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#kumarsenjimaharaj
सारस्वसाचार्योंमे आचार्य कुमारसेनगुरु का नाम ले सकते है। चन्द्रोदय ग्रंथके रचयिता प्रभाचन्द्रके आप गुरु थे। आपका निर्मल यश समुद्रान्त व्याप्त था।
आकूपारं यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्जवलम्।
गुरोः कुमारसेनस्य विचरत्यजितात्मकम्॥
अर्थात् कुमारसेन गुरुका यश इस संसारमें समुद्रपर्यन्त सर्वत्र विचरण करता है, जो प्रभाचन्द्रनामक शिष्य के उदयसे उज्जवल है, तथा जो अविजिस रूप है- किसीके द्वारा जीता नहीं जा सकता है।
चामुण्डरायपुराणके पन्द्रहवें पद्यमें भी इनका स्मरण किया गया है।
इससे ज्ञात होता है कि कुमारसेनगुरु बड़े ही यशस्वी सारस्वत थे। डॉ. ए. एन. उपाध्येने इनका परिचय देते हुए जैनसंदेशके शोधांक १२में लिखा है कि ये मूलगुण्डनामक स्थानपर आत्मत्यागको स्वीकार करके 'कोप्पणाद्रि’ पर ध्यानस्थ हो गये और समाधिमरणपूर्वक स्वर्गलाभ किया। इनके सम्बन्धमे दर्शनसारमें बताया है-
णंदियडे वरगामे कुमारसेणो य सत्थविघ्णाणी
कट्ठो दंसणभट्टो जादो सल्लेहणाकाले।
अर्थात् काष्ठासंघके संस्थापकफे रूपमें कुमारसेनका नाम आता है। बताया है कि विक्रम राजाकी मृत्युके ७५३ वर्ष पश्चात् नन्दीतटाग्राममें काष्ठासंघ हुआ। इस नन्दीतटग्राममें कुमारसेननामका शास्त्रज्ञ विद्वान् सल्लेखनाके समय दर्शनसे भ्रष्ट होकर, काष्ठासंघी हुआ। कुमारसेनका समय वि. की ८वीं शताब्दी अगवत होता है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
सारस्वसाचार्योंमे आचार्य कुमारसेनगुरु का नाम ले सकते है। चन्द्रोदय ग्रंथके रचयिता प्रभाचन्द्रके आप गुरु थे। आपका निर्मल यश समुद्रान्त व्याप्त था।
आकूपारं यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्जवलम्।
गुरोः कुमारसेनस्य विचरत्यजितात्मकम्॥
अर्थात् कुमारसेन गुरुका यश इस संसारमें समुद्रपर्यन्त सर्वत्र विचरण करता है, जो प्रभाचन्द्रनामक शिष्य के उदयसे उज्जवल है, तथा जो अविजिस रूप है- किसीके द्वारा जीता नहीं जा सकता है।
चामुण्डरायपुराणके पन्द्रहवें पद्यमें भी इनका स्मरण किया गया है।
इससे ज्ञात होता है कि कुमारसेनगुरु बड़े ही यशस्वी सारस्वत थे। डॉ. ए. एन. उपाध्येने इनका परिचय देते हुए जैनसंदेशके शोधांक १२में लिखा है कि ये मूलगुण्डनामक स्थानपर आत्मत्यागको स्वीकार करके 'कोप्पणाद्रि’ पर ध्यानस्थ हो गये और समाधिमरणपूर्वक स्वर्गलाभ किया। इनके सम्बन्धमे दर्शनसारमें बताया है-
णंदियडे वरगामे कुमारसेणो य सत्थविघ्णाणी
कट्ठो दंसणभट्टो जादो सल्लेहणाकाले।
अर्थात् काष्ठासंघके संस्थापकफे रूपमें कुमारसेनका नाम आता है। बताया है कि विक्रम राजाकी मृत्युके ७५३ वर्ष पश्चात् नन्दीतटाग्राममें काष्ठासंघ हुआ। इस नन्दीतटग्राममें कुमारसेननामका शास्त्रज्ञ विद्वान् सल्लेखनाके समय दर्शनसे भ्रष्ट होकर, काष्ठासंघी हुआ। कुमारसेनका समय वि. की ८वीं शताब्दी अगवत होता है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
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डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री कुमारसेनगुरु (प्राचीन)
सारस्वसाचार्योंमे आचार्य कुमारसेनगुरु का नाम ले सकते है। चन्द्रोदय ग्रंथके रचयिता प्रभाचन्द्रके आप गुरु थे। आपका निर्मल यश समुद्रान्त व्याप्त था।
आकूपारं यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्जवलम्।
गुरोः कुमारसेनस्य विचरत्यजितात्मकम्॥
अर्थात् कुमारसेन गुरुका यश इस संसारमें समुद्रपर्यन्त सर्वत्र विचरण करता है, जो प्रभाचन्द्रनामक शिष्य के उदयसे उज्जवल है, तथा जो अविजिस रूप है- किसीके द्वारा जीता नहीं जा सकता है।
चामुण्डरायपुराणके पन्द्रहवें पद्यमें भी इनका स्मरण किया गया है।
इससे ज्ञात होता है कि कुमारसेनगुरु बड़े ही यशस्वी सारस्वत थे। डॉ. ए. एन. उपाध्येने इनका परिचय देते हुए जैनसंदेशके शोधांक १२में लिखा है कि ये मूलगुण्डनामक स्थानपर आत्मत्यागको स्वीकार करके 'कोप्पणाद्रि’ पर ध्यानस्थ हो गये और समाधिमरणपूर्वक स्वर्गलाभ किया। इनके सम्बन्धमे दर्शनसारमें बताया है-
णंदियडे वरगामे कुमारसेणो य सत्थविघ्णाणी
कट्ठो दंसणभट्टो जादो सल्लेहणाकाले।
अर्थात् काष्ठासंघके संस्थापकफे रूपमें कुमारसेनका नाम आता है। बताया है कि विक्रम राजाकी मृत्युके ७५३ वर्ष पश्चात् नन्दीतटाग्राममें काष्ठासंघ हुआ। इस नन्दीतटग्राममें कुमारसेननामका शास्त्रज्ञ विद्वान् सल्लेखनाके समय दर्शनसे भ्रष्ट होकर, काष्ठासंघी हुआ। कुमारसेनका समय वि. की ८वीं शताब्दी अगवत होता है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara- 2
Acharya Shri Kumarsenguru (Prachin)
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