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सारस्वसाचार्य की परंपरा मे एलाचार्यका भी नाम आता है। एलाचार्यका स्मरण आचार्य वीरसेनने विद्यागुरुके रूपमें किया है। उन्होंने लखा है-
जस्साएसेण मए सिद्धसमिदं हि अहिलाहुदं।
महु सो एलाइरियो पसियउ वरवीरसेणस्से॥
जिसके आदेशसे मैंने इस सिद्धान्तग्रंथको लिखा है वह एलाचार्य मेरे ऊपर प्रसन्न हों।
वीरसेनाचार्यने जयधवलाटीकामे भी एलाचार्यका स्मरण किया है तथा उनकी कृपासे प्राप्त आगम-सिद्धान्तको लिखे जानेका निर्देश किया है। बताया है- "एदेण वयणेण सुत्तस्स देसाभासियत्तं जेण जाणाविदं तेण चउण्हं गईणं उतुच्चारणाबलेण एलाइरियपसाएण य सेसकम्माणं पावणा कीरंदे।"
अर्थात् उच्चारणाके बलसे और एलाचार्यके प्रसादसे चारों गतियोंमें शेष कर्मों की प्ररूपणा करते हैं- कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। इनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्वकी तीन प्रकृत्तियोंका जघन्यकाल एक समय है, तथा उत्कृष्टकाल दो समय है। इसी प्रकार असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि, संख्यातगण-हानि और असंख्यातगुण-हानिक जघन्य और उत्कृष्ट कालका आनयन एलाचार्यके उपदेशसे किया है।
गृद्धपिच्छके नामान्तरोंमें एलाचार्य के नामकी गणना पायी जाती है। किन्तु प्रस्तुत एलाचार्य उनसे भिन्न हैं। ये वीरसेनके समकालीन हैं और उनका सैद्धान्तिक पाण्डित्य असाधारण होगा। इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें एलाचार्य के सम्बन्ध में लिखा है-
काले गते कियत्यपि तत: पुनश्चित्रकूटपुरवासी।
श्रीमानेलाचायों बभूव सिद्धान्ततत्वज्ञः।।
तस्य समीपे सकलं सिद्धान्तमधीत्य वीरसेनगुरुः।
उपरितमनिबन्धनाद्याधिकारानष्ट च लिलेख।
बप्पदेवके पश्चात् कुछ वर्ष बीत जानेपर सिद्धान्तशास्त्रके रहस्य ज्ञाता एलाचार्य हुए। ये चित्रकूट नगरके निवासी थे। इनके पार्श्वमें रहकर वीरसेनाचार्यने सकल सिद्धान्तोंका अध्ययन कर निबन्धनादि आठ अधिकारोंको लिखा।
इस उद्धरणसे यह स्पष्ट है कि वीरसेन आचार्यने आगमग्रन्थोंका अध्ययन एलाचार्यसे किया था। प्राचीन समयमें विद्यागुरु और दीक्षागुरु पृथक्-पृथक हुआ करते थे। अतः एलाचार्य विरसेनके विद्यागुरुके रूप में रहे होंगे।
जयधवलाटीकाके प्रथम भागमें एलाचार्यके वात्सल्यकी आचार्य वीरसेनने प्रशंसा की है। लिखा है- 'जीब्भमेलाइरियवच्छओ’ इस कथनसे ध्वनित होता है कि एलाचार्य वीरसेनको बहुत स्नेह करते थे। यही कारण है कि उन्होंने अपनेको एलाचार्यका वत्स कहा है।
इनके समयका निर्धारक रूपसे बड़ा प्रमाण यही है कि वीरसेनने उन्हें अपना गुरु बताया है और उन्हींके आदेशसे सिद्धान्त- ग्रन्थोंका प्रणयन किया है। अत: एलाचार्य वीरसेनके समकालीन अथवा कुछ पूर्ववर्ती हैं। वीरसेनने धवलाटीका शक संवत् ७३८ (ई. सन् ८१६) में समाप्त की थी। अतएव एलाचार्य आठवीं शताब्दीके उत्तरार्ध और नवमी शतीके पूर्वाद्धके विद्वानाचार्य हैं।
एलाचार्यके ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं और न कोई ऐसी कृति ही उपलब्ध है, एलाचार्यकी कृतियोंके उद्धरण ही मिलते हों। वीरसेनके गुरु होनेके कारण ये सिद्धान्नशास्त्रके मर्मज्ञ विद्वान् थे, इसमें सन्देह नहीं। वीरसेनस्वामीने जय धवलाटीकामें मतभेदों का निर्देश करते हुए स्पष्ट लिखा है कि भट्टारक एलाचार्यके द्वारा उपदिष्ट व्याख्यान ही समीचीन होनेसे ग्राह्य है। यथा-
"तदो पुव्वुत्तमेलाइरियभडारएण उवइट्टवक्खाणमेव पट्ठाणभावेण एत्थ घेतव्व "
इस उद्धरणसे एलाचार्यकी प्रतिभाका अनुमान लगाया जा सकता है। एलाचार्य वाचकगुरु थे और उनकी प्रतिभा अप्रतिम थी।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
सारस्वसाचार्य की परंपरा मे एलाचार्यका भी नाम आता है। एलाचार्यका स्मरण आचार्य वीरसेनने विद्यागुरुके रूपमें किया है। उन्होंने लखा है-
जस्साएसेण मए सिद्धसमिदं हि अहिलाहुदं।
महु सो एलाइरियो पसियउ वरवीरसेणस्से॥
जिसके आदेशसे मैंने इस सिद्धान्तग्रंथको लिखा है वह एलाचार्य मेरे ऊपर प्रसन्न हों।
वीरसेनाचार्यने जयधवलाटीकामे भी एलाचार्यका स्मरण किया है तथा उनकी कृपासे प्राप्त आगम-सिद्धान्तको लिखे जानेका निर्देश किया है। बताया है- "एदेण वयणेण सुत्तस्स देसाभासियत्तं जेण जाणाविदं तेण चउण्हं गईणं उतुच्चारणाबलेण एलाइरियपसाएण य सेसकम्माणं पावणा कीरंदे।"
अर्थात् उच्चारणाके बलसे और एलाचार्यके प्रसादसे चारों गतियोंमें शेष कर्मों की प्ररूपणा करते हैं- कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। इनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्वकी तीन प्रकृत्तियोंका जघन्यकाल एक समय है, तथा उत्कृष्टकाल दो समय है। इसी प्रकार असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि, संख्यातगण-हानि और असंख्यातगुण-हानिक जघन्य और उत्कृष्ट कालका आनयन एलाचार्यके उपदेशसे किया है।
गृद्धपिच्छके नामान्तरोंमें एलाचार्य के नामकी गणना पायी जाती है। किन्तु प्रस्तुत एलाचार्य उनसे भिन्न हैं। ये वीरसेनके समकालीन हैं और उनका सैद्धान्तिक पाण्डित्य असाधारण होगा। इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें एलाचार्य के सम्बन्ध में लिखा है-
काले गते कियत्यपि तत: पुनश्चित्रकूटपुरवासी।
श्रीमानेलाचायों बभूव सिद्धान्ततत्वज्ञः।।
तस्य समीपे सकलं सिद्धान्तमधीत्य वीरसेनगुरुः।
उपरितमनिबन्धनाद्याधिकारानष्ट च लिलेख।
बप्पदेवके पश्चात् कुछ वर्ष बीत जानेपर सिद्धान्तशास्त्रके रहस्य ज्ञाता एलाचार्य हुए। ये चित्रकूट नगरके निवासी थे। इनके पार्श्वमें रहकर वीरसेनाचार्यने सकल सिद्धान्तोंका अध्ययन कर निबन्धनादि आठ अधिकारोंको लिखा।
इस उद्धरणसे यह स्पष्ट है कि वीरसेन आचार्यने आगमग्रन्थोंका अध्ययन एलाचार्यसे किया था। प्राचीन समयमें विद्यागुरु और दीक्षागुरु पृथक्-पृथक हुआ करते थे। अतः एलाचार्य विरसेनके विद्यागुरुके रूप में रहे होंगे।
जयधवलाटीकाके प्रथम भागमें एलाचार्यके वात्सल्यकी आचार्य वीरसेनने प्रशंसा की है। लिखा है- 'जीब्भमेलाइरियवच्छओ’ इस कथनसे ध्वनित होता है कि एलाचार्य वीरसेनको बहुत स्नेह करते थे। यही कारण है कि उन्होंने अपनेको एलाचार्यका वत्स कहा है।
इनके समयका निर्धारक रूपसे बड़ा प्रमाण यही है कि वीरसेनने उन्हें अपना गुरु बताया है और उन्हींके आदेशसे सिद्धान्त- ग्रन्थोंका प्रणयन किया है। अत: एलाचार्य वीरसेनके समकालीन अथवा कुछ पूर्ववर्ती हैं। वीरसेनने धवलाटीका शक संवत् ७३८ (ई. सन् ८१६) में समाप्त की थी। अतएव एलाचार्य आठवीं शताब्दीके उत्तरार्ध और नवमी शतीके पूर्वाद्धके विद्वानाचार्य हैं।
एलाचार्यके ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं और न कोई ऐसी कृति ही उपलब्ध है, एलाचार्यकी कृतियोंके उद्धरण ही मिलते हों। वीरसेनके गुरु होनेके कारण ये सिद्धान्नशास्त्रके मर्मज्ञ विद्वान् थे, इसमें सन्देह नहीं। वीरसेनस्वामीने जय धवलाटीकामें मतभेदों का निर्देश करते हुए स्पष्ट लिखा है कि भट्टारक एलाचार्यके द्वारा उपदिष्ट व्याख्यान ही समीचीन होनेसे ग्राह्य है। यथा-
"तदो पुव्वुत्तमेलाइरियभडारएण उवइट्टवक्खाणमेव पट्ठाणभावेण एत्थ घेतव्व "
इस उद्धरणसे एलाचार्यकी प्रतिभाका अनुमान लगाया जा सकता है। एलाचार्य वाचकगुरु थे और उनकी प्रतिभा अप्रतिम थी।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
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डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री एलाचार्य (प्राचीन)
| Name | Phone/Mobile 1 | Which Sangh/Maharaji/Aryika Ji you are associated with |
|---|---|---|
| Sangh Common Number | +919844033717 | #VardhamanSagarJiMaharaj1950DharmSagarJi |
| Hemal Jain | +918690943133 | #SunilSagarJi1977SanmatiSagarJi |
| Abhi Bantu | +919575455473 | #SunilSagarJi1977SanmatiSagarJi |
| Purnima Didi | +918552998307 | #SunilSagarJi1977SanmatiSagarJi |
| Varna Manish Bhai | +919352199164 | #KanaknandiJiMaharajKunthusagarji |
| Ankit Test | +919730016352 | #AcharyaShriVidyasagarjiMaharaj |
| Santosh Khule | +919850774639 | #PavitrasagarJiMaharaj1949SanmatiSagarJi1927 |
| Madhok Shaha | +919928058345 | #KanaknandiJiMaharajKunthusagarji |
| Siddharth jain Baddu | +917987281995 | #AcharyaShriVidyasagarjiMaharaj, #VishalSagarJiMaharaj1977VidyaSagarJi |
| Akshay Adadande | +919765069127 | #AcharyaShriVidyasagarjiMaharaj, #NiyamSagarJiMaharaj1957VidyaSagarJi |
| Mayur Jain | +918484845108 | #SundarSagarJiMaharaj1976SanmatiSagarJi, #VibhavSagarJiMaharaj1976ViragSagarJi, #PrabhavsagarjiPavitrasagarJiMaharaj1949, #MayanksagarjiRayansagarJiMaharaj1955 |
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara- 2
सारस्वसाचार्य की परंपरा मे एलाचार्यका भी नाम आता है। एलाचार्यका स्मरण आचार्य वीरसेनने विद्यागुरुके रूपमें किया है। उन्होंने लखा है-
जस्साएसेण मए सिद्धसमिदं हि अहिलाहुदं।
महु सो एलाइरियो पसियउ वरवीरसेणस्से॥
जिसके आदेशसे मैंने इस सिद्धान्तग्रंथको लिखा है वह एलाचार्य मेरे ऊपर प्रसन्न हों।
वीरसेनाचार्यने जयधवलाटीकामे भी एलाचार्यका स्मरण किया है तथा उनकी कृपासे प्राप्त आगम-सिद्धान्तको लिखे जानेका निर्देश किया है। बताया है- "एदेण वयणेण सुत्तस्स देसाभासियत्तं जेण जाणाविदं तेण चउण्हं गईणं उतुच्चारणाबलेण एलाइरियपसाएण य सेसकम्माणं पावणा कीरंदे।"
अर्थात् उच्चारणाके बलसे और एलाचार्यके प्रसादसे चारों गतियोंमें शेष कर्मों की प्ररूपणा करते हैं- कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। इनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्वकी तीन प्रकृत्तियोंका जघन्यकाल एक समय है, तथा उत्कृष्टकाल दो समय है। इसी प्रकार असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि, संख्यातगण-हानि और असंख्यातगुण-हानिक जघन्य और उत्कृष्ट कालका आनयन एलाचार्यके उपदेशसे किया है।
गृद्धपिच्छके नामान्तरोंमें एलाचार्य के नामकी गणना पायी जाती है। किन्तु प्रस्तुत एलाचार्य उनसे भिन्न हैं। ये वीरसेनके समकालीन हैं और उनका सैद्धान्तिक पाण्डित्य असाधारण होगा। इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें एलाचार्य के सम्बन्ध में लिखा है-
काले गते कियत्यपि तत: पुनश्चित्रकूटपुरवासी।
श्रीमानेलाचायों बभूव सिद्धान्ततत्वज्ञः।।
तस्य समीपे सकलं सिद्धान्तमधीत्य वीरसेनगुरुः।
उपरितमनिबन्धनाद्याधिकारानष्ट च लिलेख।
बप्पदेवके पश्चात् कुछ वर्ष बीत जानेपर सिद्धान्तशास्त्रके रहस्य ज्ञाता एलाचार्य हुए। ये चित्रकूट नगरके निवासी थे। इनके पार्श्वमें रहकर वीरसेनाचार्यने सकल सिद्धान्तोंका अध्ययन कर निबन्धनादि आठ अधिकारोंको लिखा।
इस उद्धरणसे यह स्पष्ट है कि वीरसेन आचार्यने आगमग्रन्थोंका अध्ययन एलाचार्यसे किया था। प्राचीन समयमें विद्यागुरु और दीक्षागुरु पृथक्-पृथक हुआ करते थे। अतः एलाचार्य विरसेनके विद्यागुरुके रूप में रहे होंगे।
जयधवलाटीकाके प्रथम भागमें एलाचार्यके वात्सल्यकी आचार्य वीरसेनने प्रशंसा की है। लिखा है- 'जीब्भमेलाइरियवच्छओ’ इस कथनसे ध्वनित होता है कि एलाचार्य वीरसेनको बहुत स्नेह करते थे। यही कारण है कि उन्होंने अपनेको एलाचार्यका वत्स कहा है।
इनके समयका निर्धारक रूपसे बड़ा प्रमाण यही है कि वीरसेनने उन्हें अपना गुरु बताया है और उन्हींके आदेशसे सिद्धान्त- ग्रन्थोंका प्रणयन किया है। अत: एलाचार्य वीरसेनके समकालीन अथवा कुछ पूर्ववर्ती हैं। वीरसेनने धवलाटीका शक संवत् ७३८ (ई. सन् ८१६) में समाप्त की थी। अतएव एलाचार्य आठवीं शताब्दीके उत्तरार्ध और नवमी शतीके पूर्वाद्धके विद्वानाचार्य हैं।
एलाचार्यके ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं और न कोई ऐसी कृति ही उपलब्ध है, एलाचार्यकी कृतियोंके उद्धरण ही मिलते हों। वीरसेनके गुरु होनेके कारण ये सिद्धान्नशास्त्रके मर्मज्ञ विद्वान् थे, इसमें सन्देह नहीं। वीरसेनस्वामीने जय धवलाटीकामें मतभेदों का निर्देश करते हुए स्पष्ट लिखा है कि भट्टारक एलाचार्यके द्वारा उपदिष्ट व्याख्यान ही समीचीन होनेसे ग्राह्य है। यथा-
"तदो पुव्वुत्तमेलाइरियभडारएण उवइट्टवक्खाणमेव पट्ठाणभावेण एत्थ घेतव्व "
इस उद्धरणसे एलाचार्यकी प्रतिभाका अनुमान लगाया जा सकता है। एलाचार्य वाचकगुरु थे और उनकी प्रतिभा अप्रतिम थी।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara- 2
Acharya Shri Elacharya
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Acharya Shri Elacharya (Prachin)
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