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सारस्वसाचार्यों की परंपरा मे जटासिंहनन्दिका नाम आता है। पुराण-काव्यनिर्माताके रूपमें जटाचार्यका नाम विशेषरूपसे प्रसिद्ध है। जिनसेन, उद्योतनसूरि आदि प्राचीन आचार्योंने जटासिंहनन्दिकी प्रशंसा की है। जिनसेन प्रथमने लिखा है-
वराङ्गनेव सर्वाङ्गवराङ्गचरितार्थवाक्।
कस्य नोत्पादयेद् गाझमनुराग स्वगोचरम्।।
जिस प्रकार उत्तम स्त्री अपने हस्त, मुख, पाद आदि अंगोंके द्वारा अपने विषयमें गाढ़ अनुराग उत्पन्न करती है, उसी प्रकार बराङ्गचरितको अर्थपूर्ण वाणी भी अपने समस्त छन्द, अलंकार, रीति आदि अंगोंसे अपने विषयमें किसी भी रसिक समालोचकके हृदयमें गाढ़ राग उत्पन्न करती है।
जिनसेन द्वितीयने भी अपने आदिपुराणमें जटाचार्यका आदरपूर्वक स्मरण किया है। लिखा है-
काव्यानुचिन्तते यस्य जटाः प्रबलवृत्तयः।
अर्थानस्मान् वदन्तीव जटाचार्यः स नोऽवतात।।
जिनकी जटारूप प्रबल- युक्तिपूर्ण वृत्तियाँ-टीकाएँ काव्योंके अनुचिन्तनमें ऐसी शोभायमान होती थी, मानों हमें उन काव्योंका अर्थ ही बतला रही है, इस प्रकारके वे आचार्य जटासिंह हमलोगोंको रक्षा करें।
उद्योतनसूरिने अपनी कुवलयमालामें वराङ्गचरितके रचयिताके रूपमें जटाचार्यका उल्लेख किया है।
जेहिं कए रमणिज्जे बरंग-पउमाण-चरिय वित्थारे।
कह व ण सलाहणिज्जे ते कइणो अडिय-रविसेणे॥
इसी प्रकार धवल कविने भी जटाचार्यका आदर पूर्वक स्मरण किया है-
मुणि महसेणु सुलोयणु जेण परमचरिउ मुणि रविसेणेण।
जिणसेणेण हरिवंसु पवित्तु जडिल मणिणा बरंगचरित्त।।
चामुण्डरायने चामुण्डपुराणमें जटासिंहनन्दि आचार्यका वर्णन किया है और इसमें उन्होंने वराङ्गचरितके रचयिताके रूप में जटासिंहनन्दिको माना है।
डॉ. ए. एन. उपाध्येने भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पुना को पत्रिका १४ वी जिल्दके प्रथम-द्वितीय अंक में वराङ्गचरित और उसके कर्ता जटासिहन्दिपर विस्तृत शोधनिबन्ध प्रकाशित किया था। तदनन्तर उन्हीं द्वारा सम्पादित उक्त ग्रन्थ सन् १९३८ में प्रकाशित हुआ। इसकी प्रस्तावनामें आपने लिखा है-
"किसी समय निजाम स्टेटका 'कोपल' ग्राम, जिसे 'कोपण' भी कहते हैं, संस्कृतिका एक प्रसिद्ध केन्द्र था। मध्यकालीन भारत में जैनोंमें इसकी अच्छी ख्याति थी और आज भी यह स्थान पुरातन-प्रेमियोंके स्नेहका भाजन बना हुआ है। इसके निकट पल्लकोगुण्डु नामकी पहाड़ीपर अशोक का एक अभिलेख उत्कीर्णित है, जिसके निकट दो पद-चिह्न अंकित हैं। उनके ठीक नीचे पुरानी कन्नड़में दो पंक्तिका एक अभिलेख उत्कीर्ण है, जिसमें लिखा है कि "चावय्यने जटासिंहनन्द्याचार्यके पदचिन्होंको तैयार कराया।"
इससे विदित है कि जटासिंहनन्द्याचार्यने 'कोप्पल' में समाधिमरण धारण किया था। डॉ. उपाध्येका अनुमान है कि ये जटासिंहनन्दि ही प्रस्तुस महाकवि हैं। कन्नड़साहित्यमें आये हुये इनके विविध उल्लेख इन्हें कर्नाटक अधिवासी सिद्ध करते हैं। साथ ही यह भी सिद्ध होता है कि कोप्पल में इन्होंने अपना अन्तिम जीवन व्यतीत किया होगा। गाडरितमें आये हुये वर्णनोंसे भी ये दाक्षिणात्य सिद्ध होते हैं।
ग्रन्थकार अपने परिचय और ग्रन्थरचना-समयके सम्बन्धमें मौन हैं | उत्तरकालीन लेखकोंके उल्लेखोंके आधारपर ही इनके सममका अनुमान किया जाता है। उद्योतनसुरिकी 'कुवलयमाला', जिनसेन प्रथमके 'हरिवंशपुराण' एवं जिनसेन द्वितीयके 'आदिपुराण' के उल्लेखोंके अतिरिक्त उत्तरवर्ती पम्प, रायमल्लके मन्त्री और सेनापति चामुण्डराय, धवल, नयसेन, पार्श्वपण्डित, महाकवि जन्न, गुणवर्म, कमलभव एवं महाबल कवियोंने भी बराङ्गचरित या जटाचार्य अथवा दोनोंका स्मरण किया है। अतएव यह निष्कर्ष निकालना सहज है कि जटाचार्य और उनके बराङ्गचरितफी ख्याति ई. सन् को आठवी शतीके पूर्व ही हो चुकी थी। यतः उद्योतनसूरिका समय ई. सन् ७७८ है। जिनसेन प्रथमने हरिवंशकि समाप्ति सन् ७८३ ई. में की थी। आदिपुराण (८३८ ई.) में जिनसेन द्वितीय ने जटाचार्यके जिस स्वरूपका निर्देश किया है, उस स्वरूपसे प्रतीत होता है कि इनकी लहराती हुई जटाएँ लम्बी-लम्बी थीं। इसी कारण ये जटिल या जटाचार्य कहे जाते थे। इसके पश्चात् तो जटाचार्य और उनके बराङ्गचरित की ख्याति इतनी बढ़ी कि १०वीं शताब्दीके कन्नड़ महाकवि पम्पने इनका आदर पूर्वक स्मरण किया और चामुण्डरायने तो बराङ्गचरितके उद्धरण ही दे डाले हैं। ११ वीं और १२ वीं शतीके अपभ्रंशके महाकवि धवल और कन्नड़के महाकवि नयसेन ने भी इनका स्मरण किया है। १३ वीं शतीमें वराङ्गचरित कवियोंका आदर्श काव्य बन गया था। फलतः पार्श्वपण्डित (ई. १२०५) जन्न (ई. सन् १२०९), गुणवर्म (ई. १२३०), कमलभव (अनुमानतः ई. १२३५) और महाबल (ई. १२५४) ने गौरव के साथ इनका स्मरण किया है। ये उल्लेख वराङ्गचरित और उसके कर्ता जटाचार्यकि ख्याति एवं लोकप्रियताको प्रकट करते हैं। तथा सभी भाषा और सम्प्रदायोंके कवियों द्वारा उनका आदर किया जाना बतलाते हैं। उद्योतनसूरिने इनका उल्लेख रविषेणसे पहले किया है। उससे अनुमान है कि आचार्य रविषेणसे बराङ्गचरितकार पूर्ववर्ती है और अधिक प्रसिद्ध रहे होंगे। अत: कहा जा सकता है कि जैन संस्कृत-प्रबन्ध-काव्य के ये ही आद्य रचयिता है। जिस प्रकार आचार्य समन्तभद्र संस्कृतके आद्य स्तुतिकार हैं, उसी प्रकार जटासिंहनन्दि आदि प्रबन्ध-काव्यरचयिता हैं।
पद्मचरित और वराङ्गचरित्त इन दोनोंकी शैली और स्थापत्य के अध्ययनसे ऐसा भी अवगत होता है कि वराङ्गचरित पद्मचरितके पश्चात् लिखा गया है। यत: पद्मचरितका स्थापत्य पुराणका है, तो वराङ्गचरित्तका स्थापत्य पुराण काव्यका है। पुराण और पुराण-काव्यमें पर्याप्त अन्तर है। पुराणमें कथा सर्गबद्ध होती है और साथ ही उसमें सानुबन्धता पाया जाता है। वराङ्गचरितकी कथामें अनुबन्धोंको कमी है। अत: हमारा अनुमान है कि वरांगचरित पद्मचरितसे कम-से-कम बीस वर्ष बाद लिखा गया है। संस्कृत-काव्यक्षेत्रमें रामायण, व महाभारतके पश्चात् अलंकृत काव्योंका प्रादुर्भाव होने लगा था और भारवि जैसे कवि किरातार्जुनीय जैसे काव्योंका प्रणयन कर चुके थे। वरामचरित पर 'किरात'के स्थापत्य का गहरा प्रभाव है। छन्दोंका प्रयोग तो ‘किरात’ के समान है ही, पर वूद्ध और वस्तु वर्णन भी 'किरात’ के समकक्ष है। अतएव जटासिंहनन्दिका समय भारविसे कुछ पश्चादवर्ती अर्थात् ७वीं शताब्दीका अन्तिम पाद होना चाहिये। उद्योतनसूरिके निर्देशसे ये ९वीं शताब्दीसे पूर्ववर्ती हैं। अतएव इनका समय ७वींका उत्तरार्ध एवं ८वीं शताब्दीका पूर्वाद्ध है।
जटासिंहनन्दिकी वराङ्गचरितके अतिरिक्त अन्य कोई रचना उपलब्ध नहीं है। पर वराङ्गचरितकी प्रौढ़ता और उसमें प्रसंगवश आये हुये सैद्धान्तिक वर्णना के अवलोकनसे यह विश्वास नहीं होता कि इस कविकी यही एक रचना रही होगी। हमारे इस अनुमानकी पुष्टि योगेन्द्र रचित 'अमृताशीति'में जटाचार्यके नामसे आये हुए निम्नलिखित उद्धरणसे भी होती है-
'जटासिंहनन्दाचार्यवृत्तम्'
तावत्क्रिया: प्रवर्तन्ते याबदद्वैतस्य गोचरं।
अद्वये निष्फले प्राप्ते निष्क्रियस्य कुत्त: क्रिया।।
यह पद्य वराङ्गचरितमें नहीं मिलता है। जटाचार्य के नामसे उल्लिखित होनेके कारण, जिसमें यह पद्य रहा है, ऐसी अन्य कोई रचना होनी चाहिए।
कविने वराङ्गचरितको चतुर्वर्ग समम्बित, सरल शब्द-अर्थ गुम्फित धर्म कथा कहा है-
सर्वज्ञभाषितमहानदधीतबुद्धिः
स्पष्टेन्द्रियः स्थिरमतिमितबाङ्मनोज्ञ:।
मुष्टाक्षरो जितसभः प्रगृहीतवाक्यो
वक्तुं कथां प्रभवति प्रतिभादियुक्तः।।
इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते।
स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वराङ्गचरिताश्रिते।।
जनपद-नगर-नृपत्ति-नपपत्नीवर्णनो नाम प्रथमः सर्ग:।
वराङ्गचरित एक पौराणिक महाकाव्य है। इसमें पुराणतत्व और काव्यतत्त्वका मिश्रण है। इसकी कथावस्तुके नामक २२वें तीर्थकर नेमिनाथ तथा श्रीकृष्णके समकालिक वराङ्ग है। नायकमें धीरोदातके सभी गुण विद्यमान हैं। इस पौराणिक महाकाव्यमें नगर, ऋतु, उत्सव, क्रीड़ा, रति, विप्रलम्भ, विवाह, जन्म, राज्याभिषेक, युद्ध, विजय आदिका वर्णन महाकाव्यके समान ही है। इसमें ३१ सर्ग हैं। पर लक्षण-ग्रंथोंके अनुसार महाकाव्य में ३० सर्गसे अधिक नहीं होने चाहिए। नायक वराङ्गमें धर्मनिष्ठा, सदाचार, कर्तव्यपरायणता, सहिष्णुता, विवेक, साहस, लौकिक और आध्यात्मिक शत्रुओं पर विजयप्राप्ति आदि धीरोदात्त नायकके गुण पाये जाते हैं।
विनीत देशकी रम्या नदीके तटपर स्थिति उत्तमपुर में भोजवंशी महाराज धर्मसेन राज्य करते थे। इनकी पट्टरानीका नाम गुणवंती था, इस महादेवीके गर्भमे कुमार वराङ्गका जन्म हुआ था। वयस्क होनेपर वराजकुमारका विवाह दश कुलीन कन्याओं के साथ कर दिया गया। वरदत्त नामक केवलीसे धर्मोपदेश सुनकर वराङ्गने अणुव्रत ग्रहण किये। जब वराङ्गको युवराज पद दिया गया, तो उसकी सौतेली माता तथा भाई सुषेणको ईर्ष्या हुई। इन्होंने सुबुद्धि मन्त्रीसे मिलकर षड्यन्त्र किया, फलत: मन्त्री द्वारा सुशिक्षित एक दुष्ट घोड़ा वराङ्गको लेकर जंगलकी ओर भागा और वराङ्ग सहित एक कुएँ में गिर गया। वराङ्ग किसी प्रकार कुएँसे निकलकर चला तो दुर्गम वनमें एक व्याघ्नने उसका पीछा किया। जंगली हाथीकी सहायतासे उसकी रक्षा होती है। अनन्तर एक यक्षिणी उसे एक अजगरसे बचाती है। अरण्यमें भटकते हुये वराङ्ग बलिके हेतु भील द्वारा पकड़ लिया जाता है, किन्तु सांपसे दंशित भिल्लराजके पुत्रका विष उत्तार देनेके कारण उसे मुक्ति मिल जाती है। कुमार वराङ्ग सेठ सागरबुद्धिके बंजारेसे मिलता है और उसकी जंगली डाकुओंसे रक्षा करता है। फलतः कश्चिद्भभटके नामसे अज्ञातवास करने लगता है। हाथीके लोभसे मधुराधिपतिने ललितपुर पर आक्रमण किया, तो कश्चिद् भटने उसका सामना कर अपनी वीरताका परिचय दिया। अतएव ललितपुराधिपने आधा राज्य देकर वराङ्गका विवाह अपनी कन्यासे कर दिया।
वरांगके लुप्त होनेपर सुषेणको यौवराज पद प्राप्त होता है, पर योग्यताके अभावमें उसे शासनप्रबन्धमें सफलता प्राप्त नहीं होती। धर्मसेनको व्रद्ध एवं उत्तराधिकारी शासकः सुषेणको कायर समझकर वकुलाधिप उत्तमपुर पर आक्रमण करता है। अत: धर्मसेन ललितपुराधिपसे सैनिक सहायता मोगता है। इस अवसर पर वराङ्गकुमार उपस्थित हो वकुलाधिपको परास्त कर देता है। जनता उसका स्वागत करती है और वह विरोधियोंको क्षमाकर पिताकी अनुमतिसे दिग्विजयके लिए प्रस्थान करता है। एक नये समृद्ध राज्यकी वह स्थापना करता है, जिसकी राजधानी सरस्वती नदी के तट पर स्थित आनर्तपुरको बनाता है। कुमार वराङ्ग यहाँ पर एक विशाल जिन मन्दिरका निर्माण कराता है और धार्मिक आयोजन पूर्वक बिम्बप्रतिष्ठाविधिको सम्पन्न कराता है। नास्तिक मतोंका खण्डन कर मंत्रियोंके संदेहको निर्मूल कर उन्हें दृढ़ श्रद्धानी बनाता है। कुछ दिनोंके अनन्तर कुमार वरांगकी अनुपमा महारानीकी कुक्षिसे पुत्रका जन्म होता है, जिसका नाम सुगात्र रखा जाता है।
एक दिन कुमार वरांग आकाशसे टूटते हुए तारेको देखकर विरक्त हो जाता है और उसे संसारको अनित्यताका भान होता है। वह अपने पुत्र सुगात्र को राजसिंहासन सौंपकर वरदत्त केवलीके समक्ष जाता है और वहाँ दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर लेता है। रानियाँ भी धार्मिक दीक्षा धारण करता हैं। वराङ्ग कुमार उग्र तपश्चरण करता है और शुक्लध्यान द्वारा कमशत्रुओंको परास्त कर सद्गति लाभ करता है।
प्रस्तुत 'वरांगचरित' के रचयिताने इसे धर्मकथा कहा है। पर वस्तुतः है यह पौराणिक महाकाव्य। इसमें पौराणिक काव्यके तत्त्व समवेत हैं। कविने आरम्भमें ही कहा है-
द्रव्यं फलं प्रकृतमेव हि सप्रभेदं
क्षेत्रं च तीर्थमथ कालविभागभावौ।
अङ्गानि सप्त कथयन्ति कथाप्रवन्धे
तैः संयुत्ता भवति युक्तिमती कथा सा।। -वरानचरितम् १/६
स्पष्ट है कि कविने इसे धर्मकथा- पौराणिक कथाकाव्य कहकर इसमें पुराणके सात अंगोंका समावेश किया है। कथा सर्गबद्ध है तथा कथामें नाटकको सन्धियोंका नियोजन भी है। आरम्भसे बराङ्गके जन्म तकको कथामें मुख सन्धिका नियोजन है। वरांगका युवराज होना और ईर्ष्यांका पात्र बनना प्रति मुख-सन्धि है। घोड़े द्वारा उसका अपहरण, कुंए में गिराया जाना, कुँएसे निकल कर बाहर आना, व्याघ्र, भिल्ल आदिके आक्रमणोंसे उसका रक्षित रहना तथा कुमार बराङ्गका सागरदत्त सेठके यहाँ गुप्तरूपसे निवास करना, बकुलाधिप का उत्तमपुर पर आक्रमण करना और कुमार द्वारा प्रतिरोध करने तककी कथावस्तुमें गर्भसन्धि है। इस सन्धिमें फल छिपा हुआ है और प्राप्त्याशा और पताकाका योग भी वर्तमान है। कुमारकी दिग्विजय, राज्यस्थापना तथा प्रतिद्वन्द्वी सुषेण द्वारा शत्रुताका त्याग नियताप्ति है। दिग्विजयके कारण विरोधियोंका उन्मूलन, समृद्धि और अभ्युदयके साधनोंके सद्भावके कारण, आत्मकल्याणके साधनोंका विरलत्व, जिनालय-निर्माण और जिनबिम्बप्रतिष्ठाके सम्पन्न होने पर भी निर्वाणरूप फलकी प्राप्तिकी असन्निकटता फल प्राप्तिमें बाधक है। अतएव इस स्थित्तिको विमर्शसन्धिकी स्थिति कहा जा सकता है। वाराङ्गका विरक्त होकर तपश्चरण करना और सदगतिलाभ निर्वहणसन्धि है। अतः सामान्यत: कथावस्तुमं सवटन सन्निहित है, पर चतुर्थ सर्गसे दशम सर्ग पर्यन्त तथा २६वे और २७चे सर्गकी कथावस्तुका मुख्य कथासे कोई सम्बन्ध नहीं है। इन सर्गोके हटा देने पर भी, कथावस्तुमें कोई कमी नहीं आती है। ये सगै केवल जैन सिद्धान्तके विभिन्न तत्वोंका प्रतिपादन करने के लिये ही लिखे गये हैं।
यक्षिणीका आगमन और कुमारका अजगरसे रक्षा करना, हाथीकी सहायतासे व्याघ्रसे बचना आदि अलौलिक तत्व हैं। इसी प्रकार घोड़े द्वारा कुमार का अपहरण, मन्त्र द्वारा भिल्लराजके पूत्रका निर्विषीकरण प्रभृति आदि अप्राकृतिक तत्व भी समाविष्ट हैं। प्रकृतिचित्रण और वस्तुव्यापारवर्णन में कवि प्रत्येक वस्तुको सूक्ष्म-से-सूक्ष्म विगत देता हुआ दृश्योंका तांता बाँधता चलता है। युद्ध, अटवी आदिके वर्णन तो वाल्मीकि और व्यासके समान सांगोपांग हैं। चरित्र-चित्रणमें कवि आवृत्ति, अनुप्रास आदिका प्रयोग करता तथा सदुपदेश प्रस्तुत करता हुआ आगे बढ़ता है। वस्तुचित्रणका निम्नलिखित उदाहरण दृष्टव्य है-
जलप्रभाभिः कृतभूमिभागां प्राचीनदेशोपहितप्रवालाम्।
सर्वार्जनोपात्तकपोलपाली वैडूर्यसव्यानवती परायाम्।।
हेमोत्तमस्तम्भवृतां विशालां महेद्रनीलप्रतिबद्धकुम्माम्।
तां पारागोपगृहीतकण्ठा विशुद्धरूपोन्नतचारुकूटाम्॥
द्विजातिवक्त्रोद्गलितपलब्धां मुक्ताकलापच्छुरितान्तरालाम्।
मन्दानिलाकम्पिचलत्पताकामात्मप्रभाहो पित्तसूर्यभासम्।।
नानाप्रकारोज्जवलरत्नदण्डां विलासिनोधारितचामराह्वाम्।
आरुह्य कन्यां शिविका पृथुश्रीः पुरौं विवेशोत्तमनामधेयाम्॥
पालकीका घरातल पानीके समान रंगोंका बनाया गया था, फलतः वह जलकुण्डकी भ्रान्ति उत्पन्न करता था। उसकी वन्दनवारमें लगे हए मूंगे दूर देशसे लाये गये थे। उसके कबूतरों युक्त छज्जे बनानेमें तो सारे संसारका धन ही खर्च हो गया था। उसकी छत वैदूर्य मणियोंसे निर्मित थी। स्वर्ण निर्मित स्तम्भों पर महेन्द्रनीलमणिके कलश तथा ऊपरी भाग पद्मरागमणिसे खचित था और रजतके कलश सुशोभित थे। ऊपरी भागमें मणियोंके पक्षी बने थे, जिसके मुखसे गिरते हुए मुक्ताफल चित्रित किये गये थे। पालकी का मध्यभाग मुक्तामणियों से व्याप्त था। ऊपर लगी हुई पताकाएँ लहरा रही थी। उठानेके दण्डोंमें नाना प्रकारके रत्न जटित थे।
स्पष्ट है कि कल्पनाके ऐश्वर्य के साथ-साथ कविका सूक्ष्म निरीक्षण भी अभिनन्दनीय हैं। पालकोंके स्तम्भों पर ऊपर और नीचे दोनों और कलशोंका विवेचन, कविको दष्टिकी गागरुकताका परिचायक है। यद्यपि इस प्रकारके वर्णन कान्यकी रसपेशलताको वृद्धि नहीं करते, तो भी वर्णनको मंजुल छटा विकीर्ण कर पाठकोंको चमत्कृत करते हैं।
कल्पना और वर्णनोंके स्रोत कविने वाल्मीकि और अश्वघोषसे ग्रहण किये हैं। वाल्मीकि रामायण में जिस प्रकार शूर्पणखा राम-लक्ष्मणसे पति बननेको प्रार्थना करता है, उसी प्रकार पक्षिणी इस काव्यमें वराङ्गसे। निश्चयतः इस कल्पनाका स्रोत वाल्मीकि रामायण है।
वर्णन, धाभिक, तथ्य और काव्य चमत्कारोंके रहने पर भी कविने रसाभि व्यक्तिमें पुरा कौशल प्रदर्शित किया है। वराङ्ग और उसकी नवोढा पत्नियोंकी केलिक्रीड़ाओके चित्रणमें संभोग-शृंगारका सजीव रूप प्रस्तुत किया गया है। कविने त्रयोदश सर्ग में वीभत्स रसका बहुत ही सुन्दर निरूपण किया है। पुलिन्दका वस्तीमें जब कुमार वराङ्ग पहुँचा, तो उसे वहीं पुलिन्दराजके झोपड़ेके चारों ओर हाथियोंके दांतोंकी बाइ, मृगोंको अस्थियोंके ढ़ेर, मांस और रक्तसे प्लावित शवों द्वारा उसका अच्छादन, बैठनेके मण्डपमें चर्वी, आंतें, नसनाड़ियोंके विस्तार तथा दुर्गन्ध पूर्ण वातावरण मिला। कविने यहाँ पुलिन्दराजके झोपड़ेको वीभत्सताका मूर्तरूप चित्रित किया है। पुलिन्दके भीषण कारागारका चित्रण भी कम वीभत्सता उत्पन्न नहीं करता है।
कविने चतुर्दश सगमें वीररसका पूर्ण चित्रण किया है। पुलिन्दराजके साथ उसके सम्पन्न हुए युद्धका समस्त विभाव और अनुभावों सहित निरूपण किया गया है।
इस काव्यमें वसन्ततिलका, उपजाति, पुष्पित्ताग्रा, प्रहर्षिणी, मालिनी, भुजंगप्रयात, वंशस्थ, अनुष्टुप, मालभारिणी और द्रुतविलम्बित छन्दोंका प्रयोग हुआ है। कविको उपजाति छन्द बहुत प्रिय है। भाषामें जहाँ पाङित्य है, वहाँ व्याकरण-स्खलन भी पाया जाता है। इस काव्यके प्रारम्भके तीन सर्गोंमें कविकी अपूर्व काव्यप्रतिभा परिलक्षित होती है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
सारस्वसाचार्यों की परंपरा मे जटासिंहनन्दिका नाम आता है। पुराण-काव्यनिर्माताके रूपमें जटाचार्यका नाम विशेषरूपसे प्रसिद्ध है। जिनसेन, उद्योतनसूरि आदि प्राचीन आचार्योंने जटासिंहनन्दिकी प्रशंसा की है। जिनसेन प्रथमने लिखा है-
वराङ्गनेव सर्वाङ्गवराङ्गचरितार्थवाक्।
कस्य नोत्पादयेद् गाझमनुराग स्वगोचरम्।।
जिस प्रकार उत्तम स्त्री अपने हस्त, मुख, पाद आदि अंगोंके द्वारा अपने विषयमें गाढ़ अनुराग उत्पन्न करती है, उसी प्रकार बराङ्गचरितको अर्थपूर्ण वाणी भी अपने समस्त छन्द, अलंकार, रीति आदि अंगोंसे अपने विषयमें किसी भी रसिक समालोचकके हृदयमें गाढ़ राग उत्पन्न करती है।
जिनसेन द्वितीयने भी अपने आदिपुराणमें जटाचार्यका आदरपूर्वक स्मरण किया है। लिखा है-
काव्यानुचिन्तते यस्य जटाः प्रबलवृत्तयः।
अर्थानस्मान् वदन्तीव जटाचार्यः स नोऽवतात।।
जिनकी जटारूप प्रबल- युक्तिपूर्ण वृत्तियाँ-टीकाएँ काव्योंके अनुचिन्तनमें ऐसी शोभायमान होती थी, मानों हमें उन काव्योंका अर्थ ही बतला रही है, इस प्रकारके वे आचार्य जटासिंह हमलोगोंको रक्षा करें।
उद्योतनसूरिने अपनी कुवलयमालामें वराङ्गचरितके रचयिताके रूपमें जटाचार्यका उल्लेख किया है।
जेहिं कए रमणिज्जे बरंग-पउमाण-चरिय वित्थारे।
कह व ण सलाहणिज्जे ते कइणो अडिय-रविसेणे॥
इसी प्रकार धवल कविने भी जटाचार्यका आदर पूर्वक स्मरण किया है-
मुणि महसेणु सुलोयणु जेण परमचरिउ मुणि रविसेणेण।
जिणसेणेण हरिवंसु पवित्तु जडिल मणिणा बरंगचरित्त।।
चामुण्डरायने चामुण्डपुराणमें जटासिंहनन्दि आचार्यका वर्णन किया है और इसमें उन्होंने वराङ्गचरितके रचयिताके रूप में जटासिंहनन्दिको माना है।
डॉ. ए. एन. उपाध्येने भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पुना को पत्रिका १४ वी जिल्दके प्रथम-द्वितीय अंक में वराङ्गचरित और उसके कर्ता जटासिहन्दिपर विस्तृत शोधनिबन्ध प्रकाशित किया था। तदनन्तर उन्हीं द्वारा सम्पादित उक्त ग्रन्थ सन् १९३८ में प्रकाशित हुआ। इसकी प्रस्तावनामें आपने लिखा है-
"किसी समय निजाम स्टेटका 'कोपल' ग्राम, जिसे 'कोपण' भी कहते हैं, संस्कृतिका एक प्रसिद्ध केन्द्र था। मध्यकालीन भारत में जैनोंमें इसकी अच्छी ख्याति थी और आज भी यह स्थान पुरातन-प्रेमियोंके स्नेहका भाजन बना हुआ है। इसके निकट पल्लकोगुण्डु नामकी पहाड़ीपर अशोक का एक अभिलेख उत्कीर्णित है, जिसके निकट दो पद-चिह्न अंकित हैं। उनके ठीक नीचे पुरानी कन्नड़में दो पंक्तिका एक अभिलेख उत्कीर्ण है, जिसमें लिखा है कि "चावय्यने जटासिंहनन्द्याचार्यके पदचिन्होंको तैयार कराया।"
इससे विदित है कि जटासिंहनन्द्याचार्यने 'कोप्पल' में समाधिमरण धारण किया था। डॉ. उपाध्येका अनुमान है कि ये जटासिंहनन्दि ही प्रस्तुस महाकवि हैं। कन्नड़साहित्यमें आये हुये इनके विविध उल्लेख इन्हें कर्नाटक अधिवासी सिद्ध करते हैं। साथ ही यह भी सिद्ध होता है कि कोप्पल में इन्होंने अपना अन्तिम जीवन व्यतीत किया होगा। गाडरितमें आये हुये वर्णनोंसे भी ये दाक्षिणात्य सिद्ध होते हैं।
ग्रन्थकार अपने परिचय और ग्रन्थरचना-समयके सम्बन्धमें मौन हैं | उत्तरकालीन लेखकोंके उल्लेखोंके आधारपर ही इनके सममका अनुमान किया जाता है। उद्योतनसुरिकी 'कुवलयमाला', जिनसेन प्रथमके 'हरिवंशपुराण' एवं जिनसेन द्वितीयके 'आदिपुराण' के उल्लेखोंके अतिरिक्त उत्तरवर्ती पम्प, रायमल्लके मन्त्री और सेनापति चामुण्डराय, धवल, नयसेन, पार्श्वपण्डित, महाकवि जन्न, गुणवर्म, कमलभव एवं महाबल कवियोंने भी बराङ्गचरित या जटाचार्य अथवा दोनोंका स्मरण किया है। अतएव यह निष्कर्ष निकालना सहज है कि जटाचार्य और उनके बराङ्गचरितफी ख्याति ई. सन् को आठवी शतीके पूर्व ही हो चुकी थी। यतः उद्योतनसूरिका समय ई. सन् ७७८ है। जिनसेन प्रथमने हरिवंशकि समाप्ति सन् ७८३ ई. में की थी। आदिपुराण (८३८ ई.) में जिनसेन द्वितीय ने जटाचार्यके जिस स्वरूपका निर्देश किया है, उस स्वरूपसे प्रतीत होता है कि इनकी लहराती हुई जटाएँ लम्बी-लम्बी थीं। इसी कारण ये जटिल या जटाचार्य कहे जाते थे। इसके पश्चात् तो जटाचार्य और उनके बराङ्गचरित की ख्याति इतनी बढ़ी कि १०वीं शताब्दीके कन्नड़ महाकवि पम्पने इनका आदर पूर्वक स्मरण किया और चामुण्डरायने तो बराङ्गचरितके उद्धरण ही दे डाले हैं। ११ वीं और १२ वीं शतीके अपभ्रंशके महाकवि धवल और कन्नड़के महाकवि नयसेन ने भी इनका स्मरण किया है। १३ वीं शतीमें वराङ्गचरित कवियोंका आदर्श काव्य बन गया था। फलतः पार्श्वपण्डित (ई. १२०५) जन्न (ई. सन् १२०९), गुणवर्म (ई. १२३०), कमलभव (अनुमानतः ई. १२३५) और महाबल (ई. १२५४) ने गौरव के साथ इनका स्मरण किया है। ये उल्लेख वराङ्गचरित और उसके कर्ता जटाचार्यकि ख्याति एवं लोकप्रियताको प्रकट करते हैं। तथा सभी भाषा और सम्प्रदायोंके कवियों द्वारा उनका आदर किया जाना बतलाते हैं। उद्योतनसूरिने इनका उल्लेख रविषेणसे पहले किया है। उससे अनुमान है कि आचार्य रविषेणसे बराङ्गचरितकार पूर्ववर्ती है और अधिक प्रसिद्ध रहे होंगे। अत: कहा जा सकता है कि जैन संस्कृत-प्रबन्ध-काव्य के ये ही आद्य रचयिता है। जिस प्रकार आचार्य समन्तभद्र संस्कृतके आद्य स्तुतिकार हैं, उसी प्रकार जटासिंहनन्दि आदि प्रबन्ध-काव्यरचयिता हैं।
पद्मचरित और वराङ्गचरित्त इन दोनोंकी शैली और स्थापत्य के अध्ययनसे ऐसा भी अवगत होता है कि वराङ्गचरित पद्मचरितके पश्चात् लिखा गया है। यत: पद्मचरितका स्थापत्य पुराणका है, तो वराङ्गचरित्तका स्थापत्य पुराण काव्यका है। पुराण और पुराण-काव्यमें पर्याप्त अन्तर है। पुराणमें कथा सर्गबद्ध होती है और साथ ही उसमें सानुबन्धता पाया जाता है। वराङ्गचरितकी कथामें अनुबन्धोंको कमी है। अत: हमारा अनुमान है कि वरांगचरित पद्मचरितसे कम-से-कम बीस वर्ष बाद लिखा गया है। संस्कृत-काव्यक्षेत्रमें रामायण, व महाभारतके पश्चात् अलंकृत काव्योंका प्रादुर्भाव होने लगा था और भारवि जैसे कवि किरातार्जुनीय जैसे काव्योंका प्रणयन कर चुके थे। वरामचरित पर 'किरात'के स्थापत्य का गहरा प्रभाव है। छन्दोंका प्रयोग तो ‘किरात’ के समान है ही, पर वूद्ध और वस्तु वर्णन भी 'किरात’ के समकक्ष है। अतएव जटासिंहनन्दिका समय भारविसे कुछ पश्चादवर्ती अर्थात् ७वीं शताब्दीका अन्तिम पाद होना चाहिये। उद्योतनसूरिके निर्देशसे ये ९वीं शताब्दीसे पूर्ववर्ती हैं। अतएव इनका समय ७वींका उत्तरार्ध एवं ८वीं शताब्दीका पूर्वाद्ध है।
जटासिंहनन्दिकी वराङ्गचरितके अतिरिक्त अन्य कोई रचना उपलब्ध नहीं है। पर वराङ्गचरितकी प्रौढ़ता और उसमें प्रसंगवश आये हुये सैद्धान्तिक वर्णना के अवलोकनसे यह विश्वास नहीं होता कि इस कविकी यही एक रचना रही होगी। हमारे इस अनुमानकी पुष्टि योगेन्द्र रचित 'अमृताशीति'में जटाचार्यके नामसे आये हुए निम्नलिखित उद्धरणसे भी होती है-
'जटासिंहनन्दाचार्यवृत्तम्'
तावत्क्रिया: प्रवर्तन्ते याबदद्वैतस्य गोचरं।
अद्वये निष्फले प्राप्ते निष्क्रियस्य कुत्त: क्रिया।।
यह पद्य वराङ्गचरितमें नहीं मिलता है। जटाचार्य के नामसे उल्लिखित होनेके कारण, जिसमें यह पद्य रहा है, ऐसी अन्य कोई रचना होनी चाहिए।
कविने वराङ्गचरितको चतुर्वर्ग समम्बित, सरल शब्द-अर्थ गुम्फित धर्म कथा कहा है-
सर्वज्ञभाषितमहानदधीतबुद्धिः
स्पष्टेन्द्रियः स्थिरमतिमितबाङ्मनोज्ञ:।
मुष्टाक्षरो जितसभः प्रगृहीतवाक्यो
वक्तुं कथां प्रभवति प्रतिभादियुक्तः।।
इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते।
स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वराङ्गचरिताश्रिते।।
जनपद-नगर-नृपत्ति-नपपत्नीवर्णनो नाम प्रथमः सर्ग:।
वराङ्गचरित एक पौराणिक महाकाव्य है। इसमें पुराणतत्व और काव्यतत्त्वका मिश्रण है। इसकी कथावस्तुके नामक २२वें तीर्थकर नेमिनाथ तथा श्रीकृष्णके समकालिक वराङ्ग है। नायकमें धीरोदातके सभी गुण विद्यमान हैं। इस पौराणिक महाकाव्यमें नगर, ऋतु, उत्सव, क्रीड़ा, रति, विप्रलम्भ, विवाह, जन्म, राज्याभिषेक, युद्ध, विजय आदिका वर्णन महाकाव्यके समान ही है। इसमें ३१ सर्ग हैं। पर लक्षण-ग्रंथोंके अनुसार महाकाव्य में ३० सर्गसे अधिक नहीं होने चाहिए। नायक वराङ्गमें धर्मनिष्ठा, सदाचार, कर्तव्यपरायणता, सहिष्णुता, विवेक, साहस, लौकिक और आध्यात्मिक शत्रुओं पर विजयप्राप्ति आदि धीरोदात्त नायकके गुण पाये जाते हैं।
विनीत देशकी रम्या नदीके तटपर स्थिति उत्तमपुर में भोजवंशी महाराज धर्मसेन राज्य करते थे। इनकी पट्टरानीका नाम गुणवंती था, इस महादेवीके गर्भमे कुमार वराङ्गका जन्म हुआ था। वयस्क होनेपर वराजकुमारका विवाह दश कुलीन कन्याओं के साथ कर दिया गया। वरदत्त नामक केवलीसे धर्मोपदेश सुनकर वराङ्गने अणुव्रत ग्रहण किये। जब वराङ्गको युवराज पद दिया गया, तो उसकी सौतेली माता तथा भाई सुषेणको ईर्ष्या हुई। इन्होंने सुबुद्धि मन्त्रीसे मिलकर षड्यन्त्र किया, फलत: मन्त्री द्वारा सुशिक्षित एक दुष्ट घोड़ा वराङ्गको लेकर जंगलकी ओर भागा और वराङ्ग सहित एक कुएँ में गिर गया। वराङ्ग किसी प्रकार कुएँसे निकलकर चला तो दुर्गम वनमें एक व्याघ्नने उसका पीछा किया। जंगली हाथीकी सहायतासे उसकी रक्षा होती है। अनन्तर एक यक्षिणी उसे एक अजगरसे बचाती है। अरण्यमें भटकते हुये वराङ्ग बलिके हेतु भील द्वारा पकड़ लिया जाता है, किन्तु सांपसे दंशित भिल्लराजके पुत्रका विष उत्तार देनेके कारण उसे मुक्ति मिल जाती है। कुमार वराङ्ग सेठ सागरबुद्धिके बंजारेसे मिलता है और उसकी जंगली डाकुओंसे रक्षा करता है। फलतः कश्चिद्भभटके नामसे अज्ञातवास करने लगता है। हाथीके लोभसे मधुराधिपतिने ललितपुर पर आक्रमण किया, तो कश्चिद् भटने उसका सामना कर अपनी वीरताका परिचय दिया। अतएव ललितपुराधिपने आधा राज्य देकर वराङ्गका विवाह अपनी कन्यासे कर दिया।
वरांगके लुप्त होनेपर सुषेणको यौवराज पद प्राप्त होता है, पर योग्यताके अभावमें उसे शासनप्रबन्धमें सफलता प्राप्त नहीं होती। धर्मसेनको व्रद्ध एवं उत्तराधिकारी शासकः सुषेणको कायर समझकर वकुलाधिप उत्तमपुर पर आक्रमण करता है। अत: धर्मसेन ललितपुराधिपसे सैनिक सहायता मोगता है। इस अवसर पर वराङ्गकुमार उपस्थित हो वकुलाधिपको परास्त कर देता है। जनता उसका स्वागत करती है और वह विरोधियोंको क्षमाकर पिताकी अनुमतिसे दिग्विजयके लिए प्रस्थान करता है। एक नये समृद्ध राज्यकी वह स्थापना करता है, जिसकी राजधानी सरस्वती नदी के तट पर स्थित आनर्तपुरको बनाता है। कुमार वराङ्ग यहाँ पर एक विशाल जिन मन्दिरका निर्माण कराता है और धार्मिक आयोजन पूर्वक बिम्बप्रतिष्ठाविधिको सम्पन्न कराता है। नास्तिक मतोंका खण्डन कर मंत्रियोंके संदेहको निर्मूल कर उन्हें दृढ़ श्रद्धानी बनाता है। कुछ दिनोंके अनन्तर कुमार वरांगकी अनुपमा महारानीकी कुक्षिसे पुत्रका जन्म होता है, जिसका नाम सुगात्र रखा जाता है।
एक दिन कुमार वरांग आकाशसे टूटते हुए तारेको देखकर विरक्त हो जाता है और उसे संसारको अनित्यताका भान होता है। वह अपने पुत्र सुगात्र को राजसिंहासन सौंपकर वरदत्त केवलीके समक्ष जाता है और वहाँ दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर लेता है। रानियाँ भी धार्मिक दीक्षा धारण करता हैं। वराङ्ग कुमार उग्र तपश्चरण करता है और शुक्लध्यान द्वारा कमशत्रुओंको परास्त कर सद्गति लाभ करता है।
प्रस्तुत 'वरांगचरित' के रचयिताने इसे धर्मकथा कहा है। पर वस्तुतः है यह पौराणिक महाकाव्य। इसमें पौराणिक काव्यके तत्त्व समवेत हैं। कविने आरम्भमें ही कहा है-
द्रव्यं फलं प्रकृतमेव हि सप्रभेदं
क्षेत्रं च तीर्थमथ कालविभागभावौ।
अङ्गानि सप्त कथयन्ति कथाप्रवन्धे
तैः संयुत्ता भवति युक्तिमती कथा सा।। -वरानचरितम् १/६
स्पष्ट है कि कविने इसे धर्मकथा- पौराणिक कथाकाव्य कहकर इसमें पुराणके सात अंगोंका समावेश किया है। कथा सर्गबद्ध है तथा कथामें नाटकको सन्धियोंका नियोजन भी है। आरम्भसे बराङ्गके जन्म तकको कथामें मुख सन्धिका नियोजन है। वरांगका युवराज होना और ईर्ष्यांका पात्र बनना प्रति मुख-सन्धि है। घोड़े द्वारा उसका अपहरण, कुंए में गिराया जाना, कुँएसे निकल कर बाहर आना, व्याघ्र, भिल्ल आदिके आक्रमणोंसे उसका रक्षित रहना तथा कुमार बराङ्गका सागरदत्त सेठके यहाँ गुप्तरूपसे निवास करना, बकुलाधिप का उत्तमपुर पर आक्रमण करना और कुमार द्वारा प्रतिरोध करने तककी कथावस्तुमें गर्भसन्धि है। इस सन्धिमें फल छिपा हुआ है और प्राप्त्याशा और पताकाका योग भी वर्तमान है। कुमारकी दिग्विजय, राज्यस्थापना तथा प्रतिद्वन्द्वी सुषेण द्वारा शत्रुताका त्याग नियताप्ति है। दिग्विजयके कारण विरोधियोंका उन्मूलन, समृद्धि और अभ्युदयके साधनोंके सद्भावके कारण, आत्मकल्याणके साधनोंका विरलत्व, जिनालय-निर्माण और जिनबिम्बप्रतिष्ठाके सम्पन्न होने पर भी निर्वाणरूप फलकी प्राप्तिकी असन्निकटता फल प्राप्तिमें बाधक है। अतएव इस स्थित्तिको विमर्शसन्धिकी स्थिति कहा जा सकता है। वाराङ्गका विरक्त होकर तपश्चरण करना और सदगतिलाभ निर्वहणसन्धि है। अतः सामान्यत: कथावस्तुमं सवटन सन्निहित है, पर चतुर्थ सर्गसे दशम सर्ग पर्यन्त तथा २६वे और २७चे सर्गकी कथावस्तुका मुख्य कथासे कोई सम्बन्ध नहीं है। इन सर्गोके हटा देने पर भी, कथावस्तुमें कोई कमी नहीं आती है। ये सगै केवल जैन सिद्धान्तके विभिन्न तत्वोंका प्रतिपादन करने के लिये ही लिखे गये हैं।
यक्षिणीका आगमन और कुमारका अजगरसे रक्षा करना, हाथीकी सहायतासे व्याघ्रसे बचना आदि अलौलिक तत्व हैं। इसी प्रकार घोड़े द्वारा कुमार का अपहरण, मन्त्र द्वारा भिल्लराजके पूत्रका निर्विषीकरण प्रभृति आदि अप्राकृतिक तत्व भी समाविष्ट हैं। प्रकृतिचित्रण और वस्तुव्यापारवर्णन में कवि प्रत्येक वस्तुको सूक्ष्म-से-सूक्ष्म विगत देता हुआ दृश्योंका तांता बाँधता चलता है। युद्ध, अटवी आदिके वर्णन तो वाल्मीकि और व्यासके समान सांगोपांग हैं। चरित्र-चित्रणमें कवि आवृत्ति, अनुप्रास आदिका प्रयोग करता तथा सदुपदेश प्रस्तुत करता हुआ आगे बढ़ता है। वस्तुचित्रणका निम्नलिखित उदाहरण दृष्टव्य है-
जलप्रभाभिः कृतभूमिभागां प्राचीनदेशोपहितप्रवालाम्।
सर्वार्जनोपात्तकपोलपाली वैडूर्यसव्यानवती परायाम्।।
हेमोत्तमस्तम्भवृतां विशालां महेद्रनीलप्रतिबद्धकुम्माम्।
तां पारागोपगृहीतकण्ठा विशुद्धरूपोन्नतचारुकूटाम्॥
द्विजातिवक्त्रोद्गलितपलब्धां मुक्ताकलापच्छुरितान्तरालाम्।
मन्दानिलाकम्पिचलत्पताकामात्मप्रभाहो पित्तसूर्यभासम्।।
नानाप्रकारोज्जवलरत्नदण्डां विलासिनोधारितचामराह्वाम्।
आरुह्य कन्यां शिविका पृथुश्रीः पुरौं विवेशोत्तमनामधेयाम्॥
पालकीका घरातल पानीके समान रंगोंका बनाया गया था, फलतः वह जलकुण्डकी भ्रान्ति उत्पन्न करता था। उसकी वन्दनवारमें लगे हए मूंगे दूर देशसे लाये गये थे। उसके कबूतरों युक्त छज्जे बनानेमें तो सारे संसारका धन ही खर्च हो गया था। उसकी छत वैदूर्य मणियोंसे निर्मित थी। स्वर्ण निर्मित स्तम्भों पर महेन्द्रनीलमणिके कलश तथा ऊपरी भाग पद्मरागमणिसे खचित था और रजतके कलश सुशोभित थे। ऊपरी भागमें मणियोंके पक्षी बने थे, जिसके मुखसे गिरते हुए मुक्ताफल चित्रित किये गये थे। पालकी का मध्यभाग मुक्तामणियों से व्याप्त था। ऊपर लगी हुई पताकाएँ लहरा रही थी। उठानेके दण्डोंमें नाना प्रकारके रत्न जटित थे।
स्पष्ट है कि कल्पनाके ऐश्वर्य के साथ-साथ कविका सूक्ष्म निरीक्षण भी अभिनन्दनीय हैं। पालकोंके स्तम्भों पर ऊपर और नीचे दोनों और कलशोंका विवेचन, कविको दष्टिकी गागरुकताका परिचायक है। यद्यपि इस प्रकारके वर्णन कान्यकी रसपेशलताको वृद्धि नहीं करते, तो भी वर्णनको मंजुल छटा विकीर्ण कर पाठकोंको चमत्कृत करते हैं।
कल्पना और वर्णनोंके स्रोत कविने वाल्मीकि और अश्वघोषसे ग्रहण किये हैं। वाल्मीकि रामायण में जिस प्रकार शूर्पणखा राम-लक्ष्मणसे पति बननेको प्रार्थना करता है, उसी प्रकार पक्षिणी इस काव्यमें वराङ्गसे। निश्चयतः इस कल्पनाका स्रोत वाल्मीकि रामायण है।
वर्णन, धाभिक, तथ्य और काव्य चमत्कारोंके रहने पर भी कविने रसाभि व्यक्तिमें पुरा कौशल प्रदर्शित किया है। वराङ्ग और उसकी नवोढा पत्नियोंकी केलिक्रीड़ाओके चित्रणमें संभोग-शृंगारका सजीव रूप प्रस्तुत किया गया है। कविने त्रयोदश सर्ग में वीभत्स रसका बहुत ही सुन्दर निरूपण किया है। पुलिन्दका वस्तीमें जब कुमार वराङ्ग पहुँचा, तो उसे वहीं पुलिन्दराजके झोपड़ेके चारों ओर हाथियोंके दांतोंकी बाइ, मृगोंको अस्थियोंके ढ़ेर, मांस और रक्तसे प्लावित शवों द्वारा उसका अच्छादन, बैठनेके मण्डपमें चर्वी, आंतें, नसनाड़ियोंके विस्तार तथा दुर्गन्ध पूर्ण वातावरण मिला। कविने यहाँ पुलिन्दराजके झोपड़ेको वीभत्सताका मूर्तरूप चित्रित किया है। पुलिन्दके भीषण कारागारका चित्रण भी कम वीभत्सता उत्पन्न नहीं करता है।
कविने चतुर्दश सगमें वीररसका पूर्ण चित्रण किया है। पुलिन्दराजके साथ उसके सम्पन्न हुए युद्धका समस्त विभाव और अनुभावों सहित निरूपण किया गया है।
इस काव्यमें वसन्ततिलका, उपजाति, पुष्पित्ताग्रा, प्रहर्षिणी, मालिनी, भुजंगप्रयात, वंशस्थ, अनुष्टुप, मालभारिणी और द्रुतविलम्बित छन्दोंका प्रयोग हुआ है। कविको उपजाति छन्द बहुत प्रिय है। भाषामें जहाँ पाङित्य है, वहाँ व्याकरण-स्खलन भी पाया जाता है। इस काव्यके प्रारम्भके तीन सर्गोंमें कविकी अपूर्व काव्यप्रतिभा परिलक्षित होती है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
#jatasinhnandimaharaj
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री जटासिंहनंदी - 7वीं - 8वीं शताब्दी ई. (प्राचीन)
सारस्वसाचार्यों की परंपरा मे जटासिंहनन्दिका नाम आता है। पुराण-काव्यनिर्माताके रूपमें जटाचार्यका नाम विशेषरूपसे प्रसिद्ध है। जिनसेन, उद्योतनसूरि आदि प्राचीन आचार्योंने जटासिंहनन्दिकी प्रशंसा की है। जिनसेन प्रथमने लिखा है-
वराङ्गनेव सर्वाङ्गवराङ्गचरितार्थवाक्।
कस्य नोत्पादयेद् गाझमनुराग स्वगोचरम्।।
जिस प्रकार उत्तम स्त्री अपने हस्त, मुख, पाद आदि अंगोंके द्वारा अपने विषयमें गाढ़ अनुराग उत्पन्न करती है, उसी प्रकार बराङ्गचरितको अर्थपूर्ण वाणी भी अपने समस्त छन्द, अलंकार, रीति आदि अंगोंसे अपने विषयमें किसी भी रसिक समालोचकके हृदयमें गाढ़ राग उत्पन्न करती है।
जिनसेन द्वितीयने भी अपने आदिपुराणमें जटाचार्यका आदरपूर्वक स्मरण किया है। लिखा है-
काव्यानुचिन्तते यस्य जटाः प्रबलवृत्तयः।
अर्थानस्मान् वदन्तीव जटाचार्यः स नोऽवतात।।
जिनकी जटारूप प्रबल- युक्तिपूर्ण वृत्तियाँ-टीकाएँ काव्योंके अनुचिन्तनमें ऐसी शोभायमान होती थी, मानों हमें उन काव्योंका अर्थ ही बतला रही है, इस प्रकारके वे आचार्य जटासिंह हमलोगोंको रक्षा करें।
उद्योतनसूरिने अपनी कुवलयमालामें वराङ्गचरितके रचयिताके रूपमें जटाचार्यका उल्लेख किया है।
जेहिं कए रमणिज्जे बरंग-पउमाण-चरिय वित्थारे।
कह व ण सलाहणिज्जे ते कइणो अडिय-रविसेणे॥
इसी प्रकार धवल कविने भी जटाचार्यका आदर पूर्वक स्मरण किया है-
मुणि महसेणु सुलोयणु जेण परमचरिउ मुणि रविसेणेण।
जिणसेणेण हरिवंसु पवित्तु जडिल मणिणा बरंगचरित्त।।
चामुण्डरायने चामुण्डपुराणमें जटासिंहनन्दि आचार्यका वर्णन किया है और इसमें उन्होंने वराङ्गचरितके रचयिताके रूप में जटासिंहनन्दिको माना है।
डॉ. ए. एन. उपाध्येने भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पुना को पत्रिका १४ वी जिल्दके प्रथम-द्वितीय अंक में वराङ्गचरित और उसके कर्ता जटासिहन्दिपर विस्तृत शोधनिबन्ध प्रकाशित किया था। तदनन्तर उन्हीं द्वारा सम्पादित उक्त ग्रन्थ सन् १९३८ में प्रकाशित हुआ। इसकी प्रस्तावनामें आपने लिखा है-
"किसी समय निजाम स्टेटका 'कोपल' ग्राम, जिसे 'कोपण' भी कहते हैं, संस्कृतिका एक प्रसिद्ध केन्द्र था। मध्यकालीन भारत में जैनोंमें इसकी अच्छी ख्याति थी और आज भी यह स्थान पुरातन-प्रेमियोंके स्नेहका भाजन बना हुआ है। इसके निकट पल्लकोगुण्डु नामकी पहाड़ीपर अशोक का एक अभिलेख उत्कीर्णित है, जिसके निकट दो पद-चिह्न अंकित हैं। उनके ठीक नीचे पुरानी कन्नड़में दो पंक्तिका एक अभिलेख उत्कीर्ण है, जिसमें लिखा है कि "चावय्यने जटासिंहनन्द्याचार्यके पदचिन्होंको तैयार कराया।"
इससे विदित है कि जटासिंहनन्द्याचार्यने 'कोप्पल' में समाधिमरण धारण किया था। डॉ. उपाध्येका अनुमान है कि ये जटासिंहनन्दि ही प्रस्तुस महाकवि हैं। कन्नड़साहित्यमें आये हुये इनके विविध उल्लेख इन्हें कर्नाटक अधिवासी सिद्ध करते हैं। साथ ही यह भी सिद्ध होता है कि कोप्पल में इन्होंने अपना अन्तिम जीवन व्यतीत किया होगा। गाडरितमें आये हुये वर्णनोंसे भी ये दाक्षिणात्य सिद्ध होते हैं।
ग्रन्थकार अपने परिचय और ग्रन्थरचना-समयके सम्बन्धमें मौन हैं | उत्तरकालीन लेखकोंके उल्लेखोंके आधारपर ही इनके सममका अनुमान किया जाता है। उद्योतनसुरिकी 'कुवलयमाला', जिनसेन प्रथमके 'हरिवंशपुराण' एवं जिनसेन द्वितीयके 'आदिपुराण' के उल्लेखोंके अतिरिक्त उत्तरवर्ती पम्प, रायमल्लके मन्त्री और सेनापति चामुण्डराय, धवल, नयसेन, पार्श्वपण्डित, महाकवि जन्न, गुणवर्म, कमलभव एवं महाबल कवियोंने भी बराङ्गचरित या जटाचार्य अथवा दोनोंका स्मरण किया है। अतएव यह निष्कर्ष निकालना सहज है कि जटाचार्य और उनके बराङ्गचरितफी ख्याति ई. सन् को आठवी शतीके पूर्व ही हो चुकी थी। यतः उद्योतनसूरिका समय ई. सन् ७७८ है। जिनसेन प्रथमने हरिवंशकि समाप्ति सन् ७८३ ई. में की थी। आदिपुराण (८३८ ई.) में जिनसेन द्वितीय ने जटाचार्यके जिस स्वरूपका निर्देश किया है, उस स्वरूपसे प्रतीत होता है कि इनकी लहराती हुई जटाएँ लम्बी-लम्बी थीं। इसी कारण ये जटिल या जटाचार्य कहे जाते थे। इसके पश्चात् तो जटाचार्य और उनके बराङ्गचरित की ख्याति इतनी बढ़ी कि १०वीं शताब्दीके कन्नड़ महाकवि पम्पने इनका आदर पूर्वक स्मरण किया और चामुण्डरायने तो बराङ्गचरितके उद्धरण ही दे डाले हैं। ११ वीं और १२ वीं शतीके अपभ्रंशके महाकवि धवल और कन्नड़के महाकवि नयसेन ने भी इनका स्मरण किया है। १३ वीं शतीमें वराङ्गचरित कवियोंका आदर्श काव्य बन गया था। फलतः पार्श्वपण्डित (ई. १२०५) जन्न (ई. सन् १२०९), गुणवर्म (ई. १२३०), कमलभव (अनुमानतः ई. १२३५) और महाबल (ई. १२५४) ने गौरव के साथ इनका स्मरण किया है। ये उल्लेख वराङ्गचरित और उसके कर्ता जटाचार्यकि ख्याति एवं लोकप्रियताको प्रकट करते हैं। तथा सभी भाषा और सम्प्रदायोंके कवियों द्वारा उनका आदर किया जाना बतलाते हैं। उद्योतनसूरिने इनका उल्लेख रविषेणसे पहले किया है। उससे अनुमान है कि आचार्य रविषेणसे बराङ्गचरितकार पूर्ववर्ती है और अधिक प्रसिद्ध रहे होंगे। अत: कहा जा सकता है कि जैन संस्कृत-प्रबन्ध-काव्य के ये ही आद्य रचयिता है। जिस प्रकार आचार्य समन्तभद्र संस्कृतके आद्य स्तुतिकार हैं, उसी प्रकार जटासिंहनन्दि आदि प्रबन्ध-काव्यरचयिता हैं।
पद्मचरित और वराङ्गचरित्त इन दोनोंकी शैली और स्थापत्य के अध्ययनसे ऐसा भी अवगत होता है कि वराङ्गचरित पद्मचरितके पश्चात् लिखा गया है। यत: पद्मचरितका स्थापत्य पुराणका है, तो वराङ्गचरित्तका स्थापत्य पुराण काव्यका है। पुराण और पुराण-काव्यमें पर्याप्त अन्तर है। पुराणमें कथा सर्गबद्ध होती है और साथ ही उसमें सानुबन्धता पाया जाता है। वराङ्गचरितकी कथामें अनुबन्धोंको कमी है। अत: हमारा अनुमान है कि वरांगचरित पद्मचरितसे कम-से-कम बीस वर्ष बाद लिखा गया है। संस्कृत-काव्यक्षेत्रमें रामायण, व महाभारतके पश्चात् अलंकृत काव्योंका प्रादुर्भाव होने लगा था और भारवि जैसे कवि किरातार्जुनीय जैसे काव्योंका प्रणयन कर चुके थे। वरामचरित पर 'किरात'के स्थापत्य का गहरा प्रभाव है। छन्दोंका प्रयोग तो ‘किरात’ के समान है ही, पर वूद्ध और वस्तु वर्णन भी 'किरात’ के समकक्ष है। अतएव जटासिंहनन्दिका समय भारविसे कुछ पश्चादवर्ती अर्थात् ७वीं शताब्दीका अन्तिम पाद होना चाहिये। उद्योतनसूरिके निर्देशसे ये ९वीं शताब्दीसे पूर्ववर्ती हैं। अतएव इनका समय ७वींका उत्तरार्ध एवं ८वीं शताब्दीका पूर्वाद्ध है।
जटासिंहनन्दिकी वराङ्गचरितके अतिरिक्त अन्य कोई रचना उपलब्ध नहीं है। पर वराङ्गचरितकी प्रौढ़ता और उसमें प्रसंगवश आये हुये सैद्धान्तिक वर्णना के अवलोकनसे यह विश्वास नहीं होता कि इस कविकी यही एक रचना रही होगी। हमारे इस अनुमानकी पुष्टि योगेन्द्र रचित 'अमृताशीति'में जटाचार्यके नामसे आये हुए निम्नलिखित उद्धरणसे भी होती है-
'जटासिंहनन्दाचार्यवृत्तम्'
तावत्क्रिया: प्रवर्तन्ते याबदद्वैतस्य गोचरं।
अद्वये निष्फले प्राप्ते निष्क्रियस्य कुत्त: क्रिया।।
यह पद्य वराङ्गचरितमें नहीं मिलता है। जटाचार्य के नामसे उल्लिखित होनेके कारण, जिसमें यह पद्य रहा है, ऐसी अन्य कोई रचना होनी चाहिए।
कविने वराङ्गचरितको चतुर्वर्ग समम्बित, सरल शब्द-अर्थ गुम्फित धर्म कथा कहा है-
सर्वज्ञभाषितमहानदधीतबुद्धिः
स्पष्टेन्द्रियः स्थिरमतिमितबाङ्मनोज्ञ:।
मुष्टाक्षरो जितसभः प्रगृहीतवाक्यो
वक्तुं कथां प्रभवति प्रतिभादियुक्तः।।
इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते।
स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वराङ्गचरिताश्रिते।।
जनपद-नगर-नृपत्ति-नपपत्नीवर्णनो नाम प्रथमः सर्ग:।
वराङ्गचरित एक पौराणिक महाकाव्य है। इसमें पुराणतत्व और काव्यतत्त्वका मिश्रण है। इसकी कथावस्तुके नामक २२वें तीर्थकर नेमिनाथ तथा श्रीकृष्णके समकालिक वराङ्ग है। नायकमें धीरोदातके सभी गुण विद्यमान हैं। इस पौराणिक महाकाव्यमें नगर, ऋतु, उत्सव, क्रीड़ा, रति, विप्रलम्भ, विवाह, जन्म, राज्याभिषेक, युद्ध, विजय आदिका वर्णन महाकाव्यके समान ही है। इसमें ३१ सर्ग हैं। पर लक्षण-ग्रंथोंके अनुसार महाकाव्य में ३० सर्गसे अधिक नहीं होने चाहिए। नायक वराङ्गमें धर्मनिष्ठा, सदाचार, कर्तव्यपरायणता, सहिष्णुता, विवेक, साहस, लौकिक और आध्यात्मिक शत्रुओं पर विजयप्राप्ति आदि धीरोदात्त नायकके गुण पाये जाते हैं।
विनीत देशकी रम्या नदीके तटपर स्थिति उत्तमपुर में भोजवंशी महाराज धर्मसेन राज्य करते थे। इनकी पट्टरानीका नाम गुणवंती था, इस महादेवीके गर्भमे कुमार वराङ्गका जन्म हुआ था। वयस्क होनेपर वराजकुमारका विवाह दश कुलीन कन्याओं के साथ कर दिया गया। वरदत्त नामक केवलीसे धर्मोपदेश सुनकर वराङ्गने अणुव्रत ग्रहण किये। जब वराङ्गको युवराज पद दिया गया, तो उसकी सौतेली माता तथा भाई सुषेणको ईर्ष्या हुई। इन्होंने सुबुद्धि मन्त्रीसे मिलकर षड्यन्त्र किया, फलत: मन्त्री द्वारा सुशिक्षित एक दुष्ट घोड़ा वराङ्गको लेकर जंगलकी ओर भागा और वराङ्ग सहित एक कुएँ में गिर गया। वराङ्ग किसी प्रकार कुएँसे निकलकर चला तो दुर्गम वनमें एक व्याघ्नने उसका पीछा किया। जंगली हाथीकी सहायतासे उसकी रक्षा होती है। अनन्तर एक यक्षिणी उसे एक अजगरसे बचाती है। अरण्यमें भटकते हुये वराङ्ग बलिके हेतु भील द्वारा पकड़ लिया जाता है, किन्तु सांपसे दंशित भिल्लराजके पुत्रका विष उत्तार देनेके कारण उसे मुक्ति मिल जाती है। कुमार वराङ्ग सेठ सागरबुद्धिके बंजारेसे मिलता है और उसकी जंगली डाकुओंसे रक्षा करता है। फलतः कश्चिद्भभटके नामसे अज्ञातवास करने लगता है। हाथीके लोभसे मधुराधिपतिने ललितपुर पर आक्रमण किया, तो कश्चिद् भटने उसका सामना कर अपनी वीरताका परिचय दिया। अतएव ललितपुराधिपने आधा राज्य देकर वराङ्गका विवाह अपनी कन्यासे कर दिया।
वरांगके लुप्त होनेपर सुषेणको यौवराज पद प्राप्त होता है, पर योग्यताके अभावमें उसे शासनप्रबन्धमें सफलता प्राप्त नहीं होती। धर्मसेनको व्रद्ध एवं उत्तराधिकारी शासकः सुषेणको कायर समझकर वकुलाधिप उत्तमपुर पर आक्रमण करता है। अत: धर्मसेन ललितपुराधिपसे सैनिक सहायता मोगता है। इस अवसर पर वराङ्गकुमार उपस्थित हो वकुलाधिपको परास्त कर देता है। जनता उसका स्वागत करती है और वह विरोधियोंको क्षमाकर पिताकी अनुमतिसे दिग्विजयके लिए प्रस्थान करता है। एक नये समृद्ध राज्यकी वह स्थापना करता है, जिसकी राजधानी सरस्वती नदी के तट पर स्थित आनर्तपुरको बनाता है। कुमार वराङ्ग यहाँ पर एक विशाल जिन मन्दिरका निर्माण कराता है और धार्मिक आयोजन पूर्वक बिम्बप्रतिष्ठाविधिको सम्पन्न कराता है। नास्तिक मतोंका खण्डन कर मंत्रियोंके संदेहको निर्मूल कर उन्हें दृढ़ श्रद्धानी बनाता है। कुछ दिनोंके अनन्तर कुमार वरांगकी अनुपमा महारानीकी कुक्षिसे पुत्रका जन्म होता है, जिसका नाम सुगात्र रखा जाता है।
एक दिन कुमार वरांग आकाशसे टूटते हुए तारेको देखकर विरक्त हो जाता है और उसे संसारको अनित्यताका भान होता है। वह अपने पुत्र सुगात्र को राजसिंहासन सौंपकर वरदत्त केवलीके समक्ष जाता है और वहाँ दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर लेता है। रानियाँ भी धार्मिक दीक्षा धारण करता हैं। वराङ्ग कुमार उग्र तपश्चरण करता है और शुक्लध्यान द्वारा कमशत्रुओंको परास्त कर सद्गति लाभ करता है।
प्रस्तुत 'वरांगचरित' के रचयिताने इसे धर्मकथा कहा है। पर वस्तुतः है यह पौराणिक महाकाव्य। इसमें पौराणिक काव्यके तत्त्व समवेत हैं। कविने आरम्भमें ही कहा है-
द्रव्यं फलं प्रकृतमेव हि सप्रभेदं
क्षेत्रं च तीर्थमथ कालविभागभावौ।
अङ्गानि सप्त कथयन्ति कथाप्रवन्धे
तैः संयुत्ता भवति युक्तिमती कथा सा।। -वरानचरितम् १/६
स्पष्ट है कि कविने इसे धर्मकथा- पौराणिक कथाकाव्य कहकर इसमें पुराणके सात अंगोंका समावेश किया है। कथा सर्गबद्ध है तथा कथामें नाटकको सन्धियोंका नियोजन भी है। आरम्भसे बराङ्गके जन्म तकको कथामें मुख सन्धिका नियोजन है। वरांगका युवराज होना और ईर्ष्यांका पात्र बनना प्रति मुख-सन्धि है। घोड़े द्वारा उसका अपहरण, कुंए में गिराया जाना, कुँएसे निकल कर बाहर आना, व्याघ्र, भिल्ल आदिके आक्रमणोंसे उसका रक्षित रहना तथा कुमार बराङ्गका सागरदत्त सेठके यहाँ गुप्तरूपसे निवास करना, बकुलाधिप का उत्तमपुर पर आक्रमण करना और कुमार द्वारा प्रतिरोध करने तककी कथावस्तुमें गर्भसन्धि है। इस सन्धिमें फल छिपा हुआ है और प्राप्त्याशा और पताकाका योग भी वर्तमान है। कुमारकी दिग्विजय, राज्यस्थापना तथा प्रतिद्वन्द्वी सुषेण द्वारा शत्रुताका त्याग नियताप्ति है। दिग्विजयके कारण विरोधियोंका उन्मूलन, समृद्धि और अभ्युदयके साधनोंके सद्भावके कारण, आत्मकल्याणके साधनोंका विरलत्व, जिनालय-निर्माण और जिनबिम्बप्रतिष्ठाके सम्पन्न होने पर भी निर्वाणरूप फलकी प्राप्तिकी असन्निकटता फल प्राप्तिमें बाधक है। अतएव इस स्थित्तिको विमर्शसन्धिकी स्थिति कहा जा सकता है। वाराङ्गका विरक्त होकर तपश्चरण करना और सदगतिलाभ निर्वहणसन्धि है। अतः सामान्यत: कथावस्तुमं सवटन सन्निहित है, पर चतुर्थ सर्गसे दशम सर्ग पर्यन्त तथा २६वे और २७चे सर्गकी कथावस्तुका मुख्य कथासे कोई सम्बन्ध नहीं है। इन सर्गोके हटा देने पर भी, कथावस्तुमें कोई कमी नहीं आती है। ये सगै केवल जैन सिद्धान्तके विभिन्न तत्वोंका प्रतिपादन करने के लिये ही लिखे गये हैं।
यक्षिणीका आगमन और कुमारका अजगरसे रक्षा करना, हाथीकी सहायतासे व्याघ्रसे बचना आदि अलौलिक तत्व हैं। इसी प्रकार घोड़े द्वारा कुमार का अपहरण, मन्त्र द्वारा भिल्लराजके पूत्रका निर्विषीकरण प्रभृति आदि अप्राकृतिक तत्व भी समाविष्ट हैं। प्रकृतिचित्रण और वस्तुव्यापारवर्णन में कवि प्रत्येक वस्तुको सूक्ष्म-से-सूक्ष्म विगत देता हुआ दृश्योंका तांता बाँधता चलता है। युद्ध, अटवी आदिके वर्णन तो वाल्मीकि और व्यासके समान सांगोपांग हैं। चरित्र-चित्रणमें कवि आवृत्ति, अनुप्रास आदिका प्रयोग करता तथा सदुपदेश प्रस्तुत करता हुआ आगे बढ़ता है। वस्तुचित्रणका निम्नलिखित उदाहरण दृष्टव्य है-
जलप्रभाभिः कृतभूमिभागां प्राचीनदेशोपहितप्रवालाम्।
सर्वार्जनोपात्तकपोलपाली वैडूर्यसव्यानवती परायाम्।।
हेमोत्तमस्तम्भवृतां विशालां महेद्रनीलप्रतिबद्धकुम्माम्।
तां पारागोपगृहीतकण्ठा विशुद्धरूपोन्नतचारुकूटाम्॥
द्विजातिवक्त्रोद्गलितपलब्धां मुक्ताकलापच्छुरितान्तरालाम्।
मन्दानिलाकम्पिचलत्पताकामात्मप्रभाहो पित्तसूर्यभासम्।।
नानाप्रकारोज्जवलरत्नदण्डां विलासिनोधारितचामराह्वाम्।
आरुह्य कन्यां शिविका पृथुश्रीः पुरौं विवेशोत्तमनामधेयाम्॥
पालकीका घरातल पानीके समान रंगोंका बनाया गया था, फलतः वह जलकुण्डकी भ्रान्ति उत्पन्न करता था। उसकी वन्दनवारमें लगे हए मूंगे दूर देशसे लाये गये थे। उसके कबूतरों युक्त छज्जे बनानेमें तो सारे संसारका धन ही खर्च हो गया था। उसकी छत वैदूर्य मणियोंसे निर्मित थी। स्वर्ण निर्मित स्तम्भों पर महेन्द्रनीलमणिके कलश तथा ऊपरी भाग पद्मरागमणिसे खचित था और रजतके कलश सुशोभित थे। ऊपरी भागमें मणियोंके पक्षी बने थे, जिसके मुखसे गिरते हुए मुक्ताफल चित्रित किये गये थे। पालकी का मध्यभाग मुक्तामणियों से व्याप्त था। ऊपर लगी हुई पताकाएँ लहरा रही थी। उठानेके दण्डोंमें नाना प्रकारके रत्न जटित थे।
स्पष्ट है कि कल्पनाके ऐश्वर्य के साथ-साथ कविका सूक्ष्म निरीक्षण भी अभिनन्दनीय हैं। पालकोंके स्तम्भों पर ऊपर और नीचे दोनों और कलशोंका विवेचन, कविको दष्टिकी गागरुकताका परिचायक है। यद्यपि इस प्रकारके वर्णन कान्यकी रसपेशलताको वृद्धि नहीं करते, तो भी वर्णनको मंजुल छटा विकीर्ण कर पाठकोंको चमत्कृत करते हैं।
कल्पना और वर्णनोंके स्रोत कविने वाल्मीकि और अश्वघोषसे ग्रहण किये हैं। वाल्मीकि रामायण में जिस प्रकार शूर्पणखा राम-लक्ष्मणसे पति बननेको प्रार्थना करता है, उसी प्रकार पक्षिणी इस काव्यमें वराङ्गसे। निश्चयतः इस कल्पनाका स्रोत वाल्मीकि रामायण है।
वर्णन, धाभिक, तथ्य और काव्य चमत्कारोंके रहने पर भी कविने रसाभि व्यक्तिमें पुरा कौशल प्रदर्शित किया है। वराङ्ग और उसकी नवोढा पत्नियोंकी केलिक्रीड़ाओके चित्रणमें संभोग-शृंगारका सजीव रूप प्रस्तुत किया गया है। कविने त्रयोदश सर्ग में वीभत्स रसका बहुत ही सुन्दर निरूपण किया है। पुलिन्दका वस्तीमें जब कुमार वराङ्ग पहुँचा, तो उसे वहीं पुलिन्दराजके झोपड़ेके चारों ओर हाथियोंके दांतोंकी बाइ, मृगोंको अस्थियोंके ढ़ेर, मांस और रक्तसे प्लावित शवों द्वारा उसका अच्छादन, बैठनेके मण्डपमें चर्वी, आंतें, नसनाड़ियोंके विस्तार तथा दुर्गन्ध पूर्ण वातावरण मिला। कविने यहाँ पुलिन्दराजके झोपड़ेको वीभत्सताका मूर्तरूप चित्रित किया है। पुलिन्दके भीषण कारागारका चित्रण भी कम वीभत्सता उत्पन्न नहीं करता है।
कविने चतुर्दश सगमें वीररसका पूर्ण चित्रण किया है। पुलिन्दराजके साथ उसके सम्पन्न हुए युद्धका समस्त विभाव और अनुभावों सहित निरूपण किया गया है।
इस काव्यमें वसन्ततिलका, उपजाति, पुष्पित्ताग्रा, प्रहर्षिणी, मालिनी, भुजंगप्रयात, वंशस्थ, अनुष्टुप, मालभारिणी और द्रुतविलम्बित छन्दोंका प्रयोग हुआ है। कविको उपजाति छन्द बहुत प्रिय है। भाषामें जहाँ पाङित्य है, वहाँ व्याकरण-स्खलन भी पाया जाता है। इस काव्यके प्रारम्भके तीन सर्गोंमें कविकी अपूर्व काव्यप्रतिभा परिलक्षित होती है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara- 2
Acharya Shri Jatasinhnandi- 7th - 8th Century A.D.(Prachin)
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