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#sumatimaharaj
सारस्वसाचार्योंमे आचार्य सुमतिदेवका नाम ले सकते है। आचार्य सुमतिदेवका उल्लेख सन्मति-टीकाकारके रूपमें पाया जाता है। आचार्य वादिराजने अपने पार्श्वनाथचरितमें सुमतिदेवका निम्नप्रकार उल्लेख किया है-
नमः सन्मतये तस्मै भव-कूप-निपातिनाम्।
सन्मतिर्विवृता येन सुखधाम-प्रदेशिनी।।१।२२।।
आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने अनुमान किया है कि सुमतिदेवकी यह टीका ११ वीं शताब्दीके श्वेत्ताम्बराचार्य अभयदेवकी टीकासे लगभग तीन शताब्दी पहलेकी होनी चाहिये।
इन आचार्य और उनके सिद्धान्तका उल्लेख तत्त्वसंग्रहमें प्रत्यक्षलक्षण समीक्षा सन्दर्भमें तत्वसंग्रहकार और उनके शिष्य कमलशीलने भी किया है "नन्वित्यादिना प्रथमे हेतो सुमतेदिगम्बरस्प मतेनासिद्धतामाश डूते। स हि सामान्यविशेषात्मकत्वेनोभयरूपं सर्व वस्तु वर्णयति। सामान्यं च द्विरूपम्___।" त. सं पंजिका, का. १२६४। "अत्र किल तेनैव सुमतिना स्वयमाशय सामान्येन हेतोरनैकान्तिकत्वं परिहतम्, तदेवादर्शयति- निविशेषमित्यादि।" (त. सं. का. १२७५)।
श्रवणबेलगोलाके अभिलेख संख्या ५४ में भी सुमतिदेवका उल्लेख आया है। यह अभिलेख शक संवत् १०५०का है। यथा-
सुमति-देवममु, स्तुतयेन वस्सुमति सप्तकमाप्ततया कृतं।
परिहृतापथतत्त्व-पथास्थिनां सुमति-कोटि-विवत्तिभवार्त्तिहुत।।
इस पद्यसे स्पष्ट है कि सुमतिदेव अच्छे प्रभावशाली तार्किक हुए है, जिनका स्थितिकाल ८वीं शताब्दीके लगभग रहा है। तत्वसंग्रह और शिलालेखके उल्लेख बतलाते हैं कि आचार्य सुमतिदेव प्रमाण और नयके विशिष्ट विद्वान् हैं। तार्किकके रूप में इनकी ख्याति ८वीं शताब्दीमें पूर्णतया व्याप्त रही है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
सारस्वसाचार्योंमे आचार्य सुमतिदेवका नाम ले सकते है। आचार्य सुमतिदेवका उल्लेख सन्मति-टीकाकारके रूपमें पाया जाता है। आचार्य वादिराजने अपने पार्श्वनाथचरितमें सुमतिदेवका निम्नप्रकार उल्लेख किया है-
नमः सन्मतये तस्मै भव-कूप-निपातिनाम्।
सन्मतिर्विवृता येन सुखधाम-प्रदेशिनी।।१।२२।।
आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने अनुमान किया है कि सुमतिदेवकी यह टीका ११ वीं शताब्दीके श्वेत्ताम्बराचार्य अभयदेवकी टीकासे लगभग तीन शताब्दी पहलेकी होनी चाहिये।
इन आचार्य और उनके सिद्धान्तका उल्लेख तत्त्वसंग्रहमें प्रत्यक्षलक्षण समीक्षा सन्दर्भमें तत्वसंग्रहकार और उनके शिष्य कमलशीलने भी किया है "नन्वित्यादिना प्रथमे हेतो सुमतेदिगम्बरस्प मतेनासिद्धतामाश डूते। स हि सामान्यविशेषात्मकत्वेनोभयरूपं सर्व वस्तु वर्णयति। सामान्यं च द्विरूपम्___।" त. सं पंजिका, का. १२६४। "अत्र किल तेनैव सुमतिना स्वयमाशय सामान्येन हेतोरनैकान्तिकत्वं परिहतम्, तदेवादर्शयति- निविशेषमित्यादि।" (त. सं. का. १२७५)।
श्रवणबेलगोलाके अभिलेख संख्या ५४ में भी सुमतिदेवका उल्लेख आया है। यह अभिलेख शक संवत् १०५०का है। यथा-
सुमति-देवममु, स्तुतयेन वस्सुमति सप्तकमाप्ततया कृतं।
परिहृतापथतत्त्व-पथास्थिनां सुमति-कोटि-विवत्तिभवार्त्तिहुत।।
इस पद्यसे स्पष्ट है कि सुमतिदेव अच्छे प्रभावशाली तार्किक हुए है, जिनका स्थितिकाल ८वीं शताब्दीके लगभग रहा है। तत्वसंग्रह और शिलालेखके उल्लेख बतलाते हैं कि आचार्य सुमतिदेव प्रमाण और नयके विशिष्ट विद्वान् हैं। तार्किकके रूप में इनकी ख्याति ८वीं शताब्दीमें पूर्णतया व्याप्त रही है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
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डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री सुमति (प्राचीन)
सारस्वसाचार्योंमे आचार्य सुमतिदेवका नाम ले सकते है। आचार्य सुमतिदेवका उल्लेख सन्मति-टीकाकारके रूपमें पाया जाता है। आचार्य वादिराजने अपने पार्श्वनाथचरितमें सुमतिदेवका निम्नप्रकार उल्लेख किया है-
नमः सन्मतये तस्मै भव-कूप-निपातिनाम्।
सन्मतिर्विवृता येन सुखधाम-प्रदेशिनी।।१।२२।।
आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने अनुमान किया है कि सुमतिदेवकी यह टीका ११ वीं शताब्दीके श्वेत्ताम्बराचार्य अभयदेवकी टीकासे लगभग तीन शताब्दी पहलेकी होनी चाहिये।
इन आचार्य और उनके सिद्धान्तका उल्लेख तत्त्वसंग्रहमें प्रत्यक्षलक्षण समीक्षा सन्दर्भमें तत्वसंग्रहकार और उनके शिष्य कमलशीलने भी किया है "नन्वित्यादिना प्रथमे हेतो सुमतेदिगम्बरस्प मतेनासिद्धतामाश डूते। स हि सामान्यविशेषात्मकत्वेनोभयरूपं सर्व वस्तु वर्णयति। सामान्यं च द्विरूपम्___।" त. सं पंजिका, का. १२६४। "अत्र किल तेनैव सुमतिना स्वयमाशय सामान्येन हेतोरनैकान्तिकत्वं परिहतम्, तदेवादर्शयति- निविशेषमित्यादि।" (त. सं. का. १२७५)।
श्रवणबेलगोलाके अभिलेख संख्या ५४ में भी सुमतिदेवका उल्लेख आया है। यह अभिलेख शक संवत् १०५०का है। यथा-
सुमति-देवममु, स्तुतयेन वस्सुमति सप्तकमाप्ततया कृतं।
परिहृतापथतत्त्व-पथास्थिनां सुमति-कोटि-विवत्तिभवार्त्तिहुत।।
इस पद्यसे स्पष्ट है कि सुमतिदेव अच्छे प्रभावशाली तार्किक हुए है, जिनका स्थितिकाल ८वीं शताब्दीके लगभग रहा है। तत्वसंग्रह और शिलालेखके उल्लेख बतलाते हैं कि आचार्य सुमतिदेव प्रमाण और नयके विशिष्ट विद्वान् हैं। तार्किकके रूप में इनकी ख्याति ८वीं शताब्दीमें पूर्णतया व्याप्त रही है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara- 2
Acharya Shri Sumati (Prachin)
Acharya Shri Sumati
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