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विक्रमकी नवम शताब्दी में धवला और जयधवलाकी रचनाके पश्चात् सिद्धान्तविषयक विद्वत्ताका मापदण्ड इन ग्रंथोंको मान लिया गया और इनके पठन-पाठनका सर्वत्र प्रचार हुआ। सारस्वसाचार्य की परंपरा मे आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती का नाम आता है। कालक्रमानुसार ये दोनों अगाध टीकाएँ जब दुष्कर प्रतीत होने लगी, तो इनके सारभागको एकत्र करनेके लिए सिद्धान्तचक्रवर्तीने प्रयास किया। सिद्धान्तचक्रवर्ती इनकी उपाधि थी। इन्होंने अपने गोम्मटसार कर्मकाण्डमें बताया है-
जह चक्केण य चक्की छक्खंड साहिय अविग्घेण।
तह मइ-चक्केण मया छक्खंडं साहिय सम्म।।
जिस प्रकार चक्रवर्ती अपने चक्ररत्नसे भारतवर्षके छह खण्डोंको बिना किसी विघ्न-बाधाके अधीन करता है, उसी तरह मैंने (नेमिचन्द्र) ने अपनी बुद्धिरूपी चक्रसे षटखण्डोंको अर्थात् षट्खण्डागमसिद्धान्तको सम्यकरीतिसे अधीन किया है।
सिद्धान्तग्रन्थोंके अभ्यासीकी सिद्धान्तचक्रवर्तीका पद प्राचीन समयसे ही दिया जाता रहा है। वीरसेनस्वामीने जयधवलाकी प्रशस्ति में लिखा है कि भरतचक्रवर्तीकी आज्ञाके समान जिनकी भारती षट्खण्डागममें स्खलित नहीं हुई, अनुमान है कि वीरसेनस्वामीके समयसे ही सिद्धान्तविषयज्ञको सिद्धान्त चक्रवर्ती कहा जाने लगा है। निश्चयत: आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त रन्धोंके अधिकारी विद्वान थे। यही कारण है कि उन्होंने धवलासिद्धान्तका मंथन कर गोम्मटसार; और जयधवलाटीकाका मंथन कर लब्धिसार ग्रन्थकी रचना की है।
आचार्य नेमिचन्द्र देशीयगणके हैं। इन्होंने अभयनन्दि, वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिको अपना गुरु बतलाया है। कर्मकाण्डमें आया है-
जस्स य पायपसायेणणंतसंसारजाहमुतिपणो।
वीरिंदणदिवच्छो णमामि तं अभयणदिगुरु।
णमिऊण अभयणंदि सुदसायरपारगिदणंदिगुरु।
बरवीरगंदिणाहं पयडीणं पच्चयं वोच्छ।
अर्थात् जिनके चरणप्रसादसे वीरनन्दि और इन्दनन्दिका वत्स अनन्त संसाररूपी समुद्रसे पार हो गया, उन अभयनन्दिगुरुको मैं नमस्कार करता हूँ।
अभयनन्दिको, श्रुतसमुद्रके पारगामी इन्द्र नदिःरुको और वीरनन्दिको नमस्कार करके प्रकृतियोंके प्रत्यय-कारणको कहूंगा।
लब्धिसारमें लिखा है- “वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिके वत्स एवं अभयनन्दि के शिष्य अल्पज्ञानी नेमिचन्द्रने दर्शनलब्धि और चारित्रलब्धिका कथन किया। है।" ‘त्रिलोकसार' में अपनी गुरुपरम्पराका कथन करते हुए लिखा है-
"इदि णेमिचंदमुणिणा अप्पसुदेणभयणंदिवच्छेण।
रइयो तिलोयसारो खमंतु तं बहुसुदाइरिया॥"
अर्थात् अभयनन्दिके वत्स अल्पश्रुतज्ञानी नेमिचन्द्रमुनिने इस त्रिलोकसार ग्रंथको रचा।
उपर्युक्त ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंसे स्पष्ट है कि अभयनन्दि, वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि इनके गुरु थे। इन तीनोंमेंसे वीरनन्दि तो चन्द्रप्रभचरितके कर्ता ज्ञात होते हैं, क्योंकि उन्होंने चन्द्र प्रभचरितकी प्रशस्तिमें अपनेको अभयनन्दिका शिष्य बतलाया है और ये अभयनन्दि नेमिचन्द्र के गुरु ही होना चाहिये, क्योंकि कालगणनासे उनका वही समय आता है। अतः स्पष्ट है कि उक्त तीनों गुरुओंमें अभयनन्दि ज्येष्ठ गुरु होने चाहिये। वीरनन्दि, इन्द्रनन्दि और नेमिचन्द्र उनके शिष्य रहे होंगे। यहां यह कल्पना करना उचित नहीं कि नेमिचन्द्र सबसे छोटे थे, अतः उन्होंने अभयनन्दिके शिष्य वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिसे भी शास्त्राध्ययन किया हो। वस्तुतः अभयनन्दिके वीरनन्दि, इन्द्रनन्दि और नेमिचन्द्र ये तीनों ही शिष्य थे। वय और ज्ञानमें लघु होने के कारण नेमिचन्द्रने वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिसे भी अध्ययन किया होगा।
नेमिचन्द्रने वीरनन्दिको चन्द्रमाकी उपमा देकर सिद्धान्त रूपी अमृतके समुद्रसे उनका उद्भव बतलाया है। अत: वीरनन्दि भी सिद्धान्तग्रन्थोंके पारगामी थे। इन्द्रनन्दिको तो, नेमिचन्द्रने स्पष्टरूपसे श्रुतसमुद्रका पारगामी लिखा है। उन्हीं के समीप सिद्धान्तग्नन्थोंका अध्ययन करके कनकनन्दि आचार्य ने सत्त्वस्थानका कथन किया है। उसी सत्वस्थानका संग्रह नेमिचन्द्रने कर्मकाण्ड गोम्मटसारमें किया है-
वरइंदणंदिगुरुणो पासे सोऊण सयलसिद्धंतं।
सिरिकणयणंदिगुरुणा सत्तट्ठाणं समुद्दिट्ठ।।
इन्द्रनन्दिके सम्बन्ध में आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने लिखा है- 'इस नामके कई आचार्य हो गये हैं, उनमें से 'ज्वालामालिनीकल्प' के कर्ता इन्द्रनन्दिने अपने इस ग्रन्थका रचनाकाल शक सं. ८६६ (वि. सं. ९९६) दिया है और यह समय नेमिचन्द्र गुरु इन्द्रनन्दिके साथ बिल्कुल संगत बैठता है, पर इन्होंने अपनेको वप्पनन्दिका शिष्य कहा है। बहुत सम्भव है कि इन इन्द्रनन्दिने बप्पनन्दिसे दीक्षा ली हो और अभयनन्दिसे सिद्धान्तग्रन्थोंका अध्ययन किया हो।
आचार्य नेमिचन्द्रका शिष्यस्व चामुण्डरायने ग्रहण किया था। यह चामुण्डराय मंगवंशी राजा राचमल्लका प्रधानमन्त्री और सेनापति था। उसने अनेक युद्ध जीते थे और इसके उपलक्ष्य में अनेक उपाधियाँ प्राप्त की थी। यह वीर मार्तण्ड कहलाता था। गोम्मटसारमें 'सम्मत्सरयेणनिलय'- सम्यक्त्वरत्ननिलय, 'गुणरयणभूषणं-गुणरत्नभूषण, 'सत्ययुधिष्ठिर' 'देवराज’ आदि विशेषणोंका प्रयोग किया है। इन चामुण्डरायने श्रवणबेलगोला (मैसूर) में स्थित विन्ध्यगिरि पर्वतपर बाहुबलि स्वामीकी ५७ फीट ऊँची अतिशय मनोज्ञ प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी। बाहुबलि भगवान् ऋषभदेवके पुत्र थे। उन्होंने बड़ी कठोर तपस्या की थी। उनकी स्मृतिमें उनके बड़े भाई चक्रवर्ती भरतने एक प्रतिमा स्थापित करायी थी। वह कुक्कुटपोंसे व्याप्त हो जानेके कारण कुक्कुटजिनके नामसे प्रसिद थी। उत्तर भारतकी इस मूतिसे भिन्नता बतलानेके लिए चामुण्डरायके द्वारा स्थापित मर्ति 'दक्षिणकुक्कुटजिन' कहलायी। गोम्मटसार कर्मकाण्ड में बताया है-
जेण विणिम्मियपडिमावयणं सव्वट्ठंसिद्धिदेवेहि।
सव्वपरमोहिजोगिहिं दिट्ठं सो गोम्मटो जयउ।।
गोम्मटसंगहसुत्तं गोम्मटसिहरुवरि गोम्मटजिणो य।
गोम्मट रायविणिम्भियदक्खिणकुक्कडजिणो जयउ।
इन दोनों गाथाओंसे स्पष्ट है कि चामुण्डरायने गोम्मट स्वामीकी जो प्रतिमा विन्ध्यगिरि पर्वतपर स्थापित की उसके मुखका दर्शन सर्वार्थसिद्धिक देवोंने किया। इससे यह ध्वनित होता है कि विन्ध्यगिरिपर्वतकी ऊँचाईके कारण गोम्मटस्वामीकी मूर्ति अधिक ऊंची दिखलायी पड़ती थी, जिससे सर्वार्थसिद्धिके देव भी उसका दर्शन कर सकते थे। इस चैत्यालयके उन्नत स्तम्भ, स्वर्णमयी कलश एवं उसके अन्य आकार-प्रकारका निर्देश भी गोम्मटसारमें प्राप्त होता है। लिखा है-
वज्जयणं जिणभवणं ईसिपभारं सुवण्णकलसं तु।
तिहुवणपडिमागि जे कजाउ सो आगो।।
जेणुब्भियर्थभरिमजस्खतिरीटग्गकिरणजलधोया।
सिद्धाण सुद्धपाया सो राओ गोम्मटो जयउ॥
विन्ध्यगिरीके सामने स्थित दुसरे चन्द्रगिरिपर चामुण्डरायबसतिके नामसे एक सुन्दर जिनालय स्थित है। इस जिनालयमें चामुण्ड रायने इन्द्रनीलमणिकी एक हाथ ऊची तीर्थकर नेमनाथकी प्रतिमा स्थापितकी थी, जो अब अनुपलब्ध है।
चामुण्डरायका घरू नाम गोम्मट था। यह तथ्य डॉ. ए. एन. उपाध्येने अपने एक लेख में लिखा है। उनके इस नामके कारण ही उनके द्वारा स्थापित बाहुबलिकी मूर्ति गोमटेश्वरके नामसे प्रसिद्ध हुई। डॉ. उपाध्येके अनुसार गोम्मटेश्वरका अर्थ है, चामुण्डरायका देवता। इसी कारण विन्ध्यगिरि, जिसपर गोम्मटेश्वरकी मूर्ति स्थित है, गोम्मट कहा गया। इसी गोम्मट उपनामधारी चामुण्डरायके लिए नेमिचन्द्राचार्यने अपने गोम्मटसार नामक ग्रन्थकी रचना को है। इसीसे इस ग्रन्थको गोम्मटसारकी संज्ञा दी गयी है। अतएव यह स्पष्ट है कि गंगनरेश राचमल्लदेवके प्रधान सचिव और सेनापति चामुण्डरायका आचार्य नेमिचन्द्रके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है।
चामुण्डरायने अपना चामुण्डपुराण शक सं. ९०० (वि. सं. १०३५) में बनाकर समाप्त किया। अतः उनके लिए निर्मित गोम्मटसारका सुनिश्चित समय विक्रम की ११ वीं शताब्दी है। श्री मुख्तार साहब और प्रेमोजी भी इसी समयको स्वीकार करते हैं।
गोम्मटसार कर्मकाण्डमें चामुण्डरायके द्वारा निर्मित गोम्मटजिनकी मूर्ति का निर्देश है। अतः यह निश्चित है कि गोम्मटसारकी समाप्ति गोम्मटमूर्तिकी स्थापनाके पश्चात् ही हुई है। किन्तु मूर्तिके स्थापनाकालको लेकर इतिहासज्ञोंमें बड़ा मतभेद है। 'बाहुबलिचरित्र' में गोम्मटेश्वरकी प्रतिष्ठाका समय निम्नप्रकार बतलाया है-
"कल्क्यब्दे षट्शंताख्ये विनुतविभवसंवत्सरे मासिचेत्रे
पञ्चम्यां शुक्लपक्षे विनर्माणदिवसे कुम्भलग्ने सुयोगे।
सौभाग्ये मस्तनाम्नि प्रकटितभगणे सुप्रशस्तां चकार
श्रीमच्चामुण्डराजो बेल्गुलनगरे गोम्मटेश प्रतिष्ठाम्।।"
अर्थात् कल्कि सं. ६०० में विभव संवत्सरमें चैत्र शुक्ला पंचमी रविवारको कुम्भ लग्न, सौभाग्य योग, मृगशिरा नक्षत्रमें, चामुण्डरायने वेल्गुलनगरमें गोम्मटेशकी प्रतिष्ठा करायी।
इस निर्दिष्ट तिथिके सम्बन्धमें विद्वानोंमें मतभेद है। घोषालने अपने वृहदद्रव्यसंग्रहके अग्रेजी अनुवादकी प्रस्तावनामें उक्त तिथिको २ अप्रेल ९८० माना है। श्रीगोविन्द पैने १३ मार्च ९८१ स्वीकार किया है। प्रो. हीरालाल जीने २३ मार्च सन् २०२८ में उक्त तिथियोगको ठोक घटित बताया है। किन्तु शास्त्री जल सनम को सह निथिके घटित होनेकी चर्चा की है। इस तरह बावनीचरित्र में निर्दिष्ट सम्बन्धमें विवाद प्रस्तुत किया है। हमारे नम्र मतानुसार भारतीय ज्योतिषकी गणनाके आधार पर विभव संवत्सर चैत्र शुक्ला पंचमी रविवारको मृगशिर नक्षत्रका योग १३ मार्च सन् ९८१ में घटित होता है। अन्य ग्रहोंको स्थिति भी इसी दिन सम्यक् घटित होती है। अतः मूर्तिका प्रतिष्ठाकाल सन् ९८१ होना चाहिये।
चामुण्डरायने अपने चामुण्डपुराणमें मूर्तिस्थापनाकी कोई चर्चा नहीं की है। इससे यही अनुमान होता है कि चामुण्डपुराणके पश्चात् ही मूर्तिकी प्रतिष्ठा की गयी है। रन्नने अपना अजितनाथपुराण शक सं. ९१५ में समाप्त किया है। उसमें लिखा है कि अतिमव्वेने गोम्मटेश्वरकी मूर्तिके दर्शन किये। अत: यह निश्चित है कि शक सं. ९१५ (वि. सं. १०५०) से पहले ही मूर्तिकी प्रतिष्ठा हो चुकी थी। यदि चामुण्डपुराणमें मूर्तिकी स्थापनाकी कोई चर्चा न होनेको महत्त्व दिया जाय, तो वि. सं. १०३५ और वि. सं. १०५० के बीचमें मूर्तिकी प्रतिष्ठा माननी पड़ेगी, जिससे हमारे पूर्वकथनकी सिद्धि होती है। गंग राचमल्लका समय वि. सं. १०३१-१०४१ तक है। भुजवलिशतकके अनुसार उन्हींके राज्यकालमें मूर्तिकी प्रतिष्ठा हुई है। अतः मूर्ति स्थापनाका समय ई. सन् ९८१ उपयुक्त जान पड़ता है। अतएव आचार्य नेमिचन्द्रका समय ई. सनकी दशम शताब्दीका उत्तरार्द्ध या वि. सं. ११वीं शताब्दीका पूर्वार्द्ध है।
आचार्य नेमिचन्द्र आगमशास्त्रके विशेषज्ञ हैं। इनकी निम्नलिखित रचनाएँ प्रसिद्ध हैं-
१. गोम्मटसार
२. त्रिलोकसार
३. लब्धिसार
४. क्षपणासार
१. गोम्मटसार
यह ग्रन्थ दो भागोंमें विभक्त है- जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड। जीवकाण्ड में ७३४ गाथाएँ है और कर्मकाण्डमें १६२ गाथाएँ हैं। इस ग्रन्थपर दो संस्कृत-टोकाएँ भी लिखी गयी हैं- १. नेमिचन्द्र द्वारा जीवप्रदीपिका आर २. अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा मन्दप्रबोधिनी। गोम्मटसारपर केशव वर्णी द्वारा एक कन्नड़वृत्ति भी लिखी मिलती है। टोडरमलजीने सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका नामकी वचनिका लिखी है।
गोम्मटसार षट्खण्डागमकी परम्पराका ग्रन्थ है। जीवकाण्डमें महाकर्म प्राभृतके सिद्धान्तसम्बन्धी जीवस्थान, शुद्रबन्ध, बन्धस्वामित्व, वेदनाखण्ड और वर्गणाखंड इन पाँच विषयोंका वर्णन है। गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणा और उपयोग इन २० प्ररूपणामोंमें जीवकी अनेक अवस्थाओंका प्रतिपादन किया गया है।
जीवकाण्डमें जीवोंका कथन किया गया है। बीस प्ररूपणाओंका कथन पंचसंग्रहके समान ही किया गया है। गोम्मटसार संग्रहग्रंथ है, इसमें सन्देह नहीं। जीवकाण्डका संकलन मुख्यरूपसे पञ्चसंग्रहके जीवसमास अधिकार तथा षदखण्डागम प्रथम खण्ड जीवट्टाणके सत्प्ररूपणानामक अधिकारोंसे किया गया है। धवला ग्रंथमें पञ्चसंग्रहकी बहुत-सी गाथाएँ शाब्दिक अन्तरके साथ मिलती हैं। अतः जीवकाण्डकी अधिकांश गाथाएँ धबलाटीकामें मिलती हैं। पञ्चसंग्रहकी गाथाओंसे विषयका सम्बन्ध नहीं है।
पञ्चसंग्रहकी अपेक्षा जीवकाण्डकी गाथाओंमें विशेषता भी प्राप्त होती है। पंचसंग्रहमें ३० गाथाओंमें ही गुणस्थानोंके स्वरूपोंका निर्धारण किया गया है, जबकि जीवकाण्डमें ६८ गाथाओंमें गुणस्थानोंका स्वरूप वर्णित है। इस ग्रन्थमें २० प्ररूपणाओंका परस्परमें अन्तरभाव सम्बन्धी कथन और प्रमादोंके भंगोंका निरूपण भी पंचसंग्रहकी अपेक्षा विशिष्ट है। पंचसंग्रहमें जीवसमासका कथन केवल ग्यारह गाथाओंमें है, पर जीवकाण्ड में यह विषय ४८ गाथाओंमें निरूपित्त है। जीयकाण्डमें स्थान, योनि, शरीरकी अवगाहना और कुलोंके द्वारा जीवसमासका कथन भी विस्तारपूर्वक आया है। इस प्रकारका विस्तार पञ्चसंग्रहमें नहीं मिलता है। पर्याप्तिका कथन पंचसंग्रहमें केवल दो गाथाओंमें आया है। किन्तु जीवकाण्डमें यह विषय ११ गाथाओंमें निबद्ध है। प्राणोंका कथन पंचसंग्रहमें छह गाथाओंमें है, पर जीवकाण्डमें यह विषय पांच ही गाथाओंमें आया है। इसी प्रकार संज्ञाओं, स्वामियों, मार्गणाओमें जीवों, इन्द्रिय मार्गणाकी अपेक्षा एकेन्द्रिय आदि जीवोंके कथन प्रभृतिमें विशेषताएँ विद्यमान हैं।
गोम्मटसार कर्मकाण्डके दो संस्करण प्राप्त होते हैं। पहला संस्करण रायचन्द्र शास्त्रमाला बम्बईका है और दुमरा देवकरण-शास्त्रमालाका है इस ग्रन्थमें ९ अधिकार हैं-
१. प्रकृतिसमुत्कीर्तन
२. बन्धोदयसत्व
३. सत्वस्थानभंग
४. त्रिचूलिका
५. ध्यानसमुत्कीर्तन
६. प्रत्यय
७. भावचूलिका
८. त्रिकरणचूलिका
९. कर्मस्थितिबन्ध
१. प्रकृतिसमुत्कीर्तनका अर्थ है आठों कर्मों और उनकी उत्तरप्रकृतियोंका कथन जिसमें हो। यतः कर्मकाण्डमें कर्मों और उनकी विविध अवस्थाओंका कथन आया है। इसमें जीव और कर्मोंके अनादि सम्बन्धका वर्णन कर कर्मोंके आठ भेदोंके नाम, उनके कार्य, उनका क्रम और उनकी उत्तर प्रकृतियोंमेंसे कुछ विशेष प्रकृतियोंका स्वरूप, बन्धप्रकृतियों, उदयप्रकृत्तियों और सत्वप्रकृतियोंको संख्या, देशघाती, सर्वघाती पुण्य और पाप प्राकृतियाँ, पुद्गलविपाकी, क्षेत्रविपाको, भवविपाको और जीवविपाकी प्राकृतियाँ, कर्ममें निक्षेप-योजना आदिका कथन ८६ गाथाओंमें किया गया है। २२ वी गाथामें कर्मोंके उत्तरभेदोंकी संख्या अंकित की है, किन्तु आगे उन भेदोंको न बतलाकर उनमेंसे कुछ भेदोंके सम्बन्धमे विशेष बातें बतला दी गयी हैं। जैसे दर्शनावरणोयकर्मके ९ भेदोंमेंसे ५ निद्राओंका स्वरूप गाथा २३, २४, और २५ द्वारा बतलाया है। २६वी गाथामें मोहनीयकर्मक एक भेद मिथ्यात्वके तीन भाग कैसे होते हैं, यह बतलाया है। गाथा २७ में नामकर्मके भेदोंमेंसे शरीवनामकर्मके पाँच भेदोंके संयोगी भेद बतलाये हैं। गाथा २८ में अंगो पांगके भेद आये हैं। गाथा २९, ३०. ३१ और ३२ में किस संहननवाला जीव मरकर किस नरक और किस स्वर्ग तक जन्म लेता है, यह कथन किया है। ३३वी गाथामें उष्णनामकर्म और आतपनामकर्मके उदयकी चर्चा की गयी है। इस प्रकार कर्मोको विशेष-विशेष प्रकृत्तियोंके सम्बन्धमे कथन आया है। कर्म प्रकृतिकी विभिन्न स्थितियोंको अवगत करनेके लिए यह कर्मकाण्डग्रन्थ अत्यन्त उपादेय है।
बन्चोदयसत्वाधिकारमें कर्मोदयके बन्ध, उदय और सत्वका कथन आया है। स्तवके लक्षणानुसार कर्मकाण्डके इस दूसरे अधिकारमें कर्मोके बन्ध, उदय और सत्वका गुणस्थान एवं मागणाओंमें अन्वयपूर्वक कथन किया है। बन्धके प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका क्रमशः कथन किया है। प्रकृतिबन्धका कथन करते हुए यह बतलाया है कि किन-किन कर्मप्रकृतियोंका बन्ध किस-किस गुणस्थान तक होता है, आगे नहीं होता। यह कथन पञ्चसंग्रहमें भी है। गुणस्थानाम आठों कर्मोकी १२० प्रकृत्तियोंके बन्ध, अबन्ध और बन्धब्युच्छित्तिका कथन करने के बाद १४ मार्गणाओंमें भी वही कथन किया है। यह कथन पञ्चसंग्रहमें नहीं मिलता। नेमिचन्द्राचार्य ने षट्खण्डागमसे लिया है।
प्रकृतिबन्धके पश्चात् स्थितिबन्धका कथन है। कर्मोको मूल एवं उत्तर प्रकृत्तियोंकी उत्कृष्ट और जघन्यस्थितिका निरूपण बन्धकोंके साथ किया यया है। इस विवेचनके लिये अन्धकारने धवलाटोकाका आधार ग्रहण किया है।
तत्पश्चात् अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका वर्णन आया है। यह वर्णन पञ्चसंग्रहसे मिलता-जुलता है। प्रदेशबन्धका कथन करते हुए पंचसग्रहमें तो समयप्रबद्धका विभाग केवल मूलकर्मोमें ही बतलाया है, पर कर्मकाण्डमें उत्तरप्रकृतियोंमें भी विभागका कथन किया है। कर्मकाण्डमें प्रदेशबन्धक कारणभूत योगके भेदों और अवयवोंका भी कथन है। पर यह कथन पंचसंग्रहमें नहीं है। केवल धवला और जयधवलामें ही प्राप्त है। उदयप्रकरणमें कमों के जदय और उदीरणाका कथन गुणस्थान और मार्गणाओंमें है। अर्थात् प्रत्येक गुणस्थान और मार्गणामें प्रकृतियोंके उदय, अनुदय और उदय-व्युच्छित्ति का वर्णन है। सत्वप्रकरण में गुणस्थान और मार्गणाओंमें प्रकृतियोंकी तत्त्वासत्त्व और सत्वविच्छुत्तिका कथन है। मार्गणाओंमें बन्ध, उदय और तत्त्वका कथन अन्यत्र नहीं मिलता। यह आचार्य नेमिचन्द्रकी अपनी विशेषता है।
सत्वस्थानभंगप्रकरणमें कहे गये सत्वस्थानका भंगोंके साथ कथन किया है। प्रत्येक गणस्थानमें प्रकृतियोंके सस्वस्थानके कितने प्रकार सम्भव हैं और उनके साथ जीव किस आयुको भोगता है और परभवकी किस आयुको बांधता है, यह सब विस्तारपूर्वक आया है। इसी प्रकरणके अन्तमें ग्रंथकारने यह कहा है कि इन्द्रनन्दिगुरुके पासमें श्रवण करके कनकनन्दिने सत्वस्थानका निरूपण किया।
त्रिचूलिका अधिकारमें तीन चूलिकाएँ हैं- १. नवप्रश्नचूलिका, २. पंच भागहारचूलिका और ३. दशकरणचूलिका। पहली नवप्रश्नचूलिकामै ९ प्रश्नोंका समाधान किया है-
१. उदयव्युच्छित्तिके पहले बन्धव्युच्छित्तिकी प्रकृतिसंख्या।
२. उदयव्युच्छित्तिके पीछे बन्धव्युच्छित्तिकी प्रकृतिसंख्या।
३. उदयव्युच्छित्तिके अन्धनरनितिको प्रकृतिसंख्या।
४. जिनका अपना उदय होनेपर बन्ध हो, ऐसी प्रकृतियाँ।
५. जिनका अन्य प्रकृतिका उदयपर बन्ध हो, ऐसी प्रकृतियों।
६. जिनका अपना तथा अन्य प्रकृतियोंके उदय होनेपर बन्ध हो, ऐसी प्रकृतिसंख्या।
७. निरन्तरबन्धप्रकृतियाँ।
८. सान्तरबन्धप्रकृतियाँ।
९. निरन्तर, सान्तरबन्धप्रकृतियाँ।
उपर्युक्त ९ प्रश्नोंका इस अधिकारमें उत्तर दिया गया है।
पंचभागहारचूलिकामें उद्वेलन, विध्यात, अधःप्रवृत्त, गुणसंक्रम और सर्वसक्रम इन पांच भागहारोंका कथन आया है। दशकरणचूलिकामें बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उदीरणा, सत्ता, उदय, उपशम, निर्धात और निकाचना इन दश करणोंका स्वरूप कहा गया है। और बतलाया है कि कौन करण किस गुणस्थान तक होता है। करणनाम क्रिया का है। कर्मों में ये दश क्रियायें होती हैं।
बन्धोदयसत्वयुक्तस्थानसमुत्कीर्तनमे एकजीवके एकसमयमें कितनी प्रकृतियोंका बन्ध, उदय अथवा सत्व सम्भव है, का कथन किया है। इस अधिकारमें आठों मूलकर्मोको लेकर और पुनः प्रत्येक कर्मकी उत्तरप्रकृतियोंको लेकर बन्धस्थानों, उदयस्थानों और सत्वस्थानोंका निर्देश किया गया है। यह अधिकार गुणस्थानक्रमसे विचार करनेके कारण पर्याप्त विस्तृत है।
प्रत्यमाधिकारमें कर्मबन्धके कारणोंका कथन है। मूल कारण चार हैं-
१. मिथ्यात्व,
२. अविरति,
३. कषाय और
४. योग।
इनके भेद क्रमसे ५, १२, २५ और १५ होते हैं। गुणस्थानों में इन्हीं मूल और उत्तर प्रत्ययोंका कथन इस अधिकार में किया गया है तथा प्रत्येक गुणस्थानके बन्धके प्रत्यय बतलाये गये हैं।
भावचूलिकाधिकारमें औरंग्निक, क्षयिक, मिश्र परीनामिक इन पाँच भावों तथा इनके भेदोंका निरूपण करते हुए उनके स्वसंयोगी और परसंयोगी भंगोंका गुणस्थानोंमें कथन किया है। इसके पश्चात् प्राचीन गाथा उद्धृत कर ३६३ मिथ्यावादियोंके मतोंका निर्देश किया है।
त्रिकरणचूलिकाधिकारमें अधःकरण, अपूर्वकरण और अनवृत्तिकरण इन तीन करणोंका स्वरूप कहा गया है।
कर्मस्थितिरचनाधिकारमें प्रतिसमय बंधनेवाले कर्मपरमाणुओंका आठों कर्मोंमें विभाजन होनेके पश्चात् प्रत्येक कर्मप्रकृतिको प्राप्त कर्मनिषकोंकी रचना उसकी स्थितिके अनुसार आबाधाकालको छोड़कर हो जाती है। अर्थात् बन्धको प्राप्त हुए वे कर्मपरमाणु उदयकाल आनेपर निर्जीर्ण होने लगते हैं और अन्तिम स्थितिपर्यन्त बिखरते रहते हैं। उनकी रचनाको ही कर्मस्थिति-रचना कहते हैं। इस गोम्मट्सार कर्मकाण्डके स्वाध्याय द्वारा कर्मसाहित्यका सम्यक बोध प्राप्त किया जा सकता है।
इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थमें १०१८ गाथाएँ हैं। यह करणानुयोगका प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसका आधार तिलोयपण्णत्ती' और 'सत्यार्थवार्तिक' हैं। ग्रन्थ निम्नलिखित अधिकारों में विभक्त है-
१. लोकसामान्याधिकार
२. भवनाधिकार
३. व्यन्तरलोकाधिकार
४. ज्योतिर्लोकाधिकार
५. वैमानिकलोकाधिकार
६. मनुष्य-तिर्यकलोकाधिकार
सामान्यलोकाधिकारमें २०७ गाथाएँ हैं। प्रारम्भमें लोकका स्वरूप बतलाया गया है। यह लोक अकृत्रिम है, अनादिनिधन है, स्वभावनिर्वृत्त है, जीवाजीवों से सहित है और नित्य है। इस लोकमें धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, जीवद्रव्य और पुद्गलद्रव्य जहाँ तक पाये जाते हैं, वहाँ तक लोक माना जाता है, उसके पश्चात् अलोकाकाश है और यह अनन्त है। लोकके कई आकार बतलाये गये हैं। अधोलोक अर्द्धमदंगके समान है, अर्द्धलोक मृदंगके तुल्य है। यह लोक १४ राजुप्रमाण है। लोकके स्वरूपनिरूपणके पश्चात 'मान'का वर्णन किया है। 'मान' दो प्रकारका है- लोक और लोकोत्तर। लौकिक 'मान’ के छह भेद हैं- १. मान २. उन्मान ३. अवमान ४. गणिमान ५. प्रतिमान और ६. तप्तप्रतिमान। गणनाके मूलतः तीन भेद हैं- १. संख्यात २. असंख्यात और ३. अनन्त। संख्यातका एक ही भेद है, और असंख्यातके तीन भेद है- १. परीतासंख्यात २. युक्तासंख्यात और ३. संख्यासासंख्यात। अनन्तके भी तीन भेद हैं- परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तान्त। इस प्रकार उपमाप्रमाण या गणनाके ३ + ३ + १ =७ भेद हैं और इन सातोंके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये तीन-तीन भेद होते हैं। इस प्रकार ७ × ३ = २१ भेद हुए। असंख्यात ज्ञानके निर्मित अनवस्था, शलाका, प्रतिशलाका और महाशलाका इन चार, कुण्डोंकी कल्पना की गयी है। इन कुण्डोंका व्यास एक लक्ष योजन प्रमाण और उत्सेध एक सहस्त्र योजन प्रमाण है। कुण्ड गोलाकार होते हैं। इन कुण्डोंमें दो आदिक सरसोंसे भरना अनवस्था कुण्ड है।
इस सन्दर्भमें गणना और संख्याकी परिभाषा भी बतायी गयी है। लिखा है-
एयादीया गणणा बोयादीया हवंति संस्खेज्जा।
सोयादीणं णियमा कदित्ति सण्णा मुणेदव्वा।
अर्थात् एकादिकको गणना, दो आदिकको संख्या एवं तीन आदिकको कृति कहते हैं। एक और दोमें कृतित्व नहीं है। यतः जिस संख्याके वर्गमेसे वर्गमूलको घटानेपर जो शेष रहे उसका वर्ग करनेपर उस संख्यासे अधिक राशिकी उपलब्धि हो, वही कृति है। यह कृतिधर्म तीन आदिक संख्याओंमें ही पाया जाता है। एकके संख्यात्वका भी निषेध आचार्य नेमिचन्द्रने किया है, क्योंकि एककी गिनती गणनासंख्यामें नहीं होती। कारण स्पष्ट है। एक घटको देखकर, यहाँ घट है, इसकी प्रतीति तो होती है, पर उसकी तादादके विषयमें कुछ ज्ञान नहीं होता। अथवा दान, समर्पणादि कालमें एक वस्तुकी प्रायः गिनती नहीं की जाती। इसका कारण असम व्यवहार, सम्भवव्यवहार का अभाव अथवा गिननेसे अल्पत्वका बोध होना है।
उपर्युक्त वक्तव्यका परीक्षण करनेपर ज्ञात होता है कि संख्या 'समूह'की जानकारी प्राप्त करनेके हेतु होती है। मनुष्यको उसके विकासकी प्रारम्भिक अवस्थासे ही इस प्रकारका आन्तरिक ज्ञान प्राप्त होता है, जिसे हम सम्बोधन अभावमें संख्याज्ञान कहते हैं। अतएव समूहगत प्रत्येक वस्तुकी पृथक-पृथक जानकारीके अभाव में समुहके मध्यमें होनेवाले परिवर्तनका बोध नहीं हो सकता है। समूहबोधकी क्षमता और गिननेकी क्षमता इन दोनों में पर्याप्त अन्तर है। गिनना सीखनेसे पूर्व मनुष्यने संख्याज्ञान प्राप्त किया होगा।
मनुष्यने समूहके बीच रहकर संख्याका बोध प्राप्त किया होगा। जब उसे दो समहोंको जोड़ने की आवश्यकता प्रतीत हुई होगी, तो धनचिह्न और धनात्मक संख्याएँ प्रादुर्भूत हुई होगी। संख्याज्ञानके अनन्तर मनुष्यने गिनना सीखा और गिनने के फलस्वरूप अंकगणितका आरम्भ हुआ। अंकका महत्व तभी व्यक्त होता है, जब हम कई समूहोंमें एक संख्याको पाते हैं। इस अवस्थामें उस अंककी भावना हमारे हृदयमें वस्तुओंसे पृथक् अंकित हो जाती है और फलस्वरूप हम वस्तुओंका बार-बार नाम न लेकर उनकी संख्याको व्यक्त करते हैं। इस प्रकार त्रिलोकसारमें संख्या, गणना, कृति आदिका स्वरूप निर्धारित किया है।
संख्याओंके दो भेद हैं- १. वास्तविक और २. अवास्तविक। वास्तविक संख्याएँ भी दो प्रकारकी हैं- संगत और असंगत। प्रथम प्रकारकी संख्याओंमें भिन्न राशियोंका समूह पाया जाता है और द्वितीय प्रकारकी संख्याओमें करणीगत राशियां निहित हैं। इन राशियोंके भी असंख्यात भेद हैं। आचार्य नेमिचन्द्रके संख्या-भेदोंको निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-
(अ) जघन्य-परीत-असंख्यात = स३+१
(आ) मध्यम-परीत-असंख्यात = स३ ∠ अ यु उ
(इ) उत्कृष्ट-परीत-असंख्यात = अ यु ज--१
(ई) जघन्य-युक्त-असंख्यात = (स उ + १) (स उ + १)
(उ) मध्यम-युक्त-असंख्यात = (स उ+१) (स उ+१) ∠ अ यु उ
(ऊ) उत्कृष्ट- युक्त-असंख्यात = अ यु उ = ऊ ऊ ज =१
(क) जधन्य- असंख्यातासंख्यात = (अ यु ज)२
(ख) मध्यम- असंख्यातासंख्यात = (अ यु ज)२ ∠ अ स उ
(ग) उत्कृष्ट- असंख्यातासंख्यात = अ प ज १
धलाटीकाम अनन्तके निम्नलिखित भेद वर्णित है-
(च) नामानन्त- वस्तुके यथार्थतः अनन्त होने या न होनेका विचार किये बिना ही उसका बहुत्व प्रकट करने के लिए अनन्तका प्रयोग करना नामानन्त है।
(छ) स्थापनानन्त- यथार्थतः अनन्त नहीं, किन्तु किसी संख्या में आरोपित अनन्त।
(ज) द्रव्यानन्त- तत्काल उपयोग न आते हए ज्ञानकी अपेक्षा अनन्त।
(झ) गणनानन्त- संस्थात्मक अनन्त।
(ञ) अप्रदेशिकानन्त- परिमाणहीन अनन्त।
(ट) एकानन्त- एक दिशात्मक अनन्त।
(ठ) विस्तारानन्त- द्विविस्तारात्मक- प्रतरात्मक अनन्ताकाश।
(ड) उभयानन्त- द्वीदिशात्मक अनन्त- एक सीधी रेखा, जो दोनों दिशाओंमें अनन्त तक जाती है।
(ट) सर्वानन्त- आकाशात्मक अनन्त।
(ण) भावानन्त- ज्ञानकी अपेक्षा अनन्त।
अनन्तके सामान्यतया १. परीतानन्त, २. युक्तानन्त, ३. अनन्तानन्त ये तीन भेद माने जाते हैं। इन तीनोंके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे तीन-तीन भेद होनेसे कुल नौ भेद हो जाते हैं। त्रिलोकसारमें उक्त ३ +६+ ९ = २१ भेद वर्णित हैं।
त्रिलोकसारमें धारासंख्याओंका भी कथन आया है। ये १४ प्रकारकी होती हैं-
१. सर्वधारा- १+२+३+४+ ५___अनन्तानन्त
२. समधारा- २+४+६+८+१०+१२+१४+१६+१८ ___+ न
३. विषमधारा- १+२-३, ४+ -१=५, ६+ -१ = ७, ८+ -१ = ९, १० + - १ = ११, १२+ - १ = १३, १४ + – १ = १५, १६+ -१ = १७, १८+ - १ = १५. न+ -१ = न तथा वि + -१ ___ क.
४. कृतिधारा- १२ - १, २२ = ४, ३२ =९, ४२ = १६, ५२ - २५, ६२ =३६, ७२ = ४९, ८२ =६४, ९२ = ८१, १०२-१००, ११२ = १२१, १२२ = १४४, १३२ = १६९. न२=
५. अकृतिधारा- २, ३, ५, ७, ८, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १७___न२ + - १ - नii
६. घनधारा= १३ - १, २३ = ८, ३३ = २७, ४३ = ६४, ५३ = १२५, ६३-२१६___.न३ =नii
७. अधनधारा- २, ३, ४, ५, ६, ७, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १९, २०, २१, २२, २३, २४,२५, २६, २८, ६३___नii न = नअ
८. कृतिमातृका या वर्गमातृका- १, २, ३, ५ ___ न२ = √न
९. अकृतिमातृका या अवर्गमातृका= √मू+ १, √मू+ २, √मू+३ √मू+ ५ व मू+ √मू+ न = न
१०. घनमातृका= १, २___न___ नi ___ नii___ नiii
११. अधनमातृका= ३ √मू+१ ३ √मू+२ ३ √मू+३ च___न.
१२. द्विरूपवर्गधारा- (२)१६ = ६५५३६, (२)३२ = (६५५३६) या ४२९४९६७२५६, (२)६४ = (४२९४९६७२९६)२ = १८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ (न)न = नछ
१३. द्विरूपचनधारा= (२)३, (४)३, (९)३......... (न२)३।
१४. द्विरूपचनाघनधारा= [(२)२]३ ___ [(४)३]३ ___ [न२]३]
इस प्रकार त्रिलोकसारमें १४ धाराओं के कथनके पश्चात् सामान्यलोकाधिकारमें ही वर्गशलाका, अर्द्धच्छेद, विच्छेद, चर्तुच्छेद आदिका भो कथन आया है। अर्द्धच्छेद गणितकी वर्तमानमें लघुगणकसिद्धान्त कहा गया है। अर्द्धच्छेदों द्वारा राशिज्ञान प्राप्त करनेके सिद्धान्तका विवेचन करते हुए त्रिलोकसारमें कई नियम आये हैं। इसी प्रकार कुण्डगणितके अनन्तर पल्प, सागर, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगच्छेणी, जगत्प्रतर और धनलोकका कथन आया है। पल्पके तीन भेद बतलाये हैं- १. व्यवहारपल्य २. उद्धारपल्य ३. और बद्धापल्य। इस प्रकार संख्याओंका विधान कर अधोलोकका क्षेत्र फल आठ आकृतियों द्वारा निकाला गया है। ये आकृतियाँ सामान्य, ऊर्द्धयित, तिगयित, धवमुरज, यदमध्य, मन्दर, दृष्य और गिरिकटक हैं। पिनष्टि क्षेत्रका क्षेत्रफल तो आश्चर्यजनक रीतिमें निकाला गया है। अघोलोकके पश्चात् उर्ध्वलोकका सामान्य वर्णन आया है और उसका भी क्षेत्रफल निकाला गया है। इसके पश्चात् त्रसनालीका कथन आया है। यह त्रसनालो एक राजु लम्बी और चौदह राजु चौड़ी होती है नरकों के पटलोंका कथन किया किया है। प्रथम नरकमें १३, द्वितीयमें ११, ततोयमें ९, चतुर्थ में ७, पंचममें ५, षष्टमें ३ और सप्तममें १ इन्द्रक है। पश्चात् नारकीय जीवोंके रहन-सहन, उनके क्षेत्रगत दुःख आदिका वर्णन किया है।
वस्तुतः इस ग्रंथमें जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, मानुषक्षेत्र, भवनवासियोंके रहनेके स्थान, आवास, भवन, आयु, परिवार आदिका विस्तृत वर्णन किया है। ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक, तारा एवं सूर्य, चन्द्रके आयु, विमान, गति, परिवार आदिका भी सांगोपांग वर्णन पाया जाता है। स्वर्गोंके सुख, विमान एवं वहाँ के निवासियोंकी शक्ति आदिका भी कथन आया है। त्रिलोकको रचनाके सम्बन्धमें सभी प्रकारकी जानकारी इस ग्रंथसे प्राप्त की जा सकती है।
आचार्य नेमिचन्द्रकी तीसरी रचना लब्धिसार है। यह भी गाथाबद्ध है। इसके दो संस्करण प्रकाशित है- एक रायचन्द्र शास्त्रमाला बम्बाईसे और दुसरा हरिभाई देवकरण ग्रंथमालासे। इस ग्रंथमे ६४९ गाथाएँ हैं। सर्व प्रथम सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्रकी लब्धि अर्थात् प्राप्तिका कथन होनेके कारण इसके नामकी सार्थकता बतलायी गयी है। सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति पांच लब्धियोंके प्राप्त होनेपर ही होती है। वे लब्धियाँ हैं- क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण। इनमें से प्रारम्भको बार लब्धियाँ तो सर्वसाधारण को होती रहती हैं, पर करणलब्धि सभीको नहीं होती। इसके प्राप्त होनेपर ही सम्यक्त्वका लाभ होता है। इन लब्धियोंका स्वरूप ग्रंथके प्रारम्भमें दिया है। अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणकी प्राप्तिको ही करनलब्धि कहा गया है। अनिवृत्ति करणके होने पर अन्तर्मुहूर्तके लिए प्रथमोपक्षम सम्यक्त्वका लाभ होता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्वके कालमें कम-से-कम एक समय और अधिक-से-अधिक छह आवली काल शेष रहनेपर यदि अनन्तान बन्धी कषायका उदय आ जाता है, तो जीव सम्यक्त्वसे च्युत होकर सासादन सम्यक्त्वी बन जाता है और उपशमसम्यक्त्वका काल पूरा होनेपर यदि मिथ्यात्वकर्मका उदय मा जाये, सो जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है। इस प्रकार १०९ गाथापर्यन्त प्रथमोपशमसम्यक्त्वका कथन है। इस प्रकरणमें ९९ वीं गाथा कषायपाहुडकी है और १०६, १०८ और १०९ वी गाथा गोम्मटसार जीवकाण्डकी।
गाथा ११० से क्षायिकसम्यक्त्वका कथन आरम्भ होता है। दर्शनमोहनीय कर्मका क्षय होनेसे क्षायिकसम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है, पर दर्शनमोहनीय कर्मके क्षयका प्रारम्भ कर्मभूमिका मनुष्य तीर्थंकरके पादमूलमें अथवा केवली. श्रुतकेवलीके पादमूलमें करता है और उसकी पूर्ति वहीं अथवा सौधर्मादि कल्पोंमें अथवा कल्पातीतदेवोंमें अथवा भोगभूमिमें अथवा नरकमैं करता है, क्योंकि श्रद्धायुष्क कृतकृत्यवेदक मरकर चारों गतियोंमें जन्म ले सकती है।
अनन्तानुबन्धीचतुष्क और दर्शनमोहनीयकी तीन, इन सात प्रकृतियोंके क्षयसे उत्पन्न हुआ क्षायिकसम्यक्त्व मेरुकी तरह निष्कम्प, अत्यन्त निर्मल और अक्षय होता है। क्षायिकसम्यग्दृष्टि उसी भदमें, तीसरे भवमें अथवा चौधे भवमें मुक्त हो जाता है। आयिकसम्यक्त्वके कथनके साथ दर्शनलब्धिका कथन भी समाप्त हो जाता है। चारित्रलब्धि एकदेश और सम्पूर्णके भेदसे दो प्रकारकी है। अनादिमिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वके साथ देशचारित्रको ग्रहण करता है और सादिमिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्व अथवा वेदकसम्यक्त्वके साथ देशचारित्रको धारण करता है।
सकलचारिके तीन भेद बनाये हैं--क्षायोपशयिक, औपशमिक और क्षायिक। क्षायोपशमिक चारित्र छट्ट और सातवें गुणस्थान में होता है। यह उपशम और वेदक दोनों ही प्रकारके सम्यषत्वोंके साथ उत्पन्न होता है। म्लेच्छ मनुष्य भी आर्य मनुष्योंके समान सकलसंयम धारण कर सकता है। इस प्रकार लब्धिसारमें, पांचों लब्धियोंका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है।
क्षपणासारमें ६५३ गाथाएँ है। यह भी गोम्मटसारका उत्तराध जैसा है। कर्मोंको क्षष करनेकी विधिका निरूपण इस ग्रन्थमें किया गया है। इसकी प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि माधवचन्द्र त्रैवेद्यने बाहुली मन्त्रीकी प्रार्थाना पर संस्कृत-टीका-लिखकर पूर्ण की है।
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती (आचार्य नेमिचन्द्रका समय ई. सनकी दशम शताब्दीका उत्तरार्द्ध या वि. सं. ११वीं शताब्दीका पूर्वार्द्ध है।)
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
विक्रमकी नवम शताब्दी में धवला और जयधवलाकी रचनाके पश्चात् सिद्धान्तविषयक विद्वत्ताका मापदण्ड इन ग्रंथोंको मान लिया गया और इनके पठन-पाठनका सर्वत्र प्रचार हुआ। सारस्वसाचार्य की परंपरा मे आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती का नाम आता है। कालक्रमानुसार ये दोनों अगाध टीकाएँ जब दुष्कर प्रतीत होने लगी, तो इनके सारभागको एकत्र करनेके लिए सिद्धान्तचक्रवर्तीने प्रयास किया। सिद्धान्तचक्रवर्ती इनकी उपाधि थी। इन्होंने अपने गोम्मटसार कर्मकाण्डमें बताया है-
जह चक्केण य चक्की छक्खंड साहिय अविग्घेण।
तह मइ-चक्केण मया छक्खंडं साहिय सम्म।।
जिस प्रकार चक्रवर्ती अपने चक्ररत्नसे भारतवर्षके छह खण्डोंको बिना किसी विघ्न-बाधाके अधीन करता है, उसी तरह मैंने (नेमिचन्द्र) ने अपनी बुद्धिरूपी चक्रसे षटखण्डोंको अर्थात् षट्खण्डागमसिद्धान्तको सम्यकरीतिसे अधीन किया है।
सिद्धान्तग्रन्थोंके अभ्यासीकी सिद्धान्तचक्रवर्तीका पद प्राचीन समयसे ही दिया जाता रहा है। वीरसेनस्वामीने जयधवलाकी प्रशस्ति में लिखा है कि भरतचक्रवर्तीकी आज्ञाके समान जिनकी भारती षट्खण्डागममें स्खलित नहीं हुई, अनुमान है कि वीरसेनस्वामीके समयसे ही सिद्धान्तविषयज्ञको सिद्धान्त चक्रवर्ती कहा जाने लगा है। निश्चयत: आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त रन्धोंके अधिकारी विद्वान थे। यही कारण है कि उन्होंने धवलासिद्धान्तका मंथन कर गोम्मटसार; और जयधवलाटीकाका मंथन कर लब्धिसार ग्रन्थकी रचना की है।
आचार्य नेमिचन्द्र देशीयगणके हैं। इन्होंने अभयनन्दि, वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिको अपना गुरु बतलाया है। कर्मकाण्डमें आया है-
जस्स य पायपसायेणणंतसंसारजाहमुतिपणो।
वीरिंदणदिवच्छो णमामि तं अभयणदिगुरु।
णमिऊण अभयणंदि सुदसायरपारगिदणंदिगुरु।
बरवीरगंदिणाहं पयडीणं पच्चयं वोच्छ।
अर्थात् जिनके चरणप्रसादसे वीरनन्दि और इन्दनन्दिका वत्स अनन्त संसाररूपी समुद्रसे पार हो गया, उन अभयनन्दिगुरुको मैं नमस्कार करता हूँ।
अभयनन्दिको, श्रुतसमुद्रके पारगामी इन्द्र नदिःरुको और वीरनन्दिको नमस्कार करके प्रकृतियोंके प्रत्यय-कारणको कहूंगा।
लब्धिसारमें लिखा है- “वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिके वत्स एवं अभयनन्दि के शिष्य अल्पज्ञानी नेमिचन्द्रने दर्शनलब्धि और चारित्रलब्धिका कथन किया। है।" ‘त्रिलोकसार' में अपनी गुरुपरम्पराका कथन करते हुए लिखा है-
"इदि णेमिचंदमुणिणा अप्पसुदेणभयणंदिवच्छेण।
रइयो तिलोयसारो खमंतु तं बहुसुदाइरिया॥"
अर्थात् अभयनन्दिके वत्स अल्पश्रुतज्ञानी नेमिचन्द्रमुनिने इस त्रिलोकसार ग्रंथको रचा।
उपर्युक्त ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंसे स्पष्ट है कि अभयनन्दि, वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि इनके गुरु थे। इन तीनोंमेंसे वीरनन्दि तो चन्द्रप्रभचरितके कर्ता ज्ञात होते हैं, क्योंकि उन्होंने चन्द्र प्रभचरितकी प्रशस्तिमें अपनेको अभयनन्दिका शिष्य बतलाया है और ये अभयनन्दि नेमिचन्द्र के गुरु ही होना चाहिये, क्योंकि कालगणनासे उनका वही समय आता है। अतः स्पष्ट है कि उक्त तीनों गुरुओंमें अभयनन्दि ज्येष्ठ गुरु होने चाहिये। वीरनन्दि, इन्द्रनन्दि और नेमिचन्द्र उनके शिष्य रहे होंगे। यहां यह कल्पना करना उचित नहीं कि नेमिचन्द्र सबसे छोटे थे, अतः उन्होंने अभयनन्दिके शिष्य वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिसे भी शास्त्राध्ययन किया हो। वस्तुतः अभयनन्दिके वीरनन्दि, इन्द्रनन्दि और नेमिचन्द्र ये तीनों ही शिष्य थे। वय और ज्ञानमें लघु होने के कारण नेमिचन्द्रने वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिसे भी अध्ययन किया होगा।
नेमिचन्द्रने वीरनन्दिको चन्द्रमाकी उपमा देकर सिद्धान्त रूपी अमृतके समुद्रसे उनका उद्भव बतलाया है। अत: वीरनन्दि भी सिद्धान्तग्रन्थोंके पारगामी थे। इन्द्रनन्दिको तो, नेमिचन्द्रने स्पष्टरूपसे श्रुतसमुद्रका पारगामी लिखा है। उन्हीं के समीप सिद्धान्तग्नन्थोंका अध्ययन करके कनकनन्दि आचार्य ने सत्त्वस्थानका कथन किया है। उसी सत्वस्थानका संग्रह नेमिचन्द्रने कर्मकाण्ड गोम्मटसारमें किया है-
वरइंदणंदिगुरुणो पासे सोऊण सयलसिद्धंतं।
सिरिकणयणंदिगुरुणा सत्तट्ठाणं समुद्दिट्ठ।।
इन्द्रनन्दिके सम्बन्ध में आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने लिखा है- 'इस नामके कई आचार्य हो गये हैं, उनमें से 'ज्वालामालिनीकल्प' के कर्ता इन्द्रनन्दिने अपने इस ग्रन्थका रचनाकाल शक सं. ८६६ (वि. सं. ९९६) दिया है और यह समय नेमिचन्द्र गुरु इन्द्रनन्दिके साथ बिल्कुल संगत बैठता है, पर इन्होंने अपनेको वप्पनन्दिका शिष्य कहा है। बहुत सम्भव है कि इन इन्द्रनन्दिने बप्पनन्दिसे दीक्षा ली हो और अभयनन्दिसे सिद्धान्तग्रन्थोंका अध्ययन किया हो।
आचार्य नेमिचन्द्रका शिष्यस्व चामुण्डरायने ग्रहण किया था। यह चामुण्डराय मंगवंशी राजा राचमल्लका प्रधानमन्त्री और सेनापति था। उसने अनेक युद्ध जीते थे और इसके उपलक्ष्य में अनेक उपाधियाँ प्राप्त की थी। यह वीर मार्तण्ड कहलाता था। गोम्मटसारमें 'सम्मत्सरयेणनिलय'- सम्यक्त्वरत्ननिलय, 'गुणरयणभूषणं-गुणरत्नभूषण, 'सत्ययुधिष्ठिर' 'देवराज’ आदि विशेषणोंका प्रयोग किया है। इन चामुण्डरायने श्रवणबेलगोला (मैसूर) में स्थित विन्ध्यगिरि पर्वतपर बाहुबलि स्वामीकी ५७ फीट ऊँची अतिशय मनोज्ञ प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी। बाहुबलि भगवान् ऋषभदेवके पुत्र थे। उन्होंने बड़ी कठोर तपस्या की थी। उनकी स्मृतिमें उनके बड़े भाई चक्रवर्ती भरतने एक प्रतिमा स्थापित करायी थी। वह कुक्कुटपोंसे व्याप्त हो जानेके कारण कुक्कुटजिनके नामसे प्रसिद थी। उत्तर भारतकी इस मूतिसे भिन्नता बतलानेके लिए चामुण्डरायके द्वारा स्थापित मर्ति 'दक्षिणकुक्कुटजिन' कहलायी। गोम्मटसार कर्मकाण्ड में बताया है-
जेण विणिम्मियपडिमावयणं सव्वट्ठंसिद्धिदेवेहि।
सव्वपरमोहिजोगिहिं दिट्ठं सो गोम्मटो जयउ।।
गोम्मटसंगहसुत्तं गोम्मटसिहरुवरि गोम्मटजिणो य।
गोम्मट रायविणिम्भियदक्खिणकुक्कडजिणो जयउ।
इन दोनों गाथाओंसे स्पष्ट है कि चामुण्डरायने गोम्मट स्वामीकी जो प्रतिमा विन्ध्यगिरि पर्वतपर स्थापित की उसके मुखका दर्शन सर्वार्थसिद्धिक देवोंने किया। इससे यह ध्वनित होता है कि विन्ध्यगिरिपर्वतकी ऊँचाईके कारण गोम्मटस्वामीकी मूर्ति अधिक ऊंची दिखलायी पड़ती थी, जिससे सर्वार्थसिद्धिके देव भी उसका दर्शन कर सकते थे। इस चैत्यालयके उन्नत स्तम्भ, स्वर्णमयी कलश एवं उसके अन्य आकार-प्रकारका निर्देश भी गोम्मटसारमें प्राप्त होता है। लिखा है-
वज्जयणं जिणभवणं ईसिपभारं सुवण्णकलसं तु।
तिहुवणपडिमागि जे कजाउ सो आगो।।
जेणुब्भियर्थभरिमजस्खतिरीटग्गकिरणजलधोया।
सिद्धाण सुद्धपाया सो राओ गोम्मटो जयउ॥
विन्ध्यगिरीके सामने स्थित दुसरे चन्द्रगिरिपर चामुण्डरायबसतिके नामसे एक सुन्दर जिनालय स्थित है। इस जिनालयमें चामुण्ड रायने इन्द्रनीलमणिकी एक हाथ ऊची तीर्थकर नेमनाथकी प्रतिमा स्थापितकी थी, जो अब अनुपलब्ध है।
चामुण्डरायका घरू नाम गोम्मट था। यह तथ्य डॉ. ए. एन. उपाध्येने अपने एक लेख में लिखा है। उनके इस नामके कारण ही उनके द्वारा स्थापित बाहुबलिकी मूर्ति गोमटेश्वरके नामसे प्रसिद्ध हुई। डॉ. उपाध्येके अनुसार गोम्मटेश्वरका अर्थ है, चामुण्डरायका देवता। इसी कारण विन्ध्यगिरि, जिसपर गोम्मटेश्वरकी मूर्ति स्थित है, गोम्मट कहा गया। इसी गोम्मट उपनामधारी चामुण्डरायके लिए नेमिचन्द्राचार्यने अपने गोम्मटसार नामक ग्रन्थकी रचना को है। इसीसे इस ग्रन्थको गोम्मटसारकी संज्ञा दी गयी है। अतएव यह स्पष्ट है कि गंगनरेश राचमल्लदेवके प्रधान सचिव और सेनापति चामुण्डरायका आचार्य नेमिचन्द्रके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है।
चामुण्डरायने अपना चामुण्डपुराण शक सं. ९०० (वि. सं. १०३५) में बनाकर समाप्त किया। अतः उनके लिए निर्मित गोम्मटसारका सुनिश्चित समय विक्रम की ११ वीं शताब्दी है। श्री मुख्तार साहब और प्रेमोजी भी इसी समयको स्वीकार करते हैं।
गोम्मटसार कर्मकाण्डमें चामुण्डरायके द्वारा निर्मित गोम्मटजिनकी मूर्ति का निर्देश है। अतः यह निश्चित है कि गोम्मटसारकी समाप्ति गोम्मटमूर्तिकी स्थापनाके पश्चात् ही हुई है। किन्तु मूर्तिके स्थापनाकालको लेकर इतिहासज्ञोंमें बड़ा मतभेद है। 'बाहुबलिचरित्र' में गोम्मटेश्वरकी प्रतिष्ठाका समय निम्नप्रकार बतलाया है-
"कल्क्यब्दे षट्शंताख्ये विनुतविभवसंवत्सरे मासिचेत्रे
पञ्चम्यां शुक्लपक्षे विनर्माणदिवसे कुम्भलग्ने सुयोगे।
सौभाग्ये मस्तनाम्नि प्रकटितभगणे सुप्रशस्तां चकार
श्रीमच्चामुण्डराजो बेल्गुलनगरे गोम्मटेश प्रतिष्ठाम्।।"
अर्थात् कल्कि सं. ६०० में विभव संवत्सरमें चैत्र शुक्ला पंचमी रविवारको कुम्भ लग्न, सौभाग्य योग, मृगशिरा नक्षत्रमें, चामुण्डरायने वेल्गुलनगरमें गोम्मटेशकी प्रतिष्ठा करायी।
इस निर्दिष्ट तिथिके सम्बन्धमें विद्वानोंमें मतभेद है। घोषालने अपने वृहदद्रव्यसंग्रहके अग्रेजी अनुवादकी प्रस्तावनामें उक्त तिथिको २ अप्रेल ९८० माना है। श्रीगोविन्द पैने १३ मार्च ९८१ स्वीकार किया है। प्रो. हीरालाल जीने २३ मार्च सन् २०२८ में उक्त तिथियोगको ठोक घटित बताया है। किन्तु शास्त्री जल सनम को सह निथिके घटित होनेकी चर्चा की है। इस तरह बावनीचरित्र में निर्दिष्ट सम्बन्धमें विवाद प्रस्तुत किया है। हमारे नम्र मतानुसार भारतीय ज्योतिषकी गणनाके आधार पर विभव संवत्सर चैत्र शुक्ला पंचमी रविवारको मृगशिर नक्षत्रका योग १३ मार्च सन् ९८१ में घटित होता है। अन्य ग्रहोंको स्थिति भी इसी दिन सम्यक् घटित होती है। अतः मूर्तिका प्रतिष्ठाकाल सन् ९८१ होना चाहिये।
चामुण्डरायने अपने चामुण्डपुराणमें मूर्तिस्थापनाकी कोई चर्चा नहीं की है। इससे यही अनुमान होता है कि चामुण्डपुराणके पश्चात् ही मूर्तिकी प्रतिष्ठा की गयी है। रन्नने अपना अजितनाथपुराण शक सं. ९१५ में समाप्त किया है। उसमें लिखा है कि अतिमव्वेने गोम्मटेश्वरकी मूर्तिके दर्शन किये। अत: यह निश्चित है कि शक सं. ९१५ (वि. सं. १०५०) से पहले ही मूर्तिकी प्रतिष्ठा हो चुकी थी। यदि चामुण्डपुराणमें मूर्तिकी स्थापनाकी कोई चर्चा न होनेको महत्त्व दिया जाय, तो वि. सं. १०३५ और वि. सं. १०५० के बीचमें मूर्तिकी प्रतिष्ठा माननी पड़ेगी, जिससे हमारे पूर्वकथनकी सिद्धि होती है। गंग राचमल्लका समय वि. सं. १०३१-१०४१ तक है। भुजवलिशतकके अनुसार उन्हींके राज्यकालमें मूर्तिकी प्रतिष्ठा हुई है। अतः मूर्ति स्थापनाका समय ई. सन् ९८१ उपयुक्त जान पड़ता है। अतएव आचार्य नेमिचन्द्रका समय ई. सनकी दशम शताब्दीका उत्तरार्द्ध या वि. सं. ११वीं शताब्दीका पूर्वार्द्ध है।
आचार्य नेमिचन्द्र आगमशास्त्रके विशेषज्ञ हैं। इनकी निम्नलिखित रचनाएँ प्रसिद्ध हैं-
१. गोम्मटसार
२. त्रिलोकसार
३. लब्धिसार
४. क्षपणासार
१. गोम्मटसार
यह ग्रन्थ दो भागोंमें विभक्त है- जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड। जीवकाण्ड में ७३४ गाथाएँ है और कर्मकाण्डमें १६२ गाथाएँ हैं। इस ग्रन्थपर दो संस्कृत-टोकाएँ भी लिखी गयी हैं- १. नेमिचन्द्र द्वारा जीवप्रदीपिका आर २. अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा मन्दप्रबोधिनी। गोम्मटसारपर केशव वर्णी द्वारा एक कन्नड़वृत्ति भी लिखी मिलती है। टोडरमलजीने सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका नामकी वचनिका लिखी है।
गोम्मटसार षट्खण्डागमकी परम्पराका ग्रन्थ है। जीवकाण्डमें महाकर्म प्राभृतके सिद्धान्तसम्बन्धी जीवस्थान, शुद्रबन्ध, बन्धस्वामित्व, वेदनाखण्ड और वर्गणाखंड इन पाँच विषयोंका वर्णन है। गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणा और उपयोग इन २० प्ररूपणामोंमें जीवकी अनेक अवस्थाओंका प्रतिपादन किया गया है।
जीवकाण्डमें जीवोंका कथन किया गया है। बीस प्ररूपणाओंका कथन पंचसंग्रहके समान ही किया गया है। गोम्मटसार संग्रहग्रंथ है, इसमें सन्देह नहीं। जीवकाण्डका संकलन मुख्यरूपसे पञ्चसंग्रहके जीवसमास अधिकार तथा षदखण्डागम प्रथम खण्ड जीवट्टाणके सत्प्ररूपणानामक अधिकारोंसे किया गया है। धवला ग्रंथमें पञ्चसंग्रहकी बहुत-सी गाथाएँ शाब्दिक अन्तरके साथ मिलती हैं। अतः जीवकाण्डकी अधिकांश गाथाएँ धबलाटीकामें मिलती हैं। पञ्चसंग्रहकी गाथाओंसे विषयका सम्बन्ध नहीं है।
पञ्चसंग्रहकी अपेक्षा जीवकाण्डकी गाथाओंमें विशेषता भी प्राप्त होती है। पंचसंग्रहमें ३० गाथाओंमें ही गुणस्थानोंके स्वरूपोंका निर्धारण किया गया है, जबकि जीवकाण्डमें ६८ गाथाओंमें गुणस्थानोंका स्वरूप वर्णित है। इस ग्रन्थमें २० प्ररूपणाओंका परस्परमें अन्तरभाव सम्बन्धी कथन और प्रमादोंके भंगोंका निरूपण भी पंचसंग्रहकी अपेक्षा विशिष्ट है। पंचसंग्रहमें जीवसमासका कथन केवल ग्यारह गाथाओंमें है, पर जीवकाण्ड में यह विषय ४८ गाथाओंमें निरूपित्त है। जीयकाण्डमें स्थान, योनि, शरीरकी अवगाहना और कुलोंके द्वारा जीवसमासका कथन भी विस्तारपूर्वक आया है। इस प्रकारका विस्तार पञ्चसंग्रहमें नहीं मिलता है। पर्याप्तिका कथन पंचसंग्रहमें केवल दो गाथाओंमें आया है। किन्तु जीवकाण्डमें यह विषय ११ गाथाओंमें निबद्ध है। प्राणोंका कथन पंचसंग्रहमें छह गाथाओंमें है, पर जीवकाण्डमें यह विषय पांच ही गाथाओंमें आया है। इसी प्रकार संज्ञाओं, स्वामियों, मार्गणाओमें जीवों, इन्द्रिय मार्गणाकी अपेक्षा एकेन्द्रिय आदि जीवोंके कथन प्रभृतिमें विशेषताएँ विद्यमान हैं।
गोम्मटसार कर्मकाण्डके दो संस्करण प्राप्त होते हैं। पहला संस्करण रायचन्द्र शास्त्रमाला बम्बईका है और दुमरा देवकरण-शास्त्रमालाका है इस ग्रन्थमें ९ अधिकार हैं-
१. प्रकृतिसमुत्कीर्तन
२. बन्धोदयसत्व
३. सत्वस्थानभंग
४. त्रिचूलिका
५. ध्यानसमुत्कीर्तन
६. प्रत्यय
७. भावचूलिका
८. त्रिकरणचूलिका
९. कर्मस्थितिबन्ध
१. प्रकृतिसमुत्कीर्तनका अर्थ है आठों कर्मों और उनकी उत्तरप्रकृतियोंका कथन जिसमें हो। यतः कर्मकाण्डमें कर्मों और उनकी विविध अवस्थाओंका कथन आया है। इसमें जीव और कर्मोंके अनादि सम्बन्धका वर्णन कर कर्मोंके आठ भेदोंके नाम, उनके कार्य, उनका क्रम और उनकी उत्तर प्रकृतियोंमेंसे कुछ विशेष प्रकृतियोंका स्वरूप, बन्धप्रकृतियों, उदयप्रकृत्तियों और सत्वप्रकृतियोंको संख्या, देशघाती, सर्वघाती पुण्य और पाप प्राकृतियाँ, पुद्गलविपाकी, क्षेत्रविपाको, भवविपाको और जीवविपाकी प्राकृतियाँ, कर्ममें निक्षेप-योजना आदिका कथन ८६ गाथाओंमें किया गया है। २२ वी गाथामें कर्मोंके उत्तरभेदोंकी संख्या अंकित की है, किन्तु आगे उन भेदोंको न बतलाकर उनमेंसे कुछ भेदोंके सम्बन्धमे विशेष बातें बतला दी गयी हैं। जैसे दर्शनावरणोयकर्मके ९ भेदोंमेंसे ५ निद्राओंका स्वरूप गाथा २३, २४, और २५ द्वारा बतलाया है। २६वी गाथामें मोहनीयकर्मक एक भेद मिथ्यात्वके तीन भाग कैसे होते हैं, यह बतलाया है। गाथा २७ में नामकर्मके भेदोंमेंसे शरीवनामकर्मके पाँच भेदोंके संयोगी भेद बतलाये हैं। गाथा २८ में अंगो पांगके भेद आये हैं। गाथा २९, ३०. ३१ और ३२ में किस संहननवाला जीव मरकर किस नरक और किस स्वर्ग तक जन्म लेता है, यह कथन किया है। ३३वी गाथामें उष्णनामकर्म और आतपनामकर्मके उदयकी चर्चा की गयी है। इस प्रकार कर्मोको विशेष-विशेष प्रकृत्तियोंके सम्बन्धमे कथन आया है। कर्म प्रकृतिकी विभिन्न स्थितियोंको अवगत करनेके लिए यह कर्मकाण्डग्रन्थ अत्यन्त उपादेय है।
बन्चोदयसत्वाधिकारमें कर्मोदयके बन्ध, उदय और सत्वका कथन आया है। स्तवके लक्षणानुसार कर्मकाण्डके इस दूसरे अधिकारमें कर्मोके बन्ध, उदय और सत्वका गुणस्थान एवं मागणाओंमें अन्वयपूर्वक कथन किया है। बन्धके प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका क्रमशः कथन किया है। प्रकृतिबन्धका कथन करते हुए यह बतलाया है कि किन-किन कर्मप्रकृतियोंका बन्ध किस-किस गुणस्थान तक होता है, आगे नहीं होता। यह कथन पञ्चसंग्रहमें भी है। गुणस्थानाम आठों कर्मोकी १२० प्रकृत्तियोंके बन्ध, अबन्ध और बन्धब्युच्छित्तिका कथन करने के बाद १४ मार्गणाओंमें भी वही कथन किया है। यह कथन पञ्चसंग्रहमें नहीं मिलता। नेमिचन्द्राचार्य ने षट्खण्डागमसे लिया है।
प्रकृतिबन्धके पश्चात् स्थितिबन्धका कथन है। कर्मोको मूल एवं उत्तर प्रकृत्तियोंकी उत्कृष्ट और जघन्यस्थितिका निरूपण बन्धकोंके साथ किया यया है। इस विवेचनके लिये अन्धकारने धवलाटोकाका आधार ग्रहण किया है।
तत्पश्चात् अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका वर्णन आया है। यह वर्णन पञ्चसंग्रहसे मिलता-जुलता है। प्रदेशबन्धका कथन करते हुए पंचसग्रहमें तो समयप्रबद्धका विभाग केवल मूलकर्मोमें ही बतलाया है, पर कर्मकाण्डमें उत्तरप्रकृतियोंमें भी विभागका कथन किया है। कर्मकाण्डमें प्रदेशबन्धक कारणभूत योगके भेदों और अवयवोंका भी कथन है। पर यह कथन पंचसंग्रहमें नहीं है। केवल धवला और जयधवलामें ही प्राप्त है। उदयप्रकरणमें कमों के जदय और उदीरणाका कथन गुणस्थान और मार्गणाओंमें है। अर्थात् प्रत्येक गुणस्थान और मार्गणामें प्रकृतियोंके उदय, अनुदय और उदय-व्युच्छित्ति का वर्णन है। सत्वप्रकरण में गुणस्थान और मार्गणाओंमें प्रकृतियोंकी तत्त्वासत्त्व और सत्वविच्छुत्तिका कथन है। मार्गणाओंमें बन्ध, उदय और तत्त्वका कथन अन्यत्र नहीं मिलता। यह आचार्य नेमिचन्द्रकी अपनी विशेषता है।
सत्वस्थानभंगप्रकरणमें कहे गये सत्वस्थानका भंगोंके साथ कथन किया है। प्रत्येक गणस्थानमें प्रकृतियोंके सस्वस्थानके कितने प्रकार सम्भव हैं और उनके साथ जीव किस आयुको भोगता है और परभवकी किस आयुको बांधता है, यह सब विस्तारपूर्वक आया है। इसी प्रकरणके अन्तमें ग्रंथकारने यह कहा है कि इन्द्रनन्दिगुरुके पासमें श्रवण करके कनकनन्दिने सत्वस्थानका निरूपण किया।
त्रिचूलिका अधिकारमें तीन चूलिकाएँ हैं- १. नवप्रश्नचूलिका, २. पंच भागहारचूलिका और ३. दशकरणचूलिका। पहली नवप्रश्नचूलिकामै ९ प्रश्नोंका समाधान किया है-
१. उदयव्युच्छित्तिके पहले बन्धव्युच्छित्तिकी प्रकृतिसंख्या।
२. उदयव्युच्छित्तिके पीछे बन्धव्युच्छित्तिकी प्रकृतिसंख्या।
३. उदयव्युच्छित्तिके अन्धनरनितिको प्रकृतिसंख्या।
४. जिनका अपना उदय होनेपर बन्ध हो, ऐसी प्रकृतियाँ।
५. जिनका अन्य प्रकृतिका उदयपर बन्ध हो, ऐसी प्रकृतियों।
६. जिनका अपना तथा अन्य प्रकृतियोंके उदय होनेपर बन्ध हो, ऐसी प्रकृतिसंख्या।
७. निरन्तरबन्धप्रकृतियाँ।
८. सान्तरबन्धप्रकृतियाँ।
९. निरन्तर, सान्तरबन्धप्रकृतियाँ।
उपर्युक्त ९ प्रश्नोंका इस अधिकारमें उत्तर दिया गया है।
पंचभागहारचूलिकामें उद्वेलन, विध्यात, अधःप्रवृत्त, गुणसंक्रम और सर्वसक्रम इन पांच भागहारोंका कथन आया है। दशकरणचूलिकामें बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उदीरणा, सत्ता, उदय, उपशम, निर्धात और निकाचना इन दश करणोंका स्वरूप कहा गया है। और बतलाया है कि कौन करण किस गुणस्थान तक होता है। करणनाम क्रिया का है। कर्मों में ये दश क्रियायें होती हैं।
बन्धोदयसत्वयुक्तस्थानसमुत्कीर्तनमे एकजीवके एकसमयमें कितनी प्रकृतियोंका बन्ध, उदय अथवा सत्व सम्भव है, का कथन किया है। इस अधिकारमें आठों मूलकर्मोको लेकर और पुनः प्रत्येक कर्मकी उत्तरप्रकृतियोंको लेकर बन्धस्थानों, उदयस्थानों और सत्वस्थानोंका निर्देश किया गया है। यह अधिकार गुणस्थानक्रमसे विचार करनेके कारण पर्याप्त विस्तृत है।
प्रत्यमाधिकारमें कर्मबन्धके कारणोंका कथन है। मूल कारण चार हैं-
१. मिथ्यात्व,
२. अविरति,
३. कषाय और
४. योग।
इनके भेद क्रमसे ५, १२, २५ और १५ होते हैं। गुणस्थानों में इन्हीं मूल और उत्तर प्रत्ययोंका कथन इस अधिकार में किया गया है तथा प्रत्येक गुणस्थानके बन्धके प्रत्यय बतलाये गये हैं।
भावचूलिकाधिकारमें औरंग्निक, क्षयिक, मिश्र परीनामिक इन पाँच भावों तथा इनके भेदोंका निरूपण करते हुए उनके स्वसंयोगी और परसंयोगी भंगोंका गुणस्थानोंमें कथन किया है। इसके पश्चात् प्राचीन गाथा उद्धृत कर ३६३ मिथ्यावादियोंके मतोंका निर्देश किया है।
त्रिकरणचूलिकाधिकारमें अधःकरण, अपूर्वकरण और अनवृत्तिकरण इन तीन करणोंका स्वरूप कहा गया है।
कर्मस्थितिरचनाधिकारमें प्रतिसमय बंधनेवाले कर्मपरमाणुओंका आठों कर्मोंमें विभाजन होनेके पश्चात् प्रत्येक कर्मप्रकृतिको प्राप्त कर्मनिषकोंकी रचना उसकी स्थितिके अनुसार आबाधाकालको छोड़कर हो जाती है। अर्थात् बन्धको प्राप्त हुए वे कर्मपरमाणु उदयकाल आनेपर निर्जीर्ण होने लगते हैं और अन्तिम स्थितिपर्यन्त बिखरते रहते हैं। उनकी रचनाको ही कर्मस्थिति-रचना कहते हैं। इस गोम्मट्सार कर्मकाण्डके स्वाध्याय द्वारा कर्मसाहित्यका सम्यक बोध प्राप्त किया जा सकता है।
इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थमें १०१८ गाथाएँ हैं। यह करणानुयोगका प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसका आधार तिलोयपण्णत्ती' और 'सत्यार्थवार्तिक' हैं। ग्रन्थ निम्नलिखित अधिकारों में विभक्त है-
१. लोकसामान्याधिकार
२. भवनाधिकार
३. व्यन्तरलोकाधिकार
४. ज्योतिर्लोकाधिकार
५. वैमानिकलोकाधिकार
६. मनुष्य-तिर्यकलोकाधिकार
सामान्यलोकाधिकारमें २०७ गाथाएँ हैं। प्रारम्भमें लोकका स्वरूप बतलाया गया है। यह लोक अकृत्रिम है, अनादिनिधन है, स्वभावनिर्वृत्त है, जीवाजीवों से सहित है और नित्य है। इस लोकमें धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, जीवद्रव्य और पुद्गलद्रव्य जहाँ तक पाये जाते हैं, वहाँ तक लोक माना जाता है, उसके पश्चात् अलोकाकाश है और यह अनन्त है। लोकके कई आकार बतलाये गये हैं। अधोलोक अर्द्धमदंगके समान है, अर्द्धलोक मृदंगके तुल्य है। यह लोक १४ राजुप्रमाण है। लोकके स्वरूपनिरूपणके पश्चात 'मान'का वर्णन किया है। 'मान' दो प्रकारका है- लोक और लोकोत्तर। लौकिक 'मान’ के छह भेद हैं- १. मान २. उन्मान ३. अवमान ४. गणिमान ५. प्रतिमान और ६. तप्तप्रतिमान। गणनाके मूलतः तीन भेद हैं- १. संख्यात २. असंख्यात और ३. अनन्त। संख्यातका एक ही भेद है, और असंख्यातके तीन भेद है- १. परीतासंख्यात २. युक्तासंख्यात और ३. संख्यासासंख्यात। अनन्तके भी तीन भेद हैं- परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तान्त। इस प्रकार उपमाप्रमाण या गणनाके ३ + ३ + १ =७ भेद हैं और इन सातोंके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये तीन-तीन भेद होते हैं। इस प्रकार ७ × ३ = २१ भेद हुए। असंख्यात ज्ञानके निर्मित अनवस्था, शलाका, प्रतिशलाका और महाशलाका इन चार, कुण्डोंकी कल्पना की गयी है। इन कुण्डोंका व्यास एक लक्ष योजन प्रमाण और उत्सेध एक सहस्त्र योजन प्रमाण है। कुण्ड गोलाकार होते हैं। इन कुण्डोंमें दो आदिक सरसोंसे भरना अनवस्था कुण्ड है।
इस सन्दर्भमें गणना और संख्याकी परिभाषा भी बतायी गयी है। लिखा है-
एयादीया गणणा बोयादीया हवंति संस्खेज्जा।
सोयादीणं णियमा कदित्ति सण्णा मुणेदव्वा।
अर्थात् एकादिकको गणना, दो आदिकको संख्या एवं तीन आदिकको कृति कहते हैं। एक और दोमें कृतित्व नहीं है। यतः जिस संख्याके वर्गमेसे वर्गमूलको घटानेपर जो शेष रहे उसका वर्ग करनेपर उस संख्यासे अधिक राशिकी उपलब्धि हो, वही कृति है। यह कृतिधर्म तीन आदिक संख्याओंमें ही पाया जाता है। एकके संख्यात्वका भी निषेध आचार्य नेमिचन्द्रने किया है, क्योंकि एककी गिनती गणनासंख्यामें नहीं होती। कारण स्पष्ट है। एक घटको देखकर, यहाँ घट है, इसकी प्रतीति तो होती है, पर उसकी तादादके विषयमें कुछ ज्ञान नहीं होता। अथवा दान, समर्पणादि कालमें एक वस्तुकी प्रायः गिनती नहीं की जाती। इसका कारण असम व्यवहार, सम्भवव्यवहार का अभाव अथवा गिननेसे अल्पत्वका बोध होना है।
उपर्युक्त वक्तव्यका परीक्षण करनेपर ज्ञात होता है कि संख्या 'समूह'की जानकारी प्राप्त करनेके हेतु होती है। मनुष्यको उसके विकासकी प्रारम्भिक अवस्थासे ही इस प्रकारका आन्तरिक ज्ञान प्राप्त होता है, जिसे हम सम्बोधन अभावमें संख्याज्ञान कहते हैं। अतएव समूहगत प्रत्येक वस्तुकी पृथक-पृथक जानकारीके अभाव में समुहके मध्यमें होनेवाले परिवर्तनका बोध नहीं हो सकता है। समूहबोधकी क्षमता और गिननेकी क्षमता इन दोनों में पर्याप्त अन्तर है। गिनना सीखनेसे पूर्व मनुष्यने संख्याज्ञान प्राप्त किया होगा।
मनुष्यने समूहके बीच रहकर संख्याका बोध प्राप्त किया होगा। जब उसे दो समहोंको जोड़ने की आवश्यकता प्रतीत हुई होगी, तो धनचिह्न और धनात्मक संख्याएँ प्रादुर्भूत हुई होगी। संख्याज्ञानके अनन्तर मनुष्यने गिनना सीखा और गिनने के फलस्वरूप अंकगणितका आरम्भ हुआ। अंकका महत्व तभी व्यक्त होता है, जब हम कई समूहोंमें एक संख्याको पाते हैं। इस अवस्थामें उस अंककी भावना हमारे हृदयमें वस्तुओंसे पृथक् अंकित हो जाती है और फलस्वरूप हम वस्तुओंका बार-बार नाम न लेकर उनकी संख्याको व्यक्त करते हैं। इस प्रकार त्रिलोकसारमें संख्या, गणना, कृति आदिका स्वरूप निर्धारित किया है।
संख्याओंके दो भेद हैं- १. वास्तविक और २. अवास्तविक। वास्तविक संख्याएँ भी दो प्रकारकी हैं- संगत और असंगत। प्रथम प्रकारकी संख्याओंमें भिन्न राशियोंका समूह पाया जाता है और द्वितीय प्रकारकी संख्याओमें करणीगत राशियां निहित हैं। इन राशियोंके भी असंख्यात भेद हैं। आचार्य नेमिचन्द्रके संख्या-भेदोंको निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-
(अ) जघन्य-परीत-असंख्यात = स३+१
(आ) मध्यम-परीत-असंख्यात = स३ ∠ अ यु उ
(इ) उत्कृष्ट-परीत-असंख्यात = अ यु ज--१
(ई) जघन्य-युक्त-असंख्यात = (स उ + १) (स उ + १)
(उ) मध्यम-युक्त-असंख्यात = (स उ+१) (स उ+१) ∠ अ यु उ
(ऊ) उत्कृष्ट- युक्त-असंख्यात = अ यु उ = ऊ ऊ ज =१
(क) जधन्य- असंख्यातासंख्यात = (अ यु ज)२
(ख) मध्यम- असंख्यातासंख्यात = (अ यु ज)२ ∠ अ स उ
(ग) उत्कृष्ट- असंख्यातासंख्यात = अ प ज १
धलाटीकाम अनन्तके निम्नलिखित भेद वर्णित है-
(च) नामानन्त- वस्तुके यथार्थतः अनन्त होने या न होनेका विचार किये बिना ही उसका बहुत्व प्रकट करने के लिए अनन्तका प्रयोग करना नामानन्त है।
(छ) स्थापनानन्त- यथार्थतः अनन्त नहीं, किन्तु किसी संख्या में आरोपित अनन्त।
(ज) द्रव्यानन्त- तत्काल उपयोग न आते हए ज्ञानकी अपेक्षा अनन्त।
(झ) गणनानन्त- संस्थात्मक अनन्त।
(ञ) अप्रदेशिकानन्त- परिमाणहीन अनन्त।
(ट) एकानन्त- एक दिशात्मक अनन्त।
(ठ) विस्तारानन्त- द्विविस्तारात्मक- प्रतरात्मक अनन्ताकाश।
(ड) उभयानन्त- द्वीदिशात्मक अनन्त- एक सीधी रेखा, जो दोनों दिशाओंमें अनन्त तक जाती है।
(ट) सर्वानन्त- आकाशात्मक अनन्त।
(ण) भावानन्त- ज्ञानकी अपेक्षा अनन्त।
अनन्तके सामान्यतया १. परीतानन्त, २. युक्तानन्त, ३. अनन्तानन्त ये तीन भेद माने जाते हैं। इन तीनोंके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे तीन-तीन भेद होनेसे कुल नौ भेद हो जाते हैं। त्रिलोकसारमें उक्त ३ +६+ ९ = २१ भेद वर्णित हैं।
त्रिलोकसारमें धारासंख्याओंका भी कथन आया है। ये १४ प्रकारकी होती हैं-
१. सर्वधारा- १+२+३+४+ ५___अनन्तानन्त
२. समधारा- २+४+६+८+१०+१२+१४+१६+१८ ___+ न
३. विषमधारा- १+२-३, ४+ -१=५, ६+ -१ = ७, ८+ -१ = ९, १० + - १ = ११, १२+ - १ = १३, १४ + – १ = १५, १६+ -१ = १७, १८+ - १ = १५. न+ -१ = न तथा वि + -१ ___ क.
४. कृतिधारा- १२ - १, २२ = ४, ३२ =९, ४२ = १६, ५२ - २५, ६२ =३६, ७२ = ४९, ८२ =६४, ९२ = ८१, १०२-१००, ११२ = १२१, १२२ = १४४, १३२ = १६९. न२=
५. अकृतिधारा- २, ३, ५, ७, ८, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १७___न२ + - १ - नii
६. घनधारा= १३ - १, २३ = ८, ३३ = २७, ४३ = ६४, ५३ = १२५, ६३-२१६___.न३ =नii
७. अधनधारा- २, ३, ४, ५, ६, ७, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १९, २०, २१, २२, २३, २४,२५, २६, २८, ६३___नii न = नअ
८. कृतिमातृका या वर्गमातृका- १, २, ३, ५ ___ न२ = √न
९. अकृतिमातृका या अवर्गमातृका= √मू+ १, √मू+ २, √मू+३ √मू+ ५ व मू+ √मू+ न = न
१०. घनमातृका= १, २___न___ नi ___ नii___ नiii
११. अधनमातृका= ३ √मू+१ ३ √मू+२ ३ √मू+३ च___न.
१२. द्विरूपवर्गधारा- (२)१६ = ६५५३६, (२)३२ = (६५५३६) या ४२९४९६७२५६, (२)६४ = (४२९४९६७२९६)२ = १८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ (न)न = नछ
१३. द्विरूपचनधारा= (२)३, (४)३, (९)३......... (न२)३।
१४. द्विरूपचनाघनधारा= [(२)२]३ ___ [(४)३]३ ___ [न२]३]
इस प्रकार त्रिलोकसारमें १४ धाराओं के कथनके पश्चात् सामान्यलोकाधिकारमें ही वर्गशलाका, अर्द्धच्छेद, विच्छेद, चर्तुच्छेद आदिका भो कथन आया है। अर्द्धच्छेद गणितकी वर्तमानमें लघुगणकसिद्धान्त कहा गया है। अर्द्धच्छेदों द्वारा राशिज्ञान प्राप्त करनेके सिद्धान्तका विवेचन करते हुए त्रिलोकसारमें कई नियम आये हैं। इसी प्रकार कुण्डगणितके अनन्तर पल्प, सागर, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगच्छेणी, जगत्प्रतर और धनलोकका कथन आया है। पल्पके तीन भेद बतलाये हैं- १. व्यवहारपल्य २. उद्धारपल्य ३. और बद्धापल्य। इस प्रकार संख्याओंका विधान कर अधोलोकका क्षेत्र फल आठ आकृतियों द्वारा निकाला गया है। ये आकृतियाँ सामान्य, ऊर्द्धयित, तिगयित, धवमुरज, यदमध्य, मन्दर, दृष्य और गिरिकटक हैं। पिनष्टि क्षेत्रका क्षेत्रफल तो आश्चर्यजनक रीतिमें निकाला गया है। अघोलोकके पश्चात् उर्ध्वलोकका सामान्य वर्णन आया है और उसका भी क्षेत्रफल निकाला गया है। इसके पश्चात् त्रसनालीका कथन आया है। यह त्रसनालो एक राजु लम्बी और चौदह राजु चौड़ी होती है नरकों के पटलोंका कथन किया किया है। प्रथम नरकमें १३, द्वितीयमें ११, ततोयमें ९, चतुर्थ में ७, पंचममें ५, षष्टमें ३ और सप्तममें १ इन्द्रक है। पश्चात् नारकीय जीवोंके रहन-सहन, उनके क्षेत्रगत दुःख आदिका वर्णन किया है।
वस्तुतः इस ग्रंथमें जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, मानुषक्षेत्र, भवनवासियोंके रहनेके स्थान, आवास, भवन, आयु, परिवार आदिका विस्तृत वर्णन किया है। ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक, तारा एवं सूर्य, चन्द्रके आयु, विमान, गति, परिवार आदिका भी सांगोपांग वर्णन पाया जाता है। स्वर्गोंके सुख, विमान एवं वहाँ के निवासियोंकी शक्ति आदिका भी कथन आया है। त्रिलोकको रचनाके सम्बन्धमें सभी प्रकारकी जानकारी इस ग्रंथसे प्राप्त की जा सकती है।
आचार्य नेमिचन्द्रकी तीसरी रचना लब्धिसार है। यह भी गाथाबद्ध है। इसके दो संस्करण प्रकाशित है- एक रायचन्द्र शास्त्रमाला बम्बाईसे और दुसरा हरिभाई देवकरण ग्रंथमालासे। इस ग्रंथमे ६४९ गाथाएँ हैं। सर्व प्रथम सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्रकी लब्धि अर्थात् प्राप्तिका कथन होनेके कारण इसके नामकी सार्थकता बतलायी गयी है। सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति पांच लब्धियोंके प्राप्त होनेपर ही होती है। वे लब्धियाँ हैं- क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण। इनमें से प्रारम्भको बार लब्धियाँ तो सर्वसाधारण को होती रहती हैं, पर करणलब्धि सभीको नहीं होती। इसके प्राप्त होनेपर ही सम्यक्त्वका लाभ होता है। इन लब्धियोंका स्वरूप ग्रंथके प्रारम्भमें दिया है। अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणकी प्राप्तिको ही करनलब्धि कहा गया है। अनिवृत्ति करणके होने पर अन्तर्मुहूर्तके लिए प्रथमोपक्षम सम्यक्त्वका लाभ होता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्वके कालमें कम-से-कम एक समय और अधिक-से-अधिक छह आवली काल शेष रहनेपर यदि अनन्तान बन्धी कषायका उदय आ जाता है, तो जीव सम्यक्त्वसे च्युत होकर सासादन सम्यक्त्वी बन जाता है और उपशमसम्यक्त्वका काल पूरा होनेपर यदि मिथ्यात्वकर्मका उदय मा जाये, सो जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है। इस प्रकार १०९ गाथापर्यन्त प्रथमोपशमसम्यक्त्वका कथन है। इस प्रकरणमें ९९ वीं गाथा कषायपाहुडकी है और १०६, १०८ और १०९ वी गाथा गोम्मटसार जीवकाण्डकी।
गाथा ११० से क्षायिकसम्यक्त्वका कथन आरम्भ होता है। दर्शनमोहनीय कर्मका क्षय होनेसे क्षायिकसम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है, पर दर्शनमोहनीय कर्मके क्षयका प्रारम्भ कर्मभूमिका मनुष्य तीर्थंकरके पादमूलमें अथवा केवली. श्रुतकेवलीके पादमूलमें करता है और उसकी पूर्ति वहीं अथवा सौधर्मादि कल्पोंमें अथवा कल्पातीतदेवोंमें अथवा भोगभूमिमें अथवा नरकमैं करता है, क्योंकि श्रद्धायुष्क कृतकृत्यवेदक मरकर चारों गतियोंमें जन्म ले सकती है।
अनन्तानुबन्धीचतुष्क और दर्शनमोहनीयकी तीन, इन सात प्रकृतियोंके क्षयसे उत्पन्न हुआ क्षायिकसम्यक्त्व मेरुकी तरह निष्कम्प, अत्यन्त निर्मल और अक्षय होता है। क्षायिकसम्यग्दृष्टि उसी भदमें, तीसरे भवमें अथवा चौधे भवमें मुक्त हो जाता है। आयिकसम्यक्त्वके कथनके साथ दर्शनलब्धिका कथन भी समाप्त हो जाता है। चारित्रलब्धि एकदेश और सम्पूर्णके भेदसे दो प्रकारकी है। अनादिमिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वके साथ देशचारित्रको ग्रहण करता है और सादिमिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्व अथवा वेदकसम्यक्त्वके साथ देशचारित्रको धारण करता है।
सकलचारिके तीन भेद बनाये हैं--क्षायोपशयिक, औपशमिक और क्षायिक। क्षायोपशमिक चारित्र छट्ट और सातवें गुणस्थान में होता है। यह उपशम और वेदक दोनों ही प्रकारके सम्यषत्वोंके साथ उत्पन्न होता है। म्लेच्छ मनुष्य भी आर्य मनुष्योंके समान सकलसंयम धारण कर सकता है। इस प्रकार लब्धिसारमें, पांचों लब्धियोंका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है।
क्षपणासारमें ६५३ गाथाएँ है। यह भी गोम्मटसारका उत्तराध जैसा है। कर्मोंको क्षष करनेकी विधिका निरूपण इस ग्रन्थमें किया गया है। इसकी प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि माधवचन्द्र त्रैवेद्यने बाहुली मन्त्रीकी प्रार्थाना पर संस्कृत-टीका-लिखकर पूर्ण की है।
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती (आचार्य नेमिचन्द्रका समय ई. सनकी दशम शताब्दीका उत्तरार्द्ध या वि. सं. ११वीं शताब्दीका पूर्वार्द्ध है।)
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
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डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती (प्राचीन) 10वीं/11वीं शताब्दी
विक्रमकी नवम शताब्दी में धवला और जयधवलाकी रचनाके पश्चात् सिद्धान्तविषयक विद्वत्ताका मापदण्ड इन ग्रंथोंको मान लिया गया और इनके पठन-पाठनका सर्वत्र प्रचार हुआ। सारस्वसाचार्य की परंपरा मे आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती का नाम आता है। कालक्रमानुसार ये दोनों अगाध टीकाएँ जब दुष्कर प्रतीत होने लगी, तो इनके सारभागको एकत्र करनेके लिए सिद्धान्तचक्रवर्तीने प्रयास किया। सिद्धान्तचक्रवर्ती इनकी उपाधि थी। इन्होंने अपने गोम्मटसार कर्मकाण्डमें बताया है-
जह चक्केण य चक्की छक्खंड साहिय अविग्घेण।
तह मइ-चक्केण मया छक्खंडं साहिय सम्म।।
जिस प्रकार चक्रवर्ती अपने चक्ररत्नसे भारतवर्षके छह खण्डोंको बिना किसी विघ्न-बाधाके अधीन करता है, उसी तरह मैंने (नेमिचन्द्र) ने अपनी बुद्धिरूपी चक्रसे षटखण्डोंको अर्थात् षट्खण्डागमसिद्धान्तको सम्यकरीतिसे अधीन किया है।
सिद्धान्तग्रन्थोंके अभ्यासीकी सिद्धान्तचक्रवर्तीका पद प्राचीन समयसे ही दिया जाता रहा है। वीरसेनस्वामीने जयधवलाकी प्रशस्ति में लिखा है कि भरतचक्रवर्तीकी आज्ञाके समान जिनकी भारती षट्खण्डागममें स्खलित नहीं हुई, अनुमान है कि वीरसेनस्वामीके समयसे ही सिद्धान्तविषयज्ञको सिद्धान्त चक्रवर्ती कहा जाने लगा है। निश्चयत: आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त रन्धोंके अधिकारी विद्वान थे। यही कारण है कि उन्होंने धवलासिद्धान्तका मंथन कर गोम्मटसार; और जयधवलाटीकाका मंथन कर लब्धिसार ग्रन्थकी रचना की है।
आचार्य नेमिचन्द्र देशीयगणके हैं। इन्होंने अभयनन्दि, वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिको अपना गुरु बतलाया है। कर्मकाण्डमें आया है-
जस्स य पायपसायेणणंतसंसारजाहमुतिपणो।
वीरिंदणदिवच्छो णमामि तं अभयणदिगुरु।
णमिऊण अभयणंदि सुदसायरपारगिदणंदिगुरु।
बरवीरगंदिणाहं पयडीणं पच्चयं वोच्छ।
अर्थात् जिनके चरणप्रसादसे वीरनन्दि और इन्दनन्दिका वत्स अनन्त संसाररूपी समुद्रसे पार हो गया, उन अभयनन्दिगुरुको मैं नमस्कार करता हूँ।
अभयनन्दिको, श्रुतसमुद्रके पारगामी इन्द्र नदिःरुको और वीरनन्दिको नमस्कार करके प्रकृतियोंके प्रत्यय-कारणको कहूंगा।
लब्धिसारमें लिखा है- “वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिके वत्स एवं अभयनन्दि के शिष्य अल्पज्ञानी नेमिचन्द्रने दर्शनलब्धि और चारित्रलब्धिका कथन किया। है।" ‘त्रिलोकसार' में अपनी गुरुपरम्पराका कथन करते हुए लिखा है-
"इदि णेमिचंदमुणिणा अप्पसुदेणभयणंदिवच्छेण।
रइयो तिलोयसारो खमंतु तं बहुसुदाइरिया॥"
अर्थात् अभयनन्दिके वत्स अल्पश्रुतज्ञानी नेमिचन्द्रमुनिने इस त्रिलोकसार ग्रंथको रचा।
उपर्युक्त ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंसे स्पष्ट है कि अभयनन्दि, वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि इनके गुरु थे। इन तीनोंमेंसे वीरनन्दि तो चन्द्रप्रभचरितके कर्ता ज्ञात होते हैं, क्योंकि उन्होंने चन्द्र प्रभचरितकी प्रशस्तिमें अपनेको अभयनन्दिका शिष्य बतलाया है और ये अभयनन्दि नेमिचन्द्र के गुरु ही होना चाहिये, क्योंकि कालगणनासे उनका वही समय आता है। अतः स्पष्ट है कि उक्त तीनों गुरुओंमें अभयनन्दि ज्येष्ठ गुरु होने चाहिये। वीरनन्दि, इन्द्रनन्दि और नेमिचन्द्र उनके शिष्य रहे होंगे। यहां यह कल्पना करना उचित नहीं कि नेमिचन्द्र सबसे छोटे थे, अतः उन्होंने अभयनन्दिके शिष्य वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिसे भी शास्त्राध्ययन किया हो। वस्तुतः अभयनन्दिके वीरनन्दि, इन्द्रनन्दि और नेमिचन्द्र ये तीनों ही शिष्य थे। वय और ज्ञानमें लघु होने के कारण नेमिचन्द्रने वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिसे भी अध्ययन किया होगा।
नेमिचन्द्रने वीरनन्दिको चन्द्रमाकी उपमा देकर सिद्धान्त रूपी अमृतके समुद्रसे उनका उद्भव बतलाया है। अत: वीरनन्दि भी सिद्धान्तग्रन्थोंके पारगामी थे। इन्द्रनन्दिको तो, नेमिचन्द्रने स्पष्टरूपसे श्रुतसमुद्रका पारगामी लिखा है। उन्हीं के समीप सिद्धान्तग्नन्थोंका अध्ययन करके कनकनन्दि आचार्य ने सत्त्वस्थानका कथन किया है। उसी सत्वस्थानका संग्रह नेमिचन्द्रने कर्मकाण्ड गोम्मटसारमें किया है-
वरइंदणंदिगुरुणो पासे सोऊण सयलसिद्धंतं।
सिरिकणयणंदिगुरुणा सत्तट्ठाणं समुद्दिट्ठ।।
इन्द्रनन्दिके सम्बन्ध में आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने लिखा है- 'इस नामके कई आचार्य हो गये हैं, उनमें से 'ज्वालामालिनीकल्प' के कर्ता इन्द्रनन्दिने अपने इस ग्रन्थका रचनाकाल शक सं. ८६६ (वि. सं. ९९६) दिया है और यह समय नेमिचन्द्र गुरु इन्द्रनन्दिके साथ बिल्कुल संगत बैठता है, पर इन्होंने अपनेको वप्पनन्दिका शिष्य कहा है। बहुत सम्भव है कि इन इन्द्रनन्दिने बप्पनन्दिसे दीक्षा ली हो और अभयनन्दिसे सिद्धान्तग्रन्थोंका अध्ययन किया हो।
आचार्य नेमिचन्द्रका शिष्यस्व चामुण्डरायने ग्रहण किया था। यह चामुण्डराय मंगवंशी राजा राचमल्लका प्रधानमन्त्री और सेनापति था। उसने अनेक युद्ध जीते थे और इसके उपलक्ष्य में अनेक उपाधियाँ प्राप्त की थी। यह वीर मार्तण्ड कहलाता था। गोम्मटसारमें 'सम्मत्सरयेणनिलय'- सम्यक्त्वरत्ननिलय, 'गुणरयणभूषणं-गुणरत्नभूषण, 'सत्ययुधिष्ठिर' 'देवराज’ आदि विशेषणोंका प्रयोग किया है। इन चामुण्डरायने श्रवणबेलगोला (मैसूर) में स्थित विन्ध्यगिरि पर्वतपर बाहुबलि स्वामीकी ५७ फीट ऊँची अतिशय मनोज्ञ प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी। बाहुबलि भगवान् ऋषभदेवके पुत्र थे। उन्होंने बड़ी कठोर तपस्या की थी। उनकी स्मृतिमें उनके बड़े भाई चक्रवर्ती भरतने एक प्रतिमा स्थापित करायी थी। वह कुक्कुटपोंसे व्याप्त हो जानेके कारण कुक्कुटजिनके नामसे प्रसिद थी। उत्तर भारतकी इस मूतिसे भिन्नता बतलानेके लिए चामुण्डरायके द्वारा स्थापित मर्ति 'दक्षिणकुक्कुटजिन' कहलायी। गोम्मटसार कर्मकाण्ड में बताया है-
जेण विणिम्मियपडिमावयणं सव्वट्ठंसिद्धिदेवेहि।
सव्वपरमोहिजोगिहिं दिट्ठं सो गोम्मटो जयउ।।
गोम्मटसंगहसुत्तं गोम्मटसिहरुवरि गोम्मटजिणो य।
गोम्मट रायविणिम्भियदक्खिणकुक्कडजिणो जयउ।
इन दोनों गाथाओंसे स्पष्ट है कि चामुण्डरायने गोम्मट स्वामीकी जो प्रतिमा विन्ध्यगिरि पर्वतपर स्थापित की उसके मुखका दर्शन सर्वार्थसिद्धिक देवोंने किया। इससे यह ध्वनित होता है कि विन्ध्यगिरिपर्वतकी ऊँचाईके कारण गोम्मटस्वामीकी मूर्ति अधिक ऊंची दिखलायी पड़ती थी, जिससे सर्वार्थसिद्धिके देव भी उसका दर्शन कर सकते थे। इस चैत्यालयके उन्नत स्तम्भ, स्वर्णमयी कलश एवं उसके अन्य आकार-प्रकारका निर्देश भी गोम्मटसारमें प्राप्त होता है। लिखा है-
वज्जयणं जिणभवणं ईसिपभारं सुवण्णकलसं तु।
तिहुवणपडिमागि जे कजाउ सो आगो।।
जेणुब्भियर्थभरिमजस्खतिरीटग्गकिरणजलधोया।
सिद्धाण सुद्धपाया सो राओ गोम्मटो जयउ॥
विन्ध्यगिरीके सामने स्थित दुसरे चन्द्रगिरिपर चामुण्डरायबसतिके नामसे एक सुन्दर जिनालय स्थित है। इस जिनालयमें चामुण्ड रायने इन्द्रनीलमणिकी एक हाथ ऊची तीर्थकर नेमनाथकी प्रतिमा स्थापितकी थी, जो अब अनुपलब्ध है।
चामुण्डरायका घरू नाम गोम्मट था। यह तथ्य डॉ. ए. एन. उपाध्येने अपने एक लेख में लिखा है। उनके इस नामके कारण ही उनके द्वारा स्थापित बाहुबलिकी मूर्ति गोमटेश्वरके नामसे प्रसिद्ध हुई। डॉ. उपाध्येके अनुसार गोम्मटेश्वरका अर्थ है, चामुण्डरायका देवता। इसी कारण विन्ध्यगिरि, जिसपर गोम्मटेश्वरकी मूर्ति स्थित है, गोम्मट कहा गया। इसी गोम्मट उपनामधारी चामुण्डरायके लिए नेमिचन्द्राचार्यने अपने गोम्मटसार नामक ग्रन्थकी रचना को है। इसीसे इस ग्रन्थको गोम्मटसारकी संज्ञा दी गयी है। अतएव यह स्पष्ट है कि गंगनरेश राचमल्लदेवके प्रधान सचिव और सेनापति चामुण्डरायका आचार्य नेमिचन्द्रके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है।
चामुण्डरायने अपना चामुण्डपुराण शक सं. ९०० (वि. सं. १०३५) में बनाकर समाप्त किया। अतः उनके लिए निर्मित गोम्मटसारका सुनिश्चित समय विक्रम की ११ वीं शताब्दी है। श्री मुख्तार साहब और प्रेमोजी भी इसी समयको स्वीकार करते हैं।
गोम्मटसार कर्मकाण्डमें चामुण्डरायके द्वारा निर्मित गोम्मटजिनकी मूर्ति का निर्देश है। अतः यह निश्चित है कि गोम्मटसारकी समाप्ति गोम्मटमूर्तिकी स्थापनाके पश्चात् ही हुई है। किन्तु मूर्तिके स्थापनाकालको लेकर इतिहासज्ञोंमें बड़ा मतभेद है। 'बाहुबलिचरित्र' में गोम्मटेश्वरकी प्रतिष्ठाका समय निम्नप्रकार बतलाया है-
"कल्क्यब्दे षट्शंताख्ये विनुतविभवसंवत्सरे मासिचेत्रे
पञ्चम्यां शुक्लपक्षे विनर्माणदिवसे कुम्भलग्ने सुयोगे।
सौभाग्ये मस्तनाम्नि प्रकटितभगणे सुप्रशस्तां चकार
श्रीमच्चामुण्डराजो बेल्गुलनगरे गोम्मटेश प्रतिष्ठाम्।।"
अर्थात् कल्कि सं. ६०० में विभव संवत्सरमें चैत्र शुक्ला पंचमी रविवारको कुम्भ लग्न, सौभाग्य योग, मृगशिरा नक्षत्रमें, चामुण्डरायने वेल्गुलनगरमें गोम्मटेशकी प्रतिष्ठा करायी।
इस निर्दिष्ट तिथिके सम्बन्धमें विद्वानोंमें मतभेद है। घोषालने अपने वृहदद्रव्यसंग्रहके अग्रेजी अनुवादकी प्रस्तावनामें उक्त तिथिको २ अप्रेल ९८० माना है। श्रीगोविन्द पैने १३ मार्च ९८१ स्वीकार किया है। प्रो. हीरालाल जीने २३ मार्च सन् २०२८ में उक्त तिथियोगको ठोक घटित बताया है। किन्तु शास्त्री जल सनम को सह निथिके घटित होनेकी चर्चा की है। इस तरह बावनीचरित्र में निर्दिष्ट सम्बन्धमें विवाद प्रस्तुत किया है। हमारे नम्र मतानुसार भारतीय ज्योतिषकी गणनाके आधार पर विभव संवत्सर चैत्र शुक्ला पंचमी रविवारको मृगशिर नक्षत्रका योग १३ मार्च सन् ९८१ में घटित होता है। अन्य ग्रहोंको स्थिति भी इसी दिन सम्यक् घटित होती है। अतः मूर्तिका प्रतिष्ठाकाल सन् ९८१ होना चाहिये।
चामुण्डरायने अपने चामुण्डपुराणमें मूर्तिस्थापनाकी कोई चर्चा नहीं की है। इससे यही अनुमान होता है कि चामुण्डपुराणके पश्चात् ही मूर्तिकी प्रतिष्ठा की गयी है। रन्नने अपना अजितनाथपुराण शक सं. ९१५ में समाप्त किया है। उसमें लिखा है कि अतिमव्वेने गोम्मटेश्वरकी मूर्तिके दर्शन किये। अत: यह निश्चित है कि शक सं. ९१५ (वि. सं. १०५०) से पहले ही मूर्तिकी प्रतिष्ठा हो चुकी थी। यदि चामुण्डपुराणमें मूर्तिकी स्थापनाकी कोई चर्चा न होनेको महत्त्व दिया जाय, तो वि. सं. १०३५ और वि. सं. १०५० के बीचमें मूर्तिकी प्रतिष्ठा माननी पड़ेगी, जिससे हमारे पूर्वकथनकी सिद्धि होती है। गंग राचमल्लका समय वि. सं. १०३१-१०४१ तक है। भुजवलिशतकके अनुसार उन्हींके राज्यकालमें मूर्तिकी प्रतिष्ठा हुई है। अतः मूर्ति स्थापनाका समय ई. सन् ९८१ उपयुक्त जान पड़ता है। अतएव आचार्य नेमिचन्द्रका समय ई. सनकी दशम शताब्दीका उत्तरार्द्ध या वि. सं. ११वीं शताब्दीका पूर्वार्द्ध है।
आचार्य नेमिचन्द्र आगमशास्त्रके विशेषज्ञ हैं। इनकी निम्नलिखित रचनाएँ प्रसिद्ध हैं-
१. गोम्मटसार
२. त्रिलोकसार
३. लब्धिसार
४. क्षपणासार
१. गोम्मटसार
यह ग्रन्थ दो भागोंमें विभक्त है- जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड। जीवकाण्ड में ७३४ गाथाएँ है और कर्मकाण्डमें १६२ गाथाएँ हैं। इस ग्रन्थपर दो संस्कृत-टोकाएँ भी लिखी गयी हैं- १. नेमिचन्द्र द्वारा जीवप्रदीपिका आर २. अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा मन्दप्रबोधिनी। गोम्मटसारपर केशव वर्णी द्वारा एक कन्नड़वृत्ति भी लिखी मिलती है। टोडरमलजीने सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका नामकी वचनिका लिखी है।
गोम्मटसार षट्खण्डागमकी परम्पराका ग्रन्थ है। जीवकाण्डमें महाकर्म प्राभृतके सिद्धान्तसम्बन्धी जीवस्थान, शुद्रबन्ध, बन्धस्वामित्व, वेदनाखण्ड और वर्गणाखंड इन पाँच विषयोंका वर्णन है। गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणा और उपयोग इन २० प्ररूपणामोंमें जीवकी अनेक अवस्थाओंका प्रतिपादन किया गया है।
जीवकाण्डमें जीवोंका कथन किया गया है। बीस प्ररूपणाओंका कथन पंचसंग्रहके समान ही किया गया है। गोम्मटसार संग्रहग्रंथ है, इसमें सन्देह नहीं। जीवकाण्डका संकलन मुख्यरूपसे पञ्चसंग्रहके जीवसमास अधिकार तथा षदखण्डागम प्रथम खण्ड जीवट्टाणके सत्प्ररूपणानामक अधिकारोंसे किया गया है। धवला ग्रंथमें पञ्चसंग्रहकी बहुत-सी गाथाएँ शाब्दिक अन्तरके साथ मिलती हैं। अतः जीवकाण्डकी अधिकांश गाथाएँ धबलाटीकामें मिलती हैं। पञ्चसंग्रहकी गाथाओंसे विषयका सम्बन्ध नहीं है।
पञ्चसंग्रहकी अपेक्षा जीवकाण्डकी गाथाओंमें विशेषता भी प्राप्त होती है। पंचसंग्रहमें ३० गाथाओंमें ही गुणस्थानोंके स्वरूपोंका निर्धारण किया गया है, जबकि जीवकाण्डमें ६८ गाथाओंमें गुणस्थानोंका स्वरूप वर्णित है। इस ग्रन्थमें २० प्ररूपणाओंका परस्परमें अन्तरभाव सम्बन्धी कथन और प्रमादोंके भंगोंका निरूपण भी पंचसंग्रहकी अपेक्षा विशिष्ट है। पंचसंग्रहमें जीवसमासका कथन केवल ग्यारह गाथाओंमें है, पर जीवकाण्ड में यह विषय ४८ गाथाओंमें निरूपित्त है। जीयकाण्डमें स्थान, योनि, शरीरकी अवगाहना और कुलोंके द्वारा जीवसमासका कथन भी विस्तारपूर्वक आया है। इस प्रकारका विस्तार पञ्चसंग्रहमें नहीं मिलता है। पर्याप्तिका कथन पंचसंग्रहमें केवल दो गाथाओंमें आया है। किन्तु जीवकाण्डमें यह विषय ११ गाथाओंमें निबद्ध है। प्राणोंका कथन पंचसंग्रहमें छह गाथाओंमें है, पर जीवकाण्डमें यह विषय पांच ही गाथाओंमें आया है। इसी प्रकार संज्ञाओं, स्वामियों, मार्गणाओमें जीवों, इन्द्रिय मार्गणाकी अपेक्षा एकेन्द्रिय आदि जीवोंके कथन प्रभृतिमें विशेषताएँ विद्यमान हैं।
गोम्मटसार कर्मकाण्डके दो संस्करण प्राप्त होते हैं। पहला संस्करण रायचन्द्र शास्त्रमाला बम्बईका है और दुमरा देवकरण-शास्त्रमालाका है इस ग्रन्थमें ९ अधिकार हैं-
१. प्रकृतिसमुत्कीर्तन
२. बन्धोदयसत्व
३. सत्वस्थानभंग
४. त्रिचूलिका
५. ध्यानसमुत्कीर्तन
६. प्रत्यय
७. भावचूलिका
८. त्रिकरणचूलिका
९. कर्मस्थितिबन्ध
१. प्रकृतिसमुत्कीर्तनका अर्थ है आठों कर्मों और उनकी उत्तरप्रकृतियोंका कथन जिसमें हो। यतः कर्मकाण्डमें कर्मों और उनकी विविध अवस्थाओंका कथन आया है। इसमें जीव और कर्मोंके अनादि सम्बन्धका वर्णन कर कर्मोंके आठ भेदोंके नाम, उनके कार्य, उनका क्रम और उनकी उत्तर प्रकृतियोंमेंसे कुछ विशेष प्रकृतियोंका स्वरूप, बन्धप्रकृतियों, उदयप्रकृत्तियों और सत्वप्रकृतियोंको संख्या, देशघाती, सर्वघाती पुण्य और पाप प्राकृतियाँ, पुद्गलविपाकी, क्षेत्रविपाको, भवविपाको और जीवविपाकी प्राकृतियाँ, कर्ममें निक्षेप-योजना आदिका कथन ८६ गाथाओंमें किया गया है। २२ वी गाथामें कर्मोंके उत्तरभेदोंकी संख्या अंकित की है, किन्तु आगे उन भेदोंको न बतलाकर उनमेंसे कुछ भेदोंके सम्बन्धमे विशेष बातें बतला दी गयी हैं। जैसे दर्शनावरणोयकर्मके ९ भेदोंमेंसे ५ निद्राओंका स्वरूप गाथा २३, २४, और २५ द्वारा बतलाया है। २६वी गाथामें मोहनीयकर्मक एक भेद मिथ्यात्वके तीन भाग कैसे होते हैं, यह बतलाया है। गाथा २७ में नामकर्मके भेदोंमेंसे शरीवनामकर्मके पाँच भेदोंके संयोगी भेद बतलाये हैं। गाथा २८ में अंगो पांगके भेद आये हैं। गाथा २९, ३०. ३१ और ३२ में किस संहननवाला जीव मरकर किस नरक और किस स्वर्ग तक जन्म लेता है, यह कथन किया है। ३३वी गाथामें उष्णनामकर्म और आतपनामकर्मके उदयकी चर्चा की गयी है। इस प्रकार कर्मोको विशेष-विशेष प्रकृत्तियोंके सम्बन्धमे कथन आया है। कर्म प्रकृतिकी विभिन्न स्थितियोंको अवगत करनेके लिए यह कर्मकाण्डग्रन्थ अत्यन्त उपादेय है।
बन्चोदयसत्वाधिकारमें कर्मोदयके बन्ध, उदय और सत्वका कथन आया है। स्तवके लक्षणानुसार कर्मकाण्डके इस दूसरे अधिकारमें कर्मोके बन्ध, उदय और सत्वका गुणस्थान एवं मागणाओंमें अन्वयपूर्वक कथन किया है। बन्धके प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका क्रमशः कथन किया है। प्रकृतिबन्धका कथन करते हुए यह बतलाया है कि किन-किन कर्मप्रकृतियोंका बन्ध किस-किस गुणस्थान तक होता है, आगे नहीं होता। यह कथन पञ्चसंग्रहमें भी है। गुणस्थानाम आठों कर्मोकी १२० प्रकृत्तियोंके बन्ध, अबन्ध और बन्धब्युच्छित्तिका कथन करने के बाद १४ मार्गणाओंमें भी वही कथन किया है। यह कथन पञ्चसंग्रहमें नहीं मिलता। नेमिचन्द्राचार्य ने षट्खण्डागमसे लिया है।
प्रकृतिबन्धके पश्चात् स्थितिबन्धका कथन है। कर्मोको मूल एवं उत्तर प्रकृत्तियोंकी उत्कृष्ट और जघन्यस्थितिका निरूपण बन्धकोंके साथ किया यया है। इस विवेचनके लिये अन्धकारने धवलाटोकाका आधार ग्रहण किया है।
तत्पश्चात् अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका वर्णन आया है। यह वर्णन पञ्चसंग्रहसे मिलता-जुलता है। प्रदेशबन्धका कथन करते हुए पंचसग्रहमें तो समयप्रबद्धका विभाग केवल मूलकर्मोमें ही बतलाया है, पर कर्मकाण्डमें उत्तरप्रकृतियोंमें भी विभागका कथन किया है। कर्मकाण्डमें प्रदेशबन्धक कारणभूत योगके भेदों और अवयवोंका भी कथन है। पर यह कथन पंचसंग्रहमें नहीं है। केवल धवला और जयधवलामें ही प्राप्त है। उदयप्रकरणमें कमों के जदय और उदीरणाका कथन गुणस्थान और मार्गणाओंमें है। अर्थात् प्रत्येक गुणस्थान और मार्गणामें प्रकृतियोंके उदय, अनुदय और उदय-व्युच्छित्ति का वर्णन है। सत्वप्रकरण में गुणस्थान और मार्गणाओंमें प्रकृतियोंकी तत्त्वासत्त्व और सत्वविच्छुत्तिका कथन है। मार्गणाओंमें बन्ध, उदय और तत्त्वका कथन अन्यत्र नहीं मिलता। यह आचार्य नेमिचन्द्रकी अपनी विशेषता है।
सत्वस्थानभंगप्रकरणमें कहे गये सत्वस्थानका भंगोंके साथ कथन किया है। प्रत्येक गणस्थानमें प्रकृतियोंके सस्वस्थानके कितने प्रकार सम्भव हैं और उनके साथ जीव किस आयुको भोगता है और परभवकी किस आयुको बांधता है, यह सब विस्तारपूर्वक आया है। इसी प्रकरणके अन्तमें ग्रंथकारने यह कहा है कि इन्द्रनन्दिगुरुके पासमें श्रवण करके कनकनन्दिने सत्वस्थानका निरूपण किया।
त्रिचूलिका अधिकारमें तीन चूलिकाएँ हैं- १. नवप्रश्नचूलिका, २. पंच भागहारचूलिका और ३. दशकरणचूलिका। पहली नवप्रश्नचूलिकामै ९ प्रश्नोंका समाधान किया है-
१. उदयव्युच्छित्तिके पहले बन्धव्युच्छित्तिकी प्रकृतिसंख्या।
२. उदयव्युच्छित्तिके पीछे बन्धव्युच्छित्तिकी प्रकृतिसंख्या।
३. उदयव्युच्छित्तिके अन्धनरनितिको प्रकृतिसंख्या।
४. जिनका अपना उदय होनेपर बन्ध हो, ऐसी प्रकृतियाँ।
५. जिनका अन्य प्रकृतिका उदयपर बन्ध हो, ऐसी प्रकृतियों।
६. जिनका अपना तथा अन्य प्रकृतियोंके उदय होनेपर बन्ध हो, ऐसी प्रकृतिसंख्या।
७. निरन्तरबन्धप्रकृतियाँ।
८. सान्तरबन्धप्रकृतियाँ।
९. निरन्तर, सान्तरबन्धप्रकृतियाँ।
उपर्युक्त ९ प्रश्नोंका इस अधिकारमें उत्तर दिया गया है।
पंचभागहारचूलिकामें उद्वेलन, विध्यात, अधःप्रवृत्त, गुणसंक्रम और सर्वसक्रम इन पांच भागहारोंका कथन आया है। दशकरणचूलिकामें बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उदीरणा, सत्ता, उदय, उपशम, निर्धात और निकाचना इन दश करणोंका स्वरूप कहा गया है। और बतलाया है कि कौन करण किस गुणस्थान तक होता है। करणनाम क्रिया का है। कर्मों में ये दश क्रियायें होती हैं।
बन्धोदयसत्वयुक्तस्थानसमुत्कीर्तनमे एकजीवके एकसमयमें कितनी प्रकृतियोंका बन्ध, उदय अथवा सत्व सम्भव है, का कथन किया है। इस अधिकारमें आठों मूलकर्मोको लेकर और पुनः प्रत्येक कर्मकी उत्तरप्रकृतियोंको लेकर बन्धस्थानों, उदयस्थानों और सत्वस्थानोंका निर्देश किया गया है। यह अधिकार गुणस्थानक्रमसे विचार करनेके कारण पर्याप्त विस्तृत है।
प्रत्यमाधिकारमें कर्मबन्धके कारणोंका कथन है। मूल कारण चार हैं-
१. मिथ्यात्व,
२. अविरति,
३. कषाय और
४. योग।
इनके भेद क्रमसे ५, १२, २५ और १५ होते हैं। गुणस्थानों में इन्हीं मूल और उत्तर प्रत्ययोंका कथन इस अधिकार में किया गया है तथा प्रत्येक गुणस्थानके बन्धके प्रत्यय बतलाये गये हैं।
भावचूलिकाधिकारमें औरंग्निक, क्षयिक, मिश्र परीनामिक इन पाँच भावों तथा इनके भेदोंका निरूपण करते हुए उनके स्वसंयोगी और परसंयोगी भंगोंका गुणस्थानोंमें कथन किया है। इसके पश्चात् प्राचीन गाथा उद्धृत कर ३६३ मिथ्यावादियोंके मतोंका निर्देश किया है।
त्रिकरणचूलिकाधिकारमें अधःकरण, अपूर्वकरण और अनवृत्तिकरण इन तीन करणोंका स्वरूप कहा गया है।
कर्मस्थितिरचनाधिकारमें प्रतिसमय बंधनेवाले कर्मपरमाणुओंका आठों कर्मोंमें विभाजन होनेके पश्चात् प्रत्येक कर्मप्रकृतिको प्राप्त कर्मनिषकोंकी रचना उसकी स्थितिके अनुसार आबाधाकालको छोड़कर हो जाती है। अर्थात् बन्धको प्राप्त हुए वे कर्मपरमाणु उदयकाल आनेपर निर्जीर्ण होने लगते हैं और अन्तिम स्थितिपर्यन्त बिखरते रहते हैं। उनकी रचनाको ही कर्मस्थिति-रचना कहते हैं। इस गोम्मट्सार कर्मकाण्डके स्वाध्याय द्वारा कर्मसाहित्यका सम्यक बोध प्राप्त किया जा सकता है।
इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थमें १०१८ गाथाएँ हैं। यह करणानुयोगका प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसका आधार तिलोयपण्णत्ती' और 'सत्यार्थवार्तिक' हैं। ग्रन्थ निम्नलिखित अधिकारों में विभक्त है-
१. लोकसामान्याधिकार
२. भवनाधिकार
३. व्यन्तरलोकाधिकार
४. ज्योतिर्लोकाधिकार
५. वैमानिकलोकाधिकार
६. मनुष्य-तिर्यकलोकाधिकार
सामान्यलोकाधिकारमें २०७ गाथाएँ हैं। प्रारम्भमें लोकका स्वरूप बतलाया गया है। यह लोक अकृत्रिम है, अनादिनिधन है, स्वभावनिर्वृत्त है, जीवाजीवों से सहित है और नित्य है। इस लोकमें धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, जीवद्रव्य और पुद्गलद्रव्य जहाँ तक पाये जाते हैं, वहाँ तक लोक माना जाता है, उसके पश्चात् अलोकाकाश है और यह अनन्त है। लोकके कई आकार बतलाये गये हैं। अधोलोक अर्द्धमदंगके समान है, अर्द्धलोक मृदंगके तुल्य है। यह लोक १४ राजुप्रमाण है। लोकके स्वरूपनिरूपणके पश्चात 'मान'का वर्णन किया है। 'मान' दो प्रकारका है- लोक और लोकोत्तर। लौकिक 'मान’ के छह भेद हैं- १. मान २. उन्मान ३. अवमान ४. गणिमान ५. प्रतिमान और ६. तप्तप्रतिमान। गणनाके मूलतः तीन भेद हैं- १. संख्यात २. असंख्यात और ३. अनन्त। संख्यातका एक ही भेद है, और असंख्यातके तीन भेद है- १. परीतासंख्यात २. युक्तासंख्यात और ३. संख्यासासंख्यात। अनन्तके भी तीन भेद हैं- परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तान्त। इस प्रकार उपमाप्रमाण या गणनाके ३ + ३ + १ =७ भेद हैं और इन सातोंके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये तीन-तीन भेद होते हैं। इस प्रकार ७ × ३ = २१ भेद हुए। असंख्यात ज्ञानके निर्मित अनवस्था, शलाका, प्रतिशलाका और महाशलाका इन चार, कुण्डोंकी कल्पना की गयी है। इन कुण्डोंका व्यास एक लक्ष योजन प्रमाण और उत्सेध एक सहस्त्र योजन प्रमाण है। कुण्ड गोलाकार होते हैं। इन कुण्डोंमें दो आदिक सरसोंसे भरना अनवस्था कुण्ड है।
इस सन्दर्भमें गणना और संख्याकी परिभाषा भी बतायी गयी है। लिखा है-
एयादीया गणणा बोयादीया हवंति संस्खेज्जा।
सोयादीणं णियमा कदित्ति सण्णा मुणेदव्वा।
अर्थात् एकादिकको गणना, दो आदिकको संख्या एवं तीन आदिकको कृति कहते हैं। एक और दोमें कृतित्व नहीं है। यतः जिस संख्याके वर्गमेसे वर्गमूलको घटानेपर जो शेष रहे उसका वर्ग करनेपर उस संख्यासे अधिक राशिकी उपलब्धि हो, वही कृति है। यह कृतिधर्म तीन आदिक संख्याओंमें ही पाया जाता है। एकके संख्यात्वका भी निषेध आचार्य नेमिचन्द्रने किया है, क्योंकि एककी गिनती गणनासंख्यामें नहीं होती। कारण स्पष्ट है। एक घटको देखकर, यहाँ घट है, इसकी प्रतीति तो होती है, पर उसकी तादादके विषयमें कुछ ज्ञान नहीं होता। अथवा दान, समर्पणादि कालमें एक वस्तुकी प्रायः गिनती नहीं की जाती। इसका कारण असम व्यवहार, सम्भवव्यवहार का अभाव अथवा गिननेसे अल्पत्वका बोध होना है।
उपर्युक्त वक्तव्यका परीक्षण करनेपर ज्ञात होता है कि संख्या 'समूह'की जानकारी प्राप्त करनेके हेतु होती है। मनुष्यको उसके विकासकी प्रारम्भिक अवस्थासे ही इस प्रकारका आन्तरिक ज्ञान प्राप्त होता है, जिसे हम सम्बोधन अभावमें संख्याज्ञान कहते हैं। अतएव समूहगत प्रत्येक वस्तुकी पृथक-पृथक जानकारीके अभाव में समुहके मध्यमें होनेवाले परिवर्तनका बोध नहीं हो सकता है। समूहबोधकी क्षमता और गिननेकी क्षमता इन दोनों में पर्याप्त अन्तर है। गिनना सीखनेसे पूर्व मनुष्यने संख्याज्ञान प्राप्त किया होगा।
मनुष्यने समूहके बीच रहकर संख्याका बोध प्राप्त किया होगा। जब उसे दो समहोंको जोड़ने की आवश्यकता प्रतीत हुई होगी, तो धनचिह्न और धनात्मक संख्याएँ प्रादुर्भूत हुई होगी। संख्याज्ञानके अनन्तर मनुष्यने गिनना सीखा और गिनने के फलस्वरूप अंकगणितका आरम्भ हुआ। अंकका महत्व तभी व्यक्त होता है, जब हम कई समूहोंमें एक संख्याको पाते हैं। इस अवस्थामें उस अंककी भावना हमारे हृदयमें वस्तुओंसे पृथक् अंकित हो जाती है और फलस्वरूप हम वस्तुओंका बार-बार नाम न लेकर उनकी संख्याको व्यक्त करते हैं। इस प्रकार त्रिलोकसारमें संख्या, गणना, कृति आदिका स्वरूप निर्धारित किया है।
संख्याओंके दो भेद हैं- १. वास्तविक और २. अवास्तविक। वास्तविक संख्याएँ भी दो प्रकारकी हैं- संगत और असंगत। प्रथम प्रकारकी संख्याओंमें भिन्न राशियोंका समूह पाया जाता है और द्वितीय प्रकारकी संख्याओमें करणीगत राशियां निहित हैं। इन राशियोंके भी असंख्यात भेद हैं। आचार्य नेमिचन्द्रके संख्या-भेदोंको निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-
(अ) जघन्य-परीत-असंख्यात = स३+१
(आ) मध्यम-परीत-असंख्यात = स३ ∠ अ यु उ
(इ) उत्कृष्ट-परीत-असंख्यात = अ यु ज--१
(ई) जघन्य-युक्त-असंख्यात = (स उ + १) (स उ + १)
(उ) मध्यम-युक्त-असंख्यात = (स उ+१) (स उ+१) ∠ अ यु उ
(ऊ) उत्कृष्ट- युक्त-असंख्यात = अ यु उ = ऊ ऊ ज =१
(क) जधन्य- असंख्यातासंख्यात = (अ यु ज)२
(ख) मध्यम- असंख्यातासंख्यात = (अ यु ज)२ ∠ अ स उ
(ग) उत्कृष्ट- असंख्यातासंख्यात = अ प ज १
धलाटीकाम अनन्तके निम्नलिखित भेद वर्णित है-
(च) नामानन्त- वस्तुके यथार्थतः अनन्त होने या न होनेका विचार किये बिना ही उसका बहुत्व प्रकट करने के लिए अनन्तका प्रयोग करना नामानन्त है।
(छ) स्थापनानन्त- यथार्थतः अनन्त नहीं, किन्तु किसी संख्या में आरोपित अनन्त।
(ज) द्रव्यानन्त- तत्काल उपयोग न आते हए ज्ञानकी अपेक्षा अनन्त।
(झ) गणनानन्त- संस्थात्मक अनन्त।
(ञ) अप्रदेशिकानन्त- परिमाणहीन अनन्त।
(ट) एकानन्त- एक दिशात्मक अनन्त।
(ठ) विस्तारानन्त- द्विविस्तारात्मक- प्रतरात्मक अनन्ताकाश।
(ड) उभयानन्त- द्वीदिशात्मक अनन्त- एक सीधी रेखा, जो दोनों दिशाओंमें अनन्त तक जाती है।
(ट) सर्वानन्त- आकाशात्मक अनन्त।
(ण) भावानन्त- ज्ञानकी अपेक्षा अनन्त।
अनन्तके सामान्यतया १. परीतानन्त, २. युक्तानन्त, ३. अनन्तानन्त ये तीन भेद माने जाते हैं। इन तीनोंके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे तीन-तीन भेद होनेसे कुल नौ भेद हो जाते हैं। त्रिलोकसारमें उक्त ३ +६+ ९ = २१ भेद वर्णित हैं।
त्रिलोकसारमें धारासंख्याओंका भी कथन आया है। ये १४ प्रकारकी होती हैं-
१. सर्वधारा- १+२+३+४+ ५___अनन्तानन्त
२. समधारा- २+४+६+८+१०+१२+१४+१६+१८ ___+ न
३. विषमधारा- १+२-३, ४+ -१=५, ६+ -१ = ७, ८+ -१ = ९, १० + - १ = ११, १२+ - १ = १३, १४ + – १ = १५, १६+ -१ = १७, १८+ - १ = १५. न+ -१ = न तथा वि + -१ ___ क.
४. कृतिधारा- १२ - १, २२ = ४, ३२ =९, ४२ = १६, ५२ - २५, ६२ =३६, ७२ = ४९, ८२ =६४, ९२ = ८१, १०२-१००, ११२ = १२१, १२२ = १४४, १३२ = १६९. न२=
५. अकृतिधारा- २, ३, ५, ७, ८, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १७___न२ + - १ - नii
६. घनधारा= १३ - १, २३ = ८, ३३ = २७, ४३ = ६४, ५३ = १२५, ६३-२१६___.न३ =नii
७. अधनधारा- २, ३, ४, ५, ६, ७, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १९, २०, २१, २२, २३, २४,२५, २६, २८, ६३___नii न = नअ
८. कृतिमातृका या वर्गमातृका- १, २, ३, ५ ___ न२ = √न
९. अकृतिमातृका या अवर्गमातृका= √मू+ १, √मू+ २, √मू+३ √मू+ ५ व मू+ √मू+ न = न
१०. घनमातृका= १, २___न___ नi ___ नii___ नiii
११. अधनमातृका= ३ √मू+१ ३ √मू+२ ३ √मू+३ च___न.
१२. द्विरूपवर्गधारा- (२)१६ = ६५५३६, (२)३२ = (६५५३६) या ४२९४९६७२५६, (२)६४ = (४२९४९६७२९६)२ = १८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ (न)न = नछ
१३. द्विरूपचनधारा= (२)३, (४)३, (९)३......... (न२)३।
१४. द्विरूपचनाघनधारा= [(२)२]३ ___ [(४)३]३ ___ [न२]३]
इस प्रकार त्रिलोकसारमें १४ धाराओं के कथनके पश्चात् सामान्यलोकाधिकारमें ही वर्गशलाका, अर्द्धच्छेद, विच्छेद, चर्तुच्छेद आदिका भो कथन आया है। अर्द्धच्छेद गणितकी वर्तमानमें लघुगणकसिद्धान्त कहा गया है। अर्द्धच्छेदों द्वारा राशिज्ञान प्राप्त करनेके सिद्धान्तका विवेचन करते हुए त्रिलोकसारमें कई नियम आये हैं। इसी प्रकार कुण्डगणितके अनन्तर पल्प, सागर, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगच्छेणी, जगत्प्रतर और धनलोकका कथन आया है। पल्पके तीन भेद बतलाये हैं- १. व्यवहारपल्य २. उद्धारपल्य ३. और बद्धापल्य। इस प्रकार संख्याओंका विधान कर अधोलोकका क्षेत्र फल आठ आकृतियों द्वारा निकाला गया है। ये आकृतियाँ सामान्य, ऊर्द्धयित, तिगयित, धवमुरज, यदमध्य, मन्दर, दृष्य और गिरिकटक हैं। पिनष्टि क्षेत्रका क्षेत्रफल तो आश्चर्यजनक रीतिमें निकाला गया है। अघोलोकके पश्चात् उर्ध्वलोकका सामान्य वर्णन आया है और उसका भी क्षेत्रफल निकाला गया है। इसके पश्चात् त्रसनालीका कथन आया है। यह त्रसनालो एक राजु लम्बी और चौदह राजु चौड़ी होती है नरकों के पटलोंका कथन किया किया है। प्रथम नरकमें १३, द्वितीयमें ११, ततोयमें ९, चतुर्थ में ७, पंचममें ५, षष्टमें ३ और सप्तममें १ इन्द्रक है। पश्चात् नारकीय जीवोंके रहन-सहन, उनके क्षेत्रगत दुःख आदिका वर्णन किया है।
वस्तुतः इस ग्रंथमें जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, मानुषक्षेत्र, भवनवासियोंके रहनेके स्थान, आवास, भवन, आयु, परिवार आदिका विस्तृत वर्णन किया है। ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक, तारा एवं सूर्य, चन्द्रके आयु, विमान, गति, परिवार आदिका भी सांगोपांग वर्णन पाया जाता है। स्वर्गोंके सुख, विमान एवं वहाँ के निवासियोंकी शक्ति आदिका भी कथन आया है। त्रिलोकको रचनाके सम्बन्धमें सभी प्रकारकी जानकारी इस ग्रंथसे प्राप्त की जा सकती है।
आचार्य नेमिचन्द्रकी तीसरी रचना लब्धिसार है। यह भी गाथाबद्ध है। इसके दो संस्करण प्रकाशित है- एक रायचन्द्र शास्त्रमाला बम्बाईसे और दुसरा हरिभाई देवकरण ग्रंथमालासे। इस ग्रंथमे ६४९ गाथाएँ हैं। सर्व प्रथम सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्रकी लब्धि अर्थात् प्राप्तिका कथन होनेके कारण इसके नामकी सार्थकता बतलायी गयी है। सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति पांच लब्धियोंके प्राप्त होनेपर ही होती है। वे लब्धियाँ हैं- क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण। इनमें से प्रारम्भको बार लब्धियाँ तो सर्वसाधारण को होती रहती हैं, पर करणलब्धि सभीको नहीं होती। इसके प्राप्त होनेपर ही सम्यक्त्वका लाभ होता है। इन लब्धियोंका स्वरूप ग्रंथके प्रारम्भमें दिया है। अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणकी प्राप्तिको ही करनलब्धि कहा गया है। अनिवृत्ति करणके होने पर अन्तर्मुहूर्तके लिए प्रथमोपक्षम सम्यक्त्वका लाभ होता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्वके कालमें कम-से-कम एक समय और अधिक-से-अधिक छह आवली काल शेष रहनेपर यदि अनन्तान बन्धी कषायका उदय आ जाता है, तो जीव सम्यक्त्वसे च्युत होकर सासादन सम्यक्त्वी बन जाता है और उपशमसम्यक्त्वका काल पूरा होनेपर यदि मिथ्यात्वकर्मका उदय मा जाये, सो जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है। इस प्रकार १०९ गाथापर्यन्त प्रथमोपशमसम्यक्त्वका कथन है। इस प्रकरणमें ९९ वीं गाथा कषायपाहुडकी है और १०६, १०८ और १०९ वी गाथा गोम्मटसार जीवकाण्डकी।
गाथा ११० से क्षायिकसम्यक्त्वका कथन आरम्भ होता है। दर्शनमोहनीय कर्मका क्षय होनेसे क्षायिकसम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है, पर दर्शनमोहनीय कर्मके क्षयका प्रारम्भ कर्मभूमिका मनुष्य तीर्थंकरके पादमूलमें अथवा केवली. श्रुतकेवलीके पादमूलमें करता है और उसकी पूर्ति वहीं अथवा सौधर्मादि कल्पोंमें अथवा कल्पातीतदेवोंमें अथवा भोगभूमिमें अथवा नरकमैं करता है, क्योंकि श्रद्धायुष्क कृतकृत्यवेदक मरकर चारों गतियोंमें जन्म ले सकती है।
अनन्तानुबन्धीचतुष्क और दर्शनमोहनीयकी तीन, इन सात प्रकृतियोंके क्षयसे उत्पन्न हुआ क्षायिकसम्यक्त्व मेरुकी तरह निष्कम्प, अत्यन्त निर्मल और अक्षय होता है। क्षायिकसम्यग्दृष्टि उसी भदमें, तीसरे भवमें अथवा चौधे भवमें मुक्त हो जाता है। आयिकसम्यक्त्वके कथनके साथ दर्शनलब्धिका कथन भी समाप्त हो जाता है। चारित्रलब्धि एकदेश और सम्पूर्णके भेदसे दो प्रकारकी है। अनादिमिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वके साथ देशचारित्रको ग्रहण करता है और सादिमिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्व अथवा वेदकसम्यक्त्वके साथ देशचारित्रको धारण करता है।
सकलचारिके तीन भेद बनाये हैं--क्षायोपशयिक, औपशमिक और क्षायिक। क्षायोपशमिक चारित्र छट्ट और सातवें गुणस्थान में होता है। यह उपशम और वेदक दोनों ही प्रकारके सम्यषत्वोंके साथ उत्पन्न होता है। म्लेच्छ मनुष्य भी आर्य मनुष्योंके समान सकलसंयम धारण कर सकता है। इस प्रकार लब्धिसारमें, पांचों लब्धियोंका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है।
क्षपणासारमें ६५३ गाथाएँ है। यह भी गोम्मटसारका उत्तराध जैसा है। कर्मोंको क्षष करनेकी विधिका निरूपण इस ग्रन्थमें किया गया है। इसकी प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि माधवचन्द्र त्रैवेद्यने बाहुली मन्त्रीकी प्रार्थाना पर संस्कृत-टीका-लिखकर पूर्ण की है।
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती (आचार्य नेमिचन्द्रका समय ई. सनकी दशम शताब्दीका उत्तरार्द्ध या वि. सं. ११वीं शताब्दीका पूर्वार्द्ध है।)
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara- 2
Acharya Shri Nemichandra Siddhantchakravarti (Prachin) 10th /11th Century
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