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#siddhasensenjimaharaj
सारस्वताचार्योंमें कवि और दार्शनिकके रूपमें सिद्धसेन प्रसिद्ध हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएं इन्हें अपना-अपना आचार्य मानती हैं। आचार्य जिनसेनने अपने आदिपुराणमें सिद्धसेनको कवि और वादिगजकेसरी दोनों कहा है-
'कवयः सिद्धसेनाद्या वयं च कवयो मताः।
मणय: पद्मरागाखा ननु काचोऽपि मेचकः।।
प्रवादिकरियूपानां केसरी नयकेसरः।
सिद्धसेनकविर्जीयाद्विकल्पनखराङ्करः॥'
पूर्वकालमें सिद्धसेन आदि अनेक कवि हो गये हैं और में भी कवि हैं। पर दोनोंमें उतना ही अन्तर है, जितना कि पारागर्माण और कांचर्माणमें होता है।
वे सिद्धसेन कवि जयवन्त हों, जो प्रवादिरूपी हाथियोंके झुण्डके लिए सिंहके समान हैं। नेगमादि नय ही जिनके केशर-अयाल तथा अस्ति-नास्ति आदि विकल्प हो जिनके तीक्ष्ण नाखून थे।
आचार्य हेमचन्द्रने अपने शब्दानुशासनमें "उत्कृष्टेअपन" (२/२/३९) सूत्रके उदाहरणमें 'अनुसिद्धसेनं कवयः' द्वारा सिनसेनको सबसे बड़ा कवि बताया है।
जैनेन्द्र व्याकरणके 'उपेन' (१/४/१६) सूत्रको वृत्तिमें अभयनन्दिने 'उप सिद्धसेनं वैयाकरणाः' उदाहरण द्वारा सिद्धसेनको श्रेष्ठ वयाकरण बतलाया है।
जिनसेन प्रथमने अपने 'हरिवंशपुराण में सिद्धसेनकी सूक्तियों (वचनों) को तीर्थंकर ऋषभदेवकी सूक्तियोंके समान सारयुक्त एवं महत्त्वपूर्ण बतलाया है । यथा-
जगत्प्रसिद्धबोधस्य वृषभस्येव निस्तुषाः।
बोधयन्ति सतां बुद्धि सिद्धसेनस्य सूक्तयः।।
अर्थात् जिनका श्रेष्ठ भान संसारमें सर्वत्र प्रसिद्ध है ऐसे श्री सिद्धसेनकी निर्मल सूफियों श्रीऋषभ जिनेन्द्रको सूक्तियों के समान सत्पुरुषोंको बुद्धिको सदा विकसित करती हैं।
सिद्धसेनके जीवन-वृत्तके सम्बन्धमें प्रभावकचरितमें जो तथ्य उपलब्ध हैं उनसे प्रकट है कि उज्जयिनी नगरीके कात्यायन गोत्रीय देवर्षि ब्राह्मणकी देवश्री पत्नीके उदरसे इनका जन्म हुआ था। ये प्रतिभाशाली और समस्त शास्त्रोंके पारंगत विद्वान थे। वृद्धवादि जब उज्जयिनी नगरी में पधारे तो उनके साथ सिद्धसेनका शास्त्रार्थ हुआ। सिद्धसेन वृद्धवादिसे बहुत प्रभावित हुए और उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। गुरूने इनका दीक्षानाम कुमुदचन्द्र रखा। आगे चलकर ये सिद्धसेनके नामसे प्रसिद्ध हुए। हरिभद्रके 'पचवस्तु' ग्रंथमें 'दिवाकर' विशेषण उपलब्ध होता है। उसमें बताया गया है कि दु:षमकालरूप रात्रिके लिए दिवाकर- सूर्यके समान होनेसे दिवाकरका विरुद इन्हें प्राप्त था।
आयरियसिद्धसेणेण सम्मइए पइठ्ठि अजसेणं।
दूसमणिस-दिवागर कप्पंतणओ तदक्खेणं।।
सन्मति-टीकाके प्रारम्भमें अभयदेवसूरि (१२वीं शती ई.) ने भी इन्हें दिवाकर कहा है। दु:षमाकाल श्रमणसंघकी अवचूरिमें सिद्धसेनको 'दिवाक' के स्थान पर 'प्रभावक' लिखा गया है और इनके गुरुका नाम धर्माचार्य बताया है।
इनके सम्बन्धमें यह भी कहा जाता है कि इन्होंने उजयिनीमें महाकालके मन्दिरमें 'कल्याणमन्दिर' स्तोत्र द्वारा रुद्र-लिङ्गका स्फोटन कर पापार्श्वनाथका बिम्ब प्रकट किया था और विक्रमादित्य राजाको सम्बोधित किया था। यथा-
'वृद्धवादी पादलिप्ताश्चात्र तथा सिद्धसेनदिवाकरो येनोज्जयिन्यां महाकालप्रासाद-रुद्रलिङ्गस्फोटनं विधाय कल्याणमन्दिरस्तवेन श्रीपाश्वनाथबिम्ब प्रकटीकृतं श्रीविक्रमादित्यश्च प्रतिबोधिरास्तद्राज्यं तु श्रीचीरसप्ततिवर्षचतुष्टये सञ्जातम्।'
पट्टावलीसारोद्धारमें लिखा है-
'तथा सिद्धसेनदिवाकरोऽपि जातो येनोज्जयिन्यां महाकालप्रासादे रुद्र लिङ्गस्फोटनं कृत्वा कल्याणमन्दिरस्तवनेन श्रीपार्श्वनाथबिम्ब प्रकटोकृत्य श्री विक्रमादित्यराजापि प्रतिबोधितः श्रीवीरनिर्वाणात् सप्ततिवर्षाधिकशतचतुष्टये ४७० विक्रमे श्रीविक्रमादित्य राज्यं सज्जातम्।'
गुरुपट्टावली में भी इसी तथ्यकी पुनरावृत्ति प्राप्त होती है- 'तथा श्रीसिद्धसेनदिवाकरेणोज्जयिनीनगयों महाकालप्रासादे लिङ्गस्फोटनं विधाय स्तुत्या ११ काव्ये श्रीपार्श्वनाथबिम्ब प्रकटीकृतम्" कल्याणमन्दिरस्तोत्रं कृतम्।'
इन पट्टावलियोंसे ज्ञात होता है कि सिद्धसेनके प्रभावसे उज्जयिनीमें शिवलिङ्ग-स्फोटनकी घटना घटी थी। पट्टावलियोंके कालक्रमके अवलोकनसे प्रतीत होता है कि उज्जयिनीकी इस घटनाका समावेश विक्रमकी १५ वीं शताब्दीसे हुआ है। अतः सम्भव है कि सिद्धसेनकी इस घटनाको समन्तभद्रकी शिवपिण्डस्फोटनकी घटनाके अनुकरणपर कल्पित किया गया हो।
पण्डित जुगलकिशोरजी मुख्तारने सिद्धसेनके स्तुत्यात्मक साहित्यका आकलन कर निम्नलिखित निष्कर्ष उपस्थित किया है-
"यहाँ 'स्तुतयः' 'यूथाधिपतेः' तथा 'तस्य शिशुः" ये पद खास तौरसे ध्यान देने योग्य हैं। 'स्तुतयः' पदके द्वारा सिद्धसेनीय ग्रन्थोके रूपमें उन द्वात्रिशिकाओंकी सूचना की गयी है जो स्तुत्यात्मक हैं और शेष पदोंके द्वारा सिद्धसेनको अपने सम्प्रदायका प्रमुख आचार्य और अपनेका उनका परम्पराशिष्य घोषित किया गया है। इस तरह श्वेताम्बर सम्प्रदायके आचार्यरूपमें यहाँ वे सिद्धसेन विवक्षित हैं जो कतिपय स्तुतिरूप द्वात्रिशिकाओंके कर्ता हैं, न कि वे सिद्धसेन जो कि स्तुत्येतर द्वात्रिशिकाओंके अथवा खासकर 'सन्मति' सूत्रके रचयिता हैं।"
उपर्युक्त कथनसे यह स्पष्ट है कि मुख्तार साहब दो सिद्धसेन मानते हैं। एक सिद्धसेन वे हैं जो सन्मतिसूत्र और मार द्वात्रिणिभोंने इन हैं। और दूसरे वे सिद्धसेन, जिन्होंने स्तुत्तिरूप द्वाविशिकाओंकी रचना की है।
दिवाकरयतिके रूप में रविषेणाचार्यके पद्मचरितकी प्रशस्ति में भी एक सिद्धसेनका उल्लेख आया है। इसमें इन्हें इन्द्रगुरुका शिष्य, अर्हन मुनिका गुरु और रविषेणके गुरु लक्ष्मणसेनका दादागुरु बतलाया है।
आसीदिन्द्रगरोदिवाकर-यत्तिः शिष्योऽस्य चार्हन्मुनिः।
तस्माल्लक्ष्मणसेन-सन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तु स्मृतम्॥
यहाँ यह स्मरणीय है कि श्वेताम्बर प्रबन्धों और पट्टावलियोंके समान सिद्धसेनके साथ उज्जयिनीके महाकाल मंदिरमें घटित घटनाका उल्लेख दिगम्बर सम्प्रदायमें भी पाया जाता है। सेनगणकी पट्टावलीके निम्न वाक्यमें कहा है-
"(स्वस्ति) श्रीमदुज्जयिनीमहाकालसंस्थापनमहाकाललिझमहीघर-वाग्वत्रदण्ड-विष्ट्याविष्कृतश्रोपावतीर्थक्वरप्रतिद्वन्दश्रीसिद्धसेनभट्टारकाणाम॥१४॥"
गुरु | शिष्य |
आचार्य श्री वृद्धवादि | -- |
सिद्धसेनके समयके सम्बन्धमें अनेक मान्यता प्रचलित है। एक मान्यता इनको प्रथम शतीका विद्वान स्वीकार करती है और प्रमाणमें पट्टावली-समुच्चयमें सङ्कलित पट्टावलियोंको प्रस्तुत करती है। पर यह मत प्रमाणभूत नहीं है। यतः विक्रमादित्य नामके कई राजा हुए हैं। अतएव पट्टावलीमें उल्लिखित विक्रमादित्य वि. सं. का प्रवर्तक नहीं है। उज्जयिनीके साथ कई विक्रमादित्योंका सम्बन्ध है। अतः सम्भव है कि यह विक्रमादित्य विक्रम उपाधिधारी चन्द्रगुप्त द्वितीय हो।
द्वितीय मतके अनुसार सिद्धसेनका समय जैनेन्द्र व्याकरणके रचयिता पूज्यपादसे पूर्व माना गया है। इस मतके प्रवर्तक आचार्य पण्डित सुखलालजी संघवी हैं। आपने पूज्यपादके व्याकरणगत "वेत्तेः सिद्धसेनस्य" ५/१/७ सुत्रमें निर्विष्ट सिबसेनके मसका निरूपण करते हुए कहा है कि अनुपसर्ग और सकर्मक विद् धातुसे रेफका आगम होता है। इस मान्यताका प्रयोग नवमी त्रिशिकाके २२वें पद्यमें 'विद्रते' इस प्रकार रेफ आगमवाला प्रयोग पाया जाता है। अन्य वैयाकरण सम उपसर्गपूर्वक और अकर्मक विद धातुमें 'र' का आगम मानते हैं। पर सिद्धसेन अनुपसर्ग और सकर्मक विद्धातुमें रेफका आगम स्वीकार करते हैं। इनकी इस विलक्षणताका निर्देश उनका बहुश्रुतत्व सूचित करता है। इसके अतिरिक्त सर्वार्थसिद्धिके सातवें अध्यायके १३वे सूत्रमें 'उक्तञ्च' के बाद सिद्धसेन दिवाकरके एक पद्यका अंश उद्धृत मिलता है। इससे उनका समय पूज्यपादके पूर्व विक्रमकी पच्चम शताब्दीका प्रथम पाद अथवा चतुर्थ शताब्दीका अन्तिम पाद होना चाहिए।
मुनि जिनविजयजीने मल्लवादिके "द्वादशारनयचक्र' में 'दिवाकर' का उल्लेख प्राप्त कर और प्रभावचरितके अन्तर्गत 'विजयसिंहचरितम्' में वीर निर्वाण संवत् ८८४को मल्लवादिका समय मानकर सिढसेनका काल वि. सं. ४१४ माना है।
तीसरे मतके प्रवर्तक डॉ. हीरालालजी जैन हैं। इन्होंने सिद्धसेनको गुप्तकालीन सिद्ध किया है। एक द्वात्रिशिकाके आधारपर विक्रमादित्य उपाधिधारी चन्द्रगुप्त द्वितीयका समकालीन माना है। अन्यत्र भी आपने लिखा है-
"सम्मइसुप्तका' रचनाकाल चौथी-पांचवीं शताब्दी ई. है।"
डॉ. जैनकी मान्यता पण्डित सुखलालजी संघवीके समान ही है।
चातुर्थ मत डॉ. पी. एल. वैद्यका है, जिन्होंने न्यायावतारकी प्रस्तावनामें प्रभावकचरितके निम्नलिखित पद्यको उद्धृत किया है और उसमें आये 'वीर वत्सरात' पदकी व्याख्या 'वीरविक्रमात्' पाठ मानकर की है-
श्रीविरवत्सरादपशताष्टके चतुरशीतिसंयुक्ते।
जिग्ये स मल्लवादी बौद्धांस्तद्वधन्तरांश्चापि॥
तदनुसार डॉ. वैद्य सिद्धसेनका समय आठवीं शती मानते हैं। आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने अनेक तर्क और प्रमाणोंके आधारपर न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेन और कतिपय द्वात्रिशिकाओंके कर्ता सिद्धसेनको सन्मतितर्कके कर्ता सिद्धसेनसे भिन्न माना है। आपने 'सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन' शीर्षक विस्तृत निबन्धमें यह निष्कर्ष निकाला है कि 'सन्मतिसूत्र' के कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर विद्वान हैं और न्यायावतारके कर्ता श्वेताम्बर। द्वात्रिशिकाओंमें कुछके रचयिता दिगम्बर सिद्धसेन हैं और कुछके कर्ता श्वेताम्बर सिद्धसेन। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें श्वेताम्बर आगमोंकी संस्कृत में रूपान्तरित करनेके विचारमात्रसे सिद्धसेनको बारह वर्षके लिए संघसे निष्कासित करनेका दण्ड दिया गया था। इस अवधिमें सिद्धसेन दिगम्बर साधुओं के सम्पर्क में आये और उनके विचारोंसे प्रभावित हुए। विशेषतः समन्तभद्रके जीवनवृत्तान्तों और उनके साहित्यका उनपर सबसे अधिक प्रभाव पड़ा, इसलिए वे उन्हीं जैसे स्तुत्यादि कार्योंमें प्रवृत्त हुए। उन्हींके साहित्यके संस्कारोंके कारण सिद्धसेनके साथ उज्जयिनीको वह महाकालवाली घटना भी घटित हुई होगी, जिससे उनका प्रभाव सर्वत्र व्याप्त हो गया होगा। सिद्धसेनके इस ब़ते प्रभावके कारण ही श्वेताम्बर संघको अपनी भूलका अनुभव हुआ होगा और प्रायश्चित्तकी शेष अवधिको रहकर उन्हें प्रभावक आचार्य घोषित किया गया होगा।
दिगम्बर सम्प्रदायमें सिद्धसेनको सेनगणका आचार्य माना गया है।अतएव 'सन्मतिसूत्र'के कर्ता सिद्धसेनका समय समन्तभद्रके पश्चात्और पूज्यपादके पूर्व या समकालिक माना जा सकता है।
आचार्य मुख्तार साहबकी दो सिद्धमेनवाली मान्यता वृद्धिसंगत प्रतीत होतो है। ग्रंथके अन्तरंग परीक्षणसे मुख्तारसाहबने बतलाया है कि विक्रम संवत् ६६६के पूर्व सिद्धसेन हुए हैं। 'सन्मति' सूत्रके कर्ता सिद्धसेन कैवालीके ज्ञान-दर्शनोपयोग-विषयमें अभेदवादके पुरस्कर्ता हैं। उनके इस अभेदवादका खण्डन दिगंबर सम्प्रदायमें अकलंकदेवने तत्वार्थवात्तिमें और श्वेताम्बर सम्प्रदायमें सर्वप्रथम जिनभद्र क्षमाश्रमणके "विशेषावश्यकभाष्य' और 'विशेषेणती' ग्रन्थोंमें किया है। साथ ही सन्मतिसूत्रके तृतीय काण्डकी "णत्थिपुढवीविसिट्टो" और "दोहिं वि णएहिं णोय" गाथाएं विशेषावश्यकभाष्यमें क्रमशः ग. नं. २१०४, २१९५ पर उद्धत पायी जाती हैं। इसके अतिरिक्त विशेषावश्यकभाष्यकी स्वोपज्ञटीकामें 'णामाएलियं दव्वट्टियस्स' इत्यादि गाथाकी व्याख्या करते हुए लिखा है-
"द्रव्यास्तिकनयावलम्बिनौ संग्रह-व्यवहारो ऋजुसूत्रादयस्तु पर्यायनयमत्तानुसारिणः आचार्यसिद्धसेनाऽभिप्रायात।"
इन उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि सिद्धसेनके मतका और उनकेगाथावाक्योंका उनमें उल्लेख किया गया है। अकलंकदेव विक्रम संवत् ७ वीं शताब्दीके विद्वान् हैं और जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने विशेषावश्यकभाष्यको रचना शक सं. ५३१ (वि. सं. ६६६) में की है। अतएव सिद्धसेन विक्रमकी ७वीं शताब्दीसे पूर्व वर्ती हैं। उल्लेखनीय है कि आचार्य विरसेनने भी धवला और जयधवला दोनोंमें सिद्धसेनके सन्मतिसूत्रके नामनिर्देशपूर्वक उसके वाक्योंको उदघृत किया है तथा उनके साथ होनेवाले विरोधका परिहार किया है। विरसेनका समय ईसाकी ९ वि शती है। अतः सिद्धसेन स्पष्टतया उनसे भी पूर्ववर्ती सिद्ध है। पूज्यपाद देवनन्दिने सन्मतिसूत्रके ज्ञानदर्शनोपयोगके अभेदबादकी चर्चा तक नहीं की, जब कि अकलंकदेवने तत्त्वार्थवात्तिकमें उसकी चर्चा ही नहीं, सयुक्तिक मीमांसा भी की है। यदि पूज्यपादसे पूर्व सन्मतिसूत्र रचा गया होता, तो पूज्य पाद अकलंककी तरह उसके अभेदवादकी मीमांसापूर्वक हीयुगपद्वादका प्रतिपादन करते। अतः सिद्धसेनका समय पूज्यपाद (वि. की ६ठी शती) और अकलंक ( वि. की ७ वीं शती) का मध्यकाल अर्थात् वि. सं. ६२५ के आस पास होना चाहिए।
उपर्युक्त विवेचनसे स्पष्ट है कि सिद्धसेन नामके एक से अधिक विद्वान हुए हैं। सन्मतिसूत्र और कल्याणमन्दिर जैसे ग्रंथोंके रचयिता सिद्धसेन दिगम्बर सम्प्रदायमें हुए हैं। इनके साथ दिवाकर विशेषण नहीं है। दिवाकर विशेषण श्वेताम्बर सम्प्रदायमै हुए सिवसेनके साथ पाया जाता है, जिनकी कुछ द्वात्रिशिकाएं, न्यायावतार आदि रचनाएं हैं। यहां दिगम्बर परम्परामें हुए सिद्धसेनकी उपलब्ध दो रचनाओंको विवेचित किया जाता है।
प्राकृत भाषामें लिखित न्याय और दर्शनका यह अनूठा ग्रन्थ है।आचार्यने नयोंका सांगोपांग विवेचन कर जैनन्यायको सुदढ़ पद्धतिका आरम्भ किया है। कावत्र करनेकी मारलेको प्रतिमाको 'यह' कहागया है और विभिन्न दर्शनोंका अन्तर्भाव विभिन्न नयोंमें किया है। इस ग्रन्थके ३ काण्ड हैं- (१) नयकाण्ड, जीवकाण्ड या ज्ञानकाण्ड और (३) सामान्य-विशेषकाण्ड या ज्ञेयकाण्ड।
प्रथम काण्डमें ५४, द्वितीयमें ४३ और तृतीयमें ६९ गाथाएँ हैं। इस प्रकार कुल १६६ गाथाओं में अन्य समाप्त हुआ है।
प्रथम काण्डमें द्रव्यार्थीक और पर्यायार्थीक नयोंके स्वरूपका विस्तारपूर्वक विवेचन आया है। तीर्थंकरवचनोंके सामान्य और विशेषभावके मूल प्रतिपादक ये दोनों ही नय हैं। शेष नयोंका विकास और निकास इन्हींसे हुआ है। लिखा है-
तिस्थयरवयणसंगह-विसेसपत्थारमूलवागरणी।
दव्वदिओ य पज्जवणमओ व सेसा वियप्पा सि।।
दव्वट्टियनयपयडी सुद्धा संगहपरूवणाविसओ।
पडिरुवे पुण वयणत्थनिन्छओ तस्स ववहारो॥
द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दोनों नय क्रमशः अभेद और भेदको ग्रहण करते हैं। तीर्थंकरके वचनोंकी सामान्य एवं विशेषरूप राशियोंके मूलप्रतिपादक द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय हैं। शेष नय भेद या अभेदको विषय करने के कारण इन्हीं नयोंके उपमेद हैं। द्रव्यार्थिक नयको शुद्ध प्रकृति संग्रहकी प्ररूपणा का विषय है और प्रत्येक वस्तुके सम्बन्धमें होनेवाला शब्दार्थ-निश्चय तो संग्रहका व्यवहार है।
ऋजूसूत्रनय अर्थात् तदनुसारी जो वचन विभाग, वह पर्यायनयका मूल आधार है। शब्दनय, समभिरूढनय और एवंभूतनय उत्तरोत्तर सूक्ष्म भेद वाले होनेसे पर्यायनयके अन्तर्गत ही है। नाम, स्थापना और द्रव्य ये तीन द्रव्यार्थिकनयके निक्षेप है और भावनिक्षेप पर्यायाधिक नयके अन्तर्गत है। इस प्रकार इस काण्डमें उत्पाद, व्यय और धौव्यात्मक वस्तुका निरूपण कर नयोंका विवेचन किया है। मानुष्य जो कुछ सोचता या कहता है वह या तो अभेद की ओर झुकता है या भेदकी ओर। अभेदकी दृष्टि से किये गये विचार और उसके द्वारा प्रतिपादित वस्तुको संग्रह या सामान्य कहते हैं। भेदकी दृष्टिसे किया गया विचार और प्रतिपादित वस्तु विशेष कही जाती है। इस प्रकार इस काण्डमें द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयोंका विश्लेषण किया गया है।
द्वितीय काण्डमें दर्शन और ज्ञानकै स्वरूपका कथन करनेके पश्चात् आत्मा सामान्य-विशेषात्मक स्वरूपका निरूपण कर द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयोंको घटित किया है। इस द्वितीय काण्डमें ज्ञान और दर्शन के समयभेदका कथन करते हुए केवलीके ज्ञान और दर्शनकेअभेदवादका समर्थन किया है। लिखा है-
मणपज्जवणाणंतो णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो।
केवलणाणं पुण दंसणं ति णाणं ति य समाण।
ज्ञान और दर्शनका विश्लेषण अर्थात् कालभेद मनःपर्यय ज्ञान तक है, पर केवलज्ञानके विषयमें दर्शन और ज्ञान ये दोनों समान हैं। अर्थात् इन दोनोंका एक काल है।
इस प्रकार केवलीके ज्ञान-दर्शनका अभेदवाद स्थापित कर क्रमवादी और सहवादीको समीक्षा प्रस्तुत की है। तार्किक शैली में पक्ष-प्रतिपक्ष स्थापन पुरस्सर विषयका निरूपण किया है। दर्शन और ज्ञान इन दोनोंकी परिभाषा एवं विषय वस्तुका विवेचन करते हुए केवलज्ञानके पर्यायोंका कथन किया है।
तृतीय काण्डमें सामान्य और विशेषरूप वस्तुका कथन है। अतः इसेज्ञेय काण्ड कहा जा सकता है। सामान्य और विशेष परस्परमें एक दूसरेसे सर्वथा भिन्न या सर्वथा अभिन्न नहीं हैं। आचार्यने लिखा है-
सामण्णम्मि विसेसो विसेसपक्खे य वयणचिणिवेसो।
दव्वपरिणाममण्ण दाएइ तयं च णियमेइ।।
एगंतणिव्विसेस एयतसिसियं च बघमागो ।
दव्वस्स पज्जवे पज्जवा हि दवियं णियतेइ॥
अर्थात् सामान्यमें विशेषविषयक वचनका और विशेषमें सामान्यविषयक वचनका जो प्रयोग होता है, वह अनुक्रमसे सामान्य-द्रव्यके परिणामको उससे भिन्न रूप में दिखलाता है और उसे-विशेषको सामान्य में नियत करता है।
एकान्त निविशेष सामान्यका और एकान्त विशेषका प्रतिपादन करनेवाला द्रव्यके पर्यायोंको उससे भिन्न और पृथक् बतलाता है। व्यवहार ज्ञानमूलक होता है और व्यवहारको अबाधकता ही ज्ञानकी यथार्थताका प्रमाण है। वस्तु का स्वरूप निश्चित करनेका एकमात्र साधन यथार्थज्ञान है और वस्तु सामान्य विशेषात्मक है। न तो सामान्यरहित विशेषकी प्रतीति होती है और न विशेष रहित सामान्यकी ही। सामान्य और विशेष दोनों परस्परमें सापेक्ष हैं। इस काण्डके अन्तमें भगवान जिनवचन- अनेकान्तकी भद्र-कामना की है-
भद्ंद मिच्छादंसणसमहमयस्य अमयसारस्स|
जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहागिम्मस्स।।
भगवान जिनवधन-अनेकान्तशासनका भद्र हो-सबका कल्याण करता हुआ सदा विद्यमान रहे, जो मिथ्यादर्शनोंके समूहका मथक- उनमें परस्पर सापेक्षता स्थापक है, अमृतसार है और निष्पक्ष जनों द्वारा सरलतासे ज्ञातव्य है।
इस ग्रन्थकी प्राकृत भाषा महाराष्ट्री है। 'य' श्रुतिका पालन सर्वत्र हुआ है। 'य' श्रुतिकी यह व्यवस्था वररुचिके व्याकरणमें नहीं मिलती। प्राकृत वैयाकरणोंमें आचार्य हेमचन्द्रने ही 'य' श्रुतिका विधान किया है। श्वेताम्बर आगम ग्रन्थोंकी प्राकृत अर्धमागधी है, पर इस ग्रन्थकी प्राकृत महाराष्ट्री है। जो शौरसेनीका एक उपभेद है। इस भाषाका प्रयोग ई. सन् की चौथी, पांचवीं शताब्दीसे हुआ है। नाटकीय शौरसेनी और जैन शौरसेनीके प्रभावसे ही उक्त महाराष्ट्रीका भेद विकसित हुआ है। यहाँ 'य' श्रुतिके कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं-
"तित्थयर (तीर्थंकर) १/३, वयण (वदन) १/३, सुहूमभेया (सूक्ष्मभेदा), पयडी (प्रकृति) १/४, णयवाया (नयवादाः) १/२५, वियप्पं (विकल्प) १/३३, सत्तवियप्पो (सप्तविकल्प:) १/४१, जएयव्व (यत्तितव्यम्) ३/६५, सुयणाण (श्रूतज्ञान) २/२७, सयले (सकले) २/२८, सायारं (साकार) २/१०, सया (सदा २/१०, णिय (निज) २/१४ आदि।
महाराष्ट्रीकी अन्य प्रवृत्तियोंमें प्रथमा विभक्तिके एक वचनमें ओकारका पाया जाना भी उपलब्ध है। यथा- पज्जणओ (पर्यायार्थिकनयः) १/३, विसओ (विषयः) १/४, ववहारो (व्यवहारस) १/४, दविओवओगो (द्रव्योपयोगः) १/८, गादो (संसार) १/१७, समूहसिद्धी (समूहसिद्ध) १/२७, अत्यो (अर्थः) १/२७ अणाइणिहणो (अनादिनिधनः) १।३७ आदि।
सप्तमी विभक्तीके एक वचनमें 'म्मि'का व्यवहार भी पाया जाता है- थोरम्मि, ससमयम्मि ३/२, तम्मि ३/४, दसणम्म २/२४, चक्खुम्मि २/२४ आदि।
इस ग्रंथकी उपलब्ध पाण्डुलिपियों में पाठान्तर भी प्राप्त होते हैं। यथा-'सुयणाणं के स्थान पर 'सुदणाण', 'सयले के स्थान पर 'सगले' और 'साया'के स्थान पर 'सायारं' जैसे प्रयोग प्राप्त हैं। इन प्रयोगोंसे प्रतीत होता है कि इस प्रकारके रूप दिगम्बर आगमोंकी शौरसेनीके हैं। इस ग्रन्थ पर दिगम्बराचार्य सुमतिदेव द्वारा विरचित एक टीकाका उल्लेख आचार्य वादिरजने किया है, जो अनुपलब्ध है। दूसरी टीका अभयदेव कृत २५०० श्लोक प्रमाण तत्त्वविधायिनी नामकी उपलब्ध है।
इस स्तोत्रमें ४४ पद्य हैं। रचयिताका नाम कुमुदचन्द्र आया है, जो सिद्ध सेनका दीक्षानाम है। लिखा है-
जननयनकुमुदचन्द्रप्रभास्वराः स्वर्गसम्पदो मुक्त्वा।
ते विगलितमलनिचया अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते।। -पद्य ४४
इस पद्यमें श्लेष द्वारा कविका नाम अभिव्यक्त किया गया है। स्तोत्रमें पार्श्वनाथकी स्तुत्ति की गयी है। प्रारम्भमें कविने अपनी अल्पज्ञताका निर्देश किया है। भगवानके मात्र नामोच्चारणका वर्णन करता हुआ कवि कहता है-
आस्तामचिन्त्यमहिमा जिन! संस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति।
तीव्रातपोपहतपान्यजनान्निदाथे प्रीणाति पद्मसरस: सरसोऽनिलोऽपि।
हे देव! आपके स्तवनकी अचिन्त्य महिमा है। आपका नाममात्र भी जीवोंको संसारके दुःखोंसे बचा लेता है। जिस प्रकार ग्रीष्मर्तुमें धूपसे पीड़ित व्यक्तिको, कमलयुक्त सरोवर तो सुख पहुंचाते ही हैं, पर उन सरोवरोंकी शीतलवायु भी सुख पहुँचाती है।
कामजयी वीतरागका महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कविने समीक्षात्मक और तुलनात्मक शैलीमें लिखा है-
'यस्मिन् हरप्रभृतयोऽपि हतप्रभावाः सोऽपि त्वया रतिपतिः क्षपितः क्षणेन।
विध्यापिता हुतमुजः पयसाय येन पीतं न कि सदपि दुर्द्धरवाडवेन॥'
जिस कामने हरि, हर, ब्रह्मा आदि महापुरुषोंको पराजित कर दिया, उस कामको भी मापने पराजित कर दिया, यह आश्चर्यकी बात नहीं है। यत: जो जल संसारकी समस्त अग्निको नष्ट करता है, उस जलको भी बड़वानल नामक समुद्रकी अग्नि नष्ट कर डालती है।
क्रोधस्त्वया यदि विभो। प्रथम निरस्तो ध्वस्तास्तदा वद कथं किल कर्मचौराः।
प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशिरापि लोके नीलदु माणि विपिनानि न कि हिमानी।।
संसारमें प्रायः देखा जाता है कि क्रोधी मनुष्य हो शत्रूओंको जीतते हैं, पर भगवन् ! आपने क्रोधको तो नवम गुणस्थानमे ही जीत लिया था। फिर क्रोधके अभावमें चतुर्दश गुणस्थान तक कर्मरूपो शत्रुओंको कैसे जीता? आचार्य सिद्धसेन– कुमुदचन्द्र ने इस लोकविरुद्ध तथ्यपर प्रथम आश्चर्य प्रकट किया, पर जब उन्हें ध्यान आया कि शीतल तुषार बड़े बड़े वनोंको क्षण भरमें जला देता है अर्थात् क्षमासे भी शत्रू जोते जाते हैं, इस प्रकार उनके आश्चर्यका स्वयं ही समाधान हो जाता है।
इस स्तोत्र पर वैदिक प्रभाव भी है। वृषासुर द्वारा रोकी गयी गायोंका मोचन इन्द्रने किया था, इस तथ्यका संकेत निम्नलिखित पद्यपर प्रतिभासित होता है-
मुच्यन्त एव मनुजाः सहसा जिनेन्द्र! रौद्रेरुपद्रवशतैस्त्वयि बीशितेऽपि।
गोस्वामिनि स्फुरिततेअसि दृष्टमात्रे चोरेरिवाशु पशवः प्रपलायमानैः।।
हे नाथ! जिस प्रकार तेजस्वी राजाके दिखते ही चोर चुराई हुई गायोंको छोड़कर शीघ्र ही भाग जाते हैं, उसी प्रकार आपके दर्शन होते ही अनेक भयंकर उपद्रव मनुष्योंको छोड़कर भाग जाते हैं।
भक्तकी भगवच्चरणामें अटूट आशाका निरूपणा करता हुआ कवि कहता है-
जन्मान्तरेऽपि तव पादयुगं न देव! मन्ये मया महितमीहितदानदक्षम्।
तेनेह जन्मनि मुनीश! पराभवानां जातो निकेतमहं मथीताशयानाम्॥"
हे भगवान्! जो मैं नाना प्रकारके तिरस्कारोंका पात्र हो रहा है, उससे स्पष्ट पता चलता है कि मैंने आपके चरणोंकी पूजा नहीं की, क्योंकि आपके चरणोंके पुजारियों का कभी किसी जगह भी तिरस्कार नहीं होता।
भावशून्य भक्तिको निरर्थक और भावपूर्ण भक्तिको सार्थक बतलाते हुए कवि कहता है।
'आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि नूनं न चेतसि मया विषतोऽसि भक्त्या।
जातोऽस्मि तेनजनबान्धव! दुःखपात्रं यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्या।।'
हे भगवन् ! मैंने आपका नाम भी सुना, पूजा भी की और दर्शन भी किये, फिर मी दुःख मेरा पिण्ड नहीं छोड़ता है। इसका कारण यही है कि मैंने भक्तिभाव पूर्वक आपका ध्यान नहीं किया। केवल आडम्बरसे ही उन कामोंको किया है, न कि भावपूर्वक। यदि भावपूर्वक भक्ति, अर्चा या स्तवन करता सो संसारके ये दुःख नहीं उठाने पड़ते। इस स्तोत्र (पय ३१, ३२, ३३) में दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य पार्श्वनाथके उपसर्गोका वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है।
संक्षेप में यह स्तोत्र अत्यन्त सरस और भावमय है। प्रत्येक पद्यसे भक्तिरस निस्यूत होता है।
सिद्धसेन दार्शनिक और कवि दोनों हैं। दोनों में उनकी गति अस्खलित है। जहाँ उनका काव्यत्व उच्च कोटिका है यहां उनका उसके माध्यमसे दार्शनिक विवेचन भी गम्भीर और तत्त्वप्रतिपादनपूर्ण है।
उपजाति, शिखरणी, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, वंशस्थ, शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका एवं आर्या छन्दोंका व्यवहार किया गया है। ओजगुण इनकी कविताका विशेष उपकरण है।
सारस्वताचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन ।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्योंमें कवि और दार्शनिकके रूपमें सिद्धसेन प्रसिद्ध हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएं इन्हें अपना-अपना आचार्य मानती हैं। आचार्य जिनसेनने अपने आदिपुराणमें सिद्धसेनको कवि और वादिगजकेसरी दोनों कहा है-
'कवयः सिद्धसेनाद्या वयं च कवयो मताः।
मणय: पद्मरागाखा ननु काचोऽपि मेचकः।।
प्रवादिकरियूपानां केसरी नयकेसरः।
सिद्धसेनकविर्जीयाद्विकल्पनखराङ्करः॥'
पूर्वकालमें सिद्धसेन आदि अनेक कवि हो गये हैं और में भी कवि हैं। पर दोनोंमें उतना ही अन्तर है, जितना कि पारागर्माण और कांचर्माणमें होता है।
वे सिद्धसेन कवि जयवन्त हों, जो प्रवादिरूपी हाथियोंके झुण्डके लिए सिंहके समान हैं। नेगमादि नय ही जिनके केशर-अयाल तथा अस्ति-नास्ति आदि विकल्प हो जिनके तीक्ष्ण नाखून थे।
आचार्य हेमचन्द्रने अपने शब्दानुशासनमें "उत्कृष्टेअपन" (२/२/३९) सूत्रके उदाहरणमें 'अनुसिद्धसेनं कवयः' द्वारा सिनसेनको सबसे बड़ा कवि बताया है।
जैनेन्द्र व्याकरणके 'उपेन' (१/४/१६) सूत्रको वृत्तिमें अभयनन्दिने 'उप सिद्धसेनं वैयाकरणाः' उदाहरण द्वारा सिद्धसेनको श्रेष्ठ वयाकरण बतलाया है।
जिनसेन प्रथमने अपने 'हरिवंशपुराण में सिद्धसेनकी सूक्तियों (वचनों) को तीर्थंकर ऋषभदेवकी सूक्तियोंके समान सारयुक्त एवं महत्त्वपूर्ण बतलाया है । यथा-
जगत्प्रसिद्धबोधस्य वृषभस्येव निस्तुषाः।
बोधयन्ति सतां बुद्धि सिद्धसेनस्य सूक्तयः।।
अर्थात् जिनका श्रेष्ठ भान संसारमें सर्वत्र प्रसिद्ध है ऐसे श्री सिद्धसेनकी निर्मल सूफियों श्रीऋषभ जिनेन्द्रको सूक्तियों के समान सत्पुरुषोंको बुद्धिको सदा विकसित करती हैं।
सिद्धसेनके जीवन-वृत्तके सम्बन्धमें प्रभावकचरितमें जो तथ्य उपलब्ध हैं उनसे प्रकट है कि उज्जयिनी नगरीके कात्यायन गोत्रीय देवर्षि ब्राह्मणकी देवश्री पत्नीके उदरसे इनका जन्म हुआ था। ये प्रतिभाशाली और समस्त शास्त्रोंके पारंगत विद्वान थे। वृद्धवादि जब उज्जयिनी नगरी में पधारे तो उनके साथ सिद्धसेनका शास्त्रार्थ हुआ। सिद्धसेन वृद्धवादिसे बहुत प्रभावित हुए और उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। गुरूने इनका दीक्षानाम कुमुदचन्द्र रखा। आगे चलकर ये सिद्धसेनके नामसे प्रसिद्ध हुए। हरिभद्रके 'पचवस्तु' ग्रंथमें 'दिवाकर' विशेषण उपलब्ध होता है। उसमें बताया गया है कि दु:षमकालरूप रात्रिके लिए दिवाकर- सूर्यके समान होनेसे दिवाकरका विरुद इन्हें प्राप्त था।
आयरियसिद्धसेणेण सम्मइए पइठ्ठि अजसेणं।
दूसमणिस-दिवागर कप्पंतणओ तदक्खेणं।।
सन्मति-टीकाके प्रारम्भमें अभयदेवसूरि (१२वीं शती ई.) ने भी इन्हें दिवाकर कहा है। दु:षमाकाल श्रमणसंघकी अवचूरिमें सिद्धसेनको 'दिवाक' के स्थान पर 'प्रभावक' लिखा गया है और इनके गुरुका नाम धर्माचार्य बताया है।
इनके सम्बन्धमें यह भी कहा जाता है कि इन्होंने उजयिनीमें महाकालके मन्दिरमें 'कल्याणमन्दिर' स्तोत्र द्वारा रुद्र-लिङ्गका स्फोटन कर पापार्श्वनाथका बिम्ब प्रकट किया था और विक्रमादित्य राजाको सम्बोधित किया था। यथा-
'वृद्धवादी पादलिप्ताश्चात्र तथा सिद्धसेनदिवाकरो येनोज्जयिन्यां महाकालप्रासाद-रुद्रलिङ्गस्फोटनं विधाय कल्याणमन्दिरस्तवेन श्रीपाश्वनाथबिम्ब प्रकटीकृतं श्रीविक्रमादित्यश्च प्रतिबोधिरास्तद्राज्यं तु श्रीचीरसप्ततिवर्षचतुष्टये सञ्जातम्।'
पट्टावलीसारोद्धारमें लिखा है-
'तथा सिद्धसेनदिवाकरोऽपि जातो येनोज्जयिन्यां महाकालप्रासादे रुद्र लिङ्गस्फोटनं कृत्वा कल्याणमन्दिरस्तवनेन श्रीपार्श्वनाथबिम्ब प्रकटोकृत्य श्री विक्रमादित्यराजापि प्रतिबोधितः श्रीवीरनिर्वाणात् सप्ततिवर्षाधिकशतचतुष्टये ४७० विक्रमे श्रीविक्रमादित्य राज्यं सज्जातम्।'
गुरुपट्टावली में भी इसी तथ्यकी पुनरावृत्ति प्राप्त होती है- 'तथा श्रीसिद्धसेनदिवाकरेणोज्जयिनीनगयों महाकालप्रासादे लिङ्गस्फोटनं विधाय स्तुत्या ११ काव्ये श्रीपार्श्वनाथबिम्ब प्रकटीकृतम्" कल्याणमन्दिरस्तोत्रं कृतम्।'
इन पट्टावलियोंसे ज्ञात होता है कि सिद्धसेनके प्रभावसे उज्जयिनीमें शिवलिङ्ग-स्फोटनकी घटना घटी थी। पट्टावलियोंके कालक्रमके अवलोकनसे प्रतीत होता है कि उज्जयिनीकी इस घटनाका समावेश विक्रमकी १५ वीं शताब्दीसे हुआ है। अतः सम्भव है कि सिद्धसेनकी इस घटनाको समन्तभद्रकी शिवपिण्डस्फोटनकी घटनाके अनुकरणपर कल्पित किया गया हो।
पण्डित जुगलकिशोरजी मुख्तारने सिद्धसेनके स्तुत्यात्मक साहित्यका आकलन कर निम्नलिखित निष्कर्ष उपस्थित किया है-
"यहाँ 'स्तुतयः' 'यूथाधिपतेः' तथा 'तस्य शिशुः" ये पद खास तौरसे ध्यान देने योग्य हैं। 'स्तुतयः' पदके द्वारा सिद्धसेनीय ग्रन्थोके रूपमें उन द्वात्रिशिकाओंकी सूचना की गयी है जो स्तुत्यात्मक हैं और शेष पदोंके द्वारा सिद्धसेनको अपने सम्प्रदायका प्रमुख आचार्य और अपनेका उनका परम्पराशिष्य घोषित किया गया है। इस तरह श्वेताम्बर सम्प्रदायके आचार्यरूपमें यहाँ वे सिद्धसेन विवक्षित हैं जो कतिपय स्तुतिरूप द्वात्रिशिकाओंके कर्ता हैं, न कि वे सिद्धसेन जो कि स्तुत्येतर द्वात्रिशिकाओंके अथवा खासकर 'सन्मति' सूत्रके रचयिता हैं।"
उपर्युक्त कथनसे यह स्पष्ट है कि मुख्तार साहब दो सिद्धसेन मानते हैं। एक सिद्धसेन वे हैं जो सन्मतिसूत्र और मार द्वात्रिणिभोंने इन हैं। और दूसरे वे सिद्धसेन, जिन्होंने स्तुत्तिरूप द्वाविशिकाओंकी रचना की है।
दिवाकरयतिके रूप में रविषेणाचार्यके पद्मचरितकी प्रशस्ति में भी एक सिद्धसेनका उल्लेख आया है। इसमें इन्हें इन्द्रगुरुका शिष्य, अर्हन मुनिका गुरु और रविषेणके गुरु लक्ष्मणसेनका दादागुरु बतलाया है।
आसीदिन्द्रगरोदिवाकर-यत्तिः शिष्योऽस्य चार्हन्मुनिः।
तस्माल्लक्ष्मणसेन-सन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तु स्मृतम्॥
यहाँ यह स्मरणीय है कि श्वेताम्बर प्रबन्धों और पट्टावलियोंके समान सिद्धसेनके साथ उज्जयिनीके महाकाल मंदिरमें घटित घटनाका उल्लेख दिगम्बर सम्प्रदायमें भी पाया जाता है। सेनगणकी पट्टावलीके निम्न वाक्यमें कहा है-
"(स्वस्ति) श्रीमदुज्जयिनीमहाकालसंस्थापनमहाकाललिझमहीघर-वाग्वत्रदण्ड-विष्ट्याविष्कृतश्रोपावतीर्थक्वरप्रतिद्वन्दश्रीसिद्धसेनभट्टारकाणाम॥१४॥"
गुरु | शिष्य |
आचार्य श्री वृद्धवादि | -- |
सिद्धसेनके समयके सम्बन्धमें अनेक मान्यता प्रचलित है। एक मान्यता इनको प्रथम शतीका विद्वान स्वीकार करती है और प्रमाणमें पट्टावली-समुच्चयमें सङ्कलित पट्टावलियोंको प्रस्तुत करती है। पर यह मत प्रमाणभूत नहीं है। यतः विक्रमादित्य नामके कई राजा हुए हैं। अतएव पट्टावलीमें उल्लिखित विक्रमादित्य वि. सं. का प्रवर्तक नहीं है। उज्जयिनीके साथ कई विक्रमादित्योंका सम्बन्ध है। अतः सम्भव है कि यह विक्रमादित्य विक्रम उपाधिधारी चन्द्रगुप्त द्वितीय हो।
द्वितीय मतके अनुसार सिद्धसेनका समय जैनेन्द्र व्याकरणके रचयिता पूज्यपादसे पूर्व माना गया है। इस मतके प्रवर्तक आचार्य पण्डित सुखलालजी संघवी हैं। आपने पूज्यपादके व्याकरणगत "वेत्तेः सिद्धसेनस्य" ५/१/७ सुत्रमें निर्विष्ट सिबसेनके मसका निरूपण करते हुए कहा है कि अनुपसर्ग और सकर्मक विद् धातुसे रेफका आगम होता है। इस मान्यताका प्रयोग नवमी त्रिशिकाके २२वें पद्यमें 'विद्रते' इस प्रकार रेफ आगमवाला प्रयोग पाया जाता है। अन्य वैयाकरण सम उपसर्गपूर्वक और अकर्मक विद धातुमें 'र' का आगम मानते हैं। पर सिद्धसेन अनुपसर्ग और सकर्मक विद्धातुमें रेफका आगम स्वीकार करते हैं। इनकी इस विलक्षणताका निर्देश उनका बहुश्रुतत्व सूचित करता है। इसके अतिरिक्त सर्वार्थसिद्धिके सातवें अध्यायके १३वे सूत्रमें 'उक्तञ्च' के बाद सिद्धसेन दिवाकरके एक पद्यका अंश उद्धृत मिलता है। इससे उनका समय पूज्यपादके पूर्व विक्रमकी पच्चम शताब्दीका प्रथम पाद अथवा चतुर्थ शताब्दीका अन्तिम पाद होना चाहिए।
मुनि जिनविजयजीने मल्लवादिके "द्वादशारनयचक्र' में 'दिवाकर' का उल्लेख प्राप्त कर और प्रभावचरितके अन्तर्गत 'विजयसिंहचरितम्' में वीर निर्वाण संवत् ८८४को मल्लवादिका समय मानकर सिढसेनका काल वि. सं. ४१४ माना है।
तीसरे मतके प्रवर्तक डॉ. हीरालालजी जैन हैं। इन्होंने सिद्धसेनको गुप्तकालीन सिद्ध किया है। एक द्वात्रिशिकाके आधारपर विक्रमादित्य उपाधिधारी चन्द्रगुप्त द्वितीयका समकालीन माना है। अन्यत्र भी आपने लिखा है-
"सम्मइसुप्तका' रचनाकाल चौथी-पांचवीं शताब्दी ई. है।"
डॉ. जैनकी मान्यता पण्डित सुखलालजी संघवीके समान ही है।
चातुर्थ मत डॉ. पी. एल. वैद्यका है, जिन्होंने न्यायावतारकी प्रस्तावनामें प्रभावकचरितके निम्नलिखित पद्यको उद्धृत किया है और उसमें आये 'वीर वत्सरात' पदकी व्याख्या 'वीरविक्रमात्' पाठ मानकर की है-
श्रीविरवत्सरादपशताष्टके चतुरशीतिसंयुक्ते।
जिग्ये स मल्लवादी बौद्धांस्तद्वधन्तरांश्चापि॥
तदनुसार डॉ. वैद्य सिद्धसेनका समय आठवीं शती मानते हैं। आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने अनेक तर्क और प्रमाणोंके आधारपर न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेन और कतिपय द्वात्रिशिकाओंके कर्ता सिद्धसेनको सन्मतितर्कके कर्ता सिद्धसेनसे भिन्न माना है। आपने 'सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन' शीर्षक विस्तृत निबन्धमें यह निष्कर्ष निकाला है कि 'सन्मतिसूत्र' के कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर विद्वान हैं और न्यायावतारके कर्ता श्वेताम्बर। द्वात्रिशिकाओंमें कुछके रचयिता दिगम्बर सिद्धसेन हैं और कुछके कर्ता श्वेताम्बर सिद्धसेन। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें श्वेताम्बर आगमोंकी संस्कृत में रूपान्तरित करनेके विचारमात्रसे सिद्धसेनको बारह वर्षके लिए संघसे निष्कासित करनेका दण्ड दिया गया था। इस अवधिमें सिद्धसेन दिगम्बर साधुओं के सम्पर्क में आये और उनके विचारोंसे प्रभावित हुए। विशेषतः समन्तभद्रके जीवनवृत्तान्तों और उनके साहित्यका उनपर सबसे अधिक प्रभाव पड़ा, इसलिए वे उन्हीं जैसे स्तुत्यादि कार्योंमें प्रवृत्त हुए। उन्हींके साहित्यके संस्कारोंके कारण सिद्धसेनके साथ उज्जयिनीको वह महाकालवाली घटना भी घटित हुई होगी, जिससे उनका प्रभाव सर्वत्र व्याप्त हो गया होगा। सिद्धसेनके इस ब़ते प्रभावके कारण ही श्वेताम्बर संघको अपनी भूलका अनुभव हुआ होगा और प्रायश्चित्तकी शेष अवधिको रहकर उन्हें प्रभावक आचार्य घोषित किया गया होगा।
दिगम्बर सम्प्रदायमें सिद्धसेनको सेनगणका आचार्य माना गया है।अतएव 'सन्मतिसूत्र'के कर्ता सिद्धसेनका समय समन्तभद्रके पश्चात्और पूज्यपादके पूर्व या समकालिक माना जा सकता है।
आचार्य मुख्तार साहबकी दो सिद्धमेनवाली मान्यता वृद्धिसंगत प्रतीत होतो है। ग्रंथके अन्तरंग परीक्षणसे मुख्तारसाहबने बतलाया है कि विक्रम संवत् ६६६के पूर्व सिद्धसेन हुए हैं। 'सन्मति' सूत्रके कर्ता सिद्धसेन कैवालीके ज्ञान-दर्शनोपयोग-विषयमें अभेदवादके पुरस्कर्ता हैं। उनके इस अभेदवादका खण्डन दिगंबर सम्प्रदायमें अकलंकदेवने तत्वार्थवात्तिमें और श्वेताम्बर सम्प्रदायमें सर्वप्रथम जिनभद्र क्षमाश्रमणके "विशेषावश्यकभाष्य' और 'विशेषेणती' ग्रन्थोंमें किया है। साथ ही सन्मतिसूत्रके तृतीय काण्डकी "णत्थिपुढवीविसिट्टो" और "दोहिं वि णएहिं णोय" गाथाएं विशेषावश्यकभाष्यमें क्रमशः ग. नं. २१०४, २१९५ पर उद्धत पायी जाती हैं। इसके अतिरिक्त विशेषावश्यकभाष्यकी स्वोपज्ञटीकामें 'णामाएलियं दव्वट्टियस्स' इत्यादि गाथाकी व्याख्या करते हुए लिखा है-
"द्रव्यास्तिकनयावलम्बिनौ संग्रह-व्यवहारो ऋजुसूत्रादयस्तु पर्यायनयमत्तानुसारिणः आचार्यसिद्धसेनाऽभिप्रायात।"
इन उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि सिद्धसेनके मतका और उनकेगाथावाक्योंका उनमें उल्लेख किया गया है। अकलंकदेव विक्रम संवत् ७ वीं शताब्दीके विद्वान् हैं और जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने विशेषावश्यकभाष्यको रचना शक सं. ५३१ (वि. सं. ६६६) में की है। अतएव सिद्धसेन विक्रमकी ७वीं शताब्दीसे पूर्व वर्ती हैं। उल्लेखनीय है कि आचार्य विरसेनने भी धवला और जयधवला दोनोंमें सिद्धसेनके सन्मतिसूत्रके नामनिर्देशपूर्वक उसके वाक्योंको उदघृत किया है तथा उनके साथ होनेवाले विरोधका परिहार किया है। विरसेनका समय ईसाकी ९ वि शती है। अतः सिद्धसेन स्पष्टतया उनसे भी पूर्ववर्ती सिद्ध है। पूज्यपाद देवनन्दिने सन्मतिसूत्रके ज्ञानदर्शनोपयोगके अभेदबादकी चर्चा तक नहीं की, जब कि अकलंकदेवने तत्त्वार्थवात्तिकमें उसकी चर्चा ही नहीं, सयुक्तिक मीमांसा भी की है। यदि पूज्यपादसे पूर्व सन्मतिसूत्र रचा गया होता, तो पूज्य पाद अकलंककी तरह उसके अभेदवादकी मीमांसापूर्वक हीयुगपद्वादका प्रतिपादन करते। अतः सिद्धसेनका समय पूज्यपाद (वि. की ६ठी शती) और अकलंक ( वि. की ७ वीं शती) का मध्यकाल अर्थात् वि. सं. ६२५ के आस पास होना चाहिए।
उपर्युक्त विवेचनसे स्पष्ट है कि सिद्धसेन नामके एक से अधिक विद्वान हुए हैं। सन्मतिसूत्र और कल्याणमन्दिर जैसे ग्रंथोंके रचयिता सिद्धसेन दिगम्बर सम्प्रदायमें हुए हैं। इनके साथ दिवाकर विशेषण नहीं है। दिवाकर विशेषण श्वेताम्बर सम्प्रदायमै हुए सिवसेनके साथ पाया जाता है, जिनकी कुछ द्वात्रिशिकाएं, न्यायावतार आदि रचनाएं हैं। यहां दिगम्बर परम्परामें हुए सिद्धसेनकी उपलब्ध दो रचनाओंको विवेचित किया जाता है।
प्राकृत भाषामें लिखित न्याय और दर्शनका यह अनूठा ग्रन्थ है।आचार्यने नयोंका सांगोपांग विवेचन कर जैनन्यायको सुदढ़ पद्धतिका आरम्भ किया है। कावत्र करनेकी मारलेको प्रतिमाको 'यह' कहागया है और विभिन्न दर्शनोंका अन्तर्भाव विभिन्न नयोंमें किया है। इस ग्रन्थके ३ काण्ड हैं- (१) नयकाण्ड, जीवकाण्ड या ज्ञानकाण्ड और (३) सामान्य-विशेषकाण्ड या ज्ञेयकाण्ड।
प्रथम काण्डमें ५४, द्वितीयमें ४३ और तृतीयमें ६९ गाथाएँ हैं। इस प्रकार कुल १६६ गाथाओं में अन्य समाप्त हुआ है।
प्रथम काण्डमें द्रव्यार्थीक और पर्यायार्थीक नयोंके स्वरूपका विस्तारपूर्वक विवेचन आया है। तीर्थंकरवचनोंके सामान्य और विशेषभावके मूल प्रतिपादक ये दोनों ही नय हैं। शेष नयोंका विकास और निकास इन्हींसे हुआ है। लिखा है-
तिस्थयरवयणसंगह-विसेसपत्थारमूलवागरणी।
दव्वदिओ य पज्जवणमओ व सेसा वियप्पा सि।।
दव्वट्टियनयपयडी सुद्धा संगहपरूवणाविसओ।
पडिरुवे पुण वयणत्थनिन्छओ तस्स ववहारो॥
द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दोनों नय क्रमशः अभेद और भेदको ग्रहण करते हैं। तीर्थंकरके वचनोंकी सामान्य एवं विशेषरूप राशियोंके मूलप्रतिपादक द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय हैं। शेष नय भेद या अभेदको विषय करने के कारण इन्हीं नयोंके उपमेद हैं। द्रव्यार्थिक नयको शुद्ध प्रकृति संग्रहकी प्ररूपणा का विषय है और प्रत्येक वस्तुके सम्बन्धमें होनेवाला शब्दार्थ-निश्चय तो संग्रहका व्यवहार है।
ऋजूसूत्रनय अर्थात् तदनुसारी जो वचन विभाग, वह पर्यायनयका मूल आधार है। शब्दनय, समभिरूढनय और एवंभूतनय उत्तरोत्तर सूक्ष्म भेद वाले होनेसे पर्यायनयके अन्तर्गत ही है। नाम, स्थापना और द्रव्य ये तीन द्रव्यार्थिकनयके निक्षेप है और भावनिक्षेप पर्यायाधिक नयके अन्तर्गत है। इस प्रकार इस काण्डमें उत्पाद, व्यय और धौव्यात्मक वस्तुका निरूपण कर नयोंका विवेचन किया है। मानुष्य जो कुछ सोचता या कहता है वह या तो अभेद की ओर झुकता है या भेदकी ओर। अभेदकी दृष्टि से किये गये विचार और उसके द्वारा प्रतिपादित वस्तुको संग्रह या सामान्य कहते हैं। भेदकी दृष्टिसे किया गया विचार और प्रतिपादित वस्तु विशेष कही जाती है। इस प्रकार इस काण्डमें द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयोंका विश्लेषण किया गया है।
द्वितीय काण्डमें दर्शन और ज्ञानकै स्वरूपका कथन करनेके पश्चात् आत्मा सामान्य-विशेषात्मक स्वरूपका निरूपण कर द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयोंको घटित किया है। इस द्वितीय काण्डमें ज्ञान और दर्शन के समयभेदका कथन करते हुए केवलीके ज्ञान और दर्शनकेअभेदवादका समर्थन किया है। लिखा है-
मणपज्जवणाणंतो णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो।
केवलणाणं पुण दंसणं ति णाणं ति य समाण।
ज्ञान और दर्शनका विश्लेषण अर्थात् कालभेद मनःपर्यय ज्ञान तक है, पर केवलज्ञानके विषयमें दर्शन और ज्ञान ये दोनों समान हैं। अर्थात् इन दोनोंका एक काल है।
इस प्रकार केवलीके ज्ञान-दर्शनका अभेदवाद स्थापित कर क्रमवादी और सहवादीको समीक्षा प्रस्तुत की है। तार्किक शैली में पक्ष-प्रतिपक्ष स्थापन पुरस्सर विषयका निरूपण किया है। दर्शन और ज्ञान इन दोनोंकी परिभाषा एवं विषय वस्तुका विवेचन करते हुए केवलज्ञानके पर्यायोंका कथन किया है।
तृतीय काण्डमें सामान्य और विशेषरूप वस्तुका कथन है। अतः इसेज्ञेय काण्ड कहा जा सकता है। सामान्य और विशेष परस्परमें एक दूसरेसे सर्वथा भिन्न या सर्वथा अभिन्न नहीं हैं। आचार्यने लिखा है-
सामण्णम्मि विसेसो विसेसपक्खे य वयणचिणिवेसो।
दव्वपरिणाममण्ण दाएइ तयं च णियमेइ।।
एगंतणिव्विसेस एयतसिसियं च बघमागो ।
दव्वस्स पज्जवे पज्जवा हि दवियं णियतेइ॥
अर्थात् सामान्यमें विशेषविषयक वचनका और विशेषमें सामान्यविषयक वचनका जो प्रयोग होता है, वह अनुक्रमसे सामान्य-द्रव्यके परिणामको उससे भिन्न रूप में दिखलाता है और उसे-विशेषको सामान्य में नियत करता है।
एकान्त निविशेष सामान्यका और एकान्त विशेषका प्रतिपादन करनेवाला द्रव्यके पर्यायोंको उससे भिन्न और पृथक् बतलाता है। व्यवहार ज्ञानमूलक होता है और व्यवहारको अबाधकता ही ज्ञानकी यथार्थताका प्रमाण है। वस्तु का स्वरूप निश्चित करनेका एकमात्र साधन यथार्थज्ञान है और वस्तु सामान्य विशेषात्मक है। न तो सामान्यरहित विशेषकी प्रतीति होती है और न विशेष रहित सामान्यकी ही। सामान्य और विशेष दोनों परस्परमें सापेक्ष हैं। इस काण्डके अन्तमें भगवान जिनवचन- अनेकान्तकी भद्र-कामना की है-
भद्ंद मिच्छादंसणसमहमयस्य अमयसारस्स|
जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहागिम्मस्स।।
भगवान जिनवधन-अनेकान्तशासनका भद्र हो-सबका कल्याण करता हुआ सदा विद्यमान रहे, जो मिथ्यादर्शनोंके समूहका मथक- उनमें परस्पर सापेक्षता स्थापक है, अमृतसार है और निष्पक्ष जनों द्वारा सरलतासे ज्ञातव्य है।
इस ग्रन्थकी प्राकृत भाषा महाराष्ट्री है। 'य' श्रुतिका पालन सर्वत्र हुआ है। 'य' श्रुतिकी यह व्यवस्था वररुचिके व्याकरणमें नहीं मिलती। प्राकृत वैयाकरणोंमें आचार्य हेमचन्द्रने ही 'य' श्रुतिका विधान किया है। श्वेताम्बर आगम ग्रन्थोंकी प्राकृत अर्धमागधी है, पर इस ग्रन्थकी प्राकृत महाराष्ट्री है। जो शौरसेनीका एक उपभेद है। इस भाषाका प्रयोग ई. सन् की चौथी, पांचवीं शताब्दीसे हुआ है। नाटकीय शौरसेनी और जैन शौरसेनीके प्रभावसे ही उक्त महाराष्ट्रीका भेद विकसित हुआ है। यहाँ 'य' श्रुतिके कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं-
"तित्थयर (तीर्थंकर) १/३, वयण (वदन) १/३, सुहूमभेया (सूक्ष्मभेदा), पयडी (प्रकृति) १/४, णयवाया (नयवादाः) १/२५, वियप्पं (विकल्प) १/३३, सत्तवियप्पो (सप्तविकल्प:) १/४१, जएयव्व (यत्तितव्यम्) ३/६५, सुयणाण (श्रूतज्ञान) २/२७, सयले (सकले) २/२८, सायारं (साकार) २/१०, सया (सदा २/१०, णिय (निज) २/१४ आदि।
महाराष्ट्रीकी अन्य प्रवृत्तियोंमें प्रथमा विभक्तिके एक वचनमें ओकारका पाया जाना भी उपलब्ध है। यथा- पज्जणओ (पर्यायार्थिकनयः) १/३, विसओ (विषयः) १/४, ववहारो (व्यवहारस) १/४, दविओवओगो (द्रव्योपयोगः) १/८, गादो (संसार) १/१७, समूहसिद्धी (समूहसिद्ध) १/२७, अत्यो (अर्थः) १/२७ अणाइणिहणो (अनादिनिधनः) १।३७ आदि।
सप्तमी विभक्तीके एक वचनमें 'म्मि'का व्यवहार भी पाया जाता है- थोरम्मि, ससमयम्मि ३/२, तम्मि ३/४, दसणम्म २/२४, चक्खुम्मि २/२४ आदि।
इस ग्रंथकी उपलब्ध पाण्डुलिपियों में पाठान्तर भी प्राप्त होते हैं। यथा-'सुयणाणं के स्थान पर 'सुदणाण', 'सयले के स्थान पर 'सगले' और 'साया'के स्थान पर 'सायारं' जैसे प्रयोग प्राप्त हैं। इन प्रयोगोंसे प्रतीत होता है कि इस प्रकारके रूप दिगम्बर आगमोंकी शौरसेनीके हैं। इस ग्रन्थ पर दिगम्बराचार्य सुमतिदेव द्वारा विरचित एक टीकाका उल्लेख आचार्य वादिरजने किया है, जो अनुपलब्ध है। दूसरी टीका अभयदेव कृत २५०० श्लोक प्रमाण तत्त्वविधायिनी नामकी उपलब्ध है।
इस स्तोत्रमें ४४ पद्य हैं। रचयिताका नाम कुमुदचन्द्र आया है, जो सिद्ध सेनका दीक्षानाम है। लिखा है-
जननयनकुमुदचन्द्रप्रभास्वराः स्वर्गसम्पदो मुक्त्वा।
ते विगलितमलनिचया अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते।। -पद्य ४४
इस पद्यमें श्लेष द्वारा कविका नाम अभिव्यक्त किया गया है। स्तोत्रमें पार्श्वनाथकी स्तुत्ति की गयी है। प्रारम्भमें कविने अपनी अल्पज्ञताका निर्देश किया है। भगवानके मात्र नामोच्चारणका वर्णन करता हुआ कवि कहता है-
आस्तामचिन्त्यमहिमा जिन! संस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति।
तीव्रातपोपहतपान्यजनान्निदाथे प्रीणाति पद्मसरस: सरसोऽनिलोऽपि।
हे देव! आपके स्तवनकी अचिन्त्य महिमा है। आपका नाममात्र भी जीवोंको संसारके दुःखोंसे बचा लेता है। जिस प्रकार ग्रीष्मर्तुमें धूपसे पीड़ित व्यक्तिको, कमलयुक्त सरोवर तो सुख पहुंचाते ही हैं, पर उन सरोवरोंकी शीतलवायु भी सुख पहुँचाती है।
कामजयी वीतरागका महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कविने समीक्षात्मक और तुलनात्मक शैलीमें लिखा है-
'यस्मिन् हरप्रभृतयोऽपि हतप्रभावाः सोऽपि त्वया रतिपतिः क्षपितः क्षणेन।
विध्यापिता हुतमुजः पयसाय येन पीतं न कि सदपि दुर्द्धरवाडवेन॥'
जिस कामने हरि, हर, ब्रह्मा आदि महापुरुषोंको पराजित कर दिया, उस कामको भी मापने पराजित कर दिया, यह आश्चर्यकी बात नहीं है। यत: जो जल संसारकी समस्त अग्निको नष्ट करता है, उस जलको भी बड़वानल नामक समुद्रकी अग्नि नष्ट कर डालती है।
क्रोधस्त्वया यदि विभो। प्रथम निरस्तो ध्वस्तास्तदा वद कथं किल कर्मचौराः।
प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशिरापि लोके नीलदु माणि विपिनानि न कि हिमानी।।
संसारमें प्रायः देखा जाता है कि क्रोधी मनुष्य हो शत्रूओंको जीतते हैं, पर भगवन् ! आपने क्रोधको तो नवम गुणस्थानमे ही जीत लिया था। फिर क्रोधके अभावमें चतुर्दश गुणस्थान तक कर्मरूपो शत्रुओंको कैसे जीता? आचार्य सिद्धसेन– कुमुदचन्द्र ने इस लोकविरुद्ध तथ्यपर प्रथम आश्चर्य प्रकट किया, पर जब उन्हें ध्यान आया कि शीतल तुषार बड़े बड़े वनोंको क्षण भरमें जला देता है अर्थात् क्षमासे भी शत्रू जोते जाते हैं, इस प्रकार उनके आश्चर्यका स्वयं ही समाधान हो जाता है।
इस स्तोत्र पर वैदिक प्रभाव भी है। वृषासुर द्वारा रोकी गयी गायोंका मोचन इन्द्रने किया था, इस तथ्यका संकेत निम्नलिखित पद्यपर प्रतिभासित होता है-
मुच्यन्त एव मनुजाः सहसा जिनेन्द्र! रौद्रेरुपद्रवशतैस्त्वयि बीशितेऽपि।
गोस्वामिनि स्फुरिततेअसि दृष्टमात्रे चोरेरिवाशु पशवः प्रपलायमानैः।।
हे नाथ! जिस प्रकार तेजस्वी राजाके दिखते ही चोर चुराई हुई गायोंको छोड़कर शीघ्र ही भाग जाते हैं, उसी प्रकार आपके दर्शन होते ही अनेक भयंकर उपद्रव मनुष्योंको छोड़कर भाग जाते हैं।
भक्तकी भगवच्चरणामें अटूट आशाका निरूपणा करता हुआ कवि कहता है-
जन्मान्तरेऽपि तव पादयुगं न देव! मन्ये मया महितमीहितदानदक्षम्।
तेनेह जन्मनि मुनीश! पराभवानां जातो निकेतमहं मथीताशयानाम्॥"
हे भगवान्! जो मैं नाना प्रकारके तिरस्कारोंका पात्र हो रहा है, उससे स्पष्ट पता चलता है कि मैंने आपके चरणोंकी पूजा नहीं की, क्योंकि आपके चरणोंके पुजारियों का कभी किसी जगह भी तिरस्कार नहीं होता।
भावशून्य भक्तिको निरर्थक और भावपूर्ण भक्तिको सार्थक बतलाते हुए कवि कहता है।
'आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि नूनं न चेतसि मया विषतोऽसि भक्त्या।
जातोऽस्मि तेनजनबान्धव! दुःखपात्रं यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्या।।'
हे भगवन् ! मैंने आपका नाम भी सुना, पूजा भी की और दर्शन भी किये, फिर मी दुःख मेरा पिण्ड नहीं छोड़ता है। इसका कारण यही है कि मैंने भक्तिभाव पूर्वक आपका ध्यान नहीं किया। केवल आडम्बरसे ही उन कामोंको किया है, न कि भावपूर्वक। यदि भावपूर्वक भक्ति, अर्चा या स्तवन करता सो संसारके ये दुःख नहीं उठाने पड़ते। इस स्तोत्र (पय ३१, ३२, ३३) में दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य पार्श्वनाथके उपसर्गोका वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है।
संक्षेप में यह स्तोत्र अत्यन्त सरस और भावमय है। प्रत्येक पद्यसे भक्तिरस निस्यूत होता है।
सिद्धसेन दार्शनिक और कवि दोनों हैं। दोनों में उनकी गति अस्खलित है। जहाँ उनका काव्यत्व उच्च कोटिका है यहां उनका उसके माध्यमसे दार्शनिक विवेचन भी गम्भीर और तत्त्वप्रतिपादनपूर्ण है।
उपजाति, शिखरणी, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, वंशस्थ, शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका एवं आर्या छन्दोंका व्यवहार किया गया है। ओजगुण इनकी कविताका विशेष उपकरण है।
सारस्वताचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन ।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन ।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
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डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री सिद्धसेन महाराजजी (प्राचीन)
सारस्वताचार्योंमें कवि और दार्शनिकके रूपमें सिद्धसेन प्रसिद्ध हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएं इन्हें अपना-अपना आचार्य मानती हैं। आचार्य जिनसेनने अपने आदिपुराणमें सिद्धसेनको कवि और वादिगजकेसरी दोनों कहा है-
'कवयः सिद्धसेनाद्या वयं च कवयो मताः।
मणय: पद्मरागाखा ननु काचोऽपि मेचकः।।
प्रवादिकरियूपानां केसरी नयकेसरः।
सिद्धसेनकविर्जीयाद्विकल्पनखराङ्करः॥'
पूर्वकालमें सिद्धसेन आदि अनेक कवि हो गये हैं और में भी कवि हैं। पर दोनोंमें उतना ही अन्तर है, जितना कि पारागर्माण और कांचर्माणमें होता है।
वे सिद्धसेन कवि जयवन्त हों, जो प्रवादिरूपी हाथियोंके झुण्डके लिए सिंहके समान हैं। नेगमादि नय ही जिनके केशर-अयाल तथा अस्ति-नास्ति आदि विकल्प हो जिनके तीक्ष्ण नाखून थे।
आचार्य हेमचन्द्रने अपने शब्दानुशासनमें "उत्कृष्टेअपन" (२/२/३९) सूत्रके उदाहरणमें 'अनुसिद्धसेनं कवयः' द्वारा सिनसेनको सबसे बड़ा कवि बताया है।
जैनेन्द्र व्याकरणके 'उपेन' (१/४/१६) सूत्रको वृत्तिमें अभयनन्दिने 'उप सिद्धसेनं वैयाकरणाः' उदाहरण द्वारा सिद्धसेनको श्रेष्ठ वयाकरण बतलाया है।
जिनसेन प्रथमने अपने 'हरिवंशपुराण में सिद्धसेनकी सूक्तियों (वचनों) को तीर्थंकर ऋषभदेवकी सूक्तियोंके समान सारयुक्त एवं महत्त्वपूर्ण बतलाया है । यथा-
जगत्प्रसिद्धबोधस्य वृषभस्येव निस्तुषाः।
बोधयन्ति सतां बुद्धि सिद्धसेनस्य सूक्तयः।।
अर्थात् जिनका श्रेष्ठ भान संसारमें सर्वत्र प्रसिद्ध है ऐसे श्री सिद्धसेनकी निर्मल सूफियों श्रीऋषभ जिनेन्द्रको सूक्तियों के समान सत्पुरुषोंको बुद्धिको सदा विकसित करती हैं।
सिद्धसेनके जीवन-वृत्तके सम्बन्धमें प्रभावकचरितमें जो तथ्य उपलब्ध हैं उनसे प्रकट है कि उज्जयिनी नगरीके कात्यायन गोत्रीय देवर्षि ब्राह्मणकी देवश्री पत्नीके उदरसे इनका जन्म हुआ था। ये प्रतिभाशाली और समस्त शास्त्रोंके पारंगत विद्वान थे। वृद्धवादि जब उज्जयिनी नगरी में पधारे तो उनके साथ सिद्धसेनका शास्त्रार्थ हुआ। सिद्धसेन वृद्धवादिसे बहुत प्रभावित हुए और उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। गुरूने इनका दीक्षानाम कुमुदचन्द्र रखा। आगे चलकर ये सिद्धसेनके नामसे प्रसिद्ध हुए। हरिभद्रके 'पचवस्तु' ग्रंथमें 'दिवाकर' विशेषण उपलब्ध होता है। उसमें बताया गया है कि दु:षमकालरूप रात्रिके लिए दिवाकर- सूर्यके समान होनेसे दिवाकरका विरुद इन्हें प्राप्त था।
आयरियसिद्धसेणेण सम्मइए पइठ्ठि अजसेणं।
दूसमणिस-दिवागर कप्पंतणओ तदक्खेणं।।
सन्मति-टीकाके प्रारम्भमें अभयदेवसूरि (१२वीं शती ई.) ने भी इन्हें दिवाकर कहा है। दु:षमाकाल श्रमणसंघकी अवचूरिमें सिद्धसेनको 'दिवाक' के स्थान पर 'प्रभावक' लिखा गया है और इनके गुरुका नाम धर्माचार्य बताया है।
इनके सम्बन्धमें यह भी कहा जाता है कि इन्होंने उजयिनीमें महाकालके मन्दिरमें 'कल्याणमन्दिर' स्तोत्र द्वारा रुद्र-लिङ्गका स्फोटन कर पापार्श्वनाथका बिम्ब प्रकट किया था और विक्रमादित्य राजाको सम्बोधित किया था। यथा-
'वृद्धवादी पादलिप्ताश्चात्र तथा सिद्धसेनदिवाकरो येनोज्जयिन्यां महाकालप्रासाद-रुद्रलिङ्गस्फोटनं विधाय कल्याणमन्दिरस्तवेन श्रीपाश्वनाथबिम्ब प्रकटीकृतं श्रीविक्रमादित्यश्च प्रतिबोधिरास्तद्राज्यं तु श्रीचीरसप्ततिवर्षचतुष्टये सञ्जातम्।'
पट्टावलीसारोद्धारमें लिखा है-
'तथा सिद्धसेनदिवाकरोऽपि जातो येनोज्जयिन्यां महाकालप्रासादे रुद्र लिङ्गस्फोटनं कृत्वा कल्याणमन्दिरस्तवनेन श्रीपार्श्वनाथबिम्ब प्रकटोकृत्य श्री विक्रमादित्यराजापि प्रतिबोधितः श्रीवीरनिर्वाणात् सप्ततिवर्षाधिकशतचतुष्टये ४७० विक्रमे श्रीविक्रमादित्य राज्यं सज्जातम्।'
गुरुपट्टावली में भी इसी तथ्यकी पुनरावृत्ति प्राप्त होती है- 'तथा श्रीसिद्धसेनदिवाकरेणोज्जयिनीनगयों महाकालप्रासादे लिङ्गस्फोटनं विधाय स्तुत्या ११ काव्ये श्रीपार्श्वनाथबिम्ब प्रकटीकृतम्" कल्याणमन्दिरस्तोत्रं कृतम्।'
इन पट्टावलियोंसे ज्ञात होता है कि सिद्धसेनके प्रभावसे उज्जयिनीमें शिवलिङ्ग-स्फोटनकी घटना घटी थी। पट्टावलियोंके कालक्रमके अवलोकनसे प्रतीत होता है कि उज्जयिनीकी इस घटनाका समावेश विक्रमकी १५ वीं शताब्दीसे हुआ है। अतः सम्भव है कि सिद्धसेनकी इस घटनाको समन्तभद्रकी शिवपिण्डस्फोटनकी घटनाके अनुकरणपर कल्पित किया गया हो।
पण्डित जुगलकिशोरजी मुख्तारने सिद्धसेनके स्तुत्यात्मक साहित्यका आकलन कर निम्नलिखित निष्कर्ष उपस्थित किया है-
"यहाँ 'स्तुतयः' 'यूथाधिपतेः' तथा 'तस्य शिशुः" ये पद खास तौरसे ध्यान देने योग्य हैं। 'स्तुतयः' पदके द्वारा सिद्धसेनीय ग्रन्थोके रूपमें उन द्वात्रिशिकाओंकी सूचना की गयी है जो स्तुत्यात्मक हैं और शेष पदोंके द्वारा सिद्धसेनको अपने सम्प्रदायका प्रमुख आचार्य और अपनेका उनका परम्पराशिष्य घोषित किया गया है। इस तरह श्वेताम्बर सम्प्रदायके आचार्यरूपमें यहाँ वे सिद्धसेन विवक्षित हैं जो कतिपय स्तुतिरूप द्वात्रिशिकाओंके कर्ता हैं, न कि वे सिद्धसेन जो कि स्तुत्येतर द्वात्रिशिकाओंके अथवा खासकर 'सन्मति' सूत्रके रचयिता हैं।"
उपर्युक्त कथनसे यह स्पष्ट है कि मुख्तार साहब दो सिद्धसेन मानते हैं। एक सिद्धसेन वे हैं जो सन्मतिसूत्र और मार द्वात्रिणिभोंने इन हैं। और दूसरे वे सिद्धसेन, जिन्होंने स्तुत्तिरूप द्वाविशिकाओंकी रचना की है।
दिवाकरयतिके रूप में रविषेणाचार्यके पद्मचरितकी प्रशस्ति में भी एक सिद्धसेनका उल्लेख आया है। इसमें इन्हें इन्द्रगुरुका शिष्य, अर्हन मुनिका गुरु और रविषेणके गुरु लक्ष्मणसेनका दादागुरु बतलाया है।
आसीदिन्द्रगरोदिवाकर-यत्तिः शिष्योऽस्य चार्हन्मुनिः।
तस्माल्लक्ष्मणसेन-सन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तु स्मृतम्॥
यहाँ यह स्मरणीय है कि श्वेताम्बर प्रबन्धों और पट्टावलियोंके समान सिद्धसेनके साथ उज्जयिनीके महाकाल मंदिरमें घटित घटनाका उल्लेख दिगम्बर सम्प्रदायमें भी पाया जाता है। सेनगणकी पट्टावलीके निम्न वाक्यमें कहा है-
"(स्वस्ति) श्रीमदुज्जयिनीमहाकालसंस्थापनमहाकाललिझमहीघर-वाग्वत्रदण्ड-विष्ट्याविष्कृतश्रोपावतीर्थक्वरप्रतिद्वन्दश्रीसिद्धसेनभट्टारकाणाम॥१४॥"
गुरु | शिष्य |
आचार्य श्री वृद्धवादि | -- |
सिद्धसेनके समयके सम्बन्धमें अनेक मान्यता प्रचलित है। एक मान्यता इनको प्रथम शतीका विद्वान स्वीकार करती है और प्रमाणमें पट्टावली-समुच्चयमें सङ्कलित पट्टावलियोंको प्रस्तुत करती है। पर यह मत प्रमाणभूत नहीं है। यतः विक्रमादित्य नामके कई राजा हुए हैं। अतएव पट्टावलीमें उल्लिखित विक्रमादित्य वि. सं. का प्रवर्तक नहीं है। उज्जयिनीके साथ कई विक्रमादित्योंका सम्बन्ध है। अतः सम्भव है कि यह विक्रमादित्य विक्रम उपाधिधारी चन्द्रगुप्त द्वितीय हो।
द्वितीय मतके अनुसार सिद्धसेनका समय जैनेन्द्र व्याकरणके रचयिता पूज्यपादसे पूर्व माना गया है। इस मतके प्रवर्तक आचार्य पण्डित सुखलालजी संघवी हैं। आपने पूज्यपादके व्याकरणगत "वेत्तेः सिद्धसेनस्य" ५/१/७ सुत्रमें निर्विष्ट सिबसेनके मसका निरूपण करते हुए कहा है कि अनुपसर्ग और सकर्मक विद् धातुसे रेफका आगम होता है। इस मान्यताका प्रयोग नवमी त्रिशिकाके २२वें पद्यमें 'विद्रते' इस प्रकार रेफ आगमवाला प्रयोग पाया जाता है। अन्य वैयाकरण सम उपसर्गपूर्वक और अकर्मक विद धातुमें 'र' का आगम मानते हैं। पर सिद्धसेन अनुपसर्ग और सकर्मक विद्धातुमें रेफका आगम स्वीकार करते हैं। इनकी इस विलक्षणताका निर्देश उनका बहुश्रुतत्व सूचित करता है। इसके अतिरिक्त सर्वार्थसिद्धिके सातवें अध्यायके १३वे सूत्रमें 'उक्तञ्च' के बाद सिद्धसेन दिवाकरके एक पद्यका अंश उद्धृत मिलता है। इससे उनका समय पूज्यपादके पूर्व विक्रमकी पच्चम शताब्दीका प्रथम पाद अथवा चतुर्थ शताब्दीका अन्तिम पाद होना चाहिए।
मुनि जिनविजयजीने मल्लवादिके "द्वादशारनयचक्र' में 'दिवाकर' का उल्लेख प्राप्त कर और प्रभावचरितके अन्तर्गत 'विजयसिंहचरितम्' में वीर निर्वाण संवत् ८८४को मल्लवादिका समय मानकर सिढसेनका काल वि. सं. ४१४ माना है।
तीसरे मतके प्रवर्तक डॉ. हीरालालजी जैन हैं। इन्होंने सिद्धसेनको गुप्तकालीन सिद्ध किया है। एक द्वात्रिशिकाके आधारपर विक्रमादित्य उपाधिधारी चन्द्रगुप्त द्वितीयका समकालीन माना है। अन्यत्र भी आपने लिखा है-
"सम्मइसुप्तका' रचनाकाल चौथी-पांचवीं शताब्दी ई. है।"
डॉ. जैनकी मान्यता पण्डित सुखलालजी संघवीके समान ही है।
चातुर्थ मत डॉ. पी. एल. वैद्यका है, जिन्होंने न्यायावतारकी प्रस्तावनामें प्रभावकचरितके निम्नलिखित पद्यको उद्धृत किया है और उसमें आये 'वीर वत्सरात' पदकी व्याख्या 'वीरविक्रमात्' पाठ मानकर की है-
श्रीविरवत्सरादपशताष्टके चतुरशीतिसंयुक्ते।
जिग्ये स मल्लवादी बौद्धांस्तद्वधन्तरांश्चापि॥
तदनुसार डॉ. वैद्य सिद्धसेनका समय आठवीं शती मानते हैं। आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने अनेक तर्क और प्रमाणोंके आधारपर न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेन और कतिपय द्वात्रिशिकाओंके कर्ता सिद्धसेनको सन्मतितर्कके कर्ता सिद्धसेनसे भिन्न माना है। आपने 'सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन' शीर्षक विस्तृत निबन्धमें यह निष्कर्ष निकाला है कि 'सन्मतिसूत्र' के कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर विद्वान हैं और न्यायावतारके कर्ता श्वेताम्बर। द्वात्रिशिकाओंमें कुछके रचयिता दिगम्बर सिद्धसेन हैं और कुछके कर्ता श्वेताम्बर सिद्धसेन। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें श्वेताम्बर आगमोंकी संस्कृत में रूपान्तरित करनेके विचारमात्रसे सिद्धसेनको बारह वर्षके लिए संघसे निष्कासित करनेका दण्ड दिया गया था। इस अवधिमें सिद्धसेन दिगम्बर साधुओं के सम्पर्क में आये और उनके विचारोंसे प्रभावित हुए। विशेषतः समन्तभद्रके जीवनवृत्तान्तों और उनके साहित्यका उनपर सबसे अधिक प्रभाव पड़ा, इसलिए वे उन्हीं जैसे स्तुत्यादि कार्योंमें प्रवृत्त हुए। उन्हींके साहित्यके संस्कारोंके कारण सिद्धसेनके साथ उज्जयिनीको वह महाकालवाली घटना भी घटित हुई होगी, जिससे उनका प्रभाव सर्वत्र व्याप्त हो गया होगा। सिद्धसेनके इस ब़ते प्रभावके कारण ही श्वेताम्बर संघको अपनी भूलका अनुभव हुआ होगा और प्रायश्चित्तकी शेष अवधिको रहकर उन्हें प्रभावक आचार्य घोषित किया गया होगा।
दिगम्बर सम्प्रदायमें सिद्धसेनको सेनगणका आचार्य माना गया है।अतएव 'सन्मतिसूत्र'के कर्ता सिद्धसेनका समय समन्तभद्रके पश्चात्और पूज्यपादके पूर्व या समकालिक माना जा सकता है।
आचार्य मुख्तार साहबकी दो सिद्धमेनवाली मान्यता वृद्धिसंगत प्रतीत होतो है। ग्रंथके अन्तरंग परीक्षणसे मुख्तारसाहबने बतलाया है कि विक्रम संवत् ६६६के पूर्व सिद्धसेन हुए हैं। 'सन्मति' सूत्रके कर्ता सिद्धसेन कैवालीके ज्ञान-दर्शनोपयोग-विषयमें अभेदवादके पुरस्कर्ता हैं। उनके इस अभेदवादका खण्डन दिगंबर सम्प्रदायमें अकलंकदेवने तत्वार्थवात्तिमें और श्वेताम्बर सम्प्रदायमें सर्वप्रथम जिनभद्र क्षमाश्रमणके "विशेषावश्यकभाष्य' और 'विशेषेणती' ग्रन्थोंमें किया है। साथ ही सन्मतिसूत्रके तृतीय काण्डकी "णत्थिपुढवीविसिट्टो" और "दोहिं वि णएहिं णोय" गाथाएं विशेषावश्यकभाष्यमें क्रमशः ग. नं. २१०४, २१९५ पर उद्धत पायी जाती हैं। इसके अतिरिक्त विशेषावश्यकभाष्यकी स्वोपज्ञटीकामें 'णामाएलियं दव्वट्टियस्स' इत्यादि गाथाकी व्याख्या करते हुए लिखा है-
"द्रव्यास्तिकनयावलम्बिनौ संग्रह-व्यवहारो ऋजुसूत्रादयस्तु पर्यायनयमत्तानुसारिणः आचार्यसिद्धसेनाऽभिप्रायात।"
इन उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि सिद्धसेनके मतका और उनकेगाथावाक्योंका उनमें उल्लेख किया गया है। अकलंकदेव विक्रम संवत् ७ वीं शताब्दीके विद्वान् हैं और जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने विशेषावश्यकभाष्यको रचना शक सं. ५३१ (वि. सं. ६६६) में की है। अतएव सिद्धसेन विक्रमकी ७वीं शताब्दीसे पूर्व वर्ती हैं। उल्लेखनीय है कि आचार्य विरसेनने भी धवला और जयधवला दोनोंमें सिद्धसेनके सन्मतिसूत्रके नामनिर्देशपूर्वक उसके वाक्योंको उदघृत किया है तथा उनके साथ होनेवाले विरोधका परिहार किया है। विरसेनका समय ईसाकी ९ वि शती है। अतः सिद्धसेन स्पष्टतया उनसे भी पूर्ववर्ती सिद्ध है। पूज्यपाद देवनन्दिने सन्मतिसूत्रके ज्ञानदर्शनोपयोगके अभेदबादकी चर्चा तक नहीं की, जब कि अकलंकदेवने तत्त्वार्थवात्तिकमें उसकी चर्चा ही नहीं, सयुक्तिक मीमांसा भी की है। यदि पूज्यपादसे पूर्व सन्मतिसूत्र रचा गया होता, तो पूज्य पाद अकलंककी तरह उसके अभेदवादकी मीमांसापूर्वक हीयुगपद्वादका प्रतिपादन करते। अतः सिद्धसेनका समय पूज्यपाद (वि. की ६ठी शती) और अकलंक ( वि. की ७ वीं शती) का मध्यकाल अर्थात् वि. सं. ६२५ के आस पास होना चाहिए।
उपर्युक्त विवेचनसे स्पष्ट है कि सिद्धसेन नामके एक से अधिक विद्वान हुए हैं। सन्मतिसूत्र और कल्याणमन्दिर जैसे ग्रंथोंके रचयिता सिद्धसेन दिगम्बर सम्प्रदायमें हुए हैं। इनके साथ दिवाकर विशेषण नहीं है। दिवाकर विशेषण श्वेताम्बर सम्प्रदायमै हुए सिवसेनके साथ पाया जाता है, जिनकी कुछ द्वात्रिशिकाएं, न्यायावतार आदि रचनाएं हैं। यहां दिगम्बर परम्परामें हुए सिद्धसेनकी उपलब्ध दो रचनाओंको विवेचित किया जाता है।
प्राकृत भाषामें लिखित न्याय और दर्शनका यह अनूठा ग्रन्थ है।आचार्यने नयोंका सांगोपांग विवेचन कर जैनन्यायको सुदढ़ पद्धतिका आरम्भ किया है। कावत्र करनेकी मारलेको प्रतिमाको 'यह' कहागया है और विभिन्न दर्शनोंका अन्तर्भाव विभिन्न नयोंमें किया है। इस ग्रन्थके ३ काण्ड हैं- (१) नयकाण्ड, जीवकाण्ड या ज्ञानकाण्ड और (३) सामान्य-विशेषकाण्ड या ज्ञेयकाण्ड।
प्रथम काण्डमें ५४, द्वितीयमें ४३ और तृतीयमें ६९ गाथाएँ हैं। इस प्रकार कुल १६६ गाथाओं में अन्य समाप्त हुआ है।
प्रथम काण्डमें द्रव्यार्थीक और पर्यायार्थीक नयोंके स्वरूपका विस्तारपूर्वक विवेचन आया है। तीर्थंकरवचनोंके सामान्य और विशेषभावके मूल प्रतिपादक ये दोनों ही नय हैं। शेष नयोंका विकास और निकास इन्हींसे हुआ है। लिखा है-
तिस्थयरवयणसंगह-विसेसपत्थारमूलवागरणी।
दव्वदिओ य पज्जवणमओ व सेसा वियप्पा सि।।
दव्वट्टियनयपयडी सुद्धा संगहपरूवणाविसओ।
पडिरुवे पुण वयणत्थनिन्छओ तस्स ववहारो॥
द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दोनों नय क्रमशः अभेद और भेदको ग्रहण करते हैं। तीर्थंकरके वचनोंकी सामान्य एवं विशेषरूप राशियोंके मूलप्रतिपादक द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय हैं। शेष नय भेद या अभेदको विषय करने के कारण इन्हीं नयोंके उपमेद हैं। द्रव्यार्थिक नयको शुद्ध प्रकृति संग्रहकी प्ररूपणा का विषय है और प्रत्येक वस्तुके सम्बन्धमें होनेवाला शब्दार्थ-निश्चय तो संग्रहका व्यवहार है।
ऋजूसूत्रनय अर्थात् तदनुसारी जो वचन विभाग, वह पर्यायनयका मूल आधार है। शब्दनय, समभिरूढनय और एवंभूतनय उत्तरोत्तर सूक्ष्म भेद वाले होनेसे पर्यायनयके अन्तर्गत ही है। नाम, स्थापना और द्रव्य ये तीन द्रव्यार्थिकनयके निक्षेप है और भावनिक्षेप पर्यायाधिक नयके अन्तर्गत है। इस प्रकार इस काण्डमें उत्पाद, व्यय और धौव्यात्मक वस्तुका निरूपण कर नयोंका विवेचन किया है। मानुष्य जो कुछ सोचता या कहता है वह या तो अभेद की ओर झुकता है या भेदकी ओर। अभेदकी दृष्टि से किये गये विचार और उसके द्वारा प्रतिपादित वस्तुको संग्रह या सामान्य कहते हैं। भेदकी दृष्टिसे किया गया विचार और प्रतिपादित वस्तु विशेष कही जाती है। इस प्रकार इस काण्डमें द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयोंका विश्लेषण किया गया है।
द्वितीय काण्डमें दर्शन और ज्ञानकै स्वरूपका कथन करनेके पश्चात् आत्मा सामान्य-विशेषात्मक स्वरूपका निरूपण कर द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयोंको घटित किया है। इस द्वितीय काण्डमें ज्ञान और दर्शन के समयभेदका कथन करते हुए केवलीके ज्ञान और दर्शनकेअभेदवादका समर्थन किया है। लिखा है-
मणपज्जवणाणंतो णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो।
केवलणाणं पुण दंसणं ति णाणं ति य समाण।
ज्ञान और दर्शनका विश्लेषण अर्थात् कालभेद मनःपर्यय ज्ञान तक है, पर केवलज्ञानके विषयमें दर्शन और ज्ञान ये दोनों समान हैं। अर्थात् इन दोनोंका एक काल है।
इस प्रकार केवलीके ज्ञान-दर्शनका अभेदवाद स्थापित कर क्रमवादी और सहवादीको समीक्षा प्रस्तुत की है। तार्किक शैली में पक्ष-प्रतिपक्ष स्थापन पुरस्सर विषयका निरूपण किया है। दर्शन और ज्ञान इन दोनोंकी परिभाषा एवं विषय वस्तुका विवेचन करते हुए केवलज्ञानके पर्यायोंका कथन किया है।
तृतीय काण्डमें सामान्य और विशेषरूप वस्तुका कथन है। अतः इसेज्ञेय काण्ड कहा जा सकता है। सामान्य और विशेष परस्परमें एक दूसरेसे सर्वथा भिन्न या सर्वथा अभिन्न नहीं हैं। आचार्यने लिखा है-
सामण्णम्मि विसेसो विसेसपक्खे य वयणचिणिवेसो।
दव्वपरिणाममण्ण दाएइ तयं च णियमेइ।।
एगंतणिव्विसेस एयतसिसियं च बघमागो ।
दव्वस्स पज्जवे पज्जवा हि दवियं णियतेइ॥
अर्थात् सामान्यमें विशेषविषयक वचनका और विशेषमें सामान्यविषयक वचनका जो प्रयोग होता है, वह अनुक्रमसे सामान्य-द्रव्यके परिणामको उससे भिन्न रूप में दिखलाता है और उसे-विशेषको सामान्य में नियत करता है।
एकान्त निविशेष सामान्यका और एकान्त विशेषका प्रतिपादन करनेवाला द्रव्यके पर्यायोंको उससे भिन्न और पृथक् बतलाता है। व्यवहार ज्ञानमूलक होता है और व्यवहारको अबाधकता ही ज्ञानकी यथार्थताका प्रमाण है। वस्तु का स्वरूप निश्चित करनेका एकमात्र साधन यथार्थज्ञान है और वस्तु सामान्य विशेषात्मक है। न तो सामान्यरहित विशेषकी प्रतीति होती है और न विशेष रहित सामान्यकी ही। सामान्य और विशेष दोनों परस्परमें सापेक्ष हैं। इस काण्डके अन्तमें भगवान जिनवचन- अनेकान्तकी भद्र-कामना की है-
भद्ंद मिच्छादंसणसमहमयस्य अमयसारस्स|
जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहागिम्मस्स।।
भगवान जिनवधन-अनेकान्तशासनका भद्र हो-सबका कल्याण करता हुआ सदा विद्यमान रहे, जो मिथ्यादर्शनोंके समूहका मथक- उनमें परस्पर सापेक्षता स्थापक है, अमृतसार है और निष्पक्ष जनों द्वारा सरलतासे ज्ञातव्य है।
इस ग्रन्थकी प्राकृत भाषा महाराष्ट्री है। 'य' श्रुतिका पालन सर्वत्र हुआ है। 'य' श्रुतिकी यह व्यवस्था वररुचिके व्याकरणमें नहीं मिलती। प्राकृत वैयाकरणोंमें आचार्य हेमचन्द्रने ही 'य' श्रुतिका विधान किया है। श्वेताम्बर आगम ग्रन्थोंकी प्राकृत अर्धमागधी है, पर इस ग्रन्थकी प्राकृत महाराष्ट्री है। जो शौरसेनीका एक उपभेद है। इस भाषाका प्रयोग ई. सन् की चौथी, पांचवीं शताब्दीसे हुआ है। नाटकीय शौरसेनी और जैन शौरसेनीके प्रभावसे ही उक्त महाराष्ट्रीका भेद विकसित हुआ है। यहाँ 'य' श्रुतिके कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं-
"तित्थयर (तीर्थंकर) १/३, वयण (वदन) १/३, सुहूमभेया (सूक्ष्मभेदा), पयडी (प्रकृति) १/४, णयवाया (नयवादाः) १/२५, वियप्पं (विकल्प) १/३३, सत्तवियप्पो (सप्तविकल्प:) १/४१, जएयव्व (यत्तितव्यम्) ३/६५, सुयणाण (श्रूतज्ञान) २/२७, सयले (सकले) २/२८, सायारं (साकार) २/१०, सया (सदा २/१०, णिय (निज) २/१४ आदि।
महाराष्ट्रीकी अन्य प्रवृत्तियोंमें प्रथमा विभक्तिके एक वचनमें ओकारका पाया जाना भी उपलब्ध है। यथा- पज्जणओ (पर्यायार्थिकनयः) १/३, विसओ (विषयः) १/४, ववहारो (व्यवहारस) १/४, दविओवओगो (द्रव्योपयोगः) १/८, गादो (संसार) १/१७, समूहसिद्धी (समूहसिद्ध) १/२७, अत्यो (अर्थः) १/२७ अणाइणिहणो (अनादिनिधनः) १।३७ आदि।
सप्तमी विभक्तीके एक वचनमें 'म्मि'का व्यवहार भी पाया जाता है- थोरम्मि, ससमयम्मि ३/२, तम्मि ३/४, दसणम्म २/२४, चक्खुम्मि २/२४ आदि।
इस ग्रंथकी उपलब्ध पाण्डुलिपियों में पाठान्तर भी प्राप्त होते हैं। यथा-'सुयणाणं के स्थान पर 'सुदणाण', 'सयले के स्थान पर 'सगले' और 'साया'के स्थान पर 'सायारं' जैसे प्रयोग प्राप्त हैं। इन प्रयोगोंसे प्रतीत होता है कि इस प्रकारके रूप दिगम्बर आगमोंकी शौरसेनीके हैं। इस ग्रन्थ पर दिगम्बराचार्य सुमतिदेव द्वारा विरचित एक टीकाका उल्लेख आचार्य वादिरजने किया है, जो अनुपलब्ध है। दूसरी टीका अभयदेव कृत २५०० श्लोक प्रमाण तत्त्वविधायिनी नामकी उपलब्ध है।
इस स्तोत्रमें ४४ पद्य हैं। रचयिताका नाम कुमुदचन्द्र आया है, जो सिद्ध सेनका दीक्षानाम है। लिखा है-
जननयनकुमुदचन्द्रप्रभास्वराः स्वर्गसम्पदो मुक्त्वा।
ते विगलितमलनिचया अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते।। -पद्य ४४
इस पद्यमें श्लेष द्वारा कविका नाम अभिव्यक्त किया गया है। स्तोत्रमें पार्श्वनाथकी स्तुत्ति की गयी है। प्रारम्भमें कविने अपनी अल्पज्ञताका निर्देश किया है। भगवानके मात्र नामोच्चारणका वर्णन करता हुआ कवि कहता है-
आस्तामचिन्त्यमहिमा जिन! संस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति।
तीव्रातपोपहतपान्यजनान्निदाथे प्रीणाति पद्मसरस: सरसोऽनिलोऽपि।
हे देव! आपके स्तवनकी अचिन्त्य महिमा है। आपका नाममात्र भी जीवोंको संसारके दुःखोंसे बचा लेता है। जिस प्रकार ग्रीष्मर्तुमें धूपसे पीड़ित व्यक्तिको, कमलयुक्त सरोवर तो सुख पहुंचाते ही हैं, पर उन सरोवरोंकी शीतलवायु भी सुख पहुँचाती है।
कामजयी वीतरागका महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कविने समीक्षात्मक और तुलनात्मक शैलीमें लिखा है-
'यस्मिन् हरप्रभृतयोऽपि हतप्रभावाः सोऽपि त्वया रतिपतिः क्षपितः क्षणेन।
विध्यापिता हुतमुजः पयसाय येन पीतं न कि सदपि दुर्द्धरवाडवेन॥'
जिस कामने हरि, हर, ब्रह्मा आदि महापुरुषोंको पराजित कर दिया, उस कामको भी मापने पराजित कर दिया, यह आश्चर्यकी बात नहीं है। यत: जो जल संसारकी समस्त अग्निको नष्ट करता है, उस जलको भी बड़वानल नामक समुद्रकी अग्नि नष्ट कर डालती है।
क्रोधस्त्वया यदि विभो। प्रथम निरस्तो ध्वस्तास्तदा वद कथं किल कर्मचौराः।
प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशिरापि लोके नीलदु माणि विपिनानि न कि हिमानी।।
संसारमें प्रायः देखा जाता है कि क्रोधी मनुष्य हो शत्रूओंको जीतते हैं, पर भगवन् ! आपने क्रोधको तो नवम गुणस्थानमे ही जीत लिया था। फिर क्रोधके अभावमें चतुर्दश गुणस्थान तक कर्मरूपो शत्रुओंको कैसे जीता? आचार्य सिद्धसेन– कुमुदचन्द्र ने इस लोकविरुद्ध तथ्यपर प्रथम आश्चर्य प्रकट किया, पर जब उन्हें ध्यान आया कि शीतल तुषार बड़े बड़े वनोंको क्षण भरमें जला देता है अर्थात् क्षमासे भी शत्रू जोते जाते हैं, इस प्रकार उनके आश्चर्यका स्वयं ही समाधान हो जाता है।
इस स्तोत्र पर वैदिक प्रभाव भी है। वृषासुर द्वारा रोकी गयी गायोंका मोचन इन्द्रने किया था, इस तथ्यका संकेत निम्नलिखित पद्यपर प्रतिभासित होता है-
मुच्यन्त एव मनुजाः सहसा जिनेन्द्र! रौद्रेरुपद्रवशतैस्त्वयि बीशितेऽपि।
गोस्वामिनि स्फुरिततेअसि दृष्टमात्रे चोरेरिवाशु पशवः प्रपलायमानैः।।
हे नाथ! जिस प्रकार तेजस्वी राजाके दिखते ही चोर चुराई हुई गायोंको छोड़कर शीघ्र ही भाग जाते हैं, उसी प्रकार आपके दर्शन होते ही अनेक भयंकर उपद्रव मनुष्योंको छोड़कर भाग जाते हैं।
भक्तकी भगवच्चरणामें अटूट आशाका निरूपणा करता हुआ कवि कहता है-
जन्मान्तरेऽपि तव पादयुगं न देव! मन्ये मया महितमीहितदानदक्षम्।
तेनेह जन्मनि मुनीश! पराभवानां जातो निकेतमहं मथीताशयानाम्॥"
हे भगवान्! जो मैं नाना प्रकारके तिरस्कारोंका पात्र हो रहा है, उससे स्पष्ट पता चलता है कि मैंने आपके चरणोंकी पूजा नहीं की, क्योंकि आपके चरणोंके पुजारियों का कभी किसी जगह भी तिरस्कार नहीं होता।
भावशून्य भक्तिको निरर्थक और भावपूर्ण भक्तिको सार्थक बतलाते हुए कवि कहता है।
'आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि नूनं न चेतसि मया विषतोऽसि भक्त्या।
जातोऽस्मि तेनजनबान्धव! दुःखपात्रं यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्या।।'
हे भगवन् ! मैंने आपका नाम भी सुना, पूजा भी की और दर्शन भी किये, फिर मी दुःख मेरा पिण्ड नहीं छोड़ता है। इसका कारण यही है कि मैंने भक्तिभाव पूर्वक आपका ध्यान नहीं किया। केवल आडम्बरसे ही उन कामोंको किया है, न कि भावपूर्वक। यदि भावपूर्वक भक्ति, अर्चा या स्तवन करता सो संसारके ये दुःख नहीं उठाने पड़ते। इस स्तोत्र (पय ३१, ३२, ३३) में दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य पार्श्वनाथके उपसर्गोका वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है।
संक्षेप में यह स्तोत्र अत्यन्त सरस और भावमय है। प्रत्येक पद्यसे भक्तिरस निस्यूत होता है।
सिद्धसेन दार्शनिक और कवि दोनों हैं। दोनों में उनकी गति अस्खलित है। जहाँ उनका काव्यत्व उच्च कोटिका है यहां उनका उसके माध्यमसे दार्शनिक विवेचन भी गम्भीर और तत्त्वप्रतिपादनपूर्ण है।
उपजाति, शिखरणी, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, वंशस्थ, शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका एवं आर्या छन्दोंका व्यवहार किया गया है। ओजगुण इनकी कविताका विशेष उपकरण है।
सारस्वताचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन ।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara_2.
Acharya Shri Siddhasen Maharajji (Prachin)
Acharya Shri Siddhasen Maharaj Ji
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