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#devnandipujyapadmaharajji
सारस्वसाचार्योंमें आचार्य श्री देवनंदी का नाम आता है। कवि, वैयाकरण और दार्शनिक इन सोनों व्यक्तित्वोंका एकत्र समवाय देवनम्दि पूज्यपादमें पाया जाता है। आदिपुराणके रचयिता आचार्य जिनसेनने इन्हें कवियोंमें तीर्थकृत लिखा है-
कवीनां तीर्थकुद्धेवः किं तरी तत्र वर्ण्यते।
विदुषां वाडमलध्वसि तीर्थ यस्य वचोमयम्। आदिपुराण, १/५२
जो कवियोंमें तीर्थंकरके समान थे, अथवा जिन्होंने कवियोंका पथप्रदर्शन करनेके लिये लक्षणग्रन्थकी रचना की थी और जिनका वचनरूपी तीर्थ विद्वानोंके शब्दसम्बन्धी दोषोंको नष्ट करनेवाला है, ऐसे उन देवनन्दि आचार्यका कौन वर्णन कर सकता है।
ज्ञानार्णवके कर्ता आचार्य शुभचन्द्र ने इनकी प्रतिभा और वैशिष्ठयका निरूपण करते हुए स्मरण किया है
अपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाकचित्तसम्भवम्।
कलङ्कमङ्गिना सोश्यं देवनन्दो नमस्यते।।
जिनको शास्त्रपद्धति प्राणियोंके शरीर, वचन और चित्तके सभी प्रकारके मलको दूर करनेमें समर्थ है, उन देवनन्दि आचार्यको मैं प्रणाम करता हूँ।
आचार्य देवनन्दि-पूज्यपादका स्मरण हरिवंशपुराणके रचयिता जिनसेन प्रथमने भी किया है। उन्होंने लिखा है-
इन्द्र चन्द्रार्कजेनेन्द्रव्याडिव्याकरणक्षिणः।
देवस्य देववन्द्यस्य न वन्द्यन्ते गिरः कथम् ॥
अर्थात् जो इन्द्र, चन्द्र, अर्क और जैनेन्द्र व्याकरणका अवलोकन करने वाली है, ऐसी देवबन्ध देवनन्दि आचार्यको वाणी क्यों नहीं वन्दनीय है ।
इससे स्पष्ट है कि आचार्य देवनन्दि प्रसिद्ध व्याकरण और दार्शनिक विद्वान थे और विद्वन्मान्य।
इनके सम्बन्धमें आचार्य गुणनन्दिने इनके व्याकरण सूत्रोंका आधार लेकर जैनेन्द्र प्रक्रियामें मंगलाचरण करते हुए लिखा है-
नमः श्रीपूज्यपादाय लक्षणं यदुपक्रमम्।
यदेवात्र तदन्यत्र यनावास्ति न तत्वचित्।।
जिन्होंने लक्षणशास्त्रकी रचना की है, मैं उन आचार्य पूज्यपादको प्रणाम करता हूँ। उनके इस लक्षणशास्त्रकी महत्ता इसीसे स्पष्ट है कि जो इसमें है, बह अन्यत्र भी है और जो इसमें नहीं है, वह अन्यत्र भी नहीं है।
उनके साहित्यकी यह स्तुति-परम्परा धनंजय, वादिराज आदि प्रमुख आचार्यों द्वारा भी अनुभूति हुई। पूज्यपादकी ज्ञानगरिमा और महत्ताका उल्लेख उक्त स्तुतियोंमें विस्तृत रूपसे आया है।
उनसे स्पष्ट है कि देवनन्दि-पूज्यपाद कवि और दार्शनिक विद्धानके रूपमें ख्यात हैं।
इनका जीवन-परिचय चन्द्रय कवीके पूज्यपादचारस और देवचन्द्रके 'राजावलिकये' नामक ग्रन्थोंमें उपलब्ध है। श्रवणबेलगोलाके शिलालेखोंमें इनके नामोंके सम्बन्धमें उल्लेख मिलते हैं। इन्हें बुद्धिकी प्रखरताके कारण 'जिनेन्द्रबुद्धि' और देवोंके द्वारा चरणोंकी पूजा किये जानेके कारण 'पूज्यपाद' कहा गया है।
यो देवनन्दि-प्रथमाभिधानो बुद्धया महत्या स जिनेन्द्रबुद्धिः।
श्रीपूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत्पूजितं पादयुग यदीयं।।
जैनेन्द्रे निज-शब्द-भोगमतुलं सर्वार्थसिद्धिः परा
सिद्धान्ते निपुणत्वमुद्धकवितां जैनाभीषेक: स्वकः।
छन्दस्सूक्ष्मषियं समाधिशतक-स्वास्थ्यं यदीयं विदा
माख्यातीह स पूज्यपाद-मुनिपः पूज्यो मुनीनां गणः।।
अर्थात् इनका मूलनाम देवनन्दि था। किन्तु ये बुद्धिकी महत्ताके कारण जिनेन्द्रबुद्धि और देवों द्वारा पूजित होनेसे पूज्यपाद कहलाये थे। पूज्यपादने जैनेन्द्र व्याकरण, सर्वार्थसिद्धि, जैन अभिषेक, समाधिशतक आदि ग्रन्थोंकी रचना की है।
शिलालेख न. १०५ से भी उक्त तथ्य पुष्ट होता है।
प्रागभ्यायिगुरुणा किल देवनन्दी बुद्धया पुनव्दिपुलया स जिनेन्द्रबुद्धिः।
श्रीपूज्यपाद इति चैष बुधैः प्रचरुये यात्पूजितः पदपुगे वनदेवताभिः।।
पूज्यपाद और जिनेन्द्रबुद्धी इन दोनों नामोंकी सार्थकता अभिलेख न. १०८ में भी बतायी है।
इनके पिताका नाम माषवभट्ट बौर माताका नाम श्रीदेवी बतलाया जाता है। ये कर्नाटकके 'कोले' नामक ग्रामके निवासी थे और ब्राह्मण कुलके भूषण थे। कहा जाता है कि बचपन में ही इन्होंने नाग द्वारा निगले गये मेढककी तड़पन देखकर विरक्त हो दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली थी। 'पूज्यपाद चरिते' में इनके जीवनका विस्तृत परिचय भी प्राप्त होता है तथा इनके चमत्कारको व्यक्त करनेवाले अन्य कथानक भी लिखे गये हैं, पर उनमें कितना तथ्य है. निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है।
पूज्यपाद किस संघके आचार्य थे, यह विचारणीय है। 'राजावलिकथे' से ये नन्दिसंघके आचार्य सिद्ध होते हैं। शुभचन्द्राचार्यने अपने पाडवपुराणमें अपनी गुर्वावलिका उल्लेख करते हुए बताथा है-
"श्रीमूलसंघेऽजनि नन्दिसंघस्तस्मिन् बलात्कारगणोऽतिरम्यः।
तत्रामवत्पूर्वपदांशवेदी श्रीमाघनन्दी नरदेववन्द्यः॥"
अर्थात्-नन्दिसंघ, बलात्कारगण मूलसंघके अन्तर्गत है। इसमें पूर्वोके एकदेश ज्ञाता और मनुष्य एवं देवोंसे पूजनीय माघनन्दि आचार्य हुए।
माघनन्दिके बाद जिनचन्द्र, पद्मनन्दि, उमास्वामी, लोहाचार्य, यश-कीर्ति, यशोनन्दि और देवनन्दिके नाम दिये गये हैं। ये सभी नाम क्रमसे नन्दिसंघकी पट्टावलिमें भी मिलते हैं। आगे इसी गुर्वावलिमें ग्यारहवें गुणनन्दिके बाद बारहवें बज्रनन्दिका नाम आया है, पर नन्दिसंघको पट्टावलिमें ग्यारहवें जयनन्दि और बारहवें गुणनन्दिके नाम आते हैं। इन नामोंके पश्चात् तेरहवा नाम वज्रनन्दि का आता है। इसके पश्चात् और पूर्वको आचार्यपरम्परा गुर्वावलि और पट्टावलिमें प्राय: तुल्य है। अतएव संक्षेपमें यह माना जा सकता है कि पूज्यपाद मूलसंघके अन्तर्गत नन्दिसंघ बलात्कारमणके पट्टाधीश थे। अन्य प्रमाणोंसे भी विदित होता है कि इनका गच्छ सरस्वती था और आचार्य कुन्दकुन्द एवं गुद्धपिच्छकी परम्परामें हुए हैं।
कहा जाता है कि पूज्यपादके पित्ता माधव भट्टने अपनी पत्नी श्रीदेवीके आग्रह से जैन धर्म स्वीकार कर लिया था। श्रीदेवीके भाईका नाम पाणिनि था। उससे भी उन्होंने जैन धर्म स्वीकार कर लेनेका अनुरोध किया, पर प्रतिष्ठाको दृष्टिसे वह जैन न होकर मुडीकुण्डग्राममें वैष्णव संन्यासी हो गया। पूज्यपाद को कमलिनी नामक छोटी बहन थी और इसका विवाह गुणभट्टके साथ हुआ, जिससे गुणभट्टको नागार्जुन नामक पुत्र लाभ हुआ।
एक दिन पूज्यपाद अपनी वाटिकामें विचरण कर रहे थे कि उनकी दृष्टि साँपके मुंहमें फंसे हुए मेंढकपर पड़ी। इससे उन्हें विरक्ति हो गयी। प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि अपना व्याकरण ग्रंथ रच रहे थे। वह न हो पाया था कि उन्हें अपना मरण काल निकट दिखलाई पड़ा, और पूज्यपादसे अनुरोध किया कि तुम इस अपूर्ण ग्रंथको पूर्ण कर दो। उन्होंने उसे पूर्ण करना स्वीकार कर लिया। पाणिनि दुर्भाग्यवश मरकर सर्प हुए। एक बार उन्होंने पूज्यपाद को देखकर फूत्कार किया, इसपर पूज्यपादने कहा- "विश्वास रखो, मैं तुम्हारे व्याकरणको पूरा कर दूंगा।" इसके पश्चात् उन्होंने पाणिनि-व्याकरणको पूर्ण कर दिया। पाणिनि-व्याकरणके पूर्ण करने के पहले पूज्यपादने जैनेन्द्र व्याकरण, अर्हदप्रतिष्ठालक्षण और वैदिक ज्योतिषके ग्रन्थ लिखे थे।
गुणभट्टकी मृत्युके पश्चात् नागार्जुन अतिशय दरिद्र हो गया। पूज्यपादने उसे पद्मावतीका एक मन्त्र दिया और सिद्धि करने की विधी बतलाई। इस मन्त्रके प्रभावसे पद्यावतीने नागार्जुनके निकट प्रकट होकर उसे 'सिद्विरस' की जड़ी-वनस्पति बतला दी। इस 'सिद्धिरस'के प्रभावसे नागार्जुन सोना बनाने लगा। उसके गर्वका परिहार करने के लिए पूज्यपादने एक मामूली वनस्पतिसे कई बड़े ‘सिद्धिरस' बना दिया। नागार्जुन जब पर्वत्तोंको सुवर्णमय बनाने लगा, तब धरणेन्द्र पद्मावतीने उसे रोका और जिनालय बनानेका आदेश दिया। तदनुसार उसने एक जिनालय बनवाया और उसमें पाश्वनाथकी प्रतिमा स्थापित की।
पूज्यपाद अपने पैरोंमें गगनगामी लेप लगाकर विदेह क्षेत्र जाया करते थे, उस समय उनके शिष्य वज्रनन्दिने अपने साथियोंसे झगड़ा कर द्रविड संघ की स्थापना की।
नागार्जुन अनेक मन्त्र-तन्त्र तथा रसादि सिद्ध करके बहुत प्रसिद्ध हो गया। एक बार उसके समक्ष दो सुन्दर रमणियाँ उपस्थित हुई, जो नृत्य-गान कलामें कुशल थीं। नागार्जुन उनपर मोहित हो गया। वे वहीं रहने लगी और कुछ समय बाद ही उसकी रसगुटिका लेकर चलती बनीं।
पूज्यपाद मुनि बहुत दिनों तक योगाभ्यास करते रहे। फिर एक देव विमानमें बैठकर उन्होंने अनेक तीर्थोकी यात्रा की। मार्गमें एक जगह उनकी दृष्टि नष्ट हो गयी थी। अतएव उन्होंने शान्त्यष्टक रच कर ज्यों-की-त्यों दृष्टि प्राप्त की। अपने शाममें आकर उन्होंने समाधिमरण किया।
इस कथामें कितनी सत्यता है, यह विचारणीय है।
गुरु | शिष्य |
आचार्य वज्रनन्दि | -- |
पुज्यपादके समयके सम्बन्धमें विशेष विवाद नहीं है। इनका उल्लेख छठी शतीके मध्यकालसे ही उपलब्ध होने लगता है। आचार्य अकलंकदेवने अपने 'तत्त्वार्थवात्तिक' में 'सर्वार्थसिद्धि' के अनेकों वाक्योंको बात्तिकका रूप दिया है। शब्दानुशासन सम्बन्धी कथनकी पुष्टिके लिए इनके जैनेन्द्र व्याकरण के सूत्रोंको प्रमाणरूपमें उपस्थित किया है। अतः पूज्यपाद अकलंकदेवके पूर्ववर्ती है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं।
'सर्वार्थसिद्धि' और 'विशेषावश्यक भाष्य' के तुलनात्मक अध्ययनसे पह विदित होता है कि 'विशेषावश्यक भाष्य' लिखते समय जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के समक्ष ‘सर्वार्थसिद्धि' ग्रन्थ अवश्य उपस्थित था। सर्वार्थसिद्धि अध्याय १, सूत्र १५ में धारणामतिज्ञानका लक्षण लिखते हुए बताया है-
"अवेतस्प कालान्तरेऽविस्मरणकारणं धारणा।"
विशेषावश्यकभाष्यमें इसी आधारपर लिखा है-
"कालतरे प जं पुणरणुसरणं धारणा सा उ" ।।गा. २९१।।
चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है, बतलाते हुए सर्वार्थसिद्धि में लिखा है-
'मनोवदप्राप्यकारोति।' १/१९
विशेषावश्यक ग्रंथमें उक्त शब्दावली सीमा नियोजन हुआ है-
लोयणमपविसयं मणोव्व।। गा० २०९।।
इससे ज्ञात होता है कि जिनभद्रगणिके समक्ष पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि विद्यमान थी। इस दृष्टिसे पूज्यपादका समय जिनभद्रगणि (वि. संवत् ६६६)के पूर्व होना चाहिए।
कुन्दकुन्द और पूज्यपादका तुलनात्मक अध्ययन करनेसे अवगत होता है कि पूज्यपादके समाधितन्त्र और इष्टोपदेश कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थोंके दोहनऋणी है। यहाँ दो-एक उदाहरण उपस्थित किये जाते हैं-
(१) जं मया दिस्सदे सर्व तण्ण जाणादि सव्वहा।
जाणगं दिस्सदे णं तं तम्हा जंपेमि केण हं॥
यन्मया दृश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा।
जानन्न दृश्यते रूपं तत: केन ब्रवीम्यहम्॥
(२) ओ सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकजम्मि।
जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे।।
व्यवहारे सुषुप्तो यः स जागर्त्यात्मिगोचरे।
जागति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुमश्चात्मगोचरे।
यहाँ समाधितन्त्रके दोनों पद्य मोक्षपाहुडके संस्कृतानुबाद हैं। पूज्यपादने अपने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थमें 'संसारिणो मुक्ताश्च' [त. सू. २/१०] सूत्रकी व्याख्यामें पंच परावर्तनोंका स्वरूप बतलाते हुए, प्रत्येक परावर्तनके अन्त में उनके समर्थन में जो 'उक्तं च' कहकर गाथाएँ लिखी हैं, वे उसी क्रमसे कुन्दकन्दके 'बारसअणुवेक्खा' ग्रंथमें पायी जातो हैं।
इसके अतिरिक्त पूज्यपादने कुन्दकुन्दके उत्तरवर्ती गृद्धपिच्छापार्य उमास्वामीके तत्त्वार्थसूत्रपर तत्त्वार्थवृत्ति- सर्वार्थसिद्धि लिखी है। अतएव इनका समय कुन्दकुन्द और गृद्धपिच्छाचार्य के पश्चात् होना चाहिए। कुन्दकुन्दका समय विक्रमकी द्वितीय शताब्दीका पूर्वाद्ध है और सूत्रकार गृद्धपिच्छाचार्यका समय विक्रमकी द्वितीय शताब्दीका अन्तिम पाद है। अतः पुज्यपादका समय विक्रम संवत् ३००के पश्चात ही सम्भव है।
पूज्यपादने अपने जैनेन्द्र व्याकरणके सूत्रोंमें भूतबलि, समन्तभद्र, श्रीदत्त, यशोभद्र और प्रभाचन्द्र नामक पूर्वाचार्योंका निर्देश किया है। इनमेंसे भूत्तबलि तो 'षट्खण्डागम’ के रचयिता प्रतीत होते हैं, जिनका समय ई. सन् प्रथम शताब्दी है। प्रखर तार्किक और अनेकान्तवादके प्रतिष्ठापक समन्तभद्र प्रसिद्ध ही हैं। श्रीदत्तके 'जल्पनिर्णय' नामक ग्रन्थका उल्लेख विद्यानन्दने अपने 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक’ में किया है। अतः स्पष्ट है कि पूज्यपाद इन आचार्यों के उत्तरवर्ती हैं।
पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तारने अपने 'स्वामी समन्तभद्र' नामक निबन्धमें तथा 'समाधितन्त्र' की प्रस्तावनामें बताया है कि पुज्यपाद स्वामी गडराज दुर्विनीतके शिक्षागुरु थे, जिसका राज्यकाल ई. सन् ४८५-५२२ तक माना जाता है, और इन्हें हेब्बुरु आदिके अनेक शिलालेखोंमें 'शब्दावतार' के कर्ताके रूपमें दुर्वीनीत राजाका गुरु उल्लिखित किया है।
वि. संवत् ९९० में देवसेनने दर्शनसार नामक ग्रन्थकी रचना की थी। यह अन्य पूर्वाचार्यकृत-गाथाओंको एकत्र कर लिखा गया है। इस ग्रन्थमें बताया है कि पूज्यपादका शिष्य पाहुडवेदी, वचनन्दि, द्राविडसंघका कर्ता हुआ और यह संघ वि. संवत् ५२६ में उत्पन्न हुआ।
सिरिपुज्जपादसीसो दाविडसंघस्स कारगो दुट्ठो।
णामेण वज्जणंदी पाहुडवेदी महासत्तो।।
पंचसए छब्बीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स।
दक्खिखणमहुराजादो दाविडसंघो महामोहो।
वज्रनन्दि देवनन्दिके शिष्य थे। अतएव द्रविड संघकी उत्पत्तिके उक्त कालसे दस-बीस वर्ष पहले ही उनका समय माना जा सकता है। पंडित नाथूरामजी प्रेमीने पूज्यपाद-देवनन्दिका समय विक्रमकी छठी शताब्दीका पूर्वाद्ध माना है। युधिष्ठिर मीमांसकने भी देवनन्दिके समयकी समीक्षा करते हुए इनका काल विक्रमकी छठी शताब्दीका पूर्वार्द्ध माना है।
नन्दिसेनकी पट्टावलीमें देवनन्दिका समय विक्रम संवत् २५८-३०८ तक अंकित किया गया है और इनके अनन्तर जयनन्दि, और गुणनन्दिका नाम निर्देश करनेके उपरान्त वज्रनन्दिका नामोल्लेख आया है। पाण्डवपुराणमें आचार्य शुभचन्द्रने नन्दि-संघकी पट्टावलीके अनुसार ही गुर्वावली दी है। देवनन्दि पूज्यपादके गुरुका नाम एक पद्यमें यशोनन्दि बताया गया है। यथा-
यशकीतिर्यशोनन्दी देवनन्दी महामतिः।
पूज्यपादापराख्यो यो गुणनन्दी गुणाकरः॥
अजमेरकी पट्टावलीमें देवनन्दि और पूज्यपाद ये दो नाम पृथक्-पृथक उल्लिखित हैं। इस पट्टावलीके अनुसार देवनन्दिका समय विक्रम संवत् २५८ और पूज्यपादका वि. सं. ३०८ है। यहाँ पट्टसंख्या भी क्रमशः १० और ११ है। यह भी कहा गया है क देवनन्दि पोरवाल थे और पूज्यपाद पद्मावती पोरवाल। पर संस्कृत पट्टावलीके अनुसार दोनों एक हैं, भिन्न नहीं हैं। डॉ. ज्योतिप्रसादने विभिन्न मतोंका समन्वय किया है।
इस विवेचनसे आचार्य देवनन्दि-पूज्यपादका समय ई. सनकी छठी शताब्दी सिद्ध होता है, जो सर्वमान्य है।
पूज्यपाद आचार्य द्वारा लिखित अबतक निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध है-
१. दशभक्ति
२. जन्माभिषेक
३. तत्वार्थवृत्ति (सर्वार्थसिद्धी)
४. समाधितन्त्र
५. इष्टोपदेश
६. जैनेन्द्रव्याकरण
७. सिद्धिप्रिय-स्तोत्र
१. दशभक्ति-जैनागममें भक्ति के द्वादश भेद है- (१) सिद्ध-भक्ति, (२) श्रुत-भक्ति, (३) चारित्र-भक्ति, (४) योगि-भक्ति, (५) आचार्य-भक्ति, (६) पञ्च गुरुभक्ति, (७) तीर्थङ्कर-भक्ति, (८) शान्ति-भक्ति, (९) समाधि-भक्ति, (१०) निर्वाण-भक्ति, (११) नन्दीश्वर-भक्ति और (१२)चैत्य-भक्ति। पूज्यपाद स्वामीकी संस्कृतमें सिद्ध-भक्ति, श्रुत-भक्ति, चारित्र-भक्ति, योगि-भक्ति, निर्वाण-भक्ति और नन्दीश्वर भक्ति ये सात ही भक्तियां उपलब्ध हैं। काव्यकी दृष्टि से ये भक्तियाँ बड़ी ही सरस और गम्भीर हैं। सर्वप्रथम नौ पद्यों में सिद्ध-भक्तिकी रचना की गयी है। आरम्भमें बताया है कि आठौं कर्मों के नाशसे शुद्ध आत्माको प्राप्तिका होना सिद्धि है। इस सिद्धिको प्राप्त करनेवाले सिद्ध कहलाते है। सिद्ध-भक्तिके प्रभावसे साधकको सिद्ध-पदकी प्राप्ति हो जाती है। अन्य भक्तियों में नामानुसार विषयका विवेचन किया गया है।
२. जन्माभिषेक- श्रवणबेलगोलाके अभिलेखों में पुज्यपादको कृतियों में जन्माभिषेकका भी निर्देश आया है।
वर्तमानमें एक जन्माभिषेक मुद्रित उपलब्ध है। इसे पूज्यपाद द्वारा रचित होना चाहिए। रचना प्रौढ़ और प्रवाहमय है।
३. तत्त्वार्थवृत्ति- पूज्यपादकी यह महनीय कृति है। 'तत्त्वार्थसूत्र' पर गद्यमें लिखी गयी यह मध्यम परिमाणकी विशद वृत्ति है। इसमें सूत्रानुसारी सिद्धान्तके प्रतिपादनके साथ दार्शनिक विवेचन भी है। इस तत्वार्थवृत्तिको सर्वार्थसिद्धि भी कहा गया है। वृत्तिके अन्तमें लिखा है-
स्वर्गापवर्गसुखमाप्तुमनोभिरायें-
जैनेन्द्रशासनवरामृतसारभूता।
सर्वार्थसिद्धिरिति सद्धिरूपात्तनामा
तत्त्वार्थवृत्तिरनितांत प्रधार्या।।
जो आर्य स्वर्ग और मोक्ष सुखके इच्छुक हैं, वे जिनेन्द्रशासनरूपी श्रेष्ठ अमृतसे भरी सारभूत और सत्पुरुषों द्वारा दत्त 'सर्वार्थसिद्धि' इस नामसे प्रख्यात इस तत्त्वार्थवृत्तिको निरन्तर मनोयोगपूर्वक अवधारण करें।
इस वृत्तिमें तत्त्वार्थसूत्रके प्रत्येक सूत्र और उसके प्रत्येक पदका निर्वचन, विवेचन एवं शंका-समाधानपूर्वक व्याख्यान किया गया है। टीकाग्रन्थ होनेपर भी इसमें मौलिकता अक्षुण्ण है।
इस ग्रंथके नामकरणका कारण स्वयं ही ग्रन्थकारने अन्तिम रचित पद्योंमेंसे द्वितीय पद्यमें अंकित किया है-
तस्वार्थवृत्तिमुदितां विदितार्थतत्त्वाः
शृण्वन्ति ये परिपठन्ति च धर्मभक्त्या।
हस्ते कृतं परमसिद्धिसुखामृतं तै
मर्त्यामरेश्वरसुलेषु किमस्ति वाच्यम्।।
अर्थात्- अर्थके सारको ज्ञात करने के लिए जो व्यक्ति धर्म-भक्तिसे तत्वार्थवृत्तिको पढ़ते और सुनते हैं वे परमसिद्धिके सुखरूपी अमृतको हस्तगत कर लेते हैं, तब चक्रवर्ती और इन्द्रपदके सुलके विषय में तो कहना ही क्या?
सोलह स्वर्गोंके ऊपर पञ्च अनुत्तर विमानोंमें सर्वार्थसिद्धि नामका एक विमान है। सर्वार्थसिद्धिवाले जीव एकभवावतारी होते हैं। यह 'तत्वार्थवृत्ति' भी उसीके समकक्ष है। अतः इसे 'सर्वार्थसिद्धि' नामसे अभिहित किया गया है।
'तत्त्वार्थसूत्र'की वृत्ति होने पर भी इस ग्रन्थमें कतिपय मौलिक विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। मङ्गलाचरणके पश्चात् प्रथम सूत्रकी व्याख्या आरम्भ करते हुए उत्थानिकामें लिखा है- किसी निकटभव्यने एक आश्रममें मुनि-परिषद्के मध्यमें स्थित निर्ग्रन्थाचार्य से विनयसहित पूछा-भगवन् ! आत्माका हित क्या है? आचार्यने उत्तर दिया- मोक्ष। भव्यने पुन: प्रश्न किया- मोक्षका स्वरूप क्या है और उसकी प्राप्तिका उपाय क्या है? इसी प्रश्न के उत्तरस्वरूप "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:"- सूत्र रचा गया है।
प्रथम अध्यायके षष्ठ सूत्र "प्रमाणनयैरधिगमः" (१/६) की व्याख्या करते हुए पूज्यपाद स्वामीने प्रमाणके स्वार्थ और परार्थ भेद करके मति, अवधि, मन:पर्यय और केवल इन चार ज्ञानोंको स्वार्थप्रमाण बतलाते हुए श्रुतज्ञानको स्वार्थ और परार्थ दोनों बतलाया है तथा उसीका भेद नम है- यह भी बताया है। इसी सुत्रकी व्याख्यामें "उक्तञ्च' लिखकर "सकलादेशः प्रमाणाधीनः विकलादेशो नयाधीनः"- वाक्य उद्धृत किया है। इस प्रकार प्रमाणके स्वार्थ और परार्थ भेद तथा सकलादेश और विकलादेशकी चर्चा इन्हींके द्वारा प्रस्तुत की गयी है। इसी अध्यायमें "सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहत्वैश्च" (१/८)-की वृत्ति परखण्डागमके जीवटा्ठणसूत्रोंके आधारपर लिखी गयी है। इसमें सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगोंके द्वारा चौदह मार्गणाओंमें गुणस्थानोंका विवेचन बहुत सुन्दर रूपमें किया है।
प्रमाणकी चर्चामें नैयायिक और वैशेषिकोंके सन्निकर्ष-प्रामाण्यवादका एवं सांख्योंके इन्द्रिय-प्रामाण्यका निरसन कर ज्ञानके प्रामाण्यको व्यवस्था की है। ज्ञानको स्वपरप्रकाशक सिद्ध कर चक्षुःके प्राप्यकारित्वका आगम और युक्तियोंसे खण्डन कर उसे अप्राप्यकारी सिद्ध किया गया है। "सदसतोरविशेषा द्यदच्छोपलन्धेस्न्मत्तवत्" (१।३२) की वृत्तिमें कारणविपर्यास, भेदाभेदविपर्यास और स्वरूपविपर्यासकी चर्चा करते हुए योग, सांख्य, बौद्ध और चार्वाक आदिके मतोंका निर्देश किया है। अन्तिम सूत्रमें किया गया नयोंका विवेचन भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।
द्वितीय अध्यायको व्याख्यामें भी अनेक विशेषताएँ और मौलिकताएं उपलब्ध है। तृतीय सुत्रकी व्याख्यामें चारित्रमोहनीयके 'कषायवेदनीय' और ‘नोकषायवेदनीय' ये दो भेद बतलाए हैं तथा दर्शनमोहनीयके सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये तीन भेद बतलाए हैं। इन सात प्रकृतियोंके उपशमसे औपशमिक सम्यक्त्व होता है। यह सम्यक्त्व अनादिमिथ्यादृष्टि भव्यके कर्मोदयसे प्राप्त कलषताके रहते हुए किस प्रकार सम्भव है? इस प्रश्नके उत्तरमें आचार्यने बतलाया है- 'काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात'- काललब्धि आदिके निमित्तसे इनका उपशम होता है। अन्य आगमग्रन्थोंमें क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि, काललब्धि और प्रायोग्यलब्धि ये पांच लब्धियाँ बत्तलायी हैं। आचार्य पूज्यपादने काललब्धिके साथ लगे आदि शब्दसे जातिस्मरण आदिका निर्देश किया है और काललब्धिके कर्मस्थितिका काललब्धि और भवापेक्षया काललब्धियोंका निर्देश किया है। यह विषय मौलिक और सैद्धान्तिक है।
तृतीय-चतुर्थ अध्यायमें लोकका वर्णन किया गया है ! ग्रहकेन्द्रवृत्त, ग्रहकक्षाएँ, ग्रहोंकी गति, चार-क्षेत्र आदि चर्चाएँ तिलोयपण्णत्तिके तुल्य हैं। लोकाकारका वर्णन आचार्यने मौलिक रूपमें किया है।
मौलिक तथ्यों के समावेशकी दष्टिसे पंचम अध्याय विशेष महत्त्वपूर्ण है। द्रव्य, गुण और मयोंका म और शिवमन किया गया है । 'द्रव्यत्व योगात् द्रव्यम्' और 'गुण-समुदायो द्रव्यम्'की समीक्षा सुन्दर रूपमें की गयो है। "उत्पादव्ययघ्रोव्ययुक्तं सत्"(५।३०)- सूत्रको व्याख्या सोदाहरण उत्पाद, व्यय और घ्रोव्यकी व्याख्या की गयी है तथा "अपितानपितसिद्धेः" (५।३२) सूत्रकी वृत्तिमें अनेकान्तात्मक वस्तुकी सिद्धि की गयी है।
षष्ठ और सप्तम अध्यायमें दर्शनमोहनीयकर्मके आस्रवके कारणोंका विवेचन करते हुए केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देवोंके अवर्णवादप्रसंगमें श्वेताम्बर मान्यताओं की समीक्षा की है। सप्तम अध्यायके प्रथम सूत्रमें रात्रि-भोजनत्याग नामक षष्ठ अणुव्रतको समीक्षा की गयी है। सप्तम अध्यायके त्रयोदश सूत्रके व्याख्यानमें आचार्यने हिंसा और अहिंसाके स्वरूपका विवेचन करते हुए उनके समर्थनमें अनेक गाथाएँ उद्धृत की है। गुद्धपिच्छाचार्यने प्रमादयोगसे प्राणोंके घातको हिंसा कहा है। पूज्यपादने प्रमत्तयोग और प्राणका व्यपरोपण इन दोनों पदोंका विवेचन करते हुए केवल प्राणों के घातमात्रको हिंसा नहीं कहा है। जहाँ प्रमत्तयोग है वहाँ प्राणोंका घात न होनेपर भी हिसा होती है, क्यों कि घातकका भाव हिंसारूप है।
अष्टम अध्यायमें कर्मबन्धका और कर्मों के भेद-प्रभेदोंका वर्णन आया है। प्रथम सूत्रमें बन्धके पाँच कारण बतलाये हैं। उनकी व्याख्यामें पूज्यपादने मिथ्यात्वके पांच भेदोंका कथन करते हुए पुरुषाद्वैत एवं श्वेताम्बरीय निग्रन्थ सग्रन्थ, केवली-कवलाहार तथा स्त्री-मोक्ष सम्बन्धो मान्यताको भी विपरीत मिथ्यात्व कहा है। इस अध्यायके अन्य सूत्रोंका व्याख्यान भी महत्त्वपूर्ण है। पदोंको सार्थकताओंके विवेचनके साथ पारिभाषिक शब्दोंके निर्वचन विशेष उल्लेख्य हैं।
नवम अध्यायमें संवर, निर्जरा और उनके साधन गुप्ति आदिका विशद विवेचन है। दशममें मोक्ष और मुक्त जीवोंके ऊध्वंगमनका प्रतिपादन है।
इस समग्र ग्रन्थकी शैली वर्णनात्मक होते हुए भी सूत्रगत पदोंको सार्थकताके निरूपणके कारण भाष्यके तुल्य है। निश्चयतः पूज्यपादको तत्वार्थसूत्रके सूत्रोंका विषयगत अनुगमन गहरा और तलस्पर्शी था।
४. समाधितन्त्र- इस ग्रन्थका दूसरा नाम समाधिशतक है। इसमें १०५ पद्य हैं। अध्यात्मविषयका बहुत ही सुन्दर विवेचन किया है। आचार्य पूज्यपादने अपने इस ग्रंथको विषयवस्तु कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों से ही ग्रहण की है। अनेक पद्य तो रूपान्तर जैसे प्रतीत होते हैं। यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत करते है-
यदग्राह्यं न गृहाति गृहीतं नापि मुञ्चति।
जानाति सर्वथा सर्वं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम्।।
इस पद्यकी समता निम्न गाथामें है-
णियभावं ण वि मुंचइ परभाव णेव गिण्हए केई।
जाणदि पास्सदी सव्व सोहं इदि चितए णाणी॥
बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्माके स्वरूपका विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। बहिरात्मभाव- मिथ्यात्वका त्याग कर अन्तरात्मा बन कर परमात्मपदको प्राप्तिके लिए प्रयास करना साधकका परम कर्तव्य है। आत्मा, शरीर, इन्द्रिय और कर्मसंयोगका इस ग्रन्थमें संक्षेपमें हृदयग्राही विवचन किया गया है।
५. इष्टोपदेश- इस आध्यात्मकायम इष्ट-आत्माके स्वरूपका परिचय प्रस्तुत किया गया है। ५१ पद्योंमें पूज्यपादने अध्यात्मसागरको गागरमें भर देनेकी कहावतको चरितार्थ किया है। इसकी रचनाका एकमात्र हेतु यही है कि संसारी आत्मा अपने स्वरूपको पहचानकर शरीर, इन्द्रिय एवं सांसारिक अन्य पदार्थोंसे अपने को भिन्न अनुभव करने लगे। असावधान बना प्राणी विषय-भोगोंमें ही अपने समस्त जीवनको व्यतीत न कर दे, इस दृष्टि से आचार्यने स्वयं ग्रंथके अन्तमें लिखा है-
इष्टोपदेशमिति सम्यगधीत्य धीमान्।
मानापमानसमता स्वमताद्वितन्य।।
मुक्ताग्रहो विनिवसन्सजने बने वर।
मुक्तिश्रीयं निरूपमामुपयात्ति भव्यः।।
इस ग्रन्थके अध्ययनसे आत्माको शक्ति विकसित हो जाती है और स्वात्मानुभूतिके आधिक्यके कारण मान-अपमान, लाभ-अलाभ, हर्ष-विषाद आदिमें समताभाव प्राप्त होता है। संसारकी यथार्थ स्थितिका परिज्ञान प्राप्त होनेसे राग, द्वेष, मोहकी परिणति घटती है। इस लघुकाय ग्रन्थमें समयसारकी गाथाओंका सार अंकित किया गया है। शैली सरल और प्रवाहमय है।
६. जैनेन्द्र व्याकरण- श्रवणबेलगोलाके अभिलेखों एवं महाकवि धनंजयके नाममालाके निर्देशसे जैनेन्द्र व्याकरणके रचयिता पूज्यपाद सिद्ध होते हैं। गुणरत्नमहोदधिके कर्ता वर्षमान और हेमशब्दानुशासनके लघुन्यासरचयिता कनकप्रभ भी जैनेन्द्र व्याकरणके रचयिताका नाम देवनन्दि बताते हैं।
अभिलेखोंसे जैनेन्द्रन्यासक रचयिता भी पूज्यपाद अवगत होते है। पर यह ग्रन्थ अभी तक अनुपलब्ध है।
जैनेन्द्र व्याकरणके दो सुत्रपाठ उपलब्ध है- एकमें तीन सहस्र सूत्र हैं, और दूसरेमें लगभग तीन हजार सात सौ। पंडित नाथूरामजी प्रेमीने यह निष्कर्ष निकाला है कि देवनन्दि या पूज्यपादका बनाया हुआ सूत्रपाठ वहीं है, जिसपर अभयनन्दिने अपनी वृत्ति लिखी है।
जैनेन्द्र व्याकरणमें पाँच अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में चार-चार पाद हैं। इसका पहला सूत्र महत्त्वपूर्ण है। इसमें 'सिद्धिरनेकान्तात्' सूत्रसे समस्त शब्दोंका साधुत्व अनेकान्तद्वारा स्वीकार किया है, क्योंकि शब्दमें नित्यत्व, अनित्यत्व, उभयत्व, अनुभयत्व आदि विभिन्न धर्म रहते हैं। इन नाना धर्मोंसे विशिष्ट धर्मीरूप शब्दकी सिद्धि अनेकान्तसे ही सम्भव है। एकान्तसिद्धान्तसे अनेकधर्मविशिष्ट शब्दोंका साधुत्व नहीं बतलाया जा सकता। यहाँ अनेकान्तके अन्तर्गत लोकप्रवृत्तिको भी मान्यता दी है। लोकप्रसिद्धिपर आश्रित शब्दव्यवहार भी मान्य है।
जैनेन्द्रका संज्ञाप्रकरण सांकेतिक है। इसमें धातु, प्रत्यय, प्रातिपदिक, विभक्ति, समास आदि महासंज्ञाओंके लिए बीजगणित जैसी अतिसंक्षिप्त संकेतपूर्ण संज्ञाएँ आयी हैं। इस व्याकरणमें उपसर्ग के लिए 'गि', अव्ययके लिए 'झी:' समासके लिए 'सः', वृद्धिके लिए 'ऐप', गुणके लिए 'एप', सम्प्रसारणके लिए 'जिः', प्रथमा विभक्ति के लिए 'या', द्वितीयाके लिए 'इ'', तृतीया विभक्तिके लिए 'भ', चतुर्थीके लिए 'अप', पञ्चमीके लिए 'का', षष्ठीके लिए 'ता', सप्तमी के लिए 'इप' और सम्बोधनके लिए 'कि:' की संज्ञाएँ बतलायी गयो हैं। निपातके लिये 'नि:', दीर्घके लिये 'दीः', प्रगह के लिए 'दि:', उत्तरपदके लिये 'धुः', सर्वनाम स्थानके लिए 'धम्', उपसर्जनके लिए 'न्यक', प्लुत्के लिए 'पः', ह्रस्यके लिये 'प्र:', प्रत्ययके लिये 'त्यः', प्रातिपदिकके लिए 'मृत्', परस्मैपदके लिए 'मम्', आत्मनेपदके लिए 'द:', अकर्मकके लिए "धि:', संयोगके लिए 'स्फ', सवर्णके लिए 'स्वम्', तद्धितके लिए 'हत', लोपके लिए 'खम्', लुप्के लिए 'उस्', लुक्के लिए 'उप' एवं अभ्यासके लिए 'च' संज्ञाका विधान किया गया है। समासप्रकरणमें अव्यपीभावके लिए 'ह:', तत्पुरुषके लिए 'षम्' कर्मधारयके लिये 'य:', द्विगके लिए'र:', और बहुव्रीहिके लिए 'वम्' संज्ञा बतलायो गयी है। जैनेन्द्रका यह संज्ञाप्रकरण अत्यन्त सांकेतिक है। पूर्णतया अभ्यस्त हो जाने के पश्चात् ही शब्दसाधुत्वमें प्रवृत्ति होती है। यह सत्य है कि इन सज्ञाओंमें लाघवनियमका पूर्णतया पालन किया गया है।
जैनेन्द्र व्याकरणमें सन्धिके सूत्र चतुर्थ और पञ्चम अध्यायमें आये हैं। 'सन्धी' ४।३।६० सूत्रको सन्धिका अधिकारसूत्र मानकर सन्धिकार्य किया गया है, पश्चात् छकारके परे सन्धिमें तुगागमका विधान किया है। तुगागम करनेवाले ४/३/६० से ४/३/६४ तक चार सूत्र हैं। इन सूत्रों द्वारा हस्व, आंग, मांग तथा दो संज्ञकोंसे परे तुगागम किया है और 'त' का 'च' बनाकर गच्छति, इच्छति, आच्छिन्नति, माच्छिदत, मलेच्छति, कुवलीच्छाया आदि प्रयोगोंका साधुत्व प्रदर्शित किया है। देवनन्दिका यह विवेचन पाणिनिके तुल्य है। अनन्तर' 'यण' सन्धिके प्रकरणमें 'अचीकोयण' ४/३/६५ सूत्रद्वारा इक्- इ,उ,ऋ, लको क्रमश: यणादेश- य,व,र,लका नियमन किया है। देवनन्दिका यह प्रकरण पाणिनिके समान होने पर भी प्रक्रियाको दृष्टिसे सरल है। इसी प्रकार 'अयादि' सन्धिका ४/३/६६, ४/३/६७ द्वारा विधान किया है। वृत्तिकारने इन दोनों सूत्रों की व्याख्या में कई ऐसो नयी बातें उपस्थित की हैं, जिनका समावेश कात्यायन और पतञ्जलिके वचनोंमें किया जा सकता है। जैनेन्द्रकी सन्धिसम्बन्धी तीन विशेषताएं प्रमुख हैं-
१. उदाहरणोंका बाहुल्य- चतुर्थ, पंचम शताब्दीमें प्रयुक्त होनेवाली भाषाका समावेश करने के लिये नये-नये प्रयोगोंको उदाहरणके रूपमें प्रस्तुत किया गया है। यथा-
पव्यम्, अवश्यपाव्यम्, नौयानम्, गोयानम् आदि।
२. लाघव या संक्षिप्तिकरणके लिये सांकेतिक संज्ञाओका प्रयोग।
३. अधिकारसूत्रों द्वारा अनुबन्धों की व्यवस्था।
सुवन्त प्रकरणमें अधिक विशेषताओंके न रहनेपर भी प्रक्रिया सम्बन्धी सरलता अवश्य विद्यमान है। जिन शब्दोंके साधुत्वके लिये पाणिनिने एकाधिक सूत्रौंका व्यवहार किया है, उन शब्दोंके लिये जैनेन्द्र व्याकरणमें एक ही सूत्रसे साधनिका प्रस्तुत कर दी गयी है।
जैनेन्द्र व्याकरणमें स्त्रीप्रत्यय, समास एवं कारक सम्बन्धी भी कतिपय विशेषताएँ पायो जाती हैं। 'कारक' १/२/१०९ की अधिकारसूत्र मानकर कारक प्रकरणका अनुशासन किया है। देवनन्दिने पंचमी विभक्तिका अनुशासन सबसे पहले लिखा है, पश्चात् चतुर्थी, तृतीया, सप्तमी, द्वितीया और षष्ठी विभक्तिका नियमन किया है। यह कारकप्रकरणा बहुत संक्षिप्त है, पर जितनी विशेषताएँ अपेक्षित है उन सभीका यहाँ नियमन किया गया है। इसी प्रकार तिङन्त, तद्धित और कृदन्त प्रकरणोमें भी अनेक विशेषताएं दृष्टिगोचर होती है।
इस व्याकरणकी शब्दसाधुत्वसम्बन्धी विशेषताओंके साथ सांस्कृतिक विशेषताएँ भी उल्लेख्य हैं। यहाँ सांस्कृतिक शब्दोंकी तालिका उपस्थित कर उक्त कथनकी पुष्टि की जा रही है।
पति पनसम् १/१/३
पक्व, पक्ववान् १/१/४
अतितिलपीडनिः १/१/८- तिलकुट या तेल पेरनेवाली
अतिराजकुमारि: १/१/८
कुवलम्, वदरम्- झरवेर १/१/९
आमलव्यम् १/१/९
पञ्चशष्कुल: १/१/९
पञ्चगोणिः १/१/१०
पञ्चसूचिः, सप्तशूचिः १/१/१०
दधि, मधु १/१/११
अश्राद्धभोजी, अलवणभोजी १/१/३२
द्रोषणके जातो द्रौघ्रणकीयः १/१/६८
छतप्रधानोरौदि १/१/७१
सम्पन्नाब्रीह्य:- एकोब्रीहिः सम्पन्नः सुभिक्षं करोति १/१/९९
द्वावपूपी भक्षयेति १/२/१०
स्त्रावयाति तैलं १/१/८३
यवागू: शरार- जौका हलुआ या लाप्तसी
रूपकार: पचति १/२/१०३
कांस्यपात्र्या भुडक्ते १/२/११०
वृक्षमवचिनोति फलानि १/२/१२१
भोज्यते माणवकमोदनं १/२/१२१
नटस्य शृणोति श्लोकम् १/२/१२१
उपयोगो दुग्धादि तन्निमित्तं गवादि।
गोदोहं स्वपिति १/२/१२१
अजां नयति ग्रामं, भारं बहति ग्रामम्, शाखां कर्षति ग्रामम् १/२/१२१
अध्याप्येते माणचको जैनेन्द्रम् १/२/१२१।
भक्षयति पिण्डी देवदत्तः १/२/१२२
आसयति गोदोहं देवदत्तम् १/२/१२२
पूतयवम्, पूतयानयवम्, संहृतयवम्, संहियमाणयबम् १/१३/१४
दध्मापटुः, घृतेनपटुः १/३/२७
गुडपृथुका, गडधाना, तिलपृथुका, दघ्ना उपसिक्त ओदनोदधनोदन:
घृतोदनः। १/३/३१- गुड़-चूड़ा, गुडधान, तिलचूड़ा, दधिभात,घी-भात।
वनेकसेसकाः, वनेवल्वजकाः, कृपेपिशाचिकाः १/३/३८
तत्रमुक्तम्, तत्रपीतम् १/३/४०
पुराणान्नम् १/३/४४
केवलज्ञानम्, मोषकगवी १/३/४४
पञ्चगवधनः, पञ्चपूली, पञ्चकुमारि १/३/४६
क्षत्रियभीरुः, श्रोत्रियक्त्तिवः, भिक्षुविटः, मीमांसकदुर्दुरूपः १/३/४८
शस्त्रीथ्यामा, दुर्वाकाण्डथ्यामा, सरकाथ्यामा १/३/५०
भोज्योषणम्, भोज्यलवणम्, पानीयशोतम् १/३/६४
कपित्थरसः १/३/७५
इक्षमक्षिका में धारयसि १/३/७८
सक्तूनां पायकः १/३/७९
तैलपीतः, घृत्तपीतः, मद्यपोतः १/३/१०३
कुशलो विद्याग्रहणे १/४/४८
माथुरा: पालिपुत्रकेभ्य आदयतरा: १/४/५०
पुष्ये पायसमश्नीयात्, मघाभिः पललौदनम् १/४/५३
यवाना लावकः, ओदस्य भोजक: १/४/६८
दास्या: कामुकः, सूकरः, कटो भवता, धान्यं पवमान: १/४/७२
पुष्येण योग जानाति, पुष्येण भोजयति, चन्द्रमसा मघाभिर्योगं जानाति २/१/२४
मासं कल्याणी काञ्ची १/४/४
शरदं मथुरा रमणीया १/४/४
अरुणन्महेन्द्रो मथुरां। अरुणद् यवनः साकेतम् २/२/९२
पौतिमाष्या, गौकक्ष्या ३/१/४
शुचिरियं कन्या ३/१/३०
बुद्धपत्नी, स्थूलपत्नी, ग्रामपत्नी ३/१/३५
पलाण्डुभक्षितो, सुरापीतो ३/१/४६
वाहीकग्रामः, दाक्षिपलदीयः, माहकिपलदीयः, माहाकनगरीयः ३/२/११८
मासिकः, सांवत्सरिक: ३/२/१३१
गोशालम, खरशालम् ३/३/११
मासे देया भिक्षा ३/३/२२
पाटलिपुत्रस्य व्याख्यानं सुकौशला ३/३/४२
पाटलिपुत्रस्य द्वारम् ३/३/६०
वाणिजा: वाराणसी जित्वरोति मङ्गलार्थमुपचरन्ति ३/३/५८
गान्धारः, पाञ्चाल: ३/३/६७
गर्गभार्गवका ३/३/९३
हास्तिपदं शकटम् ३/३/१००
आक्षिकः, शालाकिक: ३/३/१२७
दाधिकम्, शाङ्गंवेरिकम्, माराचिकम् ३/३/१२८
चूणिनोऽपूपाः, लवणा यवागूः, कषायमुदकम् ३/३/१४७
इस स्तोत्रमें २६ पद्य हैं और चतुर्विशति तीर्थंकरोंको स्तुति की गयी है। रचना प्रौढ़ और प्रवाहयुक्त है। कवि वर्धमानस्वामीकी स्तुति करता हुआ कहता है-
श्रीवर्धमानवचसा परमाकरेण
रत्नत्रयोत्तमनिघे: परमाकरेण।
कुर्वन्ति यानि मुनयोऽजनता हि तानि
वृत्तानि सन्तु सततं जनताहितानि॥
यहाँ यमकका प्रयोग कर कविने वर्द्धमानस्वामीका महत्त्व प्रदर्शित किया है। 'जनताहितानि' पद विशेषरूपसे विचारणीय है। वस्तुतः तीर्थकर जननायक होते हैं और वे जनताका कल्याण करनेके लिये सर्वथा प्रयत्नशील रहते हैं।
इन प्रमुख ग्रन्थों के अतिरिक्त पूज्यपादके वैद्यक सम्बन्धी प्रयोग भी उपलब्ध हैं। जैनसिद्धान्तभवन आरासे 'वैद्यसारसंग्रह' नामक ग्रंथमें कतिपय प्रयोग प्रकाशित हैं। छन्दशास्त्र सम्बन्धी भी इनका कोई ग्रन्थ रहा है, जो उपलब्ध नहीं है।
जीवन और जगत्के रहस्योंकी व्याख्या करते हुए, मानवीय व्यापारके प्रेरक, प्रयोजनों और उसके उत्तरदायित्वकी सांगोपांग विवेचना पूज्यपादके ग्रन्थोंका मूल विषय है। व्यक्तिगत जीवनमें कवि आत्मसंयम और आत्मशुद्धि पर बल देता है। ध्यान, पूजा, प्रार्थना एवं भक्तिको उदात्त जीवनकी भूमिकाके लिये आवश्यक समझता है। आचार्य पूज्यपादको कवितामें काव्यतत्वकी अपेक्षा दर्शन और अध्यात्मतत्त्व अधिक मुखर है। शृङ्गारिक भावनाके अभावमें भी भक्तिरसका शीतल जल मन और हृदय दोनोंको अपूर्व शान्ति प्रदान करने की क्षमता रखता है। शब्द विषयानुसार कोमल हैं, कभी-कभी एक ही पद्यमें ध्वनिका परिवर्तन भी पाया जाता है। वस्तुतः अनुरागको ही पूज्यपादने भक्सि कहा है और यह अनुराग मोहका रूपान्तर है। पर वीतरागके प्रति किया गया अनुराग मोहको कोटिमें नहीं आता है। मोह स्वार्थपूर्ण होता है और भक्तका अनुराग निःस्वार्थ। वीतरागीसे अनुराग करनेका अर्थ है, तदरुप होनेकी प्रबल आकांक्षाका उदित होना। अतएव पूज्यपादने सिद्धभक्ति में सिद्धरूप होनेकी प्रक्रिया प्रदर्शित की है।
उनके वैदुष्यका अनुमान सर्वार्थसिद्धिग्रन्थसे किया जा सकता है। नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त, बौद्ध आदि विभिन्न दर्शनोंको समीक्षा कर इन्होंने अपनी विद्वत्ता प्रकट की है। निर्वचन और पदोंकी सार्थकताके विवेचनमें आचार्य पूज्यपादकी समकक्षता कोई नहीं कर सकता है।
आचार्य पूज्यपादने कविके रूपमें अध्यात्म, आचार और नीतिका प्रतिपादन किया है। अनुष्टुप् जैसे छोटे छन्दमें गम्भीर भावोंको समाहित करनेका प्रयत्न प्रशंसनीय है। आचार्य ने सुख-दुःखका आधार वासनाको ही कहा है, जिसने आत्मतत्त्वका अनुभव कर लिया है, उसे सुख-दुःखका संस्पर्श नहीं होता।
वासनामयमेवैतत् सुखं दुःखं च देहिनाम्।
तथा हृद्वेजयन्त्येते, भोगा रोगा इवापदि।
देहधारियोंको जो सुख और दुःख होता है, वह केवल कल्पनाजन्य ही है। जिन्हें लोकसुखका साधन समझा जाता है, ऐसे कमनीय कामिनी आदि भोग भी आपत्तिके समयमें रोगोंकी तरह प्राणियोंको आकुलता पैदा करनेवाले होते हैं।
संसारकी विभिन्न परिस्थितियोंका चित्रांकन करते हुए आचार्य पूज्यपादने उदाहरण द्वारा संयोग-वियोगको वास्तविक स्थितिपर प्रकाश डाला है। यथा-
दिग्देशेभ्यः खगा एत्य, संवसन्ति नगे नगे।
स्वस्वकार्यवशाद्यान्ति, देशे दिक्षु प्रगे नगे।।
जिस प्रकार विभिन्न दिशा और देशोंसे एकत्र हो पक्षीगण वृक्षोंपर रात्रिमें निवास करते हैं, प्रात: होनेपर अपने-अपने कार्यके वश पृथक्-पृथक दिशा और देशोंको उड़ जाते हैं। इसी प्रकार परिवार और समाजके व्यक्ति भी थोड़े समयके लिये एकत्र होते हैं और आयुकी समाप्ति होते ही वियुक्त हो जाते हैं।
इस पद्यमें व्यंजना द्वारा ही संसारी जीवोंकी स्थितिपर प्रकाश पड़ता है। अभिधासे तो केवल पक्षियोंके 'रैन-बसेरा'का हो चित्रांकन होता है, परन्तु व्यंजना द्वारा संयोग-वियोगकी स्थिति बहुत स्पष्ट हो जाती है और संसारका यथार्थरूप प्रस्तुत हो जाता है। आचार्यने आठवें पद्यमें "चपुगह धनं दारा: पुत्रा मित्राणि शत्रवः' में आमुखके रूपमें उक्त पद्यके व्यंग्यार्थका संकेत कर दिया है। अतः पद्योंको गुम्फित करने की प्रक्रिया भी मौलिक है। तथ्य यह है कि बाह्य प्रकृति के बाद मनुष्य अपने अन्तर्जगतको और दृष्टिपात करता है। यही कारण है कि उदाहरणके रूपमें प्रस्तुत किया गया पच बाह्य प्रकृतिके रूपका चित्रण कर आमुख श्लोकके अर्थके साथ अन्वित हो विरक्तिके लिये भूमिका उत्पन्न कर देता है।
आचार्य पूज्यपादने सकल परमात्मा अर्हन्तको नमस्कार करते हुए उनकी अनेक विशेषताओंमें वाणीकी विशेषता भी वर्णित की है। यह विशेषता उदात्त अलंकारमें निरूपित है। कविने बताया है कि अर्हन्त इच्छारहित हैं। अत: बोलनेकी इच्छा न करनेपर भी निरक्षरी दिव्य-ध्वनि द्वारा प्राणियोंकी भलाई करते हैं, जो सकल परमात्माको अनुभूति करने लगता है, उसे आत्माका रहस्य ज्ञात हो जाता है। अतः कविने सूक्ष्मके आधारपर इस चित्रका निर्माण किया है। कल्पना द्वारा भावनाको अमूर्तरूप प्रदान किया गया है। धार्मिक पद्य होनेपर भी, छायावादी कविताके समान सकल परमात्माका स्पष्ट चित्र अंकित हो जाता है। काव्यकलाकी दृष्टिसे पद्य उत्तम कोटिका है-
जयन्ति यस्यावदतोऽपि भारतीविभूतयस्तीर्थकृतोप्यनीहितुः।
शिवाय धात्रे सुगत्ताय विष्णवे जिनाय तस्मै सकलात्मने नमः।।
इच्छारहित होनेपर तथा बोलने का प्रयास न करनेपर भी जिसकी वाणी को विभूति जगानो सुख-शान्ति देनेमें समर्थ है, उस अनेक सकल परमात्मा अर्हन्तको नमस्कार हो।
बाह्य उदाहरणों द्वारा अन्तरंगकी अनुभूति करानेके लिये आचार्य ने गाढ़वस्त्र, जीर्णवस्त्र, रक्तवस्त्रके दृष्टान्त प्रस्तुतकर आत्माके स्वरूपको स्पष्ट करनेका प्रयास किया है। जिस प्रकार गाढ़ा- मोटा वस्त्र पहन लेनेपर कोई अपनेको मोटा नहीं मानता, जीर्ण वस्त्र पहननेपर कोई अपनेको जीर्ण नहीं मानता और रक्त, पीत, प्रभृती विभिन्न प्रकारका रंगीन वस्त्र पहननेपर कोई अपनेको लाल, नीला, पीला नहीं समझता, इसी प्रकार शरीरके स्थूल, जीर्ण, गौर एवं कृष्ण होनसे आत्माको भी स्थूल, जीर्ण, काला और गोरा नहीं माना जा सकता है-
घने वस्ने यथाऽऽत्मानं न घनं मन्यते तथा।
धने स्वदेहेऽप्यात्मानं न घनं मन्यते बुधः।।
जीर्ण वस्ने यथाऽऽत्मानं न जीर्ण मन्यते तथा।
जीर्ण स्वदेहेऽप्यात्मानं न जोर्ण मन्यते बधः।।
रक्ते वस्त्रे यथाऽऽत्मानं न रक्तं मन्यते तथा।
रक्ते स्वदहेऽप्यात्मानं न रक्तं मन्यते बुधः।।
अनुष्टपके साथ वंशस्थ, उपेन्द्रवज्रा आदि छन्दोंका प्रयोग भी किया है। काव्य, दर्शन और अध्यात्मतत्वको दृष्टि से रचनाएँ सुन्दर और सरस हैं।
सारस्वताचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन ।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वसाचार्योंमें आचार्य श्री देवनंदी का नाम आता है। कवि, वैयाकरण और दार्शनिक इन सोनों व्यक्तित्वोंका एकत्र समवाय देवनम्दि पूज्यपादमें पाया जाता है। आदिपुराणके रचयिता आचार्य जिनसेनने इन्हें कवियोंमें तीर्थकृत लिखा है-
कवीनां तीर्थकुद्धेवः किं तरी तत्र वर्ण्यते।
विदुषां वाडमलध्वसि तीर्थ यस्य वचोमयम्। आदिपुराण, १/५२
जो कवियोंमें तीर्थंकरके समान थे, अथवा जिन्होंने कवियोंका पथप्रदर्शन करनेके लिये लक्षणग्रन्थकी रचना की थी और जिनका वचनरूपी तीर्थ विद्वानोंके शब्दसम्बन्धी दोषोंको नष्ट करनेवाला है, ऐसे उन देवनन्दि आचार्यका कौन वर्णन कर सकता है।
ज्ञानार्णवके कर्ता आचार्य शुभचन्द्र ने इनकी प्रतिभा और वैशिष्ठयका निरूपण करते हुए स्मरण किया है
अपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाकचित्तसम्भवम्।
कलङ्कमङ्गिना सोश्यं देवनन्दो नमस्यते।।
जिनको शास्त्रपद्धति प्राणियोंके शरीर, वचन और चित्तके सभी प्रकारके मलको दूर करनेमें समर्थ है, उन देवनन्दि आचार्यको मैं प्रणाम करता हूँ।
आचार्य देवनन्दि-पूज्यपादका स्मरण हरिवंशपुराणके रचयिता जिनसेन प्रथमने भी किया है। उन्होंने लिखा है-
इन्द्र चन्द्रार्कजेनेन्द्रव्याडिव्याकरणक्षिणः।
देवस्य देववन्द्यस्य न वन्द्यन्ते गिरः कथम् ॥
अर्थात् जो इन्द्र, चन्द्र, अर्क और जैनेन्द्र व्याकरणका अवलोकन करने वाली है, ऐसी देवबन्ध देवनन्दि आचार्यको वाणी क्यों नहीं वन्दनीय है ।
इससे स्पष्ट है कि आचार्य देवनन्दि प्रसिद्ध व्याकरण और दार्शनिक विद्वान थे और विद्वन्मान्य।
इनके सम्बन्धमें आचार्य गुणनन्दिने इनके व्याकरण सूत्रोंका आधार लेकर जैनेन्द्र प्रक्रियामें मंगलाचरण करते हुए लिखा है-
नमः श्रीपूज्यपादाय लक्षणं यदुपक्रमम्।
यदेवात्र तदन्यत्र यनावास्ति न तत्वचित्।।
जिन्होंने लक्षणशास्त्रकी रचना की है, मैं उन आचार्य पूज्यपादको प्रणाम करता हूँ। उनके इस लक्षणशास्त्रकी महत्ता इसीसे स्पष्ट है कि जो इसमें है, बह अन्यत्र भी है और जो इसमें नहीं है, वह अन्यत्र भी नहीं है।
उनके साहित्यकी यह स्तुति-परम्परा धनंजय, वादिराज आदि प्रमुख आचार्यों द्वारा भी अनुभूति हुई। पूज्यपादकी ज्ञानगरिमा और महत्ताका उल्लेख उक्त स्तुतियोंमें विस्तृत रूपसे आया है।
उनसे स्पष्ट है कि देवनन्दि-पूज्यपाद कवि और दार्शनिक विद्धानके रूपमें ख्यात हैं।
इनका जीवन-परिचय चन्द्रय कवीके पूज्यपादचारस और देवचन्द्रके 'राजावलिकये' नामक ग्रन्थोंमें उपलब्ध है। श्रवणबेलगोलाके शिलालेखोंमें इनके नामोंके सम्बन्धमें उल्लेख मिलते हैं। इन्हें बुद्धिकी प्रखरताके कारण 'जिनेन्द्रबुद्धि' और देवोंके द्वारा चरणोंकी पूजा किये जानेके कारण 'पूज्यपाद' कहा गया है।
यो देवनन्दि-प्रथमाभिधानो बुद्धया महत्या स जिनेन्द्रबुद्धिः।
श्रीपूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत्पूजितं पादयुग यदीयं।।
जैनेन्द्रे निज-शब्द-भोगमतुलं सर्वार्थसिद्धिः परा
सिद्धान्ते निपुणत्वमुद्धकवितां जैनाभीषेक: स्वकः।
छन्दस्सूक्ष्मषियं समाधिशतक-स्वास्थ्यं यदीयं विदा
माख्यातीह स पूज्यपाद-मुनिपः पूज्यो मुनीनां गणः।।
अर्थात् इनका मूलनाम देवनन्दि था। किन्तु ये बुद्धिकी महत्ताके कारण जिनेन्द्रबुद्धि और देवों द्वारा पूजित होनेसे पूज्यपाद कहलाये थे। पूज्यपादने जैनेन्द्र व्याकरण, सर्वार्थसिद्धि, जैन अभिषेक, समाधिशतक आदि ग्रन्थोंकी रचना की है।
शिलालेख न. १०५ से भी उक्त तथ्य पुष्ट होता है।
प्रागभ्यायिगुरुणा किल देवनन्दी बुद्धया पुनव्दिपुलया स जिनेन्द्रबुद्धिः।
श्रीपूज्यपाद इति चैष बुधैः प्रचरुये यात्पूजितः पदपुगे वनदेवताभिः।।
पूज्यपाद और जिनेन्द्रबुद्धी इन दोनों नामोंकी सार्थकता अभिलेख न. १०८ में भी बतायी है।
इनके पिताका नाम माषवभट्ट बौर माताका नाम श्रीदेवी बतलाया जाता है। ये कर्नाटकके 'कोले' नामक ग्रामके निवासी थे और ब्राह्मण कुलके भूषण थे। कहा जाता है कि बचपन में ही इन्होंने नाग द्वारा निगले गये मेढककी तड़पन देखकर विरक्त हो दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली थी। 'पूज्यपाद चरिते' में इनके जीवनका विस्तृत परिचय भी प्राप्त होता है तथा इनके चमत्कारको व्यक्त करनेवाले अन्य कथानक भी लिखे गये हैं, पर उनमें कितना तथ्य है. निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है।
पूज्यपाद किस संघके आचार्य थे, यह विचारणीय है। 'राजावलिकथे' से ये नन्दिसंघके आचार्य सिद्ध होते हैं। शुभचन्द्राचार्यने अपने पाडवपुराणमें अपनी गुर्वावलिका उल्लेख करते हुए बताथा है-
"श्रीमूलसंघेऽजनि नन्दिसंघस्तस्मिन् बलात्कारगणोऽतिरम्यः।
तत्रामवत्पूर्वपदांशवेदी श्रीमाघनन्दी नरदेववन्द्यः॥"
अर्थात्-नन्दिसंघ, बलात्कारगण मूलसंघके अन्तर्गत है। इसमें पूर्वोके एकदेश ज्ञाता और मनुष्य एवं देवोंसे पूजनीय माघनन्दि आचार्य हुए।
माघनन्दिके बाद जिनचन्द्र, पद्मनन्दि, उमास्वामी, लोहाचार्य, यश-कीर्ति, यशोनन्दि और देवनन्दिके नाम दिये गये हैं। ये सभी नाम क्रमसे नन्दिसंघकी पट्टावलिमें भी मिलते हैं। आगे इसी गुर्वावलिमें ग्यारहवें गुणनन्दिके बाद बारहवें बज्रनन्दिका नाम आया है, पर नन्दिसंघको पट्टावलिमें ग्यारहवें जयनन्दि और बारहवें गुणनन्दिके नाम आते हैं। इन नामोंके पश्चात् तेरहवा नाम वज्रनन्दि का आता है। इसके पश्चात् और पूर्वको आचार्यपरम्परा गुर्वावलि और पट्टावलिमें प्राय: तुल्य है। अतएव संक्षेपमें यह माना जा सकता है कि पूज्यपाद मूलसंघके अन्तर्गत नन्दिसंघ बलात्कारमणके पट्टाधीश थे। अन्य प्रमाणोंसे भी विदित होता है कि इनका गच्छ सरस्वती था और आचार्य कुन्दकुन्द एवं गुद्धपिच्छकी परम्परामें हुए हैं।
कहा जाता है कि पूज्यपादके पित्ता माधव भट्टने अपनी पत्नी श्रीदेवीके आग्रह से जैन धर्म स्वीकार कर लिया था। श्रीदेवीके भाईका नाम पाणिनि था। उससे भी उन्होंने जैन धर्म स्वीकार कर लेनेका अनुरोध किया, पर प्रतिष्ठाको दृष्टिसे वह जैन न होकर मुडीकुण्डग्राममें वैष्णव संन्यासी हो गया। पूज्यपाद को कमलिनी नामक छोटी बहन थी और इसका विवाह गुणभट्टके साथ हुआ, जिससे गुणभट्टको नागार्जुन नामक पुत्र लाभ हुआ।
एक दिन पूज्यपाद अपनी वाटिकामें विचरण कर रहे थे कि उनकी दृष्टि साँपके मुंहमें फंसे हुए मेंढकपर पड़ी। इससे उन्हें विरक्ति हो गयी। प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि अपना व्याकरण ग्रंथ रच रहे थे। वह न हो पाया था कि उन्हें अपना मरण काल निकट दिखलाई पड़ा, और पूज्यपादसे अनुरोध किया कि तुम इस अपूर्ण ग्रंथको पूर्ण कर दो। उन्होंने उसे पूर्ण करना स्वीकार कर लिया। पाणिनि दुर्भाग्यवश मरकर सर्प हुए। एक बार उन्होंने पूज्यपाद को देखकर फूत्कार किया, इसपर पूज्यपादने कहा- "विश्वास रखो, मैं तुम्हारे व्याकरणको पूरा कर दूंगा।" इसके पश्चात् उन्होंने पाणिनि-व्याकरणको पूर्ण कर दिया। पाणिनि-व्याकरणके पूर्ण करने के पहले पूज्यपादने जैनेन्द्र व्याकरण, अर्हदप्रतिष्ठालक्षण और वैदिक ज्योतिषके ग्रन्थ लिखे थे।
गुणभट्टकी मृत्युके पश्चात् नागार्जुन अतिशय दरिद्र हो गया। पूज्यपादने उसे पद्मावतीका एक मन्त्र दिया और सिद्धि करने की विधी बतलाई। इस मन्त्रके प्रभावसे पद्यावतीने नागार्जुनके निकट प्रकट होकर उसे 'सिद्विरस' की जड़ी-वनस्पति बतला दी। इस 'सिद्धिरस'के प्रभावसे नागार्जुन सोना बनाने लगा। उसके गर्वका परिहार करने के लिए पूज्यपादने एक मामूली वनस्पतिसे कई बड़े ‘सिद्धिरस' बना दिया। नागार्जुन जब पर्वत्तोंको सुवर्णमय बनाने लगा, तब धरणेन्द्र पद्मावतीने उसे रोका और जिनालय बनानेका आदेश दिया। तदनुसार उसने एक जिनालय बनवाया और उसमें पाश्वनाथकी प्रतिमा स्थापित की।
पूज्यपाद अपने पैरोंमें गगनगामी लेप लगाकर विदेह क्षेत्र जाया करते थे, उस समय उनके शिष्य वज्रनन्दिने अपने साथियोंसे झगड़ा कर द्रविड संघ की स्थापना की।
नागार्जुन अनेक मन्त्र-तन्त्र तथा रसादि सिद्ध करके बहुत प्रसिद्ध हो गया। एक बार उसके समक्ष दो सुन्दर रमणियाँ उपस्थित हुई, जो नृत्य-गान कलामें कुशल थीं। नागार्जुन उनपर मोहित हो गया। वे वहीं रहने लगी और कुछ समय बाद ही उसकी रसगुटिका लेकर चलती बनीं।
पूज्यपाद मुनि बहुत दिनों तक योगाभ्यास करते रहे। फिर एक देव विमानमें बैठकर उन्होंने अनेक तीर्थोकी यात्रा की। मार्गमें एक जगह उनकी दृष्टि नष्ट हो गयी थी। अतएव उन्होंने शान्त्यष्टक रच कर ज्यों-की-त्यों दृष्टि प्राप्त की। अपने शाममें आकर उन्होंने समाधिमरण किया।
इस कथामें कितनी सत्यता है, यह विचारणीय है।
गुरु | शिष्य |
आचार्य वज्रनन्दि | -- |
पुज्यपादके समयके सम्बन्धमें विशेष विवाद नहीं है। इनका उल्लेख छठी शतीके मध्यकालसे ही उपलब्ध होने लगता है। आचार्य अकलंकदेवने अपने 'तत्त्वार्थवात्तिक' में 'सर्वार्थसिद्धि' के अनेकों वाक्योंको बात्तिकका रूप दिया है। शब्दानुशासन सम्बन्धी कथनकी पुष्टिके लिए इनके जैनेन्द्र व्याकरण के सूत्रोंको प्रमाणरूपमें उपस्थित किया है। अतः पूज्यपाद अकलंकदेवके पूर्ववर्ती है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं।
'सर्वार्थसिद्धि' और 'विशेषावश्यक भाष्य' के तुलनात्मक अध्ययनसे पह विदित होता है कि 'विशेषावश्यक भाष्य' लिखते समय जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के समक्ष ‘सर्वार्थसिद्धि' ग्रन्थ अवश्य उपस्थित था। सर्वार्थसिद्धि अध्याय १, सूत्र १५ में धारणामतिज्ञानका लक्षण लिखते हुए बताया है-
"अवेतस्प कालान्तरेऽविस्मरणकारणं धारणा।"
विशेषावश्यकभाष्यमें इसी आधारपर लिखा है-
"कालतरे प जं पुणरणुसरणं धारणा सा उ" ।।गा. २९१।।
चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है, बतलाते हुए सर्वार्थसिद्धि में लिखा है-
'मनोवदप्राप्यकारोति।' १/१९
विशेषावश्यक ग्रंथमें उक्त शब्दावली सीमा नियोजन हुआ है-
लोयणमपविसयं मणोव्व।। गा० २०९।।
इससे ज्ञात होता है कि जिनभद्रगणिके समक्ष पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि विद्यमान थी। इस दृष्टिसे पूज्यपादका समय जिनभद्रगणि (वि. संवत् ६६६)के पूर्व होना चाहिए।
कुन्दकुन्द और पूज्यपादका तुलनात्मक अध्ययन करनेसे अवगत होता है कि पूज्यपादके समाधितन्त्र और इष्टोपदेश कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थोंके दोहनऋणी है। यहाँ दो-एक उदाहरण उपस्थित किये जाते हैं-
(१) जं मया दिस्सदे सर्व तण्ण जाणादि सव्वहा।
जाणगं दिस्सदे णं तं तम्हा जंपेमि केण हं॥
यन्मया दृश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा।
जानन्न दृश्यते रूपं तत: केन ब्रवीम्यहम्॥
(२) ओ सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकजम्मि।
जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे।।
व्यवहारे सुषुप्तो यः स जागर्त्यात्मिगोचरे।
जागति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुमश्चात्मगोचरे।
यहाँ समाधितन्त्रके दोनों पद्य मोक्षपाहुडके संस्कृतानुबाद हैं। पूज्यपादने अपने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थमें 'संसारिणो मुक्ताश्च' [त. सू. २/१०] सूत्रकी व्याख्यामें पंच परावर्तनोंका स्वरूप बतलाते हुए, प्रत्येक परावर्तनके अन्त में उनके समर्थन में जो 'उक्तं च' कहकर गाथाएँ लिखी हैं, वे उसी क्रमसे कुन्दकन्दके 'बारसअणुवेक्खा' ग्रंथमें पायी जातो हैं।
इसके अतिरिक्त पूज्यपादने कुन्दकुन्दके उत्तरवर्ती गृद्धपिच्छापार्य उमास्वामीके तत्त्वार्थसूत्रपर तत्त्वार्थवृत्ति- सर्वार्थसिद्धि लिखी है। अतएव इनका समय कुन्दकुन्द और गृद्धपिच्छाचार्य के पश्चात् होना चाहिए। कुन्दकुन्दका समय विक्रमकी द्वितीय शताब्दीका पूर्वाद्ध है और सूत्रकार गृद्धपिच्छाचार्यका समय विक्रमकी द्वितीय शताब्दीका अन्तिम पाद है। अतः पुज्यपादका समय विक्रम संवत् ३००के पश्चात ही सम्भव है।
पूज्यपादने अपने जैनेन्द्र व्याकरणके सूत्रोंमें भूतबलि, समन्तभद्र, श्रीदत्त, यशोभद्र और प्रभाचन्द्र नामक पूर्वाचार्योंका निर्देश किया है। इनमेंसे भूत्तबलि तो 'षट्खण्डागम’ के रचयिता प्रतीत होते हैं, जिनका समय ई. सन् प्रथम शताब्दी है। प्रखर तार्किक और अनेकान्तवादके प्रतिष्ठापक समन्तभद्र प्रसिद्ध ही हैं। श्रीदत्तके 'जल्पनिर्णय' नामक ग्रन्थका उल्लेख विद्यानन्दने अपने 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक’ में किया है। अतः स्पष्ट है कि पूज्यपाद इन आचार्यों के उत्तरवर्ती हैं।
पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तारने अपने 'स्वामी समन्तभद्र' नामक निबन्धमें तथा 'समाधितन्त्र' की प्रस्तावनामें बताया है कि पुज्यपाद स्वामी गडराज दुर्विनीतके शिक्षागुरु थे, जिसका राज्यकाल ई. सन् ४८५-५२२ तक माना जाता है, और इन्हें हेब्बुरु आदिके अनेक शिलालेखोंमें 'शब्दावतार' के कर्ताके रूपमें दुर्वीनीत राजाका गुरु उल्लिखित किया है।
वि. संवत् ९९० में देवसेनने दर्शनसार नामक ग्रन्थकी रचना की थी। यह अन्य पूर्वाचार्यकृत-गाथाओंको एकत्र कर लिखा गया है। इस ग्रन्थमें बताया है कि पूज्यपादका शिष्य पाहुडवेदी, वचनन्दि, द्राविडसंघका कर्ता हुआ और यह संघ वि. संवत् ५२६ में उत्पन्न हुआ।
सिरिपुज्जपादसीसो दाविडसंघस्स कारगो दुट्ठो।
णामेण वज्जणंदी पाहुडवेदी महासत्तो।।
पंचसए छब्बीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स।
दक्खिखणमहुराजादो दाविडसंघो महामोहो।
वज्रनन्दि देवनन्दिके शिष्य थे। अतएव द्रविड संघकी उत्पत्तिके उक्त कालसे दस-बीस वर्ष पहले ही उनका समय माना जा सकता है। पंडित नाथूरामजी प्रेमीने पूज्यपाद-देवनन्दिका समय विक्रमकी छठी शताब्दीका पूर्वाद्ध माना है। युधिष्ठिर मीमांसकने भी देवनन्दिके समयकी समीक्षा करते हुए इनका काल विक्रमकी छठी शताब्दीका पूर्वार्द्ध माना है।
नन्दिसेनकी पट्टावलीमें देवनन्दिका समय विक्रम संवत् २५८-३०८ तक अंकित किया गया है और इनके अनन्तर जयनन्दि, और गुणनन्दिका नाम निर्देश करनेके उपरान्त वज्रनन्दिका नामोल्लेख आया है। पाण्डवपुराणमें आचार्य शुभचन्द्रने नन्दि-संघकी पट्टावलीके अनुसार ही गुर्वावली दी है। देवनन्दि पूज्यपादके गुरुका नाम एक पद्यमें यशोनन्दि बताया गया है। यथा-
यशकीतिर्यशोनन्दी देवनन्दी महामतिः।
पूज्यपादापराख्यो यो गुणनन्दी गुणाकरः॥
अजमेरकी पट्टावलीमें देवनन्दि और पूज्यपाद ये दो नाम पृथक्-पृथक उल्लिखित हैं। इस पट्टावलीके अनुसार देवनन्दिका समय विक्रम संवत् २५८ और पूज्यपादका वि. सं. ३०८ है। यहाँ पट्टसंख्या भी क्रमशः १० और ११ है। यह भी कहा गया है क देवनन्दि पोरवाल थे और पूज्यपाद पद्मावती पोरवाल। पर संस्कृत पट्टावलीके अनुसार दोनों एक हैं, भिन्न नहीं हैं। डॉ. ज्योतिप्रसादने विभिन्न मतोंका समन्वय किया है।
इस विवेचनसे आचार्य देवनन्दि-पूज्यपादका समय ई. सनकी छठी शताब्दी सिद्ध होता है, जो सर्वमान्य है।
पूज्यपाद आचार्य द्वारा लिखित अबतक निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध है-
१. दशभक्ति
२. जन्माभिषेक
३. तत्वार्थवृत्ति (सर्वार्थसिद्धी)
४. समाधितन्त्र
५. इष्टोपदेश
६. जैनेन्द्रव्याकरण
७. सिद्धिप्रिय-स्तोत्र
१. दशभक्ति-जैनागममें भक्ति के द्वादश भेद है- (१) सिद्ध-भक्ति, (२) श्रुत-भक्ति, (३) चारित्र-भक्ति, (४) योगि-भक्ति, (५) आचार्य-भक्ति, (६) पञ्च गुरुभक्ति, (७) तीर्थङ्कर-भक्ति, (८) शान्ति-भक्ति, (९) समाधि-भक्ति, (१०) निर्वाण-भक्ति, (११) नन्दीश्वर-भक्ति और (१२)चैत्य-भक्ति। पूज्यपाद स्वामीकी संस्कृतमें सिद्ध-भक्ति, श्रुत-भक्ति, चारित्र-भक्ति, योगि-भक्ति, निर्वाण-भक्ति और नन्दीश्वर भक्ति ये सात ही भक्तियां उपलब्ध हैं। काव्यकी दृष्टि से ये भक्तियाँ बड़ी ही सरस और गम्भीर हैं। सर्वप्रथम नौ पद्यों में सिद्ध-भक्तिकी रचना की गयी है। आरम्भमें बताया है कि आठौं कर्मों के नाशसे शुद्ध आत्माको प्राप्तिका होना सिद्धि है। इस सिद्धिको प्राप्त करनेवाले सिद्ध कहलाते है। सिद्ध-भक्तिके प्रभावसे साधकको सिद्ध-पदकी प्राप्ति हो जाती है। अन्य भक्तियों में नामानुसार विषयका विवेचन किया गया है।
२. जन्माभिषेक- श्रवणबेलगोलाके अभिलेखों में पुज्यपादको कृतियों में जन्माभिषेकका भी निर्देश आया है।
वर्तमानमें एक जन्माभिषेक मुद्रित उपलब्ध है। इसे पूज्यपाद द्वारा रचित होना चाहिए। रचना प्रौढ़ और प्रवाहमय है।
३. तत्त्वार्थवृत्ति- पूज्यपादकी यह महनीय कृति है। 'तत्त्वार्थसूत्र' पर गद्यमें लिखी गयी यह मध्यम परिमाणकी विशद वृत्ति है। इसमें सूत्रानुसारी सिद्धान्तके प्रतिपादनके साथ दार्शनिक विवेचन भी है। इस तत्वार्थवृत्तिको सर्वार्थसिद्धि भी कहा गया है। वृत्तिके अन्तमें लिखा है-
स्वर्गापवर्गसुखमाप्तुमनोभिरायें-
जैनेन्द्रशासनवरामृतसारभूता।
सर्वार्थसिद्धिरिति सद्धिरूपात्तनामा
तत्त्वार्थवृत्तिरनितांत प्रधार्या।।
जो आर्य स्वर्ग और मोक्ष सुखके इच्छुक हैं, वे जिनेन्द्रशासनरूपी श्रेष्ठ अमृतसे भरी सारभूत और सत्पुरुषों द्वारा दत्त 'सर्वार्थसिद्धि' इस नामसे प्रख्यात इस तत्त्वार्थवृत्तिको निरन्तर मनोयोगपूर्वक अवधारण करें।
इस वृत्तिमें तत्त्वार्थसूत्रके प्रत्येक सूत्र और उसके प्रत्येक पदका निर्वचन, विवेचन एवं शंका-समाधानपूर्वक व्याख्यान किया गया है। टीकाग्रन्थ होनेपर भी इसमें मौलिकता अक्षुण्ण है।
इस ग्रंथके नामकरणका कारण स्वयं ही ग्रन्थकारने अन्तिम रचित पद्योंमेंसे द्वितीय पद्यमें अंकित किया है-
तस्वार्थवृत्तिमुदितां विदितार्थतत्त्वाः
शृण्वन्ति ये परिपठन्ति च धर्मभक्त्या।
हस्ते कृतं परमसिद्धिसुखामृतं तै
मर्त्यामरेश्वरसुलेषु किमस्ति वाच्यम्।।
अर्थात्- अर्थके सारको ज्ञात करने के लिए जो व्यक्ति धर्म-भक्तिसे तत्वार्थवृत्तिको पढ़ते और सुनते हैं वे परमसिद्धिके सुखरूपी अमृतको हस्तगत कर लेते हैं, तब चक्रवर्ती और इन्द्रपदके सुलके विषय में तो कहना ही क्या?
सोलह स्वर्गोंके ऊपर पञ्च अनुत्तर विमानोंमें सर्वार्थसिद्धि नामका एक विमान है। सर्वार्थसिद्धिवाले जीव एकभवावतारी होते हैं। यह 'तत्वार्थवृत्ति' भी उसीके समकक्ष है। अतः इसे 'सर्वार्थसिद्धि' नामसे अभिहित किया गया है।
'तत्त्वार्थसूत्र'की वृत्ति होने पर भी इस ग्रन्थमें कतिपय मौलिक विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। मङ्गलाचरणके पश्चात् प्रथम सूत्रकी व्याख्या आरम्भ करते हुए उत्थानिकामें लिखा है- किसी निकटभव्यने एक आश्रममें मुनि-परिषद्के मध्यमें स्थित निर्ग्रन्थाचार्य से विनयसहित पूछा-भगवन् ! आत्माका हित क्या है? आचार्यने उत्तर दिया- मोक्ष। भव्यने पुन: प्रश्न किया- मोक्षका स्वरूप क्या है और उसकी प्राप्तिका उपाय क्या है? इसी प्रश्न के उत्तरस्वरूप "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:"- सूत्र रचा गया है।
प्रथम अध्यायके षष्ठ सूत्र "प्रमाणनयैरधिगमः" (१/६) की व्याख्या करते हुए पूज्यपाद स्वामीने प्रमाणके स्वार्थ और परार्थ भेद करके मति, अवधि, मन:पर्यय और केवल इन चार ज्ञानोंको स्वार्थप्रमाण बतलाते हुए श्रुतज्ञानको स्वार्थ और परार्थ दोनों बतलाया है तथा उसीका भेद नम है- यह भी बताया है। इसी सुत्रकी व्याख्यामें "उक्तञ्च' लिखकर "सकलादेशः प्रमाणाधीनः विकलादेशो नयाधीनः"- वाक्य उद्धृत किया है। इस प्रकार प्रमाणके स्वार्थ और परार्थ भेद तथा सकलादेश और विकलादेशकी चर्चा इन्हींके द्वारा प्रस्तुत की गयी है। इसी अध्यायमें "सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहत्वैश्च" (१/८)-की वृत्ति परखण्डागमके जीवटा्ठणसूत्रोंके आधारपर लिखी गयी है। इसमें सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगोंके द्वारा चौदह मार्गणाओंमें गुणस्थानोंका विवेचन बहुत सुन्दर रूपमें किया है।
प्रमाणकी चर्चामें नैयायिक और वैशेषिकोंके सन्निकर्ष-प्रामाण्यवादका एवं सांख्योंके इन्द्रिय-प्रामाण्यका निरसन कर ज्ञानके प्रामाण्यको व्यवस्था की है। ज्ञानको स्वपरप्रकाशक सिद्ध कर चक्षुःके प्राप्यकारित्वका आगम और युक्तियोंसे खण्डन कर उसे अप्राप्यकारी सिद्ध किया गया है। "सदसतोरविशेषा द्यदच्छोपलन्धेस्न्मत्तवत्" (१।३२) की वृत्तिमें कारणविपर्यास, भेदाभेदविपर्यास और स्वरूपविपर्यासकी चर्चा करते हुए योग, सांख्य, बौद्ध और चार्वाक आदिके मतोंका निर्देश किया है। अन्तिम सूत्रमें किया गया नयोंका विवेचन भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।
द्वितीय अध्यायको व्याख्यामें भी अनेक विशेषताएँ और मौलिकताएं उपलब्ध है। तृतीय सुत्रकी व्याख्यामें चारित्रमोहनीयके 'कषायवेदनीय' और ‘नोकषायवेदनीय' ये दो भेद बतलाए हैं तथा दर्शनमोहनीयके सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये तीन भेद बतलाए हैं। इन सात प्रकृतियोंके उपशमसे औपशमिक सम्यक्त्व होता है। यह सम्यक्त्व अनादिमिथ्यादृष्टि भव्यके कर्मोदयसे प्राप्त कलषताके रहते हुए किस प्रकार सम्भव है? इस प्रश्नके उत्तरमें आचार्यने बतलाया है- 'काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात'- काललब्धि आदिके निमित्तसे इनका उपशम होता है। अन्य आगमग्रन्थोंमें क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि, काललब्धि और प्रायोग्यलब्धि ये पांच लब्धियाँ बत्तलायी हैं। आचार्य पूज्यपादने काललब्धिके साथ लगे आदि शब्दसे जातिस्मरण आदिका निर्देश किया है और काललब्धिके कर्मस्थितिका काललब्धि और भवापेक्षया काललब्धियोंका निर्देश किया है। यह विषय मौलिक और सैद्धान्तिक है।
तृतीय-चतुर्थ अध्यायमें लोकका वर्णन किया गया है ! ग्रहकेन्द्रवृत्त, ग्रहकक्षाएँ, ग्रहोंकी गति, चार-क्षेत्र आदि चर्चाएँ तिलोयपण्णत्तिके तुल्य हैं। लोकाकारका वर्णन आचार्यने मौलिक रूपमें किया है।
मौलिक तथ्यों के समावेशकी दष्टिसे पंचम अध्याय विशेष महत्त्वपूर्ण है। द्रव्य, गुण और मयोंका म और शिवमन किया गया है । 'द्रव्यत्व योगात् द्रव्यम्' और 'गुण-समुदायो द्रव्यम्'की समीक्षा सुन्दर रूपमें की गयो है। "उत्पादव्ययघ्रोव्ययुक्तं सत्"(५।३०)- सूत्रको व्याख्या सोदाहरण उत्पाद, व्यय और घ्रोव्यकी व्याख्या की गयी है तथा "अपितानपितसिद्धेः" (५।३२) सूत्रकी वृत्तिमें अनेकान्तात्मक वस्तुकी सिद्धि की गयी है।
षष्ठ और सप्तम अध्यायमें दर्शनमोहनीयकर्मके आस्रवके कारणोंका विवेचन करते हुए केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देवोंके अवर्णवादप्रसंगमें श्वेताम्बर मान्यताओं की समीक्षा की है। सप्तम अध्यायके प्रथम सूत्रमें रात्रि-भोजनत्याग नामक षष्ठ अणुव्रतको समीक्षा की गयी है। सप्तम अध्यायके त्रयोदश सूत्रके व्याख्यानमें आचार्यने हिंसा और अहिंसाके स्वरूपका विवेचन करते हुए उनके समर्थनमें अनेक गाथाएँ उद्धृत की है। गुद्धपिच्छाचार्यने प्रमादयोगसे प्राणोंके घातको हिंसा कहा है। पूज्यपादने प्रमत्तयोग और प्राणका व्यपरोपण इन दोनों पदोंका विवेचन करते हुए केवल प्राणों के घातमात्रको हिंसा नहीं कहा है। जहाँ प्रमत्तयोग है वहाँ प्राणोंका घात न होनेपर भी हिसा होती है, क्यों कि घातकका भाव हिंसारूप है।
अष्टम अध्यायमें कर्मबन्धका और कर्मों के भेद-प्रभेदोंका वर्णन आया है। प्रथम सूत्रमें बन्धके पाँच कारण बतलाये हैं। उनकी व्याख्यामें पूज्यपादने मिथ्यात्वके पांच भेदोंका कथन करते हुए पुरुषाद्वैत एवं श्वेताम्बरीय निग्रन्थ सग्रन्थ, केवली-कवलाहार तथा स्त्री-मोक्ष सम्बन्धो मान्यताको भी विपरीत मिथ्यात्व कहा है। इस अध्यायके अन्य सूत्रोंका व्याख्यान भी महत्त्वपूर्ण है। पदोंको सार्थकताओंके विवेचनके साथ पारिभाषिक शब्दोंके निर्वचन विशेष उल्लेख्य हैं।
नवम अध्यायमें संवर, निर्जरा और उनके साधन गुप्ति आदिका विशद विवेचन है। दशममें मोक्ष और मुक्त जीवोंके ऊध्वंगमनका प्रतिपादन है।
इस समग्र ग्रन्थकी शैली वर्णनात्मक होते हुए भी सूत्रगत पदोंको सार्थकताके निरूपणके कारण भाष्यके तुल्य है। निश्चयतः पूज्यपादको तत्वार्थसूत्रके सूत्रोंका विषयगत अनुगमन गहरा और तलस्पर्शी था।
४. समाधितन्त्र- इस ग्रन्थका दूसरा नाम समाधिशतक है। इसमें १०५ पद्य हैं। अध्यात्मविषयका बहुत ही सुन्दर विवेचन किया है। आचार्य पूज्यपादने अपने इस ग्रंथको विषयवस्तु कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों से ही ग्रहण की है। अनेक पद्य तो रूपान्तर जैसे प्रतीत होते हैं। यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत करते है-
यदग्राह्यं न गृहाति गृहीतं नापि मुञ्चति।
जानाति सर्वथा सर्वं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम्।।
इस पद्यकी समता निम्न गाथामें है-
णियभावं ण वि मुंचइ परभाव णेव गिण्हए केई।
जाणदि पास्सदी सव्व सोहं इदि चितए णाणी॥
बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्माके स्वरूपका विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। बहिरात्मभाव- मिथ्यात्वका त्याग कर अन्तरात्मा बन कर परमात्मपदको प्राप्तिके लिए प्रयास करना साधकका परम कर्तव्य है। आत्मा, शरीर, इन्द्रिय और कर्मसंयोगका इस ग्रन्थमें संक्षेपमें हृदयग्राही विवचन किया गया है।
५. इष्टोपदेश- इस आध्यात्मकायम इष्ट-आत्माके स्वरूपका परिचय प्रस्तुत किया गया है। ५१ पद्योंमें पूज्यपादने अध्यात्मसागरको गागरमें भर देनेकी कहावतको चरितार्थ किया है। इसकी रचनाका एकमात्र हेतु यही है कि संसारी आत्मा अपने स्वरूपको पहचानकर शरीर, इन्द्रिय एवं सांसारिक अन्य पदार्थोंसे अपने को भिन्न अनुभव करने लगे। असावधान बना प्राणी विषय-भोगोंमें ही अपने समस्त जीवनको व्यतीत न कर दे, इस दृष्टि से आचार्यने स्वयं ग्रंथके अन्तमें लिखा है-
इष्टोपदेशमिति सम्यगधीत्य धीमान्।
मानापमानसमता स्वमताद्वितन्य।।
मुक्ताग्रहो विनिवसन्सजने बने वर।
मुक्तिश्रीयं निरूपमामुपयात्ति भव्यः।।
इस ग्रन्थके अध्ययनसे आत्माको शक्ति विकसित हो जाती है और स्वात्मानुभूतिके आधिक्यके कारण मान-अपमान, लाभ-अलाभ, हर्ष-विषाद आदिमें समताभाव प्राप्त होता है। संसारकी यथार्थ स्थितिका परिज्ञान प्राप्त होनेसे राग, द्वेष, मोहकी परिणति घटती है। इस लघुकाय ग्रन्थमें समयसारकी गाथाओंका सार अंकित किया गया है। शैली सरल और प्रवाहमय है।
६. जैनेन्द्र व्याकरण- श्रवणबेलगोलाके अभिलेखों एवं महाकवि धनंजयके नाममालाके निर्देशसे जैनेन्द्र व्याकरणके रचयिता पूज्यपाद सिद्ध होते हैं। गुणरत्नमहोदधिके कर्ता वर्षमान और हेमशब्दानुशासनके लघुन्यासरचयिता कनकप्रभ भी जैनेन्द्र व्याकरणके रचयिताका नाम देवनन्दि बताते हैं।
अभिलेखोंसे जैनेन्द्रन्यासक रचयिता भी पूज्यपाद अवगत होते है। पर यह ग्रन्थ अभी तक अनुपलब्ध है।
जैनेन्द्र व्याकरणके दो सुत्रपाठ उपलब्ध है- एकमें तीन सहस्र सूत्र हैं, और दूसरेमें लगभग तीन हजार सात सौ। पंडित नाथूरामजी प्रेमीने यह निष्कर्ष निकाला है कि देवनन्दि या पूज्यपादका बनाया हुआ सूत्रपाठ वहीं है, जिसपर अभयनन्दिने अपनी वृत्ति लिखी है।
जैनेन्द्र व्याकरणमें पाँच अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में चार-चार पाद हैं। इसका पहला सूत्र महत्त्वपूर्ण है। इसमें 'सिद्धिरनेकान्तात्' सूत्रसे समस्त शब्दोंका साधुत्व अनेकान्तद्वारा स्वीकार किया है, क्योंकि शब्दमें नित्यत्व, अनित्यत्व, उभयत्व, अनुभयत्व आदि विभिन्न धर्म रहते हैं। इन नाना धर्मोंसे विशिष्ट धर्मीरूप शब्दकी सिद्धि अनेकान्तसे ही सम्भव है। एकान्तसिद्धान्तसे अनेकधर्मविशिष्ट शब्दोंका साधुत्व नहीं बतलाया जा सकता। यहाँ अनेकान्तके अन्तर्गत लोकप्रवृत्तिको भी मान्यता दी है। लोकप्रसिद्धिपर आश्रित शब्दव्यवहार भी मान्य है।
जैनेन्द्रका संज्ञाप्रकरण सांकेतिक है। इसमें धातु, प्रत्यय, प्रातिपदिक, विभक्ति, समास आदि महासंज्ञाओंके लिए बीजगणित जैसी अतिसंक्षिप्त संकेतपूर्ण संज्ञाएँ आयी हैं। इस व्याकरणमें उपसर्ग के लिए 'गि', अव्ययके लिए 'झी:' समासके लिए 'सः', वृद्धिके लिए 'ऐप', गुणके लिए 'एप', सम्प्रसारणके लिए 'जिः', प्रथमा विभक्ति के लिए 'या', द्वितीयाके लिए 'इ'', तृतीया विभक्तिके लिए 'भ', चतुर्थीके लिए 'अप', पञ्चमीके लिए 'का', षष्ठीके लिए 'ता', सप्तमी के लिए 'इप' और सम्बोधनके लिए 'कि:' की संज्ञाएँ बतलायी गयो हैं। निपातके लिये 'नि:', दीर्घके लिये 'दीः', प्रगह के लिए 'दि:', उत्तरपदके लिये 'धुः', सर्वनाम स्थानके लिए 'धम्', उपसर्जनके लिए 'न्यक', प्लुत्के लिए 'पः', ह्रस्यके लिये 'प्र:', प्रत्ययके लिये 'त्यः', प्रातिपदिकके लिए 'मृत्', परस्मैपदके लिए 'मम्', आत्मनेपदके लिए 'द:', अकर्मकके लिए "धि:', संयोगके लिए 'स्फ', सवर्णके लिए 'स्वम्', तद्धितके लिए 'हत', लोपके लिए 'खम्', लुप्के लिए 'उस्', लुक्के लिए 'उप' एवं अभ्यासके लिए 'च' संज्ञाका विधान किया गया है। समासप्रकरणमें अव्यपीभावके लिए 'ह:', तत्पुरुषके लिए 'षम्' कर्मधारयके लिये 'य:', द्विगके लिए'र:', और बहुव्रीहिके लिए 'वम्' संज्ञा बतलायो गयी है। जैनेन्द्रका यह संज्ञाप्रकरण अत्यन्त सांकेतिक है। पूर्णतया अभ्यस्त हो जाने के पश्चात् ही शब्दसाधुत्वमें प्रवृत्ति होती है। यह सत्य है कि इन सज्ञाओंमें लाघवनियमका पूर्णतया पालन किया गया है।
जैनेन्द्र व्याकरणमें सन्धिके सूत्र चतुर्थ और पञ्चम अध्यायमें आये हैं। 'सन्धी' ४।३।६० सूत्रको सन्धिका अधिकारसूत्र मानकर सन्धिकार्य किया गया है, पश्चात् छकारके परे सन्धिमें तुगागमका विधान किया है। तुगागम करनेवाले ४/३/६० से ४/३/६४ तक चार सूत्र हैं। इन सूत्रों द्वारा हस्व, आंग, मांग तथा दो संज्ञकोंसे परे तुगागम किया है और 'त' का 'च' बनाकर गच्छति, इच्छति, आच्छिन्नति, माच्छिदत, मलेच्छति, कुवलीच्छाया आदि प्रयोगोंका साधुत्व प्रदर्शित किया है। देवनन्दिका यह विवेचन पाणिनिके तुल्य है। अनन्तर' 'यण' सन्धिके प्रकरणमें 'अचीकोयण' ४/३/६५ सूत्रद्वारा इक्- इ,उ,ऋ, लको क्रमश: यणादेश- य,व,र,लका नियमन किया है। देवनन्दिका यह प्रकरण पाणिनिके समान होने पर भी प्रक्रियाको दृष्टिसे सरल है। इसी प्रकार 'अयादि' सन्धिका ४/३/६६, ४/३/६७ द्वारा विधान किया है। वृत्तिकारने इन दोनों सूत्रों की व्याख्या में कई ऐसो नयी बातें उपस्थित की हैं, जिनका समावेश कात्यायन और पतञ्जलिके वचनोंमें किया जा सकता है। जैनेन्द्रकी सन्धिसम्बन्धी तीन विशेषताएं प्रमुख हैं-
१. उदाहरणोंका बाहुल्य- चतुर्थ, पंचम शताब्दीमें प्रयुक्त होनेवाली भाषाका समावेश करने के लिये नये-नये प्रयोगोंको उदाहरणके रूपमें प्रस्तुत किया गया है। यथा-
पव्यम्, अवश्यपाव्यम्, नौयानम्, गोयानम् आदि।
२. लाघव या संक्षिप्तिकरणके लिये सांकेतिक संज्ञाओका प्रयोग।
३. अधिकारसूत्रों द्वारा अनुबन्धों की व्यवस्था।
सुवन्त प्रकरणमें अधिक विशेषताओंके न रहनेपर भी प्रक्रिया सम्बन्धी सरलता अवश्य विद्यमान है। जिन शब्दोंके साधुत्वके लिये पाणिनिने एकाधिक सूत्रौंका व्यवहार किया है, उन शब्दोंके लिये जैनेन्द्र व्याकरणमें एक ही सूत्रसे साधनिका प्रस्तुत कर दी गयी है।
जैनेन्द्र व्याकरणमें स्त्रीप्रत्यय, समास एवं कारक सम्बन्धी भी कतिपय विशेषताएँ पायो जाती हैं। 'कारक' १/२/१०९ की अधिकारसूत्र मानकर कारक प्रकरणका अनुशासन किया है। देवनन्दिने पंचमी विभक्तिका अनुशासन सबसे पहले लिखा है, पश्चात् चतुर्थी, तृतीया, सप्तमी, द्वितीया और षष्ठी विभक्तिका नियमन किया है। यह कारकप्रकरणा बहुत संक्षिप्त है, पर जितनी विशेषताएँ अपेक्षित है उन सभीका यहाँ नियमन किया गया है। इसी प्रकार तिङन्त, तद्धित और कृदन्त प्रकरणोमें भी अनेक विशेषताएं दृष्टिगोचर होती है।
इस व्याकरणकी शब्दसाधुत्वसम्बन्धी विशेषताओंके साथ सांस्कृतिक विशेषताएँ भी उल्लेख्य हैं। यहाँ सांस्कृतिक शब्दोंकी तालिका उपस्थित कर उक्त कथनकी पुष्टि की जा रही है।
पति पनसम् १/१/३
पक्व, पक्ववान् १/१/४
अतितिलपीडनिः १/१/८- तिलकुट या तेल पेरनेवाली
अतिराजकुमारि: १/१/८
कुवलम्, वदरम्- झरवेर १/१/९
आमलव्यम् १/१/९
पञ्चशष्कुल: १/१/९
पञ्चगोणिः १/१/१०
पञ्चसूचिः, सप्तशूचिः १/१/१०
दधि, मधु १/१/११
अश्राद्धभोजी, अलवणभोजी १/१/३२
द्रोषणके जातो द्रौघ्रणकीयः १/१/६८
छतप्रधानोरौदि १/१/७१
सम्पन्नाब्रीह्य:- एकोब्रीहिः सम्पन्नः सुभिक्षं करोति १/१/९९
द्वावपूपी भक्षयेति १/२/१०
स्त्रावयाति तैलं १/१/८३
यवागू: शरार- जौका हलुआ या लाप्तसी
रूपकार: पचति १/२/१०३
कांस्यपात्र्या भुडक्ते १/२/११०
वृक्षमवचिनोति फलानि १/२/१२१
भोज्यते माणवकमोदनं १/२/१२१
नटस्य शृणोति श्लोकम् १/२/१२१
उपयोगो दुग्धादि तन्निमित्तं गवादि।
गोदोहं स्वपिति १/२/१२१
अजां नयति ग्रामं, भारं बहति ग्रामम्, शाखां कर्षति ग्रामम् १/२/१२१
अध्याप्येते माणचको जैनेन्द्रम् १/२/१२१।
भक्षयति पिण्डी देवदत्तः १/२/१२२
आसयति गोदोहं देवदत्तम् १/२/१२२
पूतयवम्, पूतयानयवम्, संहृतयवम्, संहियमाणयबम् १/१३/१४
दध्मापटुः, घृतेनपटुः १/३/२७
गुडपृथुका, गडधाना, तिलपृथुका, दघ्ना उपसिक्त ओदनोदधनोदन:
घृतोदनः। १/३/३१- गुड़-चूड़ा, गुडधान, तिलचूड़ा, दधिभात,घी-भात।
वनेकसेसकाः, वनेवल्वजकाः, कृपेपिशाचिकाः १/३/३८
तत्रमुक्तम्, तत्रपीतम् १/३/४०
पुराणान्नम् १/३/४४
केवलज्ञानम्, मोषकगवी १/३/४४
पञ्चगवधनः, पञ्चपूली, पञ्चकुमारि १/३/४६
क्षत्रियभीरुः, श्रोत्रियक्त्तिवः, भिक्षुविटः, मीमांसकदुर्दुरूपः १/३/४८
शस्त्रीथ्यामा, दुर्वाकाण्डथ्यामा, सरकाथ्यामा १/३/५०
भोज्योषणम्, भोज्यलवणम्, पानीयशोतम् १/३/६४
कपित्थरसः १/३/७५
इक्षमक्षिका में धारयसि १/३/७८
सक्तूनां पायकः १/३/७९
तैलपीतः, घृत्तपीतः, मद्यपोतः १/३/१०३
कुशलो विद्याग्रहणे १/४/४८
माथुरा: पालिपुत्रकेभ्य आदयतरा: १/४/५०
पुष्ये पायसमश्नीयात्, मघाभिः पललौदनम् १/४/५३
यवाना लावकः, ओदस्य भोजक: १/४/६८
दास्या: कामुकः, सूकरः, कटो भवता, धान्यं पवमान: १/४/७२
पुष्येण योग जानाति, पुष्येण भोजयति, चन्द्रमसा मघाभिर्योगं जानाति २/१/२४
मासं कल्याणी काञ्ची १/४/४
शरदं मथुरा रमणीया १/४/४
अरुणन्महेन्द्रो मथुरां। अरुणद् यवनः साकेतम् २/२/९२
पौतिमाष्या, गौकक्ष्या ३/१/४
शुचिरियं कन्या ३/१/३०
बुद्धपत्नी, स्थूलपत्नी, ग्रामपत्नी ३/१/३५
पलाण्डुभक्षितो, सुरापीतो ३/१/४६
वाहीकग्रामः, दाक्षिपलदीयः, माहकिपलदीयः, माहाकनगरीयः ३/२/११८
मासिकः, सांवत्सरिक: ३/२/१३१
गोशालम, खरशालम् ३/३/११
मासे देया भिक्षा ३/३/२२
पाटलिपुत्रस्य व्याख्यानं सुकौशला ३/३/४२
पाटलिपुत्रस्य द्वारम् ३/३/६०
वाणिजा: वाराणसी जित्वरोति मङ्गलार्थमुपचरन्ति ३/३/५८
गान्धारः, पाञ्चाल: ३/३/६७
गर्गभार्गवका ३/३/९३
हास्तिपदं शकटम् ३/३/१००
आक्षिकः, शालाकिक: ३/३/१२७
दाधिकम्, शाङ्गंवेरिकम्, माराचिकम् ३/३/१२८
चूणिनोऽपूपाः, लवणा यवागूः, कषायमुदकम् ३/३/१४७
इस स्तोत्रमें २६ पद्य हैं और चतुर्विशति तीर्थंकरोंको स्तुति की गयी है। रचना प्रौढ़ और प्रवाहयुक्त है। कवि वर्धमानस्वामीकी स्तुति करता हुआ कहता है-
श्रीवर्धमानवचसा परमाकरेण
रत्नत्रयोत्तमनिघे: परमाकरेण।
कुर्वन्ति यानि मुनयोऽजनता हि तानि
वृत्तानि सन्तु सततं जनताहितानि॥
यहाँ यमकका प्रयोग कर कविने वर्द्धमानस्वामीका महत्त्व प्रदर्शित किया है। 'जनताहितानि' पद विशेषरूपसे विचारणीय है। वस्तुतः तीर्थकर जननायक होते हैं और वे जनताका कल्याण करनेके लिये सर्वथा प्रयत्नशील रहते हैं।
इन प्रमुख ग्रन्थों के अतिरिक्त पूज्यपादके वैद्यक सम्बन्धी प्रयोग भी उपलब्ध हैं। जैनसिद्धान्तभवन आरासे 'वैद्यसारसंग्रह' नामक ग्रंथमें कतिपय प्रयोग प्रकाशित हैं। छन्दशास्त्र सम्बन्धी भी इनका कोई ग्रन्थ रहा है, जो उपलब्ध नहीं है।
जीवन और जगत्के रहस्योंकी व्याख्या करते हुए, मानवीय व्यापारके प्रेरक, प्रयोजनों और उसके उत्तरदायित्वकी सांगोपांग विवेचना पूज्यपादके ग्रन्थोंका मूल विषय है। व्यक्तिगत जीवनमें कवि आत्मसंयम और आत्मशुद्धि पर बल देता है। ध्यान, पूजा, प्रार्थना एवं भक्तिको उदात्त जीवनकी भूमिकाके लिये आवश्यक समझता है। आचार्य पूज्यपादको कवितामें काव्यतत्वकी अपेक्षा दर्शन और अध्यात्मतत्त्व अधिक मुखर है। शृङ्गारिक भावनाके अभावमें भी भक्तिरसका शीतल जल मन और हृदय दोनोंको अपूर्व शान्ति प्रदान करने की क्षमता रखता है। शब्द विषयानुसार कोमल हैं, कभी-कभी एक ही पद्यमें ध्वनिका परिवर्तन भी पाया जाता है। वस्तुतः अनुरागको ही पूज्यपादने भक्सि कहा है और यह अनुराग मोहका रूपान्तर है। पर वीतरागके प्रति किया गया अनुराग मोहको कोटिमें नहीं आता है। मोह स्वार्थपूर्ण होता है और भक्तका अनुराग निःस्वार्थ। वीतरागीसे अनुराग करनेका अर्थ है, तदरुप होनेकी प्रबल आकांक्षाका उदित होना। अतएव पूज्यपादने सिद्धभक्ति में सिद्धरूप होनेकी प्रक्रिया प्रदर्शित की है।
उनके वैदुष्यका अनुमान सर्वार्थसिद्धिग्रन्थसे किया जा सकता है। नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त, बौद्ध आदि विभिन्न दर्शनोंको समीक्षा कर इन्होंने अपनी विद्वत्ता प्रकट की है। निर्वचन और पदोंकी सार्थकताके विवेचनमें आचार्य पूज्यपादकी समकक्षता कोई नहीं कर सकता है।
आचार्य पूज्यपादने कविके रूपमें अध्यात्म, आचार और नीतिका प्रतिपादन किया है। अनुष्टुप् जैसे छोटे छन्दमें गम्भीर भावोंको समाहित करनेका प्रयत्न प्रशंसनीय है। आचार्य ने सुख-दुःखका आधार वासनाको ही कहा है, जिसने आत्मतत्त्वका अनुभव कर लिया है, उसे सुख-दुःखका संस्पर्श नहीं होता।
वासनामयमेवैतत् सुखं दुःखं च देहिनाम्।
तथा हृद्वेजयन्त्येते, भोगा रोगा इवापदि।
देहधारियोंको जो सुख और दुःख होता है, वह केवल कल्पनाजन्य ही है। जिन्हें लोकसुखका साधन समझा जाता है, ऐसे कमनीय कामिनी आदि भोग भी आपत्तिके समयमें रोगोंकी तरह प्राणियोंको आकुलता पैदा करनेवाले होते हैं।
संसारकी विभिन्न परिस्थितियोंका चित्रांकन करते हुए आचार्य पूज्यपादने उदाहरण द्वारा संयोग-वियोगको वास्तविक स्थितिपर प्रकाश डाला है। यथा-
दिग्देशेभ्यः खगा एत्य, संवसन्ति नगे नगे।
स्वस्वकार्यवशाद्यान्ति, देशे दिक्षु प्रगे नगे।।
जिस प्रकार विभिन्न दिशा और देशोंसे एकत्र हो पक्षीगण वृक्षोंपर रात्रिमें निवास करते हैं, प्रात: होनेपर अपने-अपने कार्यके वश पृथक्-पृथक दिशा और देशोंको उड़ जाते हैं। इसी प्रकार परिवार और समाजके व्यक्ति भी थोड़े समयके लिये एकत्र होते हैं और आयुकी समाप्ति होते ही वियुक्त हो जाते हैं।
इस पद्यमें व्यंजना द्वारा ही संसारी जीवोंकी स्थितिपर प्रकाश पड़ता है। अभिधासे तो केवल पक्षियोंके 'रैन-बसेरा'का हो चित्रांकन होता है, परन्तु व्यंजना द्वारा संयोग-वियोगकी स्थिति बहुत स्पष्ट हो जाती है और संसारका यथार्थरूप प्रस्तुत हो जाता है। आचार्यने आठवें पद्यमें "चपुगह धनं दारा: पुत्रा मित्राणि शत्रवः' में आमुखके रूपमें उक्त पद्यके व्यंग्यार्थका संकेत कर दिया है। अतः पद्योंको गुम्फित करने की प्रक्रिया भी मौलिक है। तथ्य यह है कि बाह्य प्रकृति के बाद मनुष्य अपने अन्तर्जगतको और दृष्टिपात करता है। यही कारण है कि उदाहरणके रूपमें प्रस्तुत किया गया पच बाह्य प्रकृतिके रूपका चित्रण कर आमुख श्लोकके अर्थके साथ अन्वित हो विरक्तिके लिये भूमिका उत्पन्न कर देता है।
आचार्य पूज्यपादने सकल परमात्मा अर्हन्तको नमस्कार करते हुए उनकी अनेक विशेषताओंमें वाणीकी विशेषता भी वर्णित की है। यह विशेषता उदात्त अलंकारमें निरूपित है। कविने बताया है कि अर्हन्त इच्छारहित हैं। अत: बोलनेकी इच्छा न करनेपर भी निरक्षरी दिव्य-ध्वनि द्वारा प्राणियोंकी भलाई करते हैं, जो सकल परमात्माको अनुभूति करने लगता है, उसे आत्माका रहस्य ज्ञात हो जाता है। अतः कविने सूक्ष्मके आधारपर इस चित्रका निर्माण किया है। कल्पना द्वारा भावनाको अमूर्तरूप प्रदान किया गया है। धार्मिक पद्य होनेपर भी, छायावादी कविताके समान सकल परमात्माका स्पष्ट चित्र अंकित हो जाता है। काव्यकलाकी दृष्टिसे पद्य उत्तम कोटिका है-
जयन्ति यस्यावदतोऽपि भारतीविभूतयस्तीर्थकृतोप्यनीहितुः।
शिवाय धात्रे सुगत्ताय विष्णवे जिनाय तस्मै सकलात्मने नमः।।
इच्छारहित होनेपर तथा बोलने का प्रयास न करनेपर भी जिसकी वाणी को विभूति जगानो सुख-शान्ति देनेमें समर्थ है, उस अनेक सकल परमात्मा अर्हन्तको नमस्कार हो।
बाह्य उदाहरणों द्वारा अन्तरंगकी अनुभूति करानेके लिये आचार्य ने गाढ़वस्त्र, जीर्णवस्त्र, रक्तवस्त्रके दृष्टान्त प्रस्तुतकर आत्माके स्वरूपको स्पष्ट करनेका प्रयास किया है। जिस प्रकार गाढ़ा- मोटा वस्त्र पहन लेनेपर कोई अपनेको मोटा नहीं मानता, जीर्ण वस्त्र पहननेपर कोई अपनेको जीर्ण नहीं मानता और रक्त, पीत, प्रभृती विभिन्न प्रकारका रंगीन वस्त्र पहननेपर कोई अपनेको लाल, नीला, पीला नहीं समझता, इसी प्रकार शरीरके स्थूल, जीर्ण, गौर एवं कृष्ण होनसे आत्माको भी स्थूल, जीर्ण, काला और गोरा नहीं माना जा सकता है-
घने वस्ने यथाऽऽत्मानं न घनं मन्यते तथा।
धने स्वदेहेऽप्यात्मानं न घनं मन्यते बुधः।।
जीर्ण वस्ने यथाऽऽत्मानं न जीर्ण मन्यते तथा।
जीर्ण स्वदेहेऽप्यात्मानं न जोर्ण मन्यते बधः।।
रक्ते वस्त्रे यथाऽऽत्मानं न रक्तं मन्यते तथा।
रक्ते स्वदहेऽप्यात्मानं न रक्तं मन्यते बुधः।।
अनुष्टपके साथ वंशस्थ, उपेन्द्रवज्रा आदि छन्दोंका प्रयोग भी किया है। काव्य, दर्शन और अध्यात्मतत्वको दृष्टि से रचनाएँ सुन्दर और सरस हैं।
सारस्वताचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन ।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
#devnandipujyapadmaharajji
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री देवनंदी पूज्यपाद महाराजजी (प्राचीन; छठी शताब्दी ई.)
सारस्वसाचार्योंमें आचार्य श्री देवनंदी का नाम आता है। कवि, वैयाकरण और दार्शनिक इन सोनों व्यक्तित्वोंका एकत्र समवाय देवनम्दि पूज्यपादमें पाया जाता है। आदिपुराणके रचयिता आचार्य जिनसेनने इन्हें कवियोंमें तीर्थकृत लिखा है-
कवीनां तीर्थकुद्धेवः किं तरी तत्र वर्ण्यते।
विदुषां वाडमलध्वसि तीर्थ यस्य वचोमयम्। आदिपुराण, १/५२
जो कवियोंमें तीर्थंकरके समान थे, अथवा जिन्होंने कवियोंका पथप्रदर्शन करनेके लिये लक्षणग्रन्थकी रचना की थी और जिनका वचनरूपी तीर्थ विद्वानोंके शब्दसम्बन्धी दोषोंको नष्ट करनेवाला है, ऐसे उन देवनन्दि आचार्यका कौन वर्णन कर सकता है।
ज्ञानार्णवके कर्ता आचार्य शुभचन्द्र ने इनकी प्रतिभा और वैशिष्ठयका निरूपण करते हुए स्मरण किया है
अपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाकचित्तसम्भवम्।
कलङ्कमङ्गिना सोश्यं देवनन्दो नमस्यते।।
जिनको शास्त्रपद्धति प्राणियोंके शरीर, वचन और चित्तके सभी प्रकारके मलको दूर करनेमें समर्थ है, उन देवनन्दि आचार्यको मैं प्रणाम करता हूँ।
आचार्य देवनन्दि-पूज्यपादका स्मरण हरिवंशपुराणके रचयिता जिनसेन प्रथमने भी किया है। उन्होंने लिखा है-
इन्द्र चन्द्रार्कजेनेन्द्रव्याडिव्याकरणक्षिणः।
देवस्य देववन्द्यस्य न वन्द्यन्ते गिरः कथम् ॥
अर्थात् जो इन्द्र, चन्द्र, अर्क और जैनेन्द्र व्याकरणका अवलोकन करने वाली है, ऐसी देवबन्ध देवनन्दि आचार्यको वाणी क्यों नहीं वन्दनीय है ।
इससे स्पष्ट है कि आचार्य देवनन्दि प्रसिद्ध व्याकरण और दार्शनिक विद्वान थे और विद्वन्मान्य।
इनके सम्बन्धमें आचार्य गुणनन्दिने इनके व्याकरण सूत्रोंका आधार लेकर जैनेन्द्र प्रक्रियामें मंगलाचरण करते हुए लिखा है-
नमः श्रीपूज्यपादाय लक्षणं यदुपक्रमम्।
यदेवात्र तदन्यत्र यनावास्ति न तत्वचित्।।
जिन्होंने लक्षणशास्त्रकी रचना की है, मैं उन आचार्य पूज्यपादको प्रणाम करता हूँ। उनके इस लक्षणशास्त्रकी महत्ता इसीसे स्पष्ट है कि जो इसमें है, बह अन्यत्र भी है और जो इसमें नहीं है, वह अन्यत्र भी नहीं है।
उनके साहित्यकी यह स्तुति-परम्परा धनंजय, वादिराज आदि प्रमुख आचार्यों द्वारा भी अनुभूति हुई। पूज्यपादकी ज्ञानगरिमा और महत्ताका उल्लेख उक्त स्तुतियोंमें विस्तृत रूपसे आया है।
उनसे स्पष्ट है कि देवनन्दि-पूज्यपाद कवि और दार्शनिक विद्धानके रूपमें ख्यात हैं।
इनका जीवन-परिचय चन्द्रय कवीके पूज्यपादचारस और देवचन्द्रके 'राजावलिकये' नामक ग्रन्थोंमें उपलब्ध है। श्रवणबेलगोलाके शिलालेखोंमें इनके नामोंके सम्बन्धमें उल्लेख मिलते हैं। इन्हें बुद्धिकी प्रखरताके कारण 'जिनेन्द्रबुद्धि' और देवोंके द्वारा चरणोंकी पूजा किये जानेके कारण 'पूज्यपाद' कहा गया है।
यो देवनन्दि-प्रथमाभिधानो बुद्धया महत्या स जिनेन्द्रबुद्धिः।
श्रीपूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत्पूजितं पादयुग यदीयं।।
जैनेन्द्रे निज-शब्द-भोगमतुलं सर्वार्थसिद्धिः परा
सिद्धान्ते निपुणत्वमुद्धकवितां जैनाभीषेक: स्वकः।
छन्दस्सूक्ष्मषियं समाधिशतक-स्वास्थ्यं यदीयं विदा
माख्यातीह स पूज्यपाद-मुनिपः पूज्यो मुनीनां गणः।।
अर्थात् इनका मूलनाम देवनन्दि था। किन्तु ये बुद्धिकी महत्ताके कारण जिनेन्द्रबुद्धि और देवों द्वारा पूजित होनेसे पूज्यपाद कहलाये थे। पूज्यपादने जैनेन्द्र व्याकरण, सर्वार्थसिद्धि, जैन अभिषेक, समाधिशतक आदि ग्रन्थोंकी रचना की है।
शिलालेख न. १०५ से भी उक्त तथ्य पुष्ट होता है।
प्रागभ्यायिगुरुणा किल देवनन्दी बुद्धया पुनव्दिपुलया स जिनेन्द्रबुद्धिः।
श्रीपूज्यपाद इति चैष बुधैः प्रचरुये यात्पूजितः पदपुगे वनदेवताभिः।।
पूज्यपाद और जिनेन्द्रबुद्धी इन दोनों नामोंकी सार्थकता अभिलेख न. १०८ में भी बतायी है।
इनके पिताका नाम माषवभट्ट बौर माताका नाम श्रीदेवी बतलाया जाता है। ये कर्नाटकके 'कोले' नामक ग्रामके निवासी थे और ब्राह्मण कुलके भूषण थे। कहा जाता है कि बचपन में ही इन्होंने नाग द्वारा निगले गये मेढककी तड़पन देखकर विरक्त हो दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली थी। 'पूज्यपाद चरिते' में इनके जीवनका विस्तृत परिचय भी प्राप्त होता है तथा इनके चमत्कारको व्यक्त करनेवाले अन्य कथानक भी लिखे गये हैं, पर उनमें कितना तथ्य है. निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है।
पूज्यपाद किस संघके आचार्य थे, यह विचारणीय है। 'राजावलिकथे' से ये नन्दिसंघके आचार्य सिद्ध होते हैं। शुभचन्द्राचार्यने अपने पाडवपुराणमें अपनी गुर्वावलिका उल्लेख करते हुए बताथा है-
"श्रीमूलसंघेऽजनि नन्दिसंघस्तस्मिन् बलात्कारगणोऽतिरम्यः।
तत्रामवत्पूर्वपदांशवेदी श्रीमाघनन्दी नरदेववन्द्यः॥"
अर्थात्-नन्दिसंघ, बलात्कारगण मूलसंघके अन्तर्गत है। इसमें पूर्वोके एकदेश ज्ञाता और मनुष्य एवं देवोंसे पूजनीय माघनन्दि आचार्य हुए।
माघनन्दिके बाद जिनचन्द्र, पद्मनन्दि, उमास्वामी, लोहाचार्य, यश-कीर्ति, यशोनन्दि और देवनन्दिके नाम दिये गये हैं। ये सभी नाम क्रमसे नन्दिसंघकी पट्टावलिमें भी मिलते हैं। आगे इसी गुर्वावलिमें ग्यारहवें गुणनन्दिके बाद बारहवें बज्रनन्दिका नाम आया है, पर नन्दिसंघको पट्टावलिमें ग्यारहवें जयनन्दि और बारहवें गुणनन्दिके नाम आते हैं। इन नामोंके पश्चात् तेरहवा नाम वज्रनन्दि का आता है। इसके पश्चात् और पूर्वको आचार्यपरम्परा गुर्वावलि और पट्टावलिमें प्राय: तुल्य है। अतएव संक्षेपमें यह माना जा सकता है कि पूज्यपाद मूलसंघके अन्तर्गत नन्दिसंघ बलात्कारमणके पट्टाधीश थे। अन्य प्रमाणोंसे भी विदित होता है कि इनका गच्छ सरस्वती था और आचार्य कुन्दकुन्द एवं गुद्धपिच्छकी परम्परामें हुए हैं।
कहा जाता है कि पूज्यपादके पित्ता माधव भट्टने अपनी पत्नी श्रीदेवीके आग्रह से जैन धर्म स्वीकार कर लिया था। श्रीदेवीके भाईका नाम पाणिनि था। उससे भी उन्होंने जैन धर्म स्वीकार कर लेनेका अनुरोध किया, पर प्रतिष्ठाको दृष्टिसे वह जैन न होकर मुडीकुण्डग्राममें वैष्णव संन्यासी हो गया। पूज्यपाद को कमलिनी नामक छोटी बहन थी और इसका विवाह गुणभट्टके साथ हुआ, जिससे गुणभट्टको नागार्जुन नामक पुत्र लाभ हुआ।
एक दिन पूज्यपाद अपनी वाटिकामें विचरण कर रहे थे कि उनकी दृष्टि साँपके मुंहमें फंसे हुए मेंढकपर पड़ी। इससे उन्हें विरक्ति हो गयी। प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि अपना व्याकरण ग्रंथ रच रहे थे। वह न हो पाया था कि उन्हें अपना मरण काल निकट दिखलाई पड़ा, और पूज्यपादसे अनुरोध किया कि तुम इस अपूर्ण ग्रंथको पूर्ण कर दो। उन्होंने उसे पूर्ण करना स्वीकार कर लिया। पाणिनि दुर्भाग्यवश मरकर सर्प हुए। एक बार उन्होंने पूज्यपाद को देखकर फूत्कार किया, इसपर पूज्यपादने कहा- "विश्वास रखो, मैं तुम्हारे व्याकरणको पूरा कर दूंगा।" इसके पश्चात् उन्होंने पाणिनि-व्याकरणको पूर्ण कर दिया। पाणिनि-व्याकरणके पूर्ण करने के पहले पूज्यपादने जैनेन्द्र व्याकरण, अर्हदप्रतिष्ठालक्षण और वैदिक ज्योतिषके ग्रन्थ लिखे थे।
गुणभट्टकी मृत्युके पश्चात् नागार्जुन अतिशय दरिद्र हो गया। पूज्यपादने उसे पद्मावतीका एक मन्त्र दिया और सिद्धि करने की विधी बतलाई। इस मन्त्रके प्रभावसे पद्यावतीने नागार्जुनके निकट प्रकट होकर उसे 'सिद्विरस' की जड़ी-वनस्पति बतला दी। इस 'सिद्धिरस'के प्रभावसे नागार्जुन सोना बनाने लगा। उसके गर्वका परिहार करने के लिए पूज्यपादने एक मामूली वनस्पतिसे कई बड़े ‘सिद्धिरस' बना दिया। नागार्जुन जब पर्वत्तोंको सुवर्णमय बनाने लगा, तब धरणेन्द्र पद्मावतीने उसे रोका और जिनालय बनानेका आदेश दिया। तदनुसार उसने एक जिनालय बनवाया और उसमें पाश्वनाथकी प्रतिमा स्थापित की।
पूज्यपाद अपने पैरोंमें गगनगामी लेप लगाकर विदेह क्षेत्र जाया करते थे, उस समय उनके शिष्य वज्रनन्दिने अपने साथियोंसे झगड़ा कर द्रविड संघ की स्थापना की।
नागार्जुन अनेक मन्त्र-तन्त्र तथा रसादि सिद्ध करके बहुत प्रसिद्ध हो गया। एक बार उसके समक्ष दो सुन्दर रमणियाँ उपस्थित हुई, जो नृत्य-गान कलामें कुशल थीं। नागार्जुन उनपर मोहित हो गया। वे वहीं रहने लगी और कुछ समय बाद ही उसकी रसगुटिका लेकर चलती बनीं।
पूज्यपाद मुनि बहुत दिनों तक योगाभ्यास करते रहे। फिर एक देव विमानमें बैठकर उन्होंने अनेक तीर्थोकी यात्रा की। मार्गमें एक जगह उनकी दृष्टि नष्ट हो गयी थी। अतएव उन्होंने शान्त्यष्टक रच कर ज्यों-की-त्यों दृष्टि प्राप्त की। अपने शाममें आकर उन्होंने समाधिमरण किया।
इस कथामें कितनी सत्यता है, यह विचारणीय है।
गुरु | शिष्य |
आचार्य वज्रनन्दि | -- |
पुज्यपादके समयके सम्बन्धमें विशेष विवाद नहीं है। इनका उल्लेख छठी शतीके मध्यकालसे ही उपलब्ध होने लगता है। आचार्य अकलंकदेवने अपने 'तत्त्वार्थवात्तिक' में 'सर्वार्थसिद्धि' के अनेकों वाक्योंको बात्तिकका रूप दिया है। शब्दानुशासन सम्बन्धी कथनकी पुष्टिके लिए इनके जैनेन्द्र व्याकरण के सूत्रोंको प्रमाणरूपमें उपस्थित किया है। अतः पूज्यपाद अकलंकदेवके पूर्ववर्ती है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं।
'सर्वार्थसिद्धि' और 'विशेषावश्यक भाष्य' के तुलनात्मक अध्ययनसे पह विदित होता है कि 'विशेषावश्यक भाष्य' लिखते समय जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के समक्ष ‘सर्वार्थसिद्धि' ग्रन्थ अवश्य उपस्थित था। सर्वार्थसिद्धि अध्याय १, सूत्र १५ में धारणामतिज्ञानका लक्षण लिखते हुए बताया है-
"अवेतस्प कालान्तरेऽविस्मरणकारणं धारणा।"
विशेषावश्यकभाष्यमें इसी आधारपर लिखा है-
"कालतरे प जं पुणरणुसरणं धारणा सा उ" ।।गा. २९१।।
चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है, बतलाते हुए सर्वार्थसिद्धि में लिखा है-
'मनोवदप्राप्यकारोति।' १/१९
विशेषावश्यक ग्रंथमें उक्त शब्दावली सीमा नियोजन हुआ है-
लोयणमपविसयं मणोव्व।। गा० २०९।।
इससे ज्ञात होता है कि जिनभद्रगणिके समक्ष पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि विद्यमान थी। इस दृष्टिसे पूज्यपादका समय जिनभद्रगणि (वि. संवत् ६६६)के पूर्व होना चाहिए।
कुन्दकुन्द और पूज्यपादका तुलनात्मक अध्ययन करनेसे अवगत होता है कि पूज्यपादके समाधितन्त्र और इष्टोपदेश कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थोंके दोहनऋणी है। यहाँ दो-एक उदाहरण उपस्थित किये जाते हैं-
(१) जं मया दिस्सदे सर्व तण्ण जाणादि सव्वहा।
जाणगं दिस्सदे णं तं तम्हा जंपेमि केण हं॥
यन्मया दृश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा।
जानन्न दृश्यते रूपं तत: केन ब्रवीम्यहम्॥
(२) ओ सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकजम्मि।
जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे।।
व्यवहारे सुषुप्तो यः स जागर्त्यात्मिगोचरे।
जागति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुमश्चात्मगोचरे।
यहाँ समाधितन्त्रके दोनों पद्य मोक्षपाहुडके संस्कृतानुबाद हैं। पूज्यपादने अपने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थमें 'संसारिणो मुक्ताश्च' [त. सू. २/१०] सूत्रकी व्याख्यामें पंच परावर्तनोंका स्वरूप बतलाते हुए, प्रत्येक परावर्तनके अन्त में उनके समर्थन में जो 'उक्तं च' कहकर गाथाएँ लिखी हैं, वे उसी क्रमसे कुन्दकन्दके 'बारसअणुवेक्खा' ग्रंथमें पायी जातो हैं।
इसके अतिरिक्त पूज्यपादने कुन्दकुन्दके उत्तरवर्ती गृद्धपिच्छापार्य उमास्वामीके तत्त्वार्थसूत्रपर तत्त्वार्थवृत्ति- सर्वार्थसिद्धि लिखी है। अतएव इनका समय कुन्दकुन्द और गृद्धपिच्छाचार्य के पश्चात् होना चाहिए। कुन्दकुन्दका समय विक्रमकी द्वितीय शताब्दीका पूर्वाद्ध है और सूत्रकार गृद्धपिच्छाचार्यका समय विक्रमकी द्वितीय शताब्दीका अन्तिम पाद है। अतः पुज्यपादका समय विक्रम संवत् ३००के पश्चात ही सम्भव है।
पूज्यपादने अपने जैनेन्द्र व्याकरणके सूत्रोंमें भूतबलि, समन्तभद्र, श्रीदत्त, यशोभद्र और प्रभाचन्द्र नामक पूर्वाचार्योंका निर्देश किया है। इनमेंसे भूत्तबलि तो 'षट्खण्डागम’ के रचयिता प्रतीत होते हैं, जिनका समय ई. सन् प्रथम शताब्दी है। प्रखर तार्किक और अनेकान्तवादके प्रतिष्ठापक समन्तभद्र प्रसिद्ध ही हैं। श्रीदत्तके 'जल्पनिर्णय' नामक ग्रन्थका उल्लेख विद्यानन्दने अपने 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक’ में किया है। अतः स्पष्ट है कि पूज्यपाद इन आचार्यों के उत्तरवर्ती हैं।
पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तारने अपने 'स्वामी समन्तभद्र' नामक निबन्धमें तथा 'समाधितन्त्र' की प्रस्तावनामें बताया है कि पुज्यपाद स्वामी गडराज दुर्विनीतके शिक्षागुरु थे, जिसका राज्यकाल ई. सन् ४८५-५२२ तक माना जाता है, और इन्हें हेब्बुरु आदिके अनेक शिलालेखोंमें 'शब्दावतार' के कर्ताके रूपमें दुर्वीनीत राजाका गुरु उल्लिखित किया है।
वि. संवत् ९९० में देवसेनने दर्शनसार नामक ग्रन्थकी रचना की थी। यह अन्य पूर्वाचार्यकृत-गाथाओंको एकत्र कर लिखा गया है। इस ग्रन्थमें बताया है कि पूज्यपादका शिष्य पाहुडवेदी, वचनन्दि, द्राविडसंघका कर्ता हुआ और यह संघ वि. संवत् ५२६ में उत्पन्न हुआ।
सिरिपुज्जपादसीसो दाविडसंघस्स कारगो दुट्ठो।
णामेण वज्जणंदी पाहुडवेदी महासत्तो।।
पंचसए छब्बीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स।
दक्खिखणमहुराजादो दाविडसंघो महामोहो।
वज्रनन्दि देवनन्दिके शिष्य थे। अतएव द्रविड संघकी उत्पत्तिके उक्त कालसे दस-बीस वर्ष पहले ही उनका समय माना जा सकता है। पंडित नाथूरामजी प्रेमीने पूज्यपाद-देवनन्दिका समय विक्रमकी छठी शताब्दीका पूर्वाद्ध माना है। युधिष्ठिर मीमांसकने भी देवनन्दिके समयकी समीक्षा करते हुए इनका काल विक्रमकी छठी शताब्दीका पूर्वार्द्ध माना है।
नन्दिसेनकी पट्टावलीमें देवनन्दिका समय विक्रम संवत् २५८-३०८ तक अंकित किया गया है और इनके अनन्तर जयनन्दि, और गुणनन्दिका नाम निर्देश करनेके उपरान्त वज्रनन्दिका नामोल्लेख आया है। पाण्डवपुराणमें आचार्य शुभचन्द्रने नन्दि-संघकी पट्टावलीके अनुसार ही गुर्वावली दी है। देवनन्दि पूज्यपादके गुरुका नाम एक पद्यमें यशोनन्दि बताया गया है। यथा-
यशकीतिर्यशोनन्दी देवनन्दी महामतिः।
पूज्यपादापराख्यो यो गुणनन्दी गुणाकरः॥
अजमेरकी पट्टावलीमें देवनन्दि और पूज्यपाद ये दो नाम पृथक्-पृथक उल्लिखित हैं। इस पट्टावलीके अनुसार देवनन्दिका समय विक्रम संवत् २५८ और पूज्यपादका वि. सं. ३०८ है। यहाँ पट्टसंख्या भी क्रमशः १० और ११ है। यह भी कहा गया है क देवनन्दि पोरवाल थे और पूज्यपाद पद्मावती पोरवाल। पर संस्कृत पट्टावलीके अनुसार दोनों एक हैं, भिन्न नहीं हैं। डॉ. ज्योतिप्रसादने विभिन्न मतोंका समन्वय किया है।
इस विवेचनसे आचार्य देवनन्दि-पूज्यपादका समय ई. सनकी छठी शताब्दी सिद्ध होता है, जो सर्वमान्य है।
पूज्यपाद आचार्य द्वारा लिखित अबतक निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध है-
१. दशभक्ति
२. जन्माभिषेक
३. तत्वार्थवृत्ति (सर्वार्थसिद्धी)
४. समाधितन्त्र
५. इष्टोपदेश
६. जैनेन्द्रव्याकरण
७. सिद्धिप्रिय-स्तोत्र
१. दशभक्ति-जैनागममें भक्ति के द्वादश भेद है- (१) सिद्ध-भक्ति, (२) श्रुत-भक्ति, (३) चारित्र-भक्ति, (४) योगि-भक्ति, (५) आचार्य-भक्ति, (६) पञ्च गुरुभक्ति, (७) तीर्थङ्कर-भक्ति, (८) शान्ति-भक्ति, (९) समाधि-भक्ति, (१०) निर्वाण-भक्ति, (११) नन्दीश्वर-भक्ति और (१२)चैत्य-भक्ति। पूज्यपाद स्वामीकी संस्कृतमें सिद्ध-भक्ति, श्रुत-भक्ति, चारित्र-भक्ति, योगि-भक्ति, निर्वाण-भक्ति और नन्दीश्वर भक्ति ये सात ही भक्तियां उपलब्ध हैं। काव्यकी दृष्टि से ये भक्तियाँ बड़ी ही सरस और गम्भीर हैं। सर्वप्रथम नौ पद्यों में सिद्ध-भक्तिकी रचना की गयी है। आरम्भमें बताया है कि आठौं कर्मों के नाशसे शुद्ध आत्माको प्राप्तिका होना सिद्धि है। इस सिद्धिको प्राप्त करनेवाले सिद्ध कहलाते है। सिद्ध-भक्तिके प्रभावसे साधकको सिद्ध-पदकी प्राप्ति हो जाती है। अन्य भक्तियों में नामानुसार विषयका विवेचन किया गया है।
२. जन्माभिषेक- श्रवणबेलगोलाके अभिलेखों में पुज्यपादको कृतियों में जन्माभिषेकका भी निर्देश आया है।
वर्तमानमें एक जन्माभिषेक मुद्रित उपलब्ध है। इसे पूज्यपाद द्वारा रचित होना चाहिए। रचना प्रौढ़ और प्रवाहमय है।
३. तत्त्वार्थवृत्ति- पूज्यपादकी यह महनीय कृति है। 'तत्त्वार्थसूत्र' पर गद्यमें लिखी गयी यह मध्यम परिमाणकी विशद वृत्ति है। इसमें सूत्रानुसारी सिद्धान्तके प्रतिपादनके साथ दार्शनिक विवेचन भी है। इस तत्वार्थवृत्तिको सर्वार्थसिद्धि भी कहा गया है। वृत्तिके अन्तमें लिखा है-
स्वर्गापवर्गसुखमाप्तुमनोभिरायें-
जैनेन्द्रशासनवरामृतसारभूता।
सर्वार्थसिद्धिरिति सद्धिरूपात्तनामा
तत्त्वार्थवृत्तिरनितांत प्रधार्या।।
जो आर्य स्वर्ग और मोक्ष सुखके इच्छुक हैं, वे जिनेन्द्रशासनरूपी श्रेष्ठ अमृतसे भरी सारभूत और सत्पुरुषों द्वारा दत्त 'सर्वार्थसिद्धि' इस नामसे प्रख्यात इस तत्त्वार्थवृत्तिको निरन्तर मनोयोगपूर्वक अवधारण करें।
इस वृत्तिमें तत्त्वार्थसूत्रके प्रत्येक सूत्र और उसके प्रत्येक पदका निर्वचन, विवेचन एवं शंका-समाधानपूर्वक व्याख्यान किया गया है। टीकाग्रन्थ होनेपर भी इसमें मौलिकता अक्षुण्ण है।
इस ग्रंथके नामकरणका कारण स्वयं ही ग्रन्थकारने अन्तिम रचित पद्योंमेंसे द्वितीय पद्यमें अंकित किया है-
तस्वार्थवृत्तिमुदितां विदितार्थतत्त्वाः
शृण्वन्ति ये परिपठन्ति च धर्मभक्त्या।
हस्ते कृतं परमसिद्धिसुखामृतं तै
मर्त्यामरेश्वरसुलेषु किमस्ति वाच्यम्।।
अर्थात्- अर्थके सारको ज्ञात करने के लिए जो व्यक्ति धर्म-भक्तिसे तत्वार्थवृत्तिको पढ़ते और सुनते हैं वे परमसिद्धिके सुखरूपी अमृतको हस्तगत कर लेते हैं, तब चक्रवर्ती और इन्द्रपदके सुलके विषय में तो कहना ही क्या?
सोलह स्वर्गोंके ऊपर पञ्च अनुत्तर विमानोंमें सर्वार्थसिद्धि नामका एक विमान है। सर्वार्थसिद्धिवाले जीव एकभवावतारी होते हैं। यह 'तत्वार्थवृत्ति' भी उसीके समकक्ष है। अतः इसे 'सर्वार्थसिद्धि' नामसे अभिहित किया गया है।
'तत्त्वार्थसूत्र'की वृत्ति होने पर भी इस ग्रन्थमें कतिपय मौलिक विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। मङ्गलाचरणके पश्चात् प्रथम सूत्रकी व्याख्या आरम्भ करते हुए उत्थानिकामें लिखा है- किसी निकटभव्यने एक आश्रममें मुनि-परिषद्के मध्यमें स्थित निर्ग्रन्थाचार्य से विनयसहित पूछा-भगवन् ! आत्माका हित क्या है? आचार्यने उत्तर दिया- मोक्ष। भव्यने पुन: प्रश्न किया- मोक्षका स्वरूप क्या है और उसकी प्राप्तिका उपाय क्या है? इसी प्रश्न के उत्तरस्वरूप "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:"- सूत्र रचा गया है।
प्रथम अध्यायके षष्ठ सूत्र "प्रमाणनयैरधिगमः" (१/६) की व्याख्या करते हुए पूज्यपाद स्वामीने प्रमाणके स्वार्थ और परार्थ भेद करके मति, अवधि, मन:पर्यय और केवल इन चार ज्ञानोंको स्वार्थप्रमाण बतलाते हुए श्रुतज्ञानको स्वार्थ और परार्थ दोनों बतलाया है तथा उसीका भेद नम है- यह भी बताया है। इसी सुत्रकी व्याख्यामें "उक्तञ्च' लिखकर "सकलादेशः प्रमाणाधीनः विकलादेशो नयाधीनः"- वाक्य उद्धृत किया है। इस प्रकार प्रमाणके स्वार्थ और परार्थ भेद तथा सकलादेश और विकलादेशकी चर्चा इन्हींके द्वारा प्रस्तुत की गयी है। इसी अध्यायमें "सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहत्वैश्च" (१/८)-की वृत्ति परखण्डागमके जीवटा्ठणसूत्रोंके आधारपर लिखी गयी है। इसमें सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगोंके द्वारा चौदह मार्गणाओंमें गुणस्थानोंका विवेचन बहुत सुन्दर रूपमें किया है।
प्रमाणकी चर्चामें नैयायिक और वैशेषिकोंके सन्निकर्ष-प्रामाण्यवादका एवं सांख्योंके इन्द्रिय-प्रामाण्यका निरसन कर ज्ञानके प्रामाण्यको व्यवस्था की है। ज्ञानको स्वपरप्रकाशक सिद्ध कर चक्षुःके प्राप्यकारित्वका आगम और युक्तियोंसे खण्डन कर उसे अप्राप्यकारी सिद्ध किया गया है। "सदसतोरविशेषा द्यदच्छोपलन्धेस्न्मत्तवत्" (१।३२) की वृत्तिमें कारणविपर्यास, भेदाभेदविपर्यास और स्वरूपविपर्यासकी चर्चा करते हुए योग, सांख्य, बौद्ध और चार्वाक आदिके मतोंका निर्देश किया है। अन्तिम सूत्रमें किया गया नयोंका विवेचन भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।
द्वितीय अध्यायको व्याख्यामें भी अनेक विशेषताएँ और मौलिकताएं उपलब्ध है। तृतीय सुत्रकी व्याख्यामें चारित्रमोहनीयके 'कषायवेदनीय' और ‘नोकषायवेदनीय' ये दो भेद बतलाए हैं तथा दर्शनमोहनीयके सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये तीन भेद बतलाए हैं। इन सात प्रकृतियोंके उपशमसे औपशमिक सम्यक्त्व होता है। यह सम्यक्त्व अनादिमिथ्यादृष्टि भव्यके कर्मोदयसे प्राप्त कलषताके रहते हुए किस प्रकार सम्भव है? इस प्रश्नके उत्तरमें आचार्यने बतलाया है- 'काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात'- काललब्धि आदिके निमित्तसे इनका उपशम होता है। अन्य आगमग्रन्थोंमें क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि, काललब्धि और प्रायोग्यलब्धि ये पांच लब्धियाँ बत्तलायी हैं। आचार्य पूज्यपादने काललब्धिके साथ लगे आदि शब्दसे जातिस्मरण आदिका निर्देश किया है और काललब्धिके कर्मस्थितिका काललब्धि और भवापेक्षया काललब्धियोंका निर्देश किया है। यह विषय मौलिक और सैद्धान्तिक है।
तृतीय-चतुर्थ अध्यायमें लोकका वर्णन किया गया है ! ग्रहकेन्द्रवृत्त, ग्रहकक्षाएँ, ग्रहोंकी गति, चार-क्षेत्र आदि चर्चाएँ तिलोयपण्णत्तिके तुल्य हैं। लोकाकारका वर्णन आचार्यने मौलिक रूपमें किया है।
मौलिक तथ्यों के समावेशकी दष्टिसे पंचम अध्याय विशेष महत्त्वपूर्ण है। द्रव्य, गुण और मयोंका म और शिवमन किया गया है । 'द्रव्यत्व योगात् द्रव्यम्' और 'गुण-समुदायो द्रव्यम्'की समीक्षा सुन्दर रूपमें की गयो है। "उत्पादव्ययघ्रोव्ययुक्तं सत्"(५।३०)- सूत्रको व्याख्या सोदाहरण उत्पाद, व्यय और घ्रोव्यकी व्याख्या की गयी है तथा "अपितानपितसिद्धेः" (५।३२) सूत्रकी वृत्तिमें अनेकान्तात्मक वस्तुकी सिद्धि की गयी है।
षष्ठ और सप्तम अध्यायमें दर्शनमोहनीयकर्मके आस्रवके कारणोंका विवेचन करते हुए केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देवोंके अवर्णवादप्रसंगमें श्वेताम्बर मान्यताओं की समीक्षा की है। सप्तम अध्यायके प्रथम सूत्रमें रात्रि-भोजनत्याग नामक षष्ठ अणुव्रतको समीक्षा की गयी है। सप्तम अध्यायके त्रयोदश सूत्रके व्याख्यानमें आचार्यने हिंसा और अहिंसाके स्वरूपका विवेचन करते हुए उनके समर्थनमें अनेक गाथाएँ उद्धृत की है। गुद्धपिच्छाचार्यने प्रमादयोगसे प्राणोंके घातको हिंसा कहा है। पूज्यपादने प्रमत्तयोग और प्राणका व्यपरोपण इन दोनों पदोंका विवेचन करते हुए केवल प्राणों के घातमात्रको हिंसा नहीं कहा है। जहाँ प्रमत्तयोग है वहाँ प्राणोंका घात न होनेपर भी हिसा होती है, क्यों कि घातकका भाव हिंसारूप है।
अष्टम अध्यायमें कर्मबन्धका और कर्मों के भेद-प्रभेदोंका वर्णन आया है। प्रथम सूत्रमें बन्धके पाँच कारण बतलाये हैं। उनकी व्याख्यामें पूज्यपादने मिथ्यात्वके पांच भेदोंका कथन करते हुए पुरुषाद्वैत एवं श्वेताम्बरीय निग्रन्थ सग्रन्थ, केवली-कवलाहार तथा स्त्री-मोक्ष सम्बन्धो मान्यताको भी विपरीत मिथ्यात्व कहा है। इस अध्यायके अन्य सूत्रोंका व्याख्यान भी महत्त्वपूर्ण है। पदोंको सार्थकताओंके विवेचनके साथ पारिभाषिक शब्दोंके निर्वचन विशेष उल्लेख्य हैं।
नवम अध्यायमें संवर, निर्जरा और उनके साधन गुप्ति आदिका विशद विवेचन है। दशममें मोक्ष और मुक्त जीवोंके ऊध्वंगमनका प्रतिपादन है।
इस समग्र ग्रन्थकी शैली वर्णनात्मक होते हुए भी सूत्रगत पदोंको सार्थकताके निरूपणके कारण भाष्यके तुल्य है। निश्चयतः पूज्यपादको तत्वार्थसूत्रके सूत्रोंका विषयगत अनुगमन गहरा और तलस्पर्शी था।
४. समाधितन्त्र- इस ग्रन्थका दूसरा नाम समाधिशतक है। इसमें १०५ पद्य हैं। अध्यात्मविषयका बहुत ही सुन्दर विवेचन किया है। आचार्य पूज्यपादने अपने इस ग्रंथको विषयवस्तु कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों से ही ग्रहण की है। अनेक पद्य तो रूपान्तर जैसे प्रतीत होते हैं। यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत करते है-
यदग्राह्यं न गृहाति गृहीतं नापि मुञ्चति।
जानाति सर्वथा सर्वं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम्।।
इस पद्यकी समता निम्न गाथामें है-
णियभावं ण वि मुंचइ परभाव णेव गिण्हए केई।
जाणदि पास्सदी सव्व सोहं इदि चितए णाणी॥
बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्माके स्वरूपका विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। बहिरात्मभाव- मिथ्यात्वका त्याग कर अन्तरात्मा बन कर परमात्मपदको प्राप्तिके लिए प्रयास करना साधकका परम कर्तव्य है। आत्मा, शरीर, इन्द्रिय और कर्मसंयोगका इस ग्रन्थमें संक्षेपमें हृदयग्राही विवचन किया गया है।
५. इष्टोपदेश- इस आध्यात्मकायम इष्ट-आत्माके स्वरूपका परिचय प्रस्तुत किया गया है। ५१ पद्योंमें पूज्यपादने अध्यात्मसागरको गागरमें भर देनेकी कहावतको चरितार्थ किया है। इसकी रचनाका एकमात्र हेतु यही है कि संसारी आत्मा अपने स्वरूपको पहचानकर शरीर, इन्द्रिय एवं सांसारिक अन्य पदार्थोंसे अपने को भिन्न अनुभव करने लगे। असावधान बना प्राणी विषय-भोगोंमें ही अपने समस्त जीवनको व्यतीत न कर दे, इस दृष्टि से आचार्यने स्वयं ग्रंथके अन्तमें लिखा है-
इष्टोपदेशमिति सम्यगधीत्य धीमान्।
मानापमानसमता स्वमताद्वितन्य।।
मुक्ताग्रहो विनिवसन्सजने बने वर।
मुक्तिश्रीयं निरूपमामुपयात्ति भव्यः।।
इस ग्रन्थके अध्ययनसे आत्माको शक्ति विकसित हो जाती है और स्वात्मानुभूतिके आधिक्यके कारण मान-अपमान, लाभ-अलाभ, हर्ष-विषाद आदिमें समताभाव प्राप्त होता है। संसारकी यथार्थ स्थितिका परिज्ञान प्राप्त होनेसे राग, द्वेष, मोहकी परिणति घटती है। इस लघुकाय ग्रन्थमें समयसारकी गाथाओंका सार अंकित किया गया है। शैली सरल और प्रवाहमय है।
६. जैनेन्द्र व्याकरण- श्रवणबेलगोलाके अभिलेखों एवं महाकवि धनंजयके नाममालाके निर्देशसे जैनेन्द्र व्याकरणके रचयिता पूज्यपाद सिद्ध होते हैं। गुणरत्नमहोदधिके कर्ता वर्षमान और हेमशब्दानुशासनके लघुन्यासरचयिता कनकप्रभ भी जैनेन्द्र व्याकरणके रचयिताका नाम देवनन्दि बताते हैं।
अभिलेखोंसे जैनेन्द्रन्यासक रचयिता भी पूज्यपाद अवगत होते है। पर यह ग्रन्थ अभी तक अनुपलब्ध है।
जैनेन्द्र व्याकरणके दो सुत्रपाठ उपलब्ध है- एकमें तीन सहस्र सूत्र हैं, और दूसरेमें लगभग तीन हजार सात सौ। पंडित नाथूरामजी प्रेमीने यह निष्कर्ष निकाला है कि देवनन्दि या पूज्यपादका बनाया हुआ सूत्रपाठ वहीं है, जिसपर अभयनन्दिने अपनी वृत्ति लिखी है।
जैनेन्द्र व्याकरणमें पाँच अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में चार-चार पाद हैं। इसका पहला सूत्र महत्त्वपूर्ण है। इसमें 'सिद्धिरनेकान्तात्' सूत्रसे समस्त शब्दोंका साधुत्व अनेकान्तद्वारा स्वीकार किया है, क्योंकि शब्दमें नित्यत्व, अनित्यत्व, उभयत्व, अनुभयत्व आदि विभिन्न धर्म रहते हैं। इन नाना धर्मोंसे विशिष्ट धर्मीरूप शब्दकी सिद्धि अनेकान्तसे ही सम्भव है। एकान्तसिद्धान्तसे अनेकधर्मविशिष्ट शब्दोंका साधुत्व नहीं बतलाया जा सकता। यहाँ अनेकान्तके अन्तर्गत लोकप्रवृत्तिको भी मान्यता दी है। लोकप्रसिद्धिपर आश्रित शब्दव्यवहार भी मान्य है।
जैनेन्द्रका संज्ञाप्रकरण सांकेतिक है। इसमें धातु, प्रत्यय, प्रातिपदिक, विभक्ति, समास आदि महासंज्ञाओंके लिए बीजगणित जैसी अतिसंक्षिप्त संकेतपूर्ण संज्ञाएँ आयी हैं। इस व्याकरणमें उपसर्ग के लिए 'गि', अव्ययके लिए 'झी:' समासके लिए 'सः', वृद्धिके लिए 'ऐप', गुणके लिए 'एप', सम्प्रसारणके लिए 'जिः', प्रथमा विभक्ति के लिए 'या', द्वितीयाके लिए 'इ'', तृतीया विभक्तिके लिए 'भ', चतुर्थीके लिए 'अप', पञ्चमीके लिए 'का', षष्ठीके लिए 'ता', सप्तमी के लिए 'इप' और सम्बोधनके लिए 'कि:' की संज्ञाएँ बतलायी गयो हैं। निपातके लिये 'नि:', दीर्घके लिये 'दीः', प्रगह के लिए 'दि:', उत्तरपदके लिये 'धुः', सर्वनाम स्थानके लिए 'धम्', उपसर्जनके लिए 'न्यक', प्लुत्के लिए 'पः', ह्रस्यके लिये 'प्र:', प्रत्ययके लिये 'त्यः', प्रातिपदिकके लिए 'मृत्', परस्मैपदके लिए 'मम्', आत्मनेपदके लिए 'द:', अकर्मकके लिए "धि:', संयोगके लिए 'स्फ', सवर्णके लिए 'स्वम्', तद्धितके लिए 'हत', लोपके लिए 'खम्', लुप्के लिए 'उस्', लुक्के लिए 'उप' एवं अभ्यासके लिए 'च' संज्ञाका विधान किया गया है। समासप्रकरणमें अव्यपीभावके लिए 'ह:', तत्पुरुषके लिए 'षम्' कर्मधारयके लिये 'य:', द्विगके लिए'र:', और बहुव्रीहिके लिए 'वम्' संज्ञा बतलायो गयी है। जैनेन्द्रका यह संज्ञाप्रकरण अत्यन्त सांकेतिक है। पूर्णतया अभ्यस्त हो जाने के पश्चात् ही शब्दसाधुत्वमें प्रवृत्ति होती है। यह सत्य है कि इन सज्ञाओंमें लाघवनियमका पूर्णतया पालन किया गया है।
जैनेन्द्र व्याकरणमें सन्धिके सूत्र चतुर्थ और पञ्चम अध्यायमें आये हैं। 'सन्धी' ४।३।६० सूत्रको सन्धिका अधिकारसूत्र मानकर सन्धिकार्य किया गया है, पश्चात् छकारके परे सन्धिमें तुगागमका विधान किया है। तुगागम करनेवाले ४/३/६० से ४/३/६४ तक चार सूत्र हैं। इन सूत्रों द्वारा हस्व, आंग, मांग तथा दो संज्ञकोंसे परे तुगागम किया है और 'त' का 'च' बनाकर गच्छति, इच्छति, आच्छिन्नति, माच्छिदत, मलेच्छति, कुवलीच्छाया आदि प्रयोगोंका साधुत्व प्रदर्शित किया है। देवनन्दिका यह विवेचन पाणिनिके तुल्य है। अनन्तर' 'यण' सन्धिके प्रकरणमें 'अचीकोयण' ४/३/६५ सूत्रद्वारा इक्- इ,उ,ऋ, लको क्रमश: यणादेश- य,व,र,लका नियमन किया है। देवनन्दिका यह प्रकरण पाणिनिके समान होने पर भी प्रक्रियाको दृष्टिसे सरल है। इसी प्रकार 'अयादि' सन्धिका ४/३/६६, ४/३/६७ द्वारा विधान किया है। वृत्तिकारने इन दोनों सूत्रों की व्याख्या में कई ऐसो नयी बातें उपस्थित की हैं, जिनका समावेश कात्यायन और पतञ्जलिके वचनोंमें किया जा सकता है। जैनेन्द्रकी सन्धिसम्बन्धी तीन विशेषताएं प्रमुख हैं-
१. उदाहरणोंका बाहुल्य- चतुर्थ, पंचम शताब्दीमें प्रयुक्त होनेवाली भाषाका समावेश करने के लिये नये-नये प्रयोगोंको उदाहरणके रूपमें प्रस्तुत किया गया है। यथा-
पव्यम्, अवश्यपाव्यम्, नौयानम्, गोयानम् आदि।
२. लाघव या संक्षिप्तिकरणके लिये सांकेतिक संज्ञाओका प्रयोग।
३. अधिकारसूत्रों द्वारा अनुबन्धों की व्यवस्था।
सुवन्त प्रकरणमें अधिक विशेषताओंके न रहनेपर भी प्रक्रिया सम्बन्धी सरलता अवश्य विद्यमान है। जिन शब्दोंके साधुत्वके लिये पाणिनिने एकाधिक सूत्रौंका व्यवहार किया है, उन शब्दोंके लिये जैनेन्द्र व्याकरणमें एक ही सूत्रसे साधनिका प्रस्तुत कर दी गयी है।
जैनेन्द्र व्याकरणमें स्त्रीप्रत्यय, समास एवं कारक सम्बन्धी भी कतिपय विशेषताएँ पायो जाती हैं। 'कारक' १/२/१०९ की अधिकारसूत्र मानकर कारक प्रकरणका अनुशासन किया है। देवनन्दिने पंचमी विभक्तिका अनुशासन सबसे पहले लिखा है, पश्चात् चतुर्थी, तृतीया, सप्तमी, द्वितीया और षष्ठी विभक्तिका नियमन किया है। यह कारकप्रकरणा बहुत संक्षिप्त है, पर जितनी विशेषताएँ अपेक्षित है उन सभीका यहाँ नियमन किया गया है। इसी प्रकार तिङन्त, तद्धित और कृदन्त प्रकरणोमें भी अनेक विशेषताएं दृष्टिगोचर होती है।
इस व्याकरणकी शब्दसाधुत्वसम्बन्धी विशेषताओंके साथ सांस्कृतिक विशेषताएँ भी उल्लेख्य हैं। यहाँ सांस्कृतिक शब्दोंकी तालिका उपस्थित कर उक्त कथनकी पुष्टि की जा रही है।
पति पनसम् १/१/३
पक्व, पक्ववान् १/१/४
अतितिलपीडनिः १/१/८- तिलकुट या तेल पेरनेवाली
अतिराजकुमारि: १/१/८
कुवलम्, वदरम्- झरवेर १/१/९
आमलव्यम् १/१/९
पञ्चशष्कुल: १/१/९
पञ्चगोणिः १/१/१०
पञ्चसूचिः, सप्तशूचिः १/१/१०
दधि, मधु १/१/११
अश्राद्धभोजी, अलवणभोजी १/१/३२
द्रोषणके जातो द्रौघ्रणकीयः १/१/६८
छतप्रधानोरौदि १/१/७१
सम्पन्नाब्रीह्य:- एकोब्रीहिः सम्पन्नः सुभिक्षं करोति १/१/९९
द्वावपूपी भक्षयेति १/२/१०
स्त्रावयाति तैलं १/१/८३
यवागू: शरार- जौका हलुआ या लाप्तसी
रूपकार: पचति १/२/१०३
कांस्यपात्र्या भुडक्ते १/२/११०
वृक्षमवचिनोति फलानि १/२/१२१
भोज्यते माणवकमोदनं १/२/१२१
नटस्य शृणोति श्लोकम् १/२/१२१
उपयोगो दुग्धादि तन्निमित्तं गवादि।
गोदोहं स्वपिति १/२/१२१
अजां नयति ग्रामं, भारं बहति ग्रामम्, शाखां कर्षति ग्रामम् १/२/१२१
अध्याप्येते माणचको जैनेन्द्रम् १/२/१२१।
भक्षयति पिण्डी देवदत्तः १/२/१२२
आसयति गोदोहं देवदत्तम् १/२/१२२
पूतयवम्, पूतयानयवम्, संहृतयवम्, संहियमाणयबम् १/१३/१४
दध्मापटुः, घृतेनपटुः १/३/२७
गुडपृथुका, गडधाना, तिलपृथुका, दघ्ना उपसिक्त ओदनोदधनोदन:
घृतोदनः। १/३/३१- गुड़-चूड़ा, गुडधान, तिलचूड़ा, दधिभात,घी-भात।
वनेकसेसकाः, वनेवल्वजकाः, कृपेपिशाचिकाः १/३/३८
तत्रमुक्तम्, तत्रपीतम् १/३/४०
पुराणान्नम् १/३/४४
केवलज्ञानम्, मोषकगवी १/३/४४
पञ्चगवधनः, पञ्चपूली, पञ्चकुमारि १/३/४६
क्षत्रियभीरुः, श्रोत्रियक्त्तिवः, भिक्षुविटः, मीमांसकदुर्दुरूपः १/३/४८
शस्त्रीथ्यामा, दुर्वाकाण्डथ्यामा, सरकाथ्यामा १/३/५०
भोज्योषणम्, भोज्यलवणम्, पानीयशोतम् १/३/६४
कपित्थरसः १/३/७५
इक्षमक्षिका में धारयसि १/३/७८
सक्तूनां पायकः १/३/७९
तैलपीतः, घृत्तपीतः, मद्यपोतः १/३/१०३
कुशलो विद्याग्रहणे १/४/४८
माथुरा: पालिपुत्रकेभ्य आदयतरा: १/४/५०
पुष्ये पायसमश्नीयात्, मघाभिः पललौदनम् १/४/५३
यवाना लावकः, ओदस्य भोजक: १/४/६८
दास्या: कामुकः, सूकरः, कटो भवता, धान्यं पवमान: १/४/७२
पुष्येण योग जानाति, पुष्येण भोजयति, चन्द्रमसा मघाभिर्योगं जानाति २/१/२४
मासं कल्याणी काञ्ची १/४/४
शरदं मथुरा रमणीया १/४/४
अरुणन्महेन्द्रो मथुरां। अरुणद् यवनः साकेतम् २/२/९२
पौतिमाष्या, गौकक्ष्या ३/१/४
शुचिरियं कन्या ३/१/३०
बुद्धपत्नी, स्थूलपत्नी, ग्रामपत्नी ३/१/३५
पलाण्डुभक्षितो, सुरापीतो ३/१/४६
वाहीकग्रामः, दाक्षिपलदीयः, माहकिपलदीयः, माहाकनगरीयः ३/२/११८
मासिकः, सांवत्सरिक: ३/२/१३१
गोशालम, खरशालम् ३/३/११
मासे देया भिक्षा ३/३/२२
पाटलिपुत्रस्य व्याख्यानं सुकौशला ३/३/४२
पाटलिपुत्रस्य द्वारम् ३/३/६०
वाणिजा: वाराणसी जित्वरोति मङ्गलार्थमुपचरन्ति ३/३/५८
गान्धारः, पाञ्चाल: ३/३/६७
गर्गभार्गवका ३/३/९३
हास्तिपदं शकटम् ३/३/१००
आक्षिकः, शालाकिक: ३/३/१२७
दाधिकम्, शाङ्गंवेरिकम्, माराचिकम् ३/३/१२८
चूणिनोऽपूपाः, लवणा यवागूः, कषायमुदकम् ३/३/१४७
इस स्तोत्रमें २६ पद्य हैं और चतुर्विशति तीर्थंकरोंको स्तुति की गयी है। रचना प्रौढ़ और प्रवाहयुक्त है। कवि वर्धमानस्वामीकी स्तुति करता हुआ कहता है-
श्रीवर्धमानवचसा परमाकरेण
रत्नत्रयोत्तमनिघे: परमाकरेण।
कुर्वन्ति यानि मुनयोऽजनता हि तानि
वृत्तानि सन्तु सततं जनताहितानि॥
यहाँ यमकका प्रयोग कर कविने वर्द्धमानस्वामीका महत्त्व प्रदर्शित किया है। 'जनताहितानि' पद विशेषरूपसे विचारणीय है। वस्तुतः तीर्थकर जननायक होते हैं और वे जनताका कल्याण करनेके लिये सर्वथा प्रयत्नशील रहते हैं।
इन प्रमुख ग्रन्थों के अतिरिक्त पूज्यपादके वैद्यक सम्बन्धी प्रयोग भी उपलब्ध हैं। जैनसिद्धान्तभवन आरासे 'वैद्यसारसंग्रह' नामक ग्रंथमें कतिपय प्रयोग प्रकाशित हैं। छन्दशास्त्र सम्बन्धी भी इनका कोई ग्रन्थ रहा है, जो उपलब्ध नहीं है।
जीवन और जगत्के रहस्योंकी व्याख्या करते हुए, मानवीय व्यापारके प्रेरक, प्रयोजनों और उसके उत्तरदायित्वकी सांगोपांग विवेचना पूज्यपादके ग्रन्थोंका मूल विषय है। व्यक्तिगत जीवनमें कवि आत्मसंयम और आत्मशुद्धि पर बल देता है। ध्यान, पूजा, प्रार्थना एवं भक्तिको उदात्त जीवनकी भूमिकाके लिये आवश्यक समझता है। आचार्य पूज्यपादको कवितामें काव्यतत्वकी अपेक्षा दर्शन और अध्यात्मतत्त्व अधिक मुखर है। शृङ्गारिक भावनाके अभावमें भी भक्तिरसका शीतल जल मन और हृदय दोनोंको अपूर्व शान्ति प्रदान करने की क्षमता रखता है। शब्द विषयानुसार कोमल हैं, कभी-कभी एक ही पद्यमें ध्वनिका परिवर्तन भी पाया जाता है। वस्तुतः अनुरागको ही पूज्यपादने भक्सि कहा है और यह अनुराग मोहका रूपान्तर है। पर वीतरागके प्रति किया गया अनुराग मोहको कोटिमें नहीं आता है। मोह स्वार्थपूर्ण होता है और भक्तका अनुराग निःस्वार्थ। वीतरागीसे अनुराग करनेका अर्थ है, तदरुप होनेकी प्रबल आकांक्षाका उदित होना। अतएव पूज्यपादने सिद्धभक्ति में सिद्धरूप होनेकी प्रक्रिया प्रदर्शित की है।
उनके वैदुष्यका अनुमान सर्वार्थसिद्धिग्रन्थसे किया जा सकता है। नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त, बौद्ध आदि विभिन्न दर्शनोंको समीक्षा कर इन्होंने अपनी विद्वत्ता प्रकट की है। निर्वचन और पदोंकी सार्थकताके विवेचनमें आचार्य पूज्यपादकी समकक्षता कोई नहीं कर सकता है।
आचार्य पूज्यपादने कविके रूपमें अध्यात्म, आचार और नीतिका प्रतिपादन किया है। अनुष्टुप् जैसे छोटे छन्दमें गम्भीर भावोंको समाहित करनेका प्रयत्न प्रशंसनीय है। आचार्य ने सुख-दुःखका आधार वासनाको ही कहा है, जिसने आत्मतत्त्वका अनुभव कर लिया है, उसे सुख-दुःखका संस्पर्श नहीं होता।
वासनामयमेवैतत् सुखं दुःखं च देहिनाम्।
तथा हृद्वेजयन्त्येते, भोगा रोगा इवापदि।
देहधारियोंको जो सुख और दुःख होता है, वह केवल कल्पनाजन्य ही है। जिन्हें लोकसुखका साधन समझा जाता है, ऐसे कमनीय कामिनी आदि भोग भी आपत्तिके समयमें रोगोंकी तरह प्राणियोंको आकुलता पैदा करनेवाले होते हैं।
संसारकी विभिन्न परिस्थितियोंका चित्रांकन करते हुए आचार्य पूज्यपादने उदाहरण द्वारा संयोग-वियोगको वास्तविक स्थितिपर प्रकाश डाला है। यथा-
दिग्देशेभ्यः खगा एत्य, संवसन्ति नगे नगे।
स्वस्वकार्यवशाद्यान्ति, देशे दिक्षु प्रगे नगे।।
जिस प्रकार विभिन्न दिशा और देशोंसे एकत्र हो पक्षीगण वृक्षोंपर रात्रिमें निवास करते हैं, प्रात: होनेपर अपने-अपने कार्यके वश पृथक्-पृथक दिशा और देशोंको उड़ जाते हैं। इसी प्रकार परिवार और समाजके व्यक्ति भी थोड़े समयके लिये एकत्र होते हैं और आयुकी समाप्ति होते ही वियुक्त हो जाते हैं।
इस पद्यमें व्यंजना द्वारा ही संसारी जीवोंकी स्थितिपर प्रकाश पड़ता है। अभिधासे तो केवल पक्षियोंके 'रैन-बसेरा'का हो चित्रांकन होता है, परन्तु व्यंजना द्वारा संयोग-वियोगकी स्थिति बहुत स्पष्ट हो जाती है और संसारका यथार्थरूप प्रस्तुत हो जाता है। आचार्यने आठवें पद्यमें "चपुगह धनं दारा: पुत्रा मित्राणि शत्रवः' में आमुखके रूपमें उक्त पद्यके व्यंग्यार्थका संकेत कर दिया है। अतः पद्योंको गुम्फित करने की प्रक्रिया भी मौलिक है। तथ्य यह है कि बाह्य प्रकृति के बाद मनुष्य अपने अन्तर्जगतको और दृष्टिपात करता है। यही कारण है कि उदाहरणके रूपमें प्रस्तुत किया गया पच बाह्य प्रकृतिके रूपका चित्रण कर आमुख श्लोकके अर्थके साथ अन्वित हो विरक्तिके लिये भूमिका उत्पन्न कर देता है।
आचार्य पूज्यपादने सकल परमात्मा अर्हन्तको नमस्कार करते हुए उनकी अनेक विशेषताओंमें वाणीकी विशेषता भी वर्णित की है। यह विशेषता उदात्त अलंकारमें निरूपित है। कविने बताया है कि अर्हन्त इच्छारहित हैं। अत: बोलनेकी इच्छा न करनेपर भी निरक्षरी दिव्य-ध्वनि द्वारा प्राणियोंकी भलाई करते हैं, जो सकल परमात्माको अनुभूति करने लगता है, उसे आत्माका रहस्य ज्ञात हो जाता है। अतः कविने सूक्ष्मके आधारपर इस चित्रका निर्माण किया है। कल्पना द्वारा भावनाको अमूर्तरूप प्रदान किया गया है। धार्मिक पद्य होनेपर भी, छायावादी कविताके समान सकल परमात्माका स्पष्ट चित्र अंकित हो जाता है। काव्यकलाकी दृष्टिसे पद्य उत्तम कोटिका है-
जयन्ति यस्यावदतोऽपि भारतीविभूतयस्तीर्थकृतोप्यनीहितुः।
शिवाय धात्रे सुगत्ताय विष्णवे जिनाय तस्मै सकलात्मने नमः।।
इच्छारहित होनेपर तथा बोलने का प्रयास न करनेपर भी जिसकी वाणी को विभूति जगानो सुख-शान्ति देनेमें समर्थ है, उस अनेक सकल परमात्मा अर्हन्तको नमस्कार हो।
बाह्य उदाहरणों द्वारा अन्तरंगकी अनुभूति करानेके लिये आचार्य ने गाढ़वस्त्र, जीर्णवस्त्र, रक्तवस्त्रके दृष्टान्त प्रस्तुतकर आत्माके स्वरूपको स्पष्ट करनेका प्रयास किया है। जिस प्रकार गाढ़ा- मोटा वस्त्र पहन लेनेपर कोई अपनेको मोटा नहीं मानता, जीर्ण वस्त्र पहननेपर कोई अपनेको जीर्ण नहीं मानता और रक्त, पीत, प्रभृती विभिन्न प्रकारका रंगीन वस्त्र पहननेपर कोई अपनेको लाल, नीला, पीला नहीं समझता, इसी प्रकार शरीरके स्थूल, जीर्ण, गौर एवं कृष्ण होनसे आत्माको भी स्थूल, जीर्ण, काला और गोरा नहीं माना जा सकता है-
घने वस्ने यथाऽऽत्मानं न घनं मन्यते तथा।
धने स्वदेहेऽप्यात्मानं न घनं मन्यते बुधः।।
जीर्ण वस्ने यथाऽऽत्मानं न जीर्ण मन्यते तथा।
जीर्ण स्वदेहेऽप्यात्मानं न जोर्ण मन्यते बधः।।
रक्ते वस्त्रे यथाऽऽत्मानं न रक्तं मन्यते तथा।
रक्ते स्वदहेऽप्यात्मानं न रक्तं मन्यते बुधः।।
अनुष्टपके साथ वंशस्थ, उपेन्द्रवज्रा आदि छन्दोंका प्रयोग भी किया है। काव्य, दर्शन और अध्यात्मतत्वको दृष्टि से रचनाएँ सुन्दर और सरस हैं।
सारस्वताचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन ।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara_2.
Acharya Shri Devnandi Pujyapad Maharajji (Prachin; 6th Century AD)
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