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#kankannandijimaharaj
सारस्वसाचार्योंमे आचार्य कनकनन्दि का नाम ले सकते है। सिद्धान्त-ग्रन्थोंके रचयिताके रूपमें कनकनन्दिका नाम भी नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके समान समादरणीय है। इन्हें भी सिद्धान्त-चक्रवर्ती कहा गया है। यह तथ्य गोम्मटसार कर्मकाण्डकी निम्न अन्तिम गाथासे स्पष्ट होता है-
वरइंदणंदिगुरुणो पासे सोऊण सयलसिद्धंतं।
सिरिकणयणदिगुरुणा सत्तट्ठाणं समुद्दिट्ठ॥
अर्थात् श्री इन्द्रनन्दि गरुके पास समस्त सिद्धान्तको सुनकर श्री कनकनंदि गुरुने इस सत्त्वस्थानको सम्यक् रीतिसे कहा है। यहाँ कनकनन्दिके साथ गुरु शब्दका संकेत करता है कि नेमिचन्द्रने गोम्मटसारकी रचना कनकनन्दिसे अध्ययन करके की है। और वे उनके गुरु हे होंगे या 'गुरु' नामसे वे अधिक ख्यात होंगे।
कनकनन्दि द्वारा रचित 'विस्तरसत्त्वत्रिभंगी' नामक ग्रन्थ जैन सिद्धान्त भवन आरामें वर्तमान है। इस ग्रंथकी कागज पर लिखी गयी दो प्रतियाँ विद्यमान है। दोनोंकी गाथा-संख्यामें अन्तर है। एक प्रतिमें ४८ गाथा है और दुसरीमें ५१। दूसरी प्रतिमें गाथाओंके साथ संदष्टियां भी उल्लिखित हैं। पहली प्रतिमें तीन पृष्ट है और दूसरीमें सात।
गोम्मटसार कर्मकाण्डमें कनकनन्दि विरचित 'विस्तरसत्वत्रिभंगी'को आदिसे अन्तिम गाथा पर्यन्त सम्मिलित कर लिया गया है। केवल मध्यकी आठ या ग्यारह गाथाएं छोड़ दी गयीं हैं, क्योंकि कर्मकाण्डमें इस प्रकरणकी गाथाओंकी संख्या ३५८-३९७ अर्थात् ४० है। इस प्रकरणमें कर्मोंके सत्वस्थानोंका कथन गुरुस्थानोंमें किया गया है।
क्या कनकनन्दि आचार्यने ४८ या ५१ गाथाप्रमाण 'विस्तरसत्वत्रिभंगी' ग्रंथकी पृथक रचना की और बादको उसे नेमिचन्द्रचार्यने अपने गोम्मटसारमें सम्मिलित कर लिया अथवा कर्मकाण्ड के लिए ही उन्होंने उसकी रचना की? विचार करने पर ज्ञात होता है कि कनकनदि सिद्धान्तचक्रवर्तीने इतना छोटासा ग्रंथ नहीं लिखा होगा। उन्होंने कर्मकाण्डके लिखनेमें सहयोग प्रदान किया होगा और उसके लिए सत्त्वत्रिभंगीप्रकरण लिखा होगा। इसके पश्चात् उन्होंने कुछ गाथाएँ अधिक जोड़कर उसे स्वतन्त्र ग्रंथका रूप प्रदान किया होगा। कर्मकापडमें कनकनंदिके मतान्तरको देखनेसे हमारा उक्त कथन पुष्ट होता है। स्पष्ट है कि कनकनंदि अपने समय के प्रसिद्ध आचार्य हैं।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
सारस्वसाचार्योंमे आचार्य कनकनन्दि का नाम ले सकते है। सिद्धान्त-ग्रन्थोंके रचयिताके रूपमें कनकनन्दिका नाम भी नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके समान समादरणीय है। इन्हें भी सिद्धान्त-चक्रवर्ती कहा गया है। यह तथ्य गोम्मटसार कर्मकाण्डकी निम्न अन्तिम गाथासे स्पष्ट होता है-
वरइंदणंदिगुरुणो पासे सोऊण सयलसिद्धंतं।
सिरिकणयणदिगुरुणा सत्तट्ठाणं समुद्दिट्ठ॥
अर्थात् श्री इन्द्रनन्दि गरुके पास समस्त सिद्धान्तको सुनकर श्री कनकनंदि गुरुने इस सत्त्वस्थानको सम्यक् रीतिसे कहा है। यहाँ कनकनन्दिके साथ गुरु शब्दका संकेत करता है कि नेमिचन्द्रने गोम्मटसारकी रचना कनकनन्दिसे अध्ययन करके की है। और वे उनके गुरु हे होंगे या 'गुरु' नामसे वे अधिक ख्यात होंगे।
कनकनन्दि द्वारा रचित 'विस्तरसत्त्वत्रिभंगी' नामक ग्रन्थ जैन सिद्धान्त भवन आरामें वर्तमान है। इस ग्रंथकी कागज पर लिखी गयी दो प्रतियाँ विद्यमान है। दोनोंकी गाथा-संख्यामें अन्तर है। एक प्रतिमें ४८ गाथा है और दुसरीमें ५१। दूसरी प्रतिमें गाथाओंके साथ संदष्टियां भी उल्लिखित हैं। पहली प्रतिमें तीन पृष्ट है और दूसरीमें सात।
गोम्मटसार कर्मकाण्डमें कनकनन्दि विरचित 'विस्तरसत्वत्रिभंगी'को आदिसे अन्तिम गाथा पर्यन्त सम्मिलित कर लिया गया है। केवल मध्यकी आठ या ग्यारह गाथाएं छोड़ दी गयीं हैं, क्योंकि कर्मकाण्डमें इस प्रकरणकी गाथाओंकी संख्या ३५८-३९७ अर्थात् ४० है। इस प्रकरणमें कर्मोंके सत्वस्थानोंका कथन गुरुस्थानोंमें किया गया है।
क्या कनकनन्दि आचार्यने ४८ या ५१ गाथाप्रमाण 'विस्तरसत्वत्रिभंगी' ग्रंथकी पृथक रचना की और बादको उसे नेमिचन्द्रचार्यने अपने गोम्मटसारमें सम्मिलित कर लिया अथवा कर्मकाण्ड के लिए ही उन्होंने उसकी रचना की? विचार करने पर ज्ञात होता है कि कनकनदि सिद्धान्तचक्रवर्तीने इतना छोटासा ग्रंथ नहीं लिखा होगा। उन्होंने कर्मकाण्डके लिखनेमें सहयोग प्रदान किया होगा और उसके लिए सत्त्वत्रिभंगीप्रकरण लिखा होगा। इसके पश्चात् उन्होंने कुछ गाथाएँ अधिक जोड़कर उसे स्वतन्त्र ग्रंथका रूप प्रदान किया होगा। कर्मकापडमें कनकनंदिके मतान्तरको देखनेसे हमारा उक्त कथन पुष्ट होता है। स्पष्ट है कि कनकनंदि अपने समय के प्रसिद्ध आचार्य हैं।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
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डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री कनकन्नंदी (प्राचीन)
सारस्वसाचार्योंमे आचार्य कनकनन्दि का नाम ले सकते है। सिद्धान्त-ग्रन्थोंके रचयिताके रूपमें कनकनन्दिका नाम भी नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके समान समादरणीय है। इन्हें भी सिद्धान्त-चक्रवर्ती कहा गया है। यह तथ्य गोम्मटसार कर्मकाण्डकी निम्न अन्तिम गाथासे स्पष्ट होता है-
वरइंदणंदिगुरुणो पासे सोऊण सयलसिद्धंतं।
सिरिकणयणदिगुरुणा सत्तट्ठाणं समुद्दिट्ठ॥
अर्थात् श्री इन्द्रनन्दि गरुके पास समस्त सिद्धान्तको सुनकर श्री कनकनंदि गुरुने इस सत्त्वस्थानको सम्यक् रीतिसे कहा है। यहाँ कनकनन्दिके साथ गुरु शब्दका संकेत करता है कि नेमिचन्द्रने गोम्मटसारकी रचना कनकनन्दिसे अध्ययन करके की है। और वे उनके गुरु हे होंगे या 'गुरु' नामसे वे अधिक ख्यात होंगे।
कनकनन्दि द्वारा रचित 'विस्तरसत्त्वत्रिभंगी' नामक ग्रन्थ जैन सिद्धान्त भवन आरामें वर्तमान है। इस ग्रंथकी कागज पर लिखी गयी दो प्रतियाँ विद्यमान है। दोनोंकी गाथा-संख्यामें अन्तर है। एक प्रतिमें ४८ गाथा है और दुसरीमें ५१। दूसरी प्रतिमें गाथाओंके साथ संदष्टियां भी उल्लिखित हैं। पहली प्रतिमें तीन पृष्ट है और दूसरीमें सात।
गोम्मटसार कर्मकाण्डमें कनकनन्दि विरचित 'विस्तरसत्वत्रिभंगी'को आदिसे अन्तिम गाथा पर्यन्त सम्मिलित कर लिया गया है। केवल मध्यकी आठ या ग्यारह गाथाएं छोड़ दी गयीं हैं, क्योंकि कर्मकाण्डमें इस प्रकरणकी गाथाओंकी संख्या ३५८-३९७ अर्थात् ४० है। इस प्रकरणमें कर्मोंके सत्वस्थानोंका कथन गुरुस्थानोंमें किया गया है।
क्या कनकनन्दि आचार्यने ४८ या ५१ गाथाप्रमाण 'विस्तरसत्वत्रिभंगी' ग्रंथकी पृथक रचना की और बादको उसे नेमिचन्द्रचार्यने अपने गोम्मटसारमें सम्मिलित कर लिया अथवा कर्मकाण्ड के लिए ही उन्होंने उसकी रचना की? विचार करने पर ज्ञात होता है कि कनकनदि सिद्धान्तचक्रवर्तीने इतना छोटासा ग्रंथ नहीं लिखा होगा। उन्होंने कर्मकाण्डके लिखनेमें सहयोग प्रदान किया होगा और उसके लिए सत्त्वत्रिभंगीप्रकरण लिखा होगा। इसके पश्चात् उन्होंने कुछ गाथाएँ अधिक जोड़कर उसे स्वतन्त्र ग्रंथका रूप प्रदान किया होगा। कर्मकापडमें कनकनंदिके मतान्तरको देखनेसे हमारा उक्त कथन पुष्ट होता है। स्पष्ट है कि कनकनंदि अपने समय के प्रसिद्ध आचार्य हैं।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
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