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#bhutabalimaharaj
श्रुतघराचार्यों की परंपरामें आचार्य भूतबलि का नाम आता है। पुष्पदन्तके नामके साथ भूतबलिका भी नाम आता है। दोनोंने एक साथ धरसेनाचार्य से सिद्धान्त-विषयका अध्ययन किया था। भूतबलिने अंकुलेश्वरमें चातुर्मास समाप्त कर द्रविड देशमें जाकर शृतका निर्माण किया। धवलाटीकामें आचार्य वीरसेनने पुष्पदन्तके पश्चात् भूतबलिको नमस्कार किया है।
पणमह कय-भूय-बलि भूयबलि केस-वास-परिभूय-बलिं।
विणिहय- वम्मह- पसरं बड्ढाविय-विमल-णाण-बम्मह-पसरं।।
अर्थात् जो भूत-प्राणीमात्रके द्वारा पूजे गये हैं अथवा भूत नामक व्यन्तर जातिके देवों द्वारा पूजित हैं, जिन्होंने अपने केशपाश अर्थात् सुन्दर बालोंसे बलि जरा आदिसे उत्पन्न होने वाली शिथिलताको परिभूत-तिरस्कृत कर दिया है। जिन्होंने कामदेवके प्रसारको नष्ट कर दिया है और निर्मल ज्ञानके द्वारा ब्रह्मचर्य को वृद्धिंगत कर लिया है उन भूतबलि नामक आचार्यको प्रणाम करो।
उपर्युक्त गाथामें भूतबलिके शारीरिक और आत्मिक तेजका वर्णन किया है। भूतबलिको आन्तरिक ऊर्जा इतनी बढ़ी हुई थी, जिससे ब्रह्मचर्यजन्य सभी उपलब्धियां उन्हें हस्तंगत हो गई थीं। ऋद्धि और तपस्याके कारण प्राणीमात्र उनकी पूजा प्रतिष्ठा करता था। इस प्रकार आचार्य वीरसेनने आचार्य भूतबलीके व्यक्तित्वकी एक स्पष्ट रेखा अक्ति की है। सौम्य आकृतिके साथ भूतबलिके केश अत्यन्त संयत और सुन्दर थे। केशोंकी कृष्णता और स्निग्धताके कारण वे युवा ही प्रतीत होते थे।
श्रवणबेलगोलाके एक शिलालेखमें पुष्पदन्तके साथ भूतबलिको भी अहंद् बलिका शिष्य कहा है। इस कथनसे ऐसा ज्ञात होता है कि भूतलिके दोक्षा गुरु अर्हद्बली और शिक्षागुरु धरसेनाचार्य रहे होंगे। लिखा है-
यः पुष्पदन्तेन च भूतबल्याख्येनापि शिष्य-द्वितयेन रेजे।
फलप्रदानाय जगज्जनानां प्राप्तोऽकुराभ्यामिव कल्पभूजः।
अर्हद्बलीस्सङ्घचतुर्विध स श्रीकोण्डकुन्दान्वयमूलसङ्घ।
कालस्वभावादिह जायमानद्वेषेतराल्पोकरणाय चक्रे।
इन अभिलेखीय पद्योंके आधारपर अर्हद्बलीको भूतबलिका गुरु मान लिया जाय तो कोई हानि नहीं है। समयक्रमानुसार अर्हद्बली और पुष्पदन्तके समयमें २१ + १९ = ४० वर्षका अन्तर पड़ता है जिससे अर्हद्बलीका भूतबलि और पुष्पदन्तके समसामयिक होनेमें कोई बाधा नहीं है।
भूतबलिके व्यक्तित्व और ज्ञानके सम्बन्ध में धवलाटोकासे पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। बताया है- भूतबलि भट्टारक असंबद्ध बात नहीं कह सकते। यतः महाकर्मप्रकृति प्राभृत रूपी अमृतपानसे उनका समस्त राग-द्वेष-मोह दूर हो गया है।
"ण चासंबद्ध भूदबलिभडारओं परूवेदि महाकम्मयपडिपाहुड- अमियवाणेण ओसारिदा सेसरागदोसमोहत्तादो।"
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि भूतबलि महाकर्मप्रकृति प्राभृतके पूर्ण ज्ञाता थे। इसलिये उनके द्वारा रचित सिद्धान्तग्रन्थ सर्वथा निर्दोष और अर्थपूर्ण हैं। इन्होंने २४ अनुयोगद्वारस्वरूप महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका ज्ञान प्राप्त किया था। बताया है-
"चउबीसअणियोगद्दारसरुवमहाकम्मपयडिपाहुडपारयस्स भूदवली भयवंतस्स।"
भूतबलिका समय आचार्य पुष्पदन्तका समय ही है। दोनोंने एक साथ धर सेनाचार्यसे सिद्धान्त-ग्रन्थोंका अध्ययन किया और अंकुलेश्वरमें साथ-साथ वर्षावास किया। पुष्पदन्त द्वारा रचित प्राप्त सूत्रोंके पश्चात् भूतबलिने षट्खण्डागमके शेष भागकी रचना की। डा. ज्योतिप्रसादने भूतबलिका समय ई. सन् ६६ - ९० तक माना है और षट्खण्डागमका संकलन ई. सन् ७५ स्वीकार किया है। प्राकृतपट्टावली, नन्दिसंघकी गुर्वावली आदि प्रमाणोंके अनुसार भूतबलिका समय ई. सन् की प्रथम शताब्दीका अन्त और द्वितीय शताब्दीका आरंभ आता है। डा. हीरालाल जैनने धवलाकी प्रस्तावनामें वीर नि. सं. ६१४ और ६८३ के बीच उक्त आचार्यों का काल निर्धारित किया है। अतएव भूतबलिका समय ई. सन् प्रथम शताब्दीका अन्तिम चरण (ई.८७ के लगभग) अवगत होता है।
इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारसे ज्ञात होता है कि भूतबलिने पुष्पदन्त विरचित सूत्रोंको मिलाकर पांच खण्डोंके छ: हजार सूत्र रचे और तत्पश्चात् महाबन्ध नामक छठे खण्डको तीस हजार सूत्रग्रंथरूप रचना की।
छक्खंडागमके सूत्रोंके अवलोकनमें प्रकट होता है कि प्रथम खण्ड जीव स्थानके आदिमे सत्प्नरूपणास्त्रोंके रचयिता पुष्पदन्ताचार्यने मंगलाचरण किया है और तदनुसार धवलाटोकाकार वीरसेन स्वामीने भी श्रुतावतार आदिका कथन किया है। पटखंदागममे तिदूतबनिने चौथे खंड वेदनाके आदिमें पुनः मंगल किया है और धवलाकारने भी जीवस्थानके समान ही कर्ता, निमित्त, श्रुतावतार आदिकी पुनः चर्चा की है। इससे यह षटखण्डायमग्नन्थ दो भागोंमें विभक्त प्रतीत होता है। पहले भागमें आदिके तीन खण्ड हैं और द्वितीय भागमें अन्तके तीन खण्ड है। इस द्वितीय भागमें ही महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके २४ अधिकारोंका वर्णन किया गया है। डा. हीरालालजीने इस द्वितीय खण्डकी विशेष संज्ञा सत्कर्मप्राभृत बतायी है। वस्तुत: आचार्य भूतबलीने पटखण्डागमके जीवस्थानको छोड़कर शेष समस्त खण्डोकी रचना की है। कृतिअनुयोगद्वारके आदिमें ग्रन्थावतारका वर्णन करते हुए वीरसेन स्वामीने लिखा है कि धरसेना चार्यने गिरिनगरकी चन्द्रगुफामें भूतबलि और पुग्पदन्तका समग्र महाकर्मप्रकृति प्राभृत समर्पित कर दिया| तत्पश्चात् भूतबलि भट्टारकने श्रुत-नदीके प्रवाहके बिच्छेदके भयसे भव्य जीवोंके उद्धारके लिये महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका उपसंहार करके छ: खण्ड किये।
इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें यह लिखा है कि भूतबलि आचार्यने षट् खण्डागमकी रचना कर उसे ग्रन्धरूपमें निबद्ध किया और ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को उसकी पूजा की और इसी कारण यह पञ्चमी श्रुतपञ्चमीके नामसे विख्यात्त हुई। तत्पश्चात् भूतबलिने उस षट्खण्डागमसूत्रके साथ जिनपालितको पुष्पदन्त गुरुके पास भेजा। जिनपालितके हाथमें षट्खण्डागम ग्रंथको देखकर मेरे द्वारा चिन्तित कार्य सम्पन्न हुआ, यह अवगत कर पुष्पदन्त गुरुने भी श्रुत भक्तिके अनुरागस पुलकित होकर श्रुत-पंचमोके दिन उक्त ग्रन्थको पूजा की।
श्रुतावतारके उक्त कथनसे यही प्रमाणित होता है कि पुष्पदन्ताचार्यने षट्खण्डागमकी रूपरेखा निर्धारित कर सत्प्ररूपणाके सूत्रोंकी रचना की थी और शेष भागको भूतबलिने समाप्त किया था।
छक्खंडागमके अवलोकानसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि दूसरे खण्ड खुद्दाबन्धसे छठे खण्ड तक यह भूतबलि द्वारा रचा गया है। चतुर्थ खण्ड वेदनाके अन्तर्मत कृतिअनुयोगद्वारके आदिमें सूत्रकारने ४४ मंगलसूत्र लिखे हैं और ४५ वे सूत्रसे ग्रन्थकी उत्थानिकाके रूप आग्रायणीय पूर्वके पञ्चम वस्तु अधिकार के अन्तर्गत कर्मप्रकृतिप्राभृतके २४ अनुयोगद्वारोंका निर्देश किया है। वीर सेन स्वामीने इन मंगलसूत्रोंको लेकर एक लम्बी चर्चा की है। इस चर्चासे तीन निष्कर्ष निकलते हैं-
१. भूतबलीने मंगलसूत्रोंकी रचना स्वयं नहीं की। परम्परासे प्राप्त महा कर्मप्रकृतिप्राभृत्तके मंगलसूत्रोंका संकलन किया है।
२. षट्खण्डागममें महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके अर्थका ही निबन्धन नहीं किया है; अपितु शब्द भी ग्रहण किये गये हैं।
३. भूतबलि कर्ता नहीं, प्ररूपक हैं। अतः षट्खण्डागमका द्वादशांग वाणी के साथ साक्षात् सम्बन्ध है।
इस तरह स्पष्ट है कि आचार्य भूतबलि महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके ज्ञानी एवं मर्मज्ञ विद्वान थे।
यह ग्रन्थ छह खण्डों में विभक्त है
१. जीवट्ठाण।
२. खुद्दाबन्ध।
३. बंधसामित्तविचय।
४. वेयणा।
५. बग्गणा।
६. महाबंध।
१. 'जीवट्ठाण' नामक प्रथम-खण्डमें जीवके गुण-धर्म और नानावस्थाओंका वर्णन आठ प्ररूपणाओंमें किया गया है। ये आठ प्ररूपणाएँ- सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व हैं। इसके अनन्तर नौ चूलिकाएँ हैं, जिनके नाम प्रकृतिसमुत्कीर्तन, स्थानसमुत्कीर्तन, प्रथम महादण्डक, द्वितीय महा दण्डक, तृतीयमहादण्डक, उत्कृष्टस्थिति, जघन्यस्थिति, सम्यक्त्वोत्पत्ति और गति अगति हैं। सत्प्ररूपणाके प्रथम सूत्र में पञ्चनमस्कार मन्त्रका पाठ है । इस प्ररूपणाका विषयनिरूपण ओघ और आदेश क्रमसे किया गया है। ओघमें मिथ्यात्व, सासादन आदि १४ गणस्थानोंका और आदेशमें गति, इन्द्रिय, काय आदि १४ मार्गणाओं का विवेचन उपलब्ध होता है। सत्प्ररूपणामें १७७ सूत्र हैं। इनमे ४०वें सूत्रसे ४५वे सूत्र तक छह कायके जीवोंका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। जीवोंके बादर और सक्ष्म भेदोंके पर्याप्त एवं अपर्यास भेद किये गये हैं। वनस्पति कायके साधारण और प्रत्येक ये दो भेद बतलाये हैं और इन्हीं भेदोंके बादर और सूक्ष्म तथा इन दोनों भेदोंके पर्याप्त और अपर्याप्त उपभेद कर विषयका निरूपण किया है। स्थावर और त्रसकायसे रहित जीवोंको अकायिक कहा है।
जीवाठा्ठणखण्डकी दूसरी प्ररूपणा द्रव्यप्रमाणानुगम है। इसमें १९२ सूत्रों द्वारा गुणस्थान और मार्गणाक्रमसे जीवोंकी संख्याका निर्देश किया है। इस प्ररूपणाके संख्यानिर्देशको प्रस्तुत करनेवाले सूत्रोंमें शतसहस्रकोटि, कोड़ा कोड़ी, संस्थात, असंख्यास, अनन्त और अनन्तानन्त संख्याओं का कथन उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त सातिरेक, हीन, गुण, अवहारभाग, वर्ग, वर्गमूल, घन, अन्योन्याभ्यस्त राशि, आदि गणितकी मौलिक प्रक्रियाओंके निर्देश मिलते हैं। कालगणनाके प्रसंगमें आवलो, अन्तमुहूर्त, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी, पल्योपम आदि एवं क्षेत्रकी अपेक्षा अंगुल, योजन, श्रेणी, जगत्प्रतर एवं लोकका उल्लेख आया है।
क्षेत्रप्ररूपणामें ९२ सूत्रों द्वारा गुणस्थान और मार्गणाक्रमसे जीवोंके क्षेत्रका कथन किया गमा है। उदाहरणार्थ कुछ सूत्र उद्धृत कर यह बतलाया जायगा कि सूत्रकर्ताकी शैली प्रश्नोत्तरके रूप में कितनी स्वच्छ है और विषयको प्रस्तुत करनेका क्रम कितना मनोहर है। यथा-
"सासणसम्माइट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति केवडी खेत्ते? लोगस्स असंखेज्जदिभाए।"
सजोगिकेवली केवडि खेत्ते? लोगस्स असंखेज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा।
आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइएसु मिच्छाइटि्ठप्पहुडि जाव असंजदसम्माइटि्ठ त्ति केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिमागे।
एवं सत्तसु पुढवीसु णेरइया।
तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छाइट्टी केवडि खेत्ते? सव्वलोए।
अर्थात तासादनसम्यकदृष्टी गुणस्थानसे लेकर अनौगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं? लोकके असंख्यात भाग प्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं।
सयोगकेवली जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं? लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रमें अथवा लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण क्षेत्रमें अथवा सर्व लोकमें रहते हैं।
आदेशकी अपेक्षा गसिते अनुवादसे नरकगतिमें नारकियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयत्तसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं।
इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें नारकी जीव लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रत्में रहते हैं।
तियंञ्चगतिमें तियंञ्चोंमें मिथ्यादृष्टी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं? सर्व लोकमें रहते हैं।
स्पष्ट है कि एक ही सूत्रमें प्रश्न और उत्तर इन दोनोंकी योजना की गयी है। वास्तवमें यह लेखककी प्रतिभाका वैशिष्ट्य है कि उसने आगमके गंभीर विषयको संक्षेपमें प्रश्नोत्तररूपमें उपस्थित किया है। इस प्ररूपणाका प्रमुख वर्ण्य विषय मार्गणा और गुणस्थानकी अपेक्षासे जीवोंके स्पर्शनक्षेत्रका कथन करना है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि जिस मार्गणामें अनन्त संख्यावाली एकेन्द्रिय जीवोंकी राशि आती है, उस मार्गणावाले जीव सर्वलोकमें रहते हैं और शेष मार्गणावाले लोकके असंख्यातवें भागमें| केवलज्ञान, केवलदर्शन, यथाख्यात संयम आदि जिन मार्गणाओंमें सयोगोजिन आते हैं, वे साधारण दशामें तो लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं किन्तु प्रतरसमुद्धातकी दशामें लोकके असंख्यात बहुभागोंमें तथा लोकपूर्णसमुद्घातकी दशामें सर्वलोकमें रहते हैं। बादर वायुकायिक जीव लोकके संख्यातवें भागमें रहते हैं।
स्पर्शन-प्ररूपणामें १८५ सूत्र हैं। इनमें, नानागुणस्थान और मार्गणावाले जीन स्वस्थान, समुद्धात एवं उपपात सम्बन्धी अनेक अवस्थाओं द्वारा कितने क्षेत्रका स्पर्श करते हैं, का विवेचन किया है। जीव जिस स्थानपर उत्पन्न होता है या रहता है वह उसका स्वस्थान कहलाता है। और उस शरीरके द्वारा जहाँ तक वह आता जाता है वह विहारवत्-स्वस्थान कहलाता है। प्रत्येक जीवका स्वस्थानकी अपेक्षा विहारवत्-स्वस्थानका क्षेत्र अधिक होता है। जैसे सोलहवें स्वर्गक किसी भी देवका क्षेत्र स्वस्थानको अपेक्षा तो लोकका असंख्यातवा भाग है, पर वह विहार करता हुमा नीचे तृतीय नरक तक जा-आ सकता है। अत: उसके द्वारा स्पर्श किया क्षेत्र आठ राजु लम्बा हो जाता है। विहारके समान समुद्घात और उपपादको अपेक्षा भी जीवोंका क्षेत्र बढ़ जाता है। वेदना, कषाय आदि किसी निमित्तविशेषसे जीवके प्रदेशोंका मल शरीरके साथ सम्बन्ध रहते हुए भी बाहर फैलना समुद्घात कहलाता है! समुद्नघातके सात भेद है। समुद्रघातकी अवस्थामें जीवका क्षेत्र शरीरकी अवगाहनाके क्षेत्रसे अधिक हो जाता है।
जीवका अपनी पूर्वपर्यायको छोड़कर अन्य पर्यायमें जन्म ग्रहण करना उप पाद है। इस प्रकार इस प्ररूपणामें स्वस्थान-स्वस्थान, विहारक्त-स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक, आहारक, तैजस, मारणान्तिक, केवलिसमुद्धात और उपपाद इन दश अवस्थाओंकी अपेक्षा किस गुणस्थानवाले और किस मार्गणावाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है, यह विवेचन किया गया है।
कालानुयोगमें ३४२ सूत्र है। इस प्ररूपणामें एक जीव और नाना जीवोंके एक गुणस्थान और मार्गणामें रहनेको जघन्य एवं उत्कृष्ट मर्यादाओंको काला बधिका निर्देश किया है। मिथ्यादष्टि मिथ्यात्वगुणस्थानमें कितने काल पर्यन्त रहते हैं? उत्तर देते हुए बताया है कि नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल; पर एक जीवकी अपेक्षा अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त हैं। तात्पर्य यह है कि अभव्य जीव अनादि अनन्त तथा भव्य जीव अनादि-सान्त और सादि सान्त हैं| जो जीव एक बार सम्यक्त्व ग्रहणकर पुन: मिथ्यात्वगुणस्थानमें पहुँचता है, उस जीवका वह मिथ्यात्व सादि-सान्त कहलाता है।
सूत्रकारने बड़े ही स्पष्ट रूपमें मिथ्यात्वके तीनों कालोंका एक जीवकी अपेक्षा और अनेक जीवोंकी अपेक्षा निरूपण किया है। जब कोई जीव पहली बार सम्यक्त्व प्राप्त कर अतिशीघ्र मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाता है तो वह अधिक-से-अधिक मिथ्यात्व गुणस्थानमें अद्धपुद्गल परावर्तन काल तक ही रहेगा | इसके अनन्तर वह नियमसे सम्यक्त्वको प्राप्तकर संयम धारण कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
अन्तर-प्ररूपणामें ३९७ सूत्र हैं। इस शब्दका अर्थ विरह, व्युच्छेद या अभाव है। किसी विवक्षित गुणस्थानवर्ती जीवका उस गुणस्थानको छोड़कर अन्य गुणस्थानमें चले जाने पर पुन: उसी गुणस्थानको प्राप्तिके पूर्व तकका काल अन्तरकाल या विरहकाल कहलाता है। सबसे कम विरह-कालको जघन्य अन्तर और सबसे बड़े विरहकालको उत्कृष्ट अन्तर कहा है । इस प्रकारके अन्तरकालकी प्ररूपणा करने वाली यह अन्तर-प्ररूपणा है। यह अन्तरकाल सामान्य और विशेषकी अपेक्षासे दो प्रकारका होता है। सूत्रकारने एक जीव और नाना जीवोंको अपेक्षासे एक ही गुणस्थान और मार्गणामें रहनेकी जघन्य और उत्कृष्ट कालावधिका निर्देश करते हए अन्तरकालका निरूपण किया है। मिथ्यादृष्टि जीवका अन्तरकाल कितना है, इस प्रश्नका उत्तर देते हुए बताया है कि नानाजीवोंकी अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है। ऐसा कोई काल नहीं जब संसारमें मिथ्यादुष्टि जीव न पाये जायें, एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यात्वका जघन्य अन्तर अन्तर्मूहुर्त और उत्कृष्ट अन्तर १३२ सागरोपम काल है। तात्पर्य यह है कि मिथ्यादृष्टि जीव परिणामोंकी विशुद्धिसे सम्यक्त्वको प्राप्त होकर कम-से-कम अन्तर्मूहुर्त कालमें संक्लिष्ट परिणामों द्वारा पुनः मिथ्यादृष्टी हो सकता है। अथवा अनेक मनुष्य और देवगतियोंमें सम्यक्त्व सहित भ्रमणकर अधिक-से-अधिक १३२ सागरोपमको पूर्णकर पुन: मिथ्यात्वको प्राप्त हो सकता है। तीव्र और मंद परिणामोंके स्वरूपका विवेचन भी इस प्ररूपणाके अन्तर्गत आया है। नानाजीवोंकी अपेक्षा मिथ्याष्टि,असंयत सम्यादृष्टि संयतासंयत, प्रमत्त संयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगकेवली ये छ: गुणस्थान इस प्रकारके हैं, जिनमें अन्तराल उपस्थित नहीं होता।मार्गणाओंमें उपशमसम्यक्त्व, सुक्ष्मसांपरायसंयम, आहारकक्राययोग, आहारकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, लब्धपर्याप्तमनुष्य, सासादन सम्यक्त्व और सम्यकमिथ्यात्व ऐसी अवस्थाएँ हैं, जिनमें गुणस्थानोंका अन्तरकाल संभव होता है। इनका जघन्य अंतरकाल एक समयमात्र और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात दिन या छ: मास आदि बतलाया गया है। इन आठ मार्गणाओंके अतिरिक्त शेष सभी मार्गणाओंवाले जीव सदा ही पाये जाते हैं।
भाव-प्ररूपणामें ९३ सूत्र हैं। इनमें विभिन्न गुणस्थानों और मार्गणास्थानोंमें होनेवाले भावोंका निरूपण किया गया है। कर्मोंके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम आदिके निमित्तसे जीवके उत्पन्न होनेवाले परिणामविशेषोंको भाव कहते हैं। ये भाव पाँच है- १. औदयिक भाव, २. औपशमिक भाव, ३. क्षायिक भाव, ४. क्षायोपशमिक भाव और ५. पारिणामिक भाव।
इन भावोंमेंसे किस गुणस्थान और किस मार्गणास्थानमें कौन-सा भाव होता है, इसका विवेचन इस भावप्ररूपणामें किया गया है। मिथ्यात्वगणस्थानमें उत्पन्न होनेवाले मिथ्यादृष्टिको औदयिक भाव होता है। दूसरे गुणस्थानमें अन्य भावोंके रहते हुए भी, पारिणामिक भाव रहते हैं। जिस प्रकार जीवत्व आदि पारिणामिक भावोंके लिये कर्मोका उदय, उपशम आदि कारण नहीं है उसी प्रकार सासादनसम्यक्त्वरूप भावके लिये दर्शनमोहनीयकर्मका उदय, उपशमादि कोई भी कारण नहीं है।
तीसरे गुणस्थानमें क्षायोपशमिक भाव होता है। यत: इस गुणस्थानमें सम्यक-मिथ्यात्वप्रकृतिके उदय होनेपर श्रद्धान और अश्रद्धानरूप मिश्रभाव उत्पन्न होना है। उसमें जो श्रद्धानांश है वह सम्यक्त्वगुणका अंश है और जो अश्रद्धानांश है वह मिथ्यात्वका अंश है। अतएवं सम्यमिथ्यात्वभावको क्षायोपामिक माना गया है। चतुर्थ गुणस्थानमें औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन भाव पाये जाते हैं। यतः यहाँ पर दर्शनमोहनीग्नकर्मका उपशम, क्षय और क्षयोपशम ये तीनों ही संभव है।
आदिके चार गुणस्थान दर्शनमोहनीयके उदय, उपशम, क्षय आदि से उत्त्पन्न होते हैं। अतएव इन गुणस्थानों में अन्य भावोंके पाये जानेपर भी दर्शन मोहनीयकी अपेक्षासे भावोंकी प्ररूपणा की गई है। चतुर्थ गुणस्थान तक जो असंयमभाव पाया जाता है वह चारित्रमोहनीयकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेके कारण औद्योयिक भाव है। पर यहाँ उनकी विवक्षा नहीं की गयी है!
पञ्चम गुणस्थानसे द्वादश गुणस्थान तक आठ गुणस्थानोके भावोंका कथन चारित्रमोहनीयकर्मके क्षयोपशम, उपशम और क्षयकी अपेक्षासे किया गया है। पञ्चम, षष्ट और सप्तम गुणस्थानमें चारित्रमोहके क्षयोपशमसे क्षायोपशमिक भाव होते हैं। अष्टम, नवम, दशम और एकादश इन चार उपशामक गुणस्थानोंमें चारित्रमोहके उपशमसे औपशमिक भाव तथा क्षपकश्रेणी सम्बन्धी अष्टम, नवम, दशम और द्वादश इन चार गुणस्थानों में चारित्रमोहनीयके क्षयसे क्षायिक भाव होता है। त्रयोदश और चतुर्दश गुणस्थानों में जो क्षायिक भाव पाये जाते है वे घातियाकर्मोके क्षयसे उतान्न हुए समझना चाहिए। गुणस्थानोंके समान ही मार्गणास्थानों में भी भावोंका प्रतिपादन किया गया है।
अल्पबहुल-प्ररूपणामें ३८२ सूत्र हैं। नानागुणस्थान और मार्गणागुण स्थानवर्ती जीवोंको संख्याका हीनाधिकत्व इस प्ररुगणामें वर्णित है। अपूर्व करण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें उपशमसम्यक्त्वी जीव अन्य सब स्थानोंकी अपेक्षा प्रमाणमें अल्प और परस्पर तुल्य होते हैं। इनसे अपूर्वकरणादि तीन गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दष्टि जीव संख्यात गणित हैं। क्षीणकषाय जीवोंको संख्या भी इतनी हो है। सयोगकेवली संयमको अपेक्षा प्रविश्यमान जीवोंसे संख्यात गुणित हैं।
उपर्युक्त आठ प्ररूपणाओंके अतिरिक्त जीवस्थानको नौ चूलिकाएं हैं। प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामकी चूलिकामें ४६ सूत्र हैं| जीवके गति, जाति आदिके रूपमें जो नाना भेद उपलब्ध होते हैं उनका कारण कर्म है। कर्मका विस्तार पूर्वक विवेचन इस चूलिकामें आया है।
दूसरी चूलिका स्थानसमुत्कीर्तन नामकी है। इसमें ११७ सूत्र हैं। प्रत्येक मूलकर्मकी कितनी उत्तरप्रकृतियों एक साथ बांधी जा सकती हैं और उनका बन्ध किस-किस गुणस्थानमें करता है, इसका सुस्पष्ट विवेचन किया गया है। तृतीय चूलिका प्रथम महादण्डक नामकी है। इसमें दो सूत्र हैं। प्रथमसम्यक्त्व को पास आनेवाला जीस ७८ प्रकृतीयोंका बन्दकर्ता है, जन प्रकृतियोंकी गणना की गई है। इन प्रकृतियोंका बन्धकर्ता संज्ञी पञ्चेन्द्रिय मनुष्य या तिर्यञ्च होता है। द्वितीय महादण्डक नामकी चौथी चूलिकामें भी केवल दो सूत्र हैं। इनमें ऐसी कर्मप्रकृतियोंकी भी गणना की गई है जिनका बन्ध प्रथमसम्यक्त्वके अभिमुख हुआ देव और छ: पृथ्वियोंके नारको जीव करते हैं। तृतीय दण्डक नामक पांचवीं चूलिकामें दो सूत्र हैं| और इन सूत्रोंमें सातवीं पृथ्वीके नारकी जीवोंके सम्यक्त्वाभिमुख होनेपर बन्धयोग्य प्रकृतियोंका निर्देश किया गया है। छठी उत्कृष्टस्थिति नामक चूलिकामें ४४ सूत्र हैं। इसमें बन्धे हुए कार्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका निरूपण किया गया है। आशय यह है कि सूत्रकर्ता आचार्यने यह बतलाया है कि बन्धको प्राप्त विभिन्न कर्म अधिक-से-अधिक कितने कालतक जीवोंसे लिप्त रह सकते हैं और बन्धके कितने समय बाद आबाधाकालके पश्चात् दिपाक आरम्भ होता है। एक कोड़ाकोड़ी वर्षप्रमाण बन्धकी स्थितिपर १०० वर्षका आबाधाकाल होता है। और अन्तःकोड़ाकोड़ी सागारोपम स्थितिका आबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त होता है। परन्तु आयुकर्मका आबाधाकाल इससे भिन्न है। क्योंकि वहाँ आबाधा अधिक-से-अधिक एक पूर्व कोटि आयुके तृतीयांश प्रमाण होती है। सातवीं जघन्यस्थिति नामक चुलिकामें ४३ सूत्र हैं। इस चलिकामें कर्मोकी जघन्य स्थितिका निरूपण किया गया है। परिणामोंको उत्कृष्ट विशुद्धि जघन्य स्थितिबन्धका और संक्लेश उत्कृष्ट कर्म स्थितिबन्धका कारण है।
आठवीं चलिका सम्यक्त्वोत्पत्तिमें १६ सूत्र हैं। इस चूलिकामें सम्यक्त्वोत्पत्ति योग्य कर्मस्थिति, सम्यक्त्वके अधिकारी आदिका निरूपण है। जीवन-शोधनके लिए सम्यक्त्वकी कितनी अधिक आवश्यकता है, इसकी जानकारी भी इससे प्राप्त होती है। नवमी चूलिका गति-अगति नामकी है। इसमें २४३ सूत्र हैं। विषयवस्तुकी दृष्टिसे इसे चार भागोंमें विभक्त किया जा सकता है। सर्वप्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके बाहरी कारण किस गतिमें कौन-कौनसे सम्भव है, इसका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। तदनन्तर चारों गतिके जीव मरणकर किस-किस गतिमें जा सकते हैं और किस-किस गतिसे किस-किस गतिमें आ सकते हैं, का विस्तारपूर्वक वर्णन पाया जाता है| देव मरकर देव नहीं हो सकता और न नारको ही हो सकता है। इसी तरह नारकी जीव मरकर न नारकी हो सकता है और न देव हो। इन दोनों गतियोंके जीव मरणकर मनुष्य या तिर्यञ्चगति प्राप्त करते हैं। देव और नारकी मरकर मनुष्य या तियंञ्च ही होते हैं। मनुष्य और तिसञ्चगतिके जीव चारों हो गतियोंमें जन्म ग्रहण कर सकते हैं।
तदनन्तर किस गुणस्थानमें मरणकर कौन-सी गति किस-किस जीवको प्राप्त होती है, इसपर विशेष विचार किया है। तत्पश्चात् बतलाया गया है कि नरक और देवगतियोंसे आये हुए जीव तीर्थंकर हो सकते हैं। अन्य गतियोंसे आये हुए नहीं। चक्रवती, नारायण, प्रतिनारायण और बलभद्र केवल देवगतिसे आये हुए जीन ही होते हैं, शेष गतियोंसे आये हुए नहीं। चक्रवर्ती मरणकर स्वर्ग और नरक इन दोनों गतियोंमें जाते हैं और कर्मक्षयकर मोक्ष भा प्राप्त कर सकते हैं। बलभद्र स्वर्ग या मोक्षको जाते हैं। नारायण और प्रतिनारायण मरणकर नियमसे नरक जाते हैं। तत्पश्चात् बतलाया गया है कि सातवें नरकका निकला जीव तिर्यञ्च ही हो सकता है, मनुष्य नहीं। छठे नरकसे निकले हुए जीव तियंञ्च और मनुष्य दोनों हो सकते हैं। पञ्चम नरकसे निकले हए जीव मनुष्यभवमें संयम भी धारण कर सकते हैं, पर उस भवसे मोक्ष नहीं जा सकते। चौथे नरकसे निकले हुए जीव मनुष्य होकर और संयम धारण कर केवलज्ञानको उत्पन्न करते हुए निर्वाण भी प्राप्त कर सकते हैं। तृतीय नरकसे निकले हुए जीव तीर्थंकर हो सकते हैं। इस प्रकार जीवट्ठाण नामक प्रथम खण्डमें कुल २,३७५ सूत्र हैं और यह आठ प्ररूपणाओं और नौ चूलिकाओंमें विभक्त है।
२. खुद्दाबन्ध (क्षुद्रकबन्ध)
इसमें मार्गणास्थानोंके अनुसार कौन जीव बन्धक है और कौन अबन्धक, का विवेचन किया है। कर्मसिद्धान्तकी दृष्टिसे यह द्वितीय खण्ड बहुत उपयोगी और महत्वपूर्ण है। इसका विशद विवेचन निम्नलिखित ग्यारह अनुयोर्गों द्वारा किया गया है-
१. एक जीवको अपेक्षा स्वामित्व
२. एक जीवकी अपेक्षा काल
३. एक जीवकी अपेक्षा अन्तर.
४. नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचय
५. द्वव्यप्रमाणानुगम
६. क्षेत्रानुगम
७,स्पर्शानुगम
८. नानाजीवोंकी अपेक्षा काल
९. नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर
१०. भागाभागानुगम
११. अल्पबहुत्वानुगम
इन ग्यारह अनुयोगोंके पूर्व प्रास्ताविक रूपमें बन्धकोंके सत्वको प्ररूपणा को गई है और अन्तमें ग्यारह अनुयोगद्वारोंकी चूलिकाके रूपमें महादंडक दिया गया है। इस प्रकार इस खण्डमें १३ अधिकार हैं।
प्रास्ताविक रूपमें आई बन्ध-सत्त्वप्ररूपणामें ४३ सुत्र हैं। गतिमार्गणाके अनुसार नारकी और तिर्यञ्च बन्धक हैं। मनुष्य बन्धक भी है और अबन्धक भी। सिद्ध अबन्धक हैं। इन्द्रियादि मार्गणाओंकी अपेक्षा भी बन्धके सत्वका विवेचन किया है। जबतक मन, वचन और कायरूप योगको क्रिया विद्यमान रहती है तबतक जीव बन्धक रहता है। अयोगकेवली और सिद्ध अबन्धक होते हैं।
स्वामित्व नामक अनुगममें ९१ सूत्र हैं, जिनमें मार्गणाओके अनुक्रमसे कौन-से गुण या पर्याय जीवके किन भावोंसे उत्पन्न होते हैं तथा जीवको लब्धियोंकी प्राप्ति किस प्रकार होती है, आदिका प्रश्नोत्तरके रूप में प्ररूपण किया गया है। इस अनुगममें सिद्धगति, अनिद्रियत्व, अकायत्व, अलेश्यत्व, अयोगत्व, क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान और केवलदर्शन तो क्षायिकलब्धिसे उत्पन्न होते हैं। एकेन्द्रियादि पांच जातियां मन, वचन, काय ये तीन योग, मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चार ज्ञान, तीन अज्ञान, परिहारविशुद्धिसंयम, चक्षु, अचक्षु और अवधिदर्शन, वेदकसम्यक्त्व, सम्यक् मिथ्याष्टित्व और संज्ञीत्वभाव ये क्षायो पशमिकलब्धिसे उत्पन्न होते हैं। अपगतवेद, कषाय, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातसंयम ये औपशामिक तथा क्षायिकलब्धिसे उत्पन्न होते हैं। सामायिक और छेदोपस्थापनासंयम, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिकलब्धिसे उत्पन्न होते हैं। औपशमिक सम्यग्दर्शन औपशमिकलब्धिसे उत्पन्न होता है, भव्यत्व, अभव्यत्व और सासादनसम्यग्दष्ठित्व ये पारिणामिक भाव है। शेष गति आदि समस्त मार्गणान्तर्गत जीवपर्याप अपने-अपने कर्मों के उदयसे होते हैं। अनाहारकत्व कर्मोके उदयसे भी होता है और क्षायिकलब्धिसे भी।
कालानुगममें २१६ मूत्र हैं। इस अनुगममें गति, इन्द्रिय, काय आदि मार्ग णाओंमें जीवकी जघन्य और उत्कृष्ट कालस्थितिका विवेचन क्रिया है| जीव स्थान खण्डमें प्ररूपित कालप्ररूपणाकी अपेक्षा यह विशेषता है कि यहाँ गुणस्थानका विचार छोड़कर प्ररूपणा की गई है।
अन्तरप्ररूपणामें १५१ सूत्र हैं। मार्गणाक्रमसे जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कालका विशद विवेचन किया गया है।
भंगविषयमें २३ सत्र हैं। किन मार्गणाओंमें कौन-से जीव सदैव रहते और कौन-से जीव कभी नहीं रहते, का वर्णन किया है। बताया गया है कि नरकादि गतियोंमें जीव सदैव नियमसे निवास करते हैं। किन्तु मनुष्य अपर्याप्त कभी होते हैं और कभी नहीं भी होते। इसी प्रकार वक्रियिकमिश्र आदि जीवोंकी मार्गणाएँ भी सान्तर हैं।
द्रव्यप्रमाणानुगममें १७१ सूत्र हैं। गुणस्थानको जोड़कर मार्गणाक्रमसे जीवों की संख्या, उसीके आश्रयसे काल एवं क्षेत्रका प्ररूपण किया गया है।
क्षेत्रानुगममें १२४ और स्पर्शानुगममें २७९, सूत्र हैं। इन दोनोंमें अपने अपने विषयके अनुसार जीवोंका विवेचन किया गया है।
कालानुगममें ५५ सूत्र है। इसमें कालकी अमोपासना जीवोंका वर्णन किया है। अनादि-अन्नन्त, अनादि-सान्त, सादि-अनन्त एवं सादि-सान्त रूपसे कालसरपणा की गई है।
नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरका वर्णन करनेवाले अन्तरानुगममें ६८ सूत्र हैं। बन्धकोंके जघन्य और उत्कुष्ट अन्तरकालकी प्ररूपणा की गई है।
भागाभागानुगममें ८८ सूत्र हैं। इस अनुगममें मार्गणानुसार अनन्तवे भाग, असंख्यात्तवें भाग, संख्यातवे भाग तथा अनन्त बहुभाग, असंख्यात बहुभाग, संख्यात बहभाग, रूपसे जीवोंका सर्वजीवोंकी अपेक्षा प्रमाण बतलाया गया है। एक प्रकारसे इस अनुगममें जीवोंकी संख्याओंपर प्रकाश डाला गया है तथा परम्पर तुलनात्मक रूपसे संख्या बतायो गई है। यथा-नारकी जीवोंका विवेचन करते हुए कहा गया है कि वे समस्त जीवोंकी अपेक्षा अनन्तवें भाग हैं। इस प्रकार परस्परमें तुलनात्मक रूपसे जीवोंको भाग-अभागानुक्रममें संख्या बतलायी गई है।
अल्पबहुत्व-अनुगममें १०६ सुत्र हैं, जिनमें १४ मार्गणाओंके आश्रयसे जीव समासोंका तुलनात्मक द्रव्यप्रमाण बतलाया गया है। गतिमार्गणामें मनुष्य सबसे थोड़े हैं। उनसे नारकी असंख्यगुणे हैं। देव नारकियोंसे असंख्यगुणे हैं। देवोंसे सिद्ध अनन्तगुणे हैं तथा तीर्यंच देवोंसे भी अनन्तगुणे हैं।
अन्तिम चूलिका महादण्कके रूपमें है। इसमें ७९ सूत्र है| इस चूलिकामें मार्गणाविभागको छोड़कर गर्भपिक्रान्तिक मनुष्य-पर्याप्ससे लेकर निगोद जीवों तकके जीवसमासोंका अल्पबहुत्व प्रतिपादित है। जीवोंकी सापेक्षिक राशिके ज्ञानको प्राप्त करने के लिए यह चूलिका उपयोगी है।
इस प्रकार समस्त खुद्दाबन्धमें १,५८२ सूत्र हैं। इनमें कर्मप्रकृतिप्राभृतके बन्धक अधिकारके बन्ध, अबन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान नामक चार अनुयोगोंमेंसे बन्धकका प्ररूपण किया गया है। इसे खुद्दबन्ध कहनेका कारण यह है कि महाबन्धको अपेक्षा यह बन्धप्रकरणा छोटा है।
३. बंधसामिविषय (अन्धस्वामित्ववित्रय)
इस तृतीय खण्ड में कर्मोंकी विभिन्न प्रकृतियोंक बन्ध करनेवाले स्वामियों का विचार किया गया है। महां विचयशब्दका अर्थ विचार, मोमांसा और परीक्षा है। यहाँ इस बातका विवेचन किया है कि कौन-सा कर्मबन्ध किस गुणस्थान और मार्गणामें संभव है। अर्थात् कर्मबन्धके स्वामी कौनसे गुण स्थानवर्ती और मार्गणास्थानवर्ती जोव हैं। इस खण्डमें कुल ३२४ सूत्र हैं। इनमें आरम्भके ४२ सूत्रोंमें गुणस्थान-क्रमसे बन्धक जीवोंका प्ररूपण किया है। कर्मसिद्धान्तकी अपेक्षा किस गुणस्थानमें भेद और अभेद विवक्षासे कितनी प्रकृतियोंका कौन जीव स्वामी होता है, इसका विशद विवेचन किया गया है।
४.वेदनाखण्ड
कर्मप्राभसके २४ अधिकारोंमेंसे कृति और वेदना नामक प्रथम दो अनु योगोंका नाम वेदना-खण्ड है। सूत्रकारने प्रारंभमें मंगलाचरण किया है तथा इसी चतुर्थ खण्डके प्रारंभमें पुनः भी मंगलसूत्र मिलते हैं। अतः यह अनुमान सहजमें लगाया जा सकता है कि प्रथम बारका मंगल प्रारंभके तीन खण्डोंका है और द्वितीय बारका मंगल शेष तीन खण्डोंका। ग्रन्थके आदि और मध्यमें मंगल करनेका जो सिद्धान्त प्रतिपादित है उसका समर्थन भी इससे हो जाता है। कृतिअनुयोगद्वारमें ७५ सूत्र है, जिनमें ४४ सूत्रोंमें मंगलस्तवन किया गया है। शेष सूत्रोंमें कृत्तिके नाना भेद बतलाकर मूलकरण कृतिक १३ भेदोंका स्वरूप बतलाया गया है।
द्वित्तीय प्रकरणका १६ अधिकारोंमें विवेचन किया गया है। अधिकारोंकी नामावली सुत्रानुसार निम्न प्रकार है
१. निक्षेप - ३ सूत्र
२. नय - ४ सूत्र
३. नाम - ४ सूत्र
४. द्रव्य - १३ सूत्र
५. क्षेत्र - १९ सूत्र
६. काल - २७९ सूत्र
७. भाव - ३१४ सूत्र
८. प्रत्यय - १६ सूत्र
९. स्वामित्व - १५ सूत्र
१०. वेदनाविधान - ५८ सूत्र
११. गती - १२ सूत्र
१२, अनन्तर - ११ सूत्र
१३. सन्निकर्ष - ३२० सूत्र
१४. परिमाण - ५३ सूत्र
१५. भागाभाग - २१ सुत्र
१६. अल्पबहुव - २७ सत्र
वस्तुतः यह वेदना अनुयोगद्वार बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। निक्षेप अधिकारमें नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों द्वारा वेदनाके स्वरूपका स्पष्टीकरण किया गया है। नय अधिकारमें उक्त निक्षेपोंमें कौन-सा अर्थ यहां है, यह नेगम प्रकृत संग्रह आदि नयोंके द्वारा समझाया गया है। नामविधान अधिकारमें नैगमादि नयोंके द्वारा ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों में वेदनाकी अपेक्षा एकत्व स्थापित किया गया है। द्रव्यविधान अधिकारमें कर्मों के द्रव्यका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, सादि, अनादि स्वरूप समझाया गया है। क्षेत्रविधानसे ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मरूप पुदगलद्रव्यको वेदना मानकर समुद्घातादि विविध अवस्थाओमें जीवके प्रदेशक्षेत्रकी प्ररुपणा की गई है। कालविधान अधिकारमें पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारमें कालके स्वरूपका विवेचन किया गया है। भाववीधानमें पूर्वोक्त पदमीमांसादि तीन अनुयोगों द्वारा ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों की उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट भावात्मक वेदनाओं पर प्रकाश डाला गया है| वेदना प्रत्ययमे नयोंके आश्रय द्वारा वेदनाके कारणोंका विवेचन किया है। वेदना स्वामित्वमें आठों कर्मों के स्वामियों का प्ररूपण किया है। वेदना वेदन अधिकारमें आठो कमों के बध्यमान, उदोरणा और उपशान्त स्वरूपोंका एकत्व और अनेकत्वको अपेक्षा कथन किया है। वेदना गतिविधान अनुयोगद्वारमें कर्मों की स्थिति, स्थिति अथवा स्थित्यस्थिति अवस्थाओंका निरुपण किया है। अनन्तरविधान अनुयोगद्वार्मे कार्मोकी अनन्तरपरम्परा एवं बन्धप्रकारोंका विचार किया है। कर्मों को वेदना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा किस प्रकार उत्कृत और जघन्य होती है, का विवेचन वेदना सन्निकर्षमे किया गया है| वेदना परिमाणविधान अधिकारमें आठों कर्मों की प्रकृत्यर्थता, समयबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यासकी प्ररूपणा की गई है। भागाभागमें कर्मप्रकृतियोंके भाग और अभागका विवेचन आया है। अल्प बहुत्वविधानमें कर्मोंके अल्पबहुत्वका निरूपण किया है। इस प्रकार वेदना खण्डमें कुल १,४४९ सूत्र हैं।
५. वर्ग खण्ड
इनमें स्पर्श, कर्म और प्रकृति नामक तीन अनुयोगद्वारोंका प्रतिपादन किया गया है। स्पर्श-अनुयोगद्वारमें स्पर्शनिक्षेप, स्पर्शनयविभाषणता, स्पर्शनाम विधान और स्पर्शद्रव्यविधान आदि १६ अधिकारमें स्पर्शका विचार किया गया है| कर्म-अनुयोगद्वारमें नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, सामावदानकर्म, अध:करणकर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म, क्रियाकर्म और भावकर्मका प्ररूपण है। प्रकृति-अनुयोगद्वारमें प्रकृतिनिक्षेप आदि १६ अनुयोगद्वारोंका विवेचन है। इन तीनों अनुयोगद्वारों में क्रमशः ६३, ३१, और १४२ सूत्र हैं।
बन्धनके चार भेद है - १, बन्ध, २. बन्धक, ३. बन्धनीय और ४. बन्धविधान। बन्ध और बन्धनीयका विवेचन ७२७ सूत्रों में किया गया है| बन्ध प्रकरण ६४ सूत्रोंमें समाप्त हुआ है। बन्धनीयका स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि विपाक या अनुभव करनेवाले पुद्गलस्कन्ध हो बन्धनीय होते हैं और वे बर्गणारूप है।
६. महाबन्ध
बन्धनीय अधिकारकी समाप्तिके पश्चात् प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थिति बन्ध और अनुभागबन्धका विवेचन छठे खण्डमें अनेक अनुयोगद्वारोंमें विस्तार पूर्वक किया गया है। प्रकृतिका शब्दार्थ स्वभाव है। यथा - चीनीकी प्रकृति मधुर ओर नीमकी प्रकृति कटुक होती है। इसी प्रकार आत्माके साथ सम्बद्ध हुए कर्मपरमाणुओंमें आस्माके ज्ञान-दर्शनादि गुणोंको आवृत्त करने या सुखादि गुणोंके घात करनेका जो स्वभाव पड़ता है उसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं। वे आये हुए कर्मपरमाणु जितने समयतक आत्माके साथ बँधे रहते हैं उतने कालकी मर्यादाको स्थितिबन्ध कहते हैं। उन कर्मपरमाणुओमें फलप्रदान करनेका जो सामर्थ्य होता है उसे अनुभागबन्ध कहते हैं। आत्माके साथ बंधनेवाले कर्म परमाणुओंके ज्ञानावरणादि आठ कर्मरूपसे और उनकी उत्तरप्रकृत्तियोंके रूपसे जो बटवारा होता है उसे प्रदेशबन्ध कहते हैं। इस षष्ठ खण्डमें इन चारों बन्धोंका प्रकृतिसमुत्कीर्तन, सर्वबन्ध, नोसर्वबन्ध, उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्टबन्ध आदि २४ अनुयोगदारों द्वारा प्ररूपण किया गया है।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतघराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई० सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
श्रुतघराचार्यों की परंपरामें आचार्य भूतबलि का नाम आता है। पुष्पदन्तके नामके साथ भूतबलिका भी नाम आता है। दोनोंने एक साथ धरसेनाचार्य से सिद्धान्त-विषयका अध्ययन किया था। भूतबलिने अंकुलेश्वरमें चातुर्मास समाप्त कर द्रविड देशमें जाकर शृतका निर्माण किया। धवलाटीकामें आचार्य वीरसेनने पुष्पदन्तके पश्चात् भूतबलिको नमस्कार किया है।
पणमह कय-भूय-बलि भूयबलि केस-वास-परिभूय-बलिं।
विणिहय- वम्मह- पसरं बड्ढाविय-विमल-णाण-बम्मह-पसरं।।
अर्थात् जो भूत-प्राणीमात्रके द्वारा पूजे गये हैं अथवा भूत नामक व्यन्तर जातिके देवों द्वारा पूजित हैं, जिन्होंने अपने केशपाश अर्थात् सुन्दर बालोंसे बलि जरा आदिसे उत्पन्न होने वाली शिथिलताको परिभूत-तिरस्कृत कर दिया है। जिन्होंने कामदेवके प्रसारको नष्ट कर दिया है और निर्मल ज्ञानके द्वारा ब्रह्मचर्य को वृद्धिंगत कर लिया है उन भूतबलि नामक आचार्यको प्रणाम करो।
उपर्युक्त गाथामें भूतबलिके शारीरिक और आत्मिक तेजका वर्णन किया है। भूतबलिको आन्तरिक ऊर्जा इतनी बढ़ी हुई थी, जिससे ब्रह्मचर्यजन्य सभी उपलब्धियां उन्हें हस्तंगत हो गई थीं। ऋद्धि और तपस्याके कारण प्राणीमात्र उनकी पूजा प्रतिष्ठा करता था। इस प्रकार आचार्य वीरसेनने आचार्य भूतबलीके व्यक्तित्वकी एक स्पष्ट रेखा अक्ति की है। सौम्य आकृतिके साथ भूतबलिके केश अत्यन्त संयत और सुन्दर थे। केशोंकी कृष्णता और स्निग्धताके कारण वे युवा ही प्रतीत होते थे।
श्रवणबेलगोलाके एक शिलालेखमें पुष्पदन्तके साथ भूतबलिको भी अहंद् बलिका शिष्य कहा है। इस कथनसे ऐसा ज्ञात होता है कि भूतलिके दोक्षा गुरु अर्हद्बली और शिक्षागुरु धरसेनाचार्य रहे होंगे। लिखा है-
यः पुष्पदन्तेन च भूतबल्याख्येनापि शिष्य-द्वितयेन रेजे।
फलप्रदानाय जगज्जनानां प्राप्तोऽकुराभ्यामिव कल्पभूजः।
अर्हद्बलीस्सङ्घचतुर्विध स श्रीकोण्डकुन्दान्वयमूलसङ्घ।
कालस्वभावादिह जायमानद्वेषेतराल्पोकरणाय चक्रे।
इन अभिलेखीय पद्योंके आधारपर अर्हद्बलीको भूतबलिका गुरु मान लिया जाय तो कोई हानि नहीं है। समयक्रमानुसार अर्हद्बली और पुष्पदन्तके समयमें २१ + १९ = ४० वर्षका अन्तर पड़ता है जिससे अर्हद्बलीका भूतबलि और पुष्पदन्तके समसामयिक होनेमें कोई बाधा नहीं है।
भूतबलिके व्यक्तित्व और ज्ञानके सम्बन्ध में धवलाटोकासे पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। बताया है- भूतबलि भट्टारक असंबद्ध बात नहीं कह सकते। यतः महाकर्मप्रकृति प्राभृत रूपी अमृतपानसे उनका समस्त राग-द्वेष-मोह दूर हो गया है।
"ण चासंबद्ध भूदबलिभडारओं परूवेदि महाकम्मयपडिपाहुड- अमियवाणेण ओसारिदा सेसरागदोसमोहत्तादो।"
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि भूतबलि महाकर्मप्रकृति प्राभृतके पूर्ण ज्ञाता थे। इसलिये उनके द्वारा रचित सिद्धान्तग्रन्थ सर्वथा निर्दोष और अर्थपूर्ण हैं। इन्होंने २४ अनुयोगद्वारस्वरूप महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका ज्ञान प्राप्त किया था। बताया है-
"चउबीसअणियोगद्दारसरुवमहाकम्मपयडिपाहुडपारयस्स भूदवली भयवंतस्स।"
भूतबलिका समय आचार्य पुष्पदन्तका समय ही है। दोनोंने एक साथ धर सेनाचार्यसे सिद्धान्त-ग्रन्थोंका अध्ययन किया और अंकुलेश्वरमें साथ-साथ वर्षावास किया। पुष्पदन्त द्वारा रचित प्राप्त सूत्रोंके पश्चात् भूतबलिने षट्खण्डागमके शेष भागकी रचना की। डा. ज्योतिप्रसादने भूतबलिका समय ई. सन् ६६ - ९० तक माना है और षट्खण्डागमका संकलन ई. सन् ७५ स्वीकार किया है। प्राकृतपट्टावली, नन्दिसंघकी गुर्वावली आदि प्रमाणोंके अनुसार भूतबलिका समय ई. सन् की प्रथम शताब्दीका अन्त और द्वितीय शताब्दीका आरंभ आता है। डा. हीरालाल जैनने धवलाकी प्रस्तावनामें वीर नि. सं. ६१४ और ६८३ के बीच उक्त आचार्यों का काल निर्धारित किया है। अतएव भूतबलिका समय ई. सन् प्रथम शताब्दीका अन्तिम चरण (ई.८७ के लगभग) अवगत होता है।
इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारसे ज्ञात होता है कि भूतबलिने पुष्पदन्त विरचित सूत्रोंको मिलाकर पांच खण्डोंके छ: हजार सूत्र रचे और तत्पश्चात् महाबन्ध नामक छठे खण्डको तीस हजार सूत्रग्रंथरूप रचना की।
छक्खंडागमके सूत्रोंके अवलोकनमें प्रकट होता है कि प्रथम खण्ड जीव स्थानके आदिमे सत्प्नरूपणास्त्रोंके रचयिता पुष्पदन्ताचार्यने मंगलाचरण किया है और तदनुसार धवलाटोकाकार वीरसेन स्वामीने भी श्रुतावतार आदिका कथन किया है। पटखंदागममे तिदूतबनिने चौथे खंड वेदनाके आदिमें पुनः मंगल किया है और धवलाकारने भी जीवस्थानके समान ही कर्ता, निमित्त, श्रुतावतार आदिकी पुनः चर्चा की है। इससे यह षटखण्डायमग्नन्थ दो भागोंमें विभक्त प्रतीत होता है। पहले भागमें आदिके तीन खण्ड हैं और द्वितीय भागमें अन्तके तीन खण्ड है। इस द्वितीय भागमें ही महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके २४ अधिकारोंका वर्णन किया गया है। डा. हीरालालजीने इस द्वितीय खण्डकी विशेष संज्ञा सत्कर्मप्राभृत बतायी है। वस्तुत: आचार्य भूतबलीने पटखण्डागमके जीवस्थानको छोड़कर शेष समस्त खण्डोकी रचना की है। कृतिअनुयोगद्वारके आदिमें ग्रन्थावतारका वर्णन करते हुए वीरसेन स्वामीने लिखा है कि धरसेना चार्यने गिरिनगरकी चन्द्रगुफामें भूतबलि और पुग्पदन्तका समग्र महाकर्मप्रकृति प्राभृत समर्पित कर दिया| तत्पश्चात् भूतबलि भट्टारकने श्रुत-नदीके प्रवाहके बिच्छेदके भयसे भव्य जीवोंके उद्धारके लिये महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका उपसंहार करके छ: खण्ड किये।
इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें यह लिखा है कि भूतबलि आचार्यने षट् खण्डागमकी रचना कर उसे ग्रन्धरूपमें निबद्ध किया और ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को उसकी पूजा की और इसी कारण यह पञ्चमी श्रुतपञ्चमीके नामसे विख्यात्त हुई। तत्पश्चात् भूतबलिने उस षट्खण्डागमसूत्रके साथ जिनपालितको पुष्पदन्त गुरुके पास भेजा। जिनपालितके हाथमें षट्खण्डागम ग्रंथको देखकर मेरे द्वारा चिन्तित कार्य सम्पन्न हुआ, यह अवगत कर पुष्पदन्त गुरुने भी श्रुत भक्तिके अनुरागस पुलकित होकर श्रुत-पंचमोके दिन उक्त ग्रन्थको पूजा की।
श्रुतावतारके उक्त कथनसे यही प्रमाणित होता है कि पुष्पदन्ताचार्यने षट्खण्डागमकी रूपरेखा निर्धारित कर सत्प्ररूपणाके सूत्रोंकी रचना की थी और शेष भागको भूतबलिने समाप्त किया था।
छक्खंडागमके अवलोकानसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि दूसरे खण्ड खुद्दाबन्धसे छठे खण्ड तक यह भूतबलि द्वारा रचा गया है। चतुर्थ खण्ड वेदनाके अन्तर्मत कृतिअनुयोगद्वारके आदिमें सूत्रकारने ४४ मंगलसूत्र लिखे हैं और ४५ वे सूत्रसे ग्रन्थकी उत्थानिकाके रूप आग्रायणीय पूर्वके पञ्चम वस्तु अधिकार के अन्तर्गत कर्मप्रकृतिप्राभृतके २४ अनुयोगद्वारोंका निर्देश किया है। वीर सेन स्वामीने इन मंगलसूत्रोंको लेकर एक लम्बी चर्चा की है। इस चर्चासे तीन निष्कर्ष निकलते हैं-
१. भूतबलीने मंगलसूत्रोंकी रचना स्वयं नहीं की। परम्परासे प्राप्त महा कर्मप्रकृतिप्राभृत्तके मंगलसूत्रोंका संकलन किया है।
२. षट्खण्डागममें महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके अर्थका ही निबन्धन नहीं किया है; अपितु शब्द भी ग्रहण किये गये हैं।
३. भूतबलि कर्ता नहीं, प्ररूपक हैं। अतः षट्खण्डागमका द्वादशांग वाणी के साथ साक्षात् सम्बन्ध है।
इस तरह स्पष्ट है कि आचार्य भूतबलि महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके ज्ञानी एवं मर्मज्ञ विद्वान थे।
यह ग्रन्थ छह खण्डों में विभक्त है
१. जीवट्ठाण।
२. खुद्दाबन्ध।
३. बंधसामित्तविचय।
४. वेयणा।
५. बग्गणा।
६. महाबंध।
१. 'जीवट्ठाण' नामक प्रथम-खण्डमें जीवके गुण-धर्म और नानावस्थाओंका वर्णन आठ प्ररूपणाओंमें किया गया है। ये आठ प्ररूपणाएँ- सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व हैं। इसके अनन्तर नौ चूलिकाएँ हैं, जिनके नाम प्रकृतिसमुत्कीर्तन, स्थानसमुत्कीर्तन, प्रथम महादण्डक, द्वितीय महा दण्डक, तृतीयमहादण्डक, उत्कृष्टस्थिति, जघन्यस्थिति, सम्यक्त्वोत्पत्ति और गति अगति हैं। सत्प्ररूपणाके प्रथम सूत्र में पञ्चनमस्कार मन्त्रका पाठ है । इस प्ररूपणाका विषयनिरूपण ओघ और आदेश क्रमसे किया गया है। ओघमें मिथ्यात्व, सासादन आदि १४ गणस्थानोंका और आदेशमें गति, इन्द्रिय, काय आदि १४ मार्गणाओं का विवेचन उपलब्ध होता है। सत्प्ररूपणामें १७७ सूत्र हैं। इनमे ४०वें सूत्रसे ४५वे सूत्र तक छह कायके जीवोंका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। जीवोंके बादर और सक्ष्म भेदोंके पर्याप्त एवं अपर्यास भेद किये गये हैं। वनस्पति कायके साधारण और प्रत्येक ये दो भेद बतलाये हैं और इन्हीं भेदोंके बादर और सूक्ष्म तथा इन दोनों भेदोंके पर्याप्त और अपर्याप्त उपभेद कर विषयका निरूपण किया है। स्थावर और त्रसकायसे रहित जीवोंको अकायिक कहा है।
जीवाठा्ठणखण्डकी दूसरी प्ररूपणा द्रव्यप्रमाणानुगम है। इसमें १९२ सूत्रों द्वारा गुणस्थान और मार्गणाक्रमसे जीवोंकी संख्याका निर्देश किया है। इस प्ररूपणाके संख्यानिर्देशको प्रस्तुत करनेवाले सूत्रोंमें शतसहस्रकोटि, कोड़ा कोड़ी, संस्थात, असंख्यास, अनन्त और अनन्तानन्त संख्याओं का कथन उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त सातिरेक, हीन, गुण, अवहारभाग, वर्ग, वर्गमूल, घन, अन्योन्याभ्यस्त राशि, आदि गणितकी मौलिक प्रक्रियाओंके निर्देश मिलते हैं। कालगणनाके प्रसंगमें आवलो, अन्तमुहूर्त, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी, पल्योपम आदि एवं क्षेत्रकी अपेक्षा अंगुल, योजन, श्रेणी, जगत्प्रतर एवं लोकका उल्लेख आया है।
क्षेत्रप्ररूपणामें ९२ सूत्रों द्वारा गुणस्थान और मार्गणाक्रमसे जीवोंके क्षेत्रका कथन किया गमा है। उदाहरणार्थ कुछ सूत्र उद्धृत कर यह बतलाया जायगा कि सूत्रकर्ताकी शैली प्रश्नोत्तरके रूप में कितनी स्वच्छ है और विषयको प्रस्तुत करनेका क्रम कितना मनोहर है। यथा-
"सासणसम्माइट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति केवडी खेत्ते? लोगस्स असंखेज्जदिभाए।"
सजोगिकेवली केवडि खेत्ते? लोगस्स असंखेज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा।
आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइएसु मिच्छाइटि्ठप्पहुडि जाव असंजदसम्माइटि्ठ त्ति केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिमागे।
एवं सत्तसु पुढवीसु णेरइया।
तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छाइट्टी केवडि खेत्ते? सव्वलोए।
अर्थात तासादनसम्यकदृष्टी गुणस्थानसे लेकर अनौगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं? लोकके असंख्यात भाग प्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं।
सयोगकेवली जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं? लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रमें अथवा लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण क्षेत्रमें अथवा सर्व लोकमें रहते हैं।
आदेशकी अपेक्षा गसिते अनुवादसे नरकगतिमें नारकियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयत्तसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं।
इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें नारकी जीव लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रत्में रहते हैं।
तियंञ्चगतिमें तियंञ्चोंमें मिथ्यादृष्टी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं? सर्व लोकमें रहते हैं।
स्पष्ट है कि एक ही सूत्रमें प्रश्न और उत्तर इन दोनोंकी योजना की गयी है। वास्तवमें यह लेखककी प्रतिभाका वैशिष्ट्य है कि उसने आगमके गंभीर विषयको संक्षेपमें प्रश्नोत्तररूपमें उपस्थित किया है। इस प्ररूपणाका प्रमुख वर्ण्य विषय मार्गणा और गुणस्थानकी अपेक्षासे जीवोंके स्पर्शनक्षेत्रका कथन करना है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि जिस मार्गणामें अनन्त संख्यावाली एकेन्द्रिय जीवोंकी राशि आती है, उस मार्गणावाले जीव सर्वलोकमें रहते हैं और शेष मार्गणावाले लोकके असंख्यातवें भागमें| केवलज्ञान, केवलदर्शन, यथाख्यात संयम आदि जिन मार्गणाओंमें सयोगोजिन आते हैं, वे साधारण दशामें तो लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं किन्तु प्रतरसमुद्धातकी दशामें लोकके असंख्यात बहुभागोंमें तथा लोकपूर्णसमुद्घातकी दशामें सर्वलोकमें रहते हैं। बादर वायुकायिक जीव लोकके संख्यातवें भागमें रहते हैं।
स्पर्शन-प्ररूपणामें १८५ सूत्र हैं। इनमें, नानागुणस्थान और मार्गणावाले जीन स्वस्थान, समुद्धात एवं उपपात सम्बन्धी अनेक अवस्थाओं द्वारा कितने क्षेत्रका स्पर्श करते हैं, का विवेचन किया है। जीव जिस स्थानपर उत्पन्न होता है या रहता है वह उसका स्वस्थान कहलाता है। और उस शरीरके द्वारा जहाँ तक वह आता जाता है वह विहारवत्-स्वस्थान कहलाता है। प्रत्येक जीवका स्वस्थानकी अपेक्षा विहारवत्-स्वस्थानका क्षेत्र अधिक होता है। जैसे सोलहवें स्वर्गक किसी भी देवका क्षेत्र स्वस्थानको अपेक्षा तो लोकका असंख्यातवा भाग है, पर वह विहार करता हुमा नीचे तृतीय नरक तक जा-आ सकता है। अत: उसके द्वारा स्पर्श किया क्षेत्र आठ राजु लम्बा हो जाता है। विहारके समान समुद्घात और उपपादको अपेक्षा भी जीवोंका क्षेत्र बढ़ जाता है। वेदना, कषाय आदि किसी निमित्तविशेषसे जीवके प्रदेशोंका मल शरीरके साथ सम्बन्ध रहते हुए भी बाहर फैलना समुद्घात कहलाता है! समुद्नघातके सात भेद है। समुद्रघातकी अवस्थामें जीवका क्षेत्र शरीरकी अवगाहनाके क्षेत्रसे अधिक हो जाता है।
जीवका अपनी पूर्वपर्यायको छोड़कर अन्य पर्यायमें जन्म ग्रहण करना उप पाद है। इस प्रकार इस प्ररूपणामें स्वस्थान-स्वस्थान, विहारक्त-स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक, आहारक, तैजस, मारणान्तिक, केवलिसमुद्धात और उपपाद इन दश अवस्थाओंकी अपेक्षा किस गुणस्थानवाले और किस मार्गणावाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है, यह विवेचन किया गया है।
कालानुयोगमें ३४२ सूत्र है। इस प्ररूपणामें एक जीव और नाना जीवोंके एक गुणस्थान और मार्गणामें रहनेको जघन्य एवं उत्कृष्ट मर्यादाओंको काला बधिका निर्देश किया है। मिथ्यादष्टि मिथ्यात्वगुणस्थानमें कितने काल पर्यन्त रहते हैं? उत्तर देते हुए बताया है कि नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल; पर एक जीवकी अपेक्षा अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त हैं। तात्पर्य यह है कि अभव्य जीव अनादि अनन्त तथा भव्य जीव अनादि-सान्त और सादि सान्त हैं| जो जीव एक बार सम्यक्त्व ग्रहणकर पुन: मिथ्यात्वगुणस्थानमें पहुँचता है, उस जीवका वह मिथ्यात्व सादि-सान्त कहलाता है।
सूत्रकारने बड़े ही स्पष्ट रूपमें मिथ्यात्वके तीनों कालोंका एक जीवकी अपेक्षा और अनेक जीवोंकी अपेक्षा निरूपण किया है। जब कोई जीव पहली बार सम्यक्त्व प्राप्त कर अतिशीघ्र मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाता है तो वह अधिक-से-अधिक मिथ्यात्व गुणस्थानमें अद्धपुद्गल परावर्तन काल तक ही रहेगा | इसके अनन्तर वह नियमसे सम्यक्त्वको प्राप्तकर संयम धारण कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
अन्तर-प्ररूपणामें ३९७ सूत्र हैं। इस शब्दका अर्थ विरह, व्युच्छेद या अभाव है। किसी विवक्षित गुणस्थानवर्ती जीवका उस गुणस्थानको छोड़कर अन्य गुणस्थानमें चले जाने पर पुन: उसी गुणस्थानको प्राप्तिके पूर्व तकका काल अन्तरकाल या विरहकाल कहलाता है। सबसे कम विरह-कालको जघन्य अन्तर और सबसे बड़े विरहकालको उत्कृष्ट अन्तर कहा है । इस प्रकारके अन्तरकालकी प्ररूपणा करने वाली यह अन्तर-प्ररूपणा है। यह अन्तरकाल सामान्य और विशेषकी अपेक्षासे दो प्रकारका होता है। सूत्रकारने एक जीव और नाना जीवोंको अपेक्षासे एक ही गुणस्थान और मार्गणामें रहनेकी जघन्य और उत्कृष्ट कालावधिका निर्देश करते हए अन्तरकालका निरूपण किया है। मिथ्यादृष्टि जीवका अन्तरकाल कितना है, इस प्रश्नका उत्तर देते हुए बताया है कि नानाजीवोंकी अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है। ऐसा कोई काल नहीं जब संसारमें मिथ्यादुष्टि जीव न पाये जायें, एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यात्वका जघन्य अन्तर अन्तर्मूहुर्त और उत्कृष्ट अन्तर १३२ सागरोपम काल है। तात्पर्य यह है कि मिथ्यादृष्टि जीव परिणामोंकी विशुद्धिसे सम्यक्त्वको प्राप्त होकर कम-से-कम अन्तर्मूहुर्त कालमें संक्लिष्ट परिणामों द्वारा पुनः मिथ्यादृष्टी हो सकता है। अथवा अनेक मनुष्य और देवगतियोंमें सम्यक्त्व सहित भ्रमणकर अधिक-से-अधिक १३२ सागरोपमको पूर्णकर पुन: मिथ्यात्वको प्राप्त हो सकता है। तीव्र और मंद परिणामोंके स्वरूपका विवेचन भी इस प्ररूपणाके अन्तर्गत आया है। नानाजीवोंकी अपेक्षा मिथ्याष्टि,असंयत सम्यादृष्टि संयतासंयत, प्रमत्त संयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगकेवली ये छ: गुणस्थान इस प्रकारके हैं, जिनमें अन्तराल उपस्थित नहीं होता।मार्गणाओंमें उपशमसम्यक्त्व, सुक्ष्मसांपरायसंयम, आहारकक्राययोग, आहारकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, लब्धपर्याप्तमनुष्य, सासादन सम्यक्त्व और सम्यकमिथ्यात्व ऐसी अवस्थाएँ हैं, जिनमें गुणस्थानोंका अन्तरकाल संभव होता है। इनका जघन्य अंतरकाल एक समयमात्र और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात दिन या छ: मास आदि बतलाया गया है। इन आठ मार्गणाओंके अतिरिक्त शेष सभी मार्गणाओंवाले जीव सदा ही पाये जाते हैं।
भाव-प्ररूपणामें ९३ सूत्र हैं। इनमें विभिन्न गुणस्थानों और मार्गणास्थानोंमें होनेवाले भावोंका निरूपण किया गया है। कर्मोंके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम आदिके निमित्तसे जीवके उत्पन्न होनेवाले परिणामविशेषोंको भाव कहते हैं। ये भाव पाँच है- १. औदयिक भाव, २. औपशमिक भाव, ३. क्षायिक भाव, ४. क्षायोपशमिक भाव और ५. पारिणामिक भाव।
इन भावोंमेंसे किस गुणस्थान और किस मार्गणास्थानमें कौन-सा भाव होता है, इसका विवेचन इस भावप्ररूपणामें किया गया है। मिथ्यात्वगणस्थानमें उत्पन्न होनेवाले मिथ्यादृष्टिको औदयिक भाव होता है। दूसरे गुणस्थानमें अन्य भावोंके रहते हुए भी, पारिणामिक भाव रहते हैं। जिस प्रकार जीवत्व आदि पारिणामिक भावोंके लिये कर्मोका उदय, उपशम आदि कारण नहीं है उसी प्रकार सासादनसम्यक्त्वरूप भावके लिये दर्शनमोहनीयकर्मका उदय, उपशमादि कोई भी कारण नहीं है।
तीसरे गुणस्थानमें क्षायोपशमिक भाव होता है। यत: इस गुणस्थानमें सम्यक-मिथ्यात्वप्रकृतिके उदय होनेपर श्रद्धान और अश्रद्धानरूप मिश्रभाव उत्पन्न होना है। उसमें जो श्रद्धानांश है वह सम्यक्त्वगुणका अंश है और जो अश्रद्धानांश है वह मिथ्यात्वका अंश है। अतएवं सम्यमिथ्यात्वभावको क्षायोपामिक माना गया है। चतुर्थ गुणस्थानमें औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन भाव पाये जाते हैं। यतः यहाँ पर दर्शनमोहनीग्नकर्मका उपशम, क्षय और क्षयोपशम ये तीनों ही संभव है।
आदिके चार गुणस्थान दर्शनमोहनीयके उदय, उपशम, क्षय आदि से उत्त्पन्न होते हैं। अतएव इन गुणस्थानों में अन्य भावोंके पाये जानेपर भी दर्शन मोहनीयकी अपेक्षासे भावोंकी प्ररूपणा की गई है। चतुर्थ गुणस्थान तक जो असंयमभाव पाया जाता है वह चारित्रमोहनीयकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेके कारण औद्योयिक भाव है। पर यहाँ उनकी विवक्षा नहीं की गयी है!
पञ्चम गुणस्थानसे द्वादश गुणस्थान तक आठ गुणस्थानोके भावोंका कथन चारित्रमोहनीयकर्मके क्षयोपशम, उपशम और क्षयकी अपेक्षासे किया गया है। पञ्चम, षष्ट और सप्तम गुणस्थानमें चारित्रमोहके क्षयोपशमसे क्षायोपशमिक भाव होते हैं। अष्टम, नवम, दशम और एकादश इन चार उपशामक गुणस्थानोंमें चारित्रमोहके उपशमसे औपशमिक भाव तथा क्षपकश्रेणी सम्बन्धी अष्टम, नवम, दशम और द्वादश इन चार गुणस्थानों में चारित्रमोहनीयके क्षयसे क्षायिक भाव होता है। त्रयोदश और चतुर्दश गुणस्थानों में जो क्षायिक भाव पाये जाते है वे घातियाकर्मोके क्षयसे उतान्न हुए समझना चाहिए। गुणस्थानोंके समान ही मार्गणास्थानों में भी भावोंका प्रतिपादन किया गया है।
अल्पबहुल-प्ररूपणामें ३८२ सूत्र हैं। नानागुणस्थान और मार्गणागुण स्थानवर्ती जीवोंको संख्याका हीनाधिकत्व इस प्ररुगणामें वर्णित है। अपूर्व करण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें उपशमसम्यक्त्वी जीव अन्य सब स्थानोंकी अपेक्षा प्रमाणमें अल्प और परस्पर तुल्य होते हैं। इनसे अपूर्वकरणादि तीन गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दष्टि जीव संख्यात गणित हैं। क्षीणकषाय जीवोंको संख्या भी इतनी हो है। सयोगकेवली संयमको अपेक्षा प्रविश्यमान जीवोंसे संख्यात गुणित हैं।
उपर्युक्त आठ प्ररूपणाओंके अतिरिक्त जीवस्थानको नौ चूलिकाएं हैं। प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामकी चूलिकामें ४६ सूत्र हैं| जीवके गति, जाति आदिके रूपमें जो नाना भेद उपलब्ध होते हैं उनका कारण कर्म है। कर्मका विस्तार पूर्वक विवेचन इस चूलिकामें आया है।
दूसरी चूलिका स्थानसमुत्कीर्तन नामकी है। इसमें ११७ सूत्र हैं। प्रत्येक मूलकर्मकी कितनी उत्तरप्रकृतियों एक साथ बांधी जा सकती हैं और उनका बन्ध किस-किस गुणस्थानमें करता है, इसका सुस्पष्ट विवेचन किया गया है। तृतीय चूलिका प्रथम महादण्डक नामकी है। इसमें दो सूत्र हैं। प्रथमसम्यक्त्व को पास आनेवाला जीस ७८ प्रकृतीयोंका बन्दकर्ता है, जन प्रकृतियोंकी गणना की गई है। इन प्रकृतियोंका बन्धकर्ता संज्ञी पञ्चेन्द्रिय मनुष्य या तिर्यञ्च होता है। द्वितीय महादण्डक नामकी चौथी चूलिकामें भी केवल दो सूत्र हैं। इनमें ऐसी कर्मप्रकृतियोंकी भी गणना की गई है जिनका बन्ध प्रथमसम्यक्त्वके अभिमुख हुआ देव और छ: पृथ्वियोंके नारको जीव करते हैं। तृतीय दण्डक नामक पांचवीं चूलिकामें दो सूत्र हैं| और इन सूत्रोंमें सातवीं पृथ्वीके नारकी जीवोंके सम्यक्त्वाभिमुख होनेपर बन्धयोग्य प्रकृतियोंका निर्देश किया गया है। छठी उत्कृष्टस्थिति नामक चूलिकामें ४४ सूत्र हैं। इसमें बन्धे हुए कार्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका निरूपण किया गया है। आशय यह है कि सूत्रकर्ता आचार्यने यह बतलाया है कि बन्धको प्राप्त विभिन्न कर्म अधिक-से-अधिक कितने कालतक जीवोंसे लिप्त रह सकते हैं और बन्धके कितने समय बाद आबाधाकालके पश्चात् दिपाक आरम्भ होता है। एक कोड़ाकोड़ी वर्षप्रमाण बन्धकी स्थितिपर १०० वर्षका आबाधाकाल होता है। और अन्तःकोड़ाकोड़ी सागारोपम स्थितिका आबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त होता है। परन्तु आयुकर्मका आबाधाकाल इससे भिन्न है। क्योंकि वहाँ आबाधा अधिक-से-अधिक एक पूर्व कोटि आयुके तृतीयांश प्रमाण होती है। सातवीं जघन्यस्थिति नामक चुलिकामें ४३ सूत्र हैं। इस चलिकामें कर्मोकी जघन्य स्थितिका निरूपण किया गया है। परिणामोंको उत्कृष्ट विशुद्धि जघन्य स्थितिबन्धका और संक्लेश उत्कृष्ट कर्म स्थितिबन्धका कारण है।
आठवीं चलिका सम्यक्त्वोत्पत्तिमें १६ सूत्र हैं। इस चूलिकामें सम्यक्त्वोत्पत्ति योग्य कर्मस्थिति, सम्यक्त्वके अधिकारी आदिका निरूपण है। जीवन-शोधनके लिए सम्यक्त्वकी कितनी अधिक आवश्यकता है, इसकी जानकारी भी इससे प्राप्त होती है। नवमी चूलिका गति-अगति नामकी है। इसमें २४३ सूत्र हैं। विषयवस्तुकी दृष्टिसे इसे चार भागोंमें विभक्त किया जा सकता है। सर्वप्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके बाहरी कारण किस गतिमें कौन-कौनसे सम्भव है, इसका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। तदनन्तर चारों गतिके जीव मरणकर किस-किस गतिमें जा सकते हैं और किस-किस गतिसे किस-किस गतिमें आ सकते हैं, का विस्तारपूर्वक वर्णन पाया जाता है| देव मरकर देव नहीं हो सकता और न नारको ही हो सकता है। इसी तरह नारकी जीव मरकर न नारकी हो सकता है और न देव हो। इन दोनों गतियोंके जीव मरणकर मनुष्य या तिर्यञ्चगति प्राप्त करते हैं। देव और नारकी मरकर मनुष्य या तियंञ्च ही होते हैं। मनुष्य और तिसञ्चगतिके जीव चारों हो गतियोंमें जन्म ग्रहण कर सकते हैं।
तदनन्तर किस गुणस्थानमें मरणकर कौन-सी गति किस-किस जीवको प्राप्त होती है, इसपर विशेष विचार किया है। तत्पश्चात् बतलाया गया है कि नरक और देवगतियोंसे आये हुए जीव तीर्थंकर हो सकते हैं। अन्य गतियोंसे आये हुए नहीं। चक्रवती, नारायण, प्रतिनारायण और बलभद्र केवल देवगतिसे आये हुए जीन ही होते हैं, शेष गतियोंसे आये हुए नहीं। चक्रवर्ती मरणकर स्वर्ग और नरक इन दोनों गतियोंमें जाते हैं और कर्मक्षयकर मोक्ष भा प्राप्त कर सकते हैं। बलभद्र स्वर्ग या मोक्षको जाते हैं। नारायण और प्रतिनारायण मरणकर नियमसे नरक जाते हैं। तत्पश्चात् बतलाया गया है कि सातवें नरकका निकला जीव तिर्यञ्च ही हो सकता है, मनुष्य नहीं। छठे नरकसे निकले हुए जीव तियंञ्च और मनुष्य दोनों हो सकते हैं। पञ्चम नरकसे निकले हए जीव मनुष्यभवमें संयम भी धारण कर सकते हैं, पर उस भवसे मोक्ष नहीं जा सकते। चौथे नरकसे निकले हुए जीव मनुष्य होकर और संयम धारण कर केवलज्ञानको उत्पन्न करते हुए निर्वाण भी प्राप्त कर सकते हैं। तृतीय नरकसे निकले हुए जीव तीर्थंकर हो सकते हैं। इस प्रकार जीवट्ठाण नामक प्रथम खण्डमें कुल २,३७५ सूत्र हैं और यह आठ प्ररूपणाओं और नौ चूलिकाओंमें विभक्त है।
२. खुद्दाबन्ध (क्षुद्रकबन्ध)
इसमें मार्गणास्थानोंके अनुसार कौन जीव बन्धक है और कौन अबन्धक, का विवेचन किया है। कर्मसिद्धान्तकी दृष्टिसे यह द्वितीय खण्ड बहुत उपयोगी और महत्वपूर्ण है। इसका विशद विवेचन निम्नलिखित ग्यारह अनुयोर्गों द्वारा किया गया है-
१. एक जीवको अपेक्षा स्वामित्व
२. एक जीवकी अपेक्षा काल
३. एक जीवकी अपेक्षा अन्तर.
४. नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचय
५. द्वव्यप्रमाणानुगम
६. क्षेत्रानुगम
७,स्पर्शानुगम
८. नानाजीवोंकी अपेक्षा काल
९. नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर
१०. भागाभागानुगम
११. अल्पबहुत्वानुगम
इन ग्यारह अनुयोगोंके पूर्व प्रास्ताविक रूपमें बन्धकोंके सत्वको प्ररूपणा को गई है और अन्तमें ग्यारह अनुयोगद्वारोंकी चूलिकाके रूपमें महादंडक दिया गया है। इस प्रकार इस खण्डमें १३ अधिकार हैं।
प्रास्ताविक रूपमें आई बन्ध-सत्त्वप्ररूपणामें ४३ सुत्र हैं। गतिमार्गणाके अनुसार नारकी और तिर्यञ्च बन्धक हैं। मनुष्य बन्धक भी है और अबन्धक भी। सिद्ध अबन्धक हैं। इन्द्रियादि मार्गणाओंकी अपेक्षा भी बन्धके सत्वका विवेचन किया है। जबतक मन, वचन और कायरूप योगको क्रिया विद्यमान रहती है तबतक जीव बन्धक रहता है। अयोगकेवली और सिद्ध अबन्धक होते हैं।
स्वामित्व नामक अनुगममें ९१ सूत्र हैं, जिनमें मार्गणाओके अनुक्रमसे कौन-से गुण या पर्याय जीवके किन भावोंसे उत्पन्न होते हैं तथा जीवको लब्धियोंकी प्राप्ति किस प्रकार होती है, आदिका प्रश्नोत्तरके रूप में प्ररूपण किया गया है। इस अनुगममें सिद्धगति, अनिद्रियत्व, अकायत्व, अलेश्यत्व, अयोगत्व, क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान और केवलदर्शन तो क्षायिकलब्धिसे उत्पन्न होते हैं। एकेन्द्रियादि पांच जातियां मन, वचन, काय ये तीन योग, मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चार ज्ञान, तीन अज्ञान, परिहारविशुद्धिसंयम, चक्षु, अचक्षु और अवधिदर्शन, वेदकसम्यक्त्व, सम्यक् मिथ्याष्टित्व और संज्ञीत्वभाव ये क्षायो पशमिकलब्धिसे उत्पन्न होते हैं। अपगतवेद, कषाय, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातसंयम ये औपशामिक तथा क्षायिकलब्धिसे उत्पन्न होते हैं। सामायिक और छेदोपस्थापनासंयम, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिकलब्धिसे उत्पन्न होते हैं। औपशमिक सम्यग्दर्शन औपशमिकलब्धिसे उत्पन्न होता है, भव्यत्व, अभव्यत्व और सासादनसम्यग्दष्ठित्व ये पारिणामिक भाव है। शेष गति आदि समस्त मार्गणान्तर्गत जीवपर्याप अपने-अपने कर्मों के उदयसे होते हैं। अनाहारकत्व कर्मोके उदयसे भी होता है और क्षायिकलब्धिसे भी।
कालानुगममें २१६ मूत्र हैं। इस अनुगममें गति, इन्द्रिय, काय आदि मार्ग णाओंमें जीवकी जघन्य और उत्कृष्ट कालस्थितिका विवेचन क्रिया है| जीव स्थान खण्डमें प्ररूपित कालप्ररूपणाकी अपेक्षा यह विशेषता है कि यहाँ गुणस्थानका विचार छोड़कर प्ररूपणा की गई है।
अन्तरप्ररूपणामें १५१ सूत्र हैं। मार्गणाक्रमसे जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कालका विशद विवेचन किया गया है।
भंगविषयमें २३ सत्र हैं। किन मार्गणाओंमें कौन-से जीव सदैव रहते और कौन-से जीव कभी नहीं रहते, का वर्णन किया है। बताया गया है कि नरकादि गतियोंमें जीव सदैव नियमसे निवास करते हैं। किन्तु मनुष्य अपर्याप्त कभी होते हैं और कभी नहीं भी होते। इसी प्रकार वक्रियिकमिश्र आदि जीवोंकी मार्गणाएँ भी सान्तर हैं।
द्रव्यप्रमाणानुगममें १७१ सूत्र हैं। गुणस्थानको जोड़कर मार्गणाक्रमसे जीवों की संख्या, उसीके आश्रयसे काल एवं क्षेत्रका प्ररूपण किया गया है।
क्षेत्रानुगममें १२४ और स्पर्शानुगममें २७९, सूत्र हैं। इन दोनोंमें अपने अपने विषयके अनुसार जीवोंका विवेचन किया गया है।
कालानुगममें ५५ सूत्र है। इसमें कालकी अमोपासना जीवोंका वर्णन किया है। अनादि-अन्नन्त, अनादि-सान्त, सादि-अनन्त एवं सादि-सान्त रूपसे कालसरपणा की गई है।
नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरका वर्णन करनेवाले अन्तरानुगममें ६८ सूत्र हैं। बन्धकोंके जघन्य और उत्कुष्ट अन्तरकालकी प्ररूपणा की गई है।
भागाभागानुगममें ८८ सूत्र हैं। इस अनुगममें मार्गणानुसार अनन्तवे भाग, असंख्यात्तवें भाग, संख्यातवे भाग तथा अनन्त बहुभाग, असंख्यात बहुभाग, संख्यात बहभाग, रूपसे जीवोंका सर्वजीवोंकी अपेक्षा प्रमाण बतलाया गया है। एक प्रकारसे इस अनुगममें जीवोंकी संख्याओंपर प्रकाश डाला गया है तथा परम्पर तुलनात्मक रूपसे संख्या बतायो गई है। यथा-नारकी जीवोंका विवेचन करते हुए कहा गया है कि वे समस्त जीवोंकी अपेक्षा अनन्तवें भाग हैं। इस प्रकार परस्परमें तुलनात्मक रूपसे जीवोंको भाग-अभागानुक्रममें संख्या बतलायी गई है।
अल्पबहुत्व-अनुगममें १०६ सुत्र हैं, जिनमें १४ मार्गणाओंके आश्रयसे जीव समासोंका तुलनात्मक द्रव्यप्रमाण बतलाया गया है। गतिमार्गणामें मनुष्य सबसे थोड़े हैं। उनसे नारकी असंख्यगुणे हैं। देव नारकियोंसे असंख्यगुणे हैं। देवोंसे सिद्ध अनन्तगुणे हैं तथा तीर्यंच देवोंसे भी अनन्तगुणे हैं।
अन्तिम चूलिका महादण्कके रूपमें है। इसमें ७९ सूत्र है| इस चूलिकामें मार्गणाविभागको छोड़कर गर्भपिक्रान्तिक मनुष्य-पर्याप्ससे लेकर निगोद जीवों तकके जीवसमासोंका अल्पबहुत्व प्रतिपादित है। जीवोंकी सापेक्षिक राशिके ज्ञानको प्राप्त करने के लिए यह चूलिका उपयोगी है।
इस प्रकार समस्त खुद्दाबन्धमें १,५८२ सूत्र हैं। इनमें कर्मप्रकृतिप्राभृतके बन्धक अधिकारके बन्ध, अबन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान नामक चार अनुयोगोंमेंसे बन्धकका प्ररूपण किया गया है। इसे खुद्दबन्ध कहनेका कारण यह है कि महाबन्धको अपेक्षा यह बन्धप्रकरणा छोटा है।
३. बंधसामिविषय (अन्धस्वामित्ववित्रय)
इस तृतीय खण्ड में कर्मोंकी विभिन्न प्रकृतियोंक बन्ध करनेवाले स्वामियों का विचार किया गया है। महां विचयशब्दका अर्थ विचार, मोमांसा और परीक्षा है। यहाँ इस बातका विवेचन किया है कि कौन-सा कर्मबन्ध किस गुणस्थान और मार्गणामें संभव है। अर्थात् कर्मबन्धके स्वामी कौनसे गुण स्थानवर्ती और मार्गणास्थानवर्ती जोव हैं। इस खण्डमें कुल ३२४ सूत्र हैं। इनमें आरम्भके ४२ सूत्रोंमें गुणस्थान-क्रमसे बन्धक जीवोंका प्ररूपण किया है। कर्मसिद्धान्तकी अपेक्षा किस गुणस्थानमें भेद और अभेद विवक्षासे कितनी प्रकृतियोंका कौन जीव स्वामी होता है, इसका विशद विवेचन किया गया है।
४.वेदनाखण्ड
कर्मप्राभसके २४ अधिकारोंमेंसे कृति और वेदना नामक प्रथम दो अनु योगोंका नाम वेदना-खण्ड है। सूत्रकारने प्रारंभमें मंगलाचरण किया है तथा इसी चतुर्थ खण्डके प्रारंभमें पुनः भी मंगलसूत्र मिलते हैं। अतः यह अनुमान सहजमें लगाया जा सकता है कि प्रथम बारका मंगल प्रारंभके तीन खण्डोंका है और द्वितीय बारका मंगल शेष तीन खण्डोंका। ग्रन्थके आदि और मध्यमें मंगल करनेका जो सिद्धान्त प्रतिपादित है उसका समर्थन भी इससे हो जाता है। कृतिअनुयोगद्वारमें ७५ सूत्र है, जिनमें ४४ सूत्रोंमें मंगलस्तवन किया गया है। शेष सूत्रोंमें कृत्तिके नाना भेद बतलाकर मूलकरण कृतिक १३ भेदोंका स्वरूप बतलाया गया है।
द्वित्तीय प्रकरणका १६ अधिकारोंमें विवेचन किया गया है। अधिकारोंकी नामावली सुत्रानुसार निम्न प्रकार है
१. निक्षेप - ३ सूत्र
२. नय - ४ सूत्र
३. नाम - ४ सूत्र
४. द्रव्य - १३ सूत्र
५. क्षेत्र - १९ सूत्र
६. काल - २७९ सूत्र
७. भाव - ३१४ सूत्र
८. प्रत्यय - १६ सूत्र
९. स्वामित्व - १५ सूत्र
१०. वेदनाविधान - ५८ सूत्र
११. गती - १२ सूत्र
१२, अनन्तर - ११ सूत्र
१३. सन्निकर्ष - ३२० सूत्र
१४. परिमाण - ५३ सूत्र
१५. भागाभाग - २१ सुत्र
१६. अल्पबहुव - २७ सत्र
वस्तुतः यह वेदना अनुयोगद्वार बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। निक्षेप अधिकारमें नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों द्वारा वेदनाके स्वरूपका स्पष्टीकरण किया गया है। नय अधिकारमें उक्त निक्षेपोंमें कौन-सा अर्थ यहां है, यह नेगम प्रकृत संग्रह आदि नयोंके द्वारा समझाया गया है। नामविधान अधिकारमें नैगमादि नयोंके द्वारा ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों में वेदनाकी अपेक्षा एकत्व स्थापित किया गया है। द्रव्यविधान अधिकारमें कर्मों के द्रव्यका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, सादि, अनादि स्वरूप समझाया गया है। क्षेत्रविधानसे ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मरूप पुदगलद्रव्यको वेदना मानकर समुद्घातादि विविध अवस्थाओमें जीवके प्रदेशक्षेत्रकी प्ररुपणा की गई है। कालविधान अधिकारमें पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारमें कालके स्वरूपका विवेचन किया गया है। भाववीधानमें पूर्वोक्त पदमीमांसादि तीन अनुयोगों द्वारा ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों की उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट भावात्मक वेदनाओं पर प्रकाश डाला गया है| वेदना प्रत्ययमे नयोंके आश्रय द्वारा वेदनाके कारणोंका विवेचन किया है। वेदना स्वामित्वमें आठों कर्मों के स्वामियों का प्ररूपण किया है। वेदना वेदन अधिकारमें आठो कमों के बध्यमान, उदोरणा और उपशान्त स्वरूपोंका एकत्व और अनेकत्वको अपेक्षा कथन किया है। वेदना गतिविधान अनुयोगद्वारमें कर्मों की स्थिति, स्थिति अथवा स्थित्यस्थिति अवस्थाओंका निरुपण किया है। अनन्तरविधान अनुयोगद्वार्मे कार्मोकी अनन्तरपरम्परा एवं बन्धप्रकारोंका विचार किया है। कर्मों को वेदना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा किस प्रकार उत्कृत और जघन्य होती है, का विवेचन वेदना सन्निकर्षमे किया गया है| वेदना परिमाणविधान अधिकारमें आठों कर्मों की प्रकृत्यर्थता, समयबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यासकी प्ररूपणा की गई है। भागाभागमें कर्मप्रकृतियोंके भाग और अभागका विवेचन आया है। अल्प बहुत्वविधानमें कर्मोंके अल्पबहुत्वका निरूपण किया है। इस प्रकार वेदना खण्डमें कुल १,४४९ सूत्र हैं।
५. वर्ग खण्ड
इनमें स्पर्श, कर्म और प्रकृति नामक तीन अनुयोगद्वारोंका प्रतिपादन किया गया है। स्पर्श-अनुयोगद्वारमें स्पर्शनिक्षेप, स्पर्शनयविभाषणता, स्पर्शनाम विधान और स्पर्शद्रव्यविधान आदि १६ अधिकारमें स्पर्शका विचार किया गया है| कर्म-अनुयोगद्वारमें नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, सामावदानकर्म, अध:करणकर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म, क्रियाकर्म और भावकर्मका प्ररूपण है। प्रकृति-अनुयोगद्वारमें प्रकृतिनिक्षेप आदि १६ अनुयोगद्वारोंका विवेचन है। इन तीनों अनुयोगद्वारों में क्रमशः ६३, ३१, और १४२ सूत्र हैं।
बन्धनके चार भेद है - १, बन्ध, २. बन्धक, ३. बन्धनीय और ४. बन्धविधान। बन्ध और बन्धनीयका विवेचन ७२७ सूत्रों में किया गया है| बन्ध प्रकरण ६४ सूत्रोंमें समाप्त हुआ है। बन्धनीयका स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि विपाक या अनुभव करनेवाले पुद्गलस्कन्ध हो बन्धनीय होते हैं और वे बर्गणारूप है।
६. महाबन्ध
बन्धनीय अधिकारकी समाप्तिके पश्चात् प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थिति बन्ध और अनुभागबन्धका विवेचन छठे खण्डमें अनेक अनुयोगद्वारोंमें विस्तार पूर्वक किया गया है। प्रकृतिका शब्दार्थ स्वभाव है। यथा - चीनीकी प्रकृति मधुर ओर नीमकी प्रकृति कटुक होती है। इसी प्रकार आत्माके साथ सम्बद्ध हुए कर्मपरमाणुओंमें आस्माके ज्ञान-दर्शनादि गुणोंको आवृत्त करने या सुखादि गुणोंके घात करनेका जो स्वभाव पड़ता है उसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं। वे आये हुए कर्मपरमाणु जितने समयतक आत्माके साथ बँधे रहते हैं उतने कालकी मर्यादाको स्थितिबन्ध कहते हैं। उन कर्मपरमाणुओमें फलप्रदान करनेका जो सामर्थ्य होता है उसे अनुभागबन्ध कहते हैं। आत्माके साथ बंधनेवाले कर्म परमाणुओंके ज्ञानावरणादि आठ कर्मरूपसे और उनकी उत्तरप्रकृत्तियोंके रूपसे जो बटवारा होता है उसे प्रदेशबन्ध कहते हैं। इस षष्ठ खण्डमें इन चारों बन्धोंका प्रकृतिसमुत्कीर्तन, सर्वबन्ध, नोसर्वबन्ध, उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्टबन्ध आदि २४ अनुयोगदारों द्वारा प्ररूपण किया गया है।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतघराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई० सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा।
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डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा।
आचार्य श्री १०८ भूतबलि महाराजजी (प्राचीन)
श्रुतघराचार्यों की परंपरामें आचार्य भूतबलि का नाम आता है। पुष्पदन्तके नामके साथ भूतबलिका भी नाम आता है। दोनोंने एक साथ धरसेनाचार्य से सिद्धान्त-विषयका अध्ययन किया था। भूतबलिने अंकुलेश्वरमें चातुर्मास समाप्त कर द्रविड देशमें जाकर शृतका निर्माण किया। धवलाटीकामें आचार्य वीरसेनने पुष्पदन्तके पश्चात् भूतबलिको नमस्कार किया है।
पणमह कय-भूय-बलि भूयबलि केस-वास-परिभूय-बलिं।
विणिहय- वम्मह- पसरं बड्ढाविय-विमल-णाण-बम्मह-पसरं।।
अर्थात् जो भूत-प्राणीमात्रके द्वारा पूजे गये हैं अथवा भूत नामक व्यन्तर जातिके देवों द्वारा पूजित हैं, जिन्होंने अपने केशपाश अर्थात् सुन्दर बालोंसे बलि जरा आदिसे उत्पन्न होने वाली शिथिलताको परिभूत-तिरस्कृत कर दिया है। जिन्होंने कामदेवके प्रसारको नष्ट कर दिया है और निर्मल ज्ञानके द्वारा ब्रह्मचर्य को वृद्धिंगत कर लिया है उन भूतबलि नामक आचार्यको प्रणाम करो।
उपर्युक्त गाथामें भूतबलिके शारीरिक और आत्मिक तेजका वर्णन किया है। भूतबलिको आन्तरिक ऊर्जा इतनी बढ़ी हुई थी, जिससे ब्रह्मचर्यजन्य सभी उपलब्धियां उन्हें हस्तंगत हो गई थीं। ऋद्धि और तपस्याके कारण प्राणीमात्र उनकी पूजा प्रतिष्ठा करता था। इस प्रकार आचार्य वीरसेनने आचार्य भूतबलीके व्यक्तित्वकी एक स्पष्ट रेखा अक्ति की है। सौम्य आकृतिके साथ भूतबलिके केश अत्यन्त संयत और सुन्दर थे। केशोंकी कृष्णता और स्निग्धताके कारण वे युवा ही प्रतीत होते थे।
श्रवणबेलगोलाके एक शिलालेखमें पुष्पदन्तके साथ भूतबलिको भी अहंद् बलिका शिष्य कहा है। इस कथनसे ऐसा ज्ञात होता है कि भूतलिके दोक्षा गुरु अर्हद्बली और शिक्षागुरु धरसेनाचार्य रहे होंगे। लिखा है-
यः पुष्पदन्तेन च भूतबल्याख्येनापि शिष्य-द्वितयेन रेजे।
फलप्रदानाय जगज्जनानां प्राप्तोऽकुराभ्यामिव कल्पभूजः।
अर्हद्बलीस्सङ्घचतुर्विध स श्रीकोण्डकुन्दान्वयमूलसङ्घ।
कालस्वभावादिह जायमानद्वेषेतराल्पोकरणाय चक्रे।
इन अभिलेखीय पद्योंके आधारपर अर्हद्बलीको भूतबलिका गुरु मान लिया जाय तो कोई हानि नहीं है। समयक्रमानुसार अर्हद्बली और पुष्पदन्तके समयमें २१ + १९ = ४० वर्षका अन्तर पड़ता है जिससे अर्हद्बलीका भूतबलि और पुष्पदन्तके समसामयिक होनेमें कोई बाधा नहीं है।
भूतबलिके व्यक्तित्व और ज्ञानके सम्बन्ध में धवलाटोकासे पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। बताया है- भूतबलि भट्टारक असंबद्ध बात नहीं कह सकते। यतः महाकर्मप्रकृति प्राभृत रूपी अमृतपानसे उनका समस्त राग-द्वेष-मोह दूर हो गया है।
"ण चासंबद्ध भूदबलिभडारओं परूवेदि महाकम्मयपडिपाहुड- अमियवाणेण ओसारिदा सेसरागदोसमोहत्तादो।"
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि भूतबलि महाकर्मप्रकृति प्राभृतके पूर्ण ज्ञाता थे। इसलिये उनके द्वारा रचित सिद्धान्तग्रन्थ सर्वथा निर्दोष और अर्थपूर्ण हैं। इन्होंने २४ अनुयोगद्वारस्वरूप महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका ज्ञान प्राप्त किया था। बताया है-
"चउबीसअणियोगद्दारसरुवमहाकम्मपयडिपाहुडपारयस्स भूदवली भयवंतस्स।"
भूतबलिका समय आचार्य पुष्पदन्तका समय ही है। दोनोंने एक साथ धर सेनाचार्यसे सिद्धान्त-ग्रन्थोंका अध्ययन किया और अंकुलेश्वरमें साथ-साथ वर्षावास किया। पुष्पदन्त द्वारा रचित प्राप्त सूत्रोंके पश्चात् भूतबलिने षट्खण्डागमके शेष भागकी रचना की। डा. ज्योतिप्रसादने भूतबलिका समय ई. सन् ६६ - ९० तक माना है और षट्खण्डागमका संकलन ई. सन् ७५ स्वीकार किया है। प्राकृतपट्टावली, नन्दिसंघकी गुर्वावली आदि प्रमाणोंके अनुसार भूतबलिका समय ई. सन् की प्रथम शताब्दीका अन्त और द्वितीय शताब्दीका आरंभ आता है। डा. हीरालाल जैनने धवलाकी प्रस्तावनामें वीर नि. सं. ६१४ और ६८३ के बीच उक्त आचार्यों का काल निर्धारित किया है। अतएव भूतबलिका समय ई. सन् प्रथम शताब्दीका अन्तिम चरण (ई.८७ के लगभग) अवगत होता है।
इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारसे ज्ञात होता है कि भूतबलिने पुष्पदन्त विरचित सूत्रोंको मिलाकर पांच खण्डोंके छ: हजार सूत्र रचे और तत्पश्चात् महाबन्ध नामक छठे खण्डको तीस हजार सूत्रग्रंथरूप रचना की।
छक्खंडागमके सूत्रोंके अवलोकनमें प्रकट होता है कि प्रथम खण्ड जीव स्थानके आदिमे सत्प्नरूपणास्त्रोंके रचयिता पुष्पदन्ताचार्यने मंगलाचरण किया है और तदनुसार धवलाटोकाकार वीरसेन स्वामीने भी श्रुतावतार आदिका कथन किया है। पटखंदागममे तिदूतबनिने चौथे खंड वेदनाके आदिमें पुनः मंगल किया है और धवलाकारने भी जीवस्थानके समान ही कर्ता, निमित्त, श्रुतावतार आदिकी पुनः चर्चा की है। इससे यह षटखण्डायमग्नन्थ दो भागोंमें विभक्त प्रतीत होता है। पहले भागमें आदिके तीन खण्ड हैं और द्वितीय भागमें अन्तके तीन खण्ड है। इस द्वितीय भागमें ही महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके २४ अधिकारोंका वर्णन किया गया है। डा. हीरालालजीने इस द्वितीय खण्डकी विशेष संज्ञा सत्कर्मप्राभृत बतायी है। वस्तुत: आचार्य भूतबलीने पटखण्डागमके जीवस्थानको छोड़कर शेष समस्त खण्डोकी रचना की है। कृतिअनुयोगद्वारके आदिमें ग्रन्थावतारका वर्णन करते हुए वीरसेन स्वामीने लिखा है कि धरसेना चार्यने गिरिनगरकी चन्द्रगुफामें भूतबलि और पुग्पदन्तका समग्र महाकर्मप्रकृति प्राभृत समर्पित कर दिया| तत्पश्चात् भूतबलि भट्टारकने श्रुत-नदीके प्रवाहके बिच्छेदके भयसे भव्य जीवोंके उद्धारके लिये महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका उपसंहार करके छ: खण्ड किये।
इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें यह लिखा है कि भूतबलि आचार्यने षट् खण्डागमकी रचना कर उसे ग्रन्धरूपमें निबद्ध किया और ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को उसकी पूजा की और इसी कारण यह पञ्चमी श्रुतपञ्चमीके नामसे विख्यात्त हुई। तत्पश्चात् भूतबलिने उस षट्खण्डागमसूत्रके साथ जिनपालितको पुष्पदन्त गुरुके पास भेजा। जिनपालितके हाथमें षट्खण्डागम ग्रंथको देखकर मेरे द्वारा चिन्तित कार्य सम्पन्न हुआ, यह अवगत कर पुष्पदन्त गुरुने भी श्रुत भक्तिके अनुरागस पुलकित होकर श्रुत-पंचमोके दिन उक्त ग्रन्थको पूजा की।
श्रुतावतारके उक्त कथनसे यही प्रमाणित होता है कि पुष्पदन्ताचार्यने षट्खण्डागमकी रूपरेखा निर्धारित कर सत्प्ररूपणाके सूत्रोंकी रचना की थी और शेष भागको भूतबलिने समाप्त किया था।
छक्खंडागमके अवलोकानसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि दूसरे खण्ड खुद्दाबन्धसे छठे खण्ड तक यह भूतबलि द्वारा रचा गया है। चतुर्थ खण्ड वेदनाके अन्तर्मत कृतिअनुयोगद्वारके आदिमें सूत्रकारने ४४ मंगलसूत्र लिखे हैं और ४५ वे सूत्रसे ग्रन्थकी उत्थानिकाके रूप आग्रायणीय पूर्वके पञ्चम वस्तु अधिकार के अन्तर्गत कर्मप्रकृतिप्राभृतके २४ अनुयोगद्वारोंका निर्देश किया है। वीर सेन स्वामीने इन मंगलसूत्रोंको लेकर एक लम्बी चर्चा की है। इस चर्चासे तीन निष्कर्ष निकलते हैं-
१. भूतबलीने मंगलसूत्रोंकी रचना स्वयं नहीं की। परम्परासे प्राप्त महा कर्मप्रकृतिप्राभृत्तके मंगलसूत्रोंका संकलन किया है।
२. षट्खण्डागममें महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके अर्थका ही निबन्धन नहीं किया है; अपितु शब्द भी ग्रहण किये गये हैं।
३. भूतबलि कर्ता नहीं, प्ररूपक हैं। अतः षट्खण्डागमका द्वादशांग वाणी के साथ साक्षात् सम्बन्ध है।
इस तरह स्पष्ट है कि आचार्य भूतबलि महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके ज्ञानी एवं मर्मज्ञ विद्वान थे।
यह ग्रन्थ छह खण्डों में विभक्त है
१. जीवट्ठाण।
२. खुद्दाबन्ध।
३. बंधसामित्तविचय।
४. वेयणा।
५. बग्गणा।
६. महाबंध।
१. 'जीवट्ठाण' नामक प्रथम-खण्डमें जीवके गुण-धर्म और नानावस्थाओंका वर्णन आठ प्ररूपणाओंमें किया गया है। ये आठ प्ररूपणाएँ- सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व हैं। इसके अनन्तर नौ चूलिकाएँ हैं, जिनके नाम प्रकृतिसमुत्कीर्तन, स्थानसमुत्कीर्तन, प्रथम महादण्डक, द्वितीय महा दण्डक, तृतीयमहादण्डक, उत्कृष्टस्थिति, जघन्यस्थिति, सम्यक्त्वोत्पत्ति और गति अगति हैं। सत्प्ररूपणाके प्रथम सूत्र में पञ्चनमस्कार मन्त्रका पाठ है । इस प्ररूपणाका विषयनिरूपण ओघ और आदेश क्रमसे किया गया है। ओघमें मिथ्यात्व, सासादन आदि १४ गणस्थानोंका और आदेशमें गति, इन्द्रिय, काय आदि १४ मार्गणाओं का विवेचन उपलब्ध होता है। सत्प्ररूपणामें १७७ सूत्र हैं। इनमे ४०वें सूत्रसे ४५वे सूत्र तक छह कायके जीवोंका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। जीवोंके बादर और सक्ष्म भेदोंके पर्याप्त एवं अपर्यास भेद किये गये हैं। वनस्पति कायके साधारण और प्रत्येक ये दो भेद बतलाये हैं और इन्हीं भेदोंके बादर और सूक्ष्म तथा इन दोनों भेदोंके पर्याप्त और अपर्याप्त उपभेद कर विषयका निरूपण किया है। स्थावर और त्रसकायसे रहित जीवोंको अकायिक कहा है।
जीवाठा्ठणखण्डकी दूसरी प्ररूपणा द्रव्यप्रमाणानुगम है। इसमें १९२ सूत्रों द्वारा गुणस्थान और मार्गणाक्रमसे जीवोंकी संख्याका निर्देश किया है। इस प्ररूपणाके संख्यानिर्देशको प्रस्तुत करनेवाले सूत्रोंमें शतसहस्रकोटि, कोड़ा कोड़ी, संस्थात, असंख्यास, अनन्त और अनन्तानन्त संख्याओं का कथन उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त सातिरेक, हीन, गुण, अवहारभाग, वर्ग, वर्गमूल, घन, अन्योन्याभ्यस्त राशि, आदि गणितकी मौलिक प्रक्रियाओंके निर्देश मिलते हैं। कालगणनाके प्रसंगमें आवलो, अन्तमुहूर्त, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी, पल्योपम आदि एवं क्षेत्रकी अपेक्षा अंगुल, योजन, श्रेणी, जगत्प्रतर एवं लोकका उल्लेख आया है।
क्षेत्रप्ररूपणामें ९२ सूत्रों द्वारा गुणस्थान और मार्गणाक्रमसे जीवोंके क्षेत्रका कथन किया गमा है। उदाहरणार्थ कुछ सूत्र उद्धृत कर यह बतलाया जायगा कि सूत्रकर्ताकी शैली प्रश्नोत्तरके रूप में कितनी स्वच्छ है और विषयको प्रस्तुत करनेका क्रम कितना मनोहर है। यथा-
"सासणसम्माइट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति केवडी खेत्ते? लोगस्स असंखेज्जदिभाए।"
सजोगिकेवली केवडि खेत्ते? लोगस्स असंखेज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा।
आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइएसु मिच्छाइटि्ठप्पहुडि जाव असंजदसम्माइटि्ठ त्ति केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिमागे।
एवं सत्तसु पुढवीसु णेरइया।
तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छाइट्टी केवडि खेत्ते? सव्वलोए।
अर्थात तासादनसम्यकदृष्टी गुणस्थानसे लेकर अनौगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं? लोकके असंख्यात भाग प्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं।
सयोगकेवली जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं? लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रमें अथवा लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण क्षेत्रमें अथवा सर्व लोकमें रहते हैं।
आदेशकी अपेक्षा गसिते अनुवादसे नरकगतिमें नारकियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयत्तसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं।
इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें नारकी जीव लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रत्में रहते हैं।
तियंञ्चगतिमें तियंञ्चोंमें मिथ्यादृष्टी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं? सर्व लोकमें रहते हैं।
स्पष्ट है कि एक ही सूत्रमें प्रश्न और उत्तर इन दोनोंकी योजना की गयी है। वास्तवमें यह लेखककी प्रतिभाका वैशिष्ट्य है कि उसने आगमके गंभीर विषयको संक्षेपमें प्रश्नोत्तररूपमें उपस्थित किया है। इस प्ररूपणाका प्रमुख वर्ण्य विषय मार्गणा और गुणस्थानकी अपेक्षासे जीवोंके स्पर्शनक्षेत्रका कथन करना है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि जिस मार्गणामें अनन्त संख्यावाली एकेन्द्रिय जीवोंकी राशि आती है, उस मार्गणावाले जीव सर्वलोकमें रहते हैं और शेष मार्गणावाले लोकके असंख्यातवें भागमें| केवलज्ञान, केवलदर्शन, यथाख्यात संयम आदि जिन मार्गणाओंमें सयोगोजिन आते हैं, वे साधारण दशामें तो लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं किन्तु प्रतरसमुद्धातकी दशामें लोकके असंख्यात बहुभागोंमें तथा लोकपूर्णसमुद्घातकी दशामें सर्वलोकमें रहते हैं। बादर वायुकायिक जीव लोकके संख्यातवें भागमें रहते हैं।
स्पर्शन-प्ररूपणामें १८५ सूत्र हैं। इनमें, नानागुणस्थान और मार्गणावाले जीन स्वस्थान, समुद्धात एवं उपपात सम्बन्धी अनेक अवस्थाओं द्वारा कितने क्षेत्रका स्पर्श करते हैं, का विवेचन किया है। जीव जिस स्थानपर उत्पन्न होता है या रहता है वह उसका स्वस्थान कहलाता है। और उस शरीरके द्वारा जहाँ तक वह आता जाता है वह विहारवत्-स्वस्थान कहलाता है। प्रत्येक जीवका स्वस्थानकी अपेक्षा विहारवत्-स्वस्थानका क्षेत्र अधिक होता है। जैसे सोलहवें स्वर्गक किसी भी देवका क्षेत्र स्वस्थानको अपेक्षा तो लोकका असंख्यातवा भाग है, पर वह विहार करता हुमा नीचे तृतीय नरक तक जा-आ सकता है। अत: उसके द्वारा स्पर्श किया क्षेत्र आठ राजु लम्बा हो जाता है। विहारके समान समुद्घात और उपपादको अपेक्षा भी जीवोंका क्षेत्र बढ़ जाता है। वेदना, कषाय आदि किसी निमित्तविशेषसे जीवके प्रदेशोंका मल शरीरके साथ सम्बन्ध रहते हुए भी बाहर फैलना समुद्घात कहलाता है! समुद्नघातके सात भेद है। समुद्रघातकी अवस्थामें जीवका क्षेत्र शरीरकी अवगाहनाके क्षेत्रसे अधिक हो जाता है।
जीवका अपनी पूर्वपर्यायको छोड़कर अन्य पर्यायमें जन्म ग्रहण करना उप पाद है। इस प्रकार इस प्ररूपणामें स्वस्थान-स्वस्थान, विहारक्त-स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक, आहारक, तैजस, मारणान्तिक, केवलिसमुद्धात और उपपाद इन दश अवस्थाओंकी अपेक्षा किस गुणस्थानवाले और किस मार्गणावाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है, यह विवेचन किया गया है।
कालानुयोगमें ३४२ सूत्र है। इस प्ररूपणामें एक जीव और नाना जीवोंके एक गुणस्थान और मार्गणामें रहनेको जघन्य एवं उत्कृष्ट मर्यादाओंको काला बधिका निर्देश किया है। मिथ्यादष्टि मिथ्यात्वगुणस्थानमें कितने काल पर्यन्त रहते हैं? उत्तर देते हुए बताया है कि नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल; पर एक जीवकी अपेक्षा अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त हैं। तात्पर्य यह है कि अभव्य जीव अनादि अनन्त तथा भव्य जीव अनादि-सान्त और सादि सान्त हैं| जो जीव एक बार सम्यक्त्व ग्रहणकर पुन: मिथ्यात्वगुणस्थानमें पहुँचता है, उस जीवका वह मिथ्यात्व सादि-सान्त कहलाता है।
सूत्रकारने बड़े ही स्पष्ट रूपमें मिथ्यात्वके तीनों कालोंका एक जीवकी अपेक्षा और अनेक जीवोंकी अपेक्षा निरूपण किया है। जब कोई जीव पहली बार सम्यक्त्व प्राप्त कर अतिशीघ्र मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाता है तो वह अधिक-से-अधिक मिथ्यात्व गुणस्थानमें अद्धपुद्गल परावर्तन काल तक ही रहेगा | इसके अनन्तर वह नियमसे सम्यक्त्वको प्राप्तकर संयम धारण कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
अन्तर-प्ररूपणामें ३९७ सूत्र हैं। इस शब्दका अर्थ विरह, व्युच्छेद या अभाव है। किसी विवक्षित गुणस्थानवर्ती जीवका उस गुणस्थानको छोड़कर अन्य गुणस्थानमें चले जाने पर पुन: उसी गुणस्थानको प्राप्तिके पूर्व तकका काल अन्तरकाल या विरहकाल कहलाता है। सबसे कम विरह-कालको जघन्य अन्तर और सबसे बड़े विरहकालको उत्कृष्ट अन्तर कहा है । इस प्रकारके अन्तरकालकी प्ररूपणा करने वाली यह अन्तर-प्ररूपणा है। यह अन्तरकाल सामान्य और विशेषकी अपेक्षासे दो प्रकारका होता है। सूत्रकारने एक जीव और नाना जीवोंको अपेक्षासे एक ही गुणस्थान और मार्गणामें रहनेकी जघन्य और उत्कृष्ट कालावधिका निर्देश करते हए अन्तरकालका निरूपण किया है। मिथ्यादृष्टि जीवका अन्तरकाल कितना है, इस प्रश्नका उत्तर देते हुए बताया है कि नानाजीवोंकी अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है। ऐसा कोई काल नहीं जब संसारमें मिथ्यादुष्टि जीव न पाये जायें, एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यात्वका जघन्य अन्तर अन्तर्मूहुर्त और उत्कृष्ट अन्तर १३२ सागरोपम काल है। तात्पर्य यह है कि मिथ्यादृष्टि जीव परिणामोंकी विशुद्धिसे सम्यक्त्वको प्राप्त होकर कम-से-कम अन्तर्मूहुर्त कालमें संक्लिष्ट परिणामों द्वारा पुनः मिथ्यादृष्टी हो सकता है। अथवा अनेक मनुष्य और देवगतियोंमें सम्यक्त्व सहित भ्रमणकर अधिक-से-अधिक १३२ सागरोपमको पूर्णकर पुन: मिथ्यात्वको प्राप्त हो सकता है। तीव्र और मंद परिणामोंके स्वरूपका विवेचन भी इस प्ररूपणाके अन्तर्गत आया है। नानाजीवोंकी अपेक्षा मिथ्याष्टि,असंयत सम्यादृष्टि संयतासंयत, प्रमत्त संयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगकेवली ये छ: गुणस्थान इस प्रकारके हैं, जिनमें अन्तराल उपस्थित नहीं होता।मार्गणाओंमें उपशमसम्यक्त्व, सुक्ष्मसांपरायसंयम, आहारकक्राययोग, आहारकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, लब्धपर्याप्तमनुष्य, सासादन सम्यक्त्व और सम्यकमिथ्यात्व ऐसी अवस्थाएँ हैं, जिनमें गुणस्थानोंका अन्तरकाल संभव होता है। इनका जघन्य अंतरकाल एक समयमात्र और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात दिन या छ: मास आदि बतलाया गया है। इन आठ मार्गणाओंके अतिरिक्त शेष सभी मार्गणाओंवाले जीव सदा ही पाये जाते हैं।
भाव-प्ररूपणामें ९३ सूत्र हैं। इनमें विभिन्न गुणस्थानों और मार्गणास्थानोंमें होनेवाले भावोंका निरूपण किया गया है। कर्मोंके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम आदिके निमित्तसे जीवके उत्पन्न होनेवाले परिणामविशेषोंको भाव कहते हैं। ये भाव पाँच है- १. औदयिक भाव, २. औपशमिक भाव, ३. क्षायिक भाव, ४. क्षायोपशमिक भाव और ५. पारिणामिक भाव।
इन भावोंमेंसे किस गुणस्थान और किस मार्गणास्थानमें कौन-सा भाव होता है, इसका विवेचन इस भावप्ररूपणामें किया गया है। मिथ्यात्वगणस्थानमें उत्पन्न होनेवाले मिथ्यादृष्टिको औदयिक भाव होता है। दूसरे गुणस्थानमें अन्य भावोंके रहते हुए भी, पारिणामिक भाव रहते हैं। जिस प्रकार जीवत्व आदि पारिणामिक भावोंके लिये कर्मोका उदय, उपशम आदि कारण नहीं है उसी प्रकार सासादनसम्यक्त्वरूप भावके लिये दर्शनमोहनीयकर्मका उदय, उपशमादि कोई भी कारण नहीं है।
तीसरे गुणस्थानमें क्षायोपशमिक भाव होता है। यत: इस गुणस्थानमें सम्यक-मिथ्यात्वप्रकृतिके उदय होनेपर श्रद्धान और अश्रद्धानरूप मिश्रभाव उत्पन्न होना है। उसमें जो श्रद्धानांश है वह सम्यक्त्वगुणका अंश है और जो अश्रद्धानांश है वह मिथ्यात्वका अंश है। अतएवं सम्यमिथ्यात्वभावको क्षायोपामिक माना गया है। चतुर्थ गुणस्थानमें औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन भाव पाये जाते हैं। यतः यहाँ पर दर्शनमोहनीग्नकर्मका उपशम, क्षय और क्षयोपशम ये तीनों ही संभव है।
आदिके चार गुणस्थान दर्शनमोहनीयके उदय, उपशम, क्षय आदि से उत्त्पन्न होते हैं। अतएव इन गुणस्थानों में अन्य भावोंके पाये जानेपर भी दर्शन मोहनीयकी अपेक्षासे भावोंकी प्ररूपणा की गई है। चतुर्थ गुणस्थान तक जो असंयमभाव पाया जाता है वह चारित्रमोहनीयकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेके कारण औद्योयिक भाव है। पर यहाँ उनकी विवक्षा नहीं की गयी है!
पञ्चम गुणस्थानसे द्वादश गुणस्थान तक आठ गुणस्थानोके भावोंका कथन चारित्रमोहनीयकर्मके क्षयोपशम, उपशम और क्षयकी अपेक्षासे किया गया है। पञ्चम, षष्ट और सप्तम गुणस्थानमें चारित्रमोहके क्षयोपशमसे क्षायोपशमिक भाव होते हैं। अष्टम, नवम, दशम और एकादश इन चार उपशामक गुणस्थानोंमें चारित्रमोहके उपशमसे औपशमिक भाव तथा क्षपकश्रेणी सम्बन्धी अष्टम, नवम, दशम और द्वादश इन चार गुणस्थानों में चारित्रमोहनीयके क्षयसे क्षायिक भाव होता है। त्रयोदश और चतुर्दश गुणस्थानों में जो क्षायिक भाव पाये जाते है वे घातियाकर्मोके क्षयसे उतान्न हुए समझना चाहिए। गुणस्थानोंके समान ही मार्गणास्थानों में भी भावोंका प्रतिपादन किया गया है।
अल्पबहुल-प्ररूपणामें ३८२ सूत्र हैं। नानागुणस्थान और मार्गणागुण स्थानवर्ती जीवोंको संख्याका हीनाधिकत्व इस प्ररुगणामें वर्णित है। अपूर्व करण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें उपशमसम्यक्त्वी जीव अन्य सब स्थानोंकी अपेक्षा प्रमाणमें अल्प और परस्पर तुल्य होते हैं। इनसे अपूर्वकरणादि तीन गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दष्टि जीव संख्यात गणित हैं। क्षीणकषाय जीवोंको संख्या भी इतनी हो है। सयोगकेवली संयमको अपेक्षा प्रविश्यमान जीवोंसे संख्यात गुणित हैं।
उपर्युक्त आठ प्ररूपणाओंके अतिरिक्त जीवस्थानको नौ चूलिकाएं हैं। प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामकी चूलिकामें ४६ सूत्र हैं| जीवके गति, जाति आदिके रूपमें जो नाना भेद उपलब्ध होते हैं उनका कारण कर्म है। कर्मका विस्तार पूर्वक विवेचन इस चूलिकामें आया है।
दूसरी चूलिका स्थानसमुत्कीर्तन नामकी है। इसमें ११७ सूत्र हैं। प्रत्येक मूलकर्मकी कितनी उत्तरप्रकृतियों एक साथ बांधी जा सकती हैं और उनका बन्ध किस-किस गुणस्थानमें करता है, इसका सुस्पष्ट विवेचन किया गया है। तृतीय चूलिका प्रथम महादण्डक नामकी है। इसमें दो सूत्र हैं। प्रथमसम्यक्त्व को पास आनेवाला जीस ७८ प्रकृतीयोंका बन्दकर्ता है, जन प्रकृतियोंकी गणना की गई है। इन प्रकृतियोंका बन्धकर्ता संज्ञी पञ्चेन्द्रिय मनुष्य या तिर्यञ्च होता है। द्वितीय महादण्डक नामकी चौथी चूलिकामें भी केवल दो सूत्र हैं। इनमें ऐसी कर्मप्रकृतियोंकी भी गणना की गई है जिनका बन्ध प्रथमसम्यक्त्वके अभिमुख हुआ देव और छ: पृथ्वियोंके नारको जीव करते हैं। तृतीय दण्डक नामक पांचवीं चूलिकामें दो सूत्र हैं| और इन सूत्रोंमें सातवीं पृथ्वीके नारकी जीवोंके सम्यक्त्वाभिमुख होनेपर बन्धयोग्य प्रकृतियोंका निर्देश किया गया है। छठी उत्कृष्टस्थिति नामक चूलिकामें ४४ सूत्र हैं। इसमें बन्धे हुए कार्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका निरूपण किया गया है। आशय यह है कि सूत्रकर्ता आचार्यने यह बतलाया है कि बन्धको प्राप्त विभिन्न कर्म अधिक-से-अधिक कितने कालतक जीवोंसे लिप्त रह सकते हैं और बन्धके कितने समय बाद आबाधाकालके पश्चात् दिपाक आरम्भ होता है। एक कोड़ाकोड़ी वर्षप्रमाण बन्धकी स्थितिपर १०० वर्षका आबाधाकाल होता है। और अन्तःकोड़ाकोड़ी सागारोपम स्थितिका आबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त होता है। परन्तु आयुकर्मका आबाधाकाल इससे भिन्न है। क्योंकि वहाँ आबाधा अधिक-से-अधिक एक पूर्व कोटि आयुके तृतीयांश प्रमाण होती है। सातवीं जघन्यस्थिति नामक चुलिकामें ४३ सूत्र हैं। इस चलिकामें कर्मोकी जघन्य स्थितिका निरूपण किया गया है। परिणामोंको उत्कृष्ट विशुद्धि जघन्य स्थितिबन्धका और संक्लेश उत्कृष्ट कर्म स्थितिबन्धका कारण है।
आठवीं चलिका सम्यक्त्वोत्पत्तिमें १६ सूत्र हैं। इस चूलिकामें सम्यक्त्वोत्पत्ति योग्य कर्मस्थिति, सम्यक्त्वके अधिकारी आदिका निरूपण है। जीवन-शोधनके लिए सम्यक्त्वकी कितनी अधिक आवश्यकता है, इसकी जानकारी भी इससे प्राप्त होती है। नवमी चूलिका गति-अगति नामकी है। इसमें २४३ सूत्र हैं। विषयवस्तुकी दृष्टिसे इसे चार भागोंमें विभक्त किया जा सकता है। सर्वप्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके बाहरी कारण किस गतिमें कौन-कौनसे सम्भव है, इसका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। तदनन्तर चारों गतिके जीव मरणकर किस-किस गतिमें जा सकते हैं और किस-किस गतिसे किस-किस गतिमें आ सकते हैं, का विस्तारपूर्वक वर्णन पाया जाता है| देव मरकर देव नहीं हो सकता और न नारको ही हो सकता है। इसी तरह नारकी जीव मरकर न नारकी हो सकता है और न देव हो। इन दोनों गतियोंके जीव मरणकर मनुष्य या तिर्यञ्चगति प्राप्त करते हैं। देव और नारकी मरकर मनुष्य या तियंञ्च ही होते हैं। मनुष्य और तिसञ्चगतिके जीव चारों हो गतियोंमें जन्म ग्रहण कर सकते हैं।
तदनन्तर किस गुणस्थानमें मरणकर कौन-सी गति किस-किस जीवको प्राप्त होती है, इसपर विशेष विचार किया है। तत्पश्चात् बतलाया गया है कि नरक और देवगतियोंसे आये हुए जीव तीर्थंकर हो सकते हैं। अन्य गतियोंसे आये हुए नहीं। चक्रवती, नारायण, प्रतिनारायण और बलभद्र केवल देवगतिसे आये हुए जीन ही होते हैं, शेष गतियोंसे आये हुए नहीं। चक्रवर्ती मरणकर स्वर्ग और नरक इन दोनों गतियोंमें जाते हैं और कर्मक्षयकर मोक्ष भा प्राप्त कर सकते हैं। बलभद्र स्वर्ग या मोक्षको जाते हैं। नारायण और प्रतिनारायण मरणकर नियमसे नरक जाते हैं। तत्पश्चात् बतलाया गया है कि सातवें नरकका निकला जीव तिर्यञ्च ही हो सकता है, मनुष्य नहीं। छठे नरकसे निकले हुए जीव तियंञ्च और मनुष्य दोनों हो सकते हैं। पञ्चम नरकसे निकले हए जीव मनुष्यभवमें संयम भी धारण कर सकते हैं, पर उस भवसे मोक्ष नहीं जा सकते। चौथे नरकसे निकले हुए जीव मनुष्य होकर और संयम धारण कर केवलज्ञानको उत्पन्न करते हुए निर्वाण भी प्राप्त कर सकते हैं। तृतीय नरकसे निकले हुए जीव तीर्थंकर हो सकते हैं। इस प्रकार जीवट्ठाण नामक प्रथम खण्डमें कुल २,३७५ सूत्र हैं और यह आठ प्ररूपणाओं और नौ चूलिकाओंमें विभक्त है।
२. खुद्दाबन्ध (क्षुद्रकबन्ध)
इसमें मार्गणास्थानोंके अनुसार कौन जीव बन्धक है और कौन अबन्धक, का विवेचन किया है। कर्मसिद्धान्तकी दृष्टिसे यह द्वितीय खण्ड बहुत उपयोगी और महत्वपूर्ण है। इसका विशद विवेचन निम्नलिखित ग्यारह अनुयोर्गों द्वारा किया गया है-
१. एक जीवको अपेक्षा स्वामित्व
२. एक जीवकी अपेक्षा काल
३. एक जीवकी अपेक्षा अन्तर.
४. नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचय
५. द्वव्यप्रमाणानुगम
६. क्षेत्रानुगम
७,स्पर्शानुगम
८. नानाजीवोंकी अपेक्षा काल
९. नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर
१०. भागाभागानुगम
११. अल्पबहुत्वानुगम
इन ग्यारह अनुयोगोंके पूर्व प्रास्ताविक रूपमें बन्धकोंके सत्वको प्ररूपणा को गई है और अन्तमें ग्यारह अनुयोगद्वारोंकी चूलिकाके रूपमें महादंडक दिया गया है। इस प्रकार इस खण्डमें १३ अधिकार हैं।
प्रास्ताविक रूपमें आई बन्ध-सत्त्वप्ररूपणामें ४३ सुत्र हैं। गतिमार्गणाके अनुसार नारकी और तिर्यञ्च बन्धक हैं। मनुष्य बन्धक भी है और अबन्धक भी। सिद्ध अबन्धक हैं। इन्द्रियादि मार्गणाओंकी अपेक्षा भी बन्धके सत्वका विवेचन किया है। जबतक मन, वचन और कायरूप योगको क्रिया विद्यमान रहती है तबतक जीव बन्धक रहता है। अयोगकेवली और सिद्ध अबन्धक होते हैं।
स्वामित्व नामक अनुगममें ९१ सूत्र हैं, जिनमें मार्गणाओके अनुक्रमसे कौन-से गुण या पर्याय जीवके किन भावोंसे उत्पन्न होते हैं तथा जीवको लब्धियोंकी प्राप्ति किस प्रकार होती है, आदिका प्रश्नोत्तरके रूप में प्ररूपण किया गया है। इस अनुगममें सिद्धगति, अनिद्रियत्व, अकायत्व, अलेश्यत्व, अयोगत्व, क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान और केवलदर्शन तो क्षायिकलब्धिसे उत्पन्न होते हैं। एकेन्द्रियादि पांच जातियां मन, वचन, काय ये तीन योग, मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चार ज्ञान, तीन अज्ञान, परिहारविशुद्धिसंयम, चक्षु, अचक्षु और अवधिदर्शन, वेदकसम्यक्त्व, सम्यक् मिथ्याष्टित्व और संज्ञीत्वभाव ये क्षायो पशमिकलब्धिसे उत्पन्न होते हैं। अपगतवेद, कषाय, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातसंयम ये औपशामिक तथा क्षायिकलब्धिसे उत्पन्न होते हैं। सामायिक और छेदोपस्थापनासंयम, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिकलब्धिसे उत्पन्न होते हैं। औपशमिक सम्यग्दर्शन औपशमिकलब्धिसे उत्पन्न होता है, भव्यत्व, अभव्यत्व और सासादनसम्यग्दष्ठित्व ये पारिणामिक भाव है। शेष गति आदि समस्त मार्गणान्तर्गत जीवपर्याप अपने-अपने कर्मों के उदयसे होते हैं। अनाहारकत्व कर्मोके उदयसे भी होता है और क्षायिकलब्धिसे भी।
कालानुगममें २१६ मूत्र हैं। इस अनुगममें गति, इन्द्रिय, काय आदि मार्ग णाओंमें जीवकी जघन्य और उत्कृष्ट कालस्थितिका विवेचन क्रिया है| जीव स्थान खण्डमें प्ररूपित कालप्ररूपणाकी अपेक्षा यह विशेषता है कि यहाँ गुणस्थानका विचार छोड़कर प्ररूपणा की गई है।
अन्तरप्ररूपणामें १५१ सूत्र हैं। मार्गणाक्रमसे जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कालका विशद विवेचन किया गया है।
भंगविषयमें २३ सत्र हैं। किन मार्गणाओंमें कौन-से जीव सदैव रहते और कौन-से जीव कभी नहीं रहते, का वर्णन किया है। बताया गया है कि नरकादि गतियोंमें जीव सदैव नियमसे निवास करते हैं। किन्तु मनुष्य अपर्याप्त कभी होते हैं और कभी नहीं भी होते। इसी प्रकार वक्रियिकमिश्र आदि जीवोंकी मार्गणाएँ भी सान्तर हैं।
द्रव्यप्रमाणानुगममें १७१ सूत्र हैं। गुणस्थानको जोड़कर मार्गणाक्रमसे जीवों की संख्या, उसीके आश्रयसे काल एवं क्षेत्रका प्ररूपण किया गया है।
क्षेत्रानुगममें १२४ और स्पर्शानुगममें २७९, सूत्र हैं। इन दोनोंमें अपने अपने विषयके अनुसार जीवोंका विवेचन किया गया है।
कालानुगममें ५५ सूत्र है। इसमें कालकी अमोपासना जीवोंका वर्णन किया है। अनादि-अन्नन्त, अनादि-सान्त, सादि-अनन्त एवं सादि-सान्त रूपसे कालसरपणा की गई है।
नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरका वर्णन करनेवाले अन्तरानुगममें ६८ सूत्र हैं। बन्धकोंके जघन्य और उत्कुष्ट अन्तरकालकी प्ररूपणा की गई है।
भागाभागानुगममें ८८ सूत्र हैं। इस अनुगममें मार्गणानुसार अनन्तवे भाग, असंख्यात्तवें भाग, संख्यातवे भाग तथा अनन्त बहुभाग, असंख्यात बहुभाग, संख्यात बहभाग, रूपसे जीवोंका सर्वजीवोंकी अपेक्षा प्रमाण बतलाया गया है। एक प्रकारसे इस अनुगममें जीवोंकी संख्याओंपर प्रकाश डाला गया है तथा परम्पर तुलनात्मक रूपसे संख्या बतायो गई है। यथा-नारकी जीवोंका विवेचन करते हुए कहा गया है कि वे समस्त जीवोंकी अपेक्षा अनन्तवें भाग हैं। इस प्रकार परस्परमें तुलनात्मक रूपसे जीवोंको भाग-अभागानुक्रममें संख्या बतलायी गई है।
अल्पबहुत्व-अनुगममें १०६ सुत्र हैं, जिनमें १४ मार्गणाओंके आश्रयसे जीव समासोंका तुलनात्मक द्रव्यप्रमाण बतलाया गया है। गतिमार्गणामें मनुष्य सबसे थोड़े हैं। उनसे नारकी असंख्यगुणे हैं। देव नारकियोंसे असंख्यगुणे हैं। देवोंसे सिद्ध अनन्तगुणे हैं तथा तीर्यंच देवोंसे भी अनन्तगुणे हैं।
अन्तिम चूलिका महादण्कके रूपमें है। इसमें ७९ सूत्र है| इस चूलिकामें मार्गणाविभागको छोड़कर गर्भपिक्रान्तिक मनुष्य-पर्याप्ससे लेकर निगोद जीवों तकके जीवसमासोंका अल्पबहुत्व प्रतिपादित है। जीवोंकी सापेक्षिक राशिके ज्ञानको प्राप्त करने के लिए यह चूलिका उपयोगी है।
इस प्रकार समस्त खुद्दाबन्धमें १,५८२ सूत्र हैं। इनमें कर्मप्रकृतिप्राभृतके बन्धक अधिकारके बन्ध, अबन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान नामक चार अनुयोगोंमेंसे बन्धकका प्ररूपण किया गया है। इसे खुद्दबन्ध कहनेका कारण यह है कि महाबन्धको अपेक्षा यह बन्धप्रकरणा छोटा है।
३. बंधसामिविषय (अन्धस्वामित्ववित्रय)
इस तृतीय खण्ड में कर्मोंकी विभिन्न प्रकृतियोंक बन्ध करनेवाले स्वामियों का विचार किया गया है। महां विचयशब्दका अर्थ विचार, मोमांसा और परीक्षा है। यहाँ इस बातका विवेचन किया है कि कौन-सा कर्मबन्ध किस गुणस्थान और मार्गणामें संभव है। अर्थात् कर्मबन्धके स्वामी कौनसे गुण स्थानवर्ती और मार्गणास्थानवर्ती जोव हैं। इस खण्डमें कुल ३२४ सूत्र हैं। इनमें आरम्भके ४२ सूत्रोंमें गुणस्थान-क्रमसे बन्धक जीवोंका प्ररूपण किया है। कर्मसिद्धान्तकी अपेक्षा किस गुणस्थानमें भेद और अभेद विवक्षासे कितनी प्रकृतियोंका कौन जीव स्वामी होता है, इसका विशद विवेचन किया गया है।
४.वेदनाखण्ड
कर्मप्राभसके २४ अधिकारोंमेंसे कृति और वेदना नामक प्रथम दो अनु योगोंका नाम वेदना-खण्ड है। सूत्रकारने प्रारंभमें मंगलाचरण किया है तथा इसी चतुर्थ खण्डके प्रारंभमें पुनः भी मंगलसूत्र मिलते हैं। अतः यह अनुमान सहजमें लगाया जा सकता है कि प्रथम बारका मंगल प्रारंभके तीन खण्डोंका है और द्वितीय बारका मंगल शेष तीन खण्डोंका। ग्रन्थके आदि और मध्यमें मंगल करनेका जो सिद्धान्त प्रतिपादित है उसका समर्थन भी इससे हो जाता है। कृतिअनुयोगद्वारमें ७५ सूत्र है, जिनमें ४४ सूत्रोंमें मंगलस्तवन किया गया है। शेष सूत्रोंमें कृत्तिके नाना भेद बतलाकर मूलकरण कृतिक १३ भेदोंका स्वरूप बतलाया गया है।
द्वित्तीय प्रकरणका १६ अधिकारोंमें विवेचन किया गया है। अधिकारोंकी नामावली सुत्रानुसार निम्न प्रकार है
१. निक्षेप - ३ सूत्र
२. नय - ४ सूत्र
३. नाम - ४ सूत्र
४. द्रव्य - १३ सूत्र
५. क्षेत्र - १९ सूत्र
६. काल - २७९ सूत्र
७. भाव - ३१४ सूत्र
८. प्रत्यय - १६ सूत्र
९. स्वामित्व - १५ सूत्र
१०. वेदनाविधान - ५८ सूत्र
११. गती - १२ सूत्र
१२, अनन्तर - ११ सूत्र
१३. सन्निकर्ष - ३२० सूत्र
१४. परिमाण - ५३ सूत्र
१५. भागाभाग - २१ सुत्र
१६. अल्पबहुव - २७ सत्र
वस्तुतः यह वेदना अनुयोगद्वार बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। निक्षेप अधिकारमें नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों द्वारा वेदनाके स्वरूपका स्पष्टीकरण किया गया है। नय अधिकारमें उक्त निक्षेपोंमें कौन-सा अर्थ यहां है, यह नेगम प्रकृत संग्रह आदि नयोंके द्वारा समझाया गया है। नामविधान अधिकारमें नैगमादि नयोंके द्वारा ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों में वेदनाकी अपेक्षा एकत्व स्थापित किया गया है। द्रव्यविधान अधिकारमें कर्मों के द्रव्यका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, सादि, अनादि स्वरूप समझाया गया है। क्षेत्रविधानसे ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मरूप पुदगलद्रव्यको वेदना मानकर समुद्घातादि विविध अवस्थाओमें जीवके प्रदेशक्षेत्रकी प्ररुपणा की गई है। कालविधान अधिकारमें पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारमें कालके स्वरूपका विवेचन किया गया है। भाववीधानमें पूर्वोक्त पदमीमांसादि तीन अनुयोगों द्वारा ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों की उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट भावात्मक वेदनाओं पर प्रकाश डाला गया है| वेदना प्रत्ययमे नयोंके आश्रय द्वारा वेदनाके कारणोंका विवेचन किया है। वेदना स्वामित्वमें आठों कर्मों के स्वामियों का प्ररूपण किया है। वेदना वेदन अधिकारमें आठो कमों के बध्यमान, उदोरणा और उपशान्त स्वरूपोंका एकत्व और अनेकत्वको अपेक्षा कथन किया है। वेदना गतिविधान अनुयोगद्वारमें कर्मों की स्थिति, स्थिति अथवा स्थित्यस्थिति अवस्थाओंका निरुपण किया है। अनन्तरविधान अनुयोगद्वार्मे कार्मोकी अनन्तरपरम्परा एवं बन्धप्रकारोंका विचार किया है। कर्मों को वेदना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा किस प्रकार उत्कृत और जघन्य होती है, का विवेचन वेदना सन्निकर्षमे किया गया है| वेदना परिमाणविधान अधिकारमें आठों कर्मों की प्रकृत्यर्थता, समयबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यासकी प्ररूपणा की गई है। भागाभागमें कर्मप्रकृतियोंके भाग और अभागका विवेचन आया है। अल्प बहुत्वविधानमें कर्मोंके अल्पबहुत्वका निरूपण किया है। इस प्रकार वेदना खण्डमें कुल १,४४९ सूत्र हैं।
५. वर्ग खण्ड
इनमें स्पर्श, कर्म और प्रकृति नामक तीन अनुयोगद्वारोंका प्रतिपादन किया गया है। स्पर्श-अनुयोगद्वारमें स्पर्शनिक्षेप, स्पर्शनयविभाषणता, स्पर्शनाम विधान और स्पर्शद्रव्यविधान आदि १६ अधिकारमें स्पर्शका विचार किया गया है| कर्म-अनुयोगद्वारमें नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, सामावदानकर्म, अध:करणकर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म, क्रियाकर्म और भावकर्मका प्ररूपण है। प्रकृति-अनुयोगद्वारमें प्रकृतिनिक्षेप आदि १६ अनुयोगद्वारोंका विवेचन है। इन तीनों अनुयोगद्वारों में क्रमशः ६३, ३१, और १४२ सूत्र हैं।
बन्धनके चार भेद है - १, बन्ध, २. बन्धक, ३. बन्धनीय और ४. बन्धविधान। बन्ध और बन्धनीयका विवेचन ७२७ सूत्रों में किया गया है| बन्ध प्रकरण ६४ सूत्रोंमें समाप्त हुआ है। बन्धनीयका स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि विपाक या अनुभव करनेवाले पुद्गलस्कन्ध हो बन्धनीय होते हैं और वे बर्गणारूप है।
६. महाबन्ध
बन्धनीय अधिकारकी समाप्तिके पश्चात् प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थिति बन्ध और अनुभागबन्धका विवेचन छठे खण्डमें अनेक अनुयोगद्वारोंमें विस्तार पूर्वक किया गया है। प्रकृतिका शब्दार्थ स्वभाव है। यथा - चीनीकी प्रकृति मधुर ओर नीमकी प्रकृति कटुक होती है। इसी प्रकार आत्माके साथ सम्बद्ध हुए कर्मपरमाणुओंमें आस्माके ज्ञान-दर्शनादि गुणोंको आवृत्त करने या सुखादि गुणोंके घात करनेका जो स्वभाव पड़ता है उसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं। वे आये हुए कर्मपरमाणु जितने समयतक आत्माके साथ बँधे रहते हैं उतने कालकी मर्यादाको स्थितिबन्ध कहते हैं। उन कर्मपरमाणुओमें फलप्रदान करनेका जो सामर्थ्य होता है उसे अनुभागबन्ध कहते हैं। आत्माके साथ बंधनेवाले कर्म परमाणुओंके ज्ञानावरणादि आठ कर्मरूपसे और उनकी उत्तरप्रकृत्तियोंके रूपसे जो बटवारा होता है उसे प्रदेशबन्ध कहते हैं। इस षष्ठ खण्डमें इन चारों बन्धोंका प्रकृतिसमुत्कीर्तन, सर्वबन्ध, नोसर्वबन्ध, उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्टबन्ध आदि २४ अनुयोगदारों द्वारा प्ररूपण किया गया है।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतघराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई० सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara.
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