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जैन परम्परामैं 'जोइंदू' या 'योगीन्दु' एक अध्यात्मवेत्ता आचार्य हैं। सारस्वताचार्य की परंपरा मे इनका नाम आता है। इनके जीवन-वृत्तके सम्बन्धमें न तो इनके ग्रन्थोंसे सामग्री उपलब्ध होती है और न अन्य वाङ्मयसे ही। परमात्मप्रकाशमें कविने अपने नामका उल्लेख किया है और अपने शिष्यका नाम भट्टप्रभाकर बताया है। पंचपरमेष्ठीको नमस्कार करनेके पश्चात् भट्टप्रभाकरने जिनदेव और योगीन्दुसे निर्मल परिणामोंकी प्राप्तिके हेतु प्रार्थना की है। यथा-
भावि पणविवि पंच-गुरु सिरि-जोइंदु-जिणाउ।
भट्टपहायरि विण्णविउ विमलु करेविणु भाउ।।
शुद्धभावसे पंचपरमेष्ठियोंको नमस्कार कर भट्टप्रभाकर अपने परिणामोंको निर्मल करनेके हेतु योगीन्दुदेवसे शुद्धात्मतत्त्व जाननेके लिए महाभक्तिसे प्रार्थना करता है।
परमात्मप्रकाशके टीकाकार ब्रह्मदेवने अपनी संस्कृतटीकामें 'जोइंदु जिणाउ’ का अर्थ योगीन्द्रदेवनामा भगवान किया है। समयसारकी टीका में जयसेनने 'तथा योगीन्दुदेवैरप्युक्तम्' कहकर परमात्मप्रकाशका निम्नलिखित दोहा उद्धृत किया है-
"ण वि उप्पज्जइ ण वि मरइ बधु ण भोफ्लु करइं।
जिउ परमत्थे जोइया जिणवरु एउ भणेई।।"
श्रुतसागरसूरिने कुन्दकुन्दके 'चरित्तपाहुड' की टीकामें 'उक्तञ्च योगीन्द्र नामाभट्टारकेण' लिखकर परमात्मप्रकाशके निम्नलिखित पद्यकी प्रस्तुत किया है-
जसु हरिणच्छी हियबडए तसु ण वि बंभु वियारि।
एक्कहि केम समंति बढ़ बे खंडा पडियारि।
इस प्रकार संस्कृत टीकाकारोंने जोइंदुको योगीन्दु नामसे अभिहित किया है और इसी नामसे ये प्रसिद्ध भी हुए हैं। योगसारमें ग्रन्थकर्ताका नाम योगिचन्द बताया है, जो कि जोइंदुका रूपान्तर है-
संसारह भय-भीयएण जोगिचंद-मुगिएण|
अप्पा-संबोहण कया दोहा इवक-मणेण॥
योगोन्दु योगिचन्द्रका रूपान्तर है और इसका अपभ्रंशरूप जोइंदु है। प्रायः चन्द्रान्त नामोंको संक्षिप्त रूप देने के लिए ग्रन्थकार 'इन्दु' द्वारा अभिहित करते हैं। यथा-प्रभाचन्द्रका प्रभेन्दु, शुभचन्द्रका शुभेन्दु हो गया है। इसी प्रकार योगिचन्द्रका योगीन्दु या जोइंदु हुआ है। अतएव डॉ. ए. एन. उपाध्येका यह सुझाव सर्वथा उचित है कि परमात्मप्रकाशके रचयिताका नाम योगीन्द्र नहीं, योगीन्दु है।
जोइदु कविके जीवनके सम्बन्धमें किसी भी साधनसे कोई प्रामाणिक सूचना प्राप्त नहीं होती है। परमात्मप्रकाशमें बताया गया है कि यह ग्रन्थ भट्टप्रभा करके निमित्तसे लिखा जा रहा है। यह बात परमात्मप्रकाशके आदि और अन्तसे भी सिद्ध होती है। मध्यमें भी कई स्थलों पर भट्टप्रभाकरको सम्बोधन करते हुए कथन किया गया है। ग्रंथकारने लिखा है-
इत्थु ण लेवउ पंडियहि गुण-दोसु वि पुणरुत्तु।
भट्ट-पभायर कारणइ, मई पुणु वि पउत्तु।
अर्थात् हे भव्यजीवों ! इस ग्रंथमें पुनरुक्त नामका दोष पण्डितजन ग्रहण नहीं करेंगे और न काव्यकलाकी दृष्टिसे ही इसका परीक्षण करेंगे। यतः मैंने प्रभाकर भट्टको सम्बोधित करने के लिए परमात्मतत्त्वका कथन किया है। इस कथनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि भट्टप्रभाकर कोई मुमुक्ष था, जिसके लिए इस ग्रंथका प्रतिपादन किया गया है। यह ग्रन्थ मुख्यरूपसे मुनियोंको लक्ष्यकर लिखा गया है। और इसके लेखक भी अध्यात्मरसिक मुनि ही हैं। अन्तिम मङ्गलके लिए आशीर्वादके रूपमें नमस्कार करते हुए लिखा है कि इस लोकमें विषयी जीव जिसे नहीं पा सकते, ऐसा यह परमात्मतत्त्व जयवन्त हो। विषयासोत वीतरागी मुनि ही इस आत्मतत्वको प्राप्त कर सकते हैं। जो मुनि भावपूर्वक इस परमात्मप्रकाशका चिन्तन करते हैं वे समस्त मोहको जीतकर परमार्थके ज्ञाता होते हैं। अन्य जो भी भव्यजीव इस परमात्मप्रकाशको जानते है वे भी लोक और अलोकका प्रकाश करनेवाले ज्ञानको प्राप्त कर लेते है। इस ग्रन्थके पठन-पाठनका फल शुद्ध आत्मतत्त्वकी प्राप्ति है।
उपयुक्त कथनसे इतना स्पष्ट ज्ञात होता है कि जोइंदु मुनि थे और इनका कोई मुमुक्षु शिष्य भट्टप्रभाकर था। इसीको सम्बोधित करनेके लिए परमात्म: प्रकाशकी रचना की गयी है।
डॉ. ए. एन. उपाध्येने 'जोइंदु'के समयपर विस्तारपूर्वक विचार किया है। उनके निष्कर्ष निम्न प्रकार है-
१. श्रुतसागरने जरितपाहुडकी टीकामें परमात्मप्रकाशके दोहे उद्धृत किये हैं।
२. चौदहवीं और बारहवीं शताब्दीमें परमात्मप्रकाशपर वालचन्द और ब्रह्मदेवने क्रमशः कन्नड़ एवं संस्कृत टीकाएँ लिखी हैं।
३. कुन्दकुन्दके समयसारके टीकाकार जयसेनने १२वीं शताब्दीके उत्तरार्धमें समयसारटीकामें परमात्मप्रकाशका एक दोहा उद्धृत किया है।
४. हेमचन्द्रने मुनि रामसिंहके दोहे अपने अपभ्रंशव्याकरणमें उद्धृत किये हैं। रामसिंहने जोइंदुके योगसार और परमात्मप्रकाशसे बहुतसे दोहे ग्रहण कर अपनी रचनाको समृद्ध बनाया है। अतः जोइंदु हेमचन्द्र और रामचन्द्र दोनोंसे पूर्ववर्ती हैं।
५. देवसेनकृत तत्वसारके अनेक पद्य परमात्मप्रकाशके ऋणी हैं। अत: जोइंदु देवसेनसे भी पूर्ववर्ती हैं।
६. चण्डके प्राकृसलक्षणमें 'यथा तथा अनयोः स्थाने' के उदाहरणमें निम्न लिखित दोहा प्राप्त होता है-
काल लहेविणु जोइया जिम-जिम मोहु गलेइ।
तिमु-तिमु दंसणु लहइ जिउ णियमें अप्पु मुणेइ॥
अर्थात् जोइंदु चण्डके पूर्ववर्ती हैं। पर चण्डके समयके सम्बन्धमें अभी तक मतैक्य नहीं है । डॉ. पी. डी. गुणेका मत है कि चण्ड उस समय हुए हैं जब अपभ्रंश भाषा केवल आभीरोंके बोलचालकी ही भाषा नहीं थी, अपितु साहित्यिक भाषा हो चुकी थी। अर्थात् ईसाकी छठी शताब्दिके पश्चात् चण्डका समय होना चाहिए। अन्य विद्वानोंका अनुमान है कि चण्डके व्याकरणको व्यवस्थित रूप ७वीं शताब्दिमे प्राप्त हुआ है। अतएव जोइंदुका समय इसके पूर्व होना सम्भव है।
कतिपय विद्वानोंने तो प्राकृतलक्षणका समय ई. पूर्व माना है। पर यह तर्क संगत नहीं है। यतः जोइंदुके परमात्मप्रकाश और कुन्दकुन्दके ग्रंथोंके तुलनात्मक अध्ययनसे यह स्पष्ट है कि परमात्मप्रकाश कुन्दकुन्दके मोक्षप्राभृत और पूज्यपादके समाधितंत्रके तुल्य है। परमात्मप्रकाश (१/१२१-१२४) में आत्माके तीन भेदोंका वर्णन है। यह वर्णन मोक्षप्राभृत (४ -८) से मिलता है। सम्यकदृष्टि और मिथ्यादृष्टिको परिभाषाएँ भी परमात्मप्रकाश (१/७६-७७) और कुन्दकुन्दके मोक्षप्राभृत (१४-१५) में समान रूपसे पायी जाती हैं। ब्रह्मदेवने अपनी संस्कृसटीकामें ७६ और ७७ वें दोहेका व्याख्यान लिखते हुए उक्त गाथाएँ उद्धृत की हैं। इस प्रकार निम्नलिखित दोहे और गाथाएँ समान भावकी है-
मोक्खपाहुड | परमात्मप्रकाश |
२४ गाथा | १/८६ दोहा |
३७ गाथा | २/१२ दोहा |
५१ गाथा | २/१७६ - १७७ दोहा |
पूज्यपादके समाधितन्त्र और परमात्मप्रकाशकी तुलना-
समाधितन्त्र | परमात्मप्रकाश |
४-५ पद्य | १/११-१४ दोहा |
३१ पद्य | २/१७५, १/१२३ दोहा |
६४-६६ पद्य | २/१७८-१८० दोहा |
७० पद्य | १/८० दोहा |
समाधितन्त्र और परमात्मप्रकाश दोनों ग्रन्थों में विषयगत और शैलीगत अनेक समसाएं पायी जाती हैं। व्याकरण होनेके कारण पूज्यपादके उद्गार संक्षिप्त परिमार्जीत और व्यवस्थित हैं। पूज्यपादने समाधितन्त्रमें जिस तथ्यको संक्षेपमें प्रतिपादित किया है उस तथ्यको जोइंदुने विस्तारपूर्वक निरूपित किया है। यहाँ तुलनाके लिए कतिपय पद्य उद्धृत किये जाते हैं-
य: परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः।
अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः।।
- समाधिसत्र, पञ्च-३१
जो परमप्पा णाणमउ सो हउ देउ अर्णतु।
जो हउ सो परमप्पु परु एइउ भावि णिभंतु ।।
-परमात्मप्रकाश, २/१७५
जीर्णे वस्त्रे यथात्मानं न जीर्णे मन्यते तथा।
जीर्णे स्वदेहेऽप्यास्मानं न जीर्णे मन्यते बुधः।
-समाधिसंत्र, पच-६४
जिण्णि वत्यि जैम बुहु देहु ण मण्णइ जिण्णु।
देहि जिणि णाणि तहें अप्पु ण मण्णइ जिण्णु ।।
-परमात्मप्रकाश, २/१७९
नष्टे वस्त्रे यथात्मानं न नष्टं मन्यते तथा।
नष्टे स्वदेहेप्यात्मानं न नष्टं मन्यत्ते बुधः।।
- समाधितंत्र, पद्य ६५
वत्थु पणठइ जेम बुहु देहु ण मण्णइ णटठ।
णट्ठे देहे णाणि तहे अप्पु ण मण्णह णट्ठ।।
-परमात्मप्रकाश, दोहा २।१८०
इस तुलनात्मक विवेचनसे निम्नलिखित तीन निष्कर्ष प्रस्तुत होते हैं-
(१) बोइंदु पूज्यपाद (ई. सन् छठी शती के उत्तरवर्ती हैं)।
(२) जोइंदु चण्डके पूर्ववर्ती हैं। यतः चण्डने इनके पूर्वोक्त दोहेको उदाहरणके रूपमें उद्धृत किया है।
(३) अतएव जोइंदुका समय पूज्यपादके पश्चात् और चण्डके पूर्व अर्थात् छठी शतीके पश्चात् और सातवीं शतीके पूर्व ई. सनकी छठी शताब्दीका उत्तरार्द्ध होना चाहिए।
परम्परासे जोइंदुके नामपर निम्नलिखित रचनाएँ मानी जाती है-
(१) परमात्मप्रकाश (अपभ्रंश)
(२) नौकारश्रावकाचार (अपभ्रंश)
(३) योगसार (अपभ्रंश)
(४) अध्यात्मसन्दोह (संस्कृत)
(५) सुभाषिततंत्र (संस्कृत)
(६) तत्त्वार्थटीका (संस्कृत)
इनके अतिरिक्त योगीन्द्रके नामपर दोहापाहुड (अपभ्रंश), अमृताशोती (संस्कृत) और निजात्माष्टक (प्राकृत) रचनाएँ भी प्राप्त होती हैं। पर यथार्थमें परमात्मप्रकाश और योगसार दो ही ऐसी रचनाएँ हैं जो निर्भान्त रूपसे जोइंदुकी मानी जा सकती हैं।
जोइंदु अध्यात्मवादी हैं, कवि नहीं। अपभ्रंशमें शुद्ध अध्यात्मविचारोंकी ऐसी सशक्त अभिव्यक्ति अन्यत्र नहीं मिल सकती है। इनके परमात्मप्रकाशमें दो अधिकार है। प्रथम अधिकारमें १२६ दोहे और द्वितीयमे २१९ हैं। इन दोहोंमें क्षेपक और स्थलसंख्याबाह्यप्रक्षेपक भी सम्मिलित हैं। ब्रह्मदेवके मतानुसार परमात्मप्रकाशमें समस्त ३४५ पद्म हैं। इनमें पांच गाथाएँ, एक स्रग्धरा और एक मालिनी हैं किन्तु इन पद्योंकी भाषा अपभ्रंश नहीं है। एक चतुष्पदिका भी है और शेष ३७७ दोहे हैं, जो अपभ्रंशमें निबद्ध हैं।
विषय-वर्णनकी दृष्टिसे प्रारम्भके सात पद्योंमें पंचपरमेष्ठीको नमस्कार किया गया है। आठवें, नवें और दसवे दोहेमें भट्टप्रभाकर जोइंदुसे निवेदन करता है-
गउ संसारि वसंताह सामिय कालु अणंतु।
पर मई कि पि ण पत्तु सुहु दुक्खु जि पत्तु महंतु।।
चउ-गइ-दुक्खहं तत्ताहे जो परमप्पउ कोइ।
चउ-गइ-दुक्ख-विणासयरु कहहु पसाएँ सो वि॥
हे स्वामिन्! इस संसारमें रहते हुए अनन्तकाल बीत गया, परन्तु मैंने कुछ भी सुख प्राप्त नहीं किया, प्रत्युत् महान् दुःख ही पाता रहा। अत: चारों गतियोंके दुखोंसे सन्तप्त प्राणियोंके चारों गति-सम्बन्धी दुखोंका विनाश करने वाले परमात्माका स्वरूप बतलाइए। उत्तरमें जोइंदु ने आत्माके तीन भेदोंका कथन किया है- (१) मूढ (२) विचक्षण और (३) ब्रह्म।
जो शरीरको ही आत्मा मानता है, वह मुढ है। जो शरीरसे भिन्न ज्ञानमय परमात्माको जानता है, वह विचक्षण या पण्डित है। जिसने कर्मोंका नाश कर शरीर आदि परद्रव्योंको छोड़ ज्ञानमय आत्माको प्राप्त कर लिया है वह परमात्मा है।
जोइंदुके मतसे आत्मा ही परमात्मा हो जाती है। निश्चयनयसे आत्मा और परमात्मामें कोई अन्तर नहीं है। जैसा निर्मल ज्ञानमय देव मुक्तिमें निवास करता है, वैसा ही परमब्रह्म शरीरमें निवास करता है। अतः दोनोंमें भेद नहीं किया जा सकता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि जोइंदुने आत्माको ब्रह्मशब्द द्वारा अभिहित किया है, जिससे उनपर अद्वेतका प्रभाव मालूम पड़ता है।
जोइंदुने आत्माके स्वरूप और आकारके सम्बन्ध में विभिन्न मतोंका निर्देश करते हुए जैन दृष्टिकोणके सम्बन्धमें बताया है। आत्माके सम्बन्धमें निम्न लिखित मान्यताएँ प्रचलित हैं, आचार्यने इन मान्यताओंका अनेकान्तवादके आलोकमें समन्वय किया है-
१. आत्मा सर्वगत है।
२. आत्मा जड़ है।
३. आत्मा शरीरप्रमाण है।
४. आत्मा शून्य है ।
१. कर्मबन्धनसे रहित आत्मा केवलज्ञान के द्वारा लोकालोकको जानती है, अतः ज्ञानापेक्षया सर्वगत है।
२. आत्मज्ञान में लीन जीव इन्द्रियजनित ज्ञानसे रहित हो जाते हैं, अतः ध्यान और समाधिकी अपेक्षा जड़ है।
३. शरीरबन्धनसे रहित हुआ शुद्ध जीव अन्तिमशरीरप्रमाण ही रहता है, न वह घटता और न वह बढ़ता ही है, अतः शरीरप्रमाण है। जिस शरीरको आत्मा धारण करती है, उसी शरीरके आकारकी हो जाती है, अतएव प्रदेशके संहार और प्रसरपणके कारण आत्मा शरीरप्रमाण है।
४, मोक्ष अवस्था प्राप्त करने पर शुद्ध जीव आठों कर्मो और अठारह दोषोंसे शून्य हो जाता है, अतः उसे शून्य कहा गया है।
द्वितीय अधिकारमें मोक्ष, मोक्षका फल एवं मोक्षके कारणका कथन किया गया है। प्रथम ग्यारह गाथाओंमें मोक्ष और उसके फलका कथन आया है। पश्चात मोक्षके कारणोंका निरूपण किया गया है। 'जोइन्दु’ ने भी कुन्दकुन्दके समान सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको मोक्षका कारण बतलाकर इन तीनोंकी निश्चयदृष्टीकी अपेक्षासे आत्मस्वरूप ही बतलाया है। इसके पश्चात् समभावकी प्रशंसा को गयी है।
जोइन्दुने पुण्य और पापकी समता बतलाते हुए लिखा है कि जो जीव पुण्य और पापको समान नहीं मानता, वह मोहके वशीभूत होकर चिरकाल तक भ्रमण करता है। इतना ही नहीं अपितु यह भी लिखा है कि वह पाप अच्छा है जो जीवको दुःख देकर मोक्षकी ओर लगाता है। इसी प्रकरण में पुण्यकी निन्दा भी की गयी है | आगेके दोहेमें आर्यशान्तिका मत दिया गया है। इस मतमें बताया गया है कि देव शास्त्र और मुनिवरोंकी भक्ति से पुण्य होता है, कार्मोंका भय नहीं होता, ऐसा आर्यशान्ति मानते हैं। वन्दना, निन्दा, प्रतिक्रमण आदिको पुण्य कारक बतलाकर एकमात्र शुद्धभावको ही उपादेय बतलाया है। अतः शुद्धोपयोगीके हो संयम, शील और तप सम्भव हैं। जिसको सम्यग्दर्शन और सम्यम्ज्ञान प्राप्त है, उसीके कर्मो का क्षय होता है। अतः शुद्धोपयोग ही प्रधान है। चित्तकी शुद्धीके बिना योगियोंका तीर्थाटन करना, शिष्य-प्रशिष्योंका पालन-पोषण करना सब निरर्थक है, जो जिनलिंग धारण कर भी परिग्रह रखता है, वह वमनके भक्षण करनेवालेके समान है। नग्नवेष धारण कर भी भिक्षामें मिष्टान्न भोजन या स्वादिष्ट भोजनकी कामना करना दोषका कारण है । आत्मनिरीक्षण और आत्मशुद्धि सर्वदा अपेक्षित है।
योगसारमें १०८ दोहे हैं। वर्ण्यविषय प्रायः परमात्मप्रकाशके तुल्य ही हैं। इन दोहोंमें एक चौपाई और दो सोरठा भी सम्मिलित है। अपभ्रंश भाषामे लिखा गया यह ग्रन्थ एक प्रकारसे परमात्मप्रकाशका सार कहा जा सकता है।
इसके प्रारम्भमें भी आत्माके उन्हीं तीनों भेदोंका निरूपण आया है, जिनका परमात्मप्रकाशमें निर्देश किया जा चुका है। बताया है कि यदि जीव, तू आत्माको आत्मा समझेगा, तो निर्वाण प्राप्त कर लेगा। किन्तु यदि तु परपदार्थों को आत्मा मानेगा, तो संसारमें भटकेगा ही ।
कुन्दकुन्दने कर्मविमुक्त आत्माको परमात्मा बतलाते हुए उसे ज्ञानी, परमेष्ठी, सर्वज्ञ, विष्णु, तुचतुर्मुख और बुद्ध कहा है। योगसारमें भी उसके जिन, बुद्ध, विष्णु, शिव आदि नाम बतलाये हैं। जोइन्दुने भी कुन्दकुन्दकी तरह निश्चय और व्यवहार नयोंके द्वारा आत्माका कथन किया है। योगसारमें ये दोनों ही दृष्टियाँ विशेषरूपसे विद्यमान हैं-
देहा-देवलि देउ जिणु जणु देवलिहिं णिएइ।
हासउ महु पडिहाइ इहु सिद्धे भिक्ख भमेई।।
श्रुतकेवलिने कहा है कि देव न देवालयमें है, न तीर्थो में। यह तो शरीर रूपी देवालयमें है, यह निश्चयसे जान लेना चाहिये। जो व्यक्ति शरीरके बाहर अन्य देवालयों में देवकी तलाश करते हैं, उन्हें देखकर हँसी आती है।
योगसारके अध्ययनसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि इसका विषय क्रमबद्ध नहीं है। यह एक संग्रह जसा है। विषयानरूपणके लिये क्रमबद्ध शैलीका अनुसरण नहीं किया गया है। फुटकर विषयोंका संकलन जैसा प्रतीत होता है। यथा-
विरला जाणहिं तत्तु बुह विरला णिसुणहि तत्तु।
विरला झायहि तत्तु जिय विरला धारहिँ तत्तु।।
विरले जन तत्वको समझते हैं, विरले ही तत्वको सुनते हैं, विरले ही तत्त्वका ध्यान करते हैं और विरले ही तत्वको धारण करते हैं। यह दोहा अपने स्थान पर नहीं है। खींच-तान कर क्रमबद्धता सिद्ध कर भी दी जाय, तो भी उचित स्थान पर इसका सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता।
९८वें संख्यक दोहेमें पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानोंके नाम गिनाये हैं। इसके आगे दोहा ९९ से १०३ तक सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसाम्पदाराय संयमका स्वरूप बतलाया गया है। यहाँ यथाख्यातका स्वरूप छूटा हुआ है। अन्तमें बताया है कि जो सिद्ध हो चुके हैं, जो सिद्ध होंगे और जो वर्तमानमें सिद्ध हो रहे हैं, वे सब आत्मदर्शनसे ही सिद्ध हुए हैं। यही आत्मदर्शन इस ग्रन्थका मुख्य प्रतिपाद्य विषय है।
जोइन्दु कविका अपभ्रंश भाषापर अपूर्व अधिकार है। इन्होंने अपने उक्त दोनों ग्रन्थों में आध्यात्मरसका सुन्दर चित्रण किया है। ये क्रान्तिकारी विचार धाराके प्रवर्तक हैं। इसी कारण इन्होंने बाह्य आडम्बरका खण्ड़न कर आत्मज्ञानपर जोर दिया है। कविने लिखा है-
तत्तातत्तु मुणेवि मणि जे थक्का सम-भावि।
ते पर सुहिया इत्यु जगि जहँ रइ अप्प-सहायि।।
हे जीव ! जिस मोहसे अथवा मोह उत्पन्न करनेवाली वस्तुसे मनमें कषायभाव उत्पन्न हों, उस मोहको अथवा मोह-निमित्तक पदार्थको छोड़, तभी मोहजनित कषायके उदयसे छुटकारा प्राप्त हो सकेगा। तात्पर्य यह है कि विषयादिक सब सामग्री और मिथ्यादृष्टी पापियोंका संग सब तरहसे मोहकषायको उत्पन्न करते हैं। इससे ही मनमें कषायरूपी अग्नि दहकती रहती है, जो इसका त्याग करता है, वही सच्ची शान्ति और सुखको पाता है।
जोइन्दु कविकी अपेक्षा अध्यात्मशक्तिके निरूपक अधिक है। विषयासक्त जीवोंको परमात्माका दर्शन नहीं हो सकता। अतएव जिसने इस आसक्तिको दूर कर दिया है, उसीके हृदयमें परमात्माका निवास सम्भव होता है। आचार्य इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुये बतलाते हैं-
"जसु हरिणच्छी हियवडए तसु णवि बंभु वियारि।
एक्कहिं केम समंति बढ़ बे खंडा पडियारि।।
णिय-मणि णिम्मलि णाणियह णिवसइ देउ अणाई|
हंसा सरवरि लीणु जिम महु एहउ परिहाइ।।"
जो विषयोंमें लीन है, उसे परमात्माका दर्शन नहीं हो सकता। वीतराग निर्विकल्प परमसमाधिरूप अनाकुलता ही आनन्दका कारण है। जिसके चित्तमें स्त्रीसम्बन्धी विकार है, वह शुद्धात्मामें अपनेको स्थिर नहीं कर सकता। विकारी आत्मा वक्र मानी जाती है और वक्र वस्तुमें सरलका प्रवेश नहीं हो पाता। अतएव हाव-भाव और विभ्रमसे दूषित चित्तवाला व्यक्तिः ब्रम्ह या आत्माका विचार नहीं कर सकता है।
ज्ञानियोंके रागादिमलरहित निज मनमें अनादि देव अराधने योग्य शुद्ध आत्मा निवास कर रही है। जिस प्रकार मानसरोवरमें हंस लीन हुआ बसता है, उसी प्रकार जो शुद्धात्मामें निवास करता है, उसीके रागादि दोष दूर होते हैं। इस प्रकार आचार्य जोइन्दुने अध्यात्मतत्त्वका निरूपण अपने दोनों ग्रंथोंमें किया है।
जैन रहस्यवादका निरूपण रहस्यवादके रूपमें सर्वप्रथम इन्हींसे आरम्भ होता है। यों तो कुन्दकुन्द, वट्टकेर और शिवार्यको रचनाओंमें भी रहस्यवादके तत्व विद्यमान है, पर यथार्थतः रहस्यवादका रूप जोइन्दुकी रचनाओंमें ही मिलता है। वर्गसौने जिस रहस्यानुभूतिका स्वरूप प्रस्तुत किया है, वह रहस्यानुभूति हमें इनकी रचनाओंमें प्राप्त होती है- "यदि संसारके प्रति अनासक्ति पूर्ण हो जाय और वह अपने किसी भी ऐन्द्रिय प्रत्यय द्वारा किये किसी व्यापारके प्रति चिपके नहीं, तो यही एक कलाकारकी आत्मा होगी, जैसा कि संसारने पहले देखा न होगा। वह युगपत् समानरूपसे प्रत्येक कलामें पारंगत होगा, या यों कहें कि वह 'सब'को 'एक' में परिणत कर लेगा। वह वस्तुमात्रको उसके सहज शुद्ध रूपमें देख लेगा।" परमात्मप्रकाशके रहस्यवादमें आत्मानुभूति सम्बन्धी विशेषताके साथ अन्य विशेषताएँ भी पायी जाती हैं।
१. आत्मा और परमात्माके बीच पारस्परिक अनुभूतिका साक्षात्कार और दोनोंके एकत्त्वकी प्रतीति।
२. आत्मामें परमात्मशक्तिका पूर्ण विश्वास
३. ध्येय, ध्याता या ज्ञेय-ज्ञातामें एकत्वका आरोप
४. सांसारिक विषयोंके प्रति उदासीनता
५. लौकिक ज्ञानके साधन इन्द्रिय और मनकी सहायताके बिना ही पूर्ण सत्यको जान लेनेकी क्षमता।
६. आध्यात्मवादकी रहस्यवादके रूपमें कल्पना।
७. निश्चय और व्यवहार नयकी दृष्टियोंसे भेदाभेदका विवचन।
८. पुण्य-पापकी समता तथा दोनोंको ही समान रूपसे त्याज्य माननेकी भावनाका संयोजन।
९. अनुभूति द्वारा रसास्वादकी प्रक्रियाका स्थापन।
इस प्रकार जोइन्दु अपभ्रंशके ऐसे सर्वप्रथम कवि हैं, जिन्होंने क्रान्तिकारी विचारोंके साथ आत्मिक रहस्यवादकी प्रतिष्ठा कर मोक्षका मार्ग बतलाया है।
वैदुष्यकी दृष्टिसे यह कहा जा सकता है कि इन्होंने कुन्दकुन्द और पूज्यपादके आध्यात्मिक ग्रन्थोंका अध्ययन कर अपने ग्रन्थ-लेखनके लिये विषय-वस्तु ग्रहण की है। पूर्वाचार्योको मान्य परम्पराको एक नये रूपमें ही उपस्थित किया है। यही कारण है कि जोइन्दुका प्रभाव अपभ्रंशके कवियोंके साथ हिन्दीके सन्त कवियों पर भी पड़ा है। कबीरने जिस कान्तिकारी विचारधाराको प्रतिष्ठ की है, उशका मूल स्रोत जोइन्दुकी रचनामें पाया जाता है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
जैन परम्परामैं 'जोइंदू' या 'योगीन्दु' एक अध्यात्मवेत्ता आचार्य हैं। सारस्वताचार्य की परंपरा मे इनका नाम आता है। इनके जीवन-वृत्तके सम्बन्धमें न तो इनके ग्रन्थोंसे सामग्री उपलब्ध होती है और न अन्य वाङ्मयसे ही। परमात्मप्रकाशमें कविने अपने नामका उल्लेख किया है और अपने शिष्यका नाम भट्टप्रभाकर बताया है। पंचपरमेष्ठीको नमस्कार करनेके पश्चात् भट्टप्रभाकरने जिनदेव और योगीन्दुसे निर्मल परिणामोंकी प्राप्तिके हेतु प्रार्थना की है। यथा-
भावि पणविवि पंच-गुरु सिरि-जोइंदु-जिणाउ।
भट्टपहायरि विण्णविउ विमलु करेविणु भाउ।।
शुद्धभावसे पंचपरमेष्ठियोंको नमस्कार कर भट्टप्रभाकर अपने परिणामोंको निर्मल करनेके हेतु योगीन्दुदेवसे शुद्धात्मतत्त्व जाननेके लिए महाभक्तिसे प्रार्थना करता है।
परमात्मप्रकाशके टीकाकार ब्रह्मदेवने अपनी संस्कृतटीकामें 'जोइंदु जिणाउ’ का अर्थ योगीन्द्रदेवनामा भगवान किया है। समयसारकी टीका में जयसेनने 'तथा योगीन्दुदेवैरप्युक्तम्' कहकर परमात्मप्रकाशका निम्नलिखित दोहा उद्धृत किया है-
"ण वि उप्पज्जइ ण वि मरइ बधु ण भोफ्लु करइं।
जिउ परमत्थे जोइया जिणवरु एउ भणेई।।"
श्रुतसागरसूरिने कुन्दकुन्दके 'चरित्तपाहुड' की टीकामें 'उक्तञ्च योगीन्द्र नामाभट्टारकेण' लिखकर परमात्मप्रकाशके निम्नलिखित पद्यकी प्रस्तुत किया है-
जसु हरिणच्छी हियबडए तसु ण वि बंभु वियारि।
एक्कहि केम समंति बढ़ बे खंडा पडियारि।
इस प्रकार संस्कृत टीकाकारोंने जोइंदुको योगीन्दु नामसे अभिहित किया है और इसी नामसे ये प्रसिद्ध भी हुए हैं। योगसारमें ग्रन्थकर्ताका नाम योगिचन्द बताया है, जो कि जोइंदुका रूपान्तर है-
संसारह भय-भीयएण जोगिचंद-मुगिएण|
अप्पा-संबोहण कया दोहा इवक-मणेण॥
योगोन्दु योगिचन्द्रका रूपान्तर है और इसका अपभ्रंशरूप जोइंदु है। प्रायः चन्द्रान्त नामोंको संक्षिप्त रूप देने के लिए ग्रन्थकार 'इन्दु' द्वारा अभिहित करते हैं। यथा-प्रभाचन्द्रका प्रभेन्दु, शुभचन्द्रका शुभेन्दु हो गया है। इसी प्रकार योगिचन्द्रका योगीन्दु या जोइंदु हुआ है। अतएव डॉ. ए. एन. उपाध्येका यह सुझाव सर्वथा उचित है कि परमात्मप्रकाशके रचयिताका नाम योगीन्द्र नहीं, योगीन्दु है।
जोइदु कविके जीवनके सम्बन्धमें किसी भी साधनसे कोई प्रामाणिक सूचना प्राप्त नहीं होती है। परमात्मप्रकाशमें बताया गया है कि यह ग्रन्थ भट्टप्रभा करके निमित्तसे लिखा जा रहा है। यह बात परमात्मप्रकाशके आदि और अन्तसे भी सिद्ध होती है। मध्यमें भी कई स्थलों पर भट्टप्रभाकरको सम्बोधन करते हुए कथन किया गया है। ग्रंथकारने लिखा है-
इत्थु ण लेवउ पंडियहि गुण-दोसु वि पुणरुत्तु।
भट्ट-पभायर कारणइ, मई पुणु वि पउत्तु।
अर्थात् हे भव्यजीवों ! इस ग्रंथमें पुनरुक्त नामका दोष पण्डितजन ग्रहण नहीं करेंगे और न काव्यकलाकी दृष्टिसे ही इसका परीक्षण करेंगे। यतः मैंने प्रभाकर भट्टको सम्बोधित करने के लिए परमात्मतत्त्वका कथन किया है। इस कथनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि भट्टप्रभाकर कोई मुमुक्ष था, जिसके लिए इस ग्रंथका प्रतिपादन किया गया है। यह ग्रन्थ मुख्यरूपसे मुनियोंको लक्ष्यकर लिखा गया है। और इसके लेखक भी अध्यात्मरसिक मुनि ही हैं। अन्तिम मङ्गलके लिए आशीर्वादके रूपमें नमस्कार करते हुए लिखा है कि इस लोकमें विषयी जीव जिसे नहीं पा सकते, ऐसा यह परमात्मतत्त्व जयवन्त हो। विषयासोत वीतरागी मुनि ही इस आत्मतत्वको प्राप्त कर सकते हैं। जो मुनि भावपूर्वक इस परमात्मप्रकाशका चिन्तन करते हैं वे समस्त मोहको जीतकर परमार्थके ज्ञाता होते हैं। अन्य जो भी भव्यजीव इस परमात्मप्रकाशको जानते है वे भी लोक और अलोकका प्रकाश करनेवाले ज्ञानको प्राप्त कर लेते है। इस ग्रन्थके पठन-पाठनका फल शुद्ध आत्मतत्त्वकी प्राप्ति है।
उपयुक्त कथनसे इतना स्पष्ट ज्ञात होता है कि जोइंदु मुनि थे और इनका कोई मुमुक्षु शिष्य भट्टप्रभाकर था। इसीको सम्बोधित करनेके लिए परमात्म: प्रकाशकी रचना की गयी है।
डॉ. ए. एन. उपाध्येने 'जोइंदु'के समयपर विस्तारपूर्वक विचार किया है। उनके निष्कर्ष निम्न प्रकार है-
१. श्रुतसागरने जरितपाहुडकी टीकामें परमात्मप्रकाशके दोहे उद्धृत किये हैं।
२. चौदहवीं और बारहवीं शताब्दीमें परमात्मप्रकाशपर वालचन्द और ब्रह्मदेवने क्रमशः कन्नड़ एवं संस्कृत टीकाएँ लिखी हैं।
३. कुन्दकुन्दके समयसारके टीकाकार जयसेनने १२वीं शताब्दीके उत्तरार्धमें समयसारटीकामें परमात्मप्रकाशका एक दोहा उद्धृत किया है।
४. हेमचन्द्रने मुनि रामसिंहके दोहे अपने अपभ्रंशव्याकरणमें उद्धृत किये हैं। रामसिंहने जोइंदुके योगसार और परमात्मप्रकाशसे बहुतसे दोहे ग्रहण कर अपनी रचनाको समृद्ध बनाया है। अतः जोइंदु हेमचन्द्र और रामचन्द्र दोनोंसे पूर्ववर्ती हैं।
५. देवसेनकृत तत्वसारके अनेक पद्य परमात्मप्रकाशके ऋणी हैं। अत: जोइंदु देवसेनसे भी पूर्ववर्ती हैं।
६. चण्डके प्राकृसलक्षणमें 'यथा तथा अनयोः स्थाने' के उदाहरणमें निम्न लिखित दोहा प्राप्त होता है-
काल लहेविणु जोइया जिम-जिम मोहु गलेइ।
तिमु-तिमु दंसणु लहइ जिउ णियमें अप्पु मुणेइ॥
अर्थात् जोइंदु चण्डके पूर्ववर्ती हैं। पर चण्डके समयके सम्बन्धमें अभी तक मतैक्य नहीं है । डॉ. पी. डी. गुणेका मत है कि चण्ड उस समय हुए हैं जब अपभ्रंश भाषा केवल आभीरोंके बोलचालकी ही भाषा नहीं थी, अपितु साहित्यिक भाषा हो चुकी थी। अर्थात् ईसाकी छठी शताब्दिके पश्चात् चण्डका समय होना चाहिए। अन्य विद्वानोंका अनुमान है कि चण्डके व्याकरणको व्यवस्थित रूप ७वीं शताब्दिमे प्राप्त हुआ है। अतएव जोइंदुका समय इसके पूर्व होना सम्भव है।
कतिपय विद्वानोंने तो प्राकृतलक्षणका समय ई. पूर्व माना है। पर यह तर्क संगत नहीं है। यतः जोइंदुके परमात्मप्रकाश और कुन्दकुन्दके ग्रंथोंके तुलनात्मक अध्ययनसे यह स्पष्ट है कि परमात्मप्रकाश कुन्दकुन्दके मोक्षप्राभृत और पूज्यपादके समाधितंत्रके तुल्य है। परमात्मप्रकाश (१/१२१-१२४) में आत्माके तीन भेदोंका वर्णन है। यह वर्णन मोक्षप्राभृत (४ -८) से मिलता है। सम्यकदृष्टि और मिथ्यादृष्टिको परिभाषाएँ भी परमात्मप्रकाश (१/७६-७७) और कुन्दकुन्दके मोक्षप्राभृत (१४-१५) में समान रूपसे पायी जाती हैं। ब्रह्मदेवने अपनी संस्कृसटीकामें ७६ और ७७ वें दोहेका व्याख्यान लिखते हुए उक्त गाथाएँ उद्धृत की हैं। इस प्रकार निम्नलिखित दोहे और गाथाएँ समान भावकी है-
मोक्खपाहुड | परमात्मप्रकाश |
२४ गाथा | १/८६ दोहा |
३७ गाथा | २/१२ दोहा |
५१ गाथा | २/१७६ - १७७ दोहा |
पूज्यपादके समाधितन्त्र और परमात्मप्रकाशकी तुलना-
समाधितन्त्र | परमात्मप्रकाश |
४-५ पद्य | १/११-१४ दोहा |
३१ पद्य | २/१७५, १/१२३ दोहा |
६४-६६ पद्य | २/१७८-१८० दोहा |
७० पद्य | १/८० दोहा |
समाधितन्त्र और परमात्मप्रकाश दोनों ग्रन्थों में विषयगत और शैलीगत अनेक समसाएं पायी जाती हैं। व्याकरण होनेके कारण पूज्यपादके उद्गार संक्षिप्त परिमार्जीत और व्यवस्थित हैं। पूज्यपादने समाधितन्त्रमें जिस तथ्यको संक्षेपमें प्रतिपादित किया है उस तथ्यको जोइंदुने विस्तारपूर्वक निरूपित किया है। यहाँ तुलनाके लिए कतिपय पद्य उद्धृत किये जाते हैं-
य: परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः।
अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः।।
- समाधिसत्र, पञ्च-३१
जो परमप्पा णाणमउ सो हउ देउ अर्णतु।
जो हउ सो परमप्पु परु एइउ भावि णिभंतु ।।
-परमात्मप्रकाश, २/१७५
जीर्णे वस्त्रे यथात्मानं न जीर्णे मन्यते तथा।
जीर्णे स्वदेहेऽप्यास्मानं न जीर्णे मन्यते बुधः।
-समाधिसंत्र, पच-६४
जिण्णि वत्यि जैम बुहु देहु ण मण्णइ जिण्णु।
देहि जिणि णाणि तहें अप्पु ण मण्णइ जिण्णु ।।
-परमात्मप्रकाश, २/१७९
नष्टे वस्त्रे यथात्मानं न नष्टं मन्यते तथा।
नष्टे स्वदेहेप्यात्मानं न नष्टं मन्यत्ते बुधः।।
- समाधितंत्र, पद्य ६५
वत्थु पणठइ जेम बुहु देहु ण मण्णइ णटठ।
णट्ठे देहे णाणि तहे अप्पु ण मण्णह णट्ठ।।
-परमात्मप्रकाश, दोहा २।१८०
इस तुलनात्मक विवेचनसे निम्नलिखित तीन निष्कर्ष प्रस्तुत होते हैं-
(१) बोइंदु पूज्यपाद (ई. सन् छठी शती के उत्तरवर्ती हैं)।
(२) जोइंदु चण्डके पूर्ववर्ती हैं। यतः चण्डने इनके पूर्वोक्त दोहेको उदाहरणके रूपमें उद्धृत किया है।
(३) अतएव जोइंदुका समय पूज्यपादके पश्चात् और चण्डके पूर्व अर्थात् छठी शतीके पश्चात् और सातवीं शतीके पूर्व ई. सनकी छठी शताब्दीका उत्तरार्द्ध होना चाहिए।
परम्परासे जोइंदुके नामपर निम्नलिखित रचनाएँ मानी जाती है-
(१) परमात्मप्रकाश (अपभ्रंश)
(२) नौकारश्रावकाचार (अपभ्रंश)
(३) योगसार (अपभ्रंश)
(४) अध्यात्मसन्दोह (संस्कृत)
(५) सुभाषिततंत्र (संस्कृत)
(६) तत्त्वार्थटीका (संस्कृत)
इनके अतिरिक्त योगीन्द्रके नामपर दोहापाहुड (अपभ्रंश), अमृताशोती (संस्कृत) और निजात्माष्टक (प्राकृत) रचनाएँ भी प्राप्त होती हैं। पर यथार्थमें परमात्मप्रकाश और योगसार दो ही ऐसी रचनाएँ हैं जो निर्भान्त रूपसे जोइंदुकी मानी जा सकती हैं।
जोइंदु अध्यात्मवादी हैं, कवि नहीं। अपभ्रंशमें शुद्ध अध्यात्मविचारोंकी ऐसी सशक्त अभिव्यक्ति अन्यत्र नहीं मिल सकती है। इनके परमात्मप्रकाशमें दो अधिकार है। प्रथम अधिकारमें १२६ दोहे और द्वितीयमे २१९ हैं। इन दोहोंमें क्षेपक और स्थलसंख्याबाह्यप्रक्षेपक भी सम्मिलित हैं। ब्रह्मदेवके मतानुसार परमात्मप्रकाशमें समस्त ३४५ पद्म हैं। इनमें पांच गाथाएँ, एक स्रग्धरा और एक मालिनी हैं किन्तु इन पद्योंकी भाषा अपभ्रंश नहीं है। एक चतुष्पदिका भी है और शेष ३७७ दोहे हैं, जो अपभ्रंशमें निबद्ध हैं।
विषय-वर्णनकी दृष्टिसे प्रारम्भके सात पद्योंमें पंचपरमेष्ठीको नमस्कार किया गया है। आठवें, नवें और दसवे दोहेमें भट्टप्रभाकर जोइंदुसे निवेदन करता है-
गउ संसारि वसंताह सामिय कालु अणंतु।
पर मई कि पि ण पत्तु सुहु दुक्खु जि पत्तु महंतु।।
चउ-गइ-दुक्खहं तत्ताहे जो परमप्पउ कोइ।
चउ-गइ-दुक्ख-विणासयरु कहहु पसाएँ सो वि॥
हे स्वामिन्! इस संसारमें रहते हुए अनन्तकाल बीत गया, परन्तु मैंने कुछ भी सुख प्राप्त नहीं किया, प्रत्युत् महान् दुःख ही पाता रहा। अत: चारों गतियोंके दुखोंसे सन्तप्त प्राणियोंके चारों गति-सम्बन्धी दुखोंका विनाश करने वाले परमात्माका स्वरूप बतलाइए। उत्तरमें जोइंदु ने आत्माके तीन भेदोंका कथन किया है- (१) मूढ (२) विचक्षण और (३) ब्रह्म।
जो शरीरको ही आत्मा मानता है, वह मुढ है। जो शरीरसे भिन्न ज्ञानमय परमात्माको जानता है, वह विचक्षण या पण्डित है। जिसने कर्मोंका नाश कर शरीर आदि परद्रव्योंको छोड़ ज्ञानमय आत्माको प्राप्त कर लिया है वह परमात्मा है।
जोइंदुके मतसे आत्मा ही परमात्मा हो जाती है। निश्चयनयसे आत्मा और परमात्मामें कोई अन्तर नहीं है। जैसा निर्मल ज्ञानमय देव मुक्तिमें निवास करता है, वैसा ही परमब्रह्म शरीरमें निवास करता है। अतः दोनोंमें भेद नहीं किया जा सकता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि जोइंदुने आत्माको ब्रह्मशब्द द्वारा अभिहित किया है, जिससे उनपर अद्वेतका प्रभाव मालूम पड़ता है।
जोइंदुने आत्माके स्वरूप और आकारके सम्बन्ध में विभिन्न मतोंका निर्देश करते हुए जैन दृष्टिकोणके सम्बन्धमें बताया है। आत्माके सम्बन्धमें निम्न लिखित मान्यताएँ प्रचलित हैं, आचार्यने इन मान्यताओंका अनेकान्तवादके आलोकमें समन्वय किया है-
१. आत्मा सर्वगत है।
२. आत्मा जड़ है।
३. आत्मा शरीरप्रमाण है।
४. आत्मा शून्य है ।
१. कर्मबन्धनसे रहित आत्मा केवलज्ञान के द्वारा लोकालोकको जानती है, अतः ज्ञानापेक्षया सर्वगत है।
२. आत्मज्ञान में लीन जीव इन्द्रियजनित ज्ञानसे रहित हो जाते हैं, अतः ध्यान और समाधिकी अपेक्षा जड़ है।
३. शरीरबन्धनसे रहित हुआ शुद्ध जीव अन्तिमशरीरप्रमाण ही रहता है, न वह घटता और न वह बढ़ता ही है, अतः शरीरप्रमाण है। जिस शरीरको आत्मा धारण करती है, उसी शरीरके आकारकी हो जाती है, अतएव प्रदेशके संहार और प्रसरपणके कारण आत्मा शरीरप्रमाण है।
४, मोक्ष अवस्था प्राप्त करने पर शुद्ध जीव आठों कर्मो और अठारह दोषोंसे शून्य हो जाता है, अतः उसे शून्य कहा गया है।
द्वितीय अधिकारमें मोक्ष, मोक्षका फल एवं मोक्षके कारणका कथन किया गया है। प्रथम ग्यारह गाथाओंमें मोक्ष और उसके फलका कथन आया है। पश्चात मोक्षके कारणोंका निरूपण किया गया है। 'जोइन्दु’ ने भी कुन्दकुन्दके समान सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको मोक्षका कारण बतलाकर इन तीनोंकी निश्चयदृष्टीकी अपेक्षासे आत्मस्वरूप ही बतलाया है। इसके पश्चात् समभावकी प्रशंसा को गयी है।
जोइन्दुने पुण्य और पापकी समता बतलाते हुए लिखा है कि जो जीव पुण्य और पापको समान नहीं मानता, वह मोहके वशीभूत होकर चिरकाल तक भ्रमण करता है। इतना ही नहीं अपितु यह भी लिखा है कि वह पाप अच्छा है जो जीवको दुःख देकर मोक्षकी ओर लगाता है। इसी प्रकरण में पुण्यकी निन्दा भी की गयी है | आगेके दोहेमें आर्यशान्तिका मत दिया गया है। इस मतमें बताया गया है कि देव शास्त्र और मुनिवरोंकी भक्ति से पुण्य होता है, कार्मोंका भय नहीं होता, ऐसा आर्यशान्ति मानते हैं। वन्दना, निन्दा, प्रतिक्रमण आदिको पुण्य कारक बतलाकर एकमात्र शुद्धभावको ही उपादेय बतलाया है। अतः शुद्धोपयोगीके हो संयम, शील और तप सम्भव हैं। जिसको सम्यग्दर्शन और सम्यम्ज्ञान प्राप्त है, उसीके कर्मो का क्षय होता है। अतः शुद्धोपयोग ही प्रधान है। चित्तकी शुद्धीके बिना योगियोंका तीर्थाटन करना, शिष्य-प्रशिष्योंका पालन-पोषण करना सब निरर्थक है, जो जिनलिंग धारण कर भी परिग्रह रखता है, वह वमनके भक्षण करनेवालेके समान है। नग्नवेष धारण कर भी भिक्षामें मिष्टान्न भोजन या स्वादिष्ट भोजनकी कामना करना दोषका कारण है । आत्मनिरीक्षण और आत्मशुद्धि सर्वदा अपेक्षित है।
योगसारमें १०८ दोहे हैं। वर्ण्यविषय प्रायः परमात्मप्रकाशके तुल्य ही हैं। इन दोहोंमें एक चौपाई और दो सोरठा भी सम्मिलित है। अपभ्रंश भाषामे लिखा गया यह ग्रन्थ एक प्रकारसे परमात्मप्रकाशका सार कहा जा सकता है।
इसके प्रारम्भमें भी आत्माके उन्हीं तीनों भेदोंका निरूपण आया है, जिनका परमात्मप्रकाशमें निर्देश किया जा चुका है। बताया है कि यदि जीव, तू आत्माको आत्मा समझेगा, तो निर्वाण प्राप्त कर लेगा। किन्तु यदि तु परपदार्थों को आत्मा मानेगा, तो संसारमें भटकेगा ही ।
कुन्दकुन्दने कर्मविमुक्त आत्माको परमात्मा बतलाते हुए उसे ज्ञानी, परमेष्ठी, सर्वज्ञ, विष्णु, तुचतुर्मुख और बुद्ध कहा है। योगसारमें भी उसके जिन, बुद्ध, विष्णु, शिव आदि नाम बतलाये हैं। जोइन्दुने भी कुन्दकुन्दकी तरह निश्चय और व्यवहार नयोंके द्वारा आत्माका कथन किया है। योगसारमें ये दोनों ही दृष्टियाँ विशेषरूपसे विद्यमान हैं-
देहा-देवलि देउ जिणु जणु देवलिहिं णिएइ।
हासउ महु पडिहाइ इहु सिद्धे भिक्ख भमेई।।
श्रुतकेवलिने कहा है कि देव न देवालयमें है, न तीर्थो में। यह तो शरीर रूपी देवालयमें है, यह निश्चयसे जान लेना चाहिये। जो व्यक्ति शरीरके बाहर अन्य देवालयों में देवकी तलाश करते हैं, उन्हें देखकर हँसी आती है।
योगसारके अध्ययनसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि इसका विषय क्रमबद्ध नहीं है। यह एक संग्रह जसा है। विषयानरूपणके लिये क्रमबद्ध शैलीका अनुसरण नहीं किया गया है। फुटकर विषयोंका संकलन जैसा प्रतीत होता है। यथा-
विरला जाणहिं तत्तु बुह विरला णिसुणहि तत्तु।
विरला झायहि तत्तु जिय विरला धारहिँ तत्तु।।
विरले जन तत्वको समझते हैं, विरले ही तत्वको सुनते हैं, विरले ही तत्त्वका ध्यान करते हैं और विरले ही तत्वको धारण करते हैं। यह दोहा अपने स्थान पर नहीं है। खींच-तान कर क्रमबद्धता सिद्ध कर भी दी जाय, तो भी उचित स्थान पर इसका सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता।
९८वें संख्यक दोहेमें पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानोंके नाम गिनाये हैं। इसके आगे दोहा ९९ से १०३ तक सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसाम्पदाराय संयमका स्वरूप बतलाया गया है। यहाँ यथाख्यातका स्वरूप छूटा हुआ है। अन्तमें बताया है कि जो सिद्ध हो चुके हैं, जो सिद्ध होंगे और जो वर्तमानमें सिद्ध हो रहे हैं, वे सब आत्मदर्शनसे ही सिद्ध हुए हैं। यही आत्मदर्शन इस ग्रन्थका मुख्य प्रतिपाद्य विषय है।
जोइन्दु कविका अपभ्रंश भाषापर अपूर्व अधिकार है। इन्होंने अपने उक्त दोनों ग्रन्थों में आध्यात्मरसका सुन्दर चित्रण किया है। ये क्रान्तिकारी विचार धाराके प्रवर्तक हैं। इसी कारण इन्होंने बाह्य आडम्बरका खण्ड़न कर आत्मज्ञानपर जोर दिया है। कविने लिखा है-
तत्तातत्तु मुणेवि मणि जे थक्का सम-भावि।
ते पर सुहिया इत्यु जगि जहँ रइ अप्प-सहायि।।
हे जीव ! जिस मोहसे अथवा मोह उत्पन्न करनेवाली वस्तुसे मनमें कषायभाव उत्पन्न हों, उस मोहको अथवा मोह-निमित्तक पदार्थको छोड़, तभी मोहजनित कषायके उदयसे छुटकारा प्राप्त हो सकेगा। तात्पर्य यह है कि विषयादिक सब सामग्री और मिथ्यादृष्टी पापियोंका संग सब तरहसे मोहकषायको उत्पन्न करते हैं। इससे ही मनमें कषायरूपी अग्नि दहकती रहती है, जो इसका त्याग करता है, वही सच्ची शान्ति और सुखको पाता है।
जोइन्दु कविकी अपेक्षा अध्यात्मशक्तिके निरूपक अधिक है। विषयासक्त जीवोंको परमात्माका दर्शन नहीं हो सकता। अतएव जिसने इस आसक्तिको दूर कर दिया है, उसीके हृदयमें परमात्माका निवास सम्भव होता है। आचार्य इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुये बतलाते हैं-
"जसु हरिणच्छी हियवडए तसु णवि बंभु वियारि।
एक्कहिं केम समंति बढ़ बे खंडा पडियारि।।
णिय-मणि णिम्मलि णाणियह णिवसइ देउ अणाई|
हंसा सरवरि लीणु जिम महु एहउ परिहाइ।।"
जो विषयोंमें लीन है, उसे परमात्माका दर्शन नहीं हो सकता। वीतराग निर्विकल्प परमसमाधिरूप अनाकुलता ही आनन्दका कारण है। जिसके चित्तमें स्त्रीसम्बन्धी विकार है, वह शुद्धात्मामें अपनेको स्थिर नहीं कर सकता। विकारी आत्मा वक्र मानी जाती है और वक्र वस्तुमें सरलका प्रवेश नहीं हो पाता। अतएव हाव-भाव और विभ्रमसे दूषित चित्तवाला व्यक्तिः ब्रम्ह या आत्माका विचार नहीं कर सकता है।
ज्ञानियोंके रागादिमलरहित निज मनमें अनादि देव अराधने योग्य शुद्ध आत्मा निवास कर रही है। जिस प्रकार मानसरोवरमें हंस लीन हुआ बसता है, उसी प्रकार जो शुद्धात्मामें निवास करता है, उसीके रागादि दोष दूर होते हैं। इस प्रकार आचार्य जोइन्दुने अध्यात्मतत्त्वका निरूपण अपने दोनों ग्रंथोंमें किया है।
जैन रहस्यवादका निरूपण रहस्यवादके रूपमें सर्वप्रथम इन्हींसे आरम्भ होता है। यों तो कुन्दकुन्द, वट्टकेर और शिवार्यको रचनाओंमें भी रहस्यवादके तत्व विद्यमान है, पर यथार्थतः रहस्यवादका रूप जोइन्दुकी रचनाओंमें ही मिलता है। वर्गसौने जिस रहस्यानुभूतिका स्वरूप प्रस्तुत किया है, वह रहस्यानुभूति हमें इनकी रचनाओंमें प्राप्त होती है- "यदि संसारके प्रति अनासक्ति पूर्ण हो जाय और वह अपने किसी भी ऐन्द्रिय प्रत्यय द्वारा किये किसी व्यापारके प्रति चिपके नहीं, तो यही एक कलाकारकी आत्मा होगी, जैसा कि संसारने पहले देखा न होगा। वह युगपत् समानरूपसे प्रत्येक कलामें पारंगत होगा, या यों कहें कि वह 'सब'को 'एक' में परिणत कर लेगा। वह वस्तुमात्रको उसके सहज शुद्ध रूपमें देख लेगा।" परमात्मप्रकाशके रहस्यवादमें आत्मानुभूति सम्बन्धी विशेषताके साथ अन्य विशेषताएँ भी पायी जाती हैं।
१. आत्मा और परमात्माके बीच पारस्परिक अनुभूतिका साक्षात्कार और दोनोंके एकत्त्वकी प्रतीति।
२. आत्मामें परमात्मशक्तिका पूर्ण विश्वास
३. ध्येय, ध्याता या ज्ञेय-ज्ञातामें एकत्वका आरोप
४. सांसारिक विषयोंके प्रति उदासीनता
५. लौकिक ज्ञानके साधन इन्द्रिय और मनकी सहायताके बिना ही पूर्ण सत्यको जान लेनेकी क्षमता।
६. आध्यात्मवादकी रहस्यवादके रूपमें कल्पना।
७. निश्चय और व्यवहार नयकी दृष्टियोंसे भेदाभेदका विवचन।
८. पुण्य-पापकी समता तथा दोनोंको ही समान रूपसे त्याज्य माननेकी भावनाका संयोजन।
९. अनुभूति द्वारा रसास्वादकी प्रक्रियाका स्थापन।
इस प्रकार जोइन्दु अपभ्रंशके ऐसे सर्वप्रथम कवि हैं, जिन्होंने क्रान्तिकारी विचारोंके साथ आत्मिक रहस्यवादकी प्रतिष्ठा कर मोक्षका मार्ग बतलाया है।
वैदुष्यकी दृष्टिसे यह कहा जा सकता है कि इन्होंने कुन्दकुन्द और पूज्यपादके आध्यात्मिक ग्रन्थोंका अध्ययन कर अपने ग्रन्थ-लेखनके लिये विषय-वस्तु ग्रहण की है। पूर्वाचार्योको मान्य परम्पराको एक नये रूपमें ही उपस्थित किया है। यही कारण है कि जोइन्दुका प्रभाव अपभ्रंशके कवियोंके साथ हिन्दीके सन्त कवियों पर भी पड़ा है। कबीरने जिस कान्तिकारी विचारधाराको प्रतिष्ठ की है, उशका मूल स्रोत जोइन्दुकी रचनामें पाया जाता है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
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डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री जोइन्दु महाराजजी (प्राचीन)
जैन परम्परामैं 'जोइंदू' या 'योगीन्दु' एक अध्यात्मवेत्ता आचार्य हैं। सारस्वताचार्य की परंपरा मे इनका नाम आता है। इनके जीवन-वृत्तके सम्बन्धमें न तो इनके ग्रन्थोंसे सामग्री उपलब्ध होती है और न अन्य वाङ्मयसे ही। परमात्मप्रकाशमें कविने अपने नामका उल्लेख किया है और अपने शिष्यका नाम भट्टप्रभाकर बताया है। पंचपरमेष्ठीको नमस्कार करनेके पश्चात् भट्टप्रभाकरने जिनदेव और योगीन्दुसे निर्मल परिणामोंकी प्राप्तिके हेतु प्रार्थना की है। यथा-
भावि पणविवि पंच-गुरु सिरि-जोइंदु-जिणाउ।
भट्टपहायरि विण्णविउ विमलु करेविणु भाउ।।
शुद्धभावसे पंचपरमेष्ठियोंको नमस्कार कर भट्टप्रभाकर अपने परिणामोंको निर्मल करनेके हेतु योगीन्दुदेवसे शुद्धात्मतत्त्व जाननेके लिए महाभक्तिसे प्रार्थना करता है।
परमात्मप्रकाशके टीकाकार ब्रह्मदेवने अपनी संस्कृतटीकामें 'जोइंदु जिणाउ’ का अर्थ योगीन्द्रदेवनामा भगवान किया है। समयसारकी टीका में जयसेनने 'तथा योगीन्दुदेवैरप्युक्तम्' कहकर परमात्मप्रकाशका निम्नलिखित दोहा उद्धृत किया है-
"ण वि उप्पज्जइ ण वि मरइ बधु ण भोफ्लु करइं।
जिउ परमत्थे जोइया जिणवरु एउ भणेई।।"
श्रुतसागरसूरिने कुन्दकुन्दके 'चरित्तपाहुड' की टीकामें 'उक्तञ्च योगीन्द्र नामाभट्टारकेण' लिखकर परमात्मप्रकाशके निम्नलिखित पद्यकी प्रस्तुत किया है-
जसु हरिणच्छी हियबडए तसु ण वि बंभु वियारि।
एक्कहि केम समंति बढ़ बे खंडा पडियारि।
इस प्रकार संस्कृत टीकाकारोंने जोइंदुको योगीन्दु नामसे अभिहित किया है और इसी नामसे ये प्रसिद्ध भी हुए हैं। योगसारमें ग्रन्थकर्ताका नाम योगिचन्द बताया है, जो कि जोइंदुका रूपान्तर है-
संसारह भय-भीयएण जोगिचंद-मुगिएण|
अप्पा-संबोहण कया दोहा इवक-मणेण॥
योगोन्दु योगिचन्द्रका रूपान्तर है और इसका अपभ्रंशरूप जोइंदु है। प्रायः चन्द्रान्त नामोंको संक्षिप्त रूप देने के लिए ग्रन्थकार 'इन्दु' द्वारा अभिहित करते हैं। यथा-प्रभाचन्द्रका प्रभेन्दु, शुभचन्द्रका शुभेन्दु हो गया है। इसी प्रकार योगिचन्द्रका योगीन्दु या जोइंदु हुआ है। अतएव डॉ. ए. एन. उपाध्येका यह सुझाव सर्वथा उचित है कि परमात्मप्रकाशके रचयिताका नाम योगीन्द्र नहीं, योगीन्दु है।
जोइदु कविके जीवनके सम्बन्धमें किसी भी साधनसे कोई प्रामाणिक सूचना प्राप्त नहीं होती है। परमात्मप्रकाशमें बताया गया है कि यह ग्रन्थ भट्टप्रभा करके निमित्तसे लिखा जा रहा है। यह बात परमात्मप्रकाशके आदि और अन्तसे भी सिद्ध होती है। मध्यमें भी कई स्थलों पर भट्टप्रभाकरको सम्बोधन करते हुए कथन किया गया है। ग्रंथकारने लिखा है-
इत्थु ण लेवउ पंडियहि गुण-दोसु वि पुणरुत्तु।
भट्ट-पभायर कारणइ, मई पुणु वि पउत्तु।
अर्थात् हे भव्यजीवों ! इस ग्रंथमें पुनरुक्त नामका दोष पण्डितजन ग्रहण नहीं करेंगे और न काव्यकलाकी दृष्टिसे ही इसका परीक्षण करेंगे। यतः मैंने प्रभाकर भट्टको सम्बोधित करने के लिए परमात्मतत्त्वका कथन किया है। इस कथनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि भट्टप्रभाकर कोई मुमुक्ष था, जिसके लिए इस ग्रंथका प्रतिपादन किया गया है। यह ग्रन्थ मुख्यरूपसे मुनियोंको लक्ष्यकर लिखा गया है। और इसके लेखक भी अध्यात्मरसिक मुनि ही हैं। अन्तिम मङ्गलके लिए आशीर्वादके रूपमें नमस्कार करते हुए लिखा है कि इस लोकमें विषयी जीव जिसे नहीं पा सकते, ऐसा यह परमात्मतत्त्व जयवन्त हो। विषयासोत वीतरागी मुनि ही इस आत्मतत्वको प्राप्त कर सकते हैं। जो मुनि भावपूर्वक इस परमात्मप्रकाशका चिन्तन करते हैं वे समस्त मोहको जीतकर परमार्थके ज्ञाता होते हैं। अन्य जो भी भव्यजीव इस परमात्मप्रकाशको जानते है वे भी लोक और अलोकका प्रकाश करनेवाले ज्ञानको प्राप्त कर लेते है। इस ग्रन्थके पठन-पाठनका फल शुद्ध आत्मतत्त्वकी प्राप्ति है।
उपयुक्त कथनसे इतना स्पष्ट ज्ञात होता है कि जोइंदु मुनि थे और इनका कोई मुमुक्षु शिष्य भट्टप्रभाकर था। इसीको सम्बोधित करनेके लिए परमात्म: प्रकाशकी रचना की गयी है।
डॉ. ए. एन. उपाध्येने 'जोइंदु'के समयपर विस्तारपूर्वक विचार किया है। उनके निष्कर्ष निम्न प्रकार है-
१. श्रुतसागरने जरितपाहुडकी टीकामें परमात्मप्रकाशके दोहे उद्धृत किये हैं।
२. चौदहवीं और बारहवीं शताब्दीमें परमात्मप्रकाशपर वालचन्द और ब्रह्मदेवने क्रमशः कन्नड़ एवं संस्कृत टीकाएँ लिखी हैं।
३. कुन्दकुन्दके समयसारके टीकाकार जयसेनने १२वीं शताब्दीके उत्तरार्धमें समयसारटीकामें परमात्मप्रकाशका एक दोहा उद्धृत किया है।
४. हेमचन्द्रने मुनि रामसिंहके दोहे अपने अपभ्रंशव्याकरणमें उद्धृत किये हैं। रामसिंहने जोइंदुके योगसार और परमात्मप्रकाशसे बहुतसे दोहे ग्रहण कर अपनी रचनाको समृद्ध बनाया है। अतः जोइंदु हेमचन्द्र और रामचन्द्र दोनोंसे पूर्ववर्ती हैं।
५. देवसेनकृत तत्वसारके अनेक पद्य परमात्मप्रकाशके ऋणी हैं। अत: जोइंदु देवसेनसे भी पूर्ववर्ती हैं।
६. चण्डके प्राकृसलक्षणमें 'यथा तथा अनयोः स्थाने' के उदाहरणमें निम्न लिखित दोहा प्राप्त होता है-
काल लहेविणु जोइया जिम-जिम मोहु गलेइ।
तिमु-तिमु दंसणु लहइ जिउ णियमें अप्पु मुणेइ॥
अर्थात् जोइंदु चण्डके पूर्ववर्ती हैं। पर चण्डके समयके सम्बन्धमें अभी तक मतैक्य नहीं है । डॉ. पी. डी. गुणेका मत है कि चण्ड उस समय हुए हैं जब अपभ्रंश भाषा केवल आभीरोंके बोलचालकी ही भाषा नहीं थी, अपितु साहित्यिक भाषा हो चुकी थी। अर्थात् ईसाकी छठी शताब्दिके पश्चात् चण्डका समय होना चाहिए। अन्य विद्वानोंका अनुमान है कि चण्डके व्याकरणको व्यवस्थित रूप ७वीं शताब्दिमे प्राप्त हुआ है। अतएव जोइंदुका समय इसके पूर्व होना सम्भव है।
कतिपय विद्वानोंने तो प्राकृतलक्षणका समय ई. पूर्व माना है। पर यह तर्क संगत नहीं है। यतः जोइंदुके परमात्मप्रकाश और कुन्दकुन्दके ग्रंथोंके तुलनात्मक अध्ययनसे यह स्पष्ट है कि परमात्मप्रकाश कुन्दकुन्दके मोक्षप्राभृत और पूज्यपादके समाधितंत्रके तुल्य है। परमात्मप्रकाश (१/१२१-१२४) में आत्माके तीन भेदोंका वर्णन है। यह वर्णन मोक्षप्राभृत (४ -८) से मिलता है। सम्यकदृष्टि और मिथ्यादृष्टिको परिभाषाएँ भी परमात्मप्रकाश (१/७६-७७) और कुन्दकुन्दके मोक्षप्राभृत (१४-१५) में समान रूपसे पायी जाती हैं। ब्रह्मदेवने अपनी संस्कृसटीकामें ७६ और ७७ वें दोहेका व्याख्यान लिखते हुए उक्त गाथाएँ उद्धृत की हैं। इस प्रकार निम्नलिखित दोहे और गाथाएँ समान भावकी है-
मोक्खपाहुड | परमात्मप्रकाश |
२४ गाथा | १/८६ दोहा |
३७ गाथा | २/१२ दोहा |
५१ गाथा | २/१७६ - १७७ दोहा |
पूज्यपादके समाधितन्त्र और परमात्मप्रकाशकी तुलना-
समाधितन्त्र | परमात्मप्रकाश |
४-५ पद्य | १/११-१४ दोहा |
३१ पद्य | २/१७५, १/१२३ दोहा |
६४-६६ पद्य | २/१७८-१८० दोहा |
७० पद्य | १/८० दोहा |
समाधितन्त्र और परमात्मप्रकाश दोनों ग्रन्थों में विषयगत और शैलीगत अनेक समसाएं पायी जाती हैं। व्याकरण होनेके कारण पूज्यपादके उद्गार संक्षिप्त परिमार्जीत और व्यवस्थित हैं। पूज्यपादने समाधितन्त्रमें जिस तथ्यको संक्षेपमें प्रतिपादित किया है उस तथ्यको जोइंदुने विस्तारपूर्वक निरूपित किया है। यहाँ तुलनाके लिए कतिपय पद्य उद्धृत किये जाते हैं-
य: परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः।
अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः।।
- समाधिसत्र, पञ्च-३१
जो परमप्पा णाणमउ सो हउ देउ अर्णतु।
जो हउ सो परमप्पु परु एइउ भावि णिभंतु ।।
-परमात्मप्रकाश, २/१७५
जीर्णे वस्त्रे यथात्मानं न जीर्णे मन्यते तथा।
जीर्णे स्वदेहेऽप्यास्मानं न जीर्णे मन्यते बुधः।
-समाधिसंत्र, पच-६४
जिण्णि वत्यि जैम बुहु देहु ण मण्णइ जिण्णु।
देहि जिणि णाणि तहें अप्पु ण मण्णइ जिण्णु ।।
-परमात्मप्रकाश, २/१७९
नष्टे वस्त्रे यथात्मानं न नष्टं मन्यते तथा।
नष्टे स्वदेहेप्यात्मानं न नष्टं मन्यत्ते बुधः।।
- समाधितंत्र, पद्य ६५
वत्थु पणठइ जेम बुहु देहु ण मण्णइ णटठ।
णट्ठे देहे णाणि तहे अप्पु ण मण्णह णट्ठ।।
-परमात्मप्रकाश, दोहा २।१८०
इस तुलनात्मक विवेचनसे निम्नलिखित तीन निष्कर्ष प्रस्तुत होते हैं-
(१) बोइंदु पूज्यपाद (ई. सन् छठी शती के उत्तरवर्ती हैं)।
(२) जोइंदु चण्डके पूर्ववर्ती हैं। यतः चण्डने इनके पूर्वोक्त दोहेको उदाहरणके रूपमें उद्धृत किया है।
(३) अतएव जोइंदुका समय पूज्यपादके पश्चात् और चण्डके पूर्व अर्थात् छठी शतीके पश्चात् और सातवीं शतीके पूर्व ई. सनकी छठी शताब्दीका उत्तरार्द्ध होना चाहिए।
परम्परासे जोइंदुके नामपर निम्नलिखित रचनाएँ मानी जाती है-
(१) परमात्मप्रकाश (अपभ्रंश)
(२) नौकारश्रावकाचार (अपभ्रंश)
(३) योगसार (अपभ्रंश)
(४) अध्यात्मसन्दोह (संस्कृत)
(५) सुभाषिततंत्र (संस्कृत)
(६) तत्त्वार्थटीका (संस्कृत)
इनके अतिरिक्त योगीन्द्रके नामपर दोहापाहुड (अपभ्रंश), अमृताशोती (संस्कृत) और निजात्माष्टक (प्राकृत) रचनाएँ भी प्राप्त होती हैं। पर यथार्थमें परमात्मप्रकाश और योगसार दो ही ऐसी रचनाएँ हैं जो निर्भान्त रूपसे जोइंदुकी मानी जा सकती हैं।
जोइंदु अध्यात्मवादी हैं, कवि नहीं। अपभ्रंशमें शुद्ध अध्यात्मविचारोंकी ऐसी सशक्त अभिव्यक्ति अन्यत्र नहीं मिल सकती है। इनके परमात्मप्रकाशमें दो अधिकार है। प्रथम अधिकारमें १२६ दोहे और द्वितीयमे २१९ हैं। इन दोहोंमें क्षेपक और स्थलसंख्याबाह्यप्रक्षेपक भी सम्मिलित हैं। ब्रह्मदेवके मतानुसार परमात्मप्रकाशमें समस्त ३४५ पद्म हैं। इनमें पांच गाथाएँ, एक स्रग्धरा और एक मालिनी हैं किन्तु इन पद्योंकी भाषा अपभ्रंश नहीं है। एक चतुष्पदिका भी है और शेष ३७७ दोहे हैं, जो अपभ्रंशमें निबद्ध हैं।
विषय-वर्णनकी दृष्टिसे प्रारम्भके सात पद्योंमें पंचपरमेष्ठीको नमस्कार किया गया है। आठवें, नवें और दसवे दोहेमें भट्टप्रभाकर जोइंदुसे निवेदन करता है-
गउ संसारि वसंताह सामिय कालु अणंतु।
पर मई कि पि ण पत्तु सुहु दुक्खु जि पत्तु महंतु।।
चउ-गइ-दुक्खहं तत्ताहे जो परमप्पउ कोइ।
चउ-गइ-दुक्ख-विणासयरु कहहु पसाएँ सो वि॥
हे स्वामिन्! इस संसारमें रहते हुए अनन्तकाल बीत गया, परन्तु मैंने कुछ भी सुख प्राप्त नहीं किया, प्रत्युत् महान् दुःख ही पाता रहा। अत: चारों गतियोंके दुखोंसे सन्तप्त प्राणियोंके चारों गति-सम्बन्धी दुखोंका विनाश करने वाले परमात्माका स्वरूप बतलाइए। उत्तरमें जोइंदु ने आत्माके तीन भेदोंका कथन किया है- (१) मूढ (२) विचक्षण और (३) ब्रह्म।
जो शरीरको ही आत्मा मानता है, वह मुढ है। जो शरीरसे भिन्न ज्ञानमय परमात्माको जानता है, वह विचक्षण या पण्डित है। जिसने कर्मोंका नाश कर शरीर आदि परद्रव्योंको छोड़ ज्ञानमय आत्माको प्राप्त कर लिया है वह परमात्मा है।
जोइंदुके मतसे आत्मा ही परमात्मा हो जाती है। निश्चयनयसे आत्मा और परमात्मामें कोई अन्तर नहीं है। जैसा निर्मल ज्ञानमय देव मुक्तिमें निवास करता है, वैसा ही परमब्रह्म शरीरमें निवास करता है। अतः दोनोंमें भेद नहीं किया जा सकता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि जोइंदुने आत्माको ब्रह्मशब्द द्वारा अभिहित किया है, जिससे उनपर अद्वेतका प्रभाव मालूम पड़ता है।
जोइंदुने आत्माके स्वरूप और आकारके सम्बन्ध में विभिन्न मतोंका निर्देश करते हुए जैन दृष्टिकोणके सम्बन्धमें बताया है। आत्माके सम्बन्धमें निम्न लिखित मान्यताएँ प्रचलित हैं, आचार्यने इन मान्यताओंका अनेकान्तवादके आलोकमें समन्वय किया है-
१. आत्मा सर्वगत है।
२. आत्मा जड़ है।
३. आत्मा शरीरप्रमाण है।
४. आत्मा शून्य है ।
१. कर्मबन्धनसे रहित आत्मा केवलज्ञान के द्वारा लोकालोकको जानती है, अतः ज्ञानापेक्षया सर्वगत है।
२. आत्मज्ञान में लीन जीव इन्द्रियजनित ज्ञानसे रहित हो जाते हैं, अतः ध्यान और समाधिकी अपेक्षा जड़ है।
३. शरीरबन्धनसे रहित हुआ शुद्ध जीव अन्तिमशरीरप्रमाण ही रहता है, न वह घटता और न वह बढ़ता ही है, अतः शरीरप्रमाण है। जिस शरीरको आत्मा धारण करती है, उसी शरीरके आकारकी हो जाती है, अतएव प्रदेशके संहार और प्रसरपणके कारण आत्मा शरीरप्रमाण है।
४, मोक्ष अवस्था प्राप्त करने पर शुद्ध जीव आठों कर्मो और अठारह दोषोंसे शून्य हो जाता है, अतः उसे शून्य कहा गया है।
द्वितीय अधिकारमें मोक्ष, मोक्षका फल एवं मोक्षके कारणका कथन किया गया है। प्रथम ग्यारह गाथाओंमें मोक्ष और उसके फलका कथन आया है। पश्चात मोक्षके कारणोंका निरूपण किया गया है। 'जोइन्दु’ ने भी कुन्दकुन्दके समान सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको मोक्षका कारण बतलाकर इन तीनोंकी निश्चयदृष्टीकी अपेक्षासे आत्मस्वरूप ही बतलाया है। इसके पश्चात् समभावकी प्रशंसा को गयी है।
जोइन्दुने पुण्य और पापकी समता बतलाते हुए लिखा है कि जो जीव पुण्य और पापको समान नहीं मानता, वह मोहके वशीभूत होकर चिरकाल तक भ्रमण करता है। इतना ही नहीं अपितु यह भी लिखा है कि वह पाप अच्छा है जो जीवको दुःख देकर मोक्षकी ओर लगाता है। इसी प्रकरण में पुण्यकी निन्दा भी की गयी है | आगेके दोहेमें आर्यशान्तिका मत दिया गया है। इस मतमें बताया गया है कि देव शास्त्र और मुनिवरोंकी भक्ति से पुण्य होता है, कार्मोंका भय नहीं होता, ऐसा आर्यशान्ति मानते हैं। वन्दना, निन्दा, प्रतिक्रमण आदिको पुण्य कारक बतलाकर एकमात्र शुद्धभावको ही उपादेय बतलाया है। अतः शुद्धोपयोगीके हो संयम, शील और तप सम्भव हैं। जिसको सम्यग्दर्शन और सम्यम्ज्ञान प्राप्त है, उसीके कर्मो का क्षय होता है। अतः शुद्धोपयोग ही प्रधान है। चित्तकी शुद्धीके बिना योगियोंका तीर्थाटन करना, शिष्य-प्रशिष्योंका पालन-पोषण करना सब निरर्थक है, जो जिनलिंग धारण कर भी परिग्रह रखता है, वह वमनके भक्षण करनेवालेके समान है। नग्नवेष धारण कर भी भिक्षामें मिष्टान्न भोजन या स्वादिष्ट भोजनकी कामना करना दोषका कारण है । आत्मनिरीक्षण और आत्मशुद्धि सर्वदा अपेक्षित है।
योगसारमें १०८ दोहे हैं। वर्ण्यविषय प्रायः परमात्मप्रकाशके तुल्य ही हैं। इन दोहोंमें एक चौपाई और दो सोरठा भी सम्मिलित है। अपभ्रंश भाषामे लिखा गया यह ग्रन्थ एक प्रकारसे परमात्मप्रकाशका सार कहा जा सकता है।
इसके प्रारम्भमें भी आत्माके उन्हीं तीनों भेदोंका निरूपण आया है, जिनका परमात्मप्रकाशमें निर्देश किया जा चुका है। बताया है कि यदि जीव, तू आत्माको आत्मा समझेगा, तो निर्वाण प्राप्त कर लेगा। किन्तु यदि तु परपदार्थों को आत्मा मानेगा, तो संसारमें भटकेगा ही ।
कुन्दकुन्दने कर्मविमुक्त आत्माको परमात्मा बतलाते हुए उसे ज्ञानी, परमेष्ठी, सर्वज्ञ, विष्णु, तुचतुर्मुख और बुद्ध कहा है। योगसारमें भी उसके जिन, बुद्ध, विष्णु, शिव आदि नाम बतलाये हैं। जोइन्दुने भी कुन्दकुन्दकी तरह निश्चय और व्यवहार नयोंके द्वारा आत्माका कथन किया है। योगसारमें ये दोनों ही दृष्टियाँ विशेषरूपसे विद्यमान हैं-
देहा-देवलि देउ जिणु जणु देवलिहिं णिएइ।
हासउ महु पडिहाइ इहु सिद्धे भिक्ख भमेई।।
श्रुतकेवलिने कहा है कि देव न देवालयमें है, न तीर्थो में। यह तो शरीर रूपी देवालयमें है, यह निश्चयसे जान लेना चाहिये। जो व्यक्ति शरीरके बाहर अन्य देवालयों में देवकी तलाश करते हैं, उन्हें देखकर हँसी आती है।
योगसारके अध्ययनसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि इसका विषय क्रमबद्ध नहीं है। यह एक संग्रह जसा है। विषयानरूपणके लिये क्रमबद्ध शैलीका अनुसरण नहीं किया गया है। फुटकर विषयोंका संकलन जैसा प्रतीत होता है। यथा-
विरला जाणहिं तत्तु बुह विरला णिसुणहि तत्तु।
विरला झायहि तत्तु जिय विरला धारहिँ तत्तु।।
विरले जन तत्वको समझते हैं, विरले ही तत्वको सुनते हैं, विरले ही तत्त्वका ध्यान करते हैं और विरले ही तत्वको धारण करते हैं। यह दोहा अपने स्थान पर नहीं है। खींच-तान कर क्रमबद्धता सिद्ध कर भी दी जाय, तो भी उचित स्थान पर इसका सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता।
९८वें संख्यक दोहेमें पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानोंके नाम गिनाये हैं। इसके आगे दोहा ९९ से १०३ तक सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसाम्पदाराय संयमका स्वरूप बतलाया गया है। यहाँ यथाख्यातका स्वरूप छूटा हुआ है। अन्तमें बताया है कि जो सिद्ध हो चुके हैं, जो सिद्ध होंगे और जो वर्तमानमें सिद्ध हो रहे हैं, वे सब आत्मदर्शनसे ही सिद्ध हुए हैं। यही आत्मदर्शन इस ग्रन्थका मुख्य प्रतिपाद्य विषय है।
जोइन्दु कविका अपभ्रंश भाषापर अपूर्व अधिकार है। इन्होंने अपने उक्त दोनों ग्रन्थों में आध्यात्मरसका सुन्दर चित्रण किया है। ये क्रान्तिकारी विचार धाराके प्रवर्तक हैं। इसी कारण इन्होंने बाह्य आडम्बरका खण्ड़न कर आत्मज्ञानपर जोर दिया है। कविने लिखा है-
तत्तातत्तु मुणेवि मणि जे थक्का सम-भावि।
ते पर सुहिया इत्यु जगि जहँ रइ अप्प-सहायि।।
हे जीव ! जिस मोहसे अथवा मोह उत्पन्न करनेवाली वस्तुसे मनमें कषायभाव उत्पन्न हों, उस मोहको अथवा मोह-निमित्तक पदार्थको छोड़, तभी मोहजनित कषायके उदयसे छुटकारा प्राप्त हो सकेगा। तात्पर्य यह है कि विषयादिक सब सामग्री और मिथ्यादृष्टी पापियोंका संग सब तरहसे मोहकषायको उत्पन्न करते हैं। इससे ही मनमें कषायरूपी अग्नि दहकती रहती है, जो इसका त्याग करता है, वही सच्ची शान्ति और सुखको पाता है।
जोइन्दु कविकी अपेक्षा अध्यात्मशक्तिके निरूपक अधिक है। विषयासक्त जीवोंको परमात्माका दर्शन नहीं हो सकता। अतएव जिसने इस आसक्तिको दूर कर दिया है, उसीके हृदयमें परमात्माका निवास सम्भव होता है। आचार्य इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुये बतलाते हैं-
"जसु हरिणच्छी हियवडए तसु णवि बंभु वियारि।
एक्कहिं केम समंति बढ़ बे खंडा पडियारि।।
णिय-मणि णिम्मलि णाणियह णिवसइ देउ अणाई|
हंसा सरवरि लीणु जिम महु एहउ परिहाइ।।"
जो विषयोंमें लीन है, उसे परमात्माका दर्शन नहीं हो सकता। वीतराग निर्विकल्प परमसमाधिरूप अनाकुलता ही आनन्दका कारण है। जिसके चित्तमें स्त्रीसम्बन्धी विकार है, वह शुद्धात्मामें अपनेको स्थिर नहीं कर सकता। विकारी आत्मा वक्र मानी जाती है और वक्र वस्तुमें सरलका प्रवेश नहीं हो पाता। अतएव हाव-भाव और विभ्रमसे दूषित चित्तवाला व्यक्तिः ब्रम्ह या आत्माका विचार नहीं कर सकता है।
ज्ञानियोंके रागादिमलरहित निज मनमें अनादि देव अराधने योग्य शुद्ध आत्मा निवास कर रही है। जिस प्रकार मानसरोवरमें हंस लीन हुआ बसता है, उसी प्रकार जो शुद्धात्मामें निवास करता है, उसीके रागादि दोष दूर होते हैं। इस प्रकार आचार्य जोइन्दुने अध्यात्मतत्त्वका निरूपण अपने दोनों ग्रंथोंमें किया है।
जैन रहस्यवादका निरूपण रहस्यवादके रूपमें सर्वप्रथम इन्हींसे आरम्भ होता है। यों तो कुन्दकुन्द, वट्टकेर और शिवार्यको रचनाओंमें भी रहस्यवादके तत्व विद्यमान है, पर यथार्थतः रहस्यवादका रूप जोइन्दुकी रचनाओंमें ही मिलता है। वर्गसौने जिस रहस्यानुभूतिका स्वरूप प्रस्तुत किया है, वह रहस्यानुभूति हमें इनकी रचनाओंमें प्राप्त होती है- "यदि संसारके प्रति अनासक्ति पूर्ण हो जाय और वह अपने किसी भी ऐन्द्रिय प्रत्यय द्वारा किये किसी व्यापारके प्रति चिपके नहीं, तो यही एक कलाकारकी आत्मा होगी, जैसा कि संसारने पहले देखा न होगा। वह युगपत् समानरूपसे प्रत्येक कलामें पारंगत होगा, या यों कहें कि वह 'सब'को 'एक' में परिणत कर लेगा। वह वस्तुमात्रको उसके सहज शुद्ध रूपमें देख लेगा।" परमात्मप्रकाशके रहस्यवादमें आत्मानुभूति सम्बन्धी विशेषताके साथ अन्य विशेषताएँ भी पायी जाती हैं।
१. आत्मा और परमात्माके बीच पारस्परिक अनुभूतिका साक्षात्कार और दोनोंके एकत्त्वकी प्रतीति।
२. आत्मामें परमात्मशक्तिका पूर्ण विश्वास
३. ध्येय, ध्याता या ज्ञेय-ज्ञातामें एकत्वका आरोप
४. सांसारिक विषयोंके प्रति उदासीनता
५. लौकिक ज्ञानके साधन इन्द्रिय और मनकी सहायताके बिना ही पूर्ण सत्यको जान लेनेकी क्षमता।
६. आध्यात्मवादकी रहस्यवादके रूपमें कल्पना।
७. निश्चय और व्यवहार नयकी दृष्टियोंसे भेदाभेदका विवचन।
८. पुण्य-पापकी समता तथा दोनोंको ही समान रूपसे त्याज्य माननेकी भावनाका संयोजन।
९. अनुभूति द्वारा रसास्वादकी प्रक्रियाका स्थापन।
इस प्रकार जोइन्दु अपभ्रंशके ऐसे सर्वप्रथम कवि हैं, जिन्होंने क्रान्तिकारी विचारोंके साथ आत्मिक रहस्यवादकी प्रतिष्ठा कर मोक्षका मार्ग बतलाया है।
वैदुष्यकी दृष्टिसे यह कहा जा सकता है कि इन्होंने कुन्दकुन्द और पूज्यपादके आध्यात्मिक ग्रन्थोंका अध्ययन कर अपने ग्रन्थ-लेखनके लिये विषय-वस्तु ग्रहण की है। पूर्वाचार्योको मान्य परम्पराको एक नये रूपमें ही उपस्थित किया है। यही कारण है कि जोइन्दुका प्रभाव अपभ्रंशके कवियोंके साथ हिन्दीके सन्त कवियों पर भी पड़ा है। कबीरने जिस कान्तिकारी विचारधाराको प्रतिष्ठ की है, उशका मूल स्रोत जोइन्दुकी रचनामें पाया जाता है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara_2.
Acharya Shri Joindu Maharaj Ji (Prachin)
Acharya Shri Joindu
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