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#narendrasenmaharaj
अमृतचन्द्रके तत्त्वार्थसारकी शैलीपर आचार्य नरेन्द्रसेनने 'सिद्धान्तसार' संग्रह' नामक ग्रंथ रचा है। सारस्वसाचार्यों की परंपरा मे आचार्य नरेन्द्रसेन का भी नाम आता है। शैली में समानता होने पर भी दोनोंके नामोंके अनुरूप विषयमें अन्तर है। तत्वार्थसारमें तत्त्वार्थसूत्र और उसके टीकाग्रन्थोंका सार है तथा उसका विषयानुक्रम मी तत्त्वार्थसूत्रके अनुरूप है, पर सिद्धान्तसारसंग्रहमें सिद्धान्तसम्बन्धी ऐसे विषय चर्चित हैं जो तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओंके अतिरिक्त अन्यत्र भी प्राप्त हैं।
ग्रंथके अन्त में ग्रन्थकारने अपनी प्रशस्ति दी है, जिससे अवगत होता है कि लाडवागड़ संघमें धर्मसेननामके दिगम्बर मुनिराज हुए। उनके पश्चात् क्रमशः शान्तिषेण, गोपसेन, भावसेन, जयसेन, ब्रह्मसेन और वीरसेन हुए। वीरसेनके शिष्य गुणसेन हुए और गुणसेनके शिष्य नरेन्द्रसेन हुए।
जयसेनसूरिने 'धर्मरत्नाकर' नामक ग्रन्थ रचा है। इसकी अन्तिम प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि यह भी लाडवागड़ या झाडवागड़ संघके आचार्य थे। इन्होंने जो गुरुपरम्परा दी है उसमें धर्मसेन, शान्तिषेण, गोपसेन, भावसेन और जयसेनके नाम आये हैं। यह गुरु-परम्परा नरेन्द्रसेनद्वारा प्रदत्त परम्परासे मिलती जुलती है।
अतः नरेन्द्रसेन धर्मरत्नाकरके कर्ता जयसेनके वंशज है। जयसेनने धर्म रत्नाकरकी प्रशस्तिके अन्तसे उसका रचनाकाल १०५५ दिया है। जयसेन और नरेन्द्रसेनके मध्य में ब्रह्मसेन, वीरसेन और गुणसेन नामके तीन आचार्य और हुए हैं। नरेन्द्रसेनने अपने ग्रन्थके मध्यमें भी दो स्थानोंपर वीरसेनका स्मरण किया है और अपनेको वीरसेनसे 'लब्धप्रसाद' कहा है। अतः नरेन्द्रसेन वीरसेन के समयमें वर्तमान थे और जयसेन तथा वीरसेनके मध्यमें केवल एक ब्रह्मसेन आते हैं। अत: जयसेनके धर्मरत्नाकरकी समाप्तिसे अधिक-से-अधिक पचास वर्ष पश्चात अर्थात् वि. सं. ११०५ वीरसेनका समय माना जा सकता है। और इस तरह नरेन्द्रसेनको विक्रमकी १२वीं शताब्दिके द्वितीय चरणका विद्वान मानना उचित है।
अमृतचन्द्र के तत्त्वार्थसारसे नरेन्द्रसेनको सिद्धान्तसार रचनेकी प्रेरणा मिली अवगत होती है, क्योंकि नरेन्द्रसेनके पूर्वज जयसेनने अपने धर्मरत्नाकरमे, अमृतचन्द्रके पुरुषार्षसिन्धुपायके अनेक पद्य उद्धृत किये हैं। अतएव वि. सं. १०५० के पश्चात् नरेन्द्रसेनका होना स्वाभाविक है।
सिद्धान्तसारपर अमितगतिके श्रावकाचारका भी प्रभाव सम्भव है। सिद्धान्तसारके चतुर्थ अध्यायमें निदानके प्रशस्त और अप्रशस्त भेदोंका कथन किया है। यह सन्दर्भ अमितगतिका अनुकरण जान पड़ता है। अमितगति-श्रावकाचारके सप्तम अध्यायके २०, २१ और २२वें पत्रका सिद्धान्तसार चतुर्थ अध्यायके पद्य २४६-५० का मिलान करनेपर अमितगति-श्रावकाचारके उक्त पद्योंपर स्पष्टतः प्रभाव ज्ञात होता है। अमितगति माथुरसंघके आचार्य थे, यह पहले कहा जा चुका है।
अतएव नरेन्द्रसेन भी अमितगतिके समान काष्ठासंधी ही प्रतीत होते हैं। काष्ठासंघमें नन्दितट, माथुर, बागड़ और लाटवागड़ या झाडवागड ये चार प्रसिद्ध गच्छ हुए हैं, ऐसा सुरेन्द्रकीर्तिविरचित पट्टावलीसे ज्ञात होता है-
काष्ठासंघो भुवि ख्यातो जानन्ति नृसुरासुराः।
तत्र गच्छाश्च चत्वारो राजन्ते विश्रुताः क्षिती||
श्रीनन्दितटसंज्ञश्च माथुरो वागड़ाभिषः।
लाइनाह इलोके विख्याता: श्रीतिमण्डले।
श्री डॉ. कोठियाजीने अत्यन्त विस्तारपूर्वक इनके वंश और समयपर विचार किया है।
नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा विरचित गोम्मटसार तथा त्रिलोकसारका भी उपयोग नरेन्द्रसेनने अपनी रचनामें किया प्रतीत होता है। उनके जीवतत्त्वविषयक वर्णनमें उक्त ग्रन्थों के अनेक गाथासूत्र अनुवाद जैसे प्रतीत होते हैं। सिद्धान्तसारसंग्रहके चतुर्थ अध्यायमें केवलि-भुक्ति और स्त्री-मुक्तिका खण्डन है, जो आचार्य प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्डका अनुसरण है। प्रभाचन्द्रका समय वि. सं. १०३७-११२२ निर्धारित किया है। इससे भी नरेन्द्रसेन वि. सं. १२वी शतीके विद्वान् सिद्ध होते हैं।
इनकी एक ही रचना उपलब्ध है- सिद्धान्तसारसंग्रह। यह गन्ध १२अध्यायोंमें विभाजित है और संस्कृत-भाषामें अनुष्टुप छन्दों में लिखा गया है। प्रत्येक अध्यायके अन्तमें छन्दपरिवर्तन हुआ है और पुष्पिकामें सिद्धान्तसारसंग्रह- यह नाम दिया गया है।
प्रथम अध्यायमें सम्यग्दर्शनका निरूपण है। सम्यग्दर्शनका लक्षण समन्तभद्रके 'रहनकरण्डश्रावकाचार’ के आधारपर रचा गया है। यथा-
सदृष्टिज्ञानसद्वृत्तरत्नत्रितयनायकैः।
कथितः परमो धर्मः कर्मकक्षक्षयानलः॥ १।३३।
श्रद्धानं शुद्धवृत्तीनां देवतागलिङ्गिनाम्।
मोठयादिदोषनिर्मुक्तं दृष्टि दृष्टिविदो विदुः॥ १॥३४॥
तुलना करें-
सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः।
श्रद्धानं परमार्थानामाप्तापमतपोभृताम्।
त्रिमूढापोढमष्टाङ्ग सम्यग्दर्शनमस्मयम्॥
मिथ्यादृष्टियोंका वर्णन करते हुए गोपूजा, पीपलवृक्षपूजा एवं गतानु गतिकसे आगे हुए लोकविश्वासोंका इसमें निर्देश है। इस ग्रंथमें भाव-संग्रहके अनुसार ही सम्यग्दर्शनके संवेग, निर्वेद आदि आठ गुणोंका कथन किया है तथा आठोंके लक्षण भी दिये गये हैं। मुनियोंमें दोष देखनेवालोंकी भी निन्दा की गयी है। इन विशेष बातोंके अतिरिक्त सम्यग्दर्शनके २५ दोषों और ८ अंगोंका भी कथन है।
द्वितीय अध्यायमें सम्यग्ज्ञानका वर्णन है। इसके आरम्भमें ही ज्ञानको प्रमाण न मानने और इन्द्रिय या सन्नीकर्ष आदिको प्रमाण माननेवाले नैयायिक वैशेषिक आदि मतोंकी समीक्षा की है। मतिज्ञानके भेद-प्रभेदोंका वर्णन करते हुए बुद्धि, ऋद्धिके भेदोंका भी स्वरूप बतलाया गया है। श्रुतज्ञानके प्रकरणमें द्वादशाङ्गके भेद-प्रभेदों एवं अंगबाह्यश्रुतके भेदोंका स्वरूप वर्णित है। इस सन्दर्भमें धवला और जयधवलामें बतलाये हुए स्वरूपसे भी कहीं कुछ अन्तर है। उदाहरणार्थ दशकालिकके स्वरूपको लिया जा सकता है। बताया है- द्रुम, पुष्पित आदि दश अधिकारोंके द्वारा जिसमें साधुओंके आचरणका वर्णन हो वह दशवकालिक है। ये दश अधिकार श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य दशवैकालिकके ही दश अध्याय है। गोम्मटसार जीवकाण्डके समान श्रुतज्ञानके पर्याय, पर्याय-समास, अक्षर, अक्षर-समास आदि २० भेदोंका भी कथन किया गया है। शेष ज्ञानोंका वर्णन तो सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक जैसा है।
तृतीय अध्यायमें चारित्रका वर्णन है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह व्रतोंका वर्णन नरेन्द्रसेन अमितगतिके श्रावकाचार जैसा ही किया है। यथा-
यो यस्य इरते वित्तं स तज्जीवितहन्नरः।
बहिरंग हि लोकानां जीवितं वित्तमुच्यते।।
यो यस्य हरति वित्तं स तस्य जीवस्य जीवितं हरति।
आश्वासकर बाह्य जीवानां जीवितं वित्तम्।।
स्तेय और परिग्रहका लक्षण बतलानेवाले सूत्रोंकी व्याख्यामें सर्वार्थसिद्धिमें जो शङ्का-समाधान किया गया है उसे भी ग्रन्थकारने ज्यों-का-त्यों अपना लिया है।
चतुर्थ अध्यायमें अणुव्रत और महाव्रतोंका सामान्य निर्देशकर मिथ्यात्व नामक शल्यका कथन करते हुए अनेक दार्शनिक मतोंकी विस्तारपूर्वक चर्चा की है। आत्माकी नित्यता, क्षणिकता, बौद्धोंका शून्यवाद, चार्वाकका जड़वाद, सांख्यका कूटस्थ नित्यवाद, मीमांसकोंका सर्वज्ञाभावबाद, वेदकी अपौरुषेयता और जगतकर्तृत्ववादकी समीक्षा की है। श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य केवली कवलाहार और स्त्रीमुत्किकी भी आलोचना की गयी है।
पंचम अध्यायमें जीवादि तत्वोंका स्वरूप वर्णित है। जीवका लक्षण और गुण वर्णन करनेके पश्चात् उसके कर्तृत्व, अमूर्तत्व, भोवतृत्व, स्वदेपरिमाणत्व, उपयोगमयत्व, संसारित्व और ऊर्ध्वगमन धर्मोंका वर्णन आया है। इनका समर्थन करते हुए लिखा है कि भाट्ट और नास्तिक जीवकी मूर्तं मानते हैं, अतएव अमूर्त कहा है। योग शुद्धचैतन्यमय मानते हैं, इसलिए उपयोगमय कहा है। सांख्य जीवको अकर्ता मानता है, इसलिए कर्तापद दिया है। योग (नैयायिक) भाट्ट (मीमांसक) और सांख्य जीवको व्यापी मानते हैं, इसलिए स्वदेहपरिमाण कहा है। इस अध्यायके अगले संदर्भो का विषय सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थ वार्तिकके द्वितीय अध्यायके समान आया है ! नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेपोंका स्वरूप सर्वार्थसिद्धिके समान ही निबद्ध है। इस पंचम अध्यायका उत्तरार्ध तत्त्वार्थसूत्र और उसके टीकाग्रन्थोंके अनुसार लिखा गया है।
छठे अध्यायमें नरकलोकका वर्णन करते हुए सातों भूमियोंका स्वरूप, नरकपटल एवं नरकोंके बिलोंका भी कथन किया गया है। प्रकृति और कर्मोदयसे प्राप्त होनेवाले दुःखोंका भी कयन आया है। इस अध्यायमें भूमियोंके वर्ण, प्रकाश एवं उनके क्षेत्र और विस्तारका भी निरूपण है।
सप्तम अध्यायमें मध्यलोक और उसके अन्तर्गत जम्बूदीप, लवणसमुद्र, घातकीखण्ड, कालोदधिसमुद्र, पुष्करवरद्वीप, मानुषोत्तर षट्कुलाचल, भरत, ऐरावत आदि सप्तक्षेत्र, कर्मभूमि, भोगभूमि आदिका प्रतिपादन किया गया है।
अष्टम अध्यायमें वैमानिक देवोंका वर्णन है। सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र आदि सोलह स्वर्ग नवोषि, नद अनुनि विजय नबन्ना, अयारा, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि विमानोंका कथन है। तत्त्वार्थसूत्रके समान ही स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्या और अवधिज्ञानकी उत्तरोत्तर अधिकता प्रतिपादित की है। गति, शरीर, परिग्रह और अभिमानकी अपेक्षा उत्तरोत्तर हीनता बतलायी गयी है। लौकान्तिक देवोंके भेदोंका वर्णन कर देवोंको उत्कृष्ट और जघन्य आयुका वर्णन किया है।
नवम अध्यायमें अजीव, आस्रव और बन्धतत्वका वर्णन किया है। अजीवके पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और काल भेदों, तथा जीच सहित षड्द्रव्यों, आस्त्रवका स्वरूप, आस्रवके प्रत्यय और उसके भेद, बन्धतत्वका स्वरूप, बन्धके कारण और बन्धके भेदोंका विस्तारपूर्वक कथन आया है।
दशम अध्यायमें निर्जरातत्त्वका वर्णन करते हए तपके प्रसङ्गसे प्रायश्चित्तका वर्णन बहुत विस्तारपूर्वक किया है। ऐसा वर्णन अन्यत्र नहीं आया है। वस्तुतः प्रायश्चित्त ही इस अध्यायका मुख्य वणर्य विषय है। किस अपराधके होनेपर कौन-सा प्रायश्चित्त कब ग्रहण करना चाहिए, इसका विस्तारपूर्वक विवेचन आया है।
एकादश अध्यायमे विनयतपसे लेकर ध्यानतप तकका वर्णन है। ध्यानके आतं, रौद्र, घमं और शुक्ल इन चारों ध्यानोंका स्वरूप, इनके भेद तथा धर्म ध्यानके पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत भेदोंका स्वरूपसहित विवेचन किया है।
द्वादश अध्यायमें भगवती-आराधनाके आधारपर मरणके भेद बतलाकर समाधिमरणका विस्तारपूर्वक कथन किया है। निश्चयतः इस ग्रन्थमें 'तत्वार्थ सार'की अपेक्षा अधिक विषयोंका समावेश है। तत्त्वार्थसारमें चर्चित विषयोंका विस्तारपूर्वक कथन किया ही गया है।
नरेन्द्रसनके नामसे एक प्रतिष्ठाग्रंथ भी मिलता है। पर हमारा विचार है कि यह मान्य सिद्धान्तसारसंग्रहके रचयिता नरेन्द्रसेनका न होकर किसी अन्य नरेन्द्रसेनका है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
अमृतचन्द्रके तत्त्वार्थसारकी शैलीपर आचार्य नरेन्द्रसेनने 'सिद्धान्तसार' संग्रह' नामक ग्रंथ रचा है। सारस्वसाचार्यों की परंपरा मे आचार्य नरेन्द्रसेन का भी नाम आता है। शैली में समानता होने पर भी दोनोंके नामोंके अनुरूप विषयमें अन्तर है। तत्वार्थसारमें तत्त्वार्थसूत्र और उसके टीकाग्रन्थोंका सार है तथा उसका विषयानुक्रम मी तत्त्वार्थसूत्रके अनुरूप है, पर सिद्धान्तसारसंग्रहमें सिद्धान्तसम्बन्धी ऐसे विषय चर्चित हैं जो तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओंके अतिरिक्त अन्यत्र भी प्राप्त हैं।
ग्रंथके अन्त में ग्रन्थकारने अपनी प्रशस्ति दी है, जिससे अवगत होता है कि लाडवागड़ संघमें धर्मसेननामके दिगम्बर मुनिराज हुए। उनके पश्चात् क्रमशः शान्तिषेण, गोपसेन, भावसेन, जयसेन, ब्रह्मसेन और वीरसेन हुए। वीरसेनके शिष्य गुणसेन हुए और गुणसेनके शिष्य नरेन्द्रसेन हुए।
जयसेनसूरिने 'धर्मरत्नाकर' नामक ग्रन्थ रचा है। इसकी अन्तिम प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि यह भी लाडवागड़ या झाडवागड़ संघके आचार्य थे। इन्होंने जो गुरुपरम्परा दी है उसमें धर्मसेन, शान्तिषेण, गोपसेन, भावसेन और जयसेनके नाम आये हैं। यह गुरु-परम्परा नरेन्द्रसेनद्वारा प्रदत्त परम्परासे मिलती जुलती है।
अतः नरेन्द्रसेन धर्मरत्नाकरके कर्ता जयसेनके वंशज है। जयसेनने धर्म रत्नाकरकी प्रशस्तिके अन्तसे उसका रचनाकाल १०५५ दिया है। जयसेन और नरेन्द्रसेनके मध्य में ब्रह्मसेन, वीरसेन और गुणसेन नामके तीन आचार्य और हुए हैं। नरेन्द्रसेनने अपने ग्रन्थके मध्यमें भी दो स्थानोंपर वीरसेनका स्मरण किया है और अपनेको वीरसेनसे 'लब्धप्रसाद' कहा है। अतः नरेन्द्रसेन वीरसेन के समयमें वर्तमान थे और जयसेन तथा वीरसेनके मध्यमें केवल एक ब्रह्मसेन आते हैं। अत: जयसेनके धर्मरत्नाकरकी समाप्तिसे अधिक-से-अधिक पचास वर्ष पश्चात अर्थात् वि. सं. ११०५ वीरसेनका समय माना जा सकता है। और इस तरह नरेन्द्रसेनको विक्रमकी १२वीं शताब्दिके द्वितीय चरणका विद्वान मानना उचित है।
अमृतचन्द्र के तत्त्वार्थसारसे नरेन्द्रसेनको सिद्धान्तसार रचनेकी प्रेरणा मिली अवगत होती है, क्योंकि नरेन्द्रसेनके पूर्वज जयसेनने अपने धर्मरत्नाकरमे, अमृतचन्द्रके पुरुषार्षसिन्धुपायके अनेक पद्य उद्धृत किये हैं। अतएव वि. सं. १०५० के पश्चात् नरेन्द्रसेनका होना स्वाभाविक है।
सिद्धान्तसारपर अमितगतिके श्रावकाचारका भी प्रभाव सम्भव है। सिद्धान्तसारके चतुर्थ अध्यायमें निदानके प्रशस्त और अप्रशस्त भेदोंका कथन किया है। यह सन्दर्भ अमितगतिका अनुकरण जान पड़ता है। अमितगति-श्रावकाचारके सप्तम अध्यायके २०, २१ और २२वें पत्रका सिद्धान्तसार चतुर्थ अध्यायके पद्य २४६-५० का मिलान करनेपर अमितगति-श्रावकाचारके उक्त पद्योंपर स्पष्टतः प्रभाव ज्ञात होता है। अमितगति माथुरसंघके आचार्य थे, यह पहले कहा जा चुका है।
अतएव नरेन्द्रसेन भी अमितगतिके समान काष्ठासंधी ही प्रतीत होते हैं। काष्ठासंघमें नन्दितट, माथुर, बागड़ और लाटवागड़ या झाडवागड ये चार प्रसिद्ध गच्छ हुए हैं, ऐसा सुरेन्द्रकीर्तिविरचित पट्टावलीसे ज्ञात होता है-
काष्ठासंघो भुवि ख्यातो जानन्ति नृसुरासुराः।
तत्र गच्छाश्च चत्वारो राजन्ते विश्रुताः क्षिती||
श्रीनन्दितटसंज्ञश्च माथुरो वागड़ाभिषः।
लाइनाह इलोके विख्याता: श्रीतिमण्डले।
श्री डॉ. कोठियाजीने अत्यन्त विस्तारपूर्वक इनके वंश और समयपर विचार किया है।
नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा विरचित गोम्मटसार तथा त्रिलोकसारका भी उपयोग नरेन्द्रसेनने अपनी रचनामें किया प्रतीत होता है। उनके जीवतत्त्वविषयक वर्णनमें उक्त ग्रन्थों के अनेक गाथासूत्र अनुवाद जैसे प्रतीत होते हैं। सिद्धान्तसारसंग्रहके चतुर्थ अध्यायमें केवलि-भुक्ति और स्त्री-मुक्तिका खण्डन है, जो आचार्य प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्डका अनुसरण है। प्रभाचन्द्रका समय वि. सं. १०३७-११२२ निर्धारित किया है। इससे भी नरेन्द्रसेन वि. सं. १२वी शतीके विद्वान् सिद्ध होते हैं।
इनकी एक ही रचना उपलब्ध है- सिद्धान्तसारसंग्रह। यह गन्ध १२अध्यायोंमें विभाजित है और संस्कृत-भाषामें अनुष्टुप छन्दों में लिखा गया है। प्रत्येक अध्यायके अन्तमें छन्दपरिवर्तन हुआ है और पुष्पिकामें सिद्धान्तसारसंग्रह- यह नाम दिया गया है।
प्रथम अध्यायमें सम्यग्दर्शनका निरूपण है। सम्यग्दर्शनका लक्षण समन्तभद्रके 'रहनकरण्डश्रावकाचार’ के आधारपर रचा गया है। यथा-
सदृष्टिज्ञानसद्वृत्तरत्नत्रितयनायकैः।
कथितः परमो धर्मः कर्मकक्षक्षयानलः॥ १।३३।
श्रद्धानं शुद्धवृत्तीनां देवतागलिङ्गिनाम्।
मोठयादिदोषनिर्मुक्तं दृष्टि दृष्टिविदो विदुः॥ १॥३४॥
तुलना करें-
सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः।
श्रद्धानं परमार्थानामाप्तापमतपोभृताम्।
त्रिमूढापोढमष्टाङ्ग सम्यग्दर्शनमस्मयम्॥
मिथ्यादृष्टियोंका वर्णन करते हुए गोपूजा, पीपलवृक्षपूजा एवं गतानु गतिकसे आगे हुए लोकविश्वासोंका इसमें निर्देश है। इस ग्रंथमें भाव-संग्रहके अनुसार ही सम्यग्दर्शनके संवेग, निर्वेद आदि आठ गुणोंका कथन किया है तथा आठोंके लक्षण भी दिये गये हैं। मुनियोंमें दोष देखनेवालोंकी भी निन्दा की गयी है। इन विशेष बातोंके अतिरिक्त सम्यग्दर्शनके २५ दोषों और ८ अंगोंका भी कथन है।
द्वितीय अध्यायमें सम्यग्ज्ञानका वर्णन है। इसके आरम्भमें ही ज्ञानको प्रमाण न मानने और इन्द्रिय या सन्नीकर्ष आदिको प्रमाण माननेवाले नैयायिक वैशेषिक आदि मतोंकी समीक्षा की है। मतिज्ञानके भेद-प्रभेदोंका वर्णन करते हुए बुद्धि, ऋद्धिके भेदोंका भी स्वरूप बतलाया गया है। श्रुतज्ञानके प्रकरणमें द्वादशाङ्गके भेद-प्रभेदों एवं अंगबाह्यश्रुतके भेदोंका स्वरूप वर्णित है। इस सन्दर्भमें धवला और जयधवलामें बतलाये हुए स्वरूपसे भी कहीं कुछ अन्तर है। उदाहरणार्थ दशकालिकके स्वरूपको लिया जा सकता है। बताया है- द्रुम, पुष्पित आदि दश अधिकारोंके द्वारा जिसमें साधुओंके आचरणका वर्णन हो वह दशवकालिक है। ये दश अधिकार श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य दशवैकालिकके ही दश अध्याय है। गोम्मटसार जीवकाण्डके समान श्रुतज्ञानके पर्याय, पर्याय-समास, अक्षर, अक्षर-समास आदि २० भेदोंका भी कथन किया गया है। शेष ज्ञानोंका वर्णन तो सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक जैसा है।
तृतीय अध्यायमें चारित्रका वर्णन है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह व्रतोंका वर्णन नरेन्द्रसेन अमितगतिके श्रावकाचार जैसा ही किया है। यथा-
यो यस्य इरते वित्तं स तज्जीवितहन्नरः।
बहिरंग हि लोकानां जीवितं वित्तमुच्यते।।
यो यस्य हरति वित्तं स तस्य जीवस्य जीवितं हरति।
आश्वासकर बाह्य जीवानां जीवितं वित्तम्।।
स्तेय और परिग्रहका लक्षण बतलानेवाले सूत्रोंकी व्याख्यामें सर्वार्थसिद्धिमें जो शङ्का-समाधान किया गया है उसे भी ग्रन्थकारने ज्यों-का-त्यों अपना लिया है।
चतुर्थ अध्यायमें अणुव्रत और महाव्रतोंका सामान्य निर्देशकर मिथ्यात्व नामक शल्यका कथन करते हुए अनेक दार्शनिक मतोंकी विस्तारपूर्वक चर्चा की है। आत्माकी नित्यता, क्षणिकता, बौद्धोंका शून्यवाद, चार्वाकका जड़वाद, सांख्यका कूटस्थ नित्यवाद, मीमांसकोंका सर्वज्ञाभावबाद, वेदकी अपौरुषेयता और जगतकर्तृत्ववादकी समीक्षा की है। श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य केवली कवलाहार और स्त्रीमुत्किकी भी आलोचना की गयी है।
पंचम अध्यायमें जीवादि तत्वोंका स्वरूप वर्णित है। जीवका लक्षण और गुण वर्णन करनेके पश्चात् उसके कर्तृत्व, अमूर्तत्व, भोवतृत्व, स्वदेपरिमाणत्व, उपयोगमयत्व, संसारित्व और ऊर्ध्वगमन धर्मोंका वर्णन आया है। इनका समर्थन करते हुए लिखा है कि भाट्ट और नास्तिक जीवकी मूर्तं मानते हैं, अतएव अमूर्त कहा है। योग शुद्धचैतन्यमय मानते हैं, इसलिए उपयोगमय कहा है। सांख्य जीवको अकर्ता मानता है, इसलिए कर्तापद दिया है। योग (नैयायिक) भाट्ट (मीमांसक) और सांख्य जीवको व्यापी मानते हैं, इसलिए स्वदेहपरिमाण कहा है। इस अध्यायके अगले संदर्भो का विषय सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थ वार्तिकके द्वितीय अध्यायके समान आया है ! नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेपोंका स्वरूप सर्वार्थसिद्धिके समान ही निबद्ध है। इस पंचम अध्यायका उत्तरार्ध तत्त्वार्थसूत्र और उसके टीकाग्रन्थोंके अनुसार लिखा गया है।
छठे अध्यायमें नरकलोकका वर्णन करते हुए सातों भूमियोंका स्वरूप, नरकपटल एवं नरकोंके बिलोंका भी कथन किया गया है। प्रकृति और कर्मोदयसे प्राप्त होनेवाले दुःखोंका भी कयन आया है। इस अध्यायमें भूमियोंके वर्ण, प्रकाश एवं उनके क्षेत्र और विस्तारका भी निरूपण है।
सप्तम अध्यायमें मध्यलोक और उसके अन्तर्गत जम्बूदीप, लवणसमुद्र, घातकीखण्ड, कालोदधिसमुद्र, पुष्करवरद्वीप, मानुषोत्तर षट्कुलाचल, भरत, ऐरावत आदि सप्तक्षेत्र, कर्मभूमि, भोगभूमि आदिका प्रतिपादन किया गया है।
अष्टम अध्यायमें वैमानिक देवोंका वर्णन है। सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र आदि सोलह स्वर्ग नवोषि, नद अनुनि विजय नबन्ना, अयारा, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि विमानोंका कथन है। तत्त्वार्थसूत्रके समान ही स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्या और अवधिज्ञानकी उत्तरोत्तर अधिकता प्रतिपादित की है। गति, शरीर, परिग्रह और अभिमानकी अपेक्षा उत्तरोत्तर हीनता बतलायी गयी है। लौकान्तिक देवोंके भेदोंका वर्णन कर देवोंको उत्कृष्ट और जघन्य आयुका वर्णन किया है।
नवम अध्यायमें अजीव, आस्रव और बन्धतत्वका वर्णन किया है। अजीवके पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और काल भेदों, तथा जीच सहित षड्द्रव्यों, आस्त्रवका स्वरूप, आस्रवके प्रत्यय और उसके भेद, बन्धतत्वका स्वरूप, बन्धके कारण और बन्धके भेदोंका विस्तारपूर्वक कथन आया है।
दशम अध्यायमें निर्जरातत्त्वका वर्णन करते हए तपके प्रसङ्गसे प्रायश्चित्तका वर्णन बहुत विस्तारपूर्वक किया है। ऐसा वर्णन अन्यत्र नहीं आया है। वस्तुतः प्रायश्चित्त ही इस अध्यायका मुख्य वणर्य विषय है। किस अपराधके होनेपर कौन-सा प्रायश्चित्त कब ग्रहण करना चाहिए, इसका विस्तारपूर्वक विवेचन आया है।
एकादश अध्यायमे विनयतपसे लेकर ध्यानतप तकका वर्णन है। ध्यानके आतं, रौद्र, घमं और शुक्ल इन चारों ध्यानोंका स्वरूप, इनके भेद तथा धर्म ध्यानके पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत भेदोंका स्वरूपसहित विवेचन किया है।
द्वादश अध्यायमें भगवती-आराधनाके आधारपर मरणके भेद बतलाकर समाधिमरणका विस्तारपूर्वक कथन किया है। निश्चयतः इस ग्रन्थमें 'तत्वार्थ सार'की अपेक्षा अधिक विषयोंका समावेश है। तत्त्वार्थसारमें चर्चित विषयोंका विस्तारपूर्वक कथन किया ही गया है।
नरेन्द्रसनके नामसे एक प्रतिष्ठाग्रंथ भी मिलता है। पर हमारा विचार है कि यह मान्य सिद्धान्तसारसंग्रहके रचयिता नरेन्द्रसेनका न होकर किसी अन्य नरेन्द्रसेनका है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
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डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री नरेन्द्रसेन 12वीं शताब्दी (प्राचीन)
अमृतचन्द्रके तत्त्वार्थसारकी शैलीपर आचार्य नरेन्द्रसेनने 'सिद्धान्तसार' संग्रह' नामक ग्रंथ रचा है। सारस्वसाचार्यों की परंपरा मे आचार्य नरेन्द्रसेन का भी नाम आता है। शैली में समानता होने पर भी दोनोंके नामोंके अनुरूप विषयमें अन्तर है। तत्वार्थसारमें तत्त्वार्थसूत्र और उसके टीकाग्रन्थोंका सार है तथा उसका विषयानुक्रम मी तत्त्वार्थसूत्रके अनुरूप है, पर सिद्धान्तसारसंग्रहमें सिद्धान्तसम्बन्धी ऐसे विषय चर्चित हैं जो तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओंके अतिरिक्त अन्यत्र भी प्राप्त हैं।
ग्रंथके अन्त में ग्रन्थकारने अपनी प्रशस्ति दी है, जिससे अवगत होता है कि लाडवागड़ संघमें धर्मसेननामके दिगम्बर मुनिराज हुए। उनके पश्चात् क्रमशः शान्तिषेण, गोपसेन, भावसेन, जयसेन, ब्रह्मसेन और वीरसेन हुए। वीरसेनके शिष्य गुणसेन हुए और गुणसेनके शिष्य नरेन्द्रसेन हुए।
जयसेनसूरिने 'धर्मरत्नाकर' नामक ग्रन्थ रचा है। इसकी अन्तिम प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि यह भी लाडवागड़ या झाडवागड़ संघके आचार्य थे। इन्होंने जो गुरुपरम्परा दी है उसमें धर्मसेन, शान्तिषेण, गोपसेन, भावसेन और जयसेनके नाम आये हैं। यह गुरु-परम्परा नरेन्द्रसेनद्वारा प्रदत्त परम्परासे मिलती जुलती है।
अतः नरेन्द्रसेन धर्मरत्नाकरके कर्ता जयसेनके वंशज है। जयसेनने धर्म रत्नाकरकी प्रशस्तिके अन्तसे उसका रचनाकाल १०५५ दिया है। जयसेन और नरेन्द्रसेनके मध्य में ब्रह्मसेन, वीरसेन और गुणसेन नामके तीन आचार्य और हुए हैं। नरेन्द्रसेनने अपने ग्रन्थके मध्यमें भी दो स्थानोंपर वीरसेनका स्मरण किया है और अपनेको वीरसेनसे 'लब्धप्रसाद' कहा है। अतः नरेन्द्रसेन वीरसेन के समयमें वर्तमान थे और जयसेन तथा वीरसेनके मध्यमें केवल एक ब्रह्मसेन आते हैं। अत: जयसेनके धर्मरत्नाकरकी समाप्तिसे अधिक-से-अधिक पचास वर्ष पश्चात अर्थात् वि. सं. ११०५ वीरसेनका समय माना जा सकता है। और इस तरह नरेन्द्रसेनको विक्रमकी १२वीं शताब्दिके द्वितीय चरणका विद्वान मानना उचित है।
अमृतचन्द्र के तत्त्वार्थसारसे नरेन्द्रसेनको सिद्धान्तसार रचनेकी प्रेरणा मिली अवगत होती है, क्योंकि नरेन्द्रसेनके पूर्वज जयसेनने अपने धर्मरत्नाकरमे, अमृतचन्द्रके पुरुषार्षसिन्धुपायके अनेक पद्य उद्धृत किये हैं। अतएव वि. सं. १०५० के पश्चात् नरेन्द्रसेनका होना स्वाभाविक है।
सिद्धान्तसारपर अमितगतिके श्रावकाचारका भी प्रभाव सम्भव है। सिद्धान्तसारके चतुर्थ अध्यायमें निदानके प्रशस्त और अप्रशस्त भेदोंका कथन किया है। यह सन्दर्भ अमितगतिका अनुकरण जान पड़ता है। अमितगति-श्रावकाचारके सप्तम अध्यायके २०, २१ और २२वें पत्रका सिद्धान्तसार चतुर्थ अध्यायके पद्य २४६-५० का मिलान करनेपर अमितगति-श्रावकाचारके उक्त पद्योंपर स्पष्टतः प्रभाव ज्ञात होता है। अमितगति माथुरसंघके आचार्य थे, यह पहले कहा जा चुका है।
अतएव नरेन्द्रसेन भी अमितगतिके समान काष्ठासंधी ही प्रतीत होते हैं। काष्ठासंघमें नन्दितट, माथुर, बागड़ और लाटवागड़ या झाडवागड ये चार प्रसिद्ध गच्छ हुए हैं, ऐसा सुरेन्द्रकीर्तिविरचित पट्टावलीसे ज्ञात होता है-
काष्ठासंघो भुवि ख्यातो जानन्ति नृसुरासुराः।
तत्र गच्छाश्च चत्वारो राजन्ते विश्रुताः क्षिती||
श्रीनन्दितटसंज्ञश्च माथुरो वागड़ाभिषः।
लाइनाह इलोके विख्याता: श्रीतिमण्डले।
श्री डॉ. कोठियाजीने अत्यन्त विस्तारपूर्वक इनके वंश और समयपर विचार किया है।
नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा विरचित गोम्मटसार तथा त्रिलोकसारका भी उपयोग नरेन्द्रसेनने अपनी रचनामें किया प्रतीत होता है। उनके जीवतत्त्वविषयक वर्णनमें उक्त ग्रन्थों के अनेक गाथासूत्र अनुवाद जैसे प्रतीत होते हैं। सिद्धान्तसारसंग्रहके चतुर्थ अध्यायमें केवलि-भुक्ति और स्त्री-मुक्तिका खण्डन है, जो आचार्य प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्डका अनुसरण है। प्रभाचन्द्रका समय वि. सं. १०३७-११२२ निर्धारित किया है। इससे भी नरेन्द्रसेन वि. सं. १२वी शतीके विद्वान् सिद्ध होते हैं।
इनकी एक ही रचना उपलब्ध है- सिद्धान्तसारसंग्रह। यह गन्ध १२अध्यायोंमें विभाजित है और संस्कृत-भाषामें अनुष्टुप छन्दों में लिखा गया है। प्रत्येक अध्यायके अन्तमें छन्दपरिवर्तन हुआ है और पुष्पिकामें सिद्धान्तसारसंग्रह- यह नाम दिया गया है।
प्रथम अध्यायमें सम्यग्दर्शनका निरूपण है। सम्यग्दर्शनका लक्षण समन्तभद्रके 'रहनकरण्डश्रावकाचार’ के आधारपर रचा गया है। यथा-
सदृष्टिज्ञानसद्वृत्तरत्नत्रितयनायकैः।
कथितः परमो धर्मः कर्मकक्षक्षयानलः॥ १।३३।
श्रद्धानं शुद्धवृत्तीनां देवतागलिङ्गिनाम्।
मोठयादिदोषनिर्मुक्तं दृष्टि दृष्टिविदो विदुः॥ १॥३४॥
तुलना करें-
सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः।
श्रद्धानं परमार्थानामाप्तापमतपोभृताम्।
त्रिमूढापोढमष्टाङ्ग सम्यग्दर्शनमस्मयम्॥
मिथ्यादृष्टियोंका वर्णन करते हुए गोपूजा, पीपलवृक्षपूजा एवं गतानु गतिकसे आगे हुए लोकविश्वासोंका इसमें निर्देश है। इस ग्रंथमें भाव-संग्रहके अनुसार ही सम्यग्दर्शनके संवेग, निर्वेद आदि आठ गुणोंका कथन किया है तथा आठोंके लक्षण भी दिये गये हैं। मुनियोंमें दोष देखनेवालोंकी भी निन्दा की गयी है। इन विशेष बातोंके अतिरिक्त सम्यग्दर्शनके २५ दोषों और ८ अंगोंका भी कथन है।
द्वितीय अध्यायमें सम्यग्ज्ञानका वर्णन है। इसके आरम्भमें ही ज्ञानको प्रमाण न मानने और इन्द्रिय या सन्नीकर्ष आदिको प्रमाण माननेवाले नैयायिक वैशेषिक आदि मतोंकी समीक्षा की है। मतिज्ञानके भेद-प्रभेदोंका वर्णन करते हुए बुद्धि, ऋद्धिके भेदोंका भी स्वरूप बतलाया गया है। श्रुतज्ञानके प्रकरणमें द्वादशाङ्गके भेद-प्रभेदों एवं अंगबाह्यश्रुतके भेदोंका स्वरूप वर्णित है। इस सन्दर्भमें धवला और जयधवलामें बतलाये हुए स्वरूपसे भी कहीं कुछ अन्तर है। उदाहरणार्थ दशकालिकके स्वरूपको लिया जा सकता है। बताया है- द्रुम, पुष्पित आदि दश अधिकारोंके द्वारा जिसमें साधुओंके आचरणका वर्णन हो वह दशवकालिक है। ये दश अधिकार श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य दशवैकालिकके ही दश अध्याय है। गोम्मटसार जीवकाण्डके समान श्रुतज्ञानके पर्याय, पर्याय-समास, अक्षर, अक्षर-समास आदि २० भेदोंका भी कथन किया गया है। शेष ज्ञानोंका वर्णन तो सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक जैसा है।
तृतीय अध्यायमें चारित्रका वर्णन है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह व्रतोंका वर्णन नरेन्द्रसेन अमितगतिके श्रावकाचार जैसा ही किया है। यथा-
यो यस्य इरते वित्तं स तज्जीवितहन्नरः।
बहिरंग हि लोकानां जीवितं वित्तमुच्यते।।
यो यस्य हरति वित्तं स तस्य जीवस्य जीवितं हरति।
आश्वासकर बाह्य जीवानां जीवितं वित्तम्।।
स्तेय और परिग्रहका लक्षण बतलानेवाले सूत्रोंकी व्याख्यामें सर्वार्थसिद्धिमें जो शङ्का-समाधान किया गया है उसे भी ग्रन्थकारने ज्यों-का-त्यों अपना लिया है।
चतुर्थ अध्यायमें अणुव्रत और महाव्रतोंका सामान्य निर्देशकर मिथ्यात्व नामक शल्यका कथन करते हुए अनेक दार्शनिक मतोंकी विस्तारपूर्वक चर्चा की है। आत्माकी नित्यता, क्षणिकता, बौद्धोंका शून्यवाद, चार्वाकका जड़वाद, सांख्यका कूटस्थ नित्यवाद, मीमांसकोंका सर्वज्ञाभावबाद, वेदकी अपौरुषेयता और जगतकर्तृत्ववादकी समीक्षा की है। श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य केवली कवलाहार और स्त्रीमुत्किकी भी आलोचना की गयी है।
पंचम अध्यायमें जीवादि तत्वोंका स्वरूप वर्णित है। जीवका लक्षण और गुण वर्णन करनेके पश्चात् उसके कर्तृत्व, अमूर्तत्व, भोवतृत्व, स्वदेपरिमाणत्व, उपयोगमयत्व, संसारित्व और ऊर्ध्वगमन धर्मोंका वर्णन आया है। इनका समर्थन करते हुए लिखा है कि भाट्ट और नास्तिक जीवकी मूर्तं मानते हैं, अतएव अमूर्त कहा है। योग शुद्धचैतन्यमय मानते हैं, इसलिए उपयोगमय कहा है। सांख्य जीवको अकर्ता मानता है, इसलिए कर्तापद दिया है। योग (नैयायिक) भाट्ट (मीमांसक) और सांख्य जीवको व्यापी मानते हैं, इसलिए स्वदेहपरिमाण कहा है। इस अध्यायके अगले संदर्भो का विषय सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थ वार्तिकके द्वितीय अध्यायके समान आया है ! नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेपोंका स्वरूप सर्वार्थसिद्धिके समान ही निबद्ध है। इस पंचम अध्यायका उत्तरार्ध तत्त्वार्थसूत्र और उसके टीकाग्रन्थोंके अनुसार लिखा गया है।
छठे अध्यायमें नरकलोकका वर्णन करते हुए सातों भूमियोंका स्वरूप, नरकपटल एवं नरकोंके बिलोंका भी कथन किया गया है। प्रकृति और कर्मोदयसे प्राप्त होनेवाले दुःखोंका भी कयन आया है। इस अध्यायमें भूमियोंके वर्ण, प्रकाश एवं उनके क्षेत्र और विस्तारका भी निरूपण है।
सप्तम अध्यायमें मध्यलोक और उसके अन्तर्गत जम्बूदीप, लवणसमुद्र, घातकीखण्ड, कालोदधिसमुद्र, पुष्करवरद्वीप, मानुषोत्तर षट्कुलाचल, भरत, ऐरावत आदि सप्तक्षेत्र, कर्मभूमि, भोगभूमि आदिका प्रतिपादन किया गया है।
अष्टम अध्यायमें वैमानिक देवोंका वर्णन है। सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र आदि सोलह स्वर्ग नवोषि, नद अनुनि विजय नबन्ना, अयारा, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि विमानोंका कथन है। तत्त्वार्थसूत्रके समान ही स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्या और अवधिज्ञानकी उत्तरोत्तर अधिकता प्रतिपादित की है। गति, शरीर, परिग्रह और अभिमानकी अपेक्षा उत्तरोत्तर हीनता बतलायी गयी है। लौकान्तिक देवोंके भेदोंका वर्णन कर देवोंको उत्कृष्ट और जघन्य आयुका वर्णन किया है।
नवम अध्यायमें अजीव, आस्रव और बन्धतत्वका वर्णन किया है। अजीवके पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और काल भेदों, तथा जीच सहित षड्द्रव्यों, आस्त्रवका स्वरूप, आस्रवके प्रत्यय और उसके भेद, बन्धतत्वका स्वरूप, बन्धके कारण और बन्धके भेदोंका विस्तारपूर्वक कथन आया है।
दशम अध्यायमें निर्जरातत्त्वका वर्णन करते हए तपके प्रसङ्गसे प्रायश्चित्तका वर्णन बहुत विस्तारपूर्वक किया है। ऐसा वर्णन अन्यत्र नहीं आया है। वस्तुतः प्रायश्चित्त ही इस अध्यायका मुख्य वणर्य विषय है। किस अपराधके होनेपर कौन-सा प्रायश्चित्त कब ग्रहण करना चाहिए, इसका विस्तारपूर्वक विवेचन आया है।
एकादश अध्यायमे विनयतपसे लेकर ध्यानतप तकका वर्णन है। ध्यानके आतं, रौद्र, घमं और शुक्ल इन चारों ध्यानोंका स्वरूप, इनके भेद तथा धर्म ध्यानके पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत भेदोंका स्वरूपसहित विवेचन किया है।
द्वादश अध्यायमें भगवती-आराधनाके आधारपर मरणके भेद बतलाकर समाधिमरणका विस्तारपूर्वक कथन किया है। निश्चयतः इस ग्रन्थमें 'तत्वार्थ सार'की अपेक्षा अधिक विषयोंका समावेश है। तत्त्वार्थसारमें चर्चित विषयोंका विस्तारपूर्वक कथन किया ही गया है।
नरेन्द्रसनके नामसे एक प्रतिष्ठाग्रंथ भी मिलता है। पर हमारा विचार है कि यह मान्य सिद्धान्तसारसंग्रहके रचयिता नरेन्द्रसेनका न होकर किसी अन्य नरेन्द्रसेनका है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara- 2
Acharya Shri Narendrasen 12th Century (Prachin)
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