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#vappadevacharyamaharaj

श्रुतधराचार्यों में शुभनन्दि, रविनन्दि और वप्पदेवाचार्य के नाम भी आते हैं। शुभनन्दि और रविनन्दि नामके दो आचार्य अत्यन्त कुशाग्रबुद्धिके हुए हैं। इनसे वप्पदेवाचार्यने समस्त सिद्धान्तग्रन्थका अध्ययन किया। यह अध्ययन भीमरथि और कृष्णामेख नदियोंके मध्यमें स्थित उत्कलिकाग्रामके समीप मगणवल्लि ग्राममें हुआ था। भीमरथी कृष्णानदीकी शाखा है और इनके बीचका प्रदेश अब बेलगाँव या धारवाड कहलाता है। वप्पदेवाचार्यने यहींपर उक्त दोनों गुरुओंसे सिद्धान्तका अध्ययन किया होगा | इस अध्ययनके पश्चात् उन्होंने महाबन्धको छोड़ शेष पाँच खण्डोंपर व्याख्याप्रज्ञप्तिनामकी टीका लिखी है और छठे खण्डकी संक्षिप्त विवृति भी लिखी है। इन छहों खण्डोंके पुर्ण हो जानेके पश्चात उन्होंने कषायप्राभृतकी भी टीका रची। उक्त पांचों खण्डों और कषायप्राभृतकी टीकाका परिमाण ६०००० और महाबन्धकी टीकाका ५ अधिक ८००० बताया जाता है। ये सभी रचनाएँ प्राकृत भाषामें की गयी थीं । इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें लिखा है-
एवं व्याख्यानक्रममवाप्तवान् परमगुरुपरम्परया।
आगच्छन् सिद्धान्तो द्विविधोऽप्यतिनिशितबुद्धिभ्याम्।। शुभ-रविनन्दिमुनिभ्यां भीमरथि-कृष्णमेखयोः सरितोः।
मध्यमविषये रमणीयोत्कलिकाग्रामसामोग्यम्।
विख्यातमगणवल्लीग्रामेऽथ विशेषरूपेण।
श्रुत्वा तयोश्च पाश्वें तमशेषं बप्पदेवगुरुः।।
अपनोय महाबन्धं षट्खण्डाच्छेषपंचखंडे तु।
व्याख्याप्रज्ञप्ति च षष्ठं खंडं च ततः सक्षिप्य ।।
षण्णां खडानामिति निष्पन्नानां तथा कषायाख्य-।
प्राभृतकस्य च षष्ठीसहस्त्रग्रन्थप्रमाणयुताम्।।
व्यालखरप्राकृतभाषारूपां सम्यक्पुरातनव्याख्याम्।
अष्टसहस्नग्रंथां व्याख्यां पञ्चाधिकां महाबन्धे।।
इन पद्योंमें प्राकृतभाषारूप पुरातन व्याख्या लिखनेका निर्देश आया है। द्वितीय पद्यमें गरुओंके नाम दिये गये हैं। श्रुतावतारके आगेवाले पद्योंके अध्ययनसे ऐसा प्रतीत होता है कि व्यख्याप्रज्ञप्तिको मिलाकर छ: खण्ड किये गये थे। षटखण्डोंमेंसे महाबन्धको पृथक कर शेष पाँच खण्डोंमें व्याख्याप्रज्ञतिको मिलाकर वप्पदेवने षटखण्ड किये गमगर का निारी। वीरसेन स्वामीने उक्त षटवण्डोंमेंसे व्याख्याप्रज्ञप्तिको प्राप्त कर सत्कर्म नामक छठे खण्डको मिलाकर छ: खण्डोंपर धवला टीका लिखी है। यह सत्कर्म १५वीं पुस्तकमें प्रकाशित है। इसपर सत्कर्मपंजिका भी है, जो उसीके साथ परिशिष्ट रूपमें प्रकाशित है। इसके प्रारम्भमें पंजिकाकारने लिखा है कि महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके चौवीस अनुयोग हैं, उनमेंसे कृत्ति और वेदनाका वेदनाखण्डमें और स्पर्श, कर्म प्रकृतिका वर्गणाखण्डमें कथन किया है। बन्धन अनुयोगद्वार बन्ध, बन्धनीय,बन्धक और बन्धविधान इन चार अवान्तर अनुयोगद्वारोंमें विभक्त है। इनमें से बन्ध और बन्धनीय अधिकारोंकी प्ररूपणा वर्गणाखण्डमें, बन्धन अधिकारको प्ररूपणा खुद्दावन्धक नामक दूसरे खण्डमें और बन्धविधानका कथन महाबन्ध नामक छठे खण्डमें है। शेष १८ अनुयोग द्वारोंकी प्ररूपणा मूल षट्खण्डागममें नहीं है। किन्तु आचार्य वीरसेनने वर्गणा खण्डके अन्तिम सूत्रको देशावमर्शक मानकर, उसकी प्ररूपणा धवलाके अन्तमें की है। उसीका नाम सत्कर्म है। इसका ज्ञान उन्होंने ऐलाचार्यसे प्राप्त किया था। धवलाके अध्ययनसे ऐसा ज्ञात होता है कि व्याख्याप्रज्ञप्ति प्राकृतभाषारूप पुरातन व्याख्या रही है। यह वप्पदेव द्वारा लिखित नहीं है। इस कथनकी सिद्धि सम्यकपुरातनपद द्वारा होता है। इस पदका अर्थ है पर्याप्त प्राचीन। अतः सम्यकपुरातनको व्याख्याप्रज्ञप्तिका विशेषण माननेपर यह प्राचीन व्याख्या सिद्ध हो जाती है। षट्खण्डागममें आये हुए मतभेदसे भी उक्त तथ्य पुष्ट होता है- "एदेण वियाहपण्णत्तियुत्तेण सह कधं ण विरोहो? ण, एदम्हादो तस्स पुधभूदस्स आइरियभेएण भेदमावण्णस्स एयत्ताभावादो" इस व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्रके साथ विरोध क्यों नहीं है? आचार्यभेदसे भिन्नता होनेके कारण इन दोनोंमें एकत्व नहीं हो सकता।
इस कथनमें व्याख्याप्रज्ञप्तिके वचनोंको सूत्र कहा है और आचार्यभेदसे भिन्न कहा है। अतः यह व्याख्याप्रज्ञप्ति विचारणीय है। सम्भवतः यह वही हो, जिसका इन्द्रनन्दिने उल्लेख किया है और जो वीरसेन स्वामीको प्राप्त थी। आचार्य अकलंकदेवने अपने तत्वार्थवार्तीकमें भी दो स्थलोंपर २/४९/८ और ४/२६/५ में व्याख्यापज्ञप्तिदण्डकका उल्लेख किया है और दोनों ही स्थानों में षट्खण्डागमसे उसका भेद बतलाया है। अतएव हमारा अनुमान है कि व्याख्यापज्ञप्ति अन्य किसी आचार्यकी कृति है, वप्पदेवकी नहीं। वप्पदेवने व्याख्याप्रज्ञप्तिको जोड़कर षट्खण्डोंपर अपनी टीका लिखी है। यह सत्य है कि वप्पदेव सिद्धान्तविषयके संपूर्ण विद्वान थे।
वप्पदेवका समय वीरसेन स्वामीके पूर्व है। वीरसेनाचार्यके समक्ष वप्पदेव की व्याख्या वर्तमान थी। वीरसेनका समय डॉ. हीरालालजीके मतानुसार ई. सन् ८१६ है, अत: इसके पूर्व बप्पदेवका समय सुनिश्चित है। वप्पदेवने शुभ नन्दि और रविनन्दिसे आगमग्रंथोका अध्ययन किया है और इन दोनों आचार्यों की प्राचीनता श्रुतधरोंके रूप में प्रसिद्ध है। एलाचार्यका समय ई. सन् ७६६-७७६ है, और इनसे पूर्व वप्पदेवका समय होना चाहिए। इस क्रमसे हम यतिवृषभ और आयमंक्षु-नागहस्तिके समकालीन वप्पदेवको मान सकते हैं। संक्षेपमें वप्पदेवका समय ५ वी-६ वीं शती है।
वप्पदेवकी रचना कोई भी उपलब्ध नहीं है। धवला एवं जयधवलामें इनके नामसे जो उद्धरण आते हैं, उनसे इनके वैदुष्यपर प्रकाश पड़ता है। षट्खण्डागममें इनका यत्र-तत्र उल्लेख है। अतएव आचार्यके रूपमें वप्पदेव प्रतिष्ठित है। जयधवलामें इनकी मतभिन्नताका उल्लेख करते हुए कहा है-
'चुण्णिसुत्तम्मि वप्पदेवाइरियलिहिदुच्चारणाए अंतोमुहुत्तमिति भणिदो। अम्हेहि तिहिदुच्चारणाए पुण जह एमसमयो उक्क. संखेज्जा समया त्ति पलचिदो'।
उच्चारणसम्बन्धी इस मतभेदसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि आचार्य वप्पदेवके अभिमतका प्रचार पृथक रूपमें वर्तमान था। वप्पदेवकी जिन सिद्धान्तोंमें मतभिन्नता वर्तमान थी, उसका निर्देश यथास्थान जयधवला और धवलाटीकामें प्राप्त है।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतधराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
श्रुतधराचार्यों में शुभनन्दि, रविनन्दि और वप्पदेवाचार्य के नाम भी आते हैं। शुभनन्दि और रविनन्दि नामके दो आचार्य अत्यन्त कुशाग्रबुद्धिके हुए हैं। इनसे वप्पदेवाचार्यने समस्त सिद्धान्तग्रन्थका अध्ययन किया। यह अध्ययन भीमरथि और कृष्णामेख नदियोंके मध्यमें स्थित उत्कलिकाग्रामके समीप मगणवल्लि ग्राममें हुआ था। भीमरथी कृष्णानदीकी शाखा है और इनके बीचका प्रदेश अब बेलगाँव या धारवाड कहलाता है। वप्पदेवाचार्यने यहींपर उक्त दोनों गुरुओंसे सिद्धान्तका अध्ययन किया होगा | इस अध्ययनके पश्चात् उन्होंने महाबन्धको छोड़ शेष पाँच खण्डोंपर व्याख्याप्रज्ञप्तिनामकी टीका लिखी है और छठे खण्डकी संक्षिप्त विवृति भी लिखी है। इन छहों खण्डोंके पुर्ण हो जानेके पश्चात उन्होंने कषायप्राभृतकी भी टीका रची। उक्त पांचों खण्डों और कषायप्राभृतकी टीकाका परिमाण ६०००० और महाबन्धकी टीकाका ५ अधिक ८००० बताया जाता है। ये सभी रचनाएँ प्राकृत भाषामें की गयी थीं । इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें लिखा है-
एवं व्याख्यानक्रममवाप्तवान् परमगुरुपरम्परया।
आगच्छन् सिद्धान्तो द्विविधोऽप्यतिनिशितबुद्धिभ्याम्।। शुभ-रविनन्दिमुनिभ्यां भीमरथि-कृष्णमेखयोः सरितोः।
मध्यमविषये रमणीयोत्कलिकाग्रामसामोग्यम्।
विख्यातमगणवल्लीग्रामेऽथ विशेषरूपेण।
श्रुत्वा तयोश्च पाश्वें तमशेषं बप्पदेवगुरुः।।
अपनोय महाबन्धं षट्खण्डाच्छेषपंचखंडे तु।
व्याख्याप्रज्ञप्ति च षष्ठं खंडं च ततः सक्षिप्य ।।
षण्णां खडानामिति निष्पन्नानां तथा कषायाख्य-।
प्राभृतकस्य च षष्ठीसहस्त्रग्रन्थप्रमाणयुताम्।।
व्यालखरप्राकृतभाषारूपां सम्यक्पुरातनव्याख्याम्।
अष्टसहस्नग्रंथां व्याख्यां पञ्चाधिकां महाबन्धे।।
इन पद्योंमें प्राकृतभाषारूप पुरातन व्याख्या लिखनेका निर्देश आया है। द्वितीय पद्यमें गरुओंके नाम दिये गये हैं। श्रुतावतारके आगेवाले पद्योंके अध्ययनसे ऐसा प्रतीत होता है कि व्यख्याप्रज्ञप्तिको मिलाकर छ: खण्ड किये गये थे। षटखण्डोंमेंसे महाबन्धको पृथक कर शेष पाँच खण्डोंमें व्याख्याप्रज्ञतिको मिलाकर वप्पदेवने षटखण्ड किये गमगर का निारी। वीरसेन स्वामीने उक्त षटवण्डोंमेंसे व्याख्याप्रज्ञप्तिको प्राप्त कर सत्कर्म नामक छठे खण्डको मिलाकर छ: खण्डोंपर धवला टीका लिखी है। यह सत्कर्म १५वीं पुस्तकमें प्रकाशित है। इसपर सत्कर्मपंजिका भी है, जो उसीके साथ परिशिष्ट रूपमें प्रकाशित है। इसके प्रारम्भमें पंजिकाकारने लिखा है कि महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके चौवीस अनुयोग हैं, उनमेंसे कृत्ति और वेदनाका वेदनाखण्डमें और स्पर्श, कर्म प्रकृतिका वर्गणाखण्डमें कथन किया है। बन्धन अनुयोगद्वार बन्ध, बन्धनीय,बन्धक और बन्धविधान इन चार अवान्तर अनुयोगद्वारोंमें विभक्त है। इनमें से बन्ध और बन्धनीय अधिकारोंकी प्ररूपणा वर्गणाखण्डमें, बन्धन अधिकारको प्ररूपणा खुद्दावन्धक नामक दूसरे खण्डमें और बन्धविधानका कथन महाबन्ध नामक छठे खण्डमें है। शेष १८ अनुयोग द्वारोंकी प्ररूपणा मूल षट्खण्डागममें नहीं है। किन्तु आचार्य वीरसेनने वर्गणा खण्डके अन्तिम सूत्रको देशावमर्शक मानकर, उसकी प्ररूपणा धवलाके अन्तमें की है। उसीका नाम सत्कर्म है। इसका ज्ञान उन्होंने ऐलाचार्यसे प्राप्त किया था। धवलाके अध्ययनसे ऐसा ज्ञात होता है कि व्याख्याप्रज्ञप्ति प्राकृतभाषारूप पुरातन व्याख्या रही है। यह वप्पदेव द्वारा लिखित नहीं है। इस कथनकी सिद्धि सम्यकपुरातनपद द्वारा होता है। इस पदका अर्थ है पर्याप्त प्राचीन। अतः सम्यकपुरातनको व्याख्याप्रज्ञप्तिका विशेषण माननेपर यह प्राचीन व्याख्या सिद्ध हो जाती है। षट्खण्डागममें आये हुए मतभेदसे भी उक्त तथ्य पुष्ट होता है- "एदेण वियाहपण्णत्तियुत्तेण सह कधं ण विरोहो? ण, एदम्हादो तस्स पुधभूदस्स आइरियभेएण भेदमावण्णस्स एयत्ताभावादो" इस व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्रके साथ विरोध क्यों नहीं है? आचार्यभेदसे भिन्नता होनेके कारण इन दोनोंमें एकत्व नहीं हो सकता।
इस कथनमें व्याख्याप्रज्ञप्तिके वचनोंको सूत्र कहा है और आचार्यभेदसे भिन्न कहा है। अतः यह व्याख्याप्रज्ञप्ति विचारणीय है। सम्भवतः यह वही हो, जिसका इन्द्रनन्दिने उल्लेख किया है और जो वीरसेन स्वामीको प्राप्त थी। आचार्य अकलंकदेवने अपने तत्वार्थवार्तीकमें भी दो स्थलोंपर २/४९/८ और ४/२६/५ में व्याख्यापज्ञप्तिदण्डकका उल्लेख किया है और दोनों ही स्थानों में षट्खण्डागमसे उसका भेद बतलाया है। अतएव हमारा अनुमान है कि व्याख्यापज्ञप्ति अन्य किसी आचार्यकी कृति है, वप्पदेवकी नहीं। वप्पदेवने व्याख्याप्रज्ञप्तिको जोड़कर षट्खण्डोंपर अपनी टीका लिखी है। यह सत्य है कि वप्पदेव सिद्धान्तविषयके संपूर्ण विद्वान थे।
वप्पदेवका समय वीरसेन स्वामीके पूर्व है। वीरसेनाचार्यके समक्ष वप्पदेव की व्याख्या वर्तमान थी। वीरसेनका समय डॉ. हीरालालजीके मतानुसार ई. सन् ८१६ है, अत: इसके पूर्व बप्पदेवका समय सुनिश्चित है। वप्पदेवने शुभ नन्दि और रविनन्दिसे आगमग्रंथोका अध्ययन किया है और इन दोनों आचार्यों की प्राचीनता श्रुतधरोंके रूप में प्रसिद्ध है। एलाचार्यका समय ई. सन् ७६६-७७६ है, और इनसे पूर्व वप्पदेवका समय होना चाहिए। इस क्रमसे हम यतिवृषभ और आयमंक्षु-नागहस्तिके समकालीन वप्पदेवको मान सकते हैं। संक्षेपमें वप्पदेवका समय ५ वी-६ वीं शती है।
वप्पदेवकी रचना कोई भी उपलब्ध नहीं है। धवला एवं जयधवलामें इनके नामसे जो उद्धरण आते हैं, उनसे इनके वैदुष्यपर प्रकाश पड़ता है। षट्खण्डागममें इनका यत्र-तत्र उल्लेख है। अतएव आचार्यके रूपमें वप्पदेव प्रतिष्ठित है। जयधवलामें इनकी मतभिन्नताका उल्लेख करते हुए कहा है-
'चुण्णिसुत्तम्मि वप्पदेवाइरियलिहिदुच्चारणाए अंतोमुहुत्तमिति भणिदो। अम्हेहि तिहिदुच्चारणाए पुण जह एमसमयो उक्क. संखेज्जा समया त्ति पलचिदो'।
उच्चारणसम्बन्धी इस मतभेदसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि आचार्य वप्पदेवके अभिमतका प्रचार पृथक रूपमें वर्तमान था। वप्पदेवकी जिन सिद्धान्तोंमें मतभिन्नता वर्तमान थी, उसका निर्देश यथास्थान जयधवला और धवलाटीकामें प्राप्त है।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतधराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
#vappadevacharyamaharaj
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री १०८ वप्पादेवाचार्य महाराजजी (प्राचीन 5वीं - 6ठी शताब्दी)
| Name | Phone/Mobile 1 | Which Sangh/Maharaji/Aryika Ji you are associated with |
|---|---|---|
| Sangh Common Number | +919844033717 | #VardhamanSagarJiMaharaj1950DharmSagarJi |
| Hemal Jain | +918690943133 | #SunilSagarJi1977SanmatiSagarJi |
| Abhi Bantu | +919575455473 | #SunilSagarJi1977SanmatiSagarJi |
| Purnima Didi | +918552998307 | #SunilSagarJi1977SanmatiSagarJi |
| Varna Manish Bhai | +919352199164 | #KanaknandiJiMaharajKunthusagarji |
| Ankit Test | +919730016352 | #AcharyaShriVidyasagarjiMaharaj |
| Santosh Khule | +919850774639 | #PavitrasagarJiMaharaj1949SanmatiSagarJi1927 |
| Madhok Shaha | +919928058345 | #KanaknandiJiMaharajKunthusagarji |
| Siddharth jain Baddu | +917987281995 | #AcharyaShriVidyasagarjiMaharaj, #VishalSagarJiMaharaj1977VidyaSagarJi |
| Akshay Adadande | +919765069127 | #AcharyaShriVidyasagarjiMaharaj, #NiyamSagarJiMaharaj1957VidyaSagarJi |
| Mayur Jain | +918484845108 | #SundarSagarJiMaharaj1976SanmatiSagarJi, #VibhavSagarJiMaharaj1976ViragSagarJi, #PrabhavsagarjiPavitrasagarJiMaharaj1949, #MayanksagarjiRayansagarJiMaharaj1955 |
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara_2.
श्रुतधराचार्यों में शुभनन्दि, रविनन्दि और वप्पदेवाचार्य के नाम भी आते हैं। शुभनन्दि और रविनन्दि नामके दो आचार्य अत्यन्त कुशाग्रबुद्धिके हुए हैं। इनसे वप्पदेवाचार्यने समस्त सिद्धान्तग्रन्थका अध्ययन किया। यह अध्ययन भीमरथि और कृष्णामेख नदियोंके मध्यमें स्थित उत्कलिकाग्रामके समीप मगणवल्लि ग्राममें हुआ था। भीमरथी कृष्णानदीकी शाखा है और इनके बीचका प्रदेश अब बेलगाँव या धारवाड कहलाता है। वप्पदेवाचार्यने यहींपर उक्त दोनों गुरुओंसे सिद्धान्तका अध्ययन किया होगा | इस अध्ययनके पश्चात् उन्होंने महाबन्धको छोड़ शेष पाँच खण्डोंपर व्याख्याप्रज्ञप्तिनामकी टीका लिखी है और छठे खण्डकी संक्षिप्त विवृति भी लिखी है। इन छहों खण्डोंके पुर्ण हो जानेके पश्चात उन्होंने कषायप्राभृतकी भी टीका रची। उक्त पांचों खण्डों और कषायप्राभृतकी टीकाका परिमाण ६०००० और महाबन्धकी टीकाका ५ अधिक ८००० बताया जाता है। ये सभी रचनाएँ प्राकृत भाषामें की गयी थीं । इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें लिखा है-
एवं व्याख्यानक्रममवाप्तवान् परमगुरुपरम्परया।
आगच्छन् सिद्धान्तो द्विविधोऽप्यतिनिशितबुद्धिभ्याम्।। शुभ-रविनन्दिमुनिभ्यां भीमरथि-कृष्णमेखयोः सरितोः।
मध्यमविषये रमणीयोत्कलिकाग्रामसामोग्यम्।
विख्यातमगणवल्लीग्रामेऽथ विशेषरूपेण।
श्रुत्वा तयोश्च पाश्वें तमशेषं बप्पदेवगुरुः।।
अपनोय महाबन्धं षट्खण्डाच्छेषपंचखंडे तु।
व्याख्याप्रज्ञप्ति च षष्ठं खंडं च ततः सक्षिप्य ।।
षण्णां खडानामिति निष्पन्नानां तथा कषायाख्य-।
प्राभृतकस्य च षष्ठीसहस्त्रग्रन्थप्रमाणयुताम्।।
व्यालखरप्राकृतभाषारूपां सम्यक्पुरातनव्याख्याम्।
अष्टसहस्नग्रंथां व्याख्यां पञ्चाधिकां महाबन्धे।।
इन पद्योंमें प्राकृतभाषारूप पुरातन व्याख्या लिखनेका निर्देश आया है। द्वितीय पद्यमें गरुओंके नाम दिये गये हैं। श्रुतावतारके आगेवाले पद्योंके अध्ययनसे ऐसा प्रतीत होता है कि व्यख्याप्रज्ञप्तिको मिलाकर छ: खण्ड किये गये थे। षटखण्डोंमेंसे महाबन्धको पृथक कर शेष पाँच खण्डोंमें व्याख्याप्रज्ञतिको मिलाकर वप्पदेवने षटखण्ड किये गमगर का निारी। वीरसेन स्वामीने उक्त षटवण्डोंमेंसे व्याख्याप्रज्ञप्तिको प्राप्त कर सत्कर्म नामक छठे खण्डको मिलाकर छ: खण्डोंपर धवला टीका लिखी है। यह सत्कर्म १५वीं पुस्तकमें प्रकाशित है। इसपर सत्कर्मपंजिका भी है, जो उसीके साथ परिशिष्ट रूपमें प्रकाशित है। इसके प्रारम्भमें पंजिकाकारने लिखा है कि महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके चौवीस अनुयोग हैं, उनमेंसे कृत्ति और वेदनाका वेदनाखण्डमें और स्पर्श, कर्म प्रकृतिका वर्गणाखण्डमें कथन किया है। बन्धन अनुयोगद्वार बन्ध, बन्धनीय,बन्धक और बन्धविधान इन चार अवान्तर अनुयोगद्वारोंमें विभक्त है। इनमें से बन्ध और बन्धनीय अधिकारोंकी प्ररूपणा वर्गणाखण्डमें, बन्धन अधिकारको प्ररूपणा खुद्दावन्धक नामक दूसरे खण्डमें और बन्धविधानका कथन महाबन्ध नामक छठे खण्डमें है। शेष १८ अनुयोग द्वारोंकी प्ररूपणा मूल षट्खण्डागममें नहीं है। किन्तु आचार्य वीरसेनने वर्गणा खण्डके अन्तिम सूत्रको देशावमर्शक मानकर, उसकी प्ररूपणा धवलाके अन्तमें की है। उसीका नाम सत्कर्म है। इसका ज्ञान उन्होंने ऐलाचार्यसे प्राप्त किया था। धवलाके अध्ययनसे ऐसा ज्ञात होता है कि व्याख्याप्रज्ञप्ति प्राकृतभाषारूप पुरातन व्याख्या रही है। यह वप्पदेव द्वारा लिखित नहीं है। इस कथनकी सिद्धि सम्यकपुरातनपद द्वारा होता है। इस पदका अर्थ है पर्याप्त प्राचीन। अतः सम्यकपुरातनको व्याख्याप्रज्ञप्तिका विशेषण माननेपर यह प्राचीन व्याख्या सिद्ध हो जाती है। षट्खण्डागममें आये हुए मतभेदसे भी उक्त तथ्य पुष्ट होता है- "एदेण वियाहपण्णत्तियुत्तेण सह कधं ण विरोहो? ण, एदम्हादो तस्स पुधभूदस्स आइरियभेएण भेदमावण्णस्स एयत्ताभावादो" इस व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्रके साथ विरोध क्यों नहीं है? आचार्यभेदसे भिन्नता होनेके कारण इन दोनोंमें एकत्व नहीं हो सकता।
इस कथनमें व्याख्याप्रज्ञप्तिके वचनोंको सूत्र कहा है और आचार्यभेदसे भिन्न कहा है। अतः यह व्याख्याप्रज्ञप्ति विचारणीय है। सम्भवतः यह वही हो, जिसका इन्द्रनन्दिने उल्लेख किया है और जो वीरसेन स्वामीको प्राप्त थी। आचार्य अकलंकदेवने अपने तत्वार्थवार्तीकमें भी दो स्थलोंपर २/४९/८ और ४/२६/५ में व्याख्यापज्ञप्तिदण्डकका उल्लेख किया है और दोनों ही स्थानों में षट्खण्डागमसे उसका भेद बतलाया है। अतएव हमारा अनुमान है कि व्याख्यापज्ञप्ति अन्य किसी आचार्यकी कृति है, वप्पदेवकी नहीं। वप्पदेवने व्याख्याप्रज्ञप्तिको जोड़कर षट्खण्डोंपर अपनी टीका लिखी है। यह सत्य है कि वप्पदेव सिद्धान्तविषयके संपूर्ण विद्वान थे।
वप्पदेवका समय वीरसेन स्वामीके पूर्व है। वीरसेनाचार्यके समक्ष वप्पदेव की व्याख्या वर्तमान थी। वीरसेनका समय डॉ. हीरालालजीके मतानुसार ई. सन् ८१६ है, अत: इसके पूर्व बप्पदेवका समय सुनिश्चित है। वप्पदेवने शुभ नन्दि और रविनन्दिसे आगमग्रंथोका अध्ययन किया है और इन दोनों आचार्यों की प्राचीनता श्रुतधरोंके रूप में प्रसिद्ध है। एलाचार्यका समय ई. सन् ७६६-७७६ है, और इनसे पूर्व वप्पदेवका समय होना चाहिए। इस क्रमसे हम यतिवृषभ और आयमंक्षु-नागहस्तिके समकालीन वप्पदेवको मान सकते हैं। संक्षेपमें वप्पदेवका समय ५ वी-६ वीं शती है।
वप्पदेवकी रचना कोई भी उपलब्ध नहीं है। धवला एवं जयधवलामें इनके नामसे जो उद्धरण आते हैं, उनसे इनके वैदुष्यपर प्रकाश पड़ता है। षट्खण्डागममें इनका यत्र-तत्र उल्लेख है। अतएव आचार्यके रूपमें वप्पदेव प्रतिष्ठित है। जयधवलामें इनकी मतभिन्नताका उल्लेख करते हुए कहा है-
'चुण्णिसुत्तम्मि वप्पदेवाइरियलिहिदुच्चारणाए अंतोमुहुत्तमिति भणिदो। अम्हेहि तिहिदुच्चारणाए पुण जह एमसमयो उक्क. संखेज्जा समया त्ति पलचिदो'।
उच्चारणसम्बन्धी इस मतभेदसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि आचार्य वप्पदेवके अभिमतका प्रचार पृथक रूपमें वर्तमान था। वप्पदेवकी जिन सिद्धान्तोंमें मतभिन्नता वर्तमान थी, उसका निर्देश यथास्थान जयधवला और धवलाटीकामें प्राप्त है।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतधराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara_2.
Acharya Shri Vappadevacharya Maharaj Ji (Prachin 5th - 6th century)
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