हैशटैग
#jinsendwitiyamaharaj
आचार्य जिनसेन द्वितीय, श्रुतधर और प्रबुद्धाचार्योक बीचकी कड़ी होनेके कारण इनका स्थान सारस्वताचार्यों में परिगणित है। ये प्रतिभा और कल्पनाके अद्वितीय धनी हैं। यही कारण है कि इन्हें "भगवत् जिनसेनाचार्य' कहा जाता है। श्रुत या आगम ग्रन्थोंकी टीका रचनेके अतिरिक्त मूलग्रन्थरचयिता भी हैं। इनका पाण्डित्य साहित्य-गगनमें भास्करके समान निरन्तर प्रकाशित है।
इनके वैयक्तिक जीवनके सम्बन्धमें विशेष जानकारी अप्राप्त है। जयधवला टीकाके अन्त में दो गयी पद्य-रचनासे इनके व्यक्तित्वके सम्बन्ध में कुछ जानकारी प्राप्त होती है। इन्होने बाल्यकालमें (अबिद्धकर्ण-कर्णसंस्कारके पूर्व) ही जिनदीक्षा ग्रहण कर ली थी। कठोर ब्रह्मचर्यकी साधना द्वारा वाग्देवीको आराधनामें तत्पर रहे। इनका शरीर कृश था, आकृति भी भव्य और रम्य नहीं थी। बाह्य व्यक्तित्वके मनोरम न होनेपर भी तपश्चरण, ज्ञानाराधन एवं कुशाग्र बुद्धिके कारण इनका अन्तरङ्ग व्यक्तित्व बहुत्त ही भव्य था। ये ज्ञान और अध्यात्मके अवतार थे। इनको जन्म देनेका गौरव किस जाति-कुलको प्राप्त हुआ, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता।
जिनसेन मूलसंघके पञ्चस्तूपान्वयके आचार्य हैं। इनके गुरुका नाम वीरसेन और दादागुरुका नाम आर्यनन्दि था| वीरसेनके एक गुरुभाई जयसेन थे। यही कारण है कि जिनसेनने अपने आदिपुराणमें 'जयसेन'का भी गुरुरूपमें स्मरण किया है। जिनसेनके सतीर्थ दशरथ नामके आचार्य थे। उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें गुणभद्राचार्य ने बताया है कि जिस प्रकार चन्द्रमाका सधर्मी सूर्य होता है, उसी प्रकार जिनसेनके सधर्मी या सतीथं दशरथ गुरु थे,जो कि ससारके पदार्थोंका अवलोकन करानेके लिए अद्वितीय नेत्र थे। इनकी वाणीसे जगत्का स्वरूप अवगत किया जाता था।
जिनसेन और दशरथ गुरुका सुप्रसिद्ध शिष्य गुणभद्र हुआ, जो व्याकरण, सिद्धान्त और काव्यका परगामी था। गुणभद्रने आदिपुराणके अवशिष्ट अंशको आरम्भ करते समय जिनसेनके प्रति अपनी बड़ी भारी श्रद्धा-भक्ति समर्पित की है तथा उनके ज्ञान-चरित्रकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा की है।
जिनसेनका चित्रकूट, बंकापुर उस समय वनवास देशकी राजधानी था, जो वर्तमानमें धारवाड़ जिलेमें है। इसे राष्ट्रकूट अकालवर्षके सामन्त लोकादित्यके पिता वंकेयरसने अपने नामसे राजधानी बनाया था। बटग्राम और बटपदको एक मानकर कुछ विद्वान् बड़ौदा को बटग्राम या बटपद काहते हैं। चित्रकूट भी वर्तमान चित्तौड़से भिन्न नहीं है। इसी चित्रकूट में एलाचार्य निवास करते थे, जिनके पास जाकर वीरसेनस्वामीने सिद्धान्तग्रन्थों का अध्ययन किया था।
जिनसेनके समयमै राजनीतिक स्थिति सुदृढ़ थी तथा शास्त्रसमुन्नतिका यह युग था। इनके समकालीन नरेश राष्ट्रकूटवंशी जयतुङ्ग और नृपतुङ्ग अपरनाम अमोघवर्ष (सन् ८१५-८७७ ई.) थे| इनकी राजधानी मान्यखेटमें उस समय विद्वानोंका अच्छा समागम था। अमोघवर्ष स्वयं कवि और विद्वान था। उसने 'कविराजमार्ग' नामक एक अलारविषयक ग्रन्थ कन्नड़ भाषामें लिखा है। अमोघवर्ष जिनसेनका बड़ा भक्त था। महावीराचार्य के 'गणितसार संग्रह’ और संस्कृतकाव्य प्रश्नोत्तर रत्नमाला के उल्लेखोंसे स्पष्ठ है कि अमोघवर्षने जैन दीक्षा ग्रहण कर ली थी। अमोघवर्ष के समयमें केरल, मालवा, गुर्जर और चित्रकूट भी राष्ट्रकूट राज्य में सम्मिलित थे। श्री पं. नाथूरामजी प्रेमीका अनुमान है कि बड़ौदा भी अमोघवर्ष के राज्य में सम्मिलिन था। आततेन्द्र कोई राष्ट्रकूट राजा या सामन्त रहा होगा, जिनके मन्दिरमे धवलाटीका लिखो गयी। अतएव जिनसेनका सम्बन्ध चित्रकूटके साथ रहने तथा अमोघवर्ष द्वारा सम्मानित होनेसे इनका जन्मस्थान महाराष्ट्र और कर्णाटककी सीमाभूमिको अनुमानित किया जा सकता है।
श्रवणबेलगोलाके अभिलेखोंमें जिनसेनके उल्लेख अनेक स्थानों पर आये हैं। अभिलेखसंख्या ४७, ५०, १०५ और ४२२ में जिनसेनका निर्देश आया है।
मेघचन्द्र प्रशस्तिमें लिखा है-
"सिद्धंत नि वीरसेन गाभा -मस्कार:।"
जीयाज्जगत्यां जिनसेनसूरियस्योपदेशोज्जवलदर्पणेन।
व्यक्तीकृतं समिदं विनेयाः पुण्यं पुराणं पुरुषा विदन्ति।।
विनय भरण-पात्रं भव्यलोकमित्र विबुभनुतचरित्रं तद्गणेन्द्रागपुत्र।
विहितभुवनभद्रं वीतमोहोनिद्रं विनमत गुणभद्रं तीविद्यासमुद्रं॥
इन दोनों पद्योंमें जिनसेन और गणभद्र दोनोंकी प्रशंसा की गयी है। जिनसेनके उपदेशसे गुणभद्रने अवशिष्ट आदिपुराणको पूर्ण किया और उत्तरप्पुराणकी रचना की है। अभिलेख संख्या ४२२ में जिन जिनसेनका नाम आया है वे आचार्य जिनसेन द्वितीयसे भिन्न कोई भट्टारक हैं। अतः अभिलेखोंसे यह स्पष्ट है कि जिनसेन द्वितीय सिद्धान्त, पुराण और काव्यरचनामें अत्यन्त पटु थे। इनकी कविता-निर्झरिणीके सीकरोंसे सन्तुष्ट भन्यजन आनन्दमें मग्न होने लगते हैं। सरस्वतीका यह लाड़ला अपने युगका महान् विद्वान् और आचार्य है।
अभिलेख में जो जिनसेनके उपदेशको बात कही गयी है उसकी पुष्टि महा पुराणके मङ्गलपद्योंसे भी होती है। उन्होंने मङ्गलाचरणमें ही यह निर्देश कर दिया है कि यदि मेरे द्वारा यह ग्रन्थ पूर्ण न हो सके तो तुम (गुणभद्र) इसे पूर्ण करना। अतः अभिलेखोंका सम्बन्ध जिनसेनाचार्यके साहित्य के साथ भी घटित हो जाता है।
हरिवंशपुराणके रचयिता जिनसेन प्रथमने वीरसेन और जिनसेनका उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है-
जितात्मपरलोकस्य कवीना चक्रवर्तिनः।
वीरसेनगुरोः कीर्तिरकलकावभासते।।
यामिताभ्युदये पाश्वे जिनेन्द्रगुणसंस्तुतिः।
स्वामिनो जिनसेनस्य कीर्ति सङ्गीतंयत्यसौ।।
वर्धमानपुराणोद्यदादित्योक्तिगभस्तयः।
प्रस्फुरन्ति गिरीशान्तः स्फुटस्फटिकभित्तिषु।।
जिन्होंने परलोकको जीत लिया है और जो कवियोंके चक्रवर्ती हैं उन वीरसेनगुरुकी कलंकरहित कीर्ती प्रकाशित हो रही है। जिनसेनस्वामीने पार्श्वनाथ भगवानके गुणोंकी स्तुति बनायी है- पार्वाभ्युदयकी रचना की है, वही स्तुति उनकी कीर्त्तिका वर्णन कर रही है। इन जिनसेनके वर्धमानपुराण रूपी उदित होते हुए सूर्यकी उक्तिरूपी रश्मियों विद्वद् पुरुषोंके अन्तःकरण रूपी स्फटिक-भूमिमें प्रकाशमान हो रही है।
उक्त सन्दर्भ में प्रयुक्त 'अवभासते', 'सङ्कीर्तयति', 'प्रस्फुरन्ति' जैसे वर्तमानकालिक क्रियापद हरिवंशपुराणके रचयिता जिनसेनका इनको समकालीन सिद्ध करते हैं। हरिवंशपुराणकी रचना शक संवत् ७३५ (ई. सन् ७८३) में पूर्ण हुई है। अतः जिनसेनस्वामीका समय ई. सन्की आठवीं शतीका उत्तरार्ध है। जयधवलाटीकाको प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि इसकी समाप्ति जिनसेनने शक संवत् ७५९ फाल्गुन शुक्ला दशमीके पूर्वाहमें की है। इस टीकाको वीरसेनस्वामीने प्रारम्भ किया था, पर वे ४० हजारश्लोकप्रमाण ही लिख सके थे। अपने गुरुके इस अपूर्ण कार्यको जिनसेनने पूर्ण किया है। जिनसेनने आदिपुराणका प्रारम्भ अपनी वृद्धावस्था में किया होगा। इसी कारण वे इसके ४२ पर्व ही लिख सके। अतः जयधवलाटीकाके अनन्तर आदिपुराणकी रचना माननेसे जिनसेनका अस्तित्व ई. सन्की नवम् शती तक माना जा सकता है। गुणभद्रने उत्तरपुराणकी समाप्ति ई. सन् ८९७में की है।
यह पहले ही लिखा जा चूका है की जिनसेनाचार्य के शिष्य गुणभद्रने आदिपुराणके ४३ वे पर्वके चतुर्थ पद्यसे समाप्तिपर्यन्त कुल १६२० श्लोक रचे हैं। महापुराणके द्वितीय भागस्वरूप उत्तरपुराणको गुणभद्रने पूर्ण किया है। आदिपुराण में आदितीर्थका जीवनवृत्त है और उत्तरपुराणमें अजितनाथ ते महावीरपर्यन्त २३ तीर्थर, १२ चक्रवर्ती, ९ नारायण, ९ बलभद्र और ९ प्रतिनारायण तथा जीवन्धर स्वामी आदि विशिष्ट पुण्यात्मा पुरुषोंके कथानक अंकित किये गये हैं। उत्तरपुराणके अन्तमें गुणभद्रके शिष्य लोकसेन द्वारा लिखित प्रशास्तसे ज्ञात होता है कि शक संवत ८२०, श्रावण शुक्ला पंचमी गुरुवारको इस ग्रंथकी पूजा भी गयी। अत: उत्तरपुराणकी समाप्ति इससे पहले होनी चाहिये। इस प्रकार गुणभद्रका समय भी ई. सन्की दशम शताब्दि मानने में किसी प्रकारकी बाधा नहीं आती है। वास्तवमें वीरसेन, जिनसेन और गुणभद्र-इन तीनों आचार्यो का साहित्यिक व्यक्तित्व अत्यन्त महनीय है और तीनों एक दूसरेके अनुपूरक हैं। वीरसेनके अपूर्ण कार्यको जिनसेनने पूर्ण किया है और जिनसेनके अपूर्ण कार्यको गुणभद्रने।
जिनसेनाचार्य काव्य, व्याकरण, नाटक, दर्शन, अलङ्कार, आचार, कर्म सिद्धान्त प्रभृति अनेक विषयों के बहुज विद्वान थे। इनकी केवल तीन ही रचनाएँ उपलब्ध हैं। वर्धमानचरितकी सुचना अवश्य प्राप्त होती है, पर यह कृति अभी तक देखने में नहीं आयी है।
१. पार्श्वाभ्युदय
२. आदिपुराण
३. जयधवलाटीका
१. पार्श्वाभ्युदय
यह कालिदासके मेघत नामक काव्यकी समस्यापूति है। इसमें कहीं मेघदूतके एक और कहीं दो पादोंको लेकर पद्य-रचना की गयी है। इस काव्य ग्रन्थमें सम्पूर्ण मेघदूत समाविष्ट है। अतः मेघदूतके पाठशोधनके लिए भी इस ग्रन्थका मूल्य कम नहीं है।
दीक्षा धारण कर तीर्थकर पार्श्वनाथ प्रतिमायोगमें विराजमान हैं। पूर्व भवका विरोधी कमठका जीव शम्बर नामक ज्योतिष्कदेव अवधिज्ञानसे अपने शत्रुका परिज्ञान कर नानाप्रकारके उपसर्ग देता है। इसी कथावस्तुकी अभिव्यञ्जना पार्श्वाभ्युदय में की गयी है। शृंगाररससे ओत-प्रोत मेघदूतको शान्तरसमें परिवर्तित कर दिया गया है। साहित्यिक दृष्टिसे यह काव्य बहुत सुन्दर और काव्यगुणोंसे मंडित है। इसमें चार सर्ग हैं- प्रथम सर्गमें ११८, द्वितोय सर्गमें ११८, तृतीयमें ५७ और चतुर्थमें ७१ पद्य हैं। इस काव्यमें शम्बर (कमठ) यक्षके रूपमें कल्पित है। कविता अत्यन्त प्रौद्ध एवं चमत्कार पूर्ण है। यहाँ उदाहरणार्थ एक-दो पद्य उद्धृत किये जाते हैं-
तन्त्रीमाद्री नयनसलिलैं: सारयित्वा कथंचित्त
स्वाङ्गल्यग्रे: कुसुममृदुभिर्वल्लरीमस्पृशन्ती।
ध्यायं ध्याय त्वदुपगमनं शून्यचिन्तानुकष्ठी,
भूयोभूयः स्वयमपि कृता मूर्छनां विस्मरन्ती।।
आम्रकूट पर्वतके शिखर पर मेघके पहुंचने पर कवि पर्वत-शोभाका वर्णन करता हुआ कहता है-
कृष्णाहिः किं बलयिततनु: मध्यमस्याधिशेते;
कि वा नीलोत्पलविरचितं शेखरं भूभृतः स्यात्।
इत्याशङ्का जनयति पुरा मुग्धावद्याधरीणां,
त्वाय्यारूढे शिखरमचल: स्निग्धवेणीसवर्णे॥
समस्यापूर्तिमें कविने सर्वथा नवीन भावयोजना की है। मार्गवर्णन और वसुन्धराकी विरहावस्थाका वर्णन मेघदूत के समान ही है। परन्तु इसका संदेश मेघदूतसे भिन्न है। शम्बर पार्श्वनाथके धैर्य, सौजन्य, सहिष्णुता और अपार शक्तिसे प्रभावित होकर स्वयं वैरभावका त्याग कर उनकी शरणमें पहुँचता है और पश्चात्ताप करता हुआ अपने अपराधकी क्षमायाचना करता है। कविने काव्यके बीचमें “पापापाये प्रथममुदितं कारणं भक्तिरेव' जैसी सूक्तियोंकी भी योजना की है। इस काव्यमें कुल ३६४ मन्दाक्रान्ता पद्य हैं।
२. आदिपुराण
यह आकर ग्रन्थ है। पुराण होते हुए भी इसमें इतिहास, भूगोल, संस्कृति समाज, राजनीति और अर्थशास्त्र आदि विषय भी समाविष्ट हैं। जिनसेनने पुराणके लिए आठ वर्ण्य विषय बतलाये हैं।
१. लोक- लोक-संस्थान, लोक-आकृति, क्षेत्रफल, मेद एवं उर्ध्व, मध्य और अधोलोकका वर्णन, क्षेत्र, द्वीप, पर्वत, नदी आदिका वर्णन।
२. देश- जनपदोंका चित्रण।
३. नगर- अयोध्या, वाराणसी प्रभृति नगरियोंका चित्रण।
४. राज्य- राज्योंकी समृद्धिका चित्रण।
५. तीर्थ- धर्मप्रवृत्ति एवं तीर्थभूमियोंका निरूपण।
६. दान-तप- तप-दानकी फलोत्पादक कथाओंका वर्णन।
७. गति- चतुर्गतिके दुःखोंका वर्णन।
८. फल- पुण्य-पापके फलके साथ मोक्षप्राप्तीका निरूपण।
इन आठ विषयों के अतिरिक्त आदिपुराणमें निम्नलिखित पौराणिक तत्व भी विद्यमान हैं-
१. शलाकापुरुषों के कथानकसंयोगोंका दैवी घटनाओं पर आश्रयण।
२. आख्यानोंमें सहसा दिशापरिवर्तन।
३. समकालीन सामाजिक समस्याओंका उद्घाटन।
४. पारिवारिक जीवन के कटु-मधु चित्र।
५. संवाद-तत्त्वकी अल्पता रहनेपर भी घटनासूत्रों द्वारा आख्यानोंमें गसिमत्वधर्मकी उत्पत्ति।
६. कथाओंके मध्यमें पूर्वजन्मके आख्यानोंका समवाय, धर्मतत्व और धर्मसिद्धान्तोंका नियोजन।
७. रोचकता मध्यबिन्दु तक रहती है। अत: आगेकी कथावस्तुमें सघनता और घटनाओंका बाहुल्य।
८. अलंकृत वर्णनोंके साथ लोकतत्त्व और कथानकरूढ़ियोंका प्रयोग।
९. लोकानुश्रुतियां, पुराणगाथाएँ, लोकविश्वास प्रभृतिका संयोग।
१०. प्रेम, शृंगार, कुतुहल, मनोरंजन, रहस्य एवं धर्मश्रद्धाका वर्णन।
११. जनमानसका प्रतिफलम, पूर्वजन्मके संस्कार और फलोपभोगोंकी तरलताका चित्रण।
आदिपुराणकी कथा-वस्तुके प्रधान नायक आदि तीर्थंकर ऋषभदेव और उनके पुत्र भरतचक्रवर्ती हैं। इन दोनों शलाकापुरुषोंके जीवनसे सम्पर्क रखनेवाले कितने ही अन्य महापुरुषोंको कथाएँ भी आयी हैं। इस महाग्रंथकी कथा वस्तु ४७ पव में विभक्त है। प्रथम दो पर्वो में कथाके वका, श्रोता एवं पुराण श्रवणका फल आदि वर्णित है। तृत्तोय पर्व में उत्सर्पण और अवसपंगा कालाके सुषमसुप्रमादिभेदों एवं भोगभूमिकी व्यवस्थापर प्रकाश डाला गया है। प्रति श्रुति आदि कुलकरोंकी उत्पत्ति, उनके कार्य और उनकी आयु आदिका वर्णन आया है। अन्तिम कुलकर नाभिरायके समयमें गगनाङ्गगमें सर्वप्रथम घनघटा, विद्युत् प्रकाश और सूर्य की स्वर्णरश्मियोंके सम्पर्कसे उसमें रंग-बिरंगे इन्द्रधनुष दिखलायी पड़ते हैं। वर्षा होती है और वसुधातल जलमय हो जाता है। मयूर नृत्य करने लगते हैं और चिरसंत चातक सन्तोषकी साँस लेता है। कल्पवृक्ष नष्ट हो जाते हैं और विविध प्रकारके धान्य अपने-आप उत्पन्न होने लगते हैं। कल्पवृक्षोंके न रहनेसे प्रजामें व्याकुलता व्याप्त हो जाती है और सभी लोग आजीविकाविहीन दुःखी हो, नाभिरायके पास जाकर निर्वाह योग्य व्यवस्था पूछते हैं।
नाभिराय चौदहवें कुलकर-मनु थे। उन्होंने धान्य, फल, इक्ष, रस आदि उपयोग करने के विधि बतलायी तथा मिट्टीकि बर्त्तन बनाकर आवश्यकताकी पूर्ति करनेका उपदेश दिया। प्रजामें सुख और शान्ति बनाये रखने के लिए दण्डव्यवस्था भी प्रतिपादित की | इसी पर्वमें सभी कुलकरोंके कार्यों का वर्णन आया है। चतुर्थ पर्वमें पुराणके वर्णनीय विषयोंका प्रतिपादन करनेके अनन्तर जम्बूद्वीपके विदेह क्षेत्र अन्तर्गत गन्धिलदेश और उसकी अलकानगरीका चित्रण आया है। इस नगरीके अधिपति अतिबल विद्याधर और उसकी मनोहरा नामक राज्ञीका वर्णन किया है। इस दम्पतिके महाबल नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। अतिबल विरक्त होकर दीक्षित हो गया और महाबलको शासनभार प्राप्त हुआ। महाबलके महामति, सम्भिन्नति, शतमति और स्वयंबुद्ध ये चार मन्त्री थे। राजा मन्त्रियोंके ऊपर शासनभार छोड़कर भोगोपभोगोंके सेवनमें आसक्त हो गया।
पंचम पर्वमें महाबलकी विरक्ति और सलेखनाका निरूपण किया है। २२ दिनोंकी संलेखनाके प्रभावसे महाबल ऐशान स्वर्गमें ललितांग नामका महद्धिक देव होता है। षष्ठ पर्वमें आयुके छ: मास शेष रहनेपर ललितांग दुःखी होता है, पर समझाये जानेपर बह अच्युत स्वर्गकी जिनप्रतिमाओंका पूजन करते करते चैत्य वृक्ष के नीचे पंचनमस्कार मन्त्रका जाप करते-करते स्वर्गकी आयुको पूर्ण करता है। ललितांग स्वगसे च्युत हो, पुलावति देशके उत्पल खेट नगरके राजा बज्रवाह और रानी वसुन्धराके गर्भसे बनजंच नामका राजपुत्र होता है। ललितांगको प्रिया स्वयंप्रभा पुण्डरोकिणी नगरीके राजा वनदन्तके यहाँ श्रीमती नामकी पुत्री होती है। यशोधर गरुके कैवल्यमहोत्सव के लिए देवोंको आकाशमें जाते देखकर श्रीमतीको पूर्व भबका स्मरण हो आता है और वह अपने प्रिय ललितांगदेवको प्राप्त करने के लिए कृत्संकल्प हो जाती है। पंडित्तात्राय उसकी सहायता करती है। वह श्रीमती द्वारा निर्मित पूर्वभव के प्रतीकोंसे युक्त चित्रपटका लंकर उत्पलखेटके महापूत जिनालयमें पहुँचता है। यहांपर चित्रपटको फैला देता है। दर्शकवृन्द उसे देखकर चकित हो जाते हैं, पर उसके यथार्थ रहस्यसे अनभिज्ञ ही रहते हैं।
सप्तम पर्व में बताया गया है कि ललितांगदेवका जीव वज्रनजंघ महापूत चन्यालयमें आता है, और उस चित्रपटको देखते ही, उसे अपने पूर्वजन्मका स्मरण हो जाता है, जिससे वह अपनी प्रिया स्वयंप्रभाको प्राप्त करने के लिए बेचैन हो जाता है। पण्डिताधायको वह भी एक चित्रपट भेंट करता है, जिसमें स्वयंप्रभाके जीवनरहस्यको अंकित किया गया है। वचन पुण्डरीकिणी नगरी में आता है और श्रीमतीके साथ उसका विवाह हो जाता है। ललितांगदेव और स्वयंप्रभा पुनः वज्रजंघ और श्रीमतीके रूप में सयोगको प्राप्त करते है।
अष्टम पर्व में वज्रजंघ और पानी के भोगपभोगोंका वर्णन किया गया है। वज्रजंघका श्वसुर वज्रदन्त चक्रवर्ती कमलमें बन्द मृत भ्रमरको देखकर विरमत हो जाता है। पुत्र अमिततेजके द्वारा शासन स्वीकृत न किये जानेपर वह उसके पुत्र पुण्डरीकको राज्य देकर यशोधर मुनिके समक्ष अनेक राजाओंके साथ दीक्षित हो जाता है। पण्डिताधाय भी दीक्षित हो जाती है। चक्रवर्तीकी पत्नी लक्ष्मीमूर्ती पुण्डरीकको अल्पवयस्क जानकर राज्य सम्भालने के लिए अपने जामाता वज्रजंघको बुलाती है। वज्रजंघ अपनी प्रीया श्रीमतीके साथ पुण्डरीकिणी नगरीको प्रस्थान करता है। वह मार्गमें चारणऋद्धिधारी मुनियोंको आहारदान देता है। वह दमधर नामक मुनिराजसे अपने भवान्तर जानना चाहता है, मुनिराज उसे आठवें भवमें तीर्थकर होने तथा श्रीमतोको दानतीर्थ का प्रवर्तक श्रेयांस होने की भविष्यवाणी करते हैं। वज्रजंघ पुण्डरीकिणी नगरमें पहुंचकर सबको सान्त्वना देता है और अपने नगरमें लौट आता है।
नवम पर्व के प्रारम्भमें भागोपभोगोंका चित्रण आया है। एक दिन वज्रजंघ और श्रीमती शयनागारमें शयन कर रहे थे, सुगन्धित द्रव्यका धूम्र फैलनेसे शायनागार अत्यन्त सुवासित हो रहा था। सयोगवश द्वारपाल उस दिन गयाक्ष खोलना भल गया, जिससे श्वास रुक जाने के कारण उन दोनोको मृत्यु हो गयी। पात्रदानके प्रभावसे दोनों उत्तरकुरुमें आर्य-आर्या हुए। प्रीतिकर मुनिराज के सम्पर्कसे आर्य मरण कर ईशान स्वर्ग में श्रीधर नामका देव हुआ। आर्या भी उसी स्वर्ग में देवी हुई।
दशम पर्वके प्रारम्भमें प्रीतिकरके केवलज्ञान-उत्सवका वर्णन आया है। श्रीधर भी इस उत्सवमें सम्मिलित हुआ। अन्त में वह स्वर से च्युत होकर जम्बूद्वीपके पूर्व विदेहकी सुषमा नगरी में सुदष्टि राजाकी सुन्दरनन्दा नामक रानीके गर्भसे सुविधि नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। यह चक्रवर्ती राजा हुआ और श्रीमती का जीव केशव नामक इसका पुत्र हुआ। सुविधि पुत्रके अनुरागके कारण मुनि न बन सका, पर धरपर ही श्रावकके व्रतोंका पालन कर सन्यासके प्रभावसे सोलहवें स्वर्गमें अच्युतेन्द्र हुआ।
एकादश पर्वम अच्यतेन्द्र के पर्याय वज्रनाभिका वर्णन आया है। वचनाभि चक्ररत्नकी प्राप्तिके अनन्तर दिग्विजयके लिए प्रस्थान करता है। राज्यको समृद्ध करने के पश्चात् वह दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारणभावनाओंका चितन कर तीर्थकरप्रकृतिका बन्ध करता है। अन्त में प्रायोपगमन सन्यास धारण कर सर्वार्थसिद्धि विमानमें उत्पन्न होता है।
द्वादश पर्व में अहमिन्द्रका जीव ऋषभदेवके रूप में नाभिराय और मरुदेवीके यहाँ जन्म धारण करता है। इस पर्वमें मरुदेवीकी गर्भावस्था और देवियोंकी की गयी सेवांका वर्णन कीया गया है।
त्रयोदशा पर्वमें आदितीर्थंकर ऋषभदेवका इन्द्र द्वारा जन्माभिषेक उत्सवके किये जाने का निरूपण आया है। उनका सुमेरु पर्वतपर एक हजार आठ कलशों के द्वारा अभिषेक सम्पन्न होता है। चतूदश पर्व में इन्द्राणी बालकको वस्त्रा भषणोंसे सुसज्जित कर माताको सौंप देसी है। इन्द्र ताण्डवनृत्य कर उनका ऋषभदेव नाम रखता है।
पञ्चदश पर्व में ऋषभदेव के शारीरिक सौन्दर्य और उनके एक हजार आठ शुभ लक्षणोंका वर्णन आया है। महाराज नाभिराय युवक होनेपर पुत्रसे विवाह करनेका अनुरोध करते हैं। फलस्वरूप कच्छ और महाकच्छकी बहनें यशस्वती और सुनन्दाके साथ ऋषभदेवका विवाह सम्पन्न होता है।
षोड़शपर्वके अनुसार यशस्वतीके उदरसे भरतचक्रवर्तीका जन्म होता है और सुनन्दाके उदरसे बाहुबलीका। ऋषभदेवका यशस्वतीसे अन्य ९८ पुत्र और ब्राह्मी नामक कन्याकी प्राप्ति होती है। सुनन्दासे बाहुबली के अतिरिक्त सुन्दरी नामक कन्यारत्न भी उपलब्ध होती है। ऋषभदेव प्रजाको असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, सेवा और शिल्प इन षट् आजाविकोपयोगी कर्मोंकी शिक्षा देते हैं। त्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णो को व्यवस्था करते हैं ।
सप्तदश पर्वमें ऋषभदेवको विरक्ती प्राप्त करनेके लिए एक मार्मिक घटना घटित होती है। नीलाञ्जना नामक नर्तकी अचानक विलीन हो जाती है। ऋषभदेव इस अघटित घटनाको देखते ही विरक्त हो जाते हैं। स्वर्गसे लौकान्तिकदेव आकर उनके वैराग्यकी पुष्टि करते हैं। वे अयोध्या के पट्टपर भरतका राज्याभिषेक कर अन्य पुत्रोंको यथायोग्य राज्य देते हैं। सिद्धार्थवनमें जाकर परिग्रहका त्यागकर चैत्र कृष्णा नवमीके दिन ऋषभदेव दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। इनके साथ चार हजार अन्य राजा भी दीक्षित हो जाते हैं।
अष्टदश पर्वमें बताया गया है कि ऋषभदेव छ: माहका योग लेकर शिलापट्टपर आसीन हो जाते है। दीक्षा धारण करते ही मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो जाता है। साथमें दीक्षित हुए राजा भ्रष्ट हो जाते हैं और विभिन्न मतोंका प्रचार करते हैं। कच्छ, महाकच्छके पुत्र नमि-विनमि भगवान ऋषभदेवसे कुछ माँगने आते हैं। धरणेन्द्र उन्हें समझाकर विजयार्धपर्वत पर ले जाता है।
एकोनविंश पर्वमें धरणेन्द्र द्वारा नमि-विनमिको विजयार्द्धपर्वतकी नगरियोंका परिचय दिया गया है। विशपर्वमे आदितीर्थंकर ऋषभदेवका एक वर्षके तपः अनन्तर हस्तिनापुर गांराके यहां इक्षुरसका आहार होता है।
एकविंश पर्वमें ध्यानका वर्णन किया गया है। द्वाविंश पर्वमें ऋषभदेवको केवलज्ञानकी प्राप्ति, ज्ञानकल्याणक उत्सव एवं समवशरणका चित्रण आया है। त्रयोविंश पर्व में समवशरणमें इन्द्रने आदि तीर्थंकरकी पूजा-स्तुति की है। चतुर्विश पर्व में भरत द्वारा भगवान ऋषभदेवकी पूजा की गयी है। इसी पर्वमें भगवानको दिव्यध्वनिका भी वर्णन आया है। पंचविंश पर्व में अष्टप्रातिहार्य, चौतीस अतिशय और अनम्तचतुष्टय सुशोभित तीर्थंकरकी स्तुति की गयी है। इस पर्वमें सहस्रनामरूप महास्तवन भी आया है ।
षडविशतितम पर्व में भरत द्वारा चक्ररत्नकी पूजा और पुत्रोत्सव सम्पन्न करनेका वर्णन समाहित है। चक्रवर्ती दिग्विजयके लिए पूर्व दिशाकी ओर प्रस्थान करता है। सप्तविंशतितम पर्वमें गंगा और वन शोभाका वर्णन आया है। अष्टविंशतितम पर्वका आरम्भ दिग्विजयार्थ चक्रवर्तीके सैनिक प्रयाणसे होता है। चक्रवर्तीकी सेना स्थलमार्ग से गंगाके किनारेके उपवन में प्रविष्ट होती है। उसने लवण समुद्रको पार कर मागधदेवको जीता। एकोनत्रिंशत्तम पर्वमें दक्षिण दिशाकी ओर अभियान करनेका वर्णन आया है। त्रिशतितम पर्वमें चक्रवर्ती दक्षिणको विजय कर पश्चिम दिशाकी ओर बढ़ता है और विन्ध्यगिरिपर पहुँचता है। अनन्तर समुद्के किनारे-किनारे जाकर लवण समुद्रके तटपर पहुंचता है।
एकत्रिशत्तम पर्वमें आया है कि अठारह करोड़ घोड़ोंका अधिपति भरत उत्तरकी ओर प्रस्थान करता है और विजयाद्धकी उपत्यकामें पहुँचता है। द्वात्रिंशत्तमपर्वमें विजयार्धके गुहा-द्वारके उद्घाटनके अनन्तर नागजातिको वशमें किये जानेका वर्णन है। चिलात और आवर्त दोनों ही मलेच्छ राजा निरुपाय होकर शरणमें आते हैं।
त्रर्यास्त्रशत्तम पर्वमें बताया है कि भरतचक्रवर्ती दिग्विजय करने के पश्चात् सेना सहित अपनी नगरीमें आता है। मार्गमें अनेक देश, नगर और नदियोंका उल्लंघन कर कैलासपर्वतपर अनेक राजाओंके साथ ऋषभदेवकी पूजा करता है।
चतुस्त्रिशत्तम पर्वमें चक्रवर्ती कैलाससे उतरकर अयोध्याकी ओर बढ़ता है। यहाँ चक्ररत्न नगरीके भीतर प्रविष्ट नहीं होता, निमितज्ञानियों द्वारा भाइयों को विजित करनेकी बात बोलकर भरत उनके पास दूत भेजता है। बाहुबलीको छोड भरतके अन्य सब भाई ऋषभदेवके चरणमलमें जाकर दीक्षित हो जाते हैं।
पचचत्रिशतमपर्वमें बाहुबलिद्वारा भरतका युद्ध-निमन्त्रण स्वीकार कर लिया जाता है। षटत्रिंशत्तमपर्व में भरत और बाहुबलिके नेत्र, जल और मल्लयुद्धका वर्णन आया है। उक्त तीनों युद्धोंमें बाहुबलिको विजयी देखकर भरत कुपित हो चक्ररत्नका उपयोग करते हैं, जिससे बाहुबलि विरक्त हो जिन दोक्षा ग्रहण कर लेते हैं। सप्तत्रिशत्तम पर्वमें चक्रवर्तीके अयोध्या नगरीमें प्रवेश का वर्णन आया है। अष्टत्रिंशत्तम पर्वम भरतद्वारा अणुवर्तियोंको अपने घर बुलाये जानेका उल्लेख आता है। भरत इस सन्दर्भ में ब्राह्मणवर्णकी स्थापना करते हैं। एकोनचत्वारिंशत्तम और एकचत्वारिंशत्तम पर्वोमें क्रियाओं और संस्कारोंका वर्णन आया है। द्विचत्वारिंशत्तम पर्वमें राजनीति और वर्णाश्रम धर्मका उपदेश अंकित है। त्रिचत्वारिंशत्तम और चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्वोमें जयकुमारका सुलोचनाके स्वयंवरमें सम्मिलित होना तथा अन्य राजाओं के साथ युद्ध करनेका वर्णन आया है।
पञ्चचत्वारिंशत्तम पर्वमें जयकुमार और सुलोचनाके प्रेम-मिलनका चित्रण आया है। जयकुमार सुलोचनाको पटरानी बनाता है। षट्चत्वारिंशत्तमपर्वमें जयकुमार और सुलोचनाके अपने पूर्व भवका स्मरणकर मूर्छित होनेका वर्णन आया है। अन्तिम सप्तचत्वारिंशत्तम पर्वमें पूर्वभवावलीकी चर्चा करते हुए कहा है कि जयकुमार संसारसे विरक्त हो जाता है और दीक्षित हो ऋषभदेवके समवशरणमें गणधरपद प्राप्त करता है। चक्रवर्ती भरत दक्षिा ग्रहण करता है, और उसे तत्काल केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है। भगवान् ऋषभदेव अन्तिम विहार करते हैं और कैलासपर्वतपर उन्हें निर्वाणप्राप्ति हो जाती है।
इस प्रकार आदिपुराणमें ऋषभदेवके दस पूर्वभवोंको कथाएँ आयी हैं। दोनों शलाकापुरुषोंका विस्तृत जीवन-परिचय इस पुराण में अंकित है।
इस ग्रन्थके ४२ वर्ष (पर्व) जिनसेनने लिखे हैं और उनकी मृत्यु हो जाने पर शेष पाँच पर्व उनके शिष्य गुणभद्रने लिखे हैं। सम्पूर्ण ग्रन्थ 'महापुराण’ के नामसे प्रसिद्ध है और सुयोग्य गुरु-शिष्यको यह अनुपम कृत्ति मानी जाती है।
३. जयधवलाटीका
कषायप्राभृतके प्रथम स्कन्धकी चारों विभक्तियों पर जयधवला नामकी बीस हजार श्लोकप्रमाण टीका लिखनेके अनन्तर आचार्य वीरसेनका स्वर्गवास हो गया, अत: उनके शिष्य जिनसेनने अवशिष्ट भागपर चालीस हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे पूर्ण किया। यह टीका भी वीरसेनस्वामीकी शैली (संस्कृमिश्रित प्राकृत भाषा) में मणि-प्रवालन्यायसे लिखी गयी है। टीका इस रूपमें लिखी गयी है कि अन्तःपरीक्षणसे भी यह निर्णय नहीं किया जा सकता कि गुरु और शिष्यमसे किसने कितना भाग रचा है। इसीसे जिनसेनाचार्यके वैदुष्य और रचनाचातुर्यका अनुमान किया जा सकता है। इन्होंने जय धवलाकी प्रशस्तिमें लिखा है कि गुरुके द्वारा बहुवक्तव्य पूर्वार्धके प्रकाशित कर दिये जानेपर, उसको देखकर इस अल्पवक्तव्य उत्तरार्धको पूरा किया।
इस टीकाको तीन स्कन्धोंमें विभाजित किया गया है-
१. प्रदेश विभक्ति पर्यन्त स्कंध;
२. उपयोग वित्तीय स्कन्ध एवं
३. शेष भाग तृतीय स्कन्ध है।
इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारके अनुसार संक्रमके पहलेका विभक्तिपर्यन्त भाग वीरसेनस्वामीने रचा है। गणना करनेपर विभक्तिपर्यन्त ग्रंथका परिमाण साढ़े छब्बीस हजार श्लोक है, पर यहाँ गणना स्थूलरूपमें ग्रहणकर बीस हजार प्रमाण कहा गया है। अवशेष टीका जिनसेनस्वामीकी है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
आचार्य जिनसेन द्वितीय, श्रुतधर और प्रबुद्धाचार्योक बीचकी कड़ी होनेके कारण इनका स्थान सारस्वताचार्यों में परिगणित है। ये प्रतिभा और कल्पनाके अद्वितीय धनी हैं। यही कारण है कि इन्हें "भगवत् जिनसेनाचार्य' कहा जाता है। श्रुत या आगम ग्रन्थोंकी टीका रचनेके अतिरिक्त मूलग्रन्थरचयिता भी हैं। इनका पाण्डित्य साहित्य-गगनमें भास्करके समान निरन्तर प्रकाशित है।
इनके वैयक्तिक जीवनके सम्बन्धमें विशेष जानकारी अप्राप्त है। जयधवला टीकाके अन्त में दो गयी पद्य-रचनासे इनके व्यक्तित्वके सम्बन्ध में कुछ जानकारी प्राप्त होती है। इन्होने बाल्यकालमें (अबिद्धकर्ण-कर्णसंस्कारके पूर्व) ही जिनदीक्षा ग्रहण कर ली थी। कठोर ब्रह्मचर्यकी साधना द्वारा वाग्देवीको आराधनामें तत्पर रहे। इनका शरीर कृश था, आकृति भी भव्य और रम्य नहीं थी। बाह्य व्यक्तित्वके मनोरम न होनेपर भी तपश्चरण, ज्ञानाराधन एवं कुशाग्र बुद्धिके कारण इनका अन्तरङ्ग व्यक्तित्व बहुत्त ही भव्य था। ये ज्ञान और अध्यात्मके अवतार थे। इनको जन्म देनेका गौरव किस जाति-कुलको प्राप्त हुआ, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता।
जिनसेन मूलसंघके पञ्चस्तूपान्वयके आचार्य हैं। इनके गुरुका नाम वीरसेन और दादागुरुका नाम आर्यनन्दि था| वीरसेनके एक गुरुभाई जयसेन थे। यही कारण है कि जिनसेनने अपने आदिपुराणमें 'जयसेन'का भी गुरुरूपमें स्मरण किया है। जिनसेनके सतीर्थ दशरथ नामके आचार्य थे। उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें गुणभद्राचार्य ने बताया है कि जिस प्रकार चन्द्रमाका सधर्मी सूर्य होता है, उसी प्रकार जिनसेनके सधर्मी या सतीथं दशरथ गुरु थे,जो कि ससारके पदार्थोंका अवलोकन करानेके लिए अद्वितीय नेत्र थे। इनकी वाणीसे जगत्का स्वरूप अवगत किया जाता था।
जिनसेन और दशरथ गुरुका सुप्रसिद्ध शिष्य गुणभद्र हुआ, जो व्याकरण, सिद्धान्त और काव्यका परगामी था। गुणभद्रने आदिपुराणके अवशिष्ट अंशको आरम्भ करते समय जिनसेनके प्रति अपनी बड़ी भारी श्रद्धा-भक्ति समर्पित की है तथा उनके ज्ञान-चरित्रकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा की है।
जिनसेनका चित्रकूट, बंकापुर उस समय वनवास देशकी राजधानी था, जो वर्तमानमें धारवाड़ जिलेमें है। इसे राष्ट्रकूट अकालवर्षके सामन्त लोकादित्यके पिता वंकेयरसने अपने नामसे राजधानी बनाया था। बटग्राम और बटपदको एक मानकर कुछ विद्वान् बड़ौदा को बटग्राम या बटपद काहते हैं। चित्रकूट भी वर्तमान चित्तौड़से भिन्न नहीं है। इसी चित्रकूट में एलाचार्य निवास करते थे, जिनके पास जाकर वीरसेनस्वामीने सिद्धान्तग्रन्थों का अध्ययन किया था।
जिनसेनके समयमै राजनीतिक स्थिति सुदृढ़ थी तथा शास्त्रसमुन्नतिका यह युग था। इनके समकालीन नरेश राष्ट्रकूटवंशी जयतुङ्ग और नृपतुङ्ग अपरनाम अमोघवर्ष (सन् ८१५-८७७ ई.) थे| इनकी राजधानी मान्यखेटमें उस समय विद्वानोंका अच्छा समागम था। अमोघवर्ष स्वयं कवि और विद्वान था। उसने 'कविराजमार्ग' नामक एक अलारविषयक ग्रन्थ कन्नड़ भाषामें लिखा है। अमोघवर्ष जिनसेनका बड़ा भक्त था। महावीराचार्य के 'गणितसार संग्रह’ और संस्कृतकाव्य प्रश्नोत्तर रत्नमाला के उल्लेखोंसे स्पष्ठ है कि अमोघवर्षने जैन दीक्षा ग्रहण कर ली थी। अमोघवर्ष के समयमें केरल, मालवा, गुर्जर और चित्रकूट भी राष्ट्रकूट राज्य में सम्मिलित थे। श्री पं. नाथूरामजी प्रेमीका अनुमान है कि बड़ौदा भी अमोघवर्ष के राज्य में सम्मिलिन था। आततेन्द्र कोई राष्ट्रकूट राजा या सामन्त रहा होगा, जिनके मन्दिरमे धवलाटीका लिखो गयी। अतएव जिनसेनका सम्बन्ध चित्रकूटके साथ रहने तथा अमोघवर्ष द्वारा सम्मानित होनेसे इनका जन्मस्थान महाराष्ट्र और कर्णाटककी सीमाभूमिको अनुमानित किया जा सकता है।
श्रवणबेलगोलाके अभिलेखोंमें जिनसेनके उल्लेख अनेक स्थानों पर आये हैं। अभिलेखसंख्या ४७, ५०, १०५ और ४२२ में जिनसेनका निर्देश आया है।
मेघचन्द्र प्रशस्तिमें लिखा है-
"सिद्धंत नि वीरसेन गाभा -मस्कार:।"
जीयाज्जगत्यां जिनसेनसूरियस्योपदेशोज्जवलदर्पणेन।
व्यक्तीकृतं समिदं विनेयाः पुण्यं पुराणं पुरुषा विदन्ति।।
विनय भरण-पात्रं भव्यलोकमित्र विबुभनुतचरित्रं तद्गणेन्द्रागपुत्र।
विहितभुवनभद्रं वीतमोहोनिद्रं विनमत गुणभद्रं तीविद्यासमुद्रं॥
इन दोनों पद्योंमें जिनसेन और गणभद्र दोनोंकी प्रशंसा की गयी है। जिनसेनके उपदेशसे गुणभद्रने अवशिष्ट आदिपुराणको पूर्ण किया और उत्तरप्पुराणकी रचना की है। अभिलेख संख्या ४२२ में जिन जिनसेनका नाम आया है वे आचार्य जिनसेन द्वितीयसे भिन्न कोई भट्टारक हैं। अतः अभिलेखोंसे यह स्पष्ट है कि जिनसेन द्वितीय सिद्धान्त, पुराण और काव्यरचनामें अत्यन्त पटु थे। इनकी कविता-निर्झरिणीके सीकरोंसे सन्तुष्ट भन्यजन आनन्दमें मग्न होने लगते हैं। सरस्वतीका यह लाड़ला अपने युगका महान् विद्वान् और आचार्य है।
अभिलेख में जो जिनसेनके उपदेशको बात कही गयी है उसकी पुष्टि महा पुराणके मङ्गलपद्योंसे भी होती है। उन्होंने मङ्गलाचरणमें ही यह निर्देश कर दिया है कि यदि मेरे द्वारा यह ग्रन्थ पूर्ण न हो सके तो तुम (गुणभद्र) इसे पूर्ण करना। अतः अभिलेखोंका सम्बन्ध जिनसेनाचार्यके साहित्य के साथ भी घटित हो जाता है।
हरिवंशपुराणके रचयिता जिनसेन प्रथमने वीरसेन और जिनसेनका उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है-
जितात्मपरलोकस्य कवीना चक्रवर्तिनः।
वीरसेनगुरोः कीर्तिरकलकावभासते।।
यामिताभ्युदये पाश्वे जिनेन्द्रगुणसंस्तुतिः।
स्वामिनो जिनसेनस्य कीर्ति सङ्गीतंयत्यसौ।।
वर्धमानपुराणोद्यदादित्योक्तिगभस्तयः।
प्रस्फुरन्ति गिरीशान्तः स्फुटस्फटिकभित्तिषु।।
जिन्होंने परलोकको जीत लिया है और जो कवियोंके चक्रवर्ती हैं उन वीरसेनगुरुकी कलंकरहित कीर्ती प्रकाशित हो रही है। जिनसेनस्वामीने पार्श्वनाथ भगवानके गुणोंकी स्तुति बनायी है- पार्वाभ्युदयकी रचना की है, वही स्तुति उनकी कीर्त्तिका वर्णन कर रही है। इन जिनसेनके वर्धमानपुराण रूपी उदित होते हुए सूर्यकी उक्तिरूपी रश्मियों विद्वद् पुरुषोंके अन्तःकरण रूपी स्फटिक-भूमिमें प्रकाशमान हो रही है।
उक्त सन्दर्भ में प्रयुक्त 'अवभासते', 'सङ्कीर्तयति', 'प्रस्फुरन्ति' जैसे वर्तमानकालिक क्रियापद हरिवंशपुराणके रचयिता जिनसेनका इनको समकालीन सिद्ध करते हैं। हरिवंशपुराणकी रचना शक संवत् ७३५ (ई. सन् ७८३) में पूर्ण हुई है। अतः जिनसेनस्वामीका समय ई. सन्की आठवीं शतीका उत्तरार्ध है। जयधवलाटीकाको प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि इसकी समाप्ति जिनसेनने शक संवत् ७५९ फाल्गुन शुक्ला दशमीके पूर्वाहमें की है। इस टीकाको वीरसेनस्वामीने प्रारम्भ किया था, पर वे ४० हजारश्लोकप्रमाण ही लिख सके थे। अपने गुरुके इस अपूर्ण कार्यको जिनसेनने पूर्ण किया है। जिनसेनने आदिपुराणका प्रारम्भ अपनी वृद्धावस्था में किया होगा। इसी कारण वे इसके ४२ पर्व ही लिख सके। अतः जयधवलाटीकाके अनन्तर आदिपुराणकी रचना माननेसे जिनसेनका अस्तित्व ई. सन्की नवम् शती तक माना जा सकता है। गुणभद्रने उत्तरपुराणकी समाप्ति ई. सन् ८९७में की है।
यह पहले ही लिखा जा चूका है की जिनसेनाचार्य के शिष्य गुणभद्रने आदिपुराणके ४३ वे पर्वके चतुर्थ पद्यसे समाप्तिपर्यन्त कुल १६२० श्लोक रचे हैं। महापुराणके द्वितीय भागस्वरूप उत्तरपुराणको गुणभद्रने पूर्ण किया है। आदिपुराण में आदितीर्थका जीवनवृत्त है और उत्तरपुराणमें अजितनाथ ते महावीरपर्यन्त २३ तीर्थर, १२ चक्रवर्ती, ९ नारायण, ९ बलभद्र और ९ प्रतिनारायण तथा जीवन्धर स्वामी आदि विशिष्ट पुण्यात्मा पुरुषोंके कथानक अंकित किये गये हैं। उत्तरपुराणके अन्तमें गुणभद्रके शिष्य लोकसेन द्वारा लिखित प्रशास्तसे ज्ञात होता है कि शक संवत ८२०, श्रावण शुक्ला पंचमी गुरुवारको इस ग्रंथकी पूजा भी गयी। अत: उत्तरपुराणकी समाप्ति इससे पहले होनी चाहिये। इस प्रकार गुणभद्रका समय भी ई. सन्की दशम शताब्दि मानने में किसी प्रकारकी बाधा नहीं आती है। वास्तवमें वीरसेन, जिनसेन और गुणभद्र-इन तीनों आचार्यो का साहित्यिक व्यक्तित्व अत्यन्त महनीय है और तीनों एक दूसरेके अनुपूरक हैं। वीरसेनके अपूर्ण कार्यको जिनसेनने पूर्ण किया है और जिनसेनके अपूर्ण कार्यको गुणभद्रने।
जिनसेनाचार्य काव्य, व्याकरण, नाटक, दर्शन, अलङ्कार, आचार, कर्म सिद्धान्त प्रभृति अनेक विषयों के बहुज विद्वान थे। इनकी केवल तीन ही रचनाएँ उपलब्ध हैं। वर्धमानचरितकी सुचना अवश्य प्राप्त होती है, पर यह कृति अभी तक देखने में नहीं आयी है।
१. पार्श्वाभ्युदय
२. आदिपुराण
३. जयधवलाटीका
१. पार्श्वाभ्युदय
यह कालिदासके मेघत नामक काव्यकी समस्यापूति है। इसमें कहीं मेघदूतके एक और कहीं दो पादोंको लेकर पद्य-रचना की गयी है। इस काव्य ग्रन्थमें सम्पूर्ण मेघदूत समाविष्ट है। अतः मेघदूतके पाठशोधनके लिए भी इस ग्रन्थका मूल्य कम नहीं है।
दीक्षा धारण कर तीर्थकर पार्श्वनाथ प्रतिमायोगमें विराजमान हैं। पूर्व भवका विरोधी कमठका जीव शम्बर नामक ज्योतिष्कदेव अवधिज्ञानसे अपने शत्रुका परिज्ञान कर नानाप्रकारके उपसर्ग देता है। इसी कथावस्तुकी अभिव्यञ्जना पार्श्वाभ्युदय में की गयी है। शृंगाररससे ओत-प्रोत मेघदूतको शान्तरसमें परिवर्तित कर दिया गया है। साहित्यिक दृष्टिसे यह काव्य बहुत सुन्दर और काव्यगुणोंसे मंडित है। इसमें चार सर्ग हैं- प्रथम सर्गमें ११८, द्वितोय सर्गमें ११८, तृतीयमें ५७ और चतुर्थमें ७१ पद्य हैं। इस काव्यमें शम्बर (कमठ) यक्षके रूपमें कल्पित है। कविता अत्यन्त प्रौद्ध एवं चमत्कार पूर्ण है। यहाँ उदाहरणार्थ एक-दो पद्य उद्धृत किये जाते हैं-
तन्त्रीमाद्री नयनसलिलैं: सारयित्वा कथंचित्त
स्वाङ्गल्यग्रे: कुसुममृदुभिर्वल्लरीमस्पृशन्ती।
ध्यायं ध्याय त्वदुपगमनं शून्यचिन्तानुकष्ठी,
भूयोभूयः स्वयमपि कृता मूर्छनां विस्मरन्ती।।
आम्रकूट पर्वतके शिखर पर मेघके पहुंचने पर कवि पर्वत-शोभाका वर्णन करता हुआ कहता है-
कृष्णाहिः किं बलयिततनु: मध्यमस्याधिशेते;
कि वा नीलोत्पलविरचितं शेखरं भूभृतः स्यात्।
इत्याशङ्का जनयति पुरा मुग्धावद्याधरीणां,
त्वाय्यारूढे शिखरमचल: स्निग्धवेणीसवर्णे॥
समस्यापूर्तिमें कविने सर्वथा नवीन भावयोजना की है। मार्गवर्णन और वसुन्धराकी विरहावस्थाका वर्णन मेघदूत के समान ही है। परन्तु इसका संदेश मेघदूतसे भिन्न है। शम्बर पार्श्वनाथके धैर्य, सौजन्य, सहिष्णुता और अपार शक्तिसे प्रभावित होकर स्वयं वैरभावका त्याग कर उनकी शरणमें पहुँचता है और पश्चात्ताप करता हुआ अपने अपराधकी क्षमायाचना करता है। कविने काव्यके बीचमें “पापापाये प्रथममुदितं कारणं भक्तिरेव' जैसी सूक्तियोंकी भी योजना की है। इस काव्यमें कुल ३६४ मन्दाक्रान्ता पद्य हैं।
२. आदिपुराण
यह आकर ग्रन्थ है। पुराण होते हुए भी इसमें इतिहास, भूगोल, संस्कृति समाज, राजनीति और अर्थशास्त्र आदि विषय भी समाविष्ट हैं। जिनसेनने पुराणके लिए आठ वर्ण्य विषय बतलाये हैं।
१. लोक- लोक-संस्थान, लोक-आकृति, क्षेत्रफल, मेद एवं उर्ध्व, मध्य और अधोलोकका वर्णन, क्षेत्र, द्वीप, पर्वत, नदी आदिका वर्णन।
२. देश- जनपदोंका चित्रण।
३. नगर- अयोध्या, वाराणसी प्रभृति नगरियोंका चित्रण।
४. राज्य- राज्योंकी समृद्धिका चित्रण।
५. तीर्थ- धर्मप्रवृत्ति एवं तीर्थभूमियोंका निरूपण।
६. दान-तप- तप-दानकी फलोत्पादक कथाओंका वर्णन।
७. गति- चतुर्गतिके दुःखोंका वर्णन।
८. फल- पुण्य-पापके फलके साथ मोक्षप्राप्तीका निरूपण।
इन आठ विषयों के अतिरिक्त आदिपुराणमें निम्नलिखित पौराणिक तत्व भी विद्यमान हैं-
१. शलाकापुरुषों के कथानकसंयोगोंका दैवी घटनाओं पर आश्रयण।
२. आख्यानोंमें सहसा दिशापरिवर्तन।
३. समकालीन सामाजिक समस्याओंका उद्घाटन।
४. पारिवारिक जीवन के कटु-मधु चित्र।
५. संवाद-तत्त्वकी अल्पता रहनेपर भी घटनासूत्रों द्वारा आख्यानोंमें गसिमत्वधर्मकी उत्पत्ति।
६. कथाओंके मध्यमें पूर्वजन्मके आख्यानोंका समवाय, धर्मतत्व और धर्मसिद्धान्तोंका नियोजन।
७. रोचकता मध्यबिन्दु तक रहती है। अत: आगेकी कथावस्तुमें सघनता और घटनाओंका बाहुल्य।
८. अलंकृत वर्णनोंके साथ लोकतत्त्व और कथानकरूढ़ियोंका प्रयोग।
९. लोकानुश्रुतियां, पुराणगाथाएँ, लोकविश्वास प्रभृतिका संयोग।
१०. प्रेम, शृंगार, कुतुहल, मनोरंजन, रहस्य एवं धर्मश्रद्धाका वर्णन।
११. जनमानसका प्रतिफलम, पूर्वजन्मके संस्कार और फलोपभोगोंकी तरलताका चित्रण।
आदिपुराणकी कथा-वस्तुके प्रधान नायक आदि तीर्थंकर ऋषभदेव और उनके पुत्र भरतचक्रवर्ती हैं। इन दोनों शलाकापुरुषोंके जीवनसे सम्पर्क रखनेवाले कितने ही अन्य महापुरुषोंको कथाएँ भी आयी हैं। इस महाग्रंथकी कथा वस्तु ४७ पव में विभक्त है। प्रथम दो पर्वो में कथाके वका, श्रोता एवं पुराण श्रवणका फल आदि वर्णित है। तृत्तोय पर्व में उत्सर्पण और अवसपंगा कालाके सुषमसुप्रमादिभेदों एवं भोगभूमिकी व्यवस्थापर प्रकाश डाला गया है। प्रति श्रुति आदि कुलकरोंकी उत्पत्ति, उनके कार्य और उनकी आयु आदिका वर्णन आया है। अन्तिम कुलकर नाभिरायके समयमें गगनाङ्गगमें सर्वप्रथम घनघटा, विद्युत् प्रकाश और सूर्य की स्वर्णरश्मियोंके सम्पर्कसे उसमें रंग-बिरंगे इन्द्रधनुष दिखलायी पड़ते हैं। वर्षा होती है और वसुधातल जलमय हो जाता है। मयूर नृत्य करने लगते हैं और चिरसंत चातक सन्तोषकी साँस लेता है। कल्पवृक्ष नष्ट हो जाते हैं और विविध प्रकारके धान्य अपने-आप उत्पन्न होने लगते हैं। कल्पवृक्षोंके न रहनेसे प्रजामें व्याकुलता व्याप्त हो जाती है और सभी लोग आजीविकाविहीन दुःखी हो, नाभिरायके पास जाकर निर्वाह योग्य व्यवस्था पूछते हैं।
नाभिराय चौदहवें कुलकर-मनु थे। उन्होंने धान्य, फल, इक्ष, रस आदि उपयोग करने के विधि बतलायी तथा मिट्टीकि बर्त्तन बनाकर आवश्यकताकी पूर्ति करनेका उपदेश दिया। प्रजामें सुख और शान्ति बनाये रखने के लिए दण्डव्यवस्था भी प्रतिपादित की | इसी पर्वमें सभी कुलकरोंके कार्यों का वर्णन आया है। चतुर्थ पर्वमें पुराणके वर्णनीय विषयोंका प्रतिपादन करनेके अनन्तर जम्बूद्वीपके विदेह क्षेत्र अन्तर्गत गन्धिलदेश और उसकी अलकानगरीका चित्रण आया है। इस नगरीके अधिपति अतिबल विद्याधर और उसकी मनोहरा नामक राज्ञीका वर्णन किया है। इस दम्पतिके महाबल नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। अतिबल विरक्त होकर दीक्षित हो गया और महाबलको शासनभार प्राप्त हुआ। महाबलके महामति, सम्भिन्नति, शतमति और स्वयंबुद्ध ये चार मन्त्री थे। राजा मन्त्रियोंके ऊपर शासनभार छोड़कर भोगोपभोगोंके सेवनमें आसक्त हो गया।
पंचम पर्वमें महाबलकी विरक्ति और सलेखनाका निरूपण किया है। २२ दिनोंकी संलेखनाके प्रभावसे महाबल ऐशान स्वर्गमें ललितांग नामका महद्धिक देव होता है। षष्ठ पर्वमें आयुके छ: मास शेष रहनेपर ललितांग दुःखी होता है, पर समझाये जानेपर बह अच्युत स्वर्गकी जिनप्रतिमाओंका पूजन करते करते चैत्य वृक्ष के नीचे पंचनमस्कार मन्त्रका जाप करते-करते स्वर्गकी आयुको पूर्ण करता है। ललितांग स्वगसे च्युत हो, पुलावति देशके उत्पल खेट नगरके राजा बज्रवाह और रानी वसुन्धराके गर्भसे बनजंच नामका राजपुत्र होता है। ललितांगको प्रिया स्वयंप्रभा पुण्डरोकिणी नगरीके राजा वनदन्तके यहाँ श्रीमती नामकी पुत्री होती है। यशोधर गरुके कैवल्यमहोत्सव के लिए देवोंको आकाशमें जाते देखकर श्रीमतीको पूर्व भबका स्मरण हो आता है और वह अपने प्रिय ललितांगदेवको प्राप्त करने के लिए कृत्संकल्प हो जाती है। पंडित्तात्राय उसकी सहायता करती है। वह श्रीमती द्वारा निर्मित पूर्वभव के प्रतीकोंसे युक्त चित्रपटका लंकर उत्पलखेटके महापूत जिनालयमें पहुँचता है। यहांपर चित्रपटको फैला देता है। दर्शकवृन्द उसे देखकर चकित हो जाते हैं, पर उसके यथार्थ रहस्यसे अनभिज्ञ ही रहते हैं।
सप्तम पर्व में बताया गया है कि ललितांगदेवका जीव वज्रनजंघ महापूत चन्यालयमें आता है, और उस चित्रपटको देखते ही, उसे अपने पूर्वजन्मका स्मरण हो जाता है, जिससे वह अपनी प्रिया स्वयंप्रभाको प्राप्त करने के लिए बेचैन हो जाता है। पण्डिताधायको वह भी एक चित्रपट भेंट करता है, जिसमें स्वयंप्रभाके जीवनरहस्यको अंकित किया गया है। वचन पुण्डरीकिणी नगरी में आता है और श्रीमतीके साथ उसका विवाह हो जाता है। ललितांगदेव और स्वयंप्रभा पुनः वज्रजंघ और श्रीमतीके रूप में सयोगको प्राप्त करते है।
अष्टम पर्व में वज्रजंघ और पानी के भोगपभोगोंका वर्णन किया गया है। वज्रजंघका श्वसुर वज्रदन्त चक्रवर्ती कमलमें बन्द मृत भ्रमरको देखकर विरमत हो जाता है। पुत्र अमिततेजके द्वारा शासन स्वीकृत न किये जानेपर वह उसके पुत्र पुण्डरीकको राज्य देकर यशोधर मुनिके समक्ष अनेक राजाओंके साथ दीक्षित हो जाता है। पण्डिताधाय भी दीक्षित हो जाती है। चक्रवर्तीकी पत्नी लक्ष्मीमूर्ती पुण्डरीकको अल्पवयस्क जानकर राज्य सम्भालने के लिए अपने जामाता वज्रजंघको बुलाती है। वज्रजंघ अपनी प्रीया श्रीमतीके साथ पुण्डरीकिणी नगरीको प्रस्थान करता है। वह मार्गमें चारणऋद्धिधारी मुनियोंको आहारदान देता है। वह दमधर नामक मुनिराजसे अपने भवान्तर जानना चाहता है, मुनिराज उसे आठवें भवमें तीर्थकर होने तथा श्रीमतोको दानतीर्थ का प्रवर्तक श्रेयांस होने की भविष्यवाणी करते हैं। वज्रजंघ पुण्डरीकिणी नगरमें पहुंचकर सबको सान्त्वना देता है और अपने नगरमें लौट आता है।
नवम पर्व के प्रारम्भमें भागोपभोगोंका चित्रण आया है। एक दिन वज्रजंघ और श्रीमती शयनागारमें शयन कर रहे थे, सुगन्धित द्रव्यका धूम्र फैलनेसे शायनागार अत्यन्त सुवासित हो रहा था। सयोगवश द्वारपाल उस दिन गयाक्ष खोलना भल गया, जिससे श्वास रुक जाने के कारण उन दोनोको मृत्यु हो गयी। पात्रदानके प्रभावसे दोनों उत्तरकुरुमें आर्य-आर्या हुए। प्रीतिकर मुनिराज के सम्पर्कसे आर्य मरण कर ईशान स्वर्ग में श्रीधर नामका देव हुआ। आर्या भी उसी स्वर्ग में देवी हुई।
दशम पर्वके प्रारम्भमें प्रीतिकरके केवलज्ञान-उत्सवका वर्णन आया है। श्रीधर भी इस उत्सवमें सम्मिलित हुआ। अन्त में वह स्वर से च्युत होकर जम्बूद्वीपके पूर्व विदेहकी सुषमा नगरी में सुदष्टि राजाकी सुन्दरनन्दा नामक रानीके गर्भसे सुविधि नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। यह चक्रवर्ती राजा हुआ और श्रीमती का जीव केशव नामक इसका पुत्र हुआ। सुविधि पुत्रके अनुरागके कारण मुनि न बन सका, पर धरपर ही श्रावकके व्रतोंका पालन कर सन्यासके प्रभावसे सोलहवें स्वर्गमें अच्युतेन्द्र हुआ।
एकादश पर्वम अच्यतेन्द्र के पर्याय वज्रनाभिका वर्णन आया है। वचनाभि चक्ररत्नकी प्राप्तिके अनन्तर दिग्विजयके लिए प्रस्थान करता है। राज्यको समृद्ध करने के पश्चात् वह दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारणभावनाओंका चितन कर तीर्थकरप्रकृतिका बन्ध करता है। अन्त में प्रायोपगमन सन्यास धारण कर सर्वार्थसिद्धि विमानमें उत्पन्न होता है।
द्वादश पर्व में अहमिन्द्रका जीव ऋषभदेवके रूप में नाभिराय और मरुदेवीके यहाँ जन्म धारण करता है। इस पर्वमें मरुदेवीकी गर्भावस्था और देवियोंकी की गयी सेवांका वर्णन कीया गया है।
त्रयोदशा पर्वमें आदितीर्थंकर ऋषभदेवका इन्द्र द्वारा जन्माभिषेक उत्सवके किये जाने का निरूपण आया है। उनका सुमेरु पर्वतपर एक हजार आठ कलशों के द्वारा अभिषेक सम्पन्न होता है। चतूदश पर्व में इन्द्राणी बालकको वस्त्रा भषणोंसे सुसज्जित कर माताको सौंप देसी है। इन्द्र ताण्डवनृत्य कर उनका ऋषभदेव नाम रखता है।
पञ्चदश पर्व में ऋषभदेव के शारीरिक सौन्दर्य और उनके एक हजार आठ शुभ लक्षणोंका वर्णन आया है। महाराज नाभिराय युवक होनेपर पुत्रसे विवाह करनेका अनुरोध करते हैं। फलस्वरूप कच्छ और महाकच्छकी बहनें यशस्वती और सुनन्दाके साथ ऋषभदेवका विवाह सम्पन्न होता है।
षोड़शपर्वके अनुसार यशस्वतीके उदरसे भरतचक्रवर्तीका जन्म होता है और सुनन्दाके उदरसे बाहुबलीका। ऋषभदेवका यशस्वतीसे अन्य ९८ पुत्र और ब्राह्मी नामक कन्याकी प्राप्ति होती है। सुनन्दासे बाहुबली के अतिरिक्त सुन्दरी नामक कन्यारत्न भी उपलब्ध होती है। ऋषभदेव प्रजाको असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, सेवा और शिल्प इन षट् आजाविकोपयोगी कर्मोंकी शिक्षा देते हैं। त्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णो को व्यवस्था करते हैं ।
सप्तदश पर्वमें ऋषभदेवको विरक्ती प्राप्त करनेके लिए एक मार्मिक घटना घटित होती है। नीलाञ्जना नामक नर्तकी अचानक विलीन हो जाती है। ऋषभदेव इस अघटित घटनाको देखते ही विरक्त हो जाते हैं। स्वर्गसे लौकान्तिकदेव आकर उनके वैराग्यकी पुष्टि करते हैं। वे अयोध्या के पट्टपर भरतका राज्याभिषेक कर अन्य पुत्रोंको यथायोग्य राज्य देते हैं। सिद्धार्थवनमें जाकर परिग्रहका त्यागकर चैत्र कृष्णा नवमीके दिन ऋषभदेव दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। इनके साथ चार हजार अन्य राजा भी दीक्षित हो जाते हैं।
अष्टदश पर्वमें बताया गया है कि ऋषभदेव छ: माहका योग लेकर शिलापट्टपर आसीन हो जाते है। दीक्षा धारण करते ही मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो जाता है। साथमें दीक्षित हुए राजा भ्रष्ट हो जाते हैं और विभिन्न मतोंका प्रचार करते हैं। कच्छ, महाकच्छके पुत्र नमि-विनमि भगवान ऋषभदेवसे कुछ माँगने आते हैं। धरणेन्द्र उन्हें समझाकर विजयार्धपर्वत पर ले जाता है।
एकोनविंश पर्वमें धरणेन्द्र द्वारा नमि-विनमिको विजयार्द्धपर्वतकी नगरियोंका परिचय दिया गया है। विशपर्वमे आदितीर्थंकर ऋषभदेवका एक वर्षके तपः अनन्तर हस्तिनापुर गांराके यहां इक्षुरसका आहार होता है।
एकविंश पर्वमें ध्यानका वर्णन किया गया है। द्वाविंश पर्वमें ऋषभदेवको केवलज्ञानकी प्राप्ति, ज्ञानकल्याणक उत्सव एवं समवशरणका चित्रण आया है। त्रयोविंश पर्व में समवशरणमें इन्द्रने आदि तीर्थंकरकी पूजा-स्तुति की है। चतुर्विश पर्व में भरत द्वारा भगवान ऋषभदेवकी पूजा की गयी है। इसी पर्वमें भगवानको दिव्यध्वनिका भी वर्णन आया है। पंचविंश पर्व में अष्टप्रातिहार्य, चौतीस अतिशय और अनम्तचतुष्टय सुशोभित तीर्थंकरकी स्तुति की गयी है। इस पर्वमें सहस्रनामरूप महास्तवन भी आया है ।
षडविशतितम पर्व में भरत द्वारा चक्ररत्नकी पूजा और पुत्रोत्सव सम्पन्न करनेका वर्णन समाहित है। चक्रवर्ती दिग्विजयके लिए पूर्व दिशाकी ओर प्रस्थान करता है। सप्तविंशतितम पर्वमें गंगा और वन शोभाका वर्णन आया है। अष्टविंशतितम पर्वका आरम्भ दिग्विजयार्थ चक्रवर्तीके सैनिक प्रयाणसे होता है। चक्रवर्तीकी सेना स्थलमार्ग से गंगाके किनारेके उपवन में प्रविष्ट होती है। उसने लवण समुद्रको पार कर मागधदेवको जीता। एकोनत्रिंशत्तम पर्वमें दक्षिण दिशाकी ओर अभियान करनेका वर्णन आया है। त्रिशतितम पर्वमें चक्रवर्ती दक्षिणको विजय कर पश्चिम दिशाकी ओर बढ़ता है और विन्ध्यगिरिपर पहुँचता है। अनन्तर समुद्के किनारे-किनारे जाकर लवण समुद्रके तटपर पहुंचता है।
एकत्रिशत्तम पर्वमें आया है कि अठारह करोड़ घोड़ोंका अधिपति भरत उत्तरकी ओर प्रस्थान करता है और विजयाद्धकी उपत्यकामें पहुँचता है। द्वात्रिंशत्तमपर्वमें विजयार्धके गुहा-द्वारके उद्घाटनके अनन्तर नागजातिको वशमें किये जानेका वर्णन है। चिलात और आवर्त दोनों ही मलेच्छ राजा निरुपाय होकर शरणमें आते हैं।
त्रर्यास्त्रशत्तम पर्वमें बताया है कि भरतचक्रवर्ती दिग्विजय करने के पश्चात् सेना सहित अपनी नगरीमें आता है। मार्गमें अनेक देश, नगर और नदियोंका उल्लंघन कर कैलासपर्वतपर अनेक राजाओंके साथ ऋषभदेवकी पूजा करता है।
चतुस्त्रिशत्तम पर्वमें चक्रवर्ती कैलाससे उतरकर अयोध्याकी ओर बढ़ता है। यहाँ चक्ररत्न नगरीके भीतर प्रविष्ट नहीं होता, निमितज्ञानियों द्वारा भाइयों को विजित करनेकी बात बोलकर भरत उनके पास दूत भेजता है। बाहुबलीको छोड भरतके अन्य सब भाई ऋषभदेवके चरणमलमें जाकर दीक्षित हो जाते हैं।
पचचत्रिशतमपर्वमें बाहुबलिद्वारा भरतका युद्ध-निमन्त्रण स्वीकार कर लिया जाता है। षटत्रिंशत्तमपर्व में भरत और बाहुबलिके नेत्र, जल और मल्लयुद्धका वर्णन आया है। उक्त तीनों युद्धोंमें बाहुबलिको विजयी देखकर भरत कुपित हो चक्ररत्नका उपयोग करते हैं, जिससे बाहुबलि विरक्त हो जिन दोक्षा ग्रहण कर लेते हैं। सप्तत्रिशत्तम पर्वमें चक्रवर्तीके अयोध्या नगरीमें प्रवेश का वर्णन आया है। अष्टत्रिंशत्तम पर्वम भरतद्वारा अणुवर्तियोंको अपने घर बुलाये जानेका उल्लेख आता है। भरत इस सन्दर्भ में ब्राह्मणवर्णकी स्थापना करते हैं। एकोनचत्वारिंशत्तम और एकचत्वारिंशत्तम पर्वोमें क्रियाओं और संस्कारोंका वर्णन आया है। द्विचत्वारिंशत्तम पर्वमें राजनीति और वर्णाश्रम धर्मका उपदेश अंकित है। त्रिचत्वारिंशत्तम और चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्वोमें जयकुमारका सुलोचनाके स्वयंवरमें सम्मिलित होना तथा अन्य राजाओं के साथ युद्ध करनेका वर्णन आया है।
पञ्चचत्वारिंशत्तम पर्वमें जयकुमार और सुलोचनाके प्रेम-मिलनका चित्रण आया है। जयकुमार सुलोचनाको पटरानी बनाता है। षट्चत्वारिंशत्तमपर्वमें जयकुमार और सुलोचनाके अपने पूर्व भवका स्मरणकर मूर्छित होनेका वर्णन आया है। अन्तिम सप्तचत्वारिंशत्तम पर्वमें पूर्वभवावलीकी चर्चा करते हुए कहा है कि जयकुमार संसारसे विरक्त हो जाता है और दीक्षित हो ऋषभदेवके समवशरणमें गणधरपद प्राप्त करता है। चक्रवर्ती भरत दक्षिा ग्रहण करता है, और उसे तत्काल केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है। भगवान् ऋषभदेव अन्तिम विहार करते हैं और कैलासपर्वतपर उन्हें निर्वाणप्राप्ति हो जाती है।
इस प्रकार आदिपुराणमें ऋषभदेवके दस पूर्वभवोंको कथाएँ आयी हैं। दोनों शलाकापुरुषोंका विस्तृत जीवन-परिचय इस पुराण में अंकित है।
इस ग्रन्थके ४२ वर्ष (पर्व) जिनसेनने लिखे हैं और उनकी मृत्यु हो जाने पर शेष पाँच पर्व उनके शिष्य गुणभद्रने लिखे हैं। सम्पूर्ण ग्रन्थ 'महापुराण’ के नामसे प्रसिद्ध है और सुयोग्य गुरु-शिष्यको यह अनुपम कृत्ति मानी जाती है।
३. जयधवलाटीका
कषायप्राभृतके प्रथम स्कन्धकी चारों विभक्तियों पर जयधवला नामकी बीस हजार श्लोकप्रमाण टीका लिखनेके अनन्तर आचार्य वीरसेनका स्वर्गवास हो गया, अत: उनके शिष्य जिनसेनने अवशिष्ट भागपर चालीस हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे पूर्ण किया। यह टीका भी वीरसेनस्वामीकी शैली (संस्कृमिश्रित प्राकृत भाषा) में मणि-प्रवालन्यायसे लिखी गयी है। टीका इस रूपमें लिखी गयी है कि अन्तःपरीक्षणसे भी यह निर्णय नहीं किया जा सकता कि गुरु और शिष्यमसे किसने कितना भाग रचा है। इसीसे जिनसेनाचार्यके वैदुष्य और रचनाचातुर्यका अनुमान किया जा सकता है। इन्होंने जय धवलाकी प्रशस्तिमें लिखा है कि गुरुके द्वारा बहुवक्तव्य पूर्वार्धके प्रकाशित कर दिये जानेपर, उसको देखकर इस अल्पवक्तव्य उत्तरार्धको पूरा किया।
इस टीकाको तीन स्कन्धोंमें विभाजित किया गया है-
१. प्रदेश विभक्ति पर्यन्त स्कंध;
२. उपयोग वित्तीय स्कन्ध एवं
३. शेष भाग तृतीय स्कन्ध है।
इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारके अनुसार संक्रमके पहलेका विभक्तिपर्यन्त भाग वीरसेनस्वामीने रचा है। गणना करनेपर विभक्तिपर्यन्त ग्रंथका परिमाण साढ़े छब्बीस हजार श्लोक है, पर यहाँ गणना स्थूलरूपमें ग्रहणकर बीस हजार प्रमाण कहा गया है। अवशेष टीका जिनसेनस्वामीकी है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
#jinsendwitiyamaharaj
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री जिनसेन द्वितीया (प्राचीन)
आचार्य जिनसेन द्वितीय, श्रुतधर और प्रबुद्धाचार्योक बीचकी कड़ी होनेके कारण इनका स्थान सारस्वताचार्यों में परिगणित है। ये प्रतिभा और कल्पनाके अद्वितीय धनी हैं। यही कारण है कि इन्हें "भगवत् जिनसेनाचार्य' कहा जाता है। श्रुत या आगम ग्रन्थोंकी टीका रचनेके अतिरिक्त मूलग्रन्थरचयिता भी हैं। इनका पाण्डित्य साहित्य-गगनमें भास्करके समान निरन्तर प्रकाशित है।
इनके वैयक्तिक जीवनके सम्बन्धमें विशेष जानकारी अप्राप्त है। जयधवला टीकाके अन्त में दो गयी पद्य-रचनासे इनके व्यक्तित्वके सम्बन्ध में कुछ जानकारी प्राप्त होती है। इन्होने बाल्यकालमें (अबिद्धकर्ण-कर्णसंस्कारके पूर्व) ही जिनदीक्षा ग्रहण कर ली थी। कठोर ब्रह्मचर्यकी साधना द्वारा वाग्देवीको आराधनामें तत्पर रहे। इनका शरीर कृश था, आकृति भी भव्य और रम्य नहीं थी। बाह्य व्यक्तित्वके मनोरम न होनेपर भी तपश्चरण, ज्ञानाराधन एवं कुशाग्र बुद्धिके कारण इनका अन्तरङ्ग व्यक्तित्व बहुत्त ही भव्य था। ये ज्ञान और अध्यात्मके अवतार थे। इनको जन्म देनेका गौरव किस जाति-कुलको प्राप्त हुआ, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता।
जिनसेन मूलसंघके पञ्चस्तूपान्वयके आचार्य हैं। इनके गुरुका नाम वीरसेन और दादागुरुका नाम आर्यनन्दि था| वीरसेनके एक गुरुभाई जयसेन थे। यही कारण है कि जिनसेनने अपने आदिपुराणमें 'जयसेन'का भी गुरुरूपमें स्मरण किया है। जिनसेनके सतीर्थ दशरथ नामके आचार्य थे। उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें गुणभद्राचार्य ने बताया है कि जिस प्रकार चन्द्रमाका सधर्मी सूर्य होता है, उसी प्रकार जिनसेनके सधर्मी या सतीथं दशरथ गुरु थे,जो कि ससारके पदार्थोंका अवलोकन करानेके लिए अद्वितीय नेत्र थे। इनकी वाणीसे जगत्का स्वरूप अवगत किया जाता था।
जिनसेन और दशरथ गुरुका सुप्रसिद्ध शिष्य गुणभद्र हुआ, जो व्याकरण, सिद्धान्त और काव्यका परगामी था। गुणभद्रने आदिपुराणके अवशिष्ट अंशको आरम्भ करते समय जिनसेनके प्रति अपनी बड़ी भारी श्रद्धा-भक्ति समर्पित की है तथा उनके ज्ञान-चरित्रकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा की है।
जिनसेनका चित्रकूट, बंकापुर उस समय वनवास देशकी राजधानी था, जो वर्तमानमें धारवाड़ जिलेमें है। इसे राष्ट्रकूट अकालवर्षके सामन्त लोकादित्यके पिता वंकेयरसने अपने नामसे राजधानी बनाया था। बटग्राम और बटपदको एक मानकर कुछ विद्वान् बड़ौदा को बटग्राम या बटपद काहते हैं। चित्रकूट भी वर्तमान चित्तौड़से भिन्न नहीं है। इसी चित्रकूट में एलाचार्य निवास करते थे, जिनके पास जाकर वीरसेनस्वामीने सिद्धान्तग्रन्थों का अध्ययन किया था।
जिनसेनके समयमै राजनीतिक स्थिति सुदृढ़ थी तथा शास्त्रसमुन्नतिका यह युग था। इनके समकालीन नरेश राष्ट्रकूटवंशी जयतुङ्ग और नृपतुङ्ग अपरनाम अमोघवर्ष (सन् ८१५-८७७ ई.) थे| इनकी राजधानी मान्यखेटमें उस समय विद्वानोंका अच्छा समागम था। अमोघवर्ष स्वयं कवि और विद्वान था। उसने 'कविराजमार्ग' नामक एक अलारविषयक ग्रन्थ कन्नड़ भाषामें लिखा है। अमोघवर्ष जिनसेनका बड़ा भक्त था। महावीराचार्य के 'गणितसार संग्रह’ और संस्कृतकाव्य प्रश्नोत्तर रत्नमाला के उल्लेखोंसे स्पष्ठ है कि अमोघवर्षने जैन दीक्षा ग्रहण कर ली थी। अमोघवर्ष के समयमें केरल, मालवा, गुर्जर और चित्रकूट भी राष्ट्रकूट राज्य में सम्मिलित थे। श्री पं. नाथूरामजी प्रेमीका अनुमान है कि बड़ौदा भी अमोघवर्ष के राज्य में सम्मिलिन था। आततेन्द्र कोई राष्ट्रकूट राजा या सामन्त रहा होगा, जिनके मन्दिरमे धवलाटीका लिखो गयी। अतएव जिनसेनका सम्बन्ध चित्रकूटके साथ रहने तथा अमोघवर्ष द्वारा सम्मानित होनेसे इनका जन्मस्थान महाराष्ट्र और कर्णाटककी सीमाभूमिको अनुमानित किया जा सकता है।
श्रवणबेलगोलाके अभिलेखोंमें जिनसेनके उल्लेख अनेक स्थानों पर आये हैं। अभिलेखसंख्या ४७, ५०, १०५ और ४२२ में जिनसेनका निर्देश आया है।
मेघचन्द्र प्रशस्तिमें लिखा है-
"सिद्धंत नि वीरसेन गाभा -मस्कार:।"
जीयाज्जगत्यां जिनसेनसूरियस्योपदेशोज्जवलदर्पणेन।
व्यक्तीकृतं समिदं विनेयाः पुण्यं पुराणं पुरुषा विदन्ति।।
विनय भरण-पात्रं भव्यलोकमित्र विबुभनुतचरित्रं तद्गणेन्द्रागपुत्र।
विहितभुवनभद्रं वीतमोहोनिद्रं विनमत गुणभद्रं तीविद्यासमुद्रं॥
इन दोनों पद्योंमें जिनसेन और गणभद्र दोनोंकी प्रशंसा की गयी है। जिनसेनके उपदेशसे गुणभद्रने अवशिष्ट आदिपुराणको पूर्ण किया और उत्तरप्पुराणकी रचना की है। अभिलेख संख्या ४२२ में जिन जिनसेनका नाम आया है वे आचार्य जिनसेन द्वितीयसे भिन्न कोई भट्टारक हैं। अतः अभिलेखोंसे यह स्पष्ट है कि जिनसेन द्वितीय सिद्धान्त, पुराण और काव्यरचनामें अत्यन्त पटु थे। इनकी कविता-निर्झरिणीके सीकरोंसे सन्तुष्ट भन्यजन आनन्दमें मग्न होने लगते हैं। सरस्वतीका यह लाड़ला अपने युगका महान् विद्वान् और आचार्य है।
अभिलेख में जो जिनसेनके उपदेशको बात कही गयी है उसकी पुष्टि महा पुराणके मङ्गलपद्योंसे भी होती है। उन्होंने मङ्गलाचरणमें ही यह निर्देश कर दिया है कि यदि मेरे द्वारा यह ग्रन्थ पूर्ण न हो सके तो तुम (गुणभद्र) इसे पूर्ण करना। अतः अभिलेखोंका सम्बन्ध जिनसेनाचार्यके साहित्य के साथ भी घटित हो जाता है।
हरिवंशपुराणके रचयिता जिनसेन प्रथमने वीरसेन और जिनसेनका उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है-
जितात्मपरलोकस्य कवीना चक्रवर्तिनः।
वीरसेनगुरोः कीर्तिरकलकावभासते।।
यामिताभ्युदये पाश्वे जिनेन्द्रगुणसंस्तुतिः।
स्वामिनो जिनसेनस्य कीर्ति सङ्गीतंयत्यसौ।।
वर्धमानपुराणोद्यदादित्योक्तिगभस्तयः।
प्रस्फुरन्ति गिरीशान्तः स्फुटस्फटिकभित्तिषु।।
जिन्होंने परलोकको जीत लिया है और जो कवियोंके चक्रवर्ती हैं उन वीरसेनगुरुकी कलंकरहित कीर्ती प्रकाशित हो रही है। जिनसेनस्वामीने पार्श्वनाथ भगवानके गुणोंकी स्तुति बनायी है- पार्वाभ्युदयकी रचना की है, वही स्तुति उनकी कीर्त्तिका वर्णन कर रही है। इन जिनसेनके वर्धमानपुराण रूपी उदित होते हुए सूर्यकी उक्तिरूपी रश्मियों विद्वद् पुरुषोंके अन्तःकरण रूपी स्फटिक-भूमिमें प्रकाशमान हो रही है।
उक्त सन्दर्भ में प्रयुक्त 'अवभासते', 'सङ्कीर्तयति', 'प्रस्फुरन्ति' जैसे वर्तमानकालिक क्रियापद हरिवंशपुराणके रचयिता जिनसेनका इनको समकालीन सिद्ध करते हैं। हरिवंशपुराणकी रचना शक संवत् ७३५ (ई. सन् ७८३) में पूर्ण हुई है। अतः जिनसेनस्वामीका समय ई. सन्की आठवीं शतीका उत्तरार्ध है। जयधवलाटीकाको प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि इसकी समाप्ति जिनसेनने शक संवत् ७५९ फाल्गुन शुक्ला दशमीके पूर्वाहमें की है। इस टीकाको वीरसेनस्वामीने प्रारम्भ किया था, पर वे ४० हजारश्लोकप्रमाण ही लिख सके थे। अपने गुरुके इस अपूर्ण कार्यको जिनसेनने पूर्ण किया है। जिनसेनने आदिपुराणका प्रारम्भ अपनी वृद्धावस्था में किया होगा। इसी कारण वे इसके ४२ पर्व ही लिख सके। अतः जयधवलाटीकाके अनन्तर आदिपुराणकी रचना माननेसे जिनसेनका अस्तित्व ई. सन्की नवम् शती तक माना जा सकता है। गुणभद्रने उत्तरपुराणकी समाप्ति ई. सन् ८९७में की है।
यह पहले ही लिखा जा चूका है की जिनसेनाचार्य के शिष्य गुणभद्रने आदिपुराणके ४३ वे पर्वके चतुर्थ पद्यसे समाप्तिपर्यन्त कुल १६२० श्लोक रचे हैं। महापुराणके द्वितीय भागस्वरूप उत्तरपुराणको गुणभद्रने पूर्ण किया है। आदिपुराण में आदितीर्थका जीवनवृत्त है और उत्तरपुराणमें अजितनाथ ते महावीरपर्यन्त २३ तीर्थर, १२ चक्रवर्ती, ९ नारायण, ९ बलभद्र और ९ प्रतिनारायण तथा जीवन्धर स्वामी आदि विशिष्ट पुण्यात्मा पुरुषोंके कथानक अंकित किये गये हैं। उत्तरपुराणके अन्तमें गुणभद्रके शिष्य लोकसेन द्वारा लिखित प्रशास्तसे ज्ञात होता है कि शक संवत ८२०, श्रावण शुक्ला पंचमी गुरुवारको इस ग्रंथकी पूजा भी गयी। अत: उत्तरपुराणकी समाप्ति इससे पहले होनी चाहिये। इस प्रकार गुणभद्रका समय भी ई. सन्की दशम शताब्दि मानने में किसी प्रकारकी बाधा नहीं आती है। वास्तवमें वीरसेन, जिनसेन और गुणभद्र-इन तीनों आचार्यो का साहित्यिक व्यक्तित्व अत्यन्त महनीय है और तीनों एक दूसरेके अनुपूरक हैं। वीरसेनके अपूर्ण कार्यको जिनसेनने पूर्ण किया है और जिनसेनके अपूर्ण कार्यको गुणभद्रने।
जिनसेनाचार्य काव्य, व्याकरण, नाटक, दर्शन, अलङ्कार, आचार, कर्म सिद्धान्त प्रभृति अनेक विषयों के बहुज विद्वान थे। इनकी केवल तीन ही रचनाएँ उपलब्ध हैं। वर्धमानचरितकी सुचना अवश्य प्राप्त होती है, पर यह कृति अभी तक देखने में नहीं आयी है।
१. पार्श्वाभ्युदय
२. आदिपुराण
३. जयधवलाटीका
१. पार्श्वाभ्युदय
यह कालिदासके मेघत नामक काव्यकी समस्यापूति है। इसमें कहीं मेघदूतके एक और कहीं दो पादोंको लेकर पद्य-रचना की गयी है। इस काव्य ग्रन्थमें सम्पूर्ण मेघदूत समाविष्ट है। अतः मेघदूतके पाठशोधनके लिए भी इस ग्रन्थका मूल्य कम नहीं है।
दीक्षा धारण कर तीर्थकर पार्श्वनाथ प्रतिमायोगमें विराजमान हैं। पूर्व भवका विरोधी कमठका जीव शम्बर नामक ज्योतिष्कदेव अवधिज्ञानसे अपने शत्रुका परिज्ञान कर नानाप्रकारके उपसर्ग देता है। इसी कथावस्तुकी अभिव्यञ्जना पार्श्वाभ्युदय में की गयी है। शृंगाररससे ओत-प्रोत मेघदूतको शान्तरसमें परिवर्तित कर दिया गया है। साहित्यिक दृष्टिसे यह काव्य बहुत सुन्दर और काव्यगुणोंसे मंडित है। इसमें चार सर्ग हैं- प्रथम सर्गमें ११८, द्वितोय सर्गमें ११८, तृतीयमें ५७ और चतुर्थमें ७१ पद्य हैं। इस काव्यमें शम्बर (कमठ) यक्षके रूपमें कल्पित है। कविता अत्यन्त प्रौद्ध एवं चमत्कार पूर्ण है। यहाँ उदाहरणार्थ एक-दो पद्य उद्धृत किये जाते हैं-
तन्त्रीमाद्री नयनसलिलैं: सारयित्वा कथंचित्त
स्वाङ्गल्यग्रे: कुसुममृदुभिर्वल्लरीमस्पृशन्ती।
ध्यायं ध्याय त्वदुपगमनं शून्यचिन्तानुकष्ठी,
भूयोभूयः स्वयमपि कृता मूर्छनां विस्मरन्ती।।
आम्रकूट पर्वतके शिखर पर मेघके पहुंचने पर कवि पर्वत-शोभाका वर्णन करता हुआ कहता है-
कृष्णाहिः किं बलयिततनु: मध्यमस्याधिशेते;
कि वा नीलोत्पलविरचितं शेखरं भूभृतः स्यात्।
इत्याशङ्का जनयति पुरा मुग्धावद्याधरीणां,
त्वाय्यारूढे शिखरमचल: स्निग्धवेणीसवर्णे॥
समस्यापूर्तिमें कविने सर्वथा नवीन भावयोजना की है। मार्गवर्णन और वसुन्धराकी विरहावस्थाका वर्णन मेघदूत के समान ही है। परन्तु इसका संदेश मेघदूतसे भिन्न है। शम्बर पार्श्वनाथके धैर्य, सौजन्य, सहिष्णुता और अपार शक्तिसे प्रभावित होकर स्वयं वैरभावका त्याग कर उनकी शरणमें पहुँचता है और पश्चात्ताप करता हुआ अपने अपराधकी क्षमायाचना करता है। कविने काव्यके बीचमें “पापापाये प्रथममुदितं कारणं भक्तिरेव' जैसी सूक्तियोंकी भी योजना की है। इस काव्यमें कुल ३६४ मन्दाक्रान्ता पद्य हैं।
२. आदिपुराण
यह आकर ग्रन्थ है। पुराण होते हुए भी इसमें इतिहास, भूगोल, संस्कृति समाज, राजनीति और अर्थशास्त्र आदि विषय भी समाविष्ट हैं। जिनसेनने पुराणके लिए आठ वर्ण्य विषय बतलाये हैं।
१. लोक- लोक-संस्थान, लोक-आकृति, क्षेत्रफल, मेद एवं उर्ध्व, मध्य और अधोलोकका वर्णन, क्षेत्र, द्वीप, पर्वत, नदी आदिका वर्णन।
२. देश- जनपदोंका चित्रण।
३. नगर- अयोध्या, वाराणसी प्रभृति नगरियोंका चित्रण।
४. राज्य- राज्योंकी समृद्धिका चित्रण।
५. तीर्थ- धर्मप्रवृत्ति एवं तीर्थभूमियोंका निरूपण।
६. दान-तप- तप-दानकी फलोत्पादक कथाओंका वर्णन।
७. गति- चतुर्गतिके दुःखोंका वर्णन।
८. फल- पुण्य-पापके फलके साथ मोक्षप्राप्तीका निरूपण।
इन आठ विषयों के अतिरिक्त आदिपुराणमें निम्नलिखित पौराणिक तत्व भी विद्यमान हैं-
१. शलाकापुरुषों के कथानकसंयोगोंका दैवी घटनाओं पर आश्रयण।
२. आख्यानोंमें सहसा दिशापरिवर्तन।
३. समकालीन सामाजिक समस्याओंका उद्घाटन।
४. पारिवारिक जीवन के कटु-मधु चित्र।
५. संवाद-तत्त्वकी अल्पता रहनेपर भी घटनासूत्रों द्वारा आख्यानोंमें गसिमत्वधर्मकी उत्पत्ति।
६. कथाओंके मध्यमें पूर्वजन्मके आख्यानोंका समवाय, धर्मतत्व और धर्मसिद्धान्तोंका नियोजन।
७. रोचकता मध्यबिन्दु तक रहती है। अत: आगेकी कथावस्तुमें सघनता और घटनाओंका बाहुल्य।
८. अलंकृत वर्णनोंके साथ लोकतत्त्व और कथानकरूढ़ियोंका प्रयोग।
९. लोकानुश्रुतियां, पुराणगाथाएँ, लोकविश्वास प्रभृतिका संयोग।
१०. प्रेम, शृंगार, कुतुहल, मनोरंजन, रहस्य एवं धर्मश्रद्धाका वर्णन।
११. जनमानसका प्रतिफलम, पूर्वजन्मके संस्कार और फलोपभोगोंकी तरलताका चित्रण।
आदिपुराणकी कथा-वस्तुके प्रधान नायक आदि तीर्थंकर ऋषभदेव और उनके पुत्र भरतचक्रवर्ती हैं। इन दोनों शलाकापुरुषोंके जीवनसे सम्पर्क रखनेवाले कितने ही अन्य महापुरुषोंको कथाएँ भी आयी हैं। इस महाग्रंथकी कथा वस्तु ४७ पव में विभक्त है। प्रथम दो पर्वो में कथाके वका, श्रोता एवं पुराण श्रवणका फल आदि वर्णित है। तृत्तोय पर्व में उत्सर्पण और अवसपंगा कालाके सुषमसुप्रमादिभेदों एवं भोगभूमिकी व्यवस्थापर प्रकाश डाला गया है। प्रति श्रुति आदि कुलकरोंकी उत्पत्ति, उनके कार्य और उनकी आयु आदिका वर्णन आया है। अन्तिम कुलकर नाभिरायके समयमें गगनाङ्गगमें सर्वप्रथम घनघटा, विद्युत् प्रकाश और सूर्य की स्वर्णरश्मियोंके सम्पर्कसे उसमें रंग-बिरंगे इन्द्रधनुष दिखलायी पड़ते हैं। वर्षा होती है और वसुधातल जलमय हो जाता है। मयूर नृत्य करने लगते हैं और चिरसंत चातक सन्तोषकी साँस लेता है। कल्पवृक्ष नष्ट हो जाते हैं और विविध प्रकारके धान्य अपने-आप उत्पन्न होने लगते हैं। कल्पवृक्षोंके न रहनेसे प्रजामें व्याकुलता व्याप्त हो जाती है और सभी लोग आजीविकाविहीन दुःखी हो, नाभिरायके पास जाकर निर्वाह योग्य व्यवस्था पूछते हैं।
नाभिराय चौदहवें कुलकर-मनु थे। उन्होंने धान्य, फल, इक्ष, रस आदि उपयोग करने के विधि बतलायी तथा मिट्टीकि बर्त्तन बनाकर आवश्यकताकी पूर्ति करनेका उपदेश दिया। प्रजामें सुख और शान्ति बनाये रखने के लिए दण्डव्यवस्था भी प्रतिपादित की | इसी पर्वमें सभी कुलकरोंके कार्यों का वर्णन आया है। चतुर्थ पर्वमें पुराणके वर्णनीय विषयोंका प्रतिपादन करनेके अनन्तर जम्बूद्वीपके विदेह क्षेत्र अन्तर्गत गन्धिलदेश और उसकी अलकानगरीका चित्रण आया है। इस नगरीके अधिपति अतिबल विद्याधर और उसकी मनोहरा नामक राज्ञीका वर्णन किया है। इस दम्पतिके महाबल नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। अतिबल विरक्त होकर दीक्षित हो गया और महाबलको शासनभार प्राप्त हुआ। महाबलके महामति, सम्भिन्नति, शतमति और स्वयंबुद्ध ये चार मन्त्री थे। राजा मन्त्रियोंके ऊपर शासनभार छोड़कर भोगोपभोगोंके सेवनमें आसक्त हो गया।
पंचम पर्वमें महाबलकी विरक्ति और सलेखनाका निरूपण किया है। २२ दिनोंकी संलेखनाके प्रभावसे महाबल ऐशान स्वर्गमें ललितांग नामका महद्धिक देव होता है। षष्ठ पर्वमें आयुके छ: मास शेष रहनेपर ललितांग दुःखी होता है, पर समझाये जानेपर बह अच्युत स्वर्गकी जिनप्रतिमाओंका पूजन करते करते चैत्य वृक्ष के नीचे पंचनमस्कार मन्त्रका जाप करते-करते स्वर्गकी आयुको पूर्ण करता है। ललितांग स्वगसे च्युत हो, पुलावति देशके उत्पल खेट नगरके राजा बज्रवाह और रानी वसुन्धराके गर्भसे बनजंच नामका राजपुत्र होता है। ललितांगको प्रिया स्वयंप्रभा पुण्डरोकिणी नगरीके राजा वनदन्तके यहाँ श्रीमती नामकी पुत्री होती है। यशोधर गरुके कैवल्यमहोत्सव के लिए देवोंको आकाशमें जाते देखकर श्रीमतीको पूर्व भबका स्मरण हो आता है और वह अपने प्रिय ललितांगदेवको प्राप्त करने के लिए कृत्संकल्प हो जाती है। पंडित्तात्राय उसकी सहायता करती है। वह श्रीमती द्वारा निर्मित पूर्वभव के प्रतीकोंसे युक्त चित्रपटका लंकर उत्पलखेटके महापूत जिनालयमें पहुँचता है। यहांपर चित्रपटको फैला देता है। दर्शकवृन्द उसे देखकर चकित हो जाते हैं, पर उसके यथार्थ रहस्यसे अनभिज्ञ ही रहते हैं।
सप्तम पर्व में बताया गया है कि ललितांगदेवका जीव वज्रनजंघ महापूत चन्यालयमें आता है, और उस चित्रपटको देखते ही, उसे अपने पूर्वजन्मका स्मरण हो जाता है, जिससे वह अपनी प्रिया स्वयंप्रभाको प्राप्त करने के लिए बेचैन हो जाता है। पण्डिताधायको वह भी एक चित्रपट भेंट करता है, जिसमें स्वयंप्रभाके जीवनरहस्यको अंकित किया गया है। वचन पुण्डरीकिणी नगरी में आता है और श्रीमतीके साथ उसका विवाह हो जाता है। ललितांगदेव और स्वयंप्रभा पुनः वज्रजंघ और श्रीमतीके रूप में सयोगको प्राप्त करते है।
अष्टम पर्व में वज्रजंघ और पानी के भोगपभोगोंका वर्णन किया गया है। वज्रजंघका श्वसुर वज्रदन्त चक्रवर्ती कमलमें बन्द मृत भ्रमरको देखकर विरमत हो जाता है। पुत्र अमिततेजके द्वारा शासन स्वीकृत न किये जानेपर वह उसके पुत्र पुण्डरीकको राज्य देकर यशोधर मुनिके समक्ष अनेक राजाओंके साथ दीक्षित हो जाता है। पण्डिताधाय भी दीक्षित हो जाती है। चक्रवर्तीकी पत्नी लक्ष्मीमूर्ती पुण्डरीकको अल्पवयस्क जानकर राज्य सम्भालने के लिए अपने जामाता वज्रजंघको बुलाती है। वज्रजंघ अपनी प्रीया श्रीमतीके साथ पुण्डरीकिणी नगरीको प्रस्थान करता है। वह मार्गमें चारणऋद्धिधारी मुनियोंको आहारदान देता है। वह दमधर नामक मुनिराजसे अपने भवान्तर जानना चाहता है, मुनिराज उसे आठवें भवमें तीर्थकर होने तथा श्रीमतोको दानतीर्थ का प्रवर्तक श्रेयांस होने की भविष्यवाणी करते हैं। वज्रजंघ पुण्डरीकिणी नगरमें पहुंचकर सबको सान्त्वना देता है और अपने नगरमें लौट आता है।
नवम पर्व के प्रारम्भमें भागोपभोगोंका चित्रण आया है। एक दिन वज्रजंघ और श्रीमती शयनागारमें शयन कर रहे थे, सुगन्धित द्रव्यका धूम्र फैलनेसे शायनागार अत्यन्त सुवासित हो रहा था। सयोगवश द्वारपाल उस दिन गयाक्ष खोलना भल गया, जिससे श्वास रुक जाने के कारण उन दोनोको मृत्यु हो गयी। पात्रदानके प्रभावसे दोनों उत्तरकुरुमें आर्य-आर्या हुए। प्रीतिकर मुनिराज के सम्पर्कसे आर्य मरण कर ईशान स्वर्ग में श्रीधर नामका देव हुआ। आर्या भी उसी स्वर्ग में देवी हुई।
दशम पर्वके प्रारम्भमें प्रीतिकरके केवलज्ञान-उत्सवका वर्णन आया है। श्रीधर भी इस उत्सवमें सम्मिलित हुआ। अन्त में वह स्वर से च्युत होकर जम्बूद्वीपके पूर्व विदेहकी सुषमा नगरी में सुदष्टि राजाकी सुन्दरनन्दा नामक रानीके गर्भसे सुविधि नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। यह चक्रवर्ती राजा हुआ और श्रीमती का जीव केशव नामक इसका पुत्र हुआ। सुविधि पुत्रके अनुरागके कारण मुनि न बन सका, पर धरपर ही श्रावकके व्रतोंका पालन कर सन्यासके प्रभावसे सोलहवें स्वर्गमें अच्युतेन्द्र हुआ।
एकादश पर्वम अच्यतेन्द्र के पर्याय वज्रनाभिका वर्णन आया है। वचनाभि चक्ररत्नकी प्राप्तिके अनन्तर दिग्विजयके लिए प्रस्थान करता है। राज्यको समृद्ध करने के पश्चात् वह दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारणभावनाओंका चितन कर तीर्थकरप्रकृतिका बन्ध करता है। अन्त में प्रायोपगमन सन्यास धारण कर सर्वार्थसिद्धि विमानमें उत्पन्न होता है।
द्वादश पर्व में अहमिन्द्रका जीव ऋषभदेवके रूप में नाभिराय और मरुदेवीके यहाँ जन्म धारण करता है। इस पर्वमें मरुदेवीकी गर्भावस्था और देवियोंकी की गयी सेवांका वर्णन कीया गया है।
त्रयोदशा पर्वमें आदितीर्थंकर ऋषभदेवका इन्द्र द्वारा जन्माभिषेक उत्सवके किये जाने का निरूपण आया है। उनका सुमेरु पर्वतपर एक हजार आठ कलशों के द्वारा अभिषेक सम्पन्न होता है। चतूदश पर्व में इन्द्राणी बालकको वस्त्रा भषणोंसे सुसज्जित कर माताको सौंप देसी है। इन्द्र ताण्डवनृत्य कर उनका ऋषभदेव नाम रखता है।
पञ्चदश पर्व में ऋषभदेव के शारीरिक सौन्दर्य और उनके एक हजार आठ शुभ लक्षणोंका वर्णन आया है। महाराज नाभिराय युवक होनेपर पुत्रसे विवाह करनेका अनुरोध करते हैं। फलस्वरूप कच्छ और महाकच्छकी बहनें यशस्वती और सुनन्दाके साथ ऋषभदेवका विवाह सम्पन्न होता है।
षोड़शपर्वके अनुसार यशस्वतीके उदरसे भरतचक्रवर्तीका जन्म होता है और सुनन्दाके उदरसे बाहुबलीका। ऋषभदेवका यशस्वतीसे अन्य ९८ पुत्र और ब्राह्मी नामक कन्याकी प्राप्ति होती है। सुनन्दासे बाहुबली के अतिरिक्त सुन्दरी नामक कन्यारत्न भी उपलब्ध होती है। ऋषभदेव प्रजाको असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, सेवा और शिल्प इन षट् आजाविकोपयोगी कर्मोंकी शिक्षा देते हैं। त्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णो को व्यवस्था करते हैं ।
सप्तदश पर्वमें ऋषभदेवको विरक्ती प्राप्त करनेके लिए एक मार्मिक घटना घटित होती है। नीलाञ्जना नामक नर्तकी अचानक विलीन हो जाती है। ऋषभदेव इस अघटित घटनाको देखते ही विरक्त हो जाते हैं। स्वर्गसे लौकान्तिकदेव आकर उनके वैराग्यकी पुष्टि करते हैं। वे अयोध्या के पट्टपर भरतका राज्याभिषेक कर अन्य पुत्रोंको यथायोग्य राज्य देते हैं। सिद्धार्थवनमें जाकर परिग्रहका त्यागकर चैत्र कृष्णा नवमीके दिन ऋषभदेव दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। इनके साथ चार हजार अन्य राजा भी दीक्षित हो जाते हैं।
अष्टदश पर्वमें बताया गया है कि ऋषभदेव छ: माहका योग लेकर शिलापट्टपर आसीन हो जाते है। दीक्षा धारण करते ही मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो जाता है। साथमें दीक्षित हुए राजा भ्रष्ट हो जाते हैं और विभिन्न मतोंका प्रचार करते हैं। कच्छ, महाकच्छके पुत्र नमि-विनमि भगवान ऋषभदेवसे कुछ माँगने आते हैं। धरणेन्द्र उन्हें समझाकर विजयार्धपर्वत पर ले जाता है।
एकोनविंश पर्वमें धरणेन्द्र द्वारा नमि-विनमिको विजयार्द्धपर्वतकी नगरियोंका परिचय दिया गया है। विशपर्वमे आदितीर्थंकर ऋषभदेवका एक वर्षके तपः अनन्तर हस्तिनापुर गांराके यहां इक्षुरसका आहार होता है।
एकविंश पर्वमें ध्यानका वर्णन किया गया है। द्वाविंश पर्वमें ऋषभदेवको केवलज्ञानकी प्राप्ति, ज्ञानकल्याणक उत्सव एवं समवशरणका चित्रण आया है। त्रयोविंश पर्व में समवशरणमें इन्द्रने आदि तीर्थंकरकी पूजा-स्तुति की है। चतुर्विश पर्व में भरत द्वारा भगवान ऋषभदेवकी पूजा की गयी है। इसी पर्वमें भगवानको दिव्यध्वनिका भी वर्णन आया है। पंचविंश पर्व में अष्टप्रातिहार्य, चौतीस अतिशय और अनम्तचतुष्टय सुशोभित तीर्थंकरकी स्तुति की गयी है। इस पर्वमें सहस्रनामरूप महास्तवन भी आया है ।
षडविशतितम पर्व में भरत द्वारा चक्ररत्नकी पूजा और पुत्रोत्सव सम्पन्न करनेका वर्णन समाहित है। चक्रवर्ती दिग्विजयके लिए पूर्व दिशाकी ओर प्रस्थान करता है। सप्तविंशतितम पर्वमें गंगा और वन शोभाका वर्णन आया है। अष्टविंशतितम पर्वका आरम्भ दिग्विजयार्थ चक्रवर्तीके सैनिक प्रयाणसे होता है। चक्रवर्तीकी सेना स्थलमार्ग से गंगाके किनारेके उपवन में प्रविष्ट होती है। उसने लवण समुद्रको पार कर मागधदेवको जीता। एकोनत्रिंशत्तम पर्वमें दक्षिण दिशाकी ओर अभियान करनेका वर्णन आया है। त्रिशतितम पर्वमें चक्रवर्ती दक्षिणको विजय कर पश्चिम दिशाकी ओर बढ़ता है और विन्ध्यगिरिपर पहुँचता है। अनन्तर समुद्के किनारे-किनारे जाकर लवण समुद्रके तटपर पहुंचता है।
एकत्रिशत्तम पर्वमें आया है कि अठारह करोड़ घोड़ोंका अधिपति भरत उत्तरकी ओर प्रस्थान करता है और विजयाद्धकी उपत्यकामें पहुँचता है। द्वात्रिंशत्तमपर्वमें विजयार्धके गुहा-द्वारके उद्घाटनके अनन्तर नागजातिको वशमें किये जानेका वर्णन है। चिलात और आवर्त दोनों ही मलेच्छ राजा निरुपाय होकर शरणमें आते हैं।
त्रर्यास्त्रशत्तम पर्वमें बताया है कि भरतचक्रवर्ती दिग्विजय करने के पश्चात् सेना सहित अपनी नगरीमें आता है। मार्गमें अनेक देश, नगर और नदियोंका उल्लंघन कर कैलासपर्वतपर अनेक राजाओंके साथ ऋषभदेवकी पूजा करता है।
चतुस्त्रिशत्तम पर्वमें चक्रवर्ती कैलाससे उतरकर अयोध्याकी ओर बढ़ता है। यहाँ चक्ररत्न नगरीके भीतर प्रविष्ट नहीं होता, निमितज्ञानियों द्वारा भाइयों को विजित करनेकी बात बोलकर भरत उनके पास दूत भेजता है। बाहुबलीको छोड भरतके अन्य सब भाई ऋषभदेवके चरणमलमें जाकर दीक्षित हो जाते हैं।
पचचत्रिशतमपर्वमें बाहुबलिद्वारा भरतका युद्ध-निमन्त्रण स्वीकार कर लिया जाता है। षटत्रिंशत्तमपर्व में भरत और बाहुबलिके नेत्र, जल और मल्लयुद्धका वर्णन आया है। उक्त तीनों युद्धोंमें बाहुबलिको विजयी देखकर भरत कुपित हो चक्ररत्नका उपयोग करते हैं, जिससे बाहुबलि विरक्त हो जिन दोक्षा ग्रहण कर लेते हैं। सप्तत्रिशत्तम पर्वमें चक्रवर्तीके अयोध्या नगरीमें प्रवेश का वर्णन आया है। अष्टत्रिंशत्तम पर्वम भरतद्वारा अणुवर्तियोंको अपने घर बुलाये जानेका उल्लेख आता है। भरत इस सन्दर्भ में ब्राह्मणवर्णकी स्थापना करते हैं। एकोनचत्वारिंशत्तम और एकचत्वारिंशत्तम पर्वोमें क्रियाओं और संस्कारोंका वर्णन आया है। द्विचत्वारिंशत्तम पर्वमें राजनीति और वर्णाश्रम धर्मका उपदेश अंकित है। त्रिचत्वारिंशत्तम और चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्वोमें जयकुमारका सुलोचनाके स्वयंवरमें सम्मिलित होना तथा अन्य राजाओं के साथ युद्ध करनेका वर्णन आया है।
पञ्चचत्वारिंशत्तम पर्वमें जयकुमार और सुलोचनाके प्रेम-मिलनका चित्रण आया है। जयकुमार सुलोचनाको पटरानी बनाता है। षट्चत्वारिंशत्तमपर्वमें जयकुमार और सुलोचनाके अपने पूर्व भवका स्मरणकर मूर्छित होनेका वर्णन आया है। अन्तिम सप्तचत्वारिंशत्तम पर्वमें पूर्वभवावलीकी चर्चा करते हुए कहा है कि जयकुमार संसारसे विरक्त हो जाता है और दीक्षित हो ऋषभदेवके समवशरणमें गणधरपद प्राप्त करता है। चक्रवर्ती भरत दक्षिा ग्रहण करता है, और उसे तत्काल केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है। भगवान् ऋषभदेव अन्तिम विहार करते हैं और कैलासपर्वतपर उन्हें निर्वाणप्राप्ति हो जाती है।
इस प्रकार आदिपुराणमें ऋषभदेवके दस पूर्वभवोंको कथाएँ आयी हैं। दोनों शलाकापुरुषोंका विस्तृत जीवन-परिचय इस पुराण में अंकित है।
इस ग्रन्थके ४२ वर्ष (पर्व) जिनसेनने लिखे हैं और उनकी मृत्यु हो जाने पर शेष पाँच पर्व उनके शिष्य गुणभद्रने लिखे हैं। सम्पूर्ण ग्रन्थ 'महापुराण’ के नामसे प्रसिद्ध है और सुयोग्य गुरु-शिष्यको यह अनुपम कृत्ति मानी जाती है।
३. जयधवलाटीका
कषायप्राभृतके प्रथम स्कन्धकी चारों विभक्तियों पर जयधवला नामकी बीस हजार श्लोकप्रमाण टीका लिखनेके अनन्तर आचार्य वीरसेनका स्वर्गवास हो गया, अत: उनके शिष्य जिनसेनने अवशिष्ट भागपर चालीस हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे पूर्ण किया। यह टीका भी वीरसेनस्वामीकी शैली (संस्कृमिश्रित प्राकृत भाषा) में मणि-प्रवालन्यायसे लिखी गयी है। टीका इस रूपमें लिखी गयी है कि अन्तःपरीक्षणसे भी यह निर्णय नहीं किया जा सकता कि गुरु और शिष्यमसे किसने कितना भाग रचा है। इसीसे जिनसेनाचार्यके वैदुष्य और रचनाचातुर्यका अनुमान किया जा सकता है। इन्होंने जय धवलाकी प्रशस्तिमें लिखा है कि गुरुके द्वारा बहुवक्तव्य पूर्वार्धके प्रकाशित कर दिये जानेपर, उसको देखकर इस अल्पवक्तव्य उत्तरार्धको पूरा किया।
इस टीकाको तीन स्कन्धोंमें विभाजित किया गया है-
१. प्रदेश विभक्ति पर्यन्त स्कंध;
२. उपयोग वित्तीय स्कन्ध एवं
३. शेष भाग तृतीय स्कन्ध है।
इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारके अनुसार संक्रमके पहलेका विभक्तिपर्यन्त भाग वीरसेनस्वामीने रचा है। गणना करनेपर विभक्तिपर्यन्त ग्रंथका परिमाण साढ़े छब्बीस हजार श्लोक है, पर यहाँ गणना स्थूलरूपमें ग्रहणकर बीस हजार प्रमाण कहा गया है। अवशेष टीका जिनसेनस्वामीकी है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara- 2
Acharya Shri Jinsen Dwitiya (Prachin)
Acharya Shri Jinsen Dwitiya
#jinsendwitiyamaharaj
15000
#jinsendwitiyamaharaj
jinsendwitiyamaharaj
You cannot copy content of this page