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#sinhanandimaharaj
सारस्वसाचार्योंमे आचार्य सिंहनन्दि का भी नाम आता है। गंग-राजवंशकी स्थापनामें सहायता देनेवाले आचार्य सिंहनन्दि विशेष उल्लेखनीय हैं। गंगवंशका सम्बन्ध प्राचीन इक्ष्वाकुवंशसे माना जाता है। मूलतः यह वंश उत्तर या पूर्वोत्तरका निवासी था। ई. सन्की दूसरी शताब्दीके लगभग इम वंशके दो राजकुमार दक्षिणमें आये। उनके नाम दडिग और माधव थे। पेरुर नामक स्थानमें उनकी भेंट जैनाचार्य सिंहनन्दिसे हुई। सिंहनन्दिने उनकी योग्यता और शासनक्षमता देखकर उन्हें शासनकार्यकी शिक्षा दी। एक पत्थरका स्तम्भ साम्राज्यदेवीको प्रवेश करनेसे रोक रहा था। सिंहनन्दिकी आज्ञासे माधवने उसे काट डाला। सिंहनन्दिने उन्हें एक राज्यका शासक बना दिया।
सिंहनन्दिका यह आख्यान मैसूर राज्यसे प्राप्त ११२२ ई. के एक अभिलेख में अंकित है। इस अभिलेखमें बताया है कि पद्मनाभ राजाके ऊपर उज्जैनके महीपालने आक्रमण किया तब उसने दडिग और माधव नामके दो पुत्रोंको दक्षिण की ओर भेज दिया। प्रतिदिन यात्रा करते-करते वे पेरूर नामक स्थानमें पहने। उन्होंने वहीं अपना शिविर स्थापित किया। यहाँ एक सरोवरके निकट चैत्यालयके दर्शन कर उन्होंने उसकी तीन प्रदक्षिणाएँ की और आचार्य सिहनन्दिकी वन्दना कर उनके निकट बैठ गये। आचार्यने उन्हें आशीर्वाद दिया। उनकी भक्तिसे प्रसन्न होकर देवी पद्मावती प्रकट हुई और उसने उन्हें तलवार एवं राज्य प्रदान किया।
समस्त राज्य प्रधान कारनेके उपरांत देवीने उन्हे सावधान करते हुए कहा "यदि तुम अपने वचनको पूरा न करोगे या जिनशासनको साहाय्य न दोगे, दूसरोंकी स्त्रियोंका यदि अपहरण करोगे, मद्य-माँसका यदि सेवन करोगे, या नीचोंकी संगतिमें रहोगे, आवश्यक होनेपर भी यदि दूसरोंको अपना धन नहीं दोगे और यदि युद्धके मैदान में पीठ दिखाओगे, तो तुम्हारा वंश नष्ट हो जायेगा"।
सन् ११२९ ई. के एक दूसरे अभिलेख में लिखा है कि सिहनन्दि मुनिने अपने शिष्योंको अर्हन्त भगवानकी ध्यानरूपी तीक्ष्ण तलवार भी कृपा करके प्रदान की थी, जो धातिकर्मरूपी शत्रुसैन्यकी पर्वतमालाको काट डालती है।
सिंहनन्दिको मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय, काणूरगण और मेषपाषाणगच्छका आचार्य तथा दक्षिणवासी बताया है। सिंहनन्दिके प्रभावसे ही गंगराजाओंने जैनधर्मको संरक्षण प्रदान किया था। चतुर्थ शताब्दीसे द्वादश शताब्दी तक अभिलेखोंसे प्रमाणित होता है कि गंगवंशके शासकोंने जैनमन्दिरोंका निर्माण कराया, जैनमूर्तियाँ प्रतिष्ठीत करायी, जैनसाधुओंके निवासके लिए गुफाएँ बनवायीं और जैनाचार्योको दान दिया। एक विरुदावलीमें सिहन्दि आचार्यको अत्यन्त प्रभावक आचार्य बताया गया है। कहा गया है कि सम्पूर्ण संसाररूप कमलवनको विकसित करनेमें सूर्यके समान तपस्याको छविसे उत्पन्न प्रभा द्वारा सभी दिशाओंके अन्धकारको दूर करने वाले सिद्धान्त-समुद्रकी वृद्धिमें चन्द्रमास्वरूप, मिथ्यात्वरूपी अन्धकारको दूर करनेके लिए सूर्यतुल्य, परवादियोंके सिद्धान्तरूपी गजके मस्तकको विदीर्ण करने में सिंहके समान श्रीलोकचंद्र, प्रभाचंद्र, नेमीचंद्र, और सिंहनन्दि योगीन्द्र हुए।
इस सन्दर्भमें आये हुए सिंहनन्दि पूर्वोक्त गंगवंश-संस्थापक सिंहनन्दिसे अभिन्न हों, तो उनकी विद्वत्ता जगत्प्रसिद्ध प्रतीत होती है। इस विरुदावलीमें पूज्यपाद, गुणनन्दि, वज्रनन्दि और कुमारनन्दिके पश्चात् सिंहनन्दिका उल्लेख आया है। अतः बहुत सम्भव है कि यह सिंहन्दि गंगवंश-संस्थापक सिंहनन्दि ही है। ये आगम, तर्क, राजनीति और व्याकरण शास्त्र आदि विषयोंके ज्ञाता थे। इनका समय ई. सनकी द्वितीय शताब्दी है।
उपर्युक्त उल्लेखोंसे विदित है कि गंगवंश-संस्थापक सिंहनन्दि राजनीतिके साथ आगम-शास्त्रके भी ज्ञाता थे। अतः असम्भव नहीं कि इनकी रचनाएँ भी रही हो, जो आज उपलब्ध नहीं।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
सारस्वसाचार्योंमे आचार्य सिंहनन्दि का भी नाम आता है। गंग-राजवंशकी स्थापनामें सहायता देनेवाले आचार्य सिंहनन्दि विशेष उल्लेखनीय हैं। गंगवंशका सम्बन्ध प्राचीन इक्ष्वाकुवंशसे माना जाता है। मूलतः यह वंश उत्तर या पूर्वोत्तरका निवासी था। ई. सन्की दूसरी शताब्दीके लगभग इम वंशके दो राजकुमार दक्षिणमें आये। उनके नाम दडिग और माधव थे। पेरुर नामक स्थानमें उनकी भेंट जैनाचार्य सिंहनन्दिसे हुई। सिंहनन्दिने उनकी योग्यता और शासनक्षमता देखकर उन्हें शासनकार्यकी शिक्षा दी। एक पत्थरका स्तम्भ साम्राज्यदेवीको प्रवेश करनेसे रोक रहा था। सिंहनन्दिकी आज्ञासे माधवने उसे काट डाला। सिंहनन्दिने उन्हें एक राज्यका शासक बना दिया।
सिंहनन्दिका यह आख्यान मैसूर राज्यसे प्राप्त ११२२ ई. के एक अभिलेख में अंकित है। इस अभिलेखमें बताया है कि पद्मनाभ राजाके ऊपर उज्जैनके महीपालने आक्रमण किया तब उसने दडिग और माधव नामके दो पुत्रोंको दक्षिण की ओर भेज दिया। प्रतिदिन यात्रा करते-करते वे पेरूर नामक स्थानमें पहने। उन्होंने वहीं अपना शिविर स्थापित किया। यहाँ एक सरोवरके निकट चैत्यालयके दर्शन कर उन्होंने उसकी तीन प्रदक्षिणाएँ की और आचार्य सिहनन्दिकी वन्दना कर उनके निकट बैठ गये। आचार्यने उन्हें आशीर्वाद दिया। उनकी भक्तिसे प्रसन्न होकर देवी पद्मावती प्रकट हुई और उसने उन्हें तलवार एवं राज्य प्रदान किया।
समस्त राज्य प्रधान कारनेके उपरांत देवीने उन्हे सावधान करते हुए कहा "यदि तुम अपने वचनको पूरा न करोगे या जिनशासनको साहाय्य न दोगे, दूसरोंकी स्त्रियोंका यदि अपहरण करोगे, मद्य-माँसका यदि सेवन करोगे, या नीचोंकी संगतिमें रहोगे, आवश्यक होनेपर भी यदि दूसरोंको अपना धन नहीं दोगे और यदि युद्धके मैदान में पीठ दिखाओगे, तो तुम्हारा वंश नष्ट हो जायेगा"।
सन् ११२९ ई. के एक दूसरे अभिलेख में लिखा है कि सिहनन्दि मुनिने अपने शिष्योंको अर्हन्त भगवानकी ध्यानरूपी तीक्ष्ण तलवार भी कृपा करके प्रदान की थी, जो धातिकर्मरूपी शत्रुसैन्यकी पर्वतमालाको काट डालती है।
सिंहनन्दिको मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय, काणूरगण और मेषपाषाणगच्छका आचार्य तथा दक्षिणवासी बताया है। सिंहनन्दिके प्रभावसे ही गंगराजाओंने जैनधर्मको संरक्षण प्रदान किया था। चतुर्थ शताब्दीसे द्वादश शताब्दी तक अभिलेखोंसे प्रमाणित होता है कि गंगवंशके शासकोंने जैनमन्दिरोंका निर्माण कराया, जैनमूर्तियाँ प्रतिष्ठीत करायी, जैनसाधुओंके निवासके लिए गुफाएँ बनवायीं और जैनाचार्योको दान दिया। एक विरुदावलीमें सिहन्दि आचार्यको अत्यन्त प्रभावक आचार्य बताया गया है। कहा गया है कि सम्पूर्ण संसाररूप कमलवनको विकसित करनेमें सूर्यके समान तपस्याको छविसे उत्पन्न प्रभा द्वारा सभी दिशाओंके अन्धकारको दूर करने वाले सिद्धान्त-समुद्रकी वृद्धिमें चन्द्रमास्वरूप, मिथ्यात्वरूपी अन्धकारको दूर करनेके लिए सूर्यतुल्य, परवादियोंके सिद्धान्तरूपी गजके मस्तकको विदीर्ण करने में सिंहके समान श्रीलोकचंद्र, प्रभाचंद्र, नेमीचंद्र, और सिंहनन्दि योगीन्द्र हुए।
इस सन्दर्भमें आये हुए सिंहनन्दि पूर्वोक्त गंगवंश-संस्थापक सिंहनन्दिसे अभिन्न हों, तो उनकी विद्वत्ता जगत्प्रसिद्ध प्रतीत होती है। इस विरुदावलीमें पूज्यपाद, गुणनन्दि, वज्रनन्दि और कुमारनन्दिके पश्चात् सिंहनन्दिका उल्लेख आया है। अतः बहुत सम्भव है कि यह सिंहन्दि गंगवंश-संस्थापक सिंहनन्दि ही है। ये आगम, तर्क, राजनीति और व्याकरण शास्त्र आदि विषयोंके ज्ञाता थे। इनका समय ई. सनकी द्वितीय शताब्दी है।
उपर्युक्त उल्लेखोंसे विदित है कि गंगवंश-संस्थापक सिंहनन्दि राजनीतिके साथ आगम-शास्त्रके भी ज्ञाता थे। अतः असम्भव नहीं कि इनकी रचनाएँ भी रही हो, जो आज उपलब्ध नहीं।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
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डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री सिंहानंदी (प्राचीन)
सारस्वसाचार्योंमे आचार्य सिंहनन्दि का भी नाम आता है। गंग-राजवंशकी स्थापनामें सहायता देनेवाले आचार्य सिंहनन्दि विशेष उल्लेखनीय हैं। गंगवंशका सम्बन्ध प्राचीन इक्ष्वाकुवंशसे माना जाता है। मूलतः यह वंश उत्तर या पूर्वोत्तरका निवासी था। ई. सन्की दूसरी शताब्दीके लगभग इम वंशके दो राजकुमार दक्षिणमें आये। उनके नाम दडिग और माधव थे। पेरुर नामक स्थानमें उनकी भेंट जैनाचार्य सिंहनन्दिसे हुई। सिंहनन्दिने उनकी योग्यता और शासनक्षमता देखकर उन्हें शासनकार्यकी शिक्षा दी। एक पत्थरका स्तम्भ साम्राज्यदेवीको प्रवेश करनेसे रोक रहा था। सिंहनन्दिकी आज्ञासे माधवने उसे काट डाला। सिंहनन्दिने उन्हें एक राज्यका शासक बना दिया।
सिंहनन्दिका यह आख्यान मैसूर राज्यसे प्राप्त ११२२ ई. के एक अभिलेख में अंकित है। इस अभिलेखमें बताया है कि पद्मनाभ राजाके ऊपर उज्जैनके महीपालने आक्रमण किया तब उसने दडिग और माधव नामके दो पुत्रोंको दक्षिण की ओर भेज दिया। प्रतिदिन यात्रा करते-करते वे पेरूर नामक स्थानमें पहने। उन्होंने वहीं अपना शिविर स्थापित किया। यहाँ एक सरोवरके निकट चैत्यालयके दर्शन कर उन्होंने उसकी तीन प्रदक्षिणाएँ की और आचार्य सिहनन्दिकी वन्दना कर उनके निकट बैठ गये। आचार्यने उन्हें आशीर्वाद दिया। उनकी भक्तिसे प्रसन्न होकर देवी पद्मावती प्रकट हुई और उसने उन्हें तलवार एवं राज्य प्रदान किया।
समस्त राज्य प्रधान कारनेके उपरांत देवीने उन्हे सावधान करते हुए कहा "यदि तुम अपने वचनको पूरा न करोगे या जिनशासनको साहाय्य न दोगे, दूसरोंकी स्त्रियोंका यदि अपहरण करोगे, मद्य-माँसका यदि सेवन करोगे, या नीचोंकी संगतिमें रहोगे, आवश्यक होनेपर भी यदि दूसरोंको अपना धन नहीं दोगे और यदि युद्धके मैदान में पीठ दिखाओगे, तो तुम्हारा वंश नष्ट हो जायेगा"।
सन् ११२९ ई. के एक दूसरे अभिलेख में लिखा है कि सिहनन्दि मुनिने अपने शिष्योंको अर्हन्त भगवानकी ध्यानरूपी तीक्ष्ण तलवार भी कृपा करके प्रदान की थी, जो धातिकर्मरूपी शत्रुसैन्यकी पर्वतमालाको काट डालती है।
सिंहनन्दिको मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय, काणूरगण और मेषपाषाणगच्छका आचार्य तथा दक्षिणवासी बताया है। सिंहनन्दिके प्रभावसे ही गंगराजाओंने जैनधर्मको संरक्षण प्रदान किया था। चतुर्थ शताब्दीसे द्वादश शताब्दी तक अभिलेखोंसे प्रमाणित होता है कि गंगवंशके शासकोंने जैनमन्दिरोंका निर्माण कराया, जैनमूर्तियाँ प्रतिष्ठीत करायी, जैनसाधुओंके निवासके लिए गुफाएँ बनवायीं और जैनाचार्योको दान दिया। एक विरुदावलीमें सिहन्दि आचार्यको अत्यन्त प्रभावक आचार्य बताया गया है। कहा गया है कि सम्पूर्ण संसाररूप कमलवनको विकसित करनेमें सूर्यके समान तपस्याको छविसे उत्पन्न प्रभा द्वारा सभी दिशाओंके अन्धकारको दूर करने वाले सिद्धान्त-समुद्रकी वृद्धिमें चन्द्रमास्वरूप, मिथ्यात्वरूपी अन्धकारको दूर करनेके लिए सूर्यतुल्य, परवादियोंके सिद्धान्तरूपी गजके मस्तकको विदीर्ण करने में सिंहके समान श्रीलोकचंद्र, प्रभाचंद्र, नेमीचंद्र, और सिंहनन्दि योगीन्द्र हुए।
इस सन्दर्भमें आये हुए सिंहनन्दि पूर्वोक्त गंगवंश-संस्थापक सिंहनन्दिसे अभिन्न हों, तो उनकी विद्वत्ता जगत्प्रसिद्ध प्रतीत होती है। इस विरुदावलीमें पूज्यपाद, गुणनन्दि, वज्रनन्दि और कुमारनन्दिके पश्चात् सिंहनन्दिका उल्लेख आया है। अतः बहुत सम्भव है कि यह सिंहन्दि गंगवंश-संस्थापक सिंहनन्दि ही है। ये आगम, तर्क, राजनीति और व्याकरण शास्त्र आदि विषयोंके ज्ञाता थे। इनका समय ई. सनकी द्वितीय शताब्दी है।
उपर्युक्त उल्लेखोंसे विदित है कि गंगवंश-संस्थापक सिंहनन्दि राजनीतिके साथ आगम-शास्त्रके भी ज्ञाता थे। अतः असम्भव नहीं कि इनकी रचनाएँ भी रही हो, जो आज उपलब्ध नहीं।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara- 2
Acharya Shri Sinhanandi (Prachin)
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