हैशटैग
#shridattamaharaj
सारस्वसाचार्योंनमे श्रीदत्त का भी नाम आता है। तपस्वी और प्रवादियोंके विजेताके रूपमें इनका उल्लेख मिलता है। आदिपुराणमें बताया है-
श्रीदत्ताय नमस्तस्मै तप:श्रीदीप्तमतये।
कण्ठीरवायितं येन प्रवादीमप्रभदने||
मैं उन श्रीदत्तके लिये नमस्कार करता है, जिनका शरीर तपोलक्ष्मीसे अत्यन्त सुन्दर है और प्रवादीरूपी हस्तियोंके भवन में सिंहके समान थे।
श्रीदत्त वादी और दार्शनिक विद्वान थे। आचार्य विद्यानन्दने इनको ६३ वादियोंको पराजित करनेवाला लिखा है। विक्रमकी छठी शतीके विद्वान देवनन्दिने जेनेन्द्रव्याकरणमें 'गुणे श्रीदत्तस्य स्त्रियास' (१/४/३४) सूत्र में श्रीदत्तका उल्लेख किया है। देवनन्दि द्वारा उल्लिखित, आदिपुराण तथा तस्वार्थश्लोकवार्तिकमें निर्दिष्ट श्रीदत्त एक ही हों, तो इनका समय देवनन्दिसे पूर्व अर्थात वि. सं. की चौथी-पांचवीं शती होना चाहिए। जल्पनिर्णय नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थका इन्हें रचयिता भी कहा गया है। विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पृ. २८० पर लिखा है-
द्विप्रकारं जगौ जल्पं तत्व-प्रातिभमोचरम्।
त्रिषष्ठेर्वदिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये।।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
आचार्य श्रीदत्त 4th 5th Century
सारस्वसाचार्योंनमे श्रीदत्त का भी नाम आता है। तपस्वी और प्रवादियोंके विजेताके रूपमें इनका उल्लेख मिलता है। आदिपुराणमें बताया है-
श्रीदत्ताय नमस्तस्मै तप:श्रीदीप्तमतये।
कण्ठीरवायितं येन प्रवादीमप्रभदने||
मैं उन श्रीदत्तके लिये नमस्कार करता है, जिनका शरीर तपोलक्ष्मीसे अत्यन्त सुन्दर है और प्रवादीरूपी हस्तियोंके भवन में सिंहके समान थे।
श्रीदत्त वादी और दार्शनिक विद्वान थे। आचार्य विद्यानन्दने इनको ६३ वादियोंको पराजित करनेवाला लिखा है। विक्रमकी छठी शतीके विद्वान देवनन्दिने जेनेन्द्रव्याकरणमें 'गुणे श्रीदत्तस्य स्त्रियास' (१/४/३४) सूत्र में श्रीदत्तका उल्लेख किया है। देवनन्दि द्वारा उल्लिखित, आदिपुराण तथा तस्वार्थश्लोकवार्तिकमें निर्दिष्ट श्रीदत्त एक ही हों, तो इनका समय देवनन्दिसे पूर्व अर्थात वि. सं. की चौथी-पांचवीं शती होना चाहिए। जल्पनिर्णय नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थका इन्हें रचयिता भी कहा गया है। विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पृ. २८० पर लिखा है-
द्विप्रकारं जगौ जल्पं तत्व-प्रातिभमोचरम्।
त्रिषष्ठेर्वदिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये।।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
आचार्य श्रीदत्त 4th 5th Century
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
#shridattamaharaj
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री श्रीदत्त (प्राचीन) चौथी-पांचवीं शताब्दी
सारस्वसाचार्योंनमे श्रीदत्त का भी नाम आता है। तपस्वी और प्रवादियोंके विजेताके रूपमें इनका उल्लेख मिलता है। आदिपुराणमें बताया है-
श्रीदत्ताय नमस्तस्मै तप:श्रीदीप्तमतये।
कण्ठीरवायितं येन प्रवादीमप्रभदने||
मैं उन श्रीदत्तके लिये नमस्कार करता है, जिनका शरीर तपोलक्ष्मीसे अत्यन्त सुन्दर है और प्रवादीरूपी हस्तियोंके भवन में सिंहके समान थे।
श्रीदत्त वादी और दार्शनिक विद्वान थे। आचार्य विद्यानन्दने इनको ६३ वादियोंको पराजित करनेवाला लिखा है। विक्रमकी छठी शतीके विद्वान देवनन्दिने जेनेन्द्रव्याकरणमें 'गुणे श्रीदत्तस्य स्त्रियास' (१/४/३४) सूत्र में श्रीदत्तका उल्लेख किया है। देवनन्दि द्वारा उल्लिखित, आदिपुराण तथा तस्वार्थश्लोकवार्तिकमें निर्दिष्ट श्रीदत्त एक ही हों, तो इनका समय देवनन्दिसे पूर्व अर्थात वि. सं. की चौथी-पांचवीं शती होना चाहिए। जल्पनिर्णय नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थका इन्हें रचयिता भी कहा गया है। विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पृ. २८० पर लिखा है-
द्विप्रकारं जगौ जल्पं तत्व-प्रातिभमोचरम्।
त्रिषष्ठेर्वदिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये।।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
आचार्य श्रीदत्त 4th 5th Century
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara- 2
Acharya Shri Shridatta (Prachin) 4th - 5th Century
Acharya Shri Shridatta
#shridattamaharaj
15000
#shridattamaharaj
shridattamaharaj
You cannot copy content of this page