य अमितगति प्रथम, इनके शिष्य नेमिषेण, नेमिषेणके शिष्य माधवसेन और माधवसेनके शिष्य अमितगति हए। अमितगतिकी शिष्यपरम्पराका परिज्ञान अमरकीर्तिके 'छक्कम्मोवएस’ से भी होता है। इस ग्रंथके अनुसार अमितगति, शान्तिषेण, अमरसेन, श्रीसेन, चन्द्रकीर्ति और चन्द्रकीर्तिके शिष्य अमरकोर्ति हुए हैं। इनकी गुरु-शिष्य परम्परा निम्न प्रकार ज्ञातव्य है-
(अमितति द्वितीयकी धर्मपरीक्षानुसार)
वीरसेन
↓
देवसेन
↓
योगसारप्राभृतकार अमितगति (प्रथम)
↓
नेनिषेण
↓
माधवसेन
↓
धर्मपरीक्षादिकार अमितगति (द्वितीय)
↓
(अमरकीर्तिके 'छक्कम्भावएस’ के अनुसार)
शान्तिषेण
↓
अमरसेन
↓
श्रीसेन
↓
चन्द्रकीर्ति
↓
'छक्कम्मोबएस' के कर्ता अमरकीर्ति
श्री पण्डित विश्वेश्वरनाथ रेउने अमितगति द्वितीयको वाकपतिराज मुज्जकी सभाके एक रत्नके रूपमें स्वीकार किया है।
अमितगति बहश्रुत थे। उन्होंने विविध विषयोंपर ग्रन्थोंका निर्माण किया है। काव्य, न्याय, व्याकरण, अचारप्रभृति अनेक विषयोंके विद्वान थे। इन्होंने पञ्चसंग्रहकी रचना मसूतिकापुरमें की थी। यह स्थान घारसे सात कोस दूर मसीदकिलौदा नामक गाँव बताया जाता है।
श्री विश्वेश्वरनाथ रेउने लिखा है- ''अमितगतिने विक्रम सं. १०५० (ई. सन् ९९३ में राजा मुंजके राज्यकालमें सुभाषितरत्नसंदोहनामक ग्रन्थ बनाया और वि. सं. १०७० (ई. १०१३) में धर्मपरीक्षानामक ग्रन्थकी रचना की। इनके गुरुका माम माधवसेन था"।
'सुभाषितरत्नसंदोह' को प्रशस्तिमें रचनाकालका निर्देश निम्न प्रकार है- "समारूढे पूतत्रिदशवसर्ति विक्रमनृपे सहस्र वर्षाणां प्रभवति हि पंचाशदधिके। समाप्ते पंचभ्यामवत्ति धरणों मुंजनृपतौसितै पक्षे पौषे बुधहितमिदं शास्त्रमनघम्।।"
अर्थात् वि. सं. १०५० पौष शुक्ला पञ्चमीको मुंज राजाके राज्यकालमें यह निर्दोष शास्त्र पूर्ण हुआ।
धर्मपरीक्षाका रचना-काल वि. सं. १०७० और संस्कृतपञ्चसंग्रहका वि. सं. १०७३ है। पंचसंग्रहको प्रशस्तिमें लिखा है-
त्रिसप्तत्याधिकेऽम्दानां सहस्र शकविद्विषः।
मसूतिकापुरे जातमिदं शास्त्रं मनारमम्॥
अर्थात् वि. सं. १०७३ में, जबकि मुंजके राज्यपट्टपर भोज आसीन हुआ, यह ग्रन्थ लिखा गया। अतएव स्पष्ट है कि अमितगतिका समय वि. सं. की ११वीं शताब्दि है।
अमितगतिकी अनेक रचनाएँ मानी जाती हैं। पर जिन्हें निर्विवादरूपसे अमितगतिकी रचना माना गया है उनके नाम निम्नलिखित है-
१. सुभाषितरत्नसंदोह
२. धर्मपरीक्षा
३. उपासकाचार
४. पञ्चसंग्रह
५. आराधना
६. भावनाद्वात्रिशतिका
७. चन्द्र-प्रज्ञप्ति
८. सार्द्धद्धयद्वीप-प्रज्ञप्ति
९. व्याख्या-प्रज्ञप्ति
१. सुभाषितरत्नसंदोह
सुभाषितरत्नसंदोह काव्यमें सुभाषितरूपी रत्नोंका भण्डार निबद्ध है। इसमें ९२२ पद्य हैं। कविने सांसारिक विषयविरासर: लार गाहमार. निराकरण, इन्द्रिय-निग्रहोपदेश, स्त्री-गुण-दोष, कोप-लोभ-निराकरण, सदसदस्वरूपनिरूपण, ज्ञाननिरूपण, चारित्रनिरूपण, जातिनिरूपण, जरा-निरूपण, मृत्यु-सामान्यनित्यता-देव-जठर-जीव-सम्बोधन-दुर्जन-सज्जन दान-मद्यनिषेध-मांसनिषेध-मधुनिषेध - कानिषेध - वेश्यासंग-कृत-आत्मस्वरूप गुरुस्वरूप-धर्म-शोक-शौच-श्रादकधर्म और द्वादशविध तपश्चरण इस प्रकार बत्तीस विषयोंका प्रतिपादन किया है।
कविने अपने सुभाषितोंका उद्देश्य बतलाते हुए लिखा है-
जनयति मुदमन्तर्भव्यपाथोरुहाणा, हरति तिमिरराशि या प्रभा मानवीन।
कृतनिखिलपदार्थद्योतना भारतीद्धा वितरतु युतदोषा सोऽहंति भारती वः।।
अर्थात जिस प्रकार सूर्यकी किरणें अन्धकारका नाश कर समस्त पदार्थोको प्रकाशित करती हैं और कमलोंको विकसित करती हैं, उसी प्रकार ये सुभाषित चेतन-अचेतनविषयक अज्ञानको दूर कर भक्तोंके-सहृदयों के चित्तको प्रसन्न करते हैं।
कविने उत्प्रेक्षाद्वारा वृद्धावस्थाका कितना सजीव और साङ्गोपाङ्ग चित्रण किया है काव्य कलाकी दष्टिसे यह चित्रण रमणीय है-
प्रबलपवनापातध्वस्तप्रदीपशिखोपमे-
रलमलनिचयेः कामोद्भुतैः सुखैविषसंनिभैः।
समपरिचितैर्दु:खप्राप्तैः संतामतिनिन्दितै-
रिति कृतमनाः शङ्ख वृद्धः प्रकम्पयते करौ॥
अर्थात् वृद्धावस्थामें जो हाथ कांपते हैं, वे यह प्रकट करते हैं कि युवावस्थामें जो कामजन्य सुख भोगे थे वे विषतुल्य हानिकारक सिद्ध हुए। औधीके वेगसे शान्त की गयी दीपककी लौंके समान क्षण- विध्वंसी और अत्यन्त दुःखकारक इन विषयभोगोंकी सज्जनोंने पहले निन्दा की थी, वह निन्दा, निन्दा नहीं है, यथार्थ है।
उक्त पद्यमें हाथोंके कांपनेपर कवि द्वारा की गयी कल्पना सहृदयोंको अपनी ओर आकृष्ट करती है। उक्ति-वैचित्र्य भी यहाँ निहित है।
मदिराकी उपमा देकर वृद्धावस्थाका जीवन्त चित्रण किया है। यह उपमा श्लेषमूलक है। विशेषण जरा और मदिरा दोनों पक्षोंमें समानरूपसेघटित होते हैं। यथा-
चलयति तनु दृष्टे कोधि शरीरेण;
रचयति बलादव्यक्तोकि तनोति गतिक्षितिम्।
जनयति जनेनुद्या निन्दामनथपरम्परा
हरति सुरभिगन्धं देहाज्जरा मदिरा यथा।।
जिस प्रकार मदिरा-पान शरीरको अस्त-व्यस्त कर देता है, आँखें घूमने लगती हैं, मुंहसे अस्फुट वचन निकलते हैं, चलनेमें बाधा होती है, लोगोंमें निन्दाका पात्र बन जाता है एवं शरीरसे दुर्गन्धि निकलती है- उसी प्रकार वृद्धावस्था शरीरको कंपा देतो है, नेत्रोंकी ज्योति घट जाती है, दांत टूट जानेसे मुंहसे अस्फुट ध्वनि निकलती है, चलने में कष्ट होता है, शरीरसे दुर्गन्धि निकलती और नाना प्रकारकी अवहेलना होनेसे निन्दा होती है। इस प्रकार कविने मदिरा पानकी स्थितिसे वृद्धावस्थाकी तुलना की है।
इस सुभाषित काव्यमें नारीकी सर्वत्र प्रशंसा की गयी है। कवि नारीको श्रेष्ठरत्नका रूपक देकर उसके गुणोंका उद्घाटन करता हुआ कहता है-
यत्कामार्ति धुनीते सुखमुमचिनुते प्रीतिमाविष्करोति
सत्पात्राहारदानप्रभववरवषस्यास्तदोषस्य हेतुः।
वंशाभ्युद्धारकर्तुभवति तनुभुवः कारणं कान्तकीर्ति
स्तत्सर्वाभीष्टदात्री प्रवदत्त न कथं प्राथ्यंते स्त्रीसुरत्नम्।।
अर्थात् स्त्री वासना शान्त करती है, परम सुख देती है, अपना प्रेम प्रकट करती है, सत्पात्रको आहारदान देने में सहायता करती है, वंशोद्धार करनेवाले पुत्रको जन्म देती है। नारी-श्रेष्ठ रत्न समस्त मनोरथोंको पूर्ण करने में समर्थ है। कवि कहता है कि स्वल्पज्ञानी बकुल और अशोक वृक्ष जब नारीका सम्मान करते हैं उसके सानिध्यसे प्रसन्न हो जाते हैं, तब मनुष्यकी बात ही क्या। जो पुरुष नारीका परित्याग कर देता है, वह जड़ वृक्षोसे मी हीन है, विवेक-शून्य है।
कारणमालालङ्कारकी योजना करते हुए ज्ञानका महत्त्व प्रदर्शित किया है-
ज्ञानं विना नास्त्यहितान्निवृत्तिस्ततः प्रवृत्तिनं हिते जनानाम्।
ततो न पूर्वाजितकर्मनाशस्ततो न सौख्यं लभतेऽप्यमीष्टम्॥
अर्थात् ज्ञानके बिना मनुष्यकी अहितसे निवृत्ति नहीं होती है और अहितको निवृत्ति न होनेसे हितकार्यमें प्रवृत्ति नहीं होती। हितकार्य में प्रवृत्ति न होनेसे पूर्वोपाजित कर्मोंका नाश नहीं होता और पूर्वोपार्जित कर्मके नाश न होनेसे अभीष्ट मोक्ष-सुख नहीं मिलता। कषायका सद्भाव ही चरित्रका असद् भाव है। कषायकी जितने रूपमें कमी होने लगती है उतने ही रूपमें चरित्रका विकास होने लगता है। कविने संसार, कषाय और चरित्र इन तीनोंको व्याख्या बड़े ही सुन्दर रूपमें की है।
शोकाभिभूत व्यक्तिको अवस्थाका चित्रण करता हुवा कवि कहता है-
वितनोति वच: करुणं विमना
विधुनौति करौ च रणौ च भृशाम्।
रमते न गृहे न बने न जने
पुरुषः कुरुते न किमत्र शुचा।।
शोकके कारण व्यक्ति निर्मनस्क हो जाता है, दीन वचन बोलता है, हाथ-पैरोंको पटकता है और घर-बाहर स्वजनों एवं परिजनोंके बीच कहीं भी शान्तिलाभ प्राप्त नहीं करता। शोकके कारण मनुष्यकी स्थिति बहुत विचित्र हो जाती है। कवि द्वारा अङ्कित चित्र बहुत ही सजीव है। अतएव संसारकी यथार्थ स्थितिका चित्रण करता हुआ कवि कहता है-
स्वजनोऽज्यजनः कुरुते न सुखं न धनं न वृषो विषयो न भवेत्।
विमतः स्वहितस्य शुचा विनः स्तुतिमस्य न कोषिकरोति बुधः।।
शोकसे विह्वलचित्त पुरुष हितसे वंचित रहता है। अत: वह न तो स्वजनोंसे सुख प्राप्त करता है और न परिजनोंके सम्बन्धसे हो आनन्दित होता है, न धनसे ही किसी प्रकारकी शान्ति प्राप्त करता है और न किसी धर्म ध्यानका आचरण कर पाता है और न हन्द्रियविषयका सेवन ही कर पाता है। कवि शोक-त्यागके लिए पुन: जोर देता हुमा कहता है-
यदि रक्षणमन्यजनस्य भवेद्यदि कोऽपि करोति बुधः स्तवनं।
यदि किच्चन सौख्यमय स्वतनयार्यदि कञ्चन तस्य गुणो भवति।।
यदि वऽऽगमनं कुरुतेऽन्न मृतः सगुणं भुवि शोचनमस्य तदा।
विगुणं विमना बहु शोचति यो विगुणां स दशां लभते मनुजः।।
यदि शोक करनेसे अन्य व्यक्तिकी रक्षा हो जाय या शोक करनेवाले व्यक्तिको लोग प्रशंसा कर अथवा शोक करनेसे शरीरको सुख प्राप्त हो या शोक करनेसे मृत प्राणि जीवित हो जायं, तभी शोक करना उचित कहा जायगा। शोक करनेसे कोई भी गुण तो प्राप्त नहीं होता है बल्कि शोक करनेसे श्रेष्ठ गुणोंका विनाश हो जाता है। असएव शोक करना निरर्थक है।
इस ग्रन्थमें आध्यात्मिक आचारात्मक और नैतिक तथ्योंकी अभिव्यंजना सुभाषितों द्वारा की गयी है।
२. धर्मपरीक्षा
संस्कृत-साहित्यमें व्यंग्यप्रधान यह अपने ढंगकी अद्भुत रचना है। इसमें पौराणिक ऊटपटांग कथाओं और मान्यताओंको बड़े ही मनोरञ्जकरूपमें अविश्वसनीय सिद्ध किया है। तथ्योंकी अभिव्यञ्जनाके लिए कथानकोंका आश्रय लिया गया है। इस ग्रन्थमें निम्नलिखित मान्यताओंकी समीक्षा कथाओं द्वारा की गयी है-
१. सृष्टि-उत्पत्तिवाद
२. सृष्टि-प्रलयवाद
३. त्रिदेव-ब्रह्मा, विष्णु और महेश सम्बन्धी भ्रान्त धारणाएँ
४. अन्ध-विश्वास
५. अस्वाभाविक मान्यताएँ- अग्निका वीर्यपान, तिलोत्तमाकी उत्पत्ति
६. जातिवाद- सम्भ्रान्त जातिमें उत्पन्न होनेका अहङ्कार
७. ऋषियोंके सम्बन्धमें असम्भव और असंगत मान्यताएँ
८. अमानवीय तस्व
९. अविश्वसनीय और अबुद्धिसंगत पौराणिक उपाख्यान
यद्यपि इस ग्रन्थका आधार हरिभद्रका धूतख्यिान है, पर कविने स्वेच्छया कथावस्तुमें परिवर्तन भी किया है। संस्कृतकाव्यमें इस कोटिके व्यंग्यप्रधान काव्योंका प्राय: अभाव है। इस ग्रंथकी कथाओंकी शैली आक्रमणात्मक नहीं है, सुझावात्मक है। व्यंग्य और संकेतोंके आधारपर असम्भव एवं मनगढन्त बातोंका निराकरण किया गया है।
३. उपासकाचार
यह अमितगति-श्रावकाचारके नामसे प्रसिद्ध है। उपलब्ध श्रावकाचारोंमें यह बहुत विशद, सुगम और विस्तृत है। इसमें १३५२ पद्य और १५ अध्याय हैं। अन्तमें गुरुपरम्परा तो पायी जाती है, पर रचना-काल निर्दिष्ट नहीं है। मिथ्यात्व और सम्यक्त्वका अन्तर, सप्ततत्व, अष्टमूलगुण, द्वादशव्रत और उनके अतिचार, सामायिकादि षट् आवश्यक, दान, पूजा, उपवास एवं १२ भावनाओंका सविस्तृत वर्णन आया है। अन्तिम अध्यायमें ध्यानका वर्णन ११४ पद्योमें किया गया है। ध्यान, ध्याता, ध्येय और ध्यान-फल- इन चारों का विस्तृत वर्णन किया गया है।
४. आराधना
शिवार्यकृत प्राकृत आराधनाका यह संस्कृत रूपान्तर है। कविने इस रूपान्तरको चार महीने में पूर्ण किया है । इसमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों आराधनाओंका प्राकुत आराधनाके समान ही वर्णन किया है। प्रसंगवश जैनधर्मके प्रायः समस्त प्रमेय इसमें समाविष्ट हैं। प्रशस्तिमें देवसेनसे लेकर अमितगति तककी गरुपरम्परा भी दी गयी है।
५. भावना द्वात्रिंशतिका
३२ पद्योंका यह छोटा-सा प्रकरण है। संसारके पदार्थोसे पृथक् अनुभवकर आत्मशुद्धिकी भावना व्यक्त की गयी है। हृदयको पवित्र बनानेके लिए यह एक अच्छा काव्य है। इसके पढ़नेसे पवित्र और उच्च भावनाओंका सञ्चार होता है। प्रारम्भमें ही प्राणी-मात्रके साथ मैत्रीकी भावना प्रकट करते हुए लिखा है-
सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्।
माध्यस्थ्यभाव विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव॥
कविने इसमें परपदार्थोंसे भिन्न आत्मानुभूति करते हुए अपने द्वारा किये गये मिथ्याचरणकी निन्दा की है। प्रत्येक जीवात्मा प्रमाद और कषायके योगसे नाना प्रकारके कदाचारका सेवन करता है। इतस्तत: भ्रमण करनेवाले एक इन्द्रियादि जीवोंकी विराधना करता है और द्वीन्द्रियादि त्रसजीवोंको भी कष्ट पहुंचाता है। इसके लिए उसे अपनी निन्दा आदिके द्वारा प्रायश्चित्त करना चाहिए।
कविने आराध्य देवकी बड़े ही सुन्दररूपमें स्तुति की है। यह आराध्य वीतरागी, हितोपदेशी और सर्वज्ञ ही हो सकता है। कवि उसकी स्तुति करता हुआ कहता है-
यः स्मर्यते सर्वमुनीन्द्रबृन्दर्यः स्तूयते सर्वनरामरेन्द्रै:।
यो गीयते वेदपुराणशास्त्र: स देवदेवी हृदये ममास्ताम्।।
यो दर्शनज्ञान रामाय सनस्ताविकारबाह्यः।
समाधिगम्य: परमात्मसंज्ञः स देवदेवो हृदये ममास्ताम्।।
निषूदते यो भवदुःखजालं निरीक्षते यो जगदन्तराल।
योऽन्तर्गतो योगिनिरीक्षणीयः स देवदेवो हृदये ममास्ताम्।।
विमुक्तीमार्गप्रतिपादको यो यो जन्ममृत्युव्यसनाधतीतः।
त्रिलोकलोकी विकलोऽकलङ्कः स देवदेवो हृदयं ममास्ताम्।।
क्रोडीकूताशेषशरीरिवर्गा रागादयो यस्य न सन्ति दोषाः।
निरिन्द्रियो ज्ञानमयोऽनपायः स देवदेवो हृदये ममास्ताम्॥
यो व्यापको विश्वजनीनवृत्तः सिद्धो विबुद्धो धुतकर्मबन्धः।
ध्यातो धुनीते सकलं विकारं स देवदेवो हृदये ममास्ताम्।।
यह छोटा-सा ग्रन्थ अत्यन्त सरस और हृदयको पावन करनेवाला है। परमात्माका स्वरूप इसमें निर्धारित किया गया है और उसी परमात्माकी स्तुति की गयी है।
६. पञ्चसंग्रह (संस्कृत)
यह पञ्चसंग्रह प्राकृतपञ्चसंग्रहके समान पाँच प्रकरणोंमें विभक्त है। जीवसमास, प्रकृतिस्तव, कर्मबन्धस्तव, शतक और सप्तति। प्रथम प्रकरणमें ३५३ पद्य, द्वितीयमें ४८, तृतीयमें १०६, चतुर्थ में ७७८ और पञ्चममें ९० पद्य हैं। कुल पद्योंकी संख्या १३७५ है। प्राकृतपंचसंग्रह के समान संस्कृतपंचसंग्रहमें भी पद्यों के साथ गद्य भी प्रयुक्त मिलता है। यह प्राकृतपंचसंग्रहका रूपान्तर होनेपर भी कई दृष्टियोंसे विशिष्ट है। जहाँ प्राकृतमें दो गाथाओंमें बात कही गयी है, वहां संस्कृतपंचसंग्रहमें एक ही पद्योंमे उसी तथ्यमें सन्निविष्ट कर दिया गया है और जहाँ एक पद्यमें तथ्य कहा गया है उसे दो या अधिक पद्यों में भी कहा गया है। अमितगतिकी यह रचना अत्यन्त सरल और मधुर है। कहीं-कहीं अन्य ग्रन्थोंसे आधार ग्रहणकर नये पद्य भी लिखे गये हैं। अत: प्राकृतपंचसंग्रहकी अपेक्षा यह संस्कृत पंचसंग्रह किन्हीं रूपोंमें विशिष्ट है। प्राकृतपंचसंग्रहके प्रथम प्रकरणमें वेदमार्गणाके अन्तर्गत द्रव्यवेद और भाववेदकी अपेक्षासे जीवोंकी सदृशता और विसदृशताका वर्णन करनेवाली दो गाथाएँ आयी हैं। इनके स्थानपर अमितगतिने संस्कृतपद्यसंग्रहमें एक ही पद्य रचा है। यथा-
प्राकृतपंचसंग्रह
तिव्वेद एवं सव्वे वि जीवा दिठ्टा हु दव्वभावादो।
ते चेव हु विवरीया संभवति जहाकम सव्वे ।।१०२।।
इत्थी पुरसि णउंसय वेया खलु दव्व-भावदो होति।
ते चेव य विवरीया हवंति सव्वे जहाकमसो॥१०४।।
संस्कृतपंचसंग्रह
स्त्रीपुन्नपुंसका जीवाः सदृशाः द्रव्य-भावतः।
जायन्ते विसदृक्षाश्च कर्मपाकनियन्त्रिताः॥१९२॥
प्राकृतपंचसंग्रह
छद्दव्व-णवपयत्थे दव्वाइचउव्विहेण जाणते।
बंदित्ता अरहंते जीवस्स परूवणं वोच्छ।।१॥
संस्कृतपंचसंग्रह
ये षट् द्रव्याणि बुध्यते द्रव्यक्षेत्रादिभेदतः।
जिनेशास्तास्त्रिया नत्वा करिष्ये जीवरूपणम्।। ३ ।।
प्राकृतपंचसंग्रह
गुण जीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य।
उवओगो वि य कमसो वीसं तु परूवणा भणिया || २ ।।
संस्कृतपंचसंग्रह
विज्ञातव्या गुणा जीवा: प्राणपर्याप्तिमार्गणाः।
उपयोगा बुधैः संज्ञा विशतिर्जीवरूपणाः।। ११ ।।
प्राकृतपंचसंग्रह
जेहि दु लक्खिज्जते उदयादिसु संभवेहि भावेहिं।
जीवा ते गुणसपणा णिहिट्ठा सव्वदरिसीहिं॥ ३ ।।
संस्कृतगंससंग्रह
जीवा पैरवबुध्यन्ते भावैरौदयिकादिभिः।
गुणागुणस्वरूपज्ञैरत्र ते गदिता गुणाः॥ १२ ।।
अमितगतिके पञ्चसंग्रहका वैशिष्टय
प्राकृतपंचसंग्रहकी अपेक्षा संस्कृतपञ्चसंग्रहमें कई विशेषताएं हैं। इन विशेषताओंको हम निम्नलिखित वर्गोंमें विभक्त कर सकते हैं-
१. संक्षेपीकरण,
२. पल्लवन,
३. विषयोंका प्रकारान्तरसे संयोजन।
उपर्युक्त विशेषताओंके स्पष्टीकरणके लिए प्राकृतमंचसंग्रहके साथ तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित है।
जीवसमास नामक प्रथम प्रकरणमें चौदह गुणस्थानों और सिद्धोंका कथन करने के बाद किस गुणस्थानमें कौन भाव होता है, इसका विवेधव किया है। अनन्तर चौदह गुणस्थानों में रहनेवाले जीवोंको संख्याका निरुपण आया है। यह कथन गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ११-१४ तथा ६२२-६३ में किया गया है। संस्कृत पंचसंग्रहमें इससे भी कुछ विशेष कथन आया है। अमितगतिने जीवट्ठाणके द्रव्यप्रमाणानुगमकी घवलाटीकासे उक्त विषय ग्रहण किया गया है। इसी प्रकार योगनिरूपणके अन्तमें पद्य १८१-१८५ तक विग्रहगति आदिमें शरीरोंका कथन आया है। यह कथन प्राकृतपञ्चसंग्रहकी अपेक्षा विशिष्ट है। इसी तरह वेदमार्गणाके कथनके अन्तमें पद्य १९३-२०२ मे वेद वैषम्यके नवभंगोंका विवेचन तथा स्त्रीवेद आदिके चिन्हों का कथन भी प्राकृत पंचसंग्रहको अपेक्षा विशिष्ट है। ज्ञानमार्गणांके निरूपणमें भी कई विशेषताएँ आयी हैं। इन सन्दर्भोंमें प्राकृतपंचसंग्रहका आधार न ग्रहणकर तत्वार्थवार्तिकका आधार ग्रहण किया गया है। मतिज्ञानके २८८, ३३६ और ३८४ भेद आये हैं तथा श्रृंतपूर्वक श्रुतका भी समर्थन किया गया है। अवधिज्ञानके लक्षणों और चिह्नोंका कथन तत्वार्थवार्त्तिकके अनुसार आया है।
प्राकृतपंचसंग्रहमें लेश्याका कथन प्रथम प्रकरणमें दो स्थलोंपर आया है, पर संस्कृतपञ्चसंग्रहमें अमितगतिने इसे एक ही स्थानपर निबद्ध कर दिया है।
रूपान्तरोंमें भी मौलिकताका कई जगह समावेश किया है। यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है-
भव्वो पंचिदिओ सण्णी जीवो पज्जत्तओ तहा।
काललद्धाइ-संजुत्तो सम्मत्त पडिवज्जए।।१।१५८।।
अमितगतिने इसका रूपान्तर निम्न प्रकार किया है-
पूर्णपंचेन्द्रियः संनी लब्धकालादिलब्धिकः।
सम्यक्त्वग्रहणे योग्यो भव्यो भवति शुद्धधीः।। २८६ ।।
अर्थात् संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव कालादिलब्धिकी प्राप्ति होनेपर सम्यक्त्व ग्रहण करने योग्य होता है। अमितगतिने यहाँ लब्धियोंका वर्णन भी विस्तारपूर्वक किया है और तत्त्वार्थवार्तिकके नवम अध्यायके प्रथम सूत्रसे बहुत-सा गद्यांश ज्यों-का-त्यों ले लिया है। सम्यक्त्वके भेद-प्रभेदोंका विवेचन भी विस्तारपूर्वक किया गया है, जो प्राकृतपंचसंग्रह में प्राप्त नहीं है। इसी सन्दर्भमें मिथ्यात्वका कथन करते हुए ३६३ मतोंकी उत्पत्ति दी गयी है, जो कर्मकाण्डके अनुरूप है। प्रथम अध्यायके अधिक अन्न अभावों में भी यतः शिष्टय दृष्टि गोचर होता है। चतुर्थ अध्यागमें ९वे गुणस्थान में होनेवाले प्रत्ययोंका कथन प्राकृतपंचसंग्रह में आया है। यथा-
संजलण-तिवेदाणं णवजोमाणं च होइ एयदरं।
संदणदुवेदाणं एयदरं पुरिसवेदो य १।४।२०१॥ - ज्ञानपीठ संस्करण
अर्थात् नवें गुणस्थानके सवेद भागमें चार संज्वलन कषायमेसे एक, तीन वेदों में से एक और नौ वेदोंमेसे एक होता है। नपुसंकवेदकी उदयव्युच्छित्ति हो जानेपर दो वेदोंमें से एक वेदका उदय होता है और स्त्रीवेदकी उदयच्छित्ति हो जानेपर एक पुरुषवेदका उदय होता है। अत: ४×३×९ = १०८, ४×२×९ = ७२ और ४×१×९ = ३६ भंग होते हैं और कुल भंग १०८ + ७२ + ३६ = २१६ ये भंग सवेद भागके हुए। अवेदभागमें भंगोंका क्रम निम्न प्रकार है-
चदुसंजलणणवण्हं जोगाणं होइ एयदर दो ते।
कोहूणमाणवज्ज मायारहियाण एगदरग वा ॥४॥२०२।। -ज्ञानपीठ संस्करण
अर्थात् अवेदभागमें चार स्वंजलन कषायोंमेंसे एकका, तथा नौ योगोंमेंसे एकका उदय होता है। क्रोधकी उदयव्युच्छिप्ति हो जाने पर तीन कषायोंमेंसे एकका उदय होता है। मानकी व्युच्छित्ति हो जानेपर दो कषायोमेसे एकका उदय और मायाकी व्युच्छित्ति हो जानेपर केवल लोभ कषायका उदय होता है। नौ योगोंमेंसे एक योगका उदय सर्वत्र रहता है। अत्तएव ४×१×९ = ३६, ३×१×९ = २७, २×१×५ = १८ और १×१×९ = ९ इस प्रकार ३९८ अवेदभागके कुल भंग ३६ + २७ + १८+ ९ = ९०। सवेद और अवेद भागके कुल भंग २१६ + ९० = ३०६।
अमितगतिने संस्कृतपञ्चमंग्रह में नवें गणस्थानके अवेद भागमें चार कषाय और २ योगोंमेंसे एक-एकके उदयकी अपेक्षा ४×९ = ३६ भंग बताये हैं-
जघन्यो प्रत्ययौ जयौ द्वारवेदानिवृत्तिके।
संज्वालेषु चतुष्वेकी योगाना नवेक परः||४।६६||
१×१ भंग =४।९ अन्योन्याभ्यस्त करनेपर ४×३×९ = १०८ सवेद भाग। यहाँ ४ कषाय, ३ वेद और ९ योगोंमेसे एक-एक योगका उदय होता है। अवेद भागमें-
कषायवेदयोगानामैकैकग्रहणे सति।
अनिवृत्ते: सदस्य प्रकृष्टाः प्रत्ययास्त्रयः ||४/६७||
४/३/९, अन्योन्याभ्यस्त करनेपर १०८ होते हैं।
इस प्रकार अनिबृत्तिकरण गुणस्थानके सवेदभाग और अवेदभागमें १४४ भंग योगकी अपेक्षा मोहनीयके उदयस्थान बतलाये गये हैं। प्राकृतपंचसंग्रहमें भी इतने ही भंग लिये हैं। गोम्मटसार कर्मकाण्डमें भी १४४ ही भंगसंख्या आयी है। यही कारण है कि अमितगतिने सर्वसम्मत १४४ भेदोंको ही मान्यता दी है, शेष भंगोंका उल्लेख नहीं किया।
पञ्चम अध्यायमें भी कई विशेषताएँ पायी जाती हैं। प्राकृतपंचसंग्रहमें मनुष्यगतिमें नामकर्मके २६०९ भंग बतलाये हैं, पर संस्कृत पत्रसंग्रहमें २६६८ भंग आये हैं। यहाँ २६०९ भंगोंमें सयोगकेवलीके ५९ भंग और जोड़े गये हैं। इसप्रकारके जोड़नेकी प्रक्रिया प्राकृतपंचसंग्रहमें नहीं मिलती है।
प्राकृतपंचसंग्रह और संस्कृतपञ्चसंग्रहमें योगकी अपेक्षा गृगस्थानोंमें मोहनीयकर्मके उदयस्थानोंके भग १३२०९ बतलाये हैं और कर्म-काण्डमें छठे १२९५३ भंग आये हैं। इस अन्तरका कारण यह है कि कर्मकाण्डमें छठे गुणस्थानमें आहारकका उदय स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके उदय में नहीं माना गया है। अत: छठे गुणस्थानमें पञ्चसंग्रहकी अपेक्षा २११२ भंग होते हैं और कर्मकाण्ड की अपेक्षा १८५६ भंग होते हैं। इस प्रकार २५६ भंगका अन्तर पड़ता है। यहाँ यह स्मरणीय है कि अमितगतिने प्रथम अध्यायके ३४३वे पद्य द्वारा इस बातको स्वीकार किया है कि आहारक ऋद्धि, परिहार विशुद्धि, तीर्थंकरप्रकृतिका उदय और मनःपर्ययज्ञान ये स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके उदयमें नहीं होते।
प्रथम प्रकरण जीवसमास है। इसमें गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संजा, चौदह मार्गणा और उपयोग इन २० प्ररूपणाओं द्वारा जीवोंकी विविध दशाओंका वर्णन किया गया है।
मोह और योगके निमित्तसे होनेवाले जीवोंके परिणामोंके तारतम्यरूप क्रमविकसित स्थानों-भावोंको गुणस्थान कहा है। गुणस्थान १४ है- मिथ्यात्व, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व, अविरतसम्यक्ल, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्त विरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली। प्रथम प्रकरणके प्रारम्भमें ही इन गुणस्थानों का स्वरूप विवेचन किया गया है।
दुसरी प्ररूपणा जीवसमास है। जिन धर्मविशेषोंके द्वारा नाना जीव और नाना प्रकारकी उनकी जातियां जानी जाती हैं, उन धर्मविशेषोंको जीवसमास कहते हैं। जीवसमासके संक्षेपकी अपेक्षा १४ मेद हैं और विस्तारकी अपेक्षा २१, ३०, ३२, ३६, ३८, ४८, ५४ और ५७ मेद हैं। प्रथम प्रकरणमें इन समस्त भेदोंका विस्तारपूर्वक विवेचन आया है।
तीसरी पर्यातिप्रारूपणा है। प्राणोंके कारणभूत शक्तिकी प्राप्तिको पर्याप्सि कहते हैं। पर्याप्सियाँ छह है- आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छवासपर्याति, भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति। एकेन्द्रिय जीवके प्रारम्भकी चार पर्याप्तियाँ, द्धीइन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रियपर्यन्त पाँच पर्याप्तियाँ और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवको छह पर्याप्तियां होती हैं।
चौथी प्राणप्ररूपणा है। पर्याप्तियोंके कार्यरूप, इन्द्रियादिकके उत्पन्न होनेको प्राण कहते हैं। प्राणोंके दश भेद हैं- पांच इन्द्रियाँ, मनोबल, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छवास। एकेन्द्रिय जीवके स्पर्शन इन्द्रिय, कायवल, आयु और श्वासोच्छवास ये चार प्राण होते हैं। द्वीन्द्रियजीवके रसनेन्द्रिय और वचनबल इन दो प्राणोंके अधिक होनेसे छह प्राण होते हैं। त्रीन्द्रियजीवके घ्राणेन्द्रिय बसनेसे सात प्राण, चतुरिन्द्रियजीवके चक्षु इन्द्रिय बढ़नेसे आठ प्राण, असंज्ञी पंचेन्द्रियजीवके कर्णन्द्रिय बढ़नेसे ९ प्राण और संज्ञी पचेन्द्रियजीवके मनोबल बढ़नेसे दश प्राण होते हैं।
पांचवीं संज्ञाप्ररूपणा है। आहारादिकी वाच्छाको संज्ञा कहते हैं। संज्ञा के चार भेद हैं- आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा। चारों संज्ञाएँ सभी संसारी जीवोंमें पायी जाती हैं।
जिन अवस्थाविशेषोंमें जीवोंका अन्वेषण किया जाता है, उन्हें मार्गणा कहते हैं। मार्गणाओंके चौदह भेद है- गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संजी और आहारमार्गणा। प्रथम प्रकरणमें इन १४ मार्गणाओंका विस्तारके साथ वर्णन किया गया है।
२० वी उपयोगप्ररूपणा है। वस्तुके स्वरूपको जाननेके लिए जीवका जो भाव प्रवृत्त होता है, उसे उपयोग कहते हैं। उपयोग दो प्रकारका होता है साकारोपयोग और निराकारोपयोग। निराकारोपयोगके चार भेद हैं।
इस प्रकार प्रथम जीवसमासप्रकरणमें २० प्ररूपणाओं द्वारा जीवोंकी विविध दशाओंका विस्तारके साथ वर्णन किया है।
दूसरा प्रकरण प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामका है। इसमें कर्मोंकी मूलप्रकृतियों और उत्तरप्रकृतियोंका वर्णन किया गया है। मूलप्रकृतियाँ आठ है- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। इनकी उत्तर प्रकृतियाँ क्रमशः पांच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, तिरानवे, दो और पाँच हैं। सब उत्तरप्रकृत्तियाँ १४८ होती हैं। इनमें से बन्धयोग्य १२० प्रकृतियाँ, उदययोग्य १२२ प्रकृतियां, उद्वेलन ११ प्रकृतियाँ, ध्रुवबन्धी ४७, अध्रुवबन्धी ११, वर्तमान प्रकृतियाँ एवं सत्त्वयोग्य १४८ प्रकृतियां हैं। पञ्चसंग्रहके पांचों प्रकरणोंमें यह सबसे छोटा प्रकरण है।
कर्मस्तव नामका तीसरा प्रकरण है। इसके अन्य नामान्तर बन्धस्तव और कही कर्मबन्धस्तव भी है। इस प्रकरणमें १४ गुणस्थानोंमें बंधनेवाली, नहीं बंधने वाली और बन्धव्युमिछत्तिको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियोंका तथा सत्वयोग्य, असत्वयोग्य और सत्वसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंका विवेचन किया गया है। अन्तमें चूलिकाके अन्तर्गत नौ प्रश्नोंको उठाकर उनका समाधान करते हुए बतलाया गया है कि किन प्रकृतियोंकी बन्धन्युच्छित्ति, उदयव्युच्छित्ति और सत्वव्युच्छित्ति पहिले, पीछे या साथमें होती है। इस नौ प्रश्नरूप चलिकामें कर्मप्रकृतियोंके बन्ध, उदय और सत्वव्युच्छित्ति सम्बन्धी कितनी ही ज्ञातव्य बातें बतलाई गयी हैं।
चौथे प्रकरण का नाम शतक है। इस प्रकरण में १४ मार्गणाओंके आधारसे जीवसमास, गुणस्थान, उपयोग और योगका वर्णन करनेके अनन्तर कर्मबन्धके कारणभत मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग बन्धप्रत्ययोंका विस्तार से वर्णन किया है। साथ ही मिथ्यात्व आदि गुणस्थानोंमें जघन्य और उत्कृष्ट प्रत्ययोंकी अपेक्षा सम्भव संयोगी भंगोंका विस्तृत विवेचन किया है। तत्पश्चात् खानावरणादि आठ कर्मोके विशेष बन्धप्रत्ययोंका वर्णन किया गया है।
पञ्चम प्रकरणका नाम सप्तति या सप्ततिका है। इसे सित्तरी भी कहते हैं। इस प्रकरणमें मूल कर्मों और उनके अवान्तर भेदोंके बन्धस्थान, उदयस्थान और स्तवस्थानोंका स्वतन्त्र रूपसे एवं चौदह जीवसमास और गुणस्थानोंके आश्रयसे भंगोंका विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। अन्तमें कार्मोंकी उपशमना और क्षमा विवेचन बाधा है। शतक और सप्ततिका इन दोनों ही प्रकरणोंमें भंगोंका विवेचन करनेवाले पद्य प्राकृतपंचसंग्रहके तुल्य ही हैं। कर्मसिद्धान्तको अवगत करनेके लिये यह एक अच्छा साधनग्रन्थ है।
उपर्युक्त ग्रंथोंके अतिरिक लघु एवं बृहत सामायिक पाठ, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सार्द्धद्वयद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति ग्रन्थ मी इनके द्वारा रचे गये माने जाते हैं। सामायिकपाठमें १२० पद्य हैं। इसमें सामायिकका स्वरूप, विधि और महत्व प्रतिपादित किया गया है। शेष चार ग्रंथ अभी तक उपलब्ध नहीं हैं।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara- 2
Acharya Shri Amitgati Dwitiya (Prachin)
Acharya Shri Amitgati Dwitiya
#amitgatijimaharajdwitiya
15000
#amitgatijimaharajdwitiya
amitgatijimaharajdwitiya
You cannot copy content of this page