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सारस्वताचार्य की परंपरा मे आचार्य ऋषिपुत्र का भी नाम आता है। जैनाचार्य ऋषिपुत्र ज्योतिषके प्रकाण्ड विद्वान थे। इनके वंशादिकका सम्यक परिचय नहीं मिला है। इतना ही पता चला है कि ये जैनाचार्य गर्गके पुत्र थे। गर्ग ज्योतिषशास्त्रके प्रकाण्ड विद्वान है। इनका एक ग्रन्थ खुदाबख्शखां पब्लिक लाइब्रेरी पटना में 'पाशकेवली' नामका है। ग्रंथ तो अशुद्ध है, पर विषयकी दृष्टिसे महत्वपूर्ण है। इस ग्रंथकी अन्तिम प्रशस्तिमें बताया है-
जैन आसीज्जगद्वंद्यो गर्गनामा महामुनिः।
तेन स्वयं निर्णीत यं सत्पाशात्रकेवली।।
एतज्ज्ञानं महाज्ञानं जैनषिभिरुदाहृतम्।
प्रकाश्य शुद्धशीलाय कुलीनाम महात्मना।।
"शनोऽगुहलिकां दत्त्वा पूजापूर्वकमघनाकुमारों भव्यास्थासने स्थापयित्वा पाशको ढालाप्यते पश्चाच्छुभाशुभं अचीति-इति गर्गनामामहर्षीविरचित्तः पाशकेवली सम्पूर्णः"।
इन पंक्तियोंसे स्पष्ट है कि मर्गाचार्य ज्योतिषशास्त्रके विशेषज्ञ थे। सम्भव है कि इन्हींके वंश आचार्य ऋषीपुत्र उत्पन्न हुए हों। जैनेतर ज्योतिष ग्रन्थ 'वाराहिसंहिता' और अद्भुत सागर’ में इनके वचन सद्धत्त हैं। इससे इनकी विद्वत्तापर प्रकाश पड़ता है। आचार्य ऋषिपुत्रके वचन वाराहसंहिताकी भट्टोत्पल-टीकामें भी उद्धृत हैं। अत: इनकी प्रसिद्धिका भी इसीसे अनुमान होता है।
भट्टोत्पलि-टीकामें इनकी गणना ज्योतिषके प्राचीन आचार्य आर्यभट्ट, कणाद, काश्यप, कपिल, गर्ग, पाराशर, बलभद्र और भद्रबाहुके साथ की गयी है। इससे ऋषिपुत्र प्राचीन एवं प्रभावक आचार्य ज्ञात होते हैं। सम्भवत: गर्गक पुत्र होनेके कारण ही ये ऋषिपुत्र कहे गये हैं। इनका निवासस्थान उज्जैनीके आस-पास ही प्रतीत होता है। Catalogus catalagorum में ऋषिपुत्र-संहिता का भी उल्लेख आया है। मदनरत्न नामक ग्रन्थमें भी ऋषिपुत्र-संहिताका कथन प्राप्त होता है। इन्हें निमित्तशास्त्र, शकुनशास्त्र तथा ग्रहोंकी स्थिति द्वारा भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालीन फल, भूशोधन, दिकशोधन, शल्योद्वार, मेलापक, आयाद्यानयन, गृहोपकरण, गृहप्रवेश, उल्कापात, गन्धर्वनगर एवं ग्रहोंके उदयास्तका फल आदि बातोंका प्रतिपादक कहा गया है। ऋषिपुत्र ने अपने निमित्तशास्त्र में जिन तत्त्वोंका उल्लेख किया है या जो गणितके संकेत दिये हैं, उज्जयिनीके रेखांश और अक्षांश द्वारा घटित होते हैं। अतएव इनका जन्मस्थान उज्जयिनी होना सम्भव है।
भट्टोत्पलि-टीकामें राहुचारके प्रतिपादन सन्दर्भ में ऋषिपुत्रके वचन निम्न प्रकार उद्धृत्त मिलते हैं-
यावतोंशान् ग्रसित्वेन्दोरुदयत्यस्तमेति वा।
तावतोऽशान् पृथिव्यास्तु तम एव विनाशयेत्।।
उदयेऽस्तमये वापि सूर्यस्य ग्रहणं भवेत्।
तदा नृपभयं विद्यात् परचक्रस्य चागमम्।।
चिरं गृहाति सोमाकों सर्वे बा असते यदा।
हन्यात स्फीतान जनपदान वरिष्ठांश्व जनाधिपान।।
ग्रैष्मेणा सन्त जोवन्ति दरामवानंद झा।
भयदुभिक्षरोगैश्च सम्पीड्यन्त प्रजास्तथा।।
–सवि. बृ. पृ. १३४-१३५
उपर्युक्त पद्य आचार्य ऋषिपुत्रके नामसे अद्भुतसागरके "राहोरद्भुतवात्तः" नामक अध्यायमें 'अथ चिरग्राससर्वग्रासयोः फलम् तत्र ऋषिपुत्रः' लिखकर दो स्थानोंपर उद्धृत किये गये हैं। इन श्लोकों में "शस्यैनं तत्र जीवन्ति नरा मूलफलोदकः" इतना पाठ और अधिक मिलता है। इन्हीं पद्योंसे मिलता-जुलता वर्णन इनके "प्राकृतनिमित्तशास्त्र''में है, पर वहाँको गाथाए छाया नहीं हैं। अतः इतना स्पष्ट है कि ऋषिपुत्रके ज्योतिविषयक ग्रन्थोंका प्राचीन भारत में पर्याप्त प्रचार रहा है। उनके उत्तरकालीन आचार्यों ने इनके सिद्धारतोंको अपने ग्रन्थोंमें उद्धृत कर अपने वचनोंकी प्रामाणिकता घटित की है।
आचार्य ऋषिपुत्रके समय-निर्धारणमें भारतीय ज्योतिषशास्त्रके संहिता सम्बन्धी इतिहाससे बहुत सहायता मिलती है, क्योंकि यह परम्परा शक संवत् ४०० से विकसित रूपमें प्राप्त है। वराहमिहिरने (शक संवत् ४२७, ई. सन् ४४८) बृहज्जातकके २६वें अध्यायके ५वे पद्यमें कहा है.- "मुनिमतान्यवलोक्य सम्यग्घोरां वराहमिहिरो रुचिरां चकार।" इस उद्धरणसे यह स्पष्ट है कि 'वराहमिहिर' के पूर्व होरा और संहिता सम्बन्धी ग्रन्थराशि वर्तमान थी। यही कारण है कि बृहज्जातकमें मय, यवन, विष्णुगुप्त, देवस्वामी, सिद्धसेन, जीवशर्मा एवं सत्याचार्य आदि कई महर्षियोंके वचनोंकी समीक्षा की गयी है। संहिताशास्त्रकी प्रौढ़ रचनाएँ वराहमिहिरसे आरम्भ होती हैं। वराहमिहिरके बाद कल्याणवर्माने शक संवत् ५०० के आस-पास सारावली नामक होरा ग्रन्थ बनाया, जिसमें उन्होंने वराहमिहिरके समान अनेक आचार्यों के नामोल्लेखने साथ कनकाचार्य और देवकोतिराजका भी उल्लेख किया है। संहिता-सम्बन्धी अनेक विषय भी सारावलीमें पाये जाते हैं। इस युगमें अनेक जैन एवं जैनेतर आचार्योंने संहितासम्बन्धी प्नौद रचनाएं लिखी हैं। इन रचनाओंकी परस्पर तुलना करने पर प्रतीत होगा कि इनमें एकका दूसरे ग्रन्थपर पर्याप्त प्रभाव है। कई विषय समानरूपमें प्रतिपादित किये गये है। उदाहरणके लिए गर्ग, वराहमिहिर और ऋषिपुत्रके एक-एक पद्य उद्धृत किये जाते हैं-
शशिशोणितवर्णाभो, यदा भवति भास्करः।
तदा भवन्ति संग्रामा, घोरा रुधिरकदमाः।। -गर्ग
शिशिरुधिरनिभे भानी नभःस्थले भवन्ति संग्रामाः। -वराहमिहिर
ससिलोहिवण्णहोरि संकुण इत्ति होइ णायव्वो!
संग्रामं पुण घोरं खग्ग सुरो णिवेदई।। -ऋषिपुत्र
इसी प्रकार चन्द्रमा द्वारा प्रतिपादित किये गये फलमें भी समानता है। ऋषिपुत्र निमित्तशास्त्रका चन्द्रप्रकरण संहिताके चन्द्राचार अध्यायसे प्रायः मिलता-जुलता है। इस प्रकारके फल प्रतिपादनकी प्रक्रिया शक संवत्की ५-६वीं शताब्दी में प्रचलित थी। वृद्धगर्गके अनेक पद्य ऋषिपुनके निमित्तशास्त्रसे मिलते-जुलते हैं।
कृष्णे शरीरे सोमस्य शद्राणां वश्चमादिशेत्|
पीते शरीरे सोमस्य वैश्यानां वधमादिशेत्।।
रक्ते शरीरे सोमस्य राज्ञां च बषमादिशेत्। -वृद्धगर्ग
विप्पाणं देइ भयं वाहिरण्णो तहा णिवेदेई।
पीलो रेवत्तियणासं धुसरवण्णो य वयसाणं।।३८।।
किण्हो सुद्दविणासो चित्तलवण्णों य हवइ पयहेऊ।
दहिखीरसंखवण्णो सव्वम्हि य पाहिदो चंदो॥३९॥ -ऋषीपुत्र निमित्तशास्त्र
उपयुक्त तुलनात्मक विवेचनका तात्पर्य यही है कि संहिताकालको प्रायः सभी रचनाएँ विषयकी दृष्टीसे समान हैं। इस कालके लेखकोंने नवीन बातें बहुत कम कहीं हैं। फलप्रतिपादनको प्रणाली गणितपर आश्रित न होने के कारण बाह्य निमित्ताधीन रही है। इस कालके ग्रन्थोंमें भौम, दिव्य और अन्तरिक्ष, इन तीन प्रकारके निमित्तोका विशेषरूपसे वर्णन किया है। यथा-
दिव्यान्तरिक्ष भीमं तु त्रिविघं परिकीर्तितम्। -अद्भुतसागर पृ.६
वाराहोसंहितामें इन तीनों निमित्तोंके सम्बन्धमें लिखा है कि "भौमं चिर स्थिरभवं तच्छातिभिराहतं शममुपैति। नामसममुपैति मृदुतां क्षरति न दिव्यं वदन्त्येके"।। इसी प्रकार आचार्य ऋषिपुत्रने- "जे दिट्ठ भुविरसण्ण जे दिट्ठा कुहमेणकत्ताणं। सदसंकुलेन दिट्ठा यऊसट्ठिय एण णाणधिया" || इत्यादि लिखा है। अतएव संहिताकालकी उक्त रचनाओंके अध्ययनसे यह स्पष्ट है कि ई. सन् ५वी- ६ठी शतीमें ऋषिपूत्रने अपना निमित्तशास्त्र लिखा होगा। निमित्तशास्त्रके अतिरिक्त संस्कृतमें भी इनकी कोई संहिताविषयक रचना रही है, जिसके उद्धरण भट्टोत्पली, अद्भुतसागर, शकुनसारोद्धार, वसन्तराजशाकुन प्रभृति ग्रन्थों में पाये जाते हैं। इन ग्रन्थोंका रचनाकाल और संकलनकाल ई. सन् दशवी ग्यारहवीं शती है। अतएव ऋषिपुत्रके समयकी अवधि दशवीं शती सम्भव है। गर्गाचार्य और ऋषिपुत्रकी रचनाओं में समता रहने के कारण इनके समयकी निचली अवधि ई. सन् पांचवीं शती है। इसी प्रकार वराहमिहिरकी रचनाओंके साथ समता रहनेसे भी पञ्चम शती समय आता है।
ऋषिपुत्रका समय ज्ञात करने के लिए एक अन्य प्रमाण यह है कि अद्भुत सागरमें ऋषिपुत्रके नामसे कुछ पद्य प्राप्त होते हैं, जिससे उनका वराहमिहिरसे पूर्वतित्व सिद्ध होता है-उक्तश्च ऋषिपुत्रेण-
गर्गशिष्या यथा प्राहुस्तथा वक्ष्याम्यतः परम्।
भीमभार्गवराडकेतवो यामिनो ग्रहाः।।
आक्रन्दसारिणामिन्दुर्घ शेषा नागरास्तु ते।
गुरुसोरबुधानेव नागरानाह देवल:।।
परान धूमेन सहितान् राहुभागंवलोहितान्।
इन पद्योंमें गर्गशिष्य और देवल इन दो व्यक्तियोंके नामोंका उल्लेख किया गया है। यहाँ गर्मशिष्यसे कोन-सा व्यक्ति अभिप्रेत है, यह नहीं कहा जा सकता, पर द्वित्तीय व्यक्ति देवलकी रचनाओंके देखनेसे प्रतीत होता है कि यह वराह मिहिरके पूर्ववर्ती हैं, क्योंकि अद्भुतसागरके प्रारम्भमें ज्योतिषके निर्माता आचार्योंकी नामावली कालक्रमके हिसाबसे दी गयी प्रतीत होती है। इसमें बुद्धगर्ग, गर्ग, पाराशर, वशिष्ठ, बृहस्पति, सूर्य, वादरायण, पीलुकाचार्य, नृपपुत्र, देवल, काश्यप, नारद, यवन, वराहमिहिर, वसन्तराज आदि आचार्योंके नाम आये हैं। इससे ध्वनित होता है कि आचार्य ऋषिपुत्र देवलके पश्चात् और वराहमिहिरके पूर्ववर्ती हैं। दोनोंकी रचना-पद्धतिसे भी यह भेद प्रकट होता है, क्योंकि विषयप्रतिपादनकी जितनी गम्भीरता वराहमिहिरमें पायी जाती है, उतनी उनके पूर्ववर्ती आचार्योंमें नहीं।
यदि Catalogus Catalagorum के अनुसार आचार्य ऋषिपुत्रके पिता जैनाचार्य गर्ग मान लिये जायें, तब तो उनका समय निर्विवाद रूपसे ई. सन् की चौथी शती है, क्योंकि गर्गाचार्य वराहमिहिरसे कम-से-कम सौ वर्ष पहले हुए हैं। गर्गसिद्धान्त के तत्व उदयकालीन ज्योतिष-तत्त्वोंके समकक्ष है। इस हिसाबसे ऋषिपुत्रका समय ई. सन् चतुर्थ शतीका मध्य भाग आता है।
भट्टोत्पलका समय शक सं. ८८८ और अद्भुतसागरके संकलयिता मिथिलाधिपत्ति महाराज लक्ष्मणसेनके पुत्र महाराज वल्लालसेनका शक सं. १०९० है। अद्भुतसागरमें वराह, वृद्धगर्ग, देवल, यवनेश्वर, मयूरचित्र, राजपुत्र, ऋषिपुत्र, ब्रह्मगुप्त, बलभद्र, युलिश, विष्णुचन्द्र, प्रभाकर आदि अनेक आचार्योंके वचन संग्रहीत हैं। अत: निविवाद रूपसे आचार्य ऋषिपुत्रका समय भट्टोत्पल और वल्लालसेनके पूर्व है।
ऋषिपुत्रने प्राचीन प्राकृतमें निमित्तशास्त्रकी रचना की है, इसकी भाषा सिद्धसेनके 'सम्मइ-सुत्त'की भाषासे मिलती-जुलती है। उपसर्ग और अध्ययोंके प्रयोग समान रूपमें पाये जाते हैं। ध्वनिपरिवर्तन सम्बन्धी नियम भी तुल्य हैं। ह्रस्वमात्रिक नियमका प्रयोग भी इस ग्रन्थकी भाषामें किया गया है। अतएव भाषाकी दृष्टिसे इसका रचनाकाल ई. सन् छठी-सातवीं शती होना चाहिए।
आचार्य ऋषिपुत्र फलितज्योतिषके विद्वान थे। गणितसम्बन्धी इनकी एक भी रचनाका अब तक पता नहीं लग सका है। उपलब्ध उद्धरण और ऋषिपुत्र निमित्तशास्त्रमें इनकी गणितविषयक विद्वत्ताका पता नहीं चलता है। इनकी त्रिस्कन्धात्मक ज्योतिषमें से केवल संहिता विषयसे सम्बद्ध रचनाएं ही प्राप्त हैं। प्रारम्भिक रचनाएँ रहनेके कारण विषयकी गम्भीरता नहीं है, केवल सूत्ररूपमें ही संहिताके विषयोंका ग्रंथन किया गया है।
निमित्तोंके तीन भेद बतलाकर फलादेश लिखा है-
१. भौमिक- पृथ्वी सम्बन्धी निमित्त।
२. दिव्यक- आकाश सम्बन्धी निमित्त।
३. शाब्दिक- विभिन्न प्रकारके सुनाई पड़नेवाले शब्दजन्य निमित्त।
आकाशसम्बन्धी निमित्तोंको बतलाते हुए लिखा है-
सूरोदय अच्छमणे चंदमसरिक्खसगहचरियं।
तं पिच्छियं निमित्तं सव्वं आएसिह कुणहं।।
सूर्योदयके पहले और अन्त होनेके पश्चात चन्द्रमा, नक्षत्र, ग्रहचार एवं उल्का आदि गमन एवं पतनको देखकर शुभाशुभ फलका ज्ञान करना चाहिए। इस शास्त्रमें दिव्य, अन्तरिक्ष और भौम इन तीनों प्रकारके उत्पातोंका वर्णन भी विस्तारसे किया है। वर्षोत्पात, दवोत्पात, उत्कोत्पात, गन्धर्वोत्पात, इत्यादि अनेक उत्पातोंके द्वारा शुभाशुभ फलका प्रतिपादन आया है। आचार्य ऋषिपुत्रके निमित्तशास्त्रमें सबसे बड़ा महत्वपूर्ण विषय ‘मेघयोग'का है। इस प्रकरणमें नक्षत्रानुसार वर्षाके फल का अच्छा विवेचन किया है। प्रथम वृष्टि यदि कृत्तिका नक्षत्रमें हो, तो अनाजकी हानि, रोहिणीमें हो, तो देशकी हानि, मृग शिरामें हो, तो सुभिक्ष, आर्दामे हो, तो खण्डवृष्टि, पुनवंसुमें हो, तो एक माह वृष्टि, पुष्यमें हो, तो श्रेष्ठ वर्षा, आश्लेषामें हो, तो अन्न-हानि, मघा और पूर्वा फाल्गुनीमें हो, तो सुभिक्ष, उत्तराफाल्गुनी और हस्तमें हो, तो प्रसन्नता, विशाखा और अनुराधामें हो, तो अत्यधिक वर्षा, ज्येष्ठामें हो, तो वर्षाकी कमी मूलमें हो, तो पर्याप्त वर्षा, पूर्वाषाड़ा-उत्तराषाढ़ा और श्रवणमें हो, तो अच्छी वर्षा, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद और उत्तराभाद्रपदमें हो, तो उत्तम वृष्टि और सुभिक्ष, एवं रेवतो आश्विनी और भरणी में हो, तो पर्याप्त वृष्टिके साथ अन्नभाव श्रेष्ठ रहता है और प्रजा सब तरहसे सुख प्राप्त करती है। भट्टोत्पलि-टीकामें जो उद्धरण आये हैं उनमें सप्तमस्थ गुरु शुक्रके फलका प्रतिपादन बहुत ही रोचक और महत्त्वपूर्ण है। सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण का फलादेश भी तिथि और नक्षत्रोंके क्रमसे वर्णित है। भुक, अभुक नक्षत्रोंका फलादेश भी वतलाया गया है। सारांश यह है कि ऋषिपुत्रकी पूर्ण रचना एक निमित्तशास्त्र ही उपलब्ध है। विभिन्न ग्रन्थोंमें उद्धरण पाये जानेसे इनकी संहिता विषयक रचनाका भी अनुमान लगाया जा सकता है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
सारस्वताचार्य की परंपरा मे आचार्य ऋषिपुत्र का भी नाम आता है। जैनाचार्य ऋषिपुत्र ज्योतिषके प्रकाण्ड विद्वान थे। इनके वंशादिकका सम्यक परिचय नहीं मिला है। इतना ही पता चला है कि ये जैनाचार्य गर्गके पुत्र थे। गर्ग ज्योतिषशास्त्रके प्रकाण्ड विद्वान है। इनका एक ग्रन्थ खुदाबख्शखां पब्लिक लाइब्रेरी पटना में 'पाशकेवली' नामका है। ग्रंथ तो अशुद्ध है, पर विषयकी दृष्टिसे महत्वपूर्ण है। इस ग्रंथकी अन्तिम प्रशस्तिमें बताया है-
जैन आसीज्जगद्वंद्यो गर्गनामा महामुनिः।
तेन स्वयं निर्णीत यं सत्पाशात्रकेवली।।
एतज्ज्ञानं महाज्ञानं जैनषिभिरुदाहृतम्।
प्रकाश्य शुद्धशीलाय कुलीनाम महात्मना।।
"शनोऽगुहलिकां दत्त्वा पूजापूर्वकमघनाकुमारों भव्यास्थासने स्थापयित्वा पाशको ढालाप्यते पश्चाच्छुभाशुभं अचीति-इति गर्गनामामहर्षीविरचित्तः पाशकेवली सम्पूर्णः"।
इन पंक्तियोंसे स्पष्ट है कि मर्गाचार्य ज्योतिषशास्त्रके विशेषज्ञ थे। सम्भव है कि इन्हींके वंश आचार्य ऋषीपुत्र उत्पन्न हुए हों। जैनेतर ज्योतिष ग्रन्थ 'वाराहिसंहिता' और अद्भुत सागर’ में इनके वचन सद्धत्त हैं। इससे इनकी विद्वत्तापर प्रकाश पड़ता है। आचार्य ऋषिपुत्रके वचन वाराहसंहिताकी भट्टोत्पल-टीकामें भी उद्धृत हैं। अत: इनकी प्रसिद्धिका भी इसीसे अनुमान होता है।
भट्टोत्पलि-टीकामें इनकी गणना ज्योतिषके प्राचीन आचार्य आर्यभट्ट, कणाद, काश्यप, कपिल, गर्ग, पाराशर, बलभद्र और भद्रबाहुके साथ की गयी है। इससे ऋषिपुत्र प्राचीन एवं प्रभावक आचार्य ज्ञात होते हैं। सम्भवत: गर्गक पुत्र होनेके कारण ही ये ऋषिपुत्र कहे गये हैं। इनका निवासस्थान उज्जैनीके आस-पास ही प्रतीत होता है। Catalogus catalagorum में ऋषिपुत्र-संहिता का भी उल्लेख आया है। मदनरत्न नामक ग्रन्थमें भी ऋषिपुत्र-संहिताका कथन प्राप्त होता है। इन्हें निमित्तशास्त्र, शकुनशास्त्र तथा ग्रहोंकी स्थिति द्वारा भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालीन फल, भूशोधन, दिकशोधन, शल्योद्वार, मेलापक, आयाद्यानयन, गृहोपकरण, गृहप्रवेश, उल्कापात, गन्धर्वनगर एवं ग्रहोंके उदयास्तका फल आदि बातोंका प्रतिपादक कहा गया है। ऋषिपुत्र ने अपने निमित्तशास्त्र में जिन तत्त्वोंका उल्लेख किया है या जो गणितके संकेत दिये हैं, उज्जयिनीके रेखांश और अक्षांश द्वारा घटित होते हैं। अतएव इनका जन्मस्थान उज्जयिनी होना सम्भव है।
भट्टोत्पलि-टीकामें राहुचारके प्रतिपादन सन्दर्भ में ऋषिपुत्रके वचन निम्न प्रकार उद्धृत्त मिलते हैं-
यावतोंशान् ग्रसित्वेन्दोरुदयत्यस्तमेति वा।
तावतोऽशान् पृथिव्यास्तु तम एव विनाशयेत्।।
उदयेऽस्तमये वापि सूर्यस्य ग्रहणं भवेत्।
तदा नृपभयं विद्यात् परचक्रस्य चागमम्।।
चिरं गृहाति सोमाकों सर्वे बा असते यदा।
हन्यात स्फीतान जनपदान वरिष्ठांश्व जनाधिपान।।
ग्रैष्मेणा सन्त जोवन्ति दरामवानंद झा।
भयदुभिक्षरोगैश्च सम्पीड्यन्त प्रजास्तथा।।
–सवि. बृ. पृ. १३४-१३५
उपर्युक्त पद्य आचार्य ऋषिपुत्रके नामसे अद्भुतसागरके "राहोरद्भुतवात्तः" नामक अध्यायमें 'अथ चिरग्राससर्वग्रासयोः फलम् तत्र ऋषिपुत्रः' लिखकर दो स्थानोंपर उद्धृत किये गये हैं। इन श्लोकों में "शस्यैनं तत्र जीवन्ति नरा मूलफलोदकः" इतना पाठ और अधिक मिलता है। इन्हीं पद्योंसे मिलता-जुलता वर्णन इनके "प्राकृतनिमित्तशास्त्र''में है, पर वहाँको गाथाए छाया नहीं हैं। अतः इतना स्पष्ट है कि ऋषिपुत्रके ज्योतिविषयक ग्रन्थोंका प्राचीन भारत में पर्याप्त प्रचार रहा है। उनके उत्तरकालीन आचार्यों ने इनके सिद्धारतोंको अपने ग्रन्थोंमें उद्धृत कर अपने वचनोंकी प्रामाणिकता घटित की है।
आचार्य ऋषिपुत्रके समय-निर्धारणमें भारतीय ज्योतिषशास्त्रके संहिता सम्बन्धी इतिहाससे बहुत सहायता मिलती है, क्योंकि यह परम्परा शक संवत् ४०० से विकसित रूपमें प्राप्त है। वराहमिहिरने (शक संवत् ४२७, ई. सन् ४४८) बृहज्जातकके २६वें अध्यायके ५वे पद्यमें कहा है.- "मुनिमतान्यवलोक्य सम्यग्घोरां वराहमिहिरो रुचिरां चकार।" इस उद्धरणसे यह स्पष्ट है कि 'वराहमिहिर' के पूर्व होरा और संहिता सम्बन्धी ग्रन्थराशि वर्तमान थी। यही कारण है कि बृहज्जातकमें मय, यवन, विष्णुगुप्त, देवस्वामी, सिद्धसेन, जीवशर्मा एवं सत्याचार्य आदि कई महर्षियोंके वचनोंकी समीक्षा की गयी है। संहिताशास्त्रकी प्रौढ़ रचनाएँ वराहमिहिरसे आरम्भ होती हैं। वराहमिहिरके बाद कल्याणवर्माने शक संवत् ५०० के आस-पास सारावली नामक होरा ग्रन्थ बनाया, जिसमें उन्होंने वराहमिहिरके समान अनेक आचार्यों के नामोल्लेखने साथ कनकाचार्य और देवकोतिराजका भी उल्लेख किया है। संहिता-सम्बन्धी अनेक विषय भी सारावलीमें पाये जाते हैं। इस युगमें अनेक जैन एवं जैनेतर आचार्योंने संहितासम्बन्धी प्नौद रचनाएं लिखी हैं। इन रचनाओंकी परस्पर तुलना करने पर प्रतीत होगा कि इनमें एकका दूसरे ग्रन्थपर पर्याप्त प्रभाव है। कई विषय समानरूपमें प्रतिपादित किये गये है। उदाहरणके लिए गर्ग, वराहमिहिर और ऋषिपुत्रके एक-एक पद्य उद्धृत किये जाते हैं-
शशिशोणितवर्णाभो, यदा भवति भास्करः।
तदा भवन्ति संग्रामा, घोरा रुधिरकदमाः।। -गर्ग
शिशिरुधिरनिभे भानी नभःस्थले भवन्ति संग्रामाः। -वराहमिहिर
ससिलोहिवण्णहोरि संकुण इत्ति होइ णायव्वो!
संग्रामं पुण घोरं खग्ग सुरो णिवेदई।। -ऋषिपुत्र
इसी प्रकार चन्द्रमा द्वारा प्रतिपादित किये गये फलमें भी समानता है। ऋषिपुत्र निमित्तशास्त्रका चन्द्रप्रकरण संहिताके चन्द्राचार अध्यायसे प्रायः मिलता-जुलता है। इस प्रकारके फल प्रतिपादनकी प्रक्रिया शक संवत्की ५-६वीं शताब्दी में प्रचलित थी। वृद्धगर्गके अनेक पद्य ऋषिपुनके निमित्तशास्त्रसे मिलते-जुलते हैं।
कृष्णे शरीरे सोमस्य शद्राणां वश्चमादिशेत्|
पीते शरीरे सोमस्य वैश्यानां वधमादिशेत्।।
रक्ते शरीरे सोमस्य राज्ञां च बषमादिशेत्। -वृद्धगर्ग
विप्पाणं देइ भयं वाहिरण्णो तहा णिवेदेई।
पीलो रेवत्तियणासं धुसरवण्णो य वयसाणं।।३८।।
किण्हो सुद्दविणासो चित्तलवण्णों य हवइ पयहेऊ।
दहिखीरसंखवण्णो सव्वम्हि य पाहिदो चंदो॥३९॥ -ऋषीपुत्र निमित्तशास्त्र
उपयुक्त तुलनात्मक विवेचनका तात्पर्य यही है कि संहिताकालको प्रायः सभी रचनाएँ विषयकी दृष्टीसे समान हैं। इस कालके लेखकोंने नवीन बातें बहुत कम कहीं हैं। फलप्रतिपादनको प्रणाली गणितपर आश्रित न होने के कारण बाह्य निमित्ताधीन रही है। इस कालके ग्रन्थोंमें भौम, दिव्य और अन्तरिक्ष, इन तीन प्रकारके निमित्तोका विशेषरूपसे वर्णन किया है। यथा-
दिव्यान्तरिक्ष भीमं तु त्रिविघं परिकीर्तितम्। -अद्भुतसागर पृ.६
वाराहोसंहितामें इन तीनों निमित्तोंके सम्बन्धमें लिखा है कि "भौमं चिर स्थिरभवं तच्छातिभिराहतं शममुपैति। नामसममुपैति मृदुतां क्षरति न दिव्यं वदन्त्येके"।। इसी प्रकार आचार्य ऋषिपुत्रने- "जे दिट्ठ भुविरसण्ण जे दिट्ठा कुहमेणकत्ताणं। सदसंकुलेन दिट्ठा यऊसट्ठिय एण णाणधिया" || इत्यादि लिखा है। अतएव संहिताकालकी उक्त रचनाओंके अध्ययनसे यह स्पष्ट है कि ई. सन् ५वी- ६ठी शतीमें ऋषिपूत्रने अपना निमित्तशास्त्र लिखा होगा। निमित्तशास्त्रके अतिरिक्त संस्कृतमें भी इनकी कोई संहिताविषयक रचना रही है, जिसके उद्धरण भट्टोत्पली, अद्भुतसागर, शकुनसारोद्धार, वसन्तराजशाकुन प्रभृति ग्रन्थों में पाये जाते हैं। इन ग्रन्थोंका रचनाकाल और संकलनकाल ई. सन् दशवी ग्यारहवीं शती है। अतएव ऋषिपुत्रके समयकी अवधि दशवीं शती सम्भव है। गर्गाचार्य और ऋषिपुत्रकी रचनाओं में समता रहने के कारण इनके समयकी निचली अवधि ई. सन् पांचवीं शती है। इसी प्रकार वराहमिहिरकी रचनाओंके साथ समता रहनेसे भी पञ्चम शती समय आता है।
ऋषिपुत्रका समय ज्ञात करने के लिए एक अन्य प्रमाण यह है कि अद्भुत सागरमें ऋषिपुत्रके नामसे कुछ पद्य प्राप्त होते हैं, जिससे उनका वराहमिहिरसे पूर्वतित्व सिद्ध होता है-उक्तश्च ऋषिपुत्रेण-
गर्गशिष्या यथा प्राहुस्तथा वक्ष्याम्यतः परम्।
भीमभार्गवराडकेतवो यामिनो ग्रहाः।।
आक्रन्दसारिणामिन्दुर्घ शेषा नागरास्तु ते।
गुरुसोरबुधानेव नागरानाह देवल:।।
परान धूमेन सहितान् राहुभागंवलोहितान्।
इन पद्योंमें गर्गशिष्य और देवल इन दो व्यक्तियोंके नामोंका उल्लेख किया गया है। यहाँ गर्मशिष्यसे कोन-सा व्यक्ति अभिप्रेत है, यह नहीं कहा जा सकता, पर द्वित्तीय व्यक्ति देवलकी रचनाओंके देखनेसे प्रतीत होता है कि यह वराह मिहिरके पूर्ववर्ती हैं, क्योंकि अद्भुतसागरके प्रारम्भमें ज्योतिषके निर्माता आचार्योंकी नामावली कालक्रमके हिसाबसे दी गयी प्रतीत होती है। इसमें बुद्धगर्ग, गर्ग, पाराशर, वशिष्ठ, बृहस्पति, सूर्य, वादरायण, पीलुकाचार्य, नृपपुत्र, देवल, काश्यप, नारद, यवन, वराहमिहिर, वसन्तराज आदि आचार्योंके नाम आये हैं। इससे ध्वनित होता है कि आचार्य ऋषिपुत्र देवलके पश्चात् और वराहमिहिरके पूर्ववर्ती हैं। दोनोंकी रचना-पद्धतिसे भी यह भेद प्रकट होता है, क्योंकि विषयप्रतिपादनकी जितनी गम्भीरता वराहमिहिरमें पायी जाती है, उतनी उनके पूर्ववर्ती आचार्योंमें नहीं।
यदि Catalogus Catalagorum के अनुसार आचार्य ऋषिपुत्रके पिता जैनाचार्य गर्ग मान लिये जायें, तब तो उनका समय निर्विवाद रूपसे ई. सन् की चौथी शती है, क्योंकि गर्गाचार्य वराहमिहिरसे कम-से-कम सौ वर्ष पहले हुए हैं। गर्गसिद्धान्त के तत्व उदयकालीन ज्योतिष-तत्त्वोंके समकक्ष है। इस हिसाबसे ऋषिपुत्रका समय ई. सन् चतुर्थ शतीका मध्य भाग आता है।
भट्टोत्पलका समय शक सं. ८८८ और अद्भुतसागरके संकलयिता मिथिलाधिपत्ति महाराज लक्ष्मणसेनके पुत्र महाराज वल्लालसेनका शक सं. १०९० है। अद्भुतसागरमें वराह, वृद्धगर्ग, देवल, यवनेश्वर, मयूरचित्र, राजपुत्र, ऋषिपुत्र, ब्रह्मगुप्त, बलभद्र, युलिश, विष्णुचन्द्र, प्रभाकर आदि अनेक आचार्योंके वचन संग्रहीत हैं। अत: निविवाद रूपसे आचार्य ऋषिपुत्रका समय भट्टोत्पल और वल्लालसेनके पूर्व है।
ऋषिपुत्रने प्राचीन प्राकृतमें निमित्तशास्त्रकी रचना की है, इसकी भाषा सिद्धसेनके 'सम्मइ-सुत्त'की भाषासे मिलती-जुलती है। उपसर्ग और अध्ययोंके प्रयोग समान रूपमें पाये जाते हैं। ध्वनिपरिवर्तन सम्बन्धी नियम भी तुल्य हैं। ह्रस्वमात्रिक नियमका प्रयोग भी इस ग्रन्थकी भाषामें किया गया है। अतएव भाषाकी दृष्टिसे इसका रचनाकाल ई. सन् छठी-सातवीं शती होना चाहिए।
आचार्य ऋषिपुत्र फलितज्योतिषके विद्वान थे। गणितसम्बन्धी इनकी एक भी रचनाका अब तक पता नहीं लग सका है। उपलब्ध उद्धरण और ऋषिपुत्र निमित्तशास्त्रमें इनकी गणितविषयक विद्वत्ताका पता नहीं चलता है। इनकी त्रिस्कन्धात्मक ज्योतिषमें से केवल संहिता विषयसे सम्बद्ध रचनाएं ही प्राप्त हैं। प्रारम्भिक रचनाएँ रहनेके कारण विषयकी गम्भीरता नहीं है, केवल सूत्ररूपमें ही संहिताके विषयोंका ग्रंथन किया गया है।
निमित्तोंके तीन भेद बतलाकर फलादेश लिखा है-
१. भौमिक- पृथ्वी सम्बन्धी निमित्त।
२. दिव्यक- आकाश सम्बन्धी निमित्त।
३. शाब्दिक- विभिन्न प्रकारके सुनाई पड़नेवाले शब्दजन्य निमित्त।
आकाशसम्बन्धी निमित्तोंको बतलाते हुए लिखा है-
सूरोदय अच्छमणे चंदमसरिक्खसगहचरियं।
तं पिच्छियं निमित्तं सव्वं आएसिह कुणहं।।
सूर्योदयके पहले और अन्त होनेके पश्चात चन्द्रमा, नक्षत्र, ग्रहचार एवं उल्का आदि गमन एवं पतनको देखकर शुभाशुभ फलका ज्ञान करना चाहिए। इस शास्त्रमें दिव्य, अन्तरिक्ष और भौम इन तीनों प्रकारके उत्पातोंका वर्णन भी विस्तारसे किया है। वर्षोत्पात, दवोत्पात, उत्कोत्पात, गन्धर्वोत्पात, इत्यादि अनेक उत्पातोंके द्वारा शुभाशुभ फलका प्रतिपादन आया है। आचार्य ऋषिपुत्रके निमित्तशास्त्रमें सबसे बड़ा महत्वपूर्ण विषय ‘मेघयोग'का है। इस प्रकरणमें नक्षत्रानुसार वर्षाके फल का अच्छा विवेचन किया है। प्रथम वृष्टि यदि कृत्तिका नक्षत्रमें हो, तो अनाजकी हानि, रोहिणीमें हो, तो देशकी हानि, मृग शिरामें हो, तो सुभिक्ष, आर्दामे हो, तो खण्डवृष्टि, पुनवंसुमें हो, तो एक माह वृष्टि, पुष्यमें हो, तो श्रेष्ठ वर्षा, आश्लेषामें हो, तो अन्न-हानि, मघा और पूर्वा फाल्गुनीमें हो, तो सुभिक्ष, उत्तराफाल्गुनी और हस्तमें हो, तो प्रसन्नता, विशाखा और अनुराधामें हो, तो अत्यधिक वर्षा, ज्येष्ठामें हो, तो वर्षाकी कमी मूलमें हो, तो पर्याप्त वर्षा, पूर्वाषाड़ा-उत्तराषाढ़ा और श्रवणमें हो, तो अच्छी वर्षा, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद और उत्तराभाद्रपदमें हो, तो उत्तम वृष्टि और सुभिक्ष, एवं रेवतो आश्विनी और भरणी में हो, तो पर्याप्त वृष्टिके साथ अन्नभाव श्रेष्ठ रहता है और प्रजा सब तरहसे सुख प्राप्त करती है। भट्टोत्पलि-टीकामें जो उद्धरण आये हैं उनमें सप्तमस्थ गुरु शुक्रके फलका प्रतिपादन बहुत ही रोचक और महत्त्वपूर्ण है। सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण का फलादेश भी तिथि और नक्षत्रोंके क्रमसे वर्णित है। भुक, अभुक नक्षत्रोंका फलादेश भी वतलाया गया है। सारांश यह है कि ऋषिपुत्रकी पूर्ण रचना एक निमित्तशास्त्र ही उपलब्ध है। विभिन्न ग्रन्थोंमें उद्धरण पाये जानेसे इनकी संहिता विषयक रचनाका भी अनुमान लगाया जा सकता है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
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डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री ऋषिपुत्र 5वीं शताब्दी (प्राचीन)
सारस्वताचार्य की परंपरा मे आचार्य ऋषिपुत्र का भी नाम आता है। जैनाचार्य ऋषिपुत्र ज्योतिषके प्रकाण्ड विद्वान थे। इनके वंशादिकका सम्यक परिचय नहीं मिला है। इतना ही पता चला है कि ये जैनाचार्य गर्गके पुत्र थे। गर्ग ज्योतिषशास्त्रके प्रकाण्ड विद्वान है। इनका एक ग्रन्थ खुदाबख्शखां पब्लिक लाइब्रेरी पटना में 'पाशकेवली' नामका है। ग्रंथ तो अशुद्ध है, पर विषयकी दृष्टिसे महत्वपूर्ण है। इस ग्रंथकी अन्तिम प्रशस्तिमें बताया है-
जैन आसीज्जगद्वंद्यो गर्गनामा महामुनिः।
तेन स्वयं निर्णीत यं सत्पाशात्रकेवली।।
एतज्ज्ञानं महाज्ञानं जैनषिभिरुदाहृतम्।
प्रकाश्य शुद्धशीलाय कुलीनाम महात्मना।।
"शनोऽगुहलिकां दत्त्वा पूजापूर्वकमघनाकुमारों भव्यास्थासने स्थापयित्वा पाशको ढालाप्यते पश्चाच्छुभाशुभं अचीति-इति गर्गनामामहर्षीविरचित्तः पाशकेवली सम्पूर्णः"।
इन पंक्तियोंसे स्पष्ट है कि मर्गाचार्य ज्योतिषशास्त्रके विशेषज्ञ थे। सम्भव है कि इन्हींके वंश आचार्य ऋषीपुत्र उत्पन्न हुए हों। जैनेतर ज्योतिष ग्रन्थ 'वाराहिसंहिता' और अद्भुत सागर’ में इनके वचन सद्धत्त हैं। इससे इनकी विद्वत्तापर प्रकाश पड़ता है। आचार्य ऋषिपुत्रके वचन वाराहसंहिताकी भट्टोत्पल-टीकामें भी उद्धृत हैं। अत: इनकी प्रसिद्धिका भी इसीसे अनुमान होता है।
भट्टोत्पलि-टीकामें इनकी गणना ज्योतिषके प्राचीन आचार्य आर्यभट्ट, कणाद, काश्यप, कपिल, गर्ग, पाराशर, बलभद्र और भद्रबाहुके साथ की गयी है। इससे ऋषिपुत्र प्राचीन एवं प्रभावक आचार्य ज्ञात होते हैं। सम्भवत: गर्गक पुत्र होनेके कारण ही ये ऋषिपुत्र कहे गये हैं। इनका निवासस्थान उज्जैनीके आस-पास ही प्रतीत होता है। Catalogus catalagorum में ऋषिपुत्र-संहिता का भी उल्लेख आया है। मदनरत्न नामक ग्रन्थमें भी ऋषिपुत्र-संहिताका कथन प्राप्त होता है। इन्हें निमित्तशास्त्र, शकुनशास्त्र तथा ग्रहोंकी स्थिति द्वारा भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालीन फल, भूशोधन, दिकशोधन, शल्योद्वार, मेलापक, आयाद्यानयन, गृहोपकरण, गृहप्रवेश, उल्कापात, गन्धर्वनगर एवं ग्रहोंके उदयास्तका फल आदि बातोंका प्रतिपादक कहा गया है। ऋषिपुत्र ने अपने निमित्तशास्त्र में जिन तत्त्वोंका उल्लेख किया है या जो गणितके संकेत दिये हैं, उज्जयिनीके रेखांश और अक्षांश द्वारा घटित होते हैं। अतएव इनका जन्मस्थान उज्जयिनी होना सम्भव है।
भट्टोत्पलि-टीकामें राहुचारके प्रतिपादन सन्दर्भ में ऋषिपुत्रके वचन निम्न प्रकार उद्धृत्त मिलते हैं-
यावतोंशान् ग्रसित्वेन्दोरुदयत्यस्तमेति वा।
तावतोऽशान् पृथिव्यास्तु तम एव विनाशयेत्।।
उदयेऽस्तमये वापि सूर्यस्य ग्रहणं भवेत्।
तदा नृपभयं विद्यात् परचक्रस्य चागमम्।।
चिरं गृहाति सोमाकों सर्वे बा असते यदा।
हन्यात स्फीतान जनपदान वरिष्ठांश्व जनाधिपान।।
ग्रैष्मेणा सन्त जोवन्ति दरामवानंद झा।
भयदुभिक्षरोगैश्च सम्पीड्यन्त प्रजास्तथा।।
–सवि. बृ. पृ. १३४-१३५
उपर्युक्त पद्य आचार्य ऋषिपुत्रके नामसे अद्भुतसागरके "राहोरद्भुतवात्तः" नामक अध्यायमें 'अथ चिरग्राससर्वग्रासयोः फलम् तत्र ऋषिपुत्रः' लिखकर दो स्थानोंपर उद्धृत किये गये हैं। इन श्लोकों में "शस्यैनं तत्र जीवन्ति नरा मूलफलोदकः" इतना पाठ और अधिक मिलता है। इन्हीं पद्योंसे मिलता-जुलता वर्णन इनके "प्राकृतनिमित्तशास्त्र''में है, पर वहाँको गाथाए छाया नहीं हैं। अतः इतना स्पष्ट है कि ऋषिपुत्रके ज्योतिविषयक ग्रन्थोंका प्राचीन भारत में पर्याप्त प्रचार रहा है। उनके उत्तरकालीन आचार्यों ने इनके सिद्धारतोंको अपने ग्रन्थोंमें उद्धृत कर अपने वचनोंकी प्रामाणिकता घटित की है।
आचार्य ऋषिपुत्रके समय-निर्धारणमें भारतीय ज्योतिषशास्त्रके संहिता सम्बन्धी इतिहाससे बहुत सहायता मिलती है, क्योंकि यह परम्परा शक संवत् ४०० से विकसित रूपमें प्राप्त है। वराहमिहिरने (शक संवत् ४२७, ई. सन् ४४८) बृहज्जातकके २६वें अध्यायके ५वे पद्यमें कहा है.- "मुनिमतान्यवलोक्य सम्यग्घोरां वराहमिहिरो रुचिरां चकार।" इस उद्धरणसे यह स्पष्ट है कि 'वराहमिहिर' के पूर्व होरा और संहिता सम्बन्धी ग्रन्थराशि वर्तमान थी। यही कारण है कि बृहज्जातकमें मय, यवन, विष्णुगुप्त, देवस्वामी, सिद्धसेन, जीवशर्मा एवं सत्याचार्य आदि कई महर्षियोंके वचनोंकी समीक्षा की गयी है। संहिताशास्त्रकी प्रौढ़ रचनाएँ वराहमिहिरसे आरम्भ होती हैं। वराहमिहिरके बाद कल्याणवर्माने शक संवत् ५०० के आस-पास सारावली नामक होरा ग्रन्थ बनाया, जिसमें उन्होंने वराहमिहिरके समान अनेक आचार्यों के नामोल्लेखने साथ कनकाचार्य और देवकोतिराजका भी उल्लेख किया है। संहिता-सम्बन्धी अनेक विषय भी सारावलीमें पाये जाते हैं। इस युगमें अनेक जैन एवं जैनेतर आचार्योंने संहितासम्बन्धी प्नौद रचनाएं लिखी हैं। इन रचनाओंकी परस्पर तुलना करने पर प्रतीत होगा कि इनमें एकका दूसरे ग्रन्थपर पर्याप्त प्रभाव है। कई विषय समानरूपमें प्रतिपादित किये गये है। उदाहरणके लिए गर्ग, वराहमिहिर और ऋषिपुत्रके एक-एक पद्य उद्धृत किये जाते हैं-
शशिशोणितवर्णाभो, यदा भवति भास्करः।
तदा भवन्ति संग्रामा, घोरा रुधिरकदमाः।। -गर्ग
शिशिरुधिरनिभे भानी नभःस्थले भवन्ति संग्रामाः। -वराहमिहिर
ससिलोहिवण्णहोरि संकुण इत्ति होइ णायव्वो!
संग्रामं पुण घोरं खग्ग सुरो णिवेदई।। -ऋषिपुत्र
इसी प्रकार चन्द्रमा द्वारा प्रतिपादित किये गये फलमें भी समानता है। ऋषिपुत्र निमित्तशास्त्रका चन्द्रप्रकरण संहिताके चन्द्राचार अध्यायसे प्रायः मिलता-जुलता है। इस प्रकारके फल प्रतिपादनकी प्रक्रिया शक संवत्की ५-६वीं शताब्दी में प्रचलित थी। वृद्धगर्गके अनेक पद्य ऋषिपुनके निमित्तशास्त्रसे मिलते-जुलते हैं।
कृष्णे शरीरे सोमस्य शद्राणां वश्चमादिशेत्|
पीते शरीरे सोमस्य वैश्यानां वधमादिशेत्।।
रक्ते शरीरे सोमस्य राज्ञां च बषमादिशेत्। -वृद्धगर्ग
विप्पाणं देइ भयं वाहिरण्णो तहा णिवेदेई।
पीलो रेवत्तियणासं धुसरवण्णो य वयसाणं।।३८।।
किण्हो सुद्दविणासो चित्तलवण्णों य हवइ पयहेऊ।
दहिखीरसंखवण्णो सव्वम्हि य पाहिदो चंदो॥३९॥ -ऋषीपुत्र निमित्तशास्त्र
उपयुक्त तुलनात्मक विवेचनका तात्पर्य यही है कि संहिताकालको प्रायः सभी रचनाएँ विषयकी दृष्टीसे समान हैं। इस कालके लेखकोंने नवीन बातें बहुत कम कहीं हैं। फलप्रतिपादनको प्रणाली गणितपर आश्रित न होने के कारण बाह्य निमित्ताधीन रही है। इस कालके ग्रन्थोंमें भौम, दिव्य और अन्तरिक्ष, इन तीन प्रकारके निमित्तोका विशेषरूपसे वर्णन किया है। यथा-
दिव्यान्तरिक्ष भीमं तु त्रिविघं परिकीर्तितम्। -अद्भुतसागर पृ.६
वाराहोसंहितामें इन तीनों निमित्तोंके सम्बन्धमें लिखा है कि "भौमं चिर स्थिरभवं तच्छातिभिराहतं शममुपैति। नामसममुपैति मृदुतां क्षरति न दिव्यं वदन्त्येके"।। इसी प्रकार आचार्य ऋषिपुत्रने- "जे दिट्ठ भुविरसण्ण जे दिट्ठा कुहमेणकत्ताणं। सदसंकुलेन दिट्ठा यऊसट्ठिय एण णाणधिया" || इत्यादि लिखा है। अतएव संहिताकालकी उक्त रचनाओंके अध्ययनसे यह स्पष्ट है कि ई. सन् ५वी- ६ठी शतीमें ऋषिपूत्रने अपना निमित्तशास्त्र लिखा होगा। निमित्तशास्त्रके अतिरिक्त संस्कृतमें भी इनकी कोई संहिताविषयक रचना रही है, जिसके उद्धरण भट्टोत्पली, अद्भुतसागर, शकुनसारोद्धार, वसन्तराजशाकुन प्रभृति ग्रन्थों में पाये जाते हैं। इन ग्रन्थोंका रचनाकाल और संकलनकाल ई. सन् दशवी ग्यारहवीं शती है। अतएव ऋषिपुत्रके समयकी अवधि दशवीं शती सम्भव है। गर्गाचार्य और ऋषिपुत्रकी रचनाओं में समता रहने के कारण इनके समयकी निचली अवधि ई. सन् पांचवीं शती है। इसी प्रकार वराहमिहिरकी रचनाओंके साथ समता रहनेसे भी पञ्चम शती समय आता है।
ऋषिपुत्रका समय ज्ञात करने के लिए एक अन्य प्रमाण यह है कि अद्भुत सागरमें ऋषिपुत्रके नामसे कुछ पद्य प्राप्त होते हैं, जिससे उनका वराहमिहिरसे पूर्वतित्व सिद्ध होता है-उक्तश्च ऋषिपुत्रेण-
गर्गशिष्या यथा प्राहुस्तथा वक्ष्याम्यतः परम्।
भीमभार्गवराडकेतवो यामिनो ग्रहाः।।
आक्रन्दसारिणामिन्दुर्घ शेषा नागरास्तु ते।
गुरुसोरबुधानेव नागरानाह देवल:।।
परान धूमेन सहितान् राहुभागंवलोहितान्।
इन पद्योंमें गर्गशिष्य और देवल इन दो व्यक्तियोंके नामोंका उल्लेख किया गया है। यहाँ गर्मशिष्यसे कोन-सा व्यक्ति अभिप्रेत है, यह नहीं कहा जा सकता, पर द्वित्तीय व्यक्ति देवलकी रचनाओंके देखनेसे प्रतीत होता है कि यह वराह मिहिरके पूर्ववर्ती हैं, क्योंकि अद्भुतसागरके प्रारम्भमें ज्योतिषके निर्माता आचार्योंकी नामावली कालक्रमके हिसाबसे दी गयी प्रतीत होती है। इसमें बुद्धगर्ग, गर्ग, पाराशर, वशिष्ठ, बृहस्पति, सूर्य, वादरायण, पीलुकाचार्य, नृपपुत्र, देवल, काश्यप, नारद, यवन, वराहमिहिर, वसन्तराज आदि आचार्योंके नाम आये हैं। इससे ध्वनित होता है कि आचार्य ऋषिपुत्र देवलके पश्चात् और वराहमिहिरके पूर्ववर्ती हैं। दोनोंकी रचना-पद्धतिसे भी यह भेद प्रकट होता है, क्योंकि विषयप्रतिपादनकी जितनी गम्भीरता वराहमिहिरमें पायी जाती है, उतनी उनके पूर्ववर्ती आचार्योंमें नहीं।
यदि Catalogus Catalagorum के अनुसार आचार्य ऋषिपुत्रके पिता जैनाचार्य गर्ग मान लिये जायें, तब तो उनका समय निर्विवाद रूपसे ई. सन् की चौथी शती है, क्योंकि गर्गाचार्य वराहमिहिरसे कम-से-कम सौ वर्ष पहले हुए हैं। गर्गसिद्धान्त के तत्व उदयकालीन ज्योतिष-तत्त्वोंके समकक्ष है। इस हिसाबसे ऋषिपुत्रका समय ई. सन् चतुर्थ शतीका मध्य भाग आता है।
भट्टोत्पलका समय शक सं. ८८८ और अद्भुतसागरके संकलयिता मिथिलाधिपत्ति महाराज लक्ष्मणसेनके पुत्र महाराज वल्लालसेनका शक सं. १०९० है। अद्भुतसागरमें वराह, वृद्धगर्ग, देवल, यवनेश्वर, मयूरचित्र, राजपुत्र, ऋषिपुत्र, ब्रह्मगुप्त, बलभद्र, युलिश, विष्णुचन्द्र, प्रभाकर आदि अनेक आचार्योंके वचन संग्रहीत हैं। अत: निविवाद रूपसे आचार्य ऋषिपुत्रका समय भट्टोत्पल और वल्लालसेनके पूर्व है।
ऋषिपुत्रने प्राचीन प्राकृतमें निमित्तशास्त्रकी रचना की है, इसकी भाषा सिद्धसेनके 'सम्मइ-सुत्त'की भाषासे मिलती-जुलती है। उपसर्ग और अध्ययोंके प्रयोग समान रूपमें पाये जाते हैं। ध्वनिपरिवर्तन सम्बन्धी नियम भी तुल्य हैं। ह्रस्वमात्रिक नियमका प्रयोग भी इस ग्रन्थकी भाषामें किया गया है। अतएव भाषाकी दृष्टिसे इसका रचनाकाल ई. सन् छठी-सातवीं शती होना चाहिए।
आचार्य ऋषिपुत्र फलितज्योतिषके विद्वान थे। गणितसम्बन्धी इनकी एक भी रचनाका अब तक पता नहीं लग सका है। उपलब्ध उद्धरण और ऋषिपुत्र निमित्तशास्त्रमें इनकी गणितविषयक विद्वत्ताका पता नहीं चलता है। इनकी त्रिस्कन्धात्मक ज्योतिषमें से केवल संहिता विषयसे सम्बद्ध रचनाएं ही प्राप्त हैं। प्रारम्भिक रचनाएँ रहनेके कारण विषयकी गम्भीरता नहीं है, केवल सूत्ररूपमें ही संहिताके विषयोंका ग्रंथन किया गया है।
निमित्तोंके तीन भेद बतलाकर फलादेश लिखा है-
१. भौमिक- पृथ्वी सम्बन्धी निमित्त।
२. दिव्यक- आकाश सम्बन्धी निमित्त।
३. शाब्दिक- विभिन्न प्रकारके सुनाई पड़नेवाले शब्दजन्य निमित्त।
आकाशसम्बन्धी निमित्तोंको बतलाते हुए लिखा है-
सूरोदय अच्छमणे चंदमसरिक्खसगहचरियं।
तं पिच्छियं निमित्तं सव्वं आएसिह कुणहं।।
सूर्योदयके पहले और अन्त होनेके पश्चात चन्द्रमा, नक्षत्र, ग्रहचार एवं उल्का आदि गमन एवं पतनको देखकर शुभाशुभ फलका ज्ञान करना चाहिए। इस शास्त्रमें दिव्य, अन्तरिक्ष और भौम इन तीनों प्रकारके उत्पातोंका वर्णन भी विस्तारसे किया है। वर्षोत्पात, दवोत्पात, उत्कोत्पात, गन्धर्वोत्पात, इत्यादि अनेक उत्पातोंके द्वारा शुभाशुभ फलका प्रतिपादन आया है। आचार्य ऋषिपुत्रके निमित्तशास्त्रमें सबसे बड़ा महत्वपूर्ण विषय ‘मेघयोग'का है। इस प्रकरणमें नक्षत्रानुसार वर्षाके फल का अच्छा विवेचन किया है। प्रथम वृष्टि यदि कृत्तिका नक्षत्रमें हो, तो अनाजकी हानि, रोहिणीमें हो, तो देशकी हानि, मृग शिरामें हो, तो सुभिक्ष, आर्दामे हो, तो खण्डवृष्टि, पुनवंसुमें हो, तो एक माह वृष्टि, पुष्यमें हो, तो श्रेष्ठ वर्षा, आश्लेषामें हो, तो अन्न-हानि, मघा और पूर्वा फाल्गुनीमें हो, तो सुभिक्ष, उत्तराफाल्गुनी और हस्तमें हो, तो प्रसन्नता, विशाखा और अनुराधामें हो, तो अत्यधिक वर्षा, ज्येष्ठामें हो, तो वर्षाकी कमी मूलमें हो, तो पर्याप्त वर्षा, पूर्वाषाड़ा-उत्तराषाढ़ा और श्रवणमें हो, तो अच्छी वर्षा, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद और उत्तराभाद्रपदमें हो, तो उत्तम वृष्टि और सुभिक्ष, एवं रेवतो आश्विनी और भरणी में हो, तो पर्याप्त वृष्टिके साथ अन्नभाव श्रेष्ठ रहता है और प्रजा सब तरहसे सुख प्राप्त करती है। भट्टोत्पलि-टीकामें जो उद्धरण आये हैं उनमें सप्तमस्थ गुरु शुक्रके फलका प्रतिपादन बहुत ही रोचक और महत्त्वपूर्ण है। सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण का फलादेश भी तिथि और नक्षत्रोंके क्रमसे वर्णित है। भुक, अभुक नक्षत्रोंका फलादेश भी वतलाया गया है। सारांश यह है कि ऋषिपुत्रकी पूर्ण रचना एक निमित्तशास्त्र ही उपलब्ध है। विभिन्न ग्रन्थोंमें उद्धरण पाये जानेसे इनकी संहिता विषयक रचनाका भी अनुमान लगाया जा सकता है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara- 2
Acharya Shri Rushiputra 5th Century (Prachin)
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