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#patrakesarimaharajji
कवि और दार्शनिकके रूपमें सारस्वताचार्यों की परंपरा में पात्रकेसरीका नाम विख्यात है। आचार्य जिनसेनने अपने आदिपुराण में पात्रकेसरीका उल्लेख करते हुए लिखा है।
भट्टाकलङ्कश्रीपालपात्रकेसरिणां गुणाः।
विदुषां हृदयारूढा हारायन्तेऽतिनिर्मलाः॥
भट्टाकलङ्क, श्रीपाल और पात्रकेसरी आचार्यों के निर्मल गुण विद्वानोंके हृदयमें मणिमालाके समान सुशोभित होते हैं।
श्रवणबेलगोलाके अभिलेखसंख्या ५४ में 'त्रिलक्षणकदर्थम'के रचयिताके रूपमें पात्रकेसरीका स्मरण किया गया है-
महिमा स पात्रकेसरिंगुरोः परं भवति यस्य भक्त्यासीत्।
पद्मावती सहाया त्रिलक्षण-कदतर्थन कर्तुम्॥
प्रस्तुत मल्लिाषेण-प्रशस्ति शक संवत् १०५० वि. सं. ११८५ की है। अत: यह स्पष्ट है कि आचार्य जिनसेन तथा मल्लिषेण प्रशस्तिके लेखकके समय में पात्र केसरीका यश पर्याप्त प्रसृत था।
पात्रकेसरीका जन्म उच्चकुलीन ब्राह्मण वंशमें हुआ था। सम्भवतः ये किसी राजाके महामात्यपदपर प्रतिष्ठित थे। ब्राह्मण समाजमें इनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। आराधनाकथा-कोषमें लिखा है- "अहिच्छत्रके अवनिपाल राजाके राज्यमें ५०० ब्राह्मण रहते थे। इनमें पात्रकेसरी सबसे प्रमुख थे। इस नगरमें तीर्थंकर पार्श्वनाथका एक विशाल चैत्यालय था। पात्रकेसरी प्रतिदिन उस चैत्यालय में जाया करते थे। एक दिन वहां चारित्रभूषण मुनिके मुखसे स्वामी समन्तभद्के 'देवागम' स्तोत्रका पाठ सुनकर आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने मुनिराजसे स्तोत्रका अर्थ पूछा, पर मुनिराज अर्थ न बतला सके। पात्र केसरीने अपनी विलक्षण प्रतिभा द्वारा स्तोत्र कण्ठस्थ कर लिया और अर्थ विचारने लगे। जैसे-जैसे स्तोत्रका अर्थ स्पष्ट होने लगा वैसे-वैसे उनकी जैन तत्वोंपर श्रद्धा उत्पन्न होती गयी और अन्तमें उन्होंने जैनधर्म स्वीकार कर लिया। राज्यके अधिकारी पदको छोड़ उन्होंने मुनिपद धारण कर लिया। पर उन्हें हेतुके विषयमें सन्देह बना रहा और उस सन्देहको लिए हुये सो जाने पर रात्रिके अन्तिम प्रहरमें स्वप्न आया कि पार्श्वनाथके मन्दिरमें "फण' पर लिखा हुआ हेतुलक्षण प्राप्त हो जायगा। अतएव प्रातःकाल जब वे पार्श्वनाथके मन्दिर में पहुंचे तो वहाँ उस मूर्तिके 'फण' पर निम्न प्रकार हेतुलक्षण प्राप्त हुआ-
अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्॥
पात्रकेसरी हेतुलक्षणको अवगत कर असन्दिग्ध और दीक्षित हुए।
इस कथासे विदित है कि पात्रकेसरी उच्चकुलीन ब्राह्मण थे। स्वामी समन्तभद्रके 'देवागम' स्तोत्रको सुनकर इनको श्रद्धा जैनधर्मके प्रति जागृत हुई थी और जैनधर्ममें दीक्षित हो मुनि हो गये थे। कथाकोषके अनुसार इन्हें 'अहिच्छत्रका निवासी कहा गया है। ये द्रमिल-संघके आचार्य थे। शक संवत् १०५९ के बेल्लूर ताल्लुकेके शिलालेख नं. १७ में पात्रकेसरीका नाम आया है। इस अभिलेखमें समन्तभद्रस्वामीके बाद पात्रकेसरीको द्रमिल-संघका प्रधान आचार्य सूचित किया है। पात्रकेसरोके अनन्तर क्रमशः वकग्रीव, वज्रनन्दि, सुमतिभट्टारक (देव) और समयदोपक अकलङ्क नामके आचार्य हुए हैं।
अकलंकदेवके सिद्धीनिश्चयपर लिखनेवाले आचार्य अनन्तवीर्यने उनके 'स्वामी' पदका व्याख्यान करते हुए ही त्रिलक्षणकदर्थनके रचयिताके रूप में पात्रकेसरीका उल्लेख किया है। तत्त्वसंग्रह और उसकी टीका पंजिकामें पात्रस्वामीका निर्देश आया है और उनके वाक्योंको उद्धृत किया है।
अतः स्पष्ट है कि पात्रकेसरीका व्यक्तित्व तर्कके क्षेत्र में प्रसिद्ध रहा है।
पात्रकेसरीका 'त्रिलक्षणकदर्थन' नामका ग्रन्थ रहा है। इस ग्रन्थकी मीमांसा बौद्ध विद्वान् शान्तरक्षितने अपने तत्वसंग्नह नामक ग्रंथोंमें की है और शान्तरक्षितका समय ई. सन् ७०५-७६२ है। अतः पात्रकेसरीका समय इसके पूर्व है। डॉ. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने इनके समयका निर्धारण करते हुए लिखा है- ‘हेतुका त्रिलक्षणस्वरूप दिङ्नागने न्यायप्रवेशमें स्थापित किया है और उसका विस्तार धर्मकीर्तीने किया है। पात्रस्वामीका पुराना उल्लेख करनेवाले शान्तरक्षित और कणंगोमि है। अतः इनका समय दिङ्नाग (ई. ४२५) के बाद और शान्तरक्षितके मध्य में होना चाहिए। ये ई. सनकी छठवीं शताब्दोके उत्तराधं और सातवींके पूर्वार्धके विद्वान ज्ञात होते हैं।"
पात्रकेसरीका 'अन्यथानुपपश्रत्व' पद्म अकलंकदेवके न्यायविनिश्चयमें मुलमें भी मिलता है। अतः पात्रकेसरी अकलंकदेव (वि. ७ वीं शती) के पूर्ववर्ती हैं। अभिलेखोंमें समन्तभद्रके अनन्तर पात्रकेसरीका नाम आया है। अतः समन्तभद्र (३ री शती) के पश्चात् पात्रकेसरीका समय है। अर्थात् इनका समय विक्रम की छठी शताब्दीका उत्तरार्ध है।
इनकी दो रचनाएँ मानी जाती हैं- १ त्रिलक्षणकदर्थन और २ पात्रकेसरीस्तोत्र। त्रिलक्षणकदर्शनके तो मात्र उल्लेख मिलते हैं। वह उपलब्ध नहीं है। दूसरी कृति पात्रकेसरीस्तोत्र ही उपलब्ध है।
पात्रकेसरी स्तोत्र- इस स्तोत्रका दूसरा नाम 'जिनेन्द्रगुणसंस्तुति' भी है। समन्तभद्रके स्तोत्रोंके समान यह स्तोत्र भी न्यायशास्त्रका ग्रन्थ है। भ्रमवश कतिपय आलोचकोंने विद्यानन्द और पात्रकेसरीको एक व्यक्ति समझ लिया था, अत: पत्रिकेसरीस्तोत्र विद्यानन्दके नामसे प्रकाशित है। परन्तु आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने 'स्वामी विद्यानन्द और पात्रकेसरी' शीर्षक प्रबन्धमें सप्रमाण उक्त मान्यताका खण्डन किया है।'
प्रस्तुत स्तोत्रमें ५० पद्य हैं। अर्हन्त भगवानकी सयोगकेवली अवस्थाका बहुत ही गवेषणापूर्ण वर्णन प्रस्तुत किया है। वीतरागताका विस्तृत वर्णन करते हुए पात्रस्वामीने कहा है-
जिनेन्द्र! गुणसंस्तुतिस्सव मनागपि प्रस्तुता
भवत्यखिलकर्मणां प्रहत्तये पर कारणम्।
इति व्यवसिता मतिर्मम ततोहमत्यादरात,
स्फुटार्थनयपेशलां सुगत! संविधास्ये स्तुतिम्॥
हे भगवन् ! आपके गुणोंकी जो थोड़ी भी स्तुति करता है उसके लिए वह स्तुति समस्त कार्यो में आनेवाले विघ्नोंके विध्वंसका कारण बनती है अथवा समस्त कर्मों के नाश करने में सक्षम है। इस निश्चयसे प्रेरित होकर मैं अत्यन्त आदरपूर्वक नयगर्भित स्फुट अर्थवाली स्तुतिको करता हूँ।
इस प्रतिज्ञावाक्यक अनन्तर आराध्यदेवकी स्तुति प्रारम्भ की है। वीतरागीके ज्ञान और संयमका विवेचन कई प्रकारसे किया है। वीतरागीका शासन परस्पर विरोधरहित और सभी प्राणियोंके लिए हितसाधक होता है। अर्हंत परमेष्ठी उच्चकोटिके तत्वचिन्तक एव स्याद्वादनयगर्भित उपदेश देनेवाले हैं। अतएव जिसने वीतरागीकी शरण प्राप्त कर ली है, उसे रागादिजन्य वेदना व्याप्त नहीं करती। राग, द्वेष और मोह ही संसारमें भय उत्पन्न करनेवाले हैं, जिसने उक्त विकारोंको नष्ट कर दिया है, वही त्रिभुवनाधिपति होता है। समस्त आरम्भ और परिग्रहके बन्धनसे मुक्त होनेके कारण वीतरागी अर्हंतमें ही आप्तता रहती है। एकान्तवादसे दुष्ट चित्तवाले व्यक्ति आपके आनन्त्य गुणोंकी थाह नहीं पा सकते हैं। इस सन्दर्भमें यह स्मरणीय है कि यहाँ नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक आदि मतों और उनके अभिमत आप्तकी भी समीक्षा की गयी है। सर्वज्ञसिद्धिके साथ सग्रन्थता और कवलाहारका निरसन भी किया गया है। रचना बड़ी ही भावपूर्ण और प्रौढ़ है।
२. त्रिलक्षणकदर्थन- इस ग्रन्थम बौद्धों द्वारा प्रतिपादित पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षादव्यावृतिरूप हेतुके त्रैरूप्यका खण्डन कर 'अन्यथानुपपन्नस्व' रूप हेतुका समर्थन किया गया है। इस ग्रंथके उद्धरण शान्तरक्षितके तत्वसंग्रह, अकलंकके सिद्धिविनिश्चय तथा न्यायविनिश्चय, विद्यानन्दके तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक एवं उत्तरवर्ती आचार्यों के ग्रन्थों में पाये जाते हैं।
प्रतिभा एवं वैदुष्य- पात्रकेसरी न्यायके निष्णात विद्वान् थे। अत: इनके स्तोत्रमें भी दार्शनिक मान्यताएँ समाहित हैं। संस्कृतिके मूलस्रोत श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र ही हैं। अतः नेयायिक कवि भी प्रधानतः संस्कृतिके उन्नायक होते हैं। वे तर्कपूर्ण शेशीमें विभिन्न मान्यताओंकी समीक्षा करते हुए उन्नत विचारों और उदात्त भावोंका समावेश करते हैं। जिस आराध्यके प्रति ये श्रद्धावनत होते हैं, उसके गुणोंको दर्शनकी कसौटी पर कसकर काव्य-भावनाके रूपमें प्रस्तुत करते हैं। पात्रस्वामीमें दार्शनिक विचारोंके साथ कोमल तथा भक्तिपूरित हृदयकी अभिव्यक्ति वर्तमान है। यद्यपि दीनताकी भावना कहीं भी नहीं है तो भी अर्हन्तकी दिव्य-विभूतियोंके दर्शनसे कविके रूपमें आचार्य चकित हैं। उनकी वीतरागताके प्रति अपार श्रद्धा है। अतः भक्त कविके समान भक्तिविभोर हो आराध्यके चरणोंमें अपनेको समर्पित करनेकी इच्छा व्यक्त करते है। प्रमाण, हेतु, नय, और स्याद्वादका विवेचन भी सर्वत्र होता गया है।
भूत चैतन्यवादका निरसन करते हुए कविने उसके सिद्धान्तपक्षके स्फोटनमें प्रबन्धात्मकता प्रदर्शित की है। इसी प्रकार सांख्य-सिद्धान्तके प्रकृति-पुरुष वादमीमांसामें भी प्रबन्धसूत्र विद्यमान हैं। आराध्यके स्वरूपविवेचनमें कविने तर्कके साथ इतिवृत्तात्मकता का सफल निर्वाह किया है।
न मृत्युरपि विद्यते प्रकृतिमानुषस्येव ते,
मृतस्य परिमिलिन मा पुनर्जन्मवत्।
जरा च न हि यद्धपुर्विमलकेवलोत्पत्तित्तः,
प्रभृत्यरुजमेकरूपमतिष्ठते प्राङ् मृते:।।
हे प्रभो ! साधारण मनुष्योंके समान आपकी मृत्यु भी नहीं होती है। यतः जन्ममरण होनेसे निर्वाणकी स्थिति घटित नहीं हो सकती है। अतएव न आपका पुनर्जन्म होता है, न मरण। अतएव आप जन्ममरणातीत हैं। निर्मल केवलज्ञान की उत्पत्ति होनेसे जरा- वृद्धावस्थाजन्य कष्ट भी प्राप्त नहीं होता है। यत: वृद्धावस्थाका होना ही सम्भव नहीं है। और न कभी रोगका ही कष्ट आपको होता है। घातियाकमोंके नष्ट होते ही आप जन्म, जरा, मरणसे मुक्त हो जाते हैं।
तीर्थंकरमें लौकिक अभ्युदयके साथ नि:स्संगत- अपरिग्रहता भी पायी जाती है। अभ्युदय और अपरिग्रह ये दोनों विरोधी धर्म हैं। अत: एकाश्रयमें इन दोनोंका साहचर्य किस प्रकार सम्भव है? इसी तथ्यको लेकर कविने विरोधाभास अलङ्कार द्वारा अहन्तके गुणोंपर प्रकाश डाला है-
सुरेन्द्रपरिकल्पितं बृहदनर्घ्यसिंहासन',
तथाऽतपनिवारणत्रयमयोल्लसच्चामरम्।
वशं च भुवनत्रयं निरूपमा च नि:संगता,
न संगतमिदं द्वयं त्वयि तथापि संगच्छते।।
इन्द्र द्वारा प्रदत्त बहुमूल्य सिंहासन, आतप दूर करने के लिये छत्रत्रय और चामर सुशोभित होते हैं। त्रिलोककी अन्तरंग और बहिरंग लक्ष्मी आपको प्राप्त है। तो भी आप अपरिग्रही हैं। लक्षमीका सद्भाव और अपरिग्रहत्व ये दोनों विरोधी धर्म हैं, एक साथ नहीं रह सकते हैं, तो भी ये दोनों आपमें पाये जाते हैं। तात्पर्य यह है कि वीतरागी प्रभुके अन्तरंग रूप में केवलज्ञानादि लक्ष्मी है और बहिरंगमें देवों द्वारा किये गये अतिशयोंके कारण सिंहासन, छत्र, चमर, आदि वैभव विद्यमान है। अतएव उसका अपरिग्रहत्यके साथ किसी भी प्रकार का विरोध नहीं है।
पात्रकेसरिस्तोत्रके अध्ययनसे इनकी प्रतिभा और वैदुष्यका सहजमें परिज्ञान प्राप्त हो जाता है। कविने परस्मैपदी क्रियाओंके स्थानमें संविधास्ये, संगच्छते, विरुष्यते, अश्नुते, उपपद्यते, परिपूज्यते, नरीनृत्यते, विद्यते, उह्यते', छिद्यत, युज्यते", अनुषज्यते, गम्यते एवं चेष्टते आदि आत्मनेपदी क्रियापद प्रयुक्त किये हैं। इन क्रियापदोंसे यह अनुमान होता है कि आचार्य पात्रकेसरी विविध वादोंकी समीक्षा कर स्वमतकी स्थापना करना चाहते हैं। यतः आत्मनेपदी क्रियाएँ 'स्व'की अभिव्यंजनाके लिये आती हैं। जहाँ स्तोत्रोंमें स्तोता अपने हृदयको खोलकर रख देता है और अपने समस्त दोष और आवरणोंको स्वीकार करता है वहाँ आत्मनेपदो क्रियाओंका व्यवहार किया जाता है। परस्मैपदी क्रियाएं परस्मै- परार्थ- परबोधक पदम् अर्थात् जहाँ परका भाव अभिव्यक्त करना होता है वहाँ प्रायः परस्मैपदी क्रियाओंका व्यवहार किया जाता है।
जो कवि या लेखक सावधान रहकर रचना करता है वह परस्मैपदी और आत्मनेपदी क्रियाओंके भेदोंपर ध्यान रखता है। सामान्यत: जहाँ 'स्व' और 'पर’ का मिश्रित भाव अभिव्यक्त करना होता है वहाँ आत्मनेपदी क्रियाएँ व्यवहारमें आती हैं।
आचार्य पात्रस्वामीका न्यायविषयपर भी अपूर्व अधिकार है। उनके विलक्षणकदर्थनके न मिलनेपर भी उसके वाक्यों के ग्रन्थान्तरोंमें उपलब्ध होने तथा उपयुक्त स्तोत्रसे न्याविषयक परिज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। यहाँ स्तारमे उदाहरणार्थ एक पद्य प्रस्तुत है-
न हीन्द्रियधिया विरोधि न च लिंगबुद्धया वचो,
न चाप्यनुमतेन ते सुनयसप्तधा योजितम्।
व्यपेतपरिशङ्कन वितथकारणादर्शना
दत्तोऽपि भगवेस्त्वमेव परमेष्ठितायाः पदम्।।
सारस्वताचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन ।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन ।
कवि और दार्शनिकके रूपमें सारस्वताचार्यों की परंपरा में पात्रकेसरीका नाम विख्यात है। आचार्य जिनसेनने अपने आदिपुराण में पात्रकेसरीका उल्लेख करते हुए लिखा है।
भट्टाकलङ्कश्रीपालपात्रकेसरिणां गुणाः।
विदुषां हृदयारूढा हारायन्तेऽतिनिर्मलाः॥
भट्टाकलङ्क, श्रीपाल और पात्रकेसरी आचार्यों के निर्मल गुण विद्वानोंके हृदयमें मणिमालाके समान सुशोभित होते हैं।
श्रवणबेलगोलाके अभिलेखसंख्या ५४ में 'त्रिलक्षणकदर्थम'के रचयिताके रूपमें पात्रकेसरीका स्मरण किया गया है-
महिमा स पात्रकेसरिंगुरोः परं भवति यस्य भक्त्यासीत्।
पद्मावती सहाया त्रिलक्षण-कदतर्थन कर्तुम्॥
प्रस्तुत मल्लिाषेण-प्रशस्ति शक संवत् १०५० वि. सं. ११८५ की है। अत: यह स्पष्ट है कि आचार्य जिनसेन तथा मल्लिषेण प्रशस्तिके लेखकके समय में पात्र केसरीका यश पर्याप्त प्रसृत था।
पात्रकेसरीका जन्म उच्चकुलीन ब्राह्मण वंशमें हुआ था। सम्भवतः ये किसी राजाके महामात्यपदपर प्रतिष्ठित थे। ब्राह्मण समाजमें इनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। आराधनाकथा-कोषमें लिखा है- "अहिच्छत्रके अवनिपाल राजाके राज्यमें ५०० ब्राह्मण रहते थे। इनमें पात्रकेसरी सबसे प्रमुख थे। इस नगरमें तीर्थंकर पार्श्वनाथका एक विशाल चैत्यालय था। पात्रकेसरी प्रतिदिन उस चैत्यालय में जाया करते थे। एक दिन वहां चारित्रभूषण मुनिके मुखसे स्वामी समन्तभद्के 'देवागम' स्तोत्रका पाठ सुनकर आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने मुनिराजसे स्तोत्रका अर्थ पूछा, पर मुनिराज अर्थ न बतला सके। पात्र केसरीने अपनी विलक्षण प्रतिभा द्वारा स्तोत्र कण्ठस्थ कर लिया और अर्थ विचारने लगे। जैसे-जैसे स्तोत्रका अर्थ स्पष्ट होने लगा वैसे-वैसे उनकी जैन तत्वोंपर श्रद्धा उत्पन्न होती गयी और अन्तमें उन्होंने जैनधर्म स्वीकार कर लिया। राज्यके अधिकारी पदको छोड़ उन्होंने मुनिपद धारण कर लिया। पर उन्हें हेतुके विषयमें सन्देह बना रहा और उस सन्देहको लिए हुये सो जाने पर रात्रिके अन्तिम प्रहरमें स्वप्न आया कि पार्श्वनाथके मन्दिरमें "फण' पर लिखा हुआ हेतुलक्षण प्राप्त हो जायगा। अतएव प्रातःकाल जब वे पार्श्वनाथके मन्दिर में पहुंचे तो वहाँ उस मूर्तिके 'फण' पर निम्न प्रकार हेतुलक्षण प्राप्त हुआ-
अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्॥
पात्रकेसरी हेतुलक्षणको अवगत कर असन्दिग्ध और दीक्षित हुए।
इस कथासे विदित है कि पात्रकेसरी उच्चकुलीन ब्राह्मण थे। स्वामी समन्तभद्रके 'देवागम' स्तोत्रको सुनकर इनको श्रद्धा जैनधर्मके प्रति जागृत हुई थी और जैनधर्ममें दीक्षित हो मुनि हो गये थे। कथाकोषके अनुसार इन्हें 'अहिच्छत्रका निवासी कहा गया है। ये द्रमिल-संघके आचार्य थे। शक संवत् १०५९ के बेल्लूर ताल्लुकेके शिलालेख नं. १७ में पात्रकेसरीका नाम आया है। इस अभिलेखमें समन्तभद्रस्वामीके बाद पात्रकेसरीको द्रमिल-संघका प्रधान आचार्य सूचित किया है। पात्रकेसरोके अनन्तर क्रमशः वकग्रीव, वज्रनन्दि, सुमतिभट्टारक (देव) और समयदोपक अकलङ्क नामके आचार्य हुए हैं।
अकलंकदेवके सिद्धीनिश्चयपर लिखनेवाले आचार्य अनन्तवीर्यने उनके 'स्वामी' पदका व्याख्यान करते हुए ही त्रिलक्षणकदर्थनके रचयिताके रूप में पात्रकेसरीका उल्लेख किया है। तत्त्वसंग्रह और उसकी टीका पंजिकामें पात्रस्वामीका निर्देश आया है और उनके वाक्योंको उद्धृत किया है।
अतः स्पष्ट है कि पात्रकेसरीका व्यक्तित्व तर्कके क्षेत्र में प्रसिद्ध रहा है।
पात्रकेसरीका 'त्रिलक्षणकदर्थन' नामका ग्रन्थ रहा है। इस ग्रन्थकी मीमांसा बौद्ध विद्वान् शान्तरक्षितने अपने तत्वसंग्नह नामक ग्रंथोंमें की है और शान्तरक्षितका समय ई. सन् ७०५-७६२ है। अतः पात्रकेसरीका समय इसके पूर्व है। डॉ. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने इनके समयका निर्धारण करते हुए लिखा है- ‘हेतुका त्रिलक्षणस्वरूप दिङ्नागने न्यायप्रवेशमें स्थापित किया है और उसका विस्तार धर्मकीर्तीने किया है। पात्रस्वामीका पुराना उल्लेख करनेवाले शान्तरक्षित और कणंगोमि है। अतः इनका समय दिङ्नाग (ई. ४२५) के बाद और शान्तरक्षितके मध्य में होना चाहिए। ये ई. सनकी छठवीं शताब्दोके उत्तराधं और सातवींके पूर्वार्धके विद्वान ज्ञात होते हैं।"
पात्रकेसरीका 'अन्यथानुपपश्रत्व' पद्म अकलंकदेवके न्यायविनिश्चयमें मुलमें भी मिलता है। अतः पात्रकेसरी अकलंकदेव (वि. ७ वीं शती) के पूर्ववर्ती हैं। अभिलेखोंमें समन्तभद्रके अनन्तर पात्रकेसरीका नाम आया है। अतः समन्तभद्र (३ री शती) के पश्चात् पात्रकेसरीका समय है। अर्थात् इनका समय विक्रम की छठी शताब्दीका उत्तरार्ध है।
इनकी दो रचनाएँ मानी जाती हैं- १ त्रिलक्षणकदर्थन और २ पात्रकेसरीस्तोत्र। त्रिलक्षणकदर्शनके तो मात्र उल्लेख मिलते हैं। वह उपलब्ध नहीं है। दूसरी कृति पात्रकेसरीस्तोत्र ही उपलब्ध है।
पात्रकेसरी स्तोत्र- इस स्तोत्रका दूसरा नाम 'जिनेन्द्रगुणसंस्तुति' भी है। समन्तभद्रके स्तोत्रोंके समान यह स्तोत्र भी न्यायशास्त्रका ग्रन्थ है। भ्रमवश कतिपय आलोचकोंने विद्यानन्द और पात्रकेसरीको एक व्यक्ति समझ लिया था, अत: पत्रिकेसरीस्तोत्र विद्यानन्दके नामसे प्रकाशित है। परन्तु आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने 'स्वामी विद्यानन्द और पात्रकेसरी' शीर्षक प्रबन्धमें सप्रमाण उक्त मान्यताका खण्डन किया है।'
प्रस्तुत स्तोत्रमें ५० पद्य हैं। अर्हन्त भगवानकी सयोगकेवली अवस्थाका बहुत ही गवेषणापूर्ण वर्णन प्रस्तुत किया है। वीतरागताका विस्तृत वर्णन करते हुए पात्रस्वामीने कहा है-
जिनेन्द्र! गुणसंस्तुतिस्सव मनागपि प्रस्तुता
भवत्यखिलकर्मणां प्रहत्तये पर कारणम्।
इति व्यवसिता मतिर्मम ततोहमत्यादरात,
स्फुटार्थनयपेशलां सुगत! संविधास्ये स्तुतिम्॥
हे भगवन् ! आपके गुणोंकी जो थोड़ी भी स्तुति करता है उसके लिए वह स्तुति समस्त कार्यो में आनेवाले विघ्नोंके विध्वंसका कारण बनती है अथवा समस्त कर्मों के नाश करने में सक्षम है। इस निश्चयसे प्रेरित होकर मैं अत्यन्त आदरपूर्वक नयगर्भित स्फुट अर्थवाली स्तुतिको करता हूँ।
इस प्रतिज्ञावाक्यक अनन्तर आराध्यदेवकी स्तुति प्रारम्भ की है। वीतरागीके ज्ञान और संयमका विवेचन कई प्रकारसे किया है। वीतरागीका शासन परस्पर विरोधरहित और सभी प्राणियोंके लिए हितसाधक होता है। अर्हंत परमेष्ठी उच्चकोटिके तत्वचिन्तक एव स्याद्वादनयगर्भित उपदेश देनेवाले हैं। अतएव जिसने वीतरागीकी शरण प्राप्त कर ली है, उसे रागादिजन्य वेदना व्याप्त नहीं करती। राग, द्वेष और मोह ही संसारमें भय उत्पन्न करनेवाले हैं, जिसने उक्त विकारोंको नष्ट कर दिया है, वही त्रिभुवनाधिपति होता है। समस्त आरम्भ और परिग्रहके बन्धनसे मुक्त होनेके कारण वीतरागी अर्हंतमें ही आप्तता रहती है। एकान्तवादसे दुष्ट चित्तवाले व्यक्ति आपके आनन्त्य गुणोंकी थाह नहीं पा सकते हैं। इस सन्दर्भमें यह स्मरणीय है कि यहाँ नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक आदि मतों और उनके अभिमत आप्तकी भी समीक्षा की गयी है। सर्वज्ञसिद्धिके साथ सग्रन्थता और कवलाहारका निरसन भी किया गया है। रचना बड़ी ही भावपूर्ण और प्रौढ़ है।
२. त्रिलक्षणकदर्थन- इस ग्रन्थम बौद्धों द्वारा प्रतिपादित पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षादव्यावृतिरूप हेतुके त्रैरूप्यका खण्डन कर 'अन्यथानुपपन्नस्व' रूप हेतुका समर्थन किया गया है। इस ग्रंथके उद्धरण शान्तरक्षितके तत्वसंग्रह, अकलंकके सिद्धिविनिश्चय तथा न्यायविनिश्चय, विद्यानन्दके तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक एवं उत्तरवर्ती आचार्यों के ग्रन्थों में पाये जाते हैं।
प्रतिभा एवं वैदुष्य- पात्रकेसरी न्यायके निष्णात विद्वान् थे। अत: इनके स्तोत्रमें भी दार्शनिक मान्यताएँ समाहित हैं। संस्कृतिके मूलस्रोत श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र ही हैं। अतः नेयायिक कवि भी प्रधानतः संस्कृतिके उन्नायक होते हैं। वे तर्कपूर्ण शेशीमें विभिन्न मान्यताओंकी समीक्षा करते हुए उन्नत विचारों और उदात्त भावोंका समावेश करते हैं। जिस आराध्यके प्रति ये श्रद्धावनत होते हैं, उसके गुणोंको दर्शनकी कसौटी पर कसकर काव्य-भावनाके रूपमें प्रस्तुत करते हैं। पात्रस्वामीमें दार्शनिक विचारोंके साथ कोमल तथा भक्तिपूरित हृदयकी अभिव्यक्ति वर्तमान है। यद्यपि दीनताकी भावना कहीं भी नहीं है तो भी अर्हन्तकी दिव्य-विभूतियोंके दर्शनसे कविके रूपमें आचार्य चकित हैं। उनकी वीतरागताके प्रति अपार श्रद्धा है। अतः भक्त कविके समान भक्तिविभोर हो आराध्यके चरणोंमें अपनेको समर्पित करनेकी इच्छा व्यक्त करते है। प्रमाण, हेतु, नय, और स्याद्वादका विवेचन भी सर्वत्र होता गया है।
भूत चैतन्यवादका निरसन करते हुए कविने उसके सिद्धान्तपक्षके स्फोटनमें प्रबन्धात्मकता प्रदर्शित की है। इसी प्रकार सांख्य-सिद्धान्तके प्रकृति-पुरुष वादमीमांसामें भी प्रबन्धसूत्र विद्यमान हैं। आराध्यके स्वरूपविवेचनमें कविने तर्कके साथ इतिवृत्तात्मकता का सफल निर्वाह किया है।
न मृत्युरपि विद्यते प्रकृतिमानुषस्येव ते,
मृतस्य परिमिलिन मा पुनर्जन्मवत्।
जरा च न हि यद्धपुर्विमलकेवलोत्पत्तित्तः,
प्रभृत्यरुजमेकरूपमतिष्ठते प्राङ् मृते:।।
हे प्रभो ! साधारण मनुष्योंके समान आपकी मृत्यु भी नहीं होती है। यतः जन्ममरण होनेसे निर्वाणकी स्थिति घटित नहीं हो सकती है। अतएव न आपका पुनर्जन्म होता है, न मरण। अतएव आप जन्ममरणातीत हैं। निर्मल केवलज्ञान की उत्पत्ति होनेसे जरा- वृद्धावस्थाजन्य कष्ट भी प्राप्त नहीं होता है। यत: वृद्धावस्थाका होना ही सम्भव नहीं है। और न कभी रोगका ही कष्ट आपको होता है। घातियाकमोंके नष्ट होते ही आप जन्म, जरा, मरणसे मुक्त हो जाते हैं।
तीर्थंकरमें लौकिक अभ्युदयके साथ नि:स्संगत- अपरिग्रहता भी पायी जाती है। अभ्युदय और अपरिग्रह ये दोनों विरोधी धर्म हैं। अत: एकाश्रयमें इन दोनोंका साहचर्य किस प्रकार सम्भव है? इसी तथ्यको लेकर कविने विरोधाभास अलङ्कार द्वारा अहन्तके गुणोंपर प्रकाश डाला है-
सुरेन्द्रपरिकल्पितं बृहदनर्घ्यसिंहासन',
तथाऽतपनिवारणत्रयमयोल्लसच्चामरम्।
वशं च भुवनत्रयं निरूपमा च नि:संगता,
न संगतमिदं द्वयं त्वयि तथापि संगच्छते।।
इन्द्र द्वारा प्रदत्त बहुमूल्य सिंहासन, आतप दूर करने के लिये छत्रत्रय और चामर सुशोभित होते हैं। त्रिलोककी अन्तरंग और बहिरंग लक्ष्मी आपको प्राप्त है। तो भी आप अपरिग्रही हैं। लक्षमीका सद्भाव और अपरिग्रहत्व ये दोनों विरोधी धर्म हैं, एक साथ नहीं रह सकते हैं, तो भी ये दोनों आपमें पाये जाते हैं। तात्पर्य यह है कि वीतरागी प्रभुके अन्तरंग रूप में केवलज्ञानादि लक्ष्मी है और बहिरंगमें देवों द्वारा किये गये अतिशयोंके कारण सिंहासन, छत्र, चमर, आदि वैभव विद्यमान है। अतएव उसका अपरिग्रहत्यके साथ किसी भी प्रकार का विरोध नहीं है।
पात्रकेसरिस्तोत्रके अध्ययनसे इनकी प्रतिभा और वैदुष्यका सहजमें परिज्ञान प्राप्त हो जाता है। कविने परस्मैपदी क्रियाओंके स्थानमें संविधास्ये, संगच्छते, विरुष्यते, अश्नुते, उपपद्यते, परिपूज्यते, नरीनृत्यते, विद्यते, उह्यते', छिद्यत, युज्यते", अनुषज्यते, गम्यते एवं चेष्टते आदि आत्मनेपदी क्रियापद प्रयुक्त किये हैं। इन क्रियापदोंसे यह अनुमान होता है कि आचार्य पात्रकेसरी विविध वादोंकी समीक्षा कर स्वमतकी स्थापना करना चाहते हैं। यतः आत्मनेपदी क्रियाएँ 'स्व'की अभिव्यंजनाके लिये आती हैं। जहाँ स्तोत्रोंमें स्तोता अपने हृदयको खोलकर रख देता है और अपने समस्त दोष और आवरणोंको स्वीकार करता है वहाँ आत्मनेपदो क्रियाओंका व्यवहार किया जाता है। परस्मैपदी क्रियाएं परस्मै- परार्थ- परबोधक पदम् अर्थात् जहाँ परका भाव अभिव्यक्त करना होता है वहाँ प्रायः परस्मैपदी क्रियाओंका व्यवहार किया जाता है।
जो कवि या लेखक सावधान रहकर रचना करता है वह परस्मैपदी और आत्मनेपदी क्रियाओंके भेदोंपर ध्यान रखता है। सामान्यत: जहाँ 'स्व' और 'पर’ का मिश्रित भाव अभिव्यक्त करना होता है वहाँ आत्मनेपदी क्रियाएँ व्यवहारमें आती हैं।
आचार्य पात्रस्वामीका न्यायविषयपर भी अपूर्व अधिकार है। उनके विलक्षणकदर्थनके न मिलनेपर भी उसके वाक्यों के ग्रन्थान्तरोंमें उपलब्ध होने तथा उपयुक्त स्तोत्रसे न्याविषयक परिज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। यहाँ स्तारमे उदाहरणार्थ एक पद्य प्रस्तुत है-
न हीन्द्रियधिया विरोधि न च लिंगबुद्धया वचो,
न चाप्यनुमतेन ते सुनयसप्तधा योजितम्।
व्यपेतपरिशङ्कन वितथकारणादर्शना
दत्तोऽपि भगवेस्त्वमेव परमेष्ठितायाः पदम्।।
सारस्वताचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन ।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन ।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
#patrakesarimaharajji
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री पत्रकेसरी अथवा पात्रास्वामी महाराज जी 6वीं/7वीं शताब्दी
कवि और दार्शनिकके रूपमें सारस्वताचार्यों की परंपरा में पात्रकेसरीका नाम विख्यात है। आचार्य जिनसेनने अपने आदिपुराण में पात्रकेसरीका उल्लेख करते हुए लिखा है।
भट्टाकलङ्कश्रीपालपात्रकेसरिणां गुणाः।
विदुषां हृदयारूढा हारायन्तेऽतिनिर्मलाः॥
भट्टाकलङ्क, श्रीपाल और पात्रकेसरी आचार्यों के निर्मल गुण विद्वानोंके हृदयमें मणिमालाके समान सुशोभित होते हैं।
श्रवणबेलगोलाके अभिलेखसंख्या ५४ में 'त्रिलक्षणकदर्थम'के रचयिताके रूपमें पात्रकेसरीका स्मरण किया गया है-
महिमा स पात्रकेसरिंगुरोः परं भवति यस्य भक्त्यासीत्।
पद्मावती सहाया त्रिलक्षण-कदतर्थन कर्तुम्॥
प्रस्तुत मल्लिाषेण-प्रशस्ति शक संवत् १०५० वि. सं. ११८५ की है। अत: यह स्पष्ट है कि आचार्य जिनसेन तथा मल्लिषेण प्रशस्तिके लेखकके समय में पात्र केसरीका यश पर्याप्त प्रसृत था।
पात्रकेसरीका जन्म उच्चकुलीन ब्राह्मण वंशमें हुआ था। सम्भवतः ये किसी राजाके महामात्यपदपर प्रतिष्ठित थे। ब्राह्मण समाजमें इनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। आराधनाकथा-कोषमें लिखा है- "अहिच्छत्रके अवनिपाल राजाके राज्यमें ५०० ब्राह्मण रहते थे। इनमें पात्रकेसरी सबसे प्रमुख थे। इस नगरमें तीर्थंकर पार्श्वनाथका एक विशाल चैत्यालय था। पात्रकेसरी प्रतिदिन उस चैत्यालय में जाया करते थे। एक दिन वहां चारित्रभूषण मुनिके मुखसे स्वामी समन्तभद्के 'देवागम' स्तोत्रका पाठ सुनकर आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने मुनिराजसे स्तोत्रका अर्थ पूछा, पर मुनिराज अर्थ न बतला सके। पात्र केसरीने अपनी विलक्षण प्रतिभा द्वारा स्तोत्र कण्ठस्थ कर लिया और अर्थ विचारने लगे। जैसे-जैसे स्तोत्रका अर्थ स्पष्ट होने लगा वैसे-वैसे उनकी जैन तत्वोंपर श्रद्धा उत्पन्न होती गयी और अन्तमें उन्होंने जैनधर्म स्वीकार कर लिया। राज्यके अधिकारी पदको छोड़ उन्होंने मुनिपद धारण कर लिया। पर उन्हें हेतुके विषयमें सन्देह बना रहा और उस सन्देहको लिए हुये सो जाने पर रात्रिके अन्तिम प्रहरमें स्वप्न आया कि पार्श्वनाथके मन्दिरमें "फण' पर लिखा हुआ हेतुलक्षण प्राप्त हो जायगा। अतएव प्रातःकाल जब वे पार्श्वनाथके मन्दिर में पहुंचे तो वहाँ उस मूर्तिके 'फण' पर निम्न प्रकार हेतुलक्षण प्राप्त हुआ-
अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्॥
पात्रकेसरी हेतुलक्षणको अवगत कर असन्दिग्ध और दीक्षित हुए।
इस कथासे विदित है कि पात्रकेसरी उच्चकुलीन ब्राह्मण थे। स्वामी समन्तभद्रके 'देवागम' स्तोत्रको सुनकर इनको श्रद्धा जैनधर्मके प्रति जागृत हुई थी और जैनधर्ममें दीक्षित हो मुनि हो गये थे। कथाकोषके अनुसार इन्हें 'अहिच्छत्रका निवासी कहा गया है। ये द्रमिल-संघके आचार्य थे। शक संवत् १०५९ के बेल्लूर ताल्लुकेके शिलालेख नं. १७ में पात्रकेसरीका नाम आया है। इस अभिलेखमें समन्तभद्रस्वामीके बाद पात्रकेसरीको द्रमिल-संघका प्रधान आचार्य सूचित किया है। पात्रकेसरोके अनन्तर क्रमशः वकग्रीव, वज्रनन्दि, सुमतिभट्टारक (देव) और समयदोपक अकलङ्क नामके आचार्य हुए हैं।
अकलंकदेवके सिद्धीनिश्चयपर लिखनेवाले आचार्य अनन्तवीर्यने उनके 'स्वामी' पदका व्याख्यान करते हुए ही त्रिलक्षणकदर्थनके रचयिताके रूप में पात्रकेसरीका उल्लेख किया है। तत्त्वसंग्रह और उसकी टीका पंजिकामें पात्रस्वामीका निर्देश आया है और उनके वाक्योंको उद्धृत किया है।
अतः स्पष्ट है कि पात्रकेसरीका व्यक्तित्व तर्कके क्षेत्र में प्रसिद्ध रहा है।
पात्रकेसरीका 'त्रिलक्षणकदर्थन' नामका ग्रन्थ रहा है। इस ग्रन्थकी मीमांसा बौद्ध विद्वान् शान्तरक्षितने अपने तत्वसंग्नह नामक ग्रंथोंमें की है और शान्तरक्षितका समय ई. सन् ७०५-७६२ है। अतः पात्रकेसरीका समय इसके पूर्व है। डॉ. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने इनके समयका निर्धारण करते हुए लिखा है- ‘हेतुका त्रिलक्षणस्वरूप दिङ्नागने न्यायप्रवेशमें स्थापित किया है और उसका विस्तार धर्मकीर्तीने किया है। पात्रस्वामीका पुराना उल्लेख करनेवाले शान्तरक्षित और कणंगोमि है। अतः इनका समय दिङ्नाग (ई. ४२५) के बाद और शान्तरक्षितके मध्य में होना चाहिए। ये ई. सनकी छठवीं शताब्दोके उत्तराधं और सातवींके पूर्वार्धके विद्वान ज्ञात होते हैं।"
पात्रकेसरीका 'अन्यथानुपपश्रत्व' पद्म अकलंकदेवके न्यायविनिश्चयमें मुलमें भी मिलता है। अतः पात्रकेसरी अकलंकदेव (वि. ७ वीं शती) के पूर्ववर्ती हैं। अभिलेखोंमें समन्तभद्रके अनन्तर पात्रकेसरीका नाम आया है। अतः समन्तभद्र (३ री शती) के पश्चात् पात्रकेसरीका समय है। अर्थात् इनका समय विक्रम की छठी शताब्दीका उत्तरार्ध है।
इनकी दो रचनाएँ मानी जाती हैं- १ त्रिलक्षणकदर्थन और २ पात्रकेसरीस्तोत्र। त्रिलक्षणकदर्शनके तो मात्र उल्लेख मिलते हैं। वह उपलब्ध नहीं है। दूसरी कृति पात्रकेसरीस्तोत्र ही उपलब्ध है।
पात्रकेसरी स्तोत्र- इस स्तोत्रका दूसरा नाम 'जिनेन्द्रगुणसंस्तुति' भी है। समन्तभद्रके स्तोत्रोंके समान यह स्तोत्र भी न्यायशास्त्रका ग्रन्थ है। भ्रमवश कतिपय आलोचकोंने विद्यानन्द और पात्रकेसरीको एक व्यक्ति समझ लिया था, अत: पत्रिकेसरीस्तोत्र विद्यानन्दके नामसे प्रकाशित है। परन्तु आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने 'स्वामी विद्यानन्द और पात्रकेसरी' शीर्षक प्रबन्धमें सप्रमाण उक्त मान्यताका खण्डन किया है।'
प्रस्तुत स्तोत्रमें ५० पद्य हैं। अर्हन्त भगवानकी सयोगकेवली अवस्थाका बहुत ही गवेषणापूर्ण वर्णन प्रस्तुत किया है। वीतरागताका विस्तृत वर्णन करते हुए पात्रस्वामीने कहा है-
जिनेन्द्र! गुणसंस्तुतिस्सव मनागपि प्रस्तुता
भवत्यखिलकर्मणां प्रहत्तये पर कारणम्।
इति व्यवसिता मतिर्मम ततोहमत्यादरात,
स्फुटार्थनयपेशलां सुगत! संविधास्ये स्तुतिम्॥
हे भगवन् ! आपके गुणोंकी जो थोड़ी भी स्तुति करता है उसके लिए वह स्तुति समस्त कार्यो में आनेवाले विघ्नोंके विध्वंसका कारण बनती है अथवा समस्त कर्मों के नाश करने में सक्षम है। इस निश्चयसे प्रेरित होकर मैं अत्यन्त आदरपूर्वक नयगर्भित स्फुट अर्थवाली स्तुतिको करता हूँ।
इस प्रतिज्ञावाक्यक अनन्तर आराध्यदेवकी स्तुति प्रारम्भ की है। वीतरागीके ज्ञान और संयमका विवेचन कई प्रकारसे किया है। वीतरागीका शासन परस्पर विरोधरहित और सभी प्राणियोंके लिए हितसाधक होता है। अर्हंत परमेष्ठी उच्चकोटिके तत्वचिन्तक एव स्याद्वादनयगर्भित उपदेश देनेवाले हैं। अतएव जिसने वीतरागीकी शरण प्राप्त कर ली है, उसे रागादिजन्य वेदना व्याप्त नहीं करती। राग, द्वेष और मोह ही संसारमें भय उत्पन्न करनेवाले हैं, जिसने उक्त विकारोंको नष्ट कर दिया है, वही त्रिभुवनाधिपति होता है। समस्त आरम्भ और परिग्रहके बन्धनसे मुक्त होनेके कारण वीतरागी अर्हंतमें ही आप्तता रहती है। एकान्तवादसे दुष्ट चित्तवाले व्यक्ति आपके आनन्त्य गुणोंकी थाह नहीं पा सकते हैं। इस सन्दर्भमें यह स्मरणीय है कि यहाँ नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक आदि मतों और उनके अभिमत आप्तकी भी समीक्षा की गयी है। सर्वज्ञसिद्धिके साथ सग्रन्थता और कवलाहारका निरसन भी किया गया है। रचना बड़ी ही भावपूर्ण और प्रौढ़ है।
२. त्रिलक्षणकदर्थन- इस ग्रन्थम बौद्धों द्वारा प्रतिपादित पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षादव्यावृतिरूप हेतुके त्रैरूप्यका खण्डन कर 'अन्यथानुपपन्नस्व' रूप हेतुका समर्थन किया गया है। इस ग्रंथके उद्धरण शान्तरक्षितके तत्वसंग्रह, अकलंकके सिद्धिविनिश्चय तथा न्यायविनिश्चय, विद्यानन्दके तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक एवं उत्तरवर्ती आचार्यों के ग्रन्थों में पाये जाते हैं।
प्रतिभा एवं वैदुष्य- पात्रकेसरी न्यायके निष्णात विद्वान् थे। अत: इनके स्तोत्रमें भी दार्शनिक मान्यताएँ समाहित हैं। संस्कृतिके मूलस्रोत श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र ही हैं। अतः नेयायिक कवि भी प्रधानतः संस्कृतिके उन्नायक होते हैं। वे तर्कपूर्ण शेशीमें विभिन्न मान्यताओंकी समीक्षा करते हुए उन्नत विचारों और उदात्त भावोंका समावेश करते हैं। जिस आराध्यके प्रति ये श्रद्धावनत होते हैं, उसके गुणोंको दर्शनकी कसौटी पर कसकर काव्य-भावनाके रूपमें प्रस्तुत करते हैं। पात्रस्वामीमें दार्शनिक विचारोंके साथ कोमल तथा भक्तिपूरित हृदयकी अभिव्यक्ति वर्तमान है। यद्यपि दीनताकी भावना कहीं भी नहीं है तो भी अर्हन्तकी दिव्य-विभूतियोंके दर्शनसे कविके रूपमें आचार्य चकित हैं। उनकी वीतरागताके प्रति अपार श्रद्धा है। अतः भक्त कविके समान भक्तिविभोर हो आराध्यके चरणोंमें अपनेको समर्पित करनेकी इच्छा व्यक्त करते है। प्रमाण, हेतु, नय, और स्याद्वादका विवेचन भी सर्वत्र होता गया है।
भूत चैतन्यवादका निरसन करते हुए कविने उसके सिद्धान्तपक्षके स्फोटनमें प्रबन्धात्मकता प्रदर्शित की है। इसी प्रकार सांख्य-सिद्धान्तके प्रकृति-पुरुष वादमीमांसामें भी प्रबन्धसूत्र विद्यमान हैं। आराध्यके स्वरूपविवेचनमें कविने तर्कके साथ इतिवृत्तात्मकता का सफल निर्वाह किया है।
न मृत्युरपि विद्यते प्रकृतिमानुषस्येव ते,
मृतस्य परिमिलिन मा पुनर्जन्मवत्।
जरा च न हि यद्धपुर्विमलकेवलोत्पत्तित्तः,
प्रभृत्यरुजमेकरूपमतिष्ठते प्राङ् मृते:।।
हे प्रभो ! साधारण मनुष्योंके समान आपकी मृत्यु भी नहीं होती है। यतः जन्ममरण होनेसे निर्वाणकी स्थिति घटित नहीं हो सकती है। अतएव न आपका पुनर्जन्म होता है, न मरण। अतएव आप जन्ममरणातीत हैं। निर्मल केवलज्ञान की उत्पत्ति होनेसे जरा- वृद्धावस्थाजन्य कष्ट भी प्राप्त नहीं होता है। यत: वृद्धावस्थाका होना ही सम्भव नहीं है। और न कभी रोगका ही कष्ट आपको होता है। घातियाकमोंके नष्ट होते ही आप जन्म, जरा, मरणसे मुक्त हो जाते हैं।
तीर्थंकरमें लौकिक अभ्युदयके साथ नि:स्संगत- अपरिग्रहता भी पायी जाती है। अभ्युदय और अपरिग्रह ये दोनों विरोधी धर्म हैं। अत: एकाश्रयमें इन दोनोंका साहचर्य किस प्रकार सम्भव है? इसी तथ्यको लेकर कविने विरोधाभास अलङ्कार द्वारा अहन्तके गुणोंपर प्रकाश डाला है-
सुरेन्द्रपरिकल्पितं बृहदनर्घ्यसिंहासन',
तथाऽतपनिवारणत्रयमयोल्लसच्चामरम्।
वशं च भुवनत्रयं निरूपमा च नि:संगता,
न संगतमिदं द्वयं त्वयि तथापि संगच्छते।।
इन्द्र द्वारा प्रदत्त बहुमूल्य सिंहासन, आतप दूर करने के लिये छत्रत्रय और चामर सुशोभित होते हैं। त्रिलोककी अन्तरंग और बहिरंग लक्ष्मी आपको प्राप्त है। तो भी आप अपरिग्रही हैं। लक्षमीका सद्भाव और अपरिग्रहत्व ये दोनों विरोधी धर्म हैं, एक साथ नहीं रह सकते हैं, तो भी ये दोनों आपमें पाये जाते हैं। तात्पर्य यह है कि वीतरागी प्रभुके अन्तरंग रूप में केवलज्ञानादि लक्ष्मी है और बहिरंगमें देवों द्वारा किये गये अतिशयोंके कारण सिंहासन, छत्र, चमर, आदि वैभव विद्यमान है। अतएव उसका अपरिग्रहत्यके साथ किसी भी प्रकार का विरोध नहीं है।
पात्रकेसरिस्तोत्रके अध्ययनसे इनकी प्रतिभा और वैदुष्यका सहजमें परिज्ञान प्राप्त हो जाता है। कविने परस्मैपदी क्रियाओंके स्थानमें संविधास्ये, संगच्छते, विरुष्यते, अश्नुते, उपपद्यते, परिपूज्यते, नरीनृत्यते, विद्यते, उह्यते', छिद्यत, युज्यते", अनुषज्यते, गम्यते एवं चेष्टते आदि आत्मनेपदी क्रियापद प्रयुक्त किये हैं। इन क्रियापदोंसे यह अनुमान होता है कि आचार्य पात्रकेसरी विविध वादोंकी समीक्षा कर स्वमतकी स्थापना करना चाहते हैं। यतः आत्मनेपदी क्रियाएँ 'स्व'की अभिव्यंजनाके लिये आती हैं। जहाँ स्तोत्रोंमें स्तोता अपने हृदयको खोलकर रख देता है और अपने समस्त दोष और आवरणोंको स्वीकार करता है वहाँ आत्मनेपदो क्रियाओंका व्यवहार किया जाता है। परस्मैपदी क्रियाएं परस्मै- परार्थ- परबोधक पदम् अर्थात् जहाँ परका भाव अभिव्यक्त करना होता है वहाँ प्रायः परस्मैपदी क्रियाओंका व्यवहार किया जाता है।
जो कवि या लेखक सावधान रहकर रचना करता है वह परस्मैपदी और आत्मनेपदी क्रियाओंके भेदोंपर ध्यान रखता है। सामान्यत: जहाँ 'स्व' और 'पर’ का मिश्रित भाव अभिव्यक्त करना होता है वहाँ आत्मनेपदी क्रियाएँ व्यवहारमें आती हैं।
आचार्य पात्रस्वामीका न्यायविषयपर भी अपूर्व अधिकार है। उनके विलक्षणकदर्थनके न मिलनेपर भी उसके वाक्यों के ग्रन्थान्तरोंमें उपलब्ध होने तथा उपयुक्त स्तोत्रसे न्याविषयक परिज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। यहाँ स्तारमे उदाहरणार्थ एक पद्य प्रस्तुत है-
न हीन्द्रियधिया विरोधि न च लिंगबुद्धया वचो,
न चाप्यनुमतेन ते सुनयसप्तधा योजितम्।
व्यपेतपरिशङ्कन वितथकारणादर्शना
दत्तोऽपि भगवेस्त्वमेव परमेष्ठितायाः पदम्।।
सारस्वताचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन ।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन ।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara_2.
Acharya Shri Patrakesari Or Patraswami Maharaj Ji 6th / 7th century (Prachin)
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