हैशटैग
#manatungmaharaj
भक्तिपूर्ण काव्यके सृष्टा कविके रूपमें आचार्य मानतुंग प्रसिद्ध हैं। सारस्वसाचार्यों कि परंपरा मे इनका नाम आता है। इनका प्रसिद्ध स्तोत्र 'भक्तामर' दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें समानरूपसे समादत है ।भक्त कविके रूपमें इनको ख्याति चली आ रही है। इनकी रचना इतनी लोक प्रिय रही है, जिससे उसके प्रत्येक पद्यके प्रत्येक चरणको लेकर समस्यापूर्त्यात्मक स्तोत्रकाव्य लिखे जाते रहे हैं । भक्तामरस्तोत्रकी कई समस्यापूर्तियां प्राप्त हैं।
आचार्य कवि मानतुंगके जीवनवृत्तके सम्बन्ध बनेक विरोधो विचार धाराएँ प्रचलित है। भट्टारक सकलचन्द्रके शिष्य ब्रह्मचारी 'पायमल्ल' कृत 'भक्तामरवृत्तिमें', जो कि वि. सं. १६६७ में समाप्त हुई है, लिखा है कि "धाराधीश भोजकी राजसभामें कालिदास, भारवि, माघ आदि कवि रहते थे। मानतुंगने ४८ सांकलोंको तोड़कर जैनधर्मको प्रभावना को तथा राजा भोजको जैनधर्मका उपासक बनाया।
दूसरी कथा भट्टारक विश्वभूषणकृत 'भकामरचरित'में निबद्ध है। इसमें भोज, भतुंहरि, शुभचन्द्र, कालिदास, बनञ्जय, वररुचि और मानतुंग आदिको समकालीन लिखा है। बताया है आचार्य मानतुंगने भक्तामरस्तोत्रके प्रभावसे अड़तालीस कोठरियोंके तालोंको तोड़कर अपना प्रभाव दिखलाया।
आचार्य प्रभाचन्द्रने "क्रिया-कलाप'की टीकाके अन्तर्गत भक्तामरस्तोत्र टीकाको उत्थानिकामें लिखा है-
"मानतुंगनामा सिताम्बरो महाकविः निग्रंन्थाचार्यवयरेपनीतमहाव्याधि प्रतिपत्रनिर्गन्थमार्गो भगवन् कि क्रियतामिति ब्रुवानो भगवता परमात्मनो मुनगणस्तोत्रं विधीयतामित्यादिष्टः भक्तामरेत्यादि"।
अर्थात्- मानतुंग श्वेताम्बर महाकवि थे। एक दिगम्बराचार्यने उनको व्याधिसे मुक्त कर दिया, इससे उन्होंने दिगम्बरमार्ग ग्रहण कर लिया और पूछा- भगवन् ! अब मैं क्या करूं। आचार्यने आज्ञा दी- परमात्माके गुणोंका स्तोत्र बनायो। फलतः आदेशानुसार भक्तामरस्तोत्रका प्रणयन किया।
विक्रम संवत् १३३४ के श्वेताम्बराचार्य प्रभाचन्द्ररिकृत 'प्रभावकचरित में मानतुंगके सम्बन्धमें लिखा है- ये काशी निवासी धनदेव सेठके पुत्र थे। पहले इन्होंने एक दिगम्बर मुनिसे दीक्षा ली और इनका नाम चारुकीर्ती महाकीर्ती रखा गया। अनन्तर एक श्वेताम्बर सम्प्रदायकी अनुयायिनी श्राविकाने उनके कमण्डलके जलमें त्रसजीव बतलाये, जिससे उन्हें दिगम्बर चर्यासे विरक्ति हो गयी और जितसिंह नामक श्वेताम्बराचार्यके निकट दीक्षित होकर श्वेताम्बर साधु हो गये और उसी अवस्थामें भक्तामरस्तोत्रकी रचना की।
वि. सं. १३६१ के मेरुत गकृत्त 'प्रबन्धचिन्तामणि' ग्रंथमें लिखा है कि मयूर और बाण नामक साला-बहनोई पंडित थे। वे अपनी विद्वत्तासे एक दुसरेके साथ स्पर्धा करते थे। एक बार बाण पंडित अपने बहनोईसे मिलने गया और उसके घर जाकर रातमें द्वार पर सो गया। उसकी मानवती बहन रातमें रूठी हुई थी और बहनोई रातभर मनाता रहा। प्रातः होने पर मयूरने कहा- हे ! तन्वंगी प्रायः सारी रात बीत चली, चन्द्रमा क्षीण-सा हो रहा है, यह प्रदीप मानो निद्राके अधीन होकर झूम रहा है, और मानकी सीमा तो प्रणाम करने तक होतो है। अहो ! तो भी तुम क्रोध नहीं छोड़ रही हो?"
काव्यके तीन पाद बार-बार कहते सुनकर बाणने चौथा चरण बनाकर कहा- हे चण्डि ! कुचोंके निकटवर्ती होनेसे तुम्हारा हृदय भी कठिन हो गया है।
गतप्राया रात्रिः कृशतनुशशि: शीर्यत इव
प्रदोपोऽयं निद्रावशमुपगतो धूणित इव।
प्रणामान्तो मानस्त्यजसि न तथापि क्रुधमहो
कुचप्रत्यासत्या हृदयमपि ते चण्डि ! कठिनम्।।
भाईके मुंहसे चौथा चरण सुनकर बहन लज्जित हो गयी और अभिशाप दिया कि तुम कुष्ठी हो जाओ। बाण पतिव्रताके शापसे तत्काल कुष्ठी हो गया। प्रातःकाल शालसे शरीर ढककर राजसभामें आया। मयूरने 'वरकोढ़ी' कहकर बाणका स्वागत किया। बाणने देवताराधनका विचार किया और सूर्यके स्तवन द्वारा कुष्ठरोग दूर किया। मयूरने भी अपने
हाथ-पैर काट लिये और चण्डिकाकी "मां भांक्षीविभ्रमम्" स्तुति द्वारा अपना शरीर स्वस्थ कर चमत्कार उपस्थित किया।
इन चमत्कारोंके अनन्तर किसी जैनधर्मद्वेषीने राजासे कहा कि यदि जैनोंमें कोई ऐसा चमत्कारी हो, तभी जैन यहाँ रहें, अन्यथा इन्हें नगर से निर्वासित कर दिया जाय। मानतुंग आचार्यको बुलाकर राजाने कहा कि आप अपने देवताओंके कुछ चमत्कार दिखलाइये।
आचार्य- हमारे देवता वीतरागी हैं, उनमें क्या चमत्कार हो सकता है। जो मोक्ष चला गया है, वह चमत्कार दिखलाने क्या आयेगा। उनके किकर देवता ही अपना प्रभाव दिखलाते हैं। अतः यदि चमत्कार देखना है, तो उनके किंकर देवताओंसे अनुरोध करना होगा। इस प्रकार कहकर अपने शरीरको ४४ हथकड़ियों और बेड़ियोंसे कसवाकर उस नगरके श्रीयुगादिदेवके मन्दिरके पिछले भागमें बैठ गये। 'भक्तामरस्तोत्र' के प्रभावसे उनकी बेड़ियां टूट गयीं और मन्दिर अपना स्थान परिवर्तित कर उनके सम्मुख उपस्थित हो गया। इस प्रकार मानतुंगने जिनशासनका प्रभाव दिखलाया।
मानतुंगके सम्बन्धमें एक इतिवृत्त श्वेताम्बराचार्य गुणाकरका उपलब्ध है। उन्होंने भक्तामरस्तोत्रवृत्तिमें, जिसकी रचना वि. सं. १४२६ में हुई है, प्रभावकचरितके अनुसार मयूर और बाणको श्वसुर और जामाता बताया है तथा इनके द्वारा रचित सूर्यशतक और चण्डीशतकका निर्देश किया है। राजा का नाम वृद्धभोज है, जिसकी सभामें मानतुंग उपस्थित हुए थे।
उपयुक्त विरोधी आख्यानों पर दृष्टिपात करनेसे तथा वल्लालकविरचित भोजप्रबन्ध नामक ग्रंथका अवलोकन करनेसे निम्नलिखित तथ्य उपस्थित होते हैं-
१. मयूर, बाण, कालिदास और माघ आदि विभिन्न समयवर्ती प्रसिद्ध कवियोंका एकत्र समवाय दिखलानेकी प्रथा १० वीं शतीसे १५ वीं शती तकके साहित्यमें प्राप्त होती है।
२. मानतुंगको श्वेताम्बर आख्यानोंमें पहले दिगम्बर और पश्चात् श्वेताम्बर माना गया है। इसी प्रकार दिगम्बर लेखकोंने उन्हें पहले श्वेताम्बर पश्चात् दिगम्बर लिखा है। यह कल्पना सम्प्रदायव्यामोहका ही फल है। दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायोंमें जब परस्पर कटुता उत्पन्न हो गयी और मान्य आचार्योंकी अपनी ओर खींचतान होने लगी, तो इस प्रकार विकृत इतिवृत्तोंका साहित्यमें प्रविष्ट होना स्वाभाविक है।
३. मानतुंगने भक्तामरस्तोत्रकी रचना की। दोनों सम्प्रदायोंने अपनी अपनी मान्यता अनुसार इस स्तोत्रको प्रतिष्ठा दी। प्रारम्भमें इस स्तोत्रमें ४८ स्तोत्र थे, जो काव्य कहलाते थे। प्रायः हस्तलिखित ग्रन्थोंमें ४८ काव्य ही मिलते हैं। प्रत्येक पद्यमें काव्यत्व रहनेके कारण ही ४८ पद्योंको ४८ काव्य कहा गया है । इन पद्यों में श्वेताम्बर सम्प्रदायने अशोकवृक्ष, पुष्पवृष्टि, दिव्य ध्वनि और चमर इन चार प्रातिहारियों के बोधक पद्योंको ग्रहण किया और सिंहासन, भामण्डल, दुन्दुभिः एवं छत्र इन चार प्रातिहारियोंके विवेचक पद्योंको निकाल दिया। इधर दिगम्बर सम्प्रदायकी कुछ हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा निकाले हुए चार प्रातिहारियोंके बोधक चार नये पद्य और जोड़ दिये गये। इस प्रकार ५२ पद्योंको संख्या गढ़ ली गयी। वस्तुतः इस स्तोत्रकाव्यमें ४८ ही पद्य हैं।
४. स्तोत्र-काव्योंका महत्व दिखलानेके लिए उनके साथ चमत्कारपूर्ण आख्यानोंकी योजना की गयी है। मयुर, पुष्पदन्त, बाण प्रभृति सभी कवियोंके स्तोत्रोंके पीछे कोई-न-कोई चमत्कारपूर्ण आख्यान विद्यमान हैं। भगवद्भक्ति, चाहे वह वीतरागीकी हो या सरागीकी, अभीष्टपूर्ति करती है। पूजापद्धतिके आरम्भके पूर्व स्तोन्नोंकी परम्परा ही भक्तिके क्षेत्रमें विद्यमान थी। भक्त या श्रद्धालु पाठक स्तोत्रद्वारा भगवदगुणोंका स्मरण कर अपनी आत्माको पवित्र बनाता है। यही कारण है कि भक्तामर, एकीभाव, कल्याणमन्दिर प्रभृति स्तोत्रोंके साथ भी चमत्कारपूर्ण आख्यान जुड़े हुए हैं।
अतएव इन आख्यानोंमें तथ्यांश हो या न हो, पर इतना सत्य है कि एकाग्रतापूर्वक इन स्तोत्रोका पाठ करनेसे आत्मशुद्धिके साथ मनोकामनाकी पूर्ति भी होती है। स्तोत्रोंके पढ़नेसे जो आत्मशुद्धि होती है, वही आत्मशुद्धि कामनापूर्तिका साधन बनती है। मानतुंग अपने समयके प्रसिद्ध आचार्य हैं और इनकी मान्यता दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों में है।
मानतुंगके समय-निर्धारणमें उक्त विरोधी आख्यानोंसे यह प्रकट होता है कि वे हर्ष अथवा भोजके समकालीन हैं। इन दोनों राजाओंमेसे किसी एककी समकालीनता सिद्ध होनेपर मानतुंग के समयका निर्णय किया जा सकता है। सर्वप्रथम हम यहाँ भोजकी समकालीनता पर विचार करेंगे।
भोजनामके कई राजा हुए हैं तथा भारतीय आख्यानों में विक्रमादित्य और भोजको संस्कृतकवियोंका आश्रयदाता एवं संस्कृत साहित्यका लेखक माना गया है।
भारतीय इतिहासमें बताया गया है कि सीयक- हर्षके बाद उसका यशस्वी पुत्र भुंज उपनाम वाकपति वि. सं. १०३१ (ई. सन् ९७४) में मालवाकी गद्दी पर आसीन हुवा। वाक्पति भुंजने लाट, कर्णाटक, चोल और केरलके साथ युद्ध किया था। यह योद्धा तो था ही, साथ ही कला और साहित्यका संरक्षक भी था। उसने धारानगरीमें अनेक तालाब खुदवाये थे। उसकी सभामें पद्मगुप्त, धनञ्जय, धनिक और हलायुव प्रभृति ख्यातिनामा साहित्यिक रहते थे। भुंजके अनन्तर सिन्धुराज या नवसाहशांक सिंहासनासीन हुआ। सिन्धुराजके अल्पकालीन शासनके बाद उसका पुत्र भोज परमारोंकी गद्दी पर बैठा। इस राजकुलका यह सर्वशक्तिमान और यशस्वी नृपत्ति था। इसके राज्यासोन होनेका समय ई. सन् १००८ है। भोजने दक्षिणी राजाओंके साथ तो युद्ध किया ही, पर तुरुष्क एवं गुजरातके कीर्तीराजके साथ भी युद्ध किया। मेरुतुंगके अनुसार भोजने ५५ वर्ष ७ मास और ३ दिन राज्य किया है। भोज विद्या रसिक था। उसके द्वारा रचित ग्रन्थ लगभग एक दर्जन है। इन्हीं भोजके समयमें आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपना प्रमेयकमलमार्तण्ड लिखा है- श्रीभोजदेव राज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरसरमेष्टपदप्रगाभाजितामलपुण्यनिराकृत निखिलमलकलडून श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेन निखिलप्रमाणप्रमेयस्वरूपोद्योत परीक्षामुखपदमिदं विवृतमिति।
श्री पंडित कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने प्रभाचन्द्रका समय ई. सन् १०५० के लगभग माना है। अतः भोजका राज्यकाल ११वीं शताब्दी है।
आचार्य कवि मानतुंगके भक्तामरस्तोत्रको शैली मयूर और बाणको स्तोत्र शैलीके समान है। अतएव शैलो तथा अन्य ऐतिहासिक तथ्योंके न मिलनेसे मानतुंगने अपने स्तोत्रकी रचना भोजराज्यकालमें नहीं की है। यतः भोजके समयमें मयुर और बाणका अस्तित्व सम्भव नहीं है। यह चमत्कारी आख्यानोंसे स्पष्ट है कि मानतुंग वाण-मयूरकालीन हैं और किसी न किसी रूप में इनका सम्बन्ध बाण और मयूरके साथ रहा है।
संस्कृत- साहित्यके प्रसिद्ध इतिहासज्ञ विद्वान डॉ. ए. वी कीथने भक्तामर कथाके सम्बन्धमें अनुमान किया है कि कोठरियोंके ताले या पाशबद्धता संसारबन्धनका रूपक है। इस प्रकारके रूपक छठी-सातवीं शताब्दीमें अनेक लिखे गये हैं। वसुदेव-हिंडीमें गर्भवासदुःख, विषयसुख, इन्द्रियसुख, जन्म-मरणके भव आदि सम्बन्धी अनेक रूपक आये है। डॉ. कीथका यह अनुमान यदि सत्य है, तो इसका रचनाकाल छठी शताब्दीका उत्तरार्द्ध या सातवीका पूर्वार्द्ध होना चाहिये।
डॉ. कीथने यह भी अनुमान किया है कि मानतुंग बाणके समकालीन हैं। सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ पं. गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझाने अपने "सिरोहीका इतिहास' नामक ग्रन्थमें मानतुंगका समय हर्षकालीन माना है। श्रीहर्षका राज्याभिषेक ई. सन् ६०८ में हुआ था। अतएव मानतुंगका समय ई. सन् की ७वीं शताब्दीका मध्यभाग होना सम्भव है।
भक्तामरस्तोत्रके अन्तरंग परीक्षणसे प्रतीत होता है कि यह स्तोत्र 'कल्याण-मन्दिरका’ परवर्ती है! 'कल्याण-मन्दिर'के रचयीता सिद्धसेनका समय षष्ठी शताब्दी सिद्ध किया जा चुका है। अत: मानतुंगका समय इनसे कुछ उत्तरवत्तों होना चाहिये। हमारा अनुमान है कि दोनो स्तोत्रों में उपलब्ध समता एक-दूसरेसे प्रभावित है।
'कल्याण-मन्दिर में कल्पनाकी जैसी स्वच्छता है, वैसी प्रायः इस स्तोत्रमें नहीं है। अत: कल्याण-मन्दिर भक्तामरके पहले की रचना हो, तो आश्चर्य नहीं है। यत: इस स्तोत्रकी कल्पनाओंका पल्लवन एवं उन कल्पनाओम कुछ नवीनताओंका समावेश चमत्कारपूर्ण शैली में इस स्तोत्रमें हुआ है। भक्तामरमें कहा है कि सूर्य की बात ही क्या, उसकी प्रभा ही तालाबोंम कमलोंकी विकसित कर देती है, उसी प्रकार हे प्रभो ! आपका स्तोत्र तो दूर हो रहे, पर आपके नामकी कथा ही समस्त पापोंको दूर कर देती है। यह नाम-माहात्म्य मूलत: श्री मद्भागवतसे स्तोत्र-साहित्यमें स्थानान्तरित हुआ है। यथा-
आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोषं
त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति।
दूरे सहस्रकिरणः कुरुते प्रभैव
पद्माकरेषु जलजानि बिकासभाज्जि।
कल्याण-मन्दिरमें भी उपर्युक्त कल्पना ज्यों-की-त्यों मिलती है। बताया है कि जब निदाघमें कमलसे युक्त तालाबकी सरस वायु ही तीव्र आतापसे संतप्त पथिकोंकी गर्मीसे रक्षा करती है, तब जलाशयकी बात ही क्या, उसी प्रकार जब आपका नाम ही संसारके तापको दूर कर सकता है, तब आपके स्तोत्रके सामर्थ्यका क्या कहना।
आस्तामचिन्त्यमहिमा जिन। संस्तवस्ते
नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति।
तीव्रातपोपहतपान्थजनान्निदाचे,
प्रीणाति पद्मसरसः सरसोऽनिलोऽपि||
भक्तामरस्तोत्र और कल्याणमन्दिरकी गुणगान-महत्त्व-सूचक कल्पना तुल्य है। दोनों ही जगह नामका महत्व है। अतः एक दुसरेसे प्रभावित हैं अथवा दोनोंने किसी अन्य पौराणिक स्तोत्रसे उक्त कल्पनाएं ग्रहण की हैं।
भक्तामरस्तोत्रमें बतलाया है कि हे प्रभो ! संग्राममें आपके नामका स्मरण करनेसे बलवान राजाओंके युद्ध करते हुए घोड़ों और हाथियोंको भयानक गर्जनासे युक्त सैन्यदल उसी प्रकार नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है, जिस प्रकार सूर्यके उदय होने से अन्धकार नष्ट हो जाता है। यथा-
वल्गत्तुरङ्गगजगजितभीमनाद-
माजी बलं बलवतामपि भूपतीनाम्।
उद्यदिवाकरमयूस्खशिखापविंध्य
स्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति॥
उपर्युक्त कल्पनाका समानान्तर रूप कल्याणमंदिरके ३२ वें पद्यमें उसी प्रकार पाया जाता है जिस प्रकार जिनसेनके पार्श्वाभ्युदयमें। कल्याणमंदिरमें भी यही कल्पना प्राप्त होती है। यथा-
यदगर्जदूजितघनौघमदभ्रभीम-
भ्रश्यतडिन्मुसलमांसलघोरधारम्।
दत्येन मुक्तमथ दुस्तरवारि दन्धे
तेनैव तस्य जिन! दुस्तरवारिकृत्यम्।।
इसी प्रकार भक्तामरस्तोत्रके "त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांसम्" (भक्तामर पद्य २३) और "स्वां योगिनो जिन! सदा परमात्मरूपम् (कल्याण मंदिर पद्य १४) तुलनीय हैं।
उपर्युक्त विश्लेषणके प्रकाशमें इस स्वीकृतिका विरोध नहीं किया जा सकता कि भक्तामर और कल्याणमन्दिर दोनोंकी पदावली, कल्पनाएं एवं तथ्य निरूपण-प्रणाली समान हैं।
ये दोनों स्तोत्र तथ्य-विश्लेषणकी दृष्टिसे श्रीमद्भागवद् और शैलीकी दृष्टिसे पुष्पदन्तके शिवहिम्नस्तोत्रके समकक्ष हैं।
मानतुङ्गको एकमात्र रचना ४८ पद्यप्रमाण भक्तामर स्तोत्र है। यह समस्त स्तोत्र वसन्ततिलकाछन्दमें लिखा गया है। इसमें आदितीर्थङ्कर ऋषभनाथकी स्तुति की गयी है। इस स्तोत्रकी यह विशेषता है कि इसे किसी भी तीर्थङ्कर पर घटित किया जा सकता है। प्रत्येक पद्यमें उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक अलङ्कारका समावेश किया है। इसका भाषा-सौष्ठव और भाव गाम्भीर्य आकर्षक है। कवि अपनी नम्रता प्रकट करता हुआ कहता है कि हे प्रभो ! में अल्पज्ञ बहुश्रुतज्ञ विद्वानों द्वारा हँसीका पात्र होने पर भी आपको भक्ति ही मुझे मुखर बनाती है। वसन्तमें कोकिल स्वयं नहीं बोलना चाहती, प्रत्युत आम्रमञ्जरी ही उसे बलात् कूजनेका निमन्त्रण देती है। यथा-
अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम
त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम्।
यत्कोकिल: किल मघौ मधुरं विरौति
तच्चाम्रचारुकलिकानिकरैकहेतुः॥
अतिशयोक्ति अलंकारके उदाहरण इस स्तोत्रमें कई आये हैं। पर १७ चें पद्यका अतिशयोक्ति अलङ्कार बहुत ही सुन्दर है। कवि कहता है कि हे भगवन् ! आपकी महिमा सूर्यसे भी बढ़कर है, क्योंकि आप कभी भी अस्त नहीं होते। न राहुगम्य हैं, न आपका महान प्रभाव मेघोंसे अवरूद्ध होता है। आप समस्त लोकोंको एक साथ अनायास स्पष्ट रूपसे प्रकाशित करते हैं, जब कि सूर्य राहु से ग्रस्त या मेघोंसे आच्छन्न हो जाने पर अकेले मध्यलोकको भी प्रकाशित करने में अक्षम रहता है। यथा-
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति।
नाम्भोघरोदरनिरूद्धमहाप्रभाव:
सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्र! लोके।।
यहाँ भगवानको अद्भत सूर्यके रूपमें वणित कर अतिशयोक्तिका चमत्कार दिखलाया गया है।
कवि आदिजिनको बुद्ध, शङ्कर, धाता और पुरुषोत्तम सिद्ध करता हुआ कहता है-
बुद्धस्त्वमेव विबुधाचित्तबुद्धिबोधा-
त्वं शक्कारोऽसी भुवनत्रयकरत्वान।
धात्तासि धीर शिवमार्गविधेविधाना-
द्वयकं त्वंवमेव भगवन्पुरुषोत्तमोसि।।
इस प्रकार इस स्तोत्र-काव्यमें भक्ति, दर्शन और काव्यको त्रिवेणी एक साथ प्रवाहित प्राप्त होतो है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
भक्तिपूर्ण काव्यके सृष्टा कविके रूपमें आचार्य मानतुंग प्रसिद्ध हैं। सारस्वसाचार्यों कि परंपरा मे इनका नाम आता है। इनका प्रसिद्ध स्तोत्र 'भक्तामर' दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें समानरूपसे समादत है ।भक्त कविके रूपमें इनको ख्याति चली आ रही है। इनकी रचना इतनी लोक प्रिय रही है, जिससे उसके प्रत्येक पद्यके प्रत्येक चरणको लेकर समस्यापूर्त्यात्मक स्तोत्रकाव्य लिखे जाते रहे हैं । भक्तामरस्तोत्रकी कई समस्यापूर्तियां प्राप्त हैं।
आचार्य कवि मानतुंगके जीवनवृत्तके सम्बन्ध बनेक विरोधो विचार धाराएँ प्रचलित है। भट्टारक सकलचन्द्रके शिष्य ब्रह्मचारी 'पायमल्ल' कृत 'भक्तामरवृत्तिमें', जो कि वि. सं. १६६७ में समाप्त हुई है, लिखा है कि "धाराधीश भोजकी राजसभामें कालिदास, भारवि, माघ आदि कवि रहते थे। मानतुंगने ४८ सांकलोंको तोड़कर जैनधर्मको प्रभावना को तथा राजा भोजको जैनधर्मका उपासक बनाया।
दूसरी कथा भट्टारक विश्वभूषणकृत 'भकामरचरित'में निबद्ध है। इसमें भोज, भतुंहरि, शुभचन्द्र, कालिदास, बनञ्जय, वररुचि और मानतुंग आदिको समकालीन लिखा है। बताया है आचार्य मानतुंगने भक्तामरस्तोत्रके प्रभावसे अड़तालीस कोठरियोंके तालोंको तोड़कर अपना प्रभाव दिखलाया।
आचार्य प्रभाचन्द्रने "क्रिया-कलाप'की टीकाके अन्तर्गत भक्तामरस्तोत्र टीकाको उत्थानिकामें लिखा है-
"मानतुंगनामा सिताम्बरो महाकविः निग्रंन्थाचार्यवयरेपनीतमहाव्याधि प्रतिपत्रनिर्गन्थमार्गो भगवन् कि क्रियतामिति ब्रुवानो भगवता परमात्मनो मुनगणस्तोत्रं विधीयतामित्यादिष्टः भक्तामरेत्यादि"।
अर्थात्- मानतुंग श्वेताम्बर महाकवि थे। एक दिगम्बराचार्यने उनको व्याधिसे मुक्त कर दिया, इससे उन्होंने दिगम्बरमार्ग ग्रहण कर लिया और पूछा- भगवन् ! अब मैं क्या करूं। आचार्यने आज्ञा दी- परमात्माके गुणोंका स्तोत्र बनायो। फलतः आदेशानुसार भक्तामरस्तोत्रका प्रणयन किया।
विक्रम संवत् १३३४ के श्वेताम्बराचार्य प्रभाचन्द्ररिकृत 'प्रभावकचरित में मानतुंगके सम्बन्धमें लिखा है- ये काशी निवासी धनदेव सेठके पुत्र थे। पहले इन्होंने एक दिगम्बर मुनिसे दीक्षा ली और इनका नाम चारुकीर्ती महाकीर्ती रखा गया। अनन्तर एक श्वेताम्बर सम्प्रदायकी अनुयायिनी श्राविकाने उनके कमण्डलके जलमें त्रसजीव बतलाये, जिससे उन्हें दिगम्बर चर्यासे विरक्ति हो गयी और जितसिंह नामक श्वेताम्बराचार्यके निकट दीक्षित होकर श्वेताम्बर साधु हो गये और उसी अवस्थामें भक्तामरस्तोत्रकी रचना की।
वि. सं. १३६१ के मेरुत गकृत्त 'प्रबन्धचिन्तामणि' ग्रंथमें लिखा है कि मयूर और बाण नामक साला-बहनोई पंडित थे। वे अपनी विद्वत्तासे एक दुसरेके साथ स्पर्धा करते थे। एक बार बाण पंडित अपने बहनोईसे मिलने गया और उसके घर जाकर रातमें द्वार पर सो गया। उसकी मानवती बहन रातमें रूठी हुई थी और बहनोई रातभर मनाता रहा। प्रातः होने पर मयूरने कहा- हे ! तन्वंगी प्रायः सारी रात बीत चली, चन्द्रमा क्षीण-सा हो रहा है, यह प्रदीप मानो निद्राके अधीन होकर झूम रहा है, और मानकी सीमा तो प्रणाम करने तक होतो है। अहो ! तो भी तुम क्रोध नहीं छोड़ रही हो?"
काव्यके तीन पाद बार-बार कहते सुनकर बाणने चौथा चरण बनाकर कहा- हे चण्डि ! कुचोंके निकटवर्ती होनेसे तुम्हारा हृदय भी कठिन हो गया है।
गतप्राया रात्रिः कृशतनुशशि: शीर्यत इव
प्रदोपोऽयं निद्रावशमुपगतो धूणित इव।
प्रणामान्तो मानस्त्यजसि न तथापि क्रुधमहो
कुचप्रत्यासत्या हृदयमपि ते चण्डि ! कठिनम्।।
भाईके मुंहसे चौथा चरण सुनकर बहन लज्जित हो गयी और अभिशाप दिया कि तुम कुष्ठी हो जाओ। बाण पतिव्रताके शापसे तत्काल कुष्ठी हो गया। प्रातःकाल शालसे शरीर ढककर राजसभामें आया। मयूरने 'वरकोढ़ी' कहकर बाणका स्वागत किया। बाणने देवताराधनका विचार किया और सूर्यके स्तवन द्वारा कुष्ठरोग दूर किया। मयूरने भी अपने
हाथ-पैर काट लिये और चण्डिकाकी "मां भांक्षीविभ्रमम्" स्तुति द्वारा अपना शरीर स्वस्थ कर चमत्कार उपस्थित किया।
इन चमत्कारोंके अनन्तर किसी जैनधर्मद्वेषीने राजासे कहा कि यदि जैनोंमें कोई ऐसा चमत्कारी हो, तभी जैन यहाँ रहें, अन्यथा इन्हें नगर से निर्वासित कर दिया जाय। मानतुंग आचार्यको बुलाकर राजाने कहा कि आप अपने देवताओंके कुछ चमत्कार दिखलाइये।
आचार्य- हमारे देवता वीतरागी हैं, उनमें क्या चमत्कार हो सकता है। जो मोक्ष चला गया है, वह चमत्कार दिखलाने क्या आयेगा। उनके किकर देवता ही अपना प्रभाव दिखलाते हैं। अतः यदि चमत्कार देखना है, तो उनके किंकर देवताओंसे अनुरोध करना होगा। इस प्रकार कहकर अपने शरीरको ४४ हथकड़ियों और बेड़ियोंसे कसवाकर उस नगरके श्रीयुगादिदेवके मन्दिरके पिछले भागमें बैठ गये। 'भक्तामरस्तोत्र' के प्रभावसे उनकी बेड़ियां टूट गयीं और मन्दिर अपना स्थान परिवर्तित कर उनके सम्मुख उपस्थित हो गया। इस प्रकार मानतुंगने जिनशासनका प्रभाव दिखलाया।
मानतुंगके सम्बन्धमें एक इतिवृत्त श्वेताम्बराचार्य गुणाकरका उपलब्ध है। उन्होंने भक्तामरस्तोत्रवृत्तिमें, जिसकी रचना वि. सं. १४२६ में हुई है, प्रभावकचरितके अनुसार मयूर और बाणको श्वसुर और जामाता बताया है तथा इनके द्वारा रचित सूर्यशतक और चण्डीशतकका निर्देश किया है। राजा का नाम वृद्धभोज है, जिसकी सभामें मानतुंग उपस्थित हुए थे।
उपयुक्त विरोधी आख्यानों पर दृष्टिपात करनेसे तथा वल्लालकविरचित भोजप्रबन्ध नामक ग्रंथका अवलोकन करनेसे निम्नलिखित तथ्य उपस्थित होते हैं-
१. मयूर, बाण, कालिदास और माघ आदि विभिन्न समयवर्ती प्रसिद्ध कवियोंका एकत्र समवाय दिखलानेकी प्रथा १० वीं शतीसे १५ वीं शती तकके साहित्यमें प्राप्त होती है।
२. मानतुंगको श्वेताम्बर आख्यानोंमें पहले दिगम्बर और पश्चात् श्वेताम्बर माना गया है। इसी प्रकार दिगम्बर लेखकोंने उन्हें पहले श्वेताम्बर पश्चात् दिगम्बर लिखा है। यह कल्पना सम्प्रदायव्यामोहका ही फल है। दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायोंमें जब परस्पर कटुता उत्पन्न हो गयी और मान्य आचार्योंकी अपनी ओर खींचतान होने लगी, तो इस प्रकार विकृत इतिवृत्तोंका साहित्यमें प्रविष्ट होना स्वाभाविक है।
३. मानतुंगने भक्तामरस्तोत्रकी रचना की। दोनों सम्प्रदायोंने अपनी अपनी मान्यता अनुसार इस स्तोत्रको प्रतिष्ठा दी। प्रारम्भमें इस स्तोत्रमें ४८ स्तोत्र थे, जो काव्य कहलाते थे। प्रायः हस्तलिखित ग्रन्थोंमें ४८ काव्य ही मिलते हैं। प्रत्येक पद्यमें काव्यत्व रहनेके कारण ही ४८ पद्योंको ४८ काव्य कहा गया है । इन पद्यों में श्वेताम्बर सम्प्रदायने अशोकवृक्ष, पुष्पवृष्टि, दिव्य ध्वनि और चमर इन चार प्रातिहारियों के बोधक पद्योंको ग्रहण किया और सिंहासन, भामण्डल, दुन्दुभिः एवं छत्र इन चार प्रातिहारियोंके विवेचक पद्योंको निकाल दिया। इधर दिगम्बर सम्प्रदायकी कुछ हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा निकाले हुए चार प्रातिहारियोंके बोधक चार नये पद्य और जोड़ दिये गये। इस प्रकार ५२ पद्योंको संख्या गढ़ ली गयी। वस्तुतः इस स्तोत्रकाव्यमें ४८ ही पद्य हैं।
४. स्तोत्र-काव्योंका महत्व दिखलानेके लिए उनके साथ चमत्कारपूर्ण आख्यानोंकी योजना की गयी है। मयुर, पुष्पदन्त, बाण प्रभृति सभी कवियोंके स्तोत्रोंके पीछे कोई-न-कोई चमत्कारपूर्ण आख्यान विद्यमान हैं। भगवद्भक्ति, चाहे वह वीतरागीकी हो या सरागीकी, अभीष्टपूर्ति करती है। पूजापद्धतिके आरम्भके पूर्व स्तोन्नोंकी परम्परा ही भक्तिके क्षेत्रमें विद्यमान थी। भक्त या श्रद्धालु पाठक स्तोत्रद्वारा भगवदगुणोंका स्मरण कर अपनी आत्माको पवित्र बनाता है। यही कारण है कि भक्तामर, एकीभाव, कल्याणमन्दिर प्रभृति स्तोत्रोंके साथ भी चमत्कारपूर्ण आख्यान जुड़े हुए हैं।
अतएव इन आख्यानोंमें तथ्यांश हो या न हो, पर इतना सत्य है कि एकाग्रतापूर्वक इन स्तोत्रोका पाठ करनेसे आत्मशुद्धिके साथ मनोकामनाकी पूर्ति भी होती है। स्तोत्रोंके पढ़नेसे जो आत्मशुद्धि होती है, वही आत्मशुद्धि कामनापूर्तिका साधन बनती है। मानतुंग अपने समयके प्रसिद्ध आचार्य हैं और इनकी मान्यता दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों में है।
मानतुंगके समय-निर्धारणमें उक्त विरोधी आख्यानोंसे यह प्रकट होता है कि वे हर्ष अथवा भोजके समकालीन हैं। इन दोनों राजाओंमेसे किसी एककी समकालीनता सिद्ध होनेपर मानतुंग के समयका निर्णय किया जा सकता है। सर्वप्रथम हम यहाँ भोजकी समकालीनता पर विचार करेंगे।
भोजनामके कई राजा हुए हैं तथा भारतीय आख्यानों में विक्रमादित्य और भोजको संस्कृतकवियोंका आश्रयदाता एवं संस्कृत साहित्यका लेखक माना गया है।
भारतीय इतिहासमें बताया गया है कि सीयक- हर्षके बाद उसका यशस्वी पुत्र भुंज उपनाम वाकपति वि. सं. १०३१ (ई. सन् ९७४) में मालवाकी गद्दी पर आसीन हुवा। वाक्पति भुंजने लाट, कर्णाटक, चोल और केरलके साथ युद्ध किया था। यह योद्धा तो था ही, साथ ही कला और साहित्यका संरक्षक भी था। उसने धारानगरीमें अनेक तालाब खुदवाये थे। उसकी सभामें पद्मगुप्त, धनञ्जय, धनिक और हलायुव प्रभृति ख्यातिनामा साहित्यिक रहते थे। भुंजके अनन्तर सिन्धुराज या नवसाहशांक सिंहासनासीन हुआ। सिन्धुराजके अल्पकालीन शासनके बाद उसका पुत्र भोज परमारोंकी गद्दी पर बैठा। इस राजकुलका यह सर्वशक्तिमान और यशस्वी नृपत्ति था। इसके राज्यासोन होनेका समय ई. सन् १००८ है। भोजने दक्षिणी राजाओंके साथ तो युद्ध किया ही, पर तुरुष्क एवं गुजरातके कीर्तीराजके साथ भी युद्ध किया। मेरुतुंगके अनुसार भोजने ५५ वर्ष ७ मास और ३ दिन राज्य किया है। भोज विद्या रसिक था। उसके द्वारा रचित ग्रन्थ लगभग एक दर्जन है। इन्हीं भोजके समयमें आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपना प्रमेयकमलमार्तण्ड लिखा है- श्रीभोजदेव राज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरसरमेष्टपदप्रगाभाजितामलपुण्यनिराकृत निखिलमलकलडून श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेन निखिलप्रमाणप्रमेयस्वरूपोद्योत परीक्षामुखपदमिदं विवृतमिति।
श्री पंडित कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने प्रभाचन्द्रका समय ई. सन् १०५० के लगभग माना है। अतः भोजका राज्यकाल ११वीं शताब्दी है।
आचार्य कवि मानतुंगके भक्तामरस्तोत्रको शैली मयूर और बाणको स्तोत्र शैलीके समान है। अतएव शैलो तथा अन्य ऐतिहासिक तथ्योंके न मिलनेसे मानतुंगने अपने स्तोत्रकी रचना भोजराज्यकालमें नहीं की है। यतः भोजके समयमें मयुर और बाणका अस्तित्व सम्भव नहीं है। यह चमत्कारी आख्यानोंसे स्पष्ट है कि मानतुंग वाण-मयूरकालीन हैं और किसी न किसी रूप में इनका सम्बन्ध बाण और मयूरके साथ रहा है।
संस्कृत- साहित्यके प्रसिद्ध इतिहासज्ञ विद्वान डॉ. ए. वी कीथने भक्तामर कथाके सम्बन्धमें अनुमान किया है कि कोठरियोंके ताले या पाशबद्धता संसारबन्धनका रूपक है। इस प्रकारके रूपक छठी-सातवीं शताब्दीमें अनेक लिखे गये हैं। वसुदेव-हिंडीमें गर्भवासदुःख, विषयसुख, इन्द्रियसुख, जन्म-मरणके भव आदि सम्बन्धी अनेक रूपक आये है। डॉ. कीथका यह अनुमान यदि सत्य है, तो इसका रचनाकाल छठी शताब्दीका उत्तरार्द्ध या सातवीका पूर्वार्द्ध होना चाहिये।
डॉ. कीथने यह भी अनुमान किया है कि मानतुंग बाणके समकालीन हैं। सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ पं. गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझाने अपने "सिरोहीका इतिहास' नामक ग्रन्थमें मानतुंगका समय हर्षकालीन माना है। श्रीहर्षका राज्याभिषेक ई. सन् ६०८ में हुआ था। अतएव मानतुंगका समय ई. सन् की ७वीं शताब्दीका मध्यभाग होना सम्भव है।
भक्तामरस्तोत्रके अन्तरंग परीक्षणसे प्रतीत होता है कि यह स्तोत्र 'कल्याण-मन्दिरका’ परवर्ती है! 'कल्याण-मन्दिर'के रचयीता सिद्धसेनका समय षष्ठी शताब्दी सिद्ध किया जा चुका है। अत: मानतुंगका समय इनसे कुछ उत्तरवत्तों होना चाहिये। हमारा अनुमान है कि दोनो स्तोत्रों में उपलब्ध समता एक-दूसरेसे प्रभावित है।
'कल्याण-मन्दिर में कल्पनाकी जैसी स्वच्छता है, वैसी प्रायः इस स्तोत्रमें नहीं है। अत: कल्याण-मन्दिर भक्तामरके पहले की रचना हो, तो आश्चर्य नहीं है। यत: इस स्तोत्रकी कल्पनाओंका पल्लवन एवं उन कल्पनाओम कुछ नवीनताओंका समावेश चमत्कारपूर्ण शैली में इस स्तोत्रमें हुआ है। भक्तामरमें कहा है कि सूर्य की बात ही क्या, उसकी प्रभा ही तालाबोंम कमलोंकी विकसित कर देती है, उसी प्रकार हे प्रभो ! आपका स्तोत्र तो दूर हो रहे, पर आपके नामकी कथा ही समस्त पापोंको दूर कर देती है। यह नाम-माहात्म्य मूलत: श्री मद्भागवतसे स्तोत्र-साहित्यमें स्थानान्तरित हुआ है। यथा-
आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोषं
त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति।
दूरे सहस्रकिरणः कुरुते प्रभैव
पद्माकरेषु जलजानि बिकासभाज्जि।
कल्याण-मन्दिरमें भी उपर्युक्त कल्पना ज्यों-की-त्यों मिलती है। बताया है कि जब निदाघमें कमलसे युक्त तालाबकी सरस वायु ही तीव्र आतापसे संतप्त पथिकोंकी गर्मीसे रक्षा करती है, तब जलाशयकी बात ही क्या, उसी प्रकार जब आपका नाम ही संसारके तापको दूर कर सकता है, तब आपके स्तोत्रके सामर्थ्यका क्या कहना।
आस्तामचिन्त्यमहिमा जिन। संस्तवस्ते
नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति।
तीव्रातपोपहतपान्थजनान्निदाचे,
प्रीणाति पद्मसरसः सरसोऽनिलोऽपि||
भक्तामरस्तोत्र और कल्याणमन्दिरकी गुणगान-महत्त्व-सूचक कल्पना तुल्य है। दोनों ही जगह नामका महत्व है। अतः एक दुसरेसे प्रभावित हैं अथवा दोनोंने किसी अन्य पौराणिक स्तोत्रसे उक्त कल्पनाएं ग्रहण की हैं।
भक्तामरस्तोत्रमें बतलाया है कि हे प्रभो ! संग्राममें आपके नामका स्मरण करनेसे बलवान राजाओंके युद्ध करते हुए घोड़ों और हाथियोंको भयानक गर्जनासे युक्त सैन्यदल उसी प्रकार नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है, जिस प्रकार सूर्यके उदय होने से अन्धकार नष्ट हो जाता है। यथा-
वल्गत्तुरङ्गगजगजितभीमनाद-
माजी बलं बलवतामपि भूपतीनाम्।
उद्यदिवाकरमयूस्खशिखापविंध्य
स्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति॥
उपर्युक्त कल्पनाका समानान्तर रूप कल्याणमंदिरके ३२ वें पद्यमें उसी प्रकार पाया जाता है जिस प्रकार जिनसेनके पार्श्वाभ्युदयमें। कल्याणमंदिरमें भी यही कल्पना प्राप्त होती है। यथा-
यदगर्जदूजितघनौघमदभ्रभीम-
भ्रश्यतडिन्मुसलमांसलघोरधारम्।
दत्येन मुक्तमथ दुस्तरवारि दन्धे
तेनैव तस्य जिन! दुस्तरवारिकृत्यम्।।
इसी प्रकार भक्तामरस्तोत्रके "त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांसम्" (भक्तामर पद्य २३) और "स्वां योगिनो जिन! सदा परमात्मरूपम् (कल्याण मंदिर पद्य १४) तुलनीय हैं।
उपर्युक्त विश्लेषणके प्रकाशमें इस स्वीकृतिका विरोध नहीं किया जा सकता कि भक्तामर और कल्याणमन्दिर दोनोंकी पदावली, कल्पनाएं एवं तथ्य निरूपण-प्रणाली समान हैं।
ये दोनों स्तोत्र तथ्य-विश्लेषणकी दृष्टिसे श्रीमद्भागवद् और शैलीकी दृष्टिसे पुष्पदन्तके शिवहिम्नस्तोत्रके समकक्ष हैं।
मानतुङ्गको एकमात्र रचना ४८ पद्यप्रमाण भक्तामर स्तोत्र है। यह समस्त स्तोत्र वसन्ततिलकाछन्दमें लिखा गया है। इसमें आदितीर्थङ्कर ऋषभनाथकी स्तुति की गयी है। इस स्तोत्रकी यह विशेषता है कि इसे किसी भी तीर्थङ्कर पर घटित किया जा सकता है। प्रत्येक पद्यमें उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक अलङ्कारका समावेश किया है। इसका भाषा-सौष्ठव और भाव गाम्भीर्य आकर्षक है। कवि अपनी नम्रता प्रकट करता हुआ कहता है कि हे प्रभो ! में अल्पज्ञ बहुश्रुतज्ञ विद्वानों द्वारा हँसीका पात्र होने पर भी आपको भक्ति ही मुझे मुखर बनाती है। वसन्तमें कोकिल स्वयं नहीं बोलना चाहती, प्रत्युत आम्रमञ्जरी ही उसे बलात् कूजनेका निमन्त्रण देती है। यथा-
अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम
त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम्।
यत्कोकिल: किल मघौ मधुरं विरौति
तच्चाम्रचारुकलिकानिकरैकहेतुः॥
अतिशयोक्ति अलंकारके उदाहरण इस स्तोत्रमें कई आये हैं। पर १७ चें पद्यका अतिशयोक्ति अलङ्कार बहुत ही सुन्दर है। कवि कहता है कि हे भगवन् ! आपकी महिमा सूर्यसे भी बढ़कर है, क्योंकि आप कभी भी अस्त नहीं होते। न राहुगम्य हैं, न आपका महान प्रभाव मेघोंसे अवरूद्ध होता है। आप समस्त लोकोंको एक साथ अनायास स्पष्ट रूपसे प्रकाशित करते हैं, जब कि सूर्य राहु से ग्रस्त या मेघोंसे आच्छन्न हो जाने पर अकेले मध्यलोकको भी प्रकाशित करने में अक्षम रहता है। यथा-
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति।
नाम्भोघरोदरनिरूद्धमहाप्रभाव:
सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्र! लोके।।
यहाँ भगवानको अद्भत सूर्यके रूपमें वणित कर अतिशयोक्तिका चमत्कार दिखलाया गया है।
कवि आदिजिनको बुद्ध, शङ्कर, धाता और पुरुषोत्तम सिद्ध करता हुआ कहता है-
बुद्धस्त्वमेव विबुधाचित्तबुद्धिबोधा-
त्वं शक्कारोऽसी भुवनत्रयकरत्वान।
धात्तासि धीर शिवमार्गविधेविधाना-
द्वयकं त्वंवमेव भगवन्पुरुषोत्तमोसि।।
इस प्रकार इस स्तोत्र-काव्यमें भक्ति, दर्शन और काव्यको त्रिवेणी एक साथ प्रवाहित प्राप्त होतो है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
#manatungmaharaj
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री मनातुंग 11वीं शताब्दी (प्राचीन)
भक्तिपूर्ण काव्यके सृष्टा कविके रूपमें आचार्य मानतुंग प्रसिद्ध हैं। सारस्वसाचार्यों कि परंपरा मे इनका नाम आता है। इनका प्रसिद्ध स्तोत्र 'भक्तामर' दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें समानरूपसे समादत है ।भक्त कविके रूपमें इनको ख्याति चली आ रही है। इनकी रचना इतनी लोक प्रिय रही है, जिससे उसके प्रत्येक पद्यके प्रत्येक चरणको लेकर समस्यापूर्त्यात्मक स्तोत्रकाव्य लिखे जाते रहे हैं । भक्तामरस्तोत्रकी कई समस्यापूर्तियां प्राप्त हैं।
आचार्य कवि मानतुंगके जीवनवृत्तके सम्बन्ध बनेक विरोधो विचार धाराएँ प्रचलित है। भट्टारक सकलचन्द्रके शिष्य ब्रह्मचारी 'पायमल्ल' कृत 'भक्तामरवृत्तिमें', जो कि वि. सं. १६६७ में समाप्त हुई है, लिखा है कि "धाराधीश भोजकी राजसभामें कालिदास, भारवि, माघ आदि कवि रहते थे। मानतुंगने ४८ सांकलोंको तोड़कर जैनधर्मको प्रभावना को तथा राजा भोजको जैनधर्मका उपासक बनाया।
दूसरी कथा भट्टारक विश्वभूषणकृत 'भकामरचरित'में निबद्ध है। इसमें भोज, भतुंहरि, शुभचन्द्र, कालिदास, बनञ्जय, वररुचि और मानतुंग आदिको समकालीन लिखा है। बताया है आचार्य मानतुंगने भक्तामरस्तोत्रके प्रभावसे अड़तालीस कोठरियोंके तालोंको तोड़कर अपना प्रभाव दिखलाया।
आचार्य प्रभाचन्द्रने "क्रिया-कलाप'की टीकाके अन्तर्गत भक्तामरस्तोत्र टीकाको उत्थानिकामें लिखा है-
"मानतुंगनामा सिताम्बरो महाकविः निग्रंन्थाचार्यवयरेपनीतमहाव्याधि प्रतिपत्रनिर्गन्थमार्गो भगवन् कि क्रियतामिति ब्रुवानो भगवता परमात्मनो मुनगणस्तोत्रं विधीयतामित्यादिष्टः भक्तामरेत्यादि"।
अर्थात्- मानतुंग श्वेताम्बर महाकवि थे। एक दिगम्बराचार्यने उनको व्याधिसे मुक्त कर दिया, इससे उन्होंने दिगम्बरमार्ग ग्रहण कर लिया और पूछा- भगवन् ! अब मैं क्या करूं। आचार्यने आज्ञा दी- परमात्माके गुणोंका स्तोत्र बनायो। फलतः आदेशानुसार भक्तामरस्तोत्रका प्रणयन किया।
विक्रम संवत् १३३४ के श्वेताम्बराचार्य प्रभाचन्द्ररिकृत 'प्रभावकचरित में मानतुंगके सम्बन्धमें लिखा है- ये काशी निवासी धनदेव सेठके पुत्र थे। पहले इन्होंने एक दिगम्बर मुनिसे दीक्षा ली और इनका नाम चारुकीर्ती महाकीर्ती रखा गया। अनन्तर एक श्वेताम्बर सम्प्रदायकी अनुयायिनी श्राविकाने उनके कमण्डलके जलमें त्रसजीव बतलाये, जिससे उन्हें दिगम्बर चर्यासे विरक्ति हो गयी और जितसिंह नामक श्वेताम्बराचार्यके निकट दीक्षित होकर श्वेताम्बर साधु हो गये और उसी अवस्थामें भक्तामरस्तोत्रकी रचना की।
वि. सं. १३६१ के मेरुत गकृत्त 'प्रबन्धचिन्तामणि' ग्रंथमें लिखा है कि मयूर और बाण नामक साला-बहनोई पंडित थे। वे अपनी विद्वत्तासे एक दुसरेके साथ स्पर्धा करते थे। एक बार बाण पंडित अपने बहनोईसे मिलने गया और उसके घर जाकर रातमें द्वार पर सो गया। उसकी मानवती बहन रातमें रूठी हुई थी और बहनोई रातभर मनाता रहा। प्रातः होने पर मयूरने कहा- हे ! तन्वंगी प्रायः सारी रात बीत चली, चन्द्रमा क्षीण-सा हो रहा है, यह प्रदीप मानो निद्राके अधीन होकर झूम रहा है, और मानकी सीमा तो प्रणाम करने तक होतो है। अहो ! तो भी तुम क्रोध नहीं छोड़ रही हो?"
काव्यके तीन पाद बार-बार कहते सुनकर बाणने चौथा चरण बनाकर कहा- हे चण्डि ! कुचोंके निकटवर्ती होनेसे तुम्हारा हृदय भी कठिन हो गया है।
गतप्राया रात्रिः कृशतनुशशि: शीर्यत इव
प्रदोपोऽयं निद्रावशमुपगतो धूणित इव।
प्रणामान्तो मानस्त्यजसि न तथापि क्रुधमहो
कुचप्रत्यासत्या हृदयमपि ते चण्डि ! कठिनम्।।
भाईके मुंहसे चौथा चरण सुनकर बहन लज्जित हो गयी और अभिशाप दिया कि तुम कुष्ठी हो जाओ। बाण पतिव्रताके शापसे तत्काल कुष्ठी हो गया। प्रातःकाल शालसे शरीर ढककर राजसभामें आया। मयूरने 'वरकोढ़ी' कहकर बाणका स्वागत किया। बाणने देवताराधनका विचार किया और सूर्यके स्तवन द्वारा कुष्ठरोग दूर किया। मयूरने भी अपने
हाथ-पैर काट लिये और चण्डिकाकी "मां भांक्षीविभ्रमम्" स्तुति द्वारा अपना शरीर स्वस्थ कर चमत्कार उपस्थित किया।
इन चमत्कारोंके अनन्तर किसी जैनधर्मद्वेषीने राजासे कहा कि यदि जैनोंमें कोई ऐसा चमत्कारी हो, तभी जैन यहाँ रहें, अन्यथा इन्हें नगर से निर्वासित कर दिया जाय। मानतुंग आचार्यको बुलाकर राजाने कहा कि आप अपने देवताओंके कुछ चमत्कार दिखलाइये।
आचार्य- हमारे देवता वीतरागी हैं, उनमें क्या चमत्कार हो सकता है। जो मोक्ष चला गया है, वह चमत्कार दिखलाने क्या आयेगा। उनके किकर देवता ही अपना प्रभाव दिखलाते हैं। अतः यदि चमत्कार देखना है, तो उनके किंकर देवताओंसे अनुरोध करना होगा। इस प्रकार कहकर अपने शरीरको ४४ हथकड़ियों और बेड़ियोंसे कसवाकर उस नगरके श्रीयुगादिदेवके मन्दिरके पिछले भागमें बैठ गये। 'भक्तामरस्तोत्र' के प्रभावसे उनकी बेड़ियां टूट गयीं और मन्दिर अपना स्थान परिवर्तित कर उनके सम्मुख उपस्थित हो गया। इस प्रकार मानतुंगने जिनशासनका प्रभाव दिखलाया।
मानतुंगके सम्बन्धमें एक इतिवृत्त श्वेताम्बराचार्य गुणाकरका उपलब्ध है। उन्होंने भक्तामरस्तोत्रवृत्तिमें, जिसकी रचना वि. सं. १४२६ में हुई है, प्रभावकचरितके अनुसार मयूर और बाणको श्वसुर और जामाता बताया है तथा इनके द्वारा रचित सूर्यशतक और चण्डीशतकका निर्देश किया है। राजा का नाम वृद्धभोज है, जिसकी सभामें मानतुंग उपस्थित हुए थे।
उपयुक्त विरोधी आख्यानों पर दृष्टिपात करनेसे तथा वल्लालकविरचित भोजप्रबन्ध नामक ग्रंथका अवलोकन करनेसे निम्नलिखित तथ्य उपस्थित होते हैं-
१. मयूर, बाण, कालिदास और माघ आदि विभिन्न समयवर्ती प्रसिद्ध कवियोंका एकत्र समवाय दिखलानेकी प्रथा १० वीं शतीसे १५ वीं शती तकके साहित्यमें प्राप्त होती है।
२. मानतुंगको श्वेताम्बर आख्यानोंमें पहले दिगम्बर और पश्चात् श्वेताम्बर माना गया है। इसी प्रकार दिगम्बर लेखकोंने उन्हें पहले श्वेताम्बर पश्चात् दिगम्बर लिखा है। यह कल्पना सम्प्रदायव्यामोहका ही फल है। दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायोंमें जब परस्पर कटुता उत्पन्न हो गयी और मान्य आचार्योंकी अपनी ओर खींचतान होने लगी, तो इस प्रकार विकृत इतिवृत्तोंका साहित्यमें प्रविष्ट होना स्वाभाविक है।
३. मानतुंगने भक्तामरस्तोत्रकी रचना की। दोनों सम्प्रदायोंने अपनी अपनी मान्यता अनुसार इस स्तोत्रको प्रतिष्ठा दी। प्रारम्भमें इस स्तोत्रमें ४८ स्तोत्र थे, जो काव्य कहलाते थे। प्रायः हस्तलिखित ग्रन्थोंमें ४८ काव्य ही मिलते हैं। प्रत्येक पद्यमें काव्यत्व रहनेके कारण ही ४८ पद्योंको ४८ काव्य कहा गया है । इन पद्यों में श्वेताम्बर सम्प्रदायने अशोकवृक्ष, पुष्पवृष्टि, दिव्य ध्वनि और चमर इन चार प्रातिहारियों के बोधक पद्योंको ग्रहण किया और सिंहासन, भामण्डल, दुन्दुभिः एवं छत्र इन चार प्रातिहारियोंके विवेचक पद्योंको निकाल दिया। इधर दिगम्बर सम्प्रदायकी कुछ हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा निकाले हुए चार प्रातिहारियोंके बोधक चार नये पद्य और जोड़ दिये गये। इस प्रकार ५२ पद्योंको संख्या गढ़ ली गयी। वस्तुतः इस स्तोत्रकाव्यमें ४८ ही पद्य हैं।
४. स्तोत्र-काव्योंका महत्व दिखलानेके लिए उनके साथ चमत्कारपूर्ण आख्यानोंकी योजना की गयी है। मयुर, पुष्पदन्त, बाण प्रभृति सभी कवियोंके स्तोत्रोंके पीछे कोई-न-कोई चमत्कारपूर्ण आख्यान विद्यमान हैं। भगवद्भक्ति, चाहे वह वीतरागीकी हो या सरागीकी, अभीष्टपूर्ति करती है। पूजापद्धतिके आरम्भके पूर्व स्तोन्नोंकी परम्परा ही भक्तिके क्षेत्रमें विद्यमान थी। भक्त या श्रद्धालु पाठक स्तोत्रद्वारा भगवदगुणोंका स्मरण कर अपनी आत्माको पवित्र बनाता है। यही कारण है कि भक्तामर, एकीभाव, कल्याणमन्दिर प्रभृति स्तोत्रोंके साथ भी चमत्कारपूर्ण आख्यान जुड़े हुए हैं।
अतएव इन आख्यानोंमें तथ्यांश हो या न हो, पर इतना सत्य है कि एकाग्रतापूर्वक इन स्तोत्रोका पाठ करनेसे आत्मशुद्धिके साथ मनोकामनाकी पूर्ति भी होती है। स्तोत्रोंके पढ़नेसे जो आत्मशुद्धि होती है, वही आत्मशुद्धि कामनापूर्तिका साधन बनती है। मानतुंग अपने समयके प्रसिद्ध आचार्य हैं और इनकी मान्यता दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों में है।
मानतुंगके समय-निर्धारणमें उक्त विरोधी आख्यानोंसे यह प्रकट होता है कि वे हर्ष अथवा भोजके समकालीन हैं। इन दोनों राजाओंमेसे किसी एककी समकालीनता सिद्ध होनेपर मानतुंग के समयका निर्णय किया जा सकता है। सर्वप्रथम हम यहाँ भोजकी समकालीनता पर विचार करेंगे।
भोजनामके कई राजा हुए हैं तथा भारतीय आख्यानों में विक्रमादित्य और भोजको संस्कृतकवियोंका आश्रयदाता एवं संस्कृत साहित्यका लेखक माना गया है।
भारतीय इतिहासमें बताया गया है कि सीयक- हर्षके बाद उसका यशस्वी पुत्र भुंज उपनाम वाकपति वि. सं. १०३१ (ई. सन् ९७४) में मालवाकी गद्दी पर आसीन हुवा। वाक्पति भुंजने लाट, कर्णाटक, चोल और केरलके साथ युद्ध किया था। यह योद्धा तो था ही, साथ ही कला और साहित्यका संरक्षक भी था। उसने धारानगरीमें अनेक तालाब खुदवाये थे। उसकी सभामें पद्मगुप्त, धनञ्जय, धनिक और हलायुव प्रभृति ख्यातिनामा साहित्यिक रहते थे। भुंजके अनन्तर सिन्धुराज या नवसाहशांक सिंहासनासीन हुआ। सिन्धुराजके अल्पकालीन शासनके बाद उसका पुत्र भोज परमारोंकी गद्दी पर बैठा। इस राजकुलका यह सर्वशक्तिमान और यशस्वी नृपत्ति था। इसके राज्यासोन होनेका समय ई. सन् १००८ है। भोजने दक्षिणी राजाओंके साथ तो युद्ध किया ही, पर तुरुष्क एवं गुजरातके कीर्तीराजके साथ भी युद्ध किया। मेरुतुंगके अनुसार भोजने ५५ वर्ष ७ मास और ३ दिन राज्य किया है। भोज विद्या रसिक था। उसके द्वारा रचित ग्रन्थ लगभग एक दर्जन है। इन्हीं भोजके समयमें आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपना प्रमेयकमलमार्तण्ड लिखा है- श्रीभोजदेव राज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरसरमेष्टपदप्रगाभाजितामलपुण्यनिराकृत निखिलमलकलडून श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेन निखिलप्रमाणप्रमेयस्वरूपोद्योत परीक्षामुखपदमिदं विवृतमिति।
श्री पंडित कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने प्रभाचन्द्रका समय ई. सन् १०५० के लगभग माना है। अतः भोजका राज्यकाल ११वीं शताब्दी है।
आचार्य कवि मानतुंगके भक्तामरस्तोत्रको शैली मयूर और बाणको स्तोत्र शैलीके समान है। अतएव शैलो तथा अन्य ऐतिहासिक तथ्योंके न मिलनेसे मानतुंगने अपने स्तोत्रकी रचना भोजराज्यकालमें नहीं की है। यतः भोजके समयमें मयुर और बाणका अस्तित्व सम्भव नहीं है। यह चमत्कारी आख्यानोंसे स्पष्ट है कि मानतुंग वाण-मयूरकालीन हैं और किसी न किसी रूप में इनका सम्बन्ध बाण और मयूरके साथ रहा है।
संस्कृत- साहित्यके प्रसिद्ध इतिहासज्ञ विद्वान डॉ. ए. वी कीथने भक्तामर कथाके सम्बन्धमें अनुमान किया है कि कोठरियोंके ताले या पाशबद्धता संसारबन्धनका रूपक है। इस प्रकारके रूपक छठी-सातवीं शताब्दीमें अनेक लिखे गये हैं। वसुदेव-हिंडीमें गर्भवासदुःख, विषयसुख, इन्द्रियसुख, जन्म-मरणके भव आदि सम्बन्धी अनेक रूपक आये है। डॉ. कीथका यह अनुमान यदि सत्य है, तो इसका रचनाकाल छठी शताब्दीका उत्तरार्द्ध या सातवीका पूर्वार्द्ध होना चाहिये।
डॉ. कीथने यह भी अनुमान किया है कि मानतुंग बाणके समकालीन हैं। सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ पं. गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझाने अपने "सिरोहीका इतिहास' नामक ग्रन्थमें मानतुंगका समय हर्षकालीन माना है। श्रीहर्षका राज्याभिषेक ई. सन् ६०८ में हुआ था। अतएव मानतुंगका समय ई. सन् की ७वीं शताब्दीका मध्यभाग होना सम्भव है।
भक्तामरस्तोत्रके अन्तरंग परीक्षणसे प्रतीत होता है कि यह स्तोत्र 'कल्याण-मन्दिरका’ परवर्ती है! 'कल्याण-मन्दिर'के रचयीता सिद्धसेनका समय षष्ठी शताब्दी सिद्ध किया जा चुका है। अत: मानतुंगका समय इनसे कुछ उत्तरवत्तों होना चाहिये। हमारा अनुमान है कि दोनो स्तोत्रों में उपलब्ध समता एक-दूसरेसे प्रभावित है।
'कल्याण-मन्दिर में कल्पनाकी जैसी स्वच्छता है, वैसी प्रायः इस स्तोत्रमें नहीं है। अत: कल्याण-मन्दिर भक्तामरके पहले की रचना हो, तो आश्चर्य नहीं है। यत: इस स्तोत्रकी कल्पनाओंका पल्लवन एवं उन कल्पनाओम कुछ नवीनताओंका समावेश चमत्कारपूर्ण शैली में इस स्तोत्रमें हुआ है। भक्तामरमें कहा है कि सूर्य की बात ही क्या, उसकी प्रभा ही तालाबोंम कमलोंकी विकसित कर देती है, उसी प्रकार हे प्रभो ! आपका स्तोत्र तो दूर हो रहे, पर आपके नामकी कथा ही समस्त पापोंको दूर कर देती है। यह नाम-माहात्म्य मूलत: श्री मद्भागवतसे स्तोत्र-साहित्यमें स्थानान्तरित हुआ है। यथा-
आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोषं
त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति।
दूरे सहस्रकिरणः कुरुते प्रभैव
पद्माकरेषु जलजानि बिकासभाज्जि।
कल्याण-मन्दिरमें भी उपर्युक्त कल्पना ज्यों-की-त्यों मिलती है। बताया है कि जब निदाघमें कमलसे युक्त तालाबकी सरस वायु ही तीव्र आतापसे संतप्त पथिकोंकी गर्मीसे रक्षा करती है, तब जलाशयकी बात ही क्या, उसी प्रकार जब आपका नाम ही संसारके तापको दूर कर सकता है, तब आपके स्तोत्रके सामर्थ्यका क्या कहना।
आस्तामचिन्त्यमहिमा जिन। संस्तवस्ते
नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति।
तीव्रातपोपहतपान्थजनान्निदाचे,
प्रीणाति पद्मसरसः सरसोऽनिलोऽपि||
भक्तामरस्तोत्र और कल्याणमन्दिरकी गुणगान-महत्त्व-सूचक कल्पना तुल्य है। दोनों ही जगह नामका महत्व है। अतः एक दुसरेसे प्रभावित हैं अथवा दोनोंने किसी अन्य पौराणिक स्तोत्रसे उक्त कल्पनाएं ग्रहण की हैं।
भक्तामरस्तोत्रमें बतलाया है कि हे प्रभो ! संग्राममें आपके नामका स्मरण करनेसे बलवान राजाओंके युद्ध करते हुए घोड़ों और हाथियोंको भयानक गर्जनासे युक्त सैन्यदल उसी प्रकार नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है, जिस प्रकार सूर्यके उदय होने से अन्धकार नष्ट हो जाता है। यथा-
वल्गत्तुरङ्गगजगजितभीमनाद-
माजी बलं बलवतामपि भूपतीनाम्।
उद्यदिवाकरमयूस्खशिखापविंध्य
स्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति॥
उपर्युक्त कल्पनाका समानान्तर रूप कल्याणमंदिरके ३२ वें पद्यमें उसी प्रकार पाया जाता है जिस प्रकार जिनसेनके पार्श्वाभ्युदयमें। कल्याणमंदिरमें भी यही कल्पना प्राप्त होती है। यथा-
यदगर्जदूजितघनौघमदभ्रभीम-
भ्रश्यतडिन्मुसलमांसलघोरधारम्।
दत्येन मुक्तमथ दुस्तरवारि दन्धे
तेनैव तस्य जिन! दुस्तरवारिकृत्यम्।।
इसी प्रकार भक्तामरस्तोत्रके "त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांसम्" (भक्तामर पद्य २३) और "स्वां योगिनो जिन! सदा परमात्मरूपम् (कल्याण मंदिर पद्य १४) तुलनीय हैं।
उपर्युक्त विश्लेषणके प्रकाशमें इस स्वीकृतिका विरोध नहीं किया जा सकता कि भक्तामर और कल्याणमन्दिर दोनोंकी पदावली, कल्पनाएं एवं तथ्य निरूपण-प्रणाली समान हैं।
ये दोनों स्तोत्र तथ्य-विश्लेषणकी दृष्टिसे श्रीमद्भागवद् और शैलीकी दृष्टिसे पुष्पदन्तके शिवहिम्नस्तोत्रके समकक्ष हैं।
मानतुङ्गको एकमात्र रचना ४८ पद्यप्रमाण भक्तामर स्तोत्र है। यह समस्त स्तोत्र वसन्ततिलकाछन्दमें लिखा गया है। इसमें आदितीर्थङ्कर ऋषभनाथकी स्तुति की गयी है। इस स्तोत्रकी यह विशेषता है कि इसे किसी भी तीर्थङ्कर पर घटित किया जा सकता है। प्रत्येक पद्यमें उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक अलङ्कारका समावेश किया है। इसका भाषा-सौष्ठव और भाव गाम्भीर्य आकर्षक है। कवि अपनी नम्रता प्रकट करता हुआ कहता है कि हे प्रभो ! में अल्पज्ञ बहुश्रुतज्ञ विद्वानों द्वारा हँसीका पात्र होने पर भी आपको भक्ति ही मुझे मुखर बनाती है। वसन्तमें कोकिल स्वयं नहीं बोलना चाहती, प्रत्युत आम्रमञ्जरी ही उसे बलात् कूजनेका निमन्त्रण देती है। यथा-
अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम
त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम्।
यत्कोकिल: किल मघौ मधुरं विरौति
तच्चाम्रचारुकलिकानिकरैकहेतुः॥
अतिशयोक्ति अलंकारके उदाहरण इस स्तोत्रमें कई आये हैं। पर १७ चें पद्यका अतिशयोक्ति अलङ्कार बहुत ही सुन्दर है। कवि कहता है कि हे भगवन् ! आपकी महिमा सूर्यसे भी बढ़कर है, क्योंकि आप कभी भी अस्त नहीं होते। न राहुगम्य हैं, न आपका महान प्रभाव मेघोंसे अवरूद्ध होता है। आप समस्त लोकोंको एक साथ अनायास स्पष्ट रूपसे प्रकाशित करते हैं, जब कि सूर्य राहु से ग्रस्त या मेघोंसे आच्छन्न हो जाने पर अकेले मध्यलोकको भी प्रकाशित करने में अक्षम रहता है। यथा-
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति।
नाम्भोघरोदरनिरूद्धमहाप्रभाव:
सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्र! लोके।।
यहाँ भगवानको अद्भत सूर्यके रूपमें वणित कर अतिशयोक्तिका चमत्कार दिखलाया गया है।
कवि आदिजिनको बुद्ध, शङ्कर, धाता और पुरुषोत्तम सिद्ध करता हुआ कहता है-
बुद्धस्त्वमेव विबुधाचित्तबुद्धिबोधा-
त्वं शक्कारोऽसी भुवनत्रयकरत्वान।
धात्तासि धीर शिवमार्गविधेविधाना-
द्वयकं त्वंवमेव भगवन्पुरुषोत्तमोसि।।
इस प्रकार इस स्तोत्र-काव्यमें भक्ति, दर्शन और काव्यको त्रिवेणी एक साथ प्रवाहित प्राप्त होतो है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara- 2
Acharya Shri Manatung 11th Century (Prachin)
Acharya Shri Manatung
#manatungmaharaj
15000
#manatungmaharaj
manatungmaharaj
You cannot copy content of this page