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आचार्य विद्यानन्द ऐसे सारस्वत हैं, जिन्होंने प्रमाण और दर्शनसम्बन्धी ग्रन्थोंकी रचनाकर श्रुतपरम्पराको गतिशील बनाया है। इनके जीवनवृत्तके सम्बन्धमें प्रामाणिक इतिवृत्त ज्ञात नहीं है। 'राजावलीकथे’ में विद्यानन्दिका उल्लेख आता है और संक्षिप्त जीवन-वृत्त भी उपलब्ध होता है, पर वे सारस्वताचार्य विद्यानन्द नहीं हैं, परम्परा-पोषक विद्यानन्दि हैं।
आचार्य विद्यानन्दकी रचनाओंके अवलोकनसे यह अवगत होता है कि ये दक्षिण भारतके कर्णाटक प्रान्तके निवासी थे। इसी प्रदेशको इनकी साधना और कार्मभूमि होनेका सौभाग्य प्राप्त है। किंवदन्तियोंके आधारपर यह माना जाता है कि इनका जन्म ब्राह्मण परिवारमें हुआ था। इस मान्यताकी सिद्धि इनके प्रखर पाण्डित्य और महती विद्वतासे भी होती है। इन्होंने कुमारावस्थामें ही वैशेषिक, न्याय, मीमांसा, वेदान्त आदि दर्शनोंका अध्ययन कर लिया था। इन आस्तिक दर्शनोंके अतिरिक्त ये दिङ्नाग, धर्मकीर्ति और प्रज्ञाकर आदि बौद्ध दार्शनिकोंके मन्तव्योंसे भी परिचित थे। शक संवत् १३२० के एक अभिलेखमें वर्णित नन्दिसंघके मुनियोंकी नामावलिमें विद्यानन्दका नाम प्राप्त कर यह अनुमान सहजमें लगाया जा सकता है कि इन्होंने नन्दिसंघके किसी आचार्य से दीक्षा ग्रहण की होगी। जैन-वाङ्मयका आलोडन-विलोडन कर इन्होंने अपूर्व पाण्डित्य प्राप्त किया। साथ ही मुनि-पद धारणकर तपश्चर्या द्वारा अपने चरितको भी निर्मल बनाया।
इनके पाण्डित्यकी ख्याति १० वी, ११ वीं शतीमें ही हो चुकी थी। यही कारण है कि बादिराजने (ई. सन् १०५५) अपने 'पार्श्वनाथचरित' नामक काव्यमें इनका स्मरण करते हुए लिखा है-
ऋजुसूत्र स्फुरद्रत्न विद्यानन्दस्य विस्मयः।
शृण्वतामप्यलङ्कारं दोप्तिरङ्गेषु रगति॥
आश्चर्य है कि विद्यानन्दके तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और अष्टसहस्री जैसे दीप्तिमाम अलङ्कारोंको सुननेवालोंके भी अङ्गोंमें दीप्ति आ जाती है, तो उन्हें धारण करनेवालोंकी बात ही क्या है?
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि सारस्वताचार्य विद्यानन्दकी कीति ई. सन् की १७वी शताब्दिमें हो व्याप्त हो चुकी थी। उनके महनीय व्यक्तीत्वका सभी पर प्रभाव था। दक्षिण से उत्तर तक उनकी प्रखर न्यायप्रतिभासे सभी आश्चर्यचकित थे।
आचार्य विद्यानन्दने अपनी किसी भी कृतिमें समयका निर्देश नहीं किया है। अत: इनके समयका निर्णय इनकी रचनाओंकी विषय-वस्तुके आधारपर ही सम्भव है। विद्यानन्द और इनकी कृतियोंपर पूर्ववर्ती ग्रन्थकार गृद्धपिच्छाचार्य, स्वामी समन्तभद्र, श्रीदत्त, सिद्धसेन, पात्रस्वामी, भट्टाकलङ्क, कुमारसेन, कुमार नन्दि भट्टारकका प्रभाव स्पष्टतया लक्षित होता है। अतः विद्यानन्द इन आचार्यों के पश्चात्वर्ती है। विद्यानन्दने 'तत्वार्थलोकवार्तिकमें’ श्रीदत्तके जल्प और वाद सम्बन्धी नियमोंका उल्लेख किया है। वादके दो भेद है- १. वीतरागवाद और २. आभिमानिकवाद। वीतरागवाद तत्त्व-जिज्ञासुओंमें होता है। अत:इसके दो अंग हैं- वादो और प्रतिवादी। आभिमानिकवाद जिगीषुओंमें होता है और उसके वादी, प्रतिवादी, सभापति और प्राश्निक- ये चार अङ्ग हैं। आभिमानिकवादके भी दो भेद हैं- (१) तात्विकवाद और (२) प्रातिभवाद। अपने इस वादसम्बन्धी कथनकी पुष्टीके लिए श्रीदत्तके मत्तका उपस्थापन किया है। जल्पके भी तात्वीक और प्रसिभ ये दो भेद किये गये हैं। इस प्रकार विद्यानन्दने अपनेसे पूर्ववर्ती श्रीदत्त और उनके 'जल्पनिर्णय' ग्रन्थका उल्लेख किया है।
आचार्य जिनसेन द्वितीयने श्रीदत्तका स्मरण किया है और जिनसेनका समय ई. सन् नौवीं शताब्दि है। अत: श्रीदत्तका सयय इनसे पहले होना चाहिए। आचार्य पूज्यपादने अपने जैनेन्द्र व्याकरणके "गणे श्रीदत्तस्य स्त्रियां" सूत्र द्वारा श्रीदत्तका उल्लेख किया है। यदि ये श्रीदत्त ही प्रस्तुत श्रीदत्त हों तो श्रीदत्तका समय पूज्यपादसे पूर्व अर्थात् छठी शताब्दिसे पूर्व आता है। अत: इस आधारसे विद्यानन्दका समय छठौं शताब्दिके बाद सिद्ध होता है।
विद्यानन्दने 'तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक' में सिद्धसेनके सन्मतिसूत्रके तीसरे काण्डगत "जो हेउवायपकम्खम्मि" आदि ४५वी गाथा उद्वत की है। एक दूसरी जगह "जावदिया वणवहा तावदिया होति पयवाया" आदि तीसरे काण्डको ४७वी गाथाका संस्कृतरूपान्तर दिया है। अतः विद्यानन्द सिद्धसेनके पश्चाद्वर्ती है, यह स्पष्ट है। पात्रस्वामी और भट्टाकलड़के उद्धरण और नामोल्लेख भी इनके ग्रन्थों में मिलते हैं। अकलङ्ककी 'अष्टशती' की तो अष्ट सहस्त्रों में आत्मसात् ही कर लिया गया है। अतएव इनका समय सातवीं शताब्दि के पश्चात् होना चाहिए। अकलंकके उत्तरवर्ती कुमारनन्दि भट्टारकके वादन्यायका ‘तत्वार्थश्लोकवात्तिक', 'प्रमाणपरीक्षा' और 'पत्रपरीक्षा’ में नामोल्लेख किया है, तथा वादन्यायसे कुछ कारिकाएँ भी उद्धृत की हैं। अतः विद्यानन्द कुमारनन्दि भट्टारकके उत्तरवर्ती हैं। कुमारनन्दि अकलंक और विद्यानन्दके मध्यमें हुए हैं। अतः इनका समय आठवीं और नौवीं शताब्दिका मध्यभाग होना चाहिए।
विद्यानन्दका प्रभाव माणिक्यनन्दि, वादिराज, प्रभाचन्द्र, अभयदेव, देवसूरि आदि आचार्योंपर है। माणिक्यनन्दिका समय विक्रमकी ११ वीं शती है और अकलंकदेवका समय विक्रमकी ८ वीं शती है। अतएव विद्यानन्दका समय माणिक्यनन्दि और अकलंकका मध्य अर्थात् ९ वीं शती होना चाहिए।
विद्यानन्दने अपने 'तत्वार्थश्लोकवार्त्तिक' और 'अष्ट्रसहस्री' में उद्योतकर, वाक्यदीपकार भर्तृहरि, कुमारिलभट्ट, प्रभाकर, प्रशस्तपाद, व्योमशिवाचार्य, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर, मण्डनमिश्र और सुरेश्वरमिश्रके मतोंकी समीक्षा की है। इन दार्शनिक विद्वानोंका समय ई. सन् ७८८ के पहले ही है। अतः विद्यानन्दके समयकी पूर्ववर्ती सीमा ७८८ ई. है और उत्तर सीमा पार्श्वनाथ चरित और न्यायविनिश्चयविवरण (प्रशस्ति श्लोक में विद्यानन्दका उल्लेख रहनेसे ई. सन् १०२५ है। इन दोनों समय-सीमाओंके बीच ही इनका स्थितिकाल है।
आचार्य विद्यानन्दने 'प्रशस्तपादभाष्य' पर लिखी गयी चार टीकाओंमेंसे व्योमशिवकी 'व्योमवती' टीकाके अतिरिक्त अन्य तीन टोकाओंमेसे किसी भी टीकाकी समीक्षा नहीं की है। अतः स्पष्ट है कि श्रीधरकी न्यायकन्दली (ई. सन् ९९१) और उदयनकी किरणावली (ई. सन् ९८४) के पूर्व विद्यानन्दका समय होना चाहिए। इस प्रकार इनकी उत्तर सीमा ई. सन् १०२५ से हटकर ई. सन् ९८४ हो जाती है।
'अष्टसहस्री' को अन्तिम प्रशस्तिमें बताया है कि कुमारसेनकी युक्तियोंके वर्धनार्थ ही यह रचना लिखी जा रही है। यथा-
पोरसेनाख्यमोक्षगे चारुगुणानध्यरत्नसिन्धुगिरिसततम्।
सारतरात्मध्यानगे मारमदाम्भोदपवनगिरिगह्वरायितु।
कष्टसहस्री सिद्धा साष्ट्रसहस्रीयमत्र मे पुष्यात्।
शश्वदभीष्टसहस्री कुमारसेनोक्तिवर्धमानार्थी|| (नर्द्धा)
इससे ध्वनित होता है कि कुमारसेनने आप्तमीमांपर कोई विवृति या विवरण लिखा होगा, जिसका स्पष्टीकरण विद्यानन्दने किया है। निश्चयत: कुमारसेन इनके पूर्ववर्ती हैं। कुमारसेनका समय ई. सन् ७८३ के पूर्व माना गया है। जिनसेन प्रथमने अपने हरिवंशपुराणमें कुमारसेनका उल्लेख किया है-
"आकूपारं यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्जवलम्।
मुरोः कुमारसेनस्य विचरत्यजितात्मकम्॥"
और जिनसेनने अपने हरिवंशपुराणकी रचना ई. सन् ७८३में की है। यहाँ यह विचारणीय है कि जिनसेन प्रथमने कुमारसेनका तो स्मरण किया है, पर विद्यानन्दका नहीं। अत: इससे सिद्ध होता है कि हरिवंशपुराणकी रचनाके समय तक विद्यानन्दको ऐसी ख्याति प्राप्त नहीं हुई थी, जिससे पुराणकार उनका स्मरण करता।
कतिपय निहनोंका अभिमत है कि निशानन्दका कार्यक्षेत्र दक्षिणमें गंगवंशका गंगवाड़ी प्रदेश है और विद्यानन्दकी स्थिति गंगनरेश शिवमार द्वितीय तथा राममल्ल सत्यवाक्य प्रथम (ई. सन् ८१०-८१६)के समयमें रही है। विद्यानन्दने प्रायः अपनी समस्त कृतियोंकी रचना गंगनरेशोंके राज्यकालमें की है। अतः सम्भव है कि पुन्नाटवंशी जिनसेनने इनका स्मरण न किया हो।
जैनन्यायके उद्भट विद्वान डॉ. पं. दरबारीलाल कोठियाने विद्यानन्दके जीवन और समय पर विशेष विचार किया है। उन्होंने निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है-
“विद्यानन्द मङ्गनरेश शिवमार द्वितीय (ई. सन् ८१०) और राचल्ल सत्य वाक्य प्रथम (ई. सन् ८१६) के समकालीन हैं। और इन्होंने अपनी कृत्तियाँ प्रायः इन्हींके राज्य-समयमें बनाई हैं, विद्यानन्दमहोदय और तत्त्वार्थश्लोक वार्त्तिकको शिवमार द्वितीयके और आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा तथा युक्त्यनुशासनालकृति ये तीन कृतियाँ सुचमल्ल सत्यवाक्य प्रथम (ई. ४१६-८३०) के राज्यकाल में बनी जान पड़ती है। अष्टसहस्त्री, श्लोकवार्त्तिकके बादकी और आप्तपरीक्षा आदिके पूर्वकी-रचना है- करीब ई. ८१०-८१५ में रची गयी प्रतीत होती है तथा पत्रपरीक्षा, श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र और सत्यशासनपरीक्षा ये तीन रचनाएं ई. सन् ८३०-८४० में रची ज्ञात होती है। इससे भी आचार्य विद्यानन्दका समय ई. सम् ७७५-८४० ई. प्रमाणित होता है।
डॉ. कोठिया द्वारा निर्धारित समय भी उपर्युक्त समयके समकक्ष है। अतएव आचार्य विद्यानन्दका समय ई. सन् की नवम शती है।
आचार्य विद्यानन्दकी रचनाओंको दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है- १. स्वतन्त्र ग्रन्थ और २. टीका ग्रन्थ।
स्वतन्त्र ग्रन्थ
इनकी स्वतंत्ररचनाएँ निम्नलिखित हैं-
१. आप्तपरीक्षा स्वोपज्ञवृत्तिसहित
२. प्रमाणपरीक्षा
३. पत्रपरीक्षा
४. सत्यशासनपरीक्षा
५. श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र
६. विद्यानन्दमहोदय
टीकाग्रंथ
१. अष्ठसहस्त्री
२. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक
३. युक्त्यनुशासनालङ्कार
१. आप्त-परीक्षा स्वोपज्ञवृत्तिसहित
इस ग्रन्थमें १२४ कारिकाएँ, स्वोपज्ञ वृत्ति सहित निबद्ध हैं। इस ग्रंथमें परमेष्ठीगुणस्तोत्रकी आवश्यकता प्रतिपादित करने के पश्चात् पर-अपर निःश्रेयस का स्वरूप, बन्ध और बन्धकारणोंकी सिद्धि, उनके अभावकी सिद्धि, सहेतुक निर्जराकी सिद्धि परमेष्ठीगत प्रसादका लक्षण, मंगलकी नियुक्ति और अर्थ, शास्त्रारम्भमें परमेष्ठीगुणस्तोत्रकी आवश्यकता एवं पराभिमत आप्तोके निराकरणकी सार्थकता बतलायी गयी है।
ईश्वर परीक्षा प्रकरणमें ईश्वरके मोक्षमार्गोपदेशकी असम्भवता, वैशेषिका भिमत षट्पदार्थ समीक्षा, द्रव्यलक्षणके योगसे एक द्रव्यपदार्थकी असिद्धि, द्रव्यलक्षणत्वके योगसे दो द्रव्यलक्षणों में एकताकी असिद्धि, द्रव्यत्वके योगसे एक द्रव्यपदार्थकी असिद्धि, गुणत्वादिके योगसे एक-एक गुणादि पदार्थोकी असिद्धि, "इहेदम् प्रत्यय' सामान्यसे भी द्रव्यादि पदार्थोकी असिद्धि, संग्रहसे भी द्रव्यादि पदार्थोकी असिद्धि, द्रव्यत्वाभिसम्बन्धसे एक द्रव्यपदार्थ माननेका निरास, गुणत्वादि अभिसम्बन्धसे एक-एक गुणादिपदार्थ माननेका निरास, पृथ्वीवादि अभिसम्बन्धसे एक-एक पृथ्वी आदि द्रव्य मानने का निरास, संग्रहके तीन भेद और उनकी समीक्षा, ईश्वरके जगत् कर्तृत्वकी समालोचना, ईश्वरके नित्य ज्ञान माननेमें दोष-प्रदर्शन, ईश्वरके अनित्यज्ञानकी मीमांसा, अव्यापक ज्ञानमें दोष, ईश्वरके नित्य व्यापक ज्ञानमें दोष, समवायका स्वरूप और समीक्षा, संयोग और समवायकी व्यर्थता, सत्ता और समवायके एकत्वका खण्डन, सत्ताको स्वतन्त्र पदार्थ न मानने में दोष एवं ईश्वर-परीक्षाका उपसंहार आदि विषय वर्णित हैं।
कपिल-परीक्षाके अन्तर्गत कपिलके मोक्षमार्गोपदेशकत्वका निरास, प्रधानके मुक्तामुक्तत्वकी कल्पना और उसकी समीक्षा एवं प्रधानके मोक्षमार्गोपदेशकत्वका समालोचन आया है।
सुगत-परीक्षामे सुगतके आप्तत्वका परीक्षण किया गया है। इस प्रकरणमें सुगतके मोक्षमार्गोपदेशकत्वका निराकरण, सौत्रान्तिकोंके मतकी समीक्षा, योगाचार-संवेदनाद्वैत और चित्राद्वैतका समालोचन विस्तारपूर्वक किया गया है।
परमपुरुष-परीक्षाके अन्तर्गत ब्रह्माद्वैत-प्रतिभाससामान्य अद्वैतको समीक्षा आयी है।
अर्हंत्सर्वशसिद्धि-प्रकरणमें प्रमैयत्वहेतुसे सामान्यसर्वज्ञकी सिद्धि की गयी है। सर्वज्ञाभाववादी भट्टके मतको उपस्थितकर उसके मतका निराकरण किया गया है। पाचकालानुसे मेंहंकामा पनि लिया और पुष्टिके लिए प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, आगम और अभाव प्रमाणके द्वारा सर्वज्ञके बाधकत्वका निरास किया गया है।
अर्हत-कर्मभूभृत्भेतृत्व-सिद्धिप्रसङ्गमें सञ्चित और आगामी कर्मोंके निरोधका कारण संवर और निर्जराको सिद्ध किया है। इस सन्दर्भमें नैयायिक, वैशेषिक और सांख्य द्वारा अभिमत कर्मके स्वरूपका विवेचन कर उसकी पौद्गलिकत्ता सिद्ध की गयी है।
अर्हन्तको मोक्षमार्गका नेता सिद्ध करते हुए मोक्ष, आत्मा, संवर, निर्जरा आदिके स्वरूप और भेदोंका प्रतिपादन किया है। नास्तिक मतका प्रतिवाद कर मोक्षमार्गका स्वरूप और उसके प्रणेताको सर्वज्ञ सिद्ध किया गया है। यह ग्रन्थ निम्नलिखित प्रकरणोंमें विभक्त है-
१. परमेष्ठीगुणस्तोत्र
२. परमेष्ठोगुणस्तोत्रका प्रयोजन
३. ईश्वरपरीक्षा
४. कपिलपरीक्षा
५. सुगतपरीक्षा
६. परमपुरुषपरीक्षा या ब्रह्माद्वेतपरीक्षा
७. अर्हत्सर्वज्ञसिद्धि
८. अर्हत्कर्मभूभृभेतृत्वसिद्धि
९. अर्हन्मोक्षमार्गनेतुत्वसिद्धि
१०. अर्हद्वन्द्यत्वसिद्धि
२. प्रमाणपरीक्षा
प्रमाणपरीक्षामें प्रमाणका स्वरूप, प्रामाण्य की उत्पत्ति एवं ज्ञप्ति, प्रमाणकी संख्या, विषय एवं उसके फल पर विचार किया गया है। आरम्भमें 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं’ प्रमाणत्वान्यथानुपपत्तेः। सन्निकर्षादिरशानमपि प्रमाणं स्वार्थप्रमिती साधकतमत्वात्, इति नाशंकनीयं, ग प्रमिती नाकामाजिना। अर्थात् सम्यग्ज्ञान प्रमाण है, क्योंकि प्रमाणत्वकी उपपत्ति अन्यथा नहीं हो सकती। सन्निकर्षादि अज्ञानमय होने के कारण प्रमाण नहीं हैं, और न वे अर्थक्रियाके प्रति साधकतम ही हैं, जो स्वप्नमितिके प्रति साधकत्तम होता है, वही प्रमाण हो सकता है, अन्य नहीं। इस प्रकार ज्ञानको प्रमाण सिद्ध कर सन्निकर्ष, इन्द्रिय आदिका खण्डन किया है। प्रमाणके प्रसंगमें तादरूप्प, तदुत्पत्ति और तदाकारताका भी निरसन किया गया है। विद्यानन्दने अपने समालोचनको पुष्ट बनानेके हेतु 'उक्तञ्च' कहकर अन्य व्यक्तियोंको कारिकाएँ भी उद्धृत की हैं।
इस सन्दर्भमें सविकल्पक और निर्विकल्पक ज्ञानको प्रामाणताका भी विचार किया गया है। सौगत अभ्यास, प्रकरण, बुद्धिपाटव आदिके कारण निर्विकल्पकको प्रमाण मानता है। विद्यानन्दने इस सन्दर्भ में सौगतमतकी सुन्दर समीक्षा की है और स्वलक्षणका भी निरसन किया है। क्षणिकवादी बौद्ध स्थूलपदार्थों का अस्तित्व स्वीकार न कर स्वलक्षण परमाणु पदार्थको ही ज्ञानका विषय मानता है। ब्रह्माद्वैतवाद और स्वलक्षणवादकी समीक्षा कर स्वप्नज्ञानकी प्रामाणिकताका भी निरसन किया है। 'नैक स्वस्मात्प्रजायते' को उद्धत करते हुए ज्ञानके ज्ञानान्तरवेद्यत्वका खण्डन किया है।
कपिलमत-समीक्षा और तत्वोपप्लवादका विचार-विमर्श करते हुए अनुमान और आगम प्रमाणको सिद्धि की गयी है। यहाँ उपमान और अर्थापत्तिका प्रत्यभिज्ञान और अनुमानमें अन्तर्भाव दिखलाया गया है। 'प्रमेयद्वैविध्यात प्रमाणद्वैविध्यम्' की समीक्षा करते हए स्वार्थानुमान और परार्थानुमानको सिद्धि की गयी है। प्रत्यक्षके सांव्यवहारिक और अनिन्द्रिय प्रत्यक्षका निरूपण करते हुए अवग्रह ईहा, अवाय और धारणाका विचार किया गया है। "साधनात् साध्यविज्ञानम नुमानम्" का विचार करते हुए व्याप्ति, साध्य-साधनका स्वरूप निर्धारण किया गया है। हेतुके त्रैरूप्य और पाँचरूप्यकी समीक्षा करते हुए अन्यथानुपपन्नत्वं को ही हेतुका निर्दोष स्वरूप बताया है। पात्रकेसरीके त्रिलक्षणकदर्थनका उद्धरण देते हुये लिखा है-
अन्यथानुप्पन्नत्व यत्र तत्र त्रयेण कि।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण कि।
इसीके अनुकरणपर विद्यानन्दने पांचरूप्यके खण्डनके लिए निम्न कारिका रची है-
अन्यथानुपपन्नत्वं रूपैः कि पंचभिः कृतं।
नान्यथानुपपन्नत्वं रूपैः किं पंचभिः कृतं।
पदार्थके स्वरूपका विवेचन करते हुए उत्पाद, व्यय और घ्रौव्ययुक्त पदार्थकी स्थिति स्वीकार की है। प्रमाणके फलका विवेचन करते हुए उसे प्रमाणसे कञ्चित भिन्न और कञ्चित् अभिम बताया है। अन्त में ग्रन्थका सार और उसका उपयोग बताते हुए लिखा है-
इति प्रमाणस्य परीक्ष्य लक्षणं विशेषसंख्याविषयं फलं ततः।
प्रबुध्य तत्त्वं दृढशुद्धदृष्टयः प्रयान्तु विद्याफलमिष्टमुच्चकैः।।
३. पत्रपरीक्षा
इस लघुकाय ग्रन्थमें विभिन्न दर्शनोंकी अपेक्षा 'पत्र' के लक्षणोंको उद्धत कर जैन दृष्टिकोणसे 'पत्र' का लक्षण दिया गया है तथा प्रतिक्षा और हेतु इन दो अवयवोंको ही अनुमानका अंग बताया है। प्रतिपाद्याशयानुरोधसे दशावयवोंका भी समर्थन किया है। पर ये दश अवयव न्यायदर्शनप्रसिद्ध दशावयवोंसे भिन्न हैं। पत्रका लक्षण बताते हुए लिखा है- "पुनः प्रसिद्धावयवस्वादि विशेषणविशिष्टं वाक्यं पत्रं नाम, तस्य श्रुतिपथसमधिगम्यपदसमुदायविशेषरूप त्वात, पत्रस्य तद्विपरीताकारस्वात्। न च यद्यतोज्यत्तसन व्यपदिश्यतेतिप्रसंगात्। नीलादयोपि हि कंबलादिभ्योऽन्ये नाते नीलादिव्यपदेशहेतवः, तेषां तद्व्यपदेशहेतु तया प्रतीयमानत्वात्, किरीटादीनां पुरुषे तद्व्यपवेशहेतुत्ववत्, तद्योगात्तत्र मत्त्व र्धीयविधानात्। नीलादयः संति येषां ते नौलादयः कंजलाइय इति गुणवचनेभ्यो मत्वायस्वाभावप्रसिरिसि चरा, उपचारसोपचारादिसि ममः।" इस प्रकार पत्रका लक्षण लिखकर अन्य मतमतान्तरोंकी विस्तारपूर्वक समीक्षा की गयी है। वाद-विवादके लिए प्रतिशा और हेतु इन दो अवयवोंको ही अनुमानके अवयव माने गये हैं। नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक, कपिल, सुगत आदिके मतों की समीक्षा करते हुए स्फोटवादका भी निरसन किया है। बीच-बीच में प्राचीन आचार्योंके श्लोकोंको जस किया गया है। इस प्रकार इस लघुकाय ग्रन्थमें वाद-विषयक चर्चाका समावेश किया है।
४. सत्यशासनपरीक्षा
सत्यशासनपरोक्षाकी महत्ताके सम्बन्धमें पंडित महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने लिखा है- "तर्कग्रन्थोंके अभ्यासी विद्यानन्दके अतुल पाण्डित्य, तलस्पर्शी विवेचन, सूक्ष्मता तथा गहराईके साथ किये जानेवाले पदार्थोके स्पष्टीकरण एवं प्रसन्न भाषामें गूंथे गये युक्तिजालसे परिचित होंगे। उनके प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा और आप्तपरीक्षा प्रकरण अपने-अपने विषयके बेजोड़ निबन्ध हैं। ये ही निबन्ध तथा विद्यानन्दके अन्य ग्रन्थ आगे बने हुए समस्त दिगम्बर, श्वे. ताम्बर न्यायग्रन्थोके आधारभूत हैं। इनके ही विचार तथा शब्द उत्तरकालीन दिगम्बर, श्वेताम्बर न्यायग्रन्थोंपर अपनी अमिट छाप लगाये हुए हैं। यदि जैन न्यायके कोषागारसे विद्यानन्दके ग्रन्थों को अलग कर दिया जाय, तो वह एकदम निष्प्रभ-सा हो जायगा। उनको यह सत्यशासनपरीक्षा ऐसा एक तेजोमय रल हैं, जिससे जैन न्यायका आकाश दमदमा उठेगा । यद्यपि इसमें आये हुए पदार्थ फुटकर रूपसे उनके अष्टसहस्री आदि ग्रन्थों में खोजे जा सकते हैं, पर इतना सुन्दर और व्यवस्थित तथा अनेक नये प्रमेयोंका सुरुचिपूर्ण संकलन, जिसे स्वयं विद्यानन्दने ही किया है, अन्यत्र मिलना असम्भव है।"
इस ग्रंथमें निम्नलिखित शासनोंकी परीक्षा की गयी है-
१. पुरुषाद्वैत-शासन-परीक्षा।
२. शब्दाद्वैत-शासन परीक्षा।
३. विज्ञानाद्वैत-शासन-परीक्षा।
४. चित्राद्वैत-शासन-परीक्षा।
५. चार्वाक-शासन-परीक्षा।
६. बौद्ध-शासन-परीक्षा।
७. सेश्वरसांख्य शासन-परीक्षा।
८. निरीश्वरसांख्य-शासन-परीक्षा।
९. नैयायिक-शासन-परीक्षा।
१०. वैशेषिक शासन-परीक्षा।
११. मातृ-शासन-परीक्षा।
१२. प्रभाकर शासन-परीक्षा।
१३. तत्त्वोपप्लव-शासन-परीक्षा।
१४. अनेकान्त-शासन-परीक्षा।
उपर्युक्त शासनोंको दो श्रेणियों में विभक्त किया गया है- (१) अद्वैतवादी या अभेदवादी और (२) द्वैतवादी या भेदवादी। अद्वैतवादी सिद्धान्तोंमें एक तत्वकी प्रमुखता है और संसारके समस्त पदार्थ उस तत्वके ही रूपान्तर हैं। द्वैतवादी वे सम्प्रदाय हैं जो एक से अधिक तत्व मानते हैं। नैयायिक, वैशेषिक चार्वाक और बुद्ध आदि दर्शन एकाधिक तत्वोंको महत्त्व देने के कारण द्वैतवादी कहे जाते हैं।
पुरुषाद्वैतकी परीक्षा करते समय अनुमान द्वारा पूर्वपक्ष स्थापित किया है- ब्रह्मएक है, अद्वितीय है, अखण्ड ज्ञानानन्दमय है, सम्पूर्ण अवस्थाओंको व्याप्त करनेवाला है, प्रतिभासमात्र होनेसे। यतः एक ही ब्रह्म अनेक पदार्थों में जलमें चन्द्रमाकी तरह भिन्न-भिन्न प्रकारसे दिखलाई देता है, इसी प्रकार पृथ्वी आदि ब्रह्मविवर्त हैं, भिन्न तत्त्व नहीं। अतएव चराचर संसारकी उत्पत्ति ब्रह्मसे होता है। इस प्रकार पूर्वपथकी स्थापना कर उत्तरमें बताया है कि ब्रह्माद्वेत प्रत्यक्षविरुद्ध है। प्रत्यक्षसे बाह्य अर्थ परस्परभिन्न और सत्य दिखलायी पड़ते हैं, अतएव ब्रह्माद्वैत नहीं बन सकता। इस तरह प्रतिभासमायहेतुमें अनेक दोषोंका उद्भावन कर पुरुषाद्वैतकी समीक्षा की गयी है।
शब्दाद्वेतमें भी ब्रह्माद्वेतके समान दोष आते हैं। विज्ञानाद्वैतकी परीक्षाके प्रसंगमें पूर्वपथकी सिद्धिके लिए अनुमान उपस्थित करते हुए लिखा है कि सम्पूर्ण ग्राह्य-ग्राहकाकार ज्ञान भ्रान्त है। जिस प्रकार स्वप्न और इन्द्रजाल आदि ज्ञान भ्रान्त होते हैं, उसी प्रकार ग्राह्य-ग्राहकाकार आदि प्रत्यक्ष भी भ्रान्त हैं। भ्रान्त प्रत्यक्ष आदिके द्वारा जाने गये बाह्य अर्थ वास्तविक नहीं हैं, अन्यथा स्वप्नप्रत्यक्षको भी वास्तविक मानना होगा। इस तरह बाह्म अर्थ असम्भव है, स्वसंवित्ति ही खण्डशः प्रतिभासित होती हुई समस्त वेद्य-वेदक व्यवहारको करती है। अतः पृथ्वी, जल, अग्नि आदि पदार्थ ज्ञानसे भिन्न नहीं हैं।
उत्तर पक्षमें पूर्ववत् असिद्ध, विरुद्ध आदि दोषोंकी उद्भावना की गयी है। अनुमानसे संवित्तिका वैद्य-वेदकभाव मानने पर बाह्म अर्थ भी उसीसे वेद्य वेदकभाव मान लेना चाहिए, क्योंकि दोनोंमें कोई असर नहीं है। "सन्ति बहिरर्था: साधनदूषणप्रयोगात्" द्वारा बाह्य पदार्थ सिद्ध किये गये हैं। इसी प्रकार चित्राद्वैतकी परीक्षा भी की है।
चार्वाक, बौद्धशासन, सांख्यपरीक्षा, वैशेषिकशासनपरीक्षा, नैयायिकशासनपरीक्षा, मीमांसकपरीक्षा और भाट्ट-प्रभाकरशासनपरीक्षा भी तर्कपूर्वक लिखी गयी है।
इस ग्रन्थ पर तत्त्वार्थसूत्रका प्रभाव भी दिखलायी पड़ता है। विद्यानन्दने अपनेसे पूर्ववर्ती आचार्योंका प्रभाव ग्रहण किया है। बीच-बीच में अनेक ग्रन्थों के उद्धरण भी आये हैं।
५. विद्यानन्दमहोदय
आचार्य विद्यानन्दकी यह सबसे पहली रचना है। इसके पश्चात् ही उन्होंने तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक और अष्टसहस्री आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंकी रचना की है। यह ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं हैं, पर उसका नामोल्लेख श्लोक वार्त्तिक आदि ग्रन्थों में मिलता है। देवसूरिने तो अपने स्याद्वादरत्नकरमें इसकी एक पंक्ति भी उद्धत को है- "महोदये च कालान्तराविस्मरणकारणं हि धारणाभिधानं ज्ञानं संस्कारः प्रतीयते' इति वदन (विद्यानन्दः) संस्कारधारणयोरं काथ्यमचकथत्"। इस ग्रंथका नाम विद्यानन्दमहोदय और संक्षिप्त महोदय है।
६. श्रीपुर-पार्श्वनाथ स्तोत्र
श्रीपुर या अन्तरिक्षके पाश्वनाथको स्तुतिमें तीस पद्य लिखे गये हैं। इस स्तोत्रमें दर्शन और काव्यका गंगा-यमुनी संगम है। रूपक अलंकारकी योजना करते हुए आराध्यकी भक्तिकी प्रशंसा की गयी है। कवि कहता है-
शरण्यं नाथाऽर्हन भव भव भवारण्य-विगत्ति
च्युतानामस्माकं निरवकर-कारुण्य-निलय।
यत्तोऽगण्यात्पुण्याच्चिरसरमपेक्ष्यं तव पदम्
परिप्राप्ता भक्त्या वयमचल-लक्ष्मीगृहमिदम्॥
हे नाथ! अर्हन! आप संसारकी सममें भारमानेवाले हम मारियोंके लिए शरण हैं। आप हमें अपना आश्रय प्रदान कर संसार-परिभ्रमणसे मुक्त करें; यतः आप पूर्णतया करुणानिधान हैं। हम चिरकालसे आपके पदों-चरणोंकी अपेक्षा कर रहे हैं। आज बड़े पुण्योदयसे मोक्षालक्ष्मीके स्थानभूत आपके चरणोंकी भक्ति प्राप्त हुई।
इस पद्यमें भवारण्य, कारुण्यनिलय और लक्ष्मीगृह पदोंमें रूपक है। कविने भक्तिकी निष्ठा दिखलाते हुए अन्य दार्शनिकों द्वारा अभिमत आप्तका निरसन किया है। भाषाका प्रवाह और शैलीकी उदात्तता सहृदय पाठकके मनको सहज ही अपनी ओर आकृष्ट करती है।
त्वदन्येऽध्यक्षादि - प्रतिहत - वचो - युक्ति - विषया
विलुप्ताभा लोक-व्यपलपन - सम्बन्ध - मनसः।
भजन्ते नाऽऽप्तस्वं तदिह विदिता वञ्चन - कृति:
विसंवादस्तेषां प्रभवति तदर्थापरिगते।
इच्छा वा नियतेतरा न लभते सम्बन्धमोशेन तत्
कर्मप्राभवतः सुखादिविभवः पर्याप्तमेतेन हि।
मेत्ता कर्ममहीभृतां सकलविन्नानादिसिद्धस्ततो
यत्कारणाद-हत्ताक्षपादगदितं तत्स्यात्कथं श्रेयसे।।
प्रथम पद्यमें आप्तकी समीक्षा करते हुए कपिलादिकको अनाप्त बसाया गया है, क्योंकि वे प्रत्यक्षादिविरुद्ध अर्थका प्रतिपादन करनेवाले हैं। प्रामाणिकता रूप सच्ची ज्योतिसे शून्य हैं और लोगों को गुमराह करनेवाले हैं। चू कि लोकमें उनकी वच्चना प्रसिद्ध है तथा पदार्थोंका यथार्थ ज्ञान न होने से उनके विसम्वाद भी स्पष्ट है, अतएव वे आप्तताको प्राप्त नहीं होते। द्वितीय पद्यमें नैयायिक और वैशेषिकों द्वारा अभिमत ईश्वरेच्छाको जगतके कारणका खण्डन किया है। संसारके समस्त पदार्थोका निर्माण ईश्वरकी इच्छासे सम्भव नहीं है। यह इच्छा नियत-नित्य है अथवा अनियत-अनित्य। यदि नित्य है, तो एकस्वभाव ईश्वरकी तरह, वह भी एक स्वभाववाली हो जायगी और संसारके सभी कार्य एक समान होने लगेंगे। यदि अनित्य है, तो संसारके कार्य ही उत्पन्न नहीं हो पायेंगे। अतएव सुख-दुःखादि ईश्वरेच्छाजन्य नहीं, अपितु कर्मजन्य हैं। कोई भी परमात्मा अनादिसिद्ध सर्वज्ञ नहीं होता। वह कर्म समूहको नाश करके ही सर्वज्ञपद प्राप्त करता है। ऐसी अवस्थामें नैयायिक और वैशेषिकों द्वारा, जो अनादिसिद्ध सर्वज्ञ माना गया है, उससे जगत-कर्तृत्व सिद्ध नहीं हो सकता।
इस स्तोत्रमें सर्वसिद्धि, अनेकान्तसिद्धि, भावाभवात्मक वस्तुनिरूपण, सप्तभंगीनय, सुनय, निक्षेप, जीवादिपदार्थ, मोक्षमार्ग, वेदकी अपौरुषेयताका निराकरण, ईश्वरके जगत्कर्तृत्वका खण्डन, सर्वथा क्षणिकत्व और नित्यत्व मीमांसा, कपिलाभिमत पच्चीस तत्त्व समीक्षा, ब्रह्माद्वेत-मीमांसा, चार्वाक-समीक्षा आदि दार्शनिक विषयोंका समावेश किया गया है। भगवान पार्श्वनाथको राग-द्वेषका विजेता सिद्ध करते हुए, उनकी दिव्यवाणीका जयघोष किया है-
विदधशिवः मित्त-मासि-मुनिाथमा
नमित-सुर-रवि-भुवन-परगुरु-तीर्थकृत्व-सनामयत्।
उदय-पथ-गस्त - तदनु -विसृतिरशेष-तत्त्व-विभासिनी
जयति जिन जिन विजित-मनसिज भारती तव भासुरा॥
इस प्रकार विद्यानन्दने इस दार्शनिक ग्रन्थमें भी काव्यत्वका निर्वाह किया है।
७. तस्वार्थलोकवार्तिक
टीकाग्रन्थोंमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक है। यह ग्रन्थ आचार्य गृद्धपिच्छके सुप्रसिद्ध तत्वार्थसूत्रपर कुमारिलके मीमांसाश्लोक वार्त्तिक और धर्मकीर्तिके प्रमाणवार्त्तिककी तरह पद्यात्मक शैलीमें लिखा गया है। साथ ही पद्मवार्त्तिकों पर उन्होंने स्वयं भाष्य अथवा गद्यमें व्याख्यान भी लिखा है। यह जैनदर्शनके प्रमाणाभृत ग्रन्थों में प्रथमकोटिका ग्रन्थ है। विद्यानन्दने इसकी रचना करके कुमारिल, धर्मकीर्ति जैसे प्रसिद्ध तार्किकोंके जैनदर्शन पर किये गये आक्षेपोंका उत्तर दिया है। इस ग्रंथकी समता करनेवाला जैनदर्शनमें तो क्या अन्य किसी भी दर्शन में एक भी ग्रन्थ नहीं है।
इस ग्रन्थमें आगमके मूल आप्तकी सिद्धि कर पराभिमत आप्तका खण्डन किया गया है। विषयका वर्गीकरण तत्वार्थसूत्रके समान ही दश अध्यायोंमें है। चार्वाक आत्माका अस्तित्व न मानकर भूतचतुष्टयका अस्तित्व स्वीकार करता है। अत: विद्यानन्दने चार्वाकका खण्डन कर आत्मतत्त्वको सिद्धि की है। यतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको उत्पत्तिका स्थान आत्मा ही है। आत्माके सद्भाव में ही मोक्ष और मोक्षके कारणीभूत तत्वोंकी सिद्धि सम्भव है।
प्रथम अध्यायमें मोक्षमार्गके निरूपणके साथ-साथ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानका विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया है। बताया है-
ज्ञानमेव स्थिरीभूतं समाधिरिति चेन्मतम्।
तस्य प्रधानधर्मत्वे निवृत्तिस्तत्क्षयाद्यदि।।
तदा सोपि कुतो ज्ञानादुक्तदोषानुषंमतः
समाध्यंतरतश्चेन्न तुल्यपर्यनुयोगतः।।
स्पष्ट है कि आचार्य विद्यानन्दने तत्त्वार्थसूत्रके प्रमेयोंका अत्यन्त सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन इस ग्रंथमें किया है। प्रथम सूत्रके वार्तीकोंमें मोक्षोपायके सम्बन्धमे अत्यन्त मागे सारः चित किया है। जीवका अंतिम ध्येय मोक्ष है। बन्धनबद्ध आत्माको मुक्तिने अतिरिक्त और क्या चाहिए? अतः मुक्तिके साधनभूत रत्नत्रयमार्गका सुन्दर और गहन विवेचन किया है। अनन्तर सम्यग्दर्शनका स्वरूप, भेद, अधिगमोपाय, तत्त्वोंका स्वरूप और भेद, एवं सत्-संख्या-क्षेत्रादि तत्त्वज्ञानके साधनों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। पश्चात् सम्यग्ज्ञानका स्वरूप, सम्यग्ज्ञानके भेद, मत्तिज्ञान और श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञानके विषय, क्षेत्र, स्वामी आदिका निर्देश किंधा है। इस सन्दर्भ में सर्वसिद्धिका भी प्रकरण आया है, जिसमें मीमांसक द्वारा उठाई गयी शंकाओंका समाधान भी किया है।
श्रुतज्ञान बाह्य अर्थों को किस प्रकार विषय करता है, इस आशंकाका उत्तर देते हुए आचार्य विद्यानन्दने लिखा है-
श्रुतेनार्थ परिच्छिद्य वर्तमानो न बाध्यते।
अक्षजेनैव तत्तस्य बाह्यार्थालंबना स्थितिः।।
सामान्यमेव श्रुतं प्रकाशयति विशेषमेव परस्परनिरपेक्षमुभयमेवेति वा शंकामपाकरोति।
अनेकान्तात्मकं वस्तु संप्रकाशयति श्रुतं।
सद्बोधत्वाद्यथाक्षोत्थबोध इत्युपपत्तिमत्।।
नयेन व्यभिचारश्चेन्नः तस्य गुणभावतः।
स्वगोचरार्थधर्माण्यधर्मार्थप्रकाशनात्।।
श्रुतस्यावस्तुवेदिर परप्रमाण धुतः
संवृतेश्चेद् वृथैवेषा परमार्थस्य निश्चितेः।।
ननु स्वत एव परमार्थव्यवस्थिते: कुतश्चिदविद्याप्रक्षयान्न पुनः श्रुतविकल्पात्। तदुक्तं "शास्त्रेषु प्रक्रियाभेदेरविद्येवोपवण्यते। अनागमविकल्पा हि स्वर्य विद्योपवतंत" इति, तदयुक्त, परेष्टतत्त्वस्याप्रत्यक्ष विषयल्वात्तद्विपरीतस्याने कान्तात्मनो वस्तुनः सर्वदा परस्याप्यवभासनात्। लिङ्गस्य त्वस्याङ्गीकरणी यत्वात्।
अर्थात् श्रुतज्ञान द्वारा अर्थकी परिच्छिति कर प्रवृत्ति करनेवाला पुरुष अर्थक्रिया करने में उसी प्रकार बाधा नहीं प्राप्त करता है, जिस प्रकार इन्द्रियजन्य मति ज्ञान द्वारा अर्थको अवग्रह कर प्रवृत्ति करने वाला पुरुष बाधाको प्राप्त नहीं करता है। श्रुतज्ञान सामान्यका प्रकाशन करता है, विशेषका प्रकाशन करता है या निरपेक्ष दोनोंका प्रकाशन करता है? इस शंकाका उत्तर देते हुए आचार्य विद्यानन्दने बताया है- सामान्यविशेषात्मक अनेकान्तरूप वस्तुको अतज्ञान अवगत करता है । जिस प्रकार इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ सांध्यबहारिक प्रत्यक्षज्ञान अनेकान्तात्मक अर्थका प्रकाशन करता है, उसी प्रकार श्रुतज्ञान सामान्य विशेषात्मक वस्तुको प्रकाशित करने में समर्थ रहता है ।अतः “अनेकान्तात्मक वस्तु श्रुतं प्रकाशयति, सद्बोधत्वात" यह अनुमान समीचीन है। इसका नयके साथ भी दोष नहीं है, क्योंकि नयज्ञान मुख्यरूपसे एक धर्मको जानता है, पर गौणरूपसे वस्तु के अन्य धर्मों का भी वह जाता है। अतः श्रुतज्ञानका नयज्ञानके साथ दोष नहीं आता।
यदि श्रुतज्ञानको वस्तुभूत पदार्थका ज्ञापक नहीं माना जाय, तो प्रतिवादी या शिष्योंको स्वकीय तत्वोंका शान किस प्रकार कराया जा सकेगा। अतएव श्रुतज्ञान द्वारा ज्ञात वस्तु प्रमाणभूत है। इस प्रकार विद्यानन्दने तत्वार्थश्लोक वार्त्तिकमें प्रमेयोंका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है।
८. अष्टसहस्त्री
जैन न्यायका यह अत्यन्त महनीय ग्रन्थ है। इस एक ग्रन्थके अध्ययन कर लेनेपर अन्य ग्रन्थ पढ़ने की आवश्यकता नहीं। विद्यानन्दने स्वयं ही यह प्रकट किया है-
श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानै:।
विज्ञायेत ययैव हि स्वसमय-परसमयसद्भावः।।
अर्थात् हजार शास्त्रोंको सुननेसे क्या, केवल अष्टसहस्रीको सुन लेनेसे, स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्तोंका ज्ञान हो जायगा।
यह समन्तभद्रविरचित आप्तमीमांसा अपरनाम देवागमस्तोत्रपर लिखा गया विस्तृत एवं महत्वपूर्ण भाष्य है। विद्यानन्दने बड़ी ही कुशलताके साथ अकलंकदेव द्वारा रचित अष्टशतीको अष्टसहस्री में अन्तःप्रविष्ट कर लिया है। यह न्यायकी प्रान्जल भाषामें रचा गया दुरूह और जटिल ग्रन्थ है। स्वयं विद्यानन्दने इसे कष्टसहस्रो कहा है। उन्होंने लिखा है-
'कष्टसहस्री सिद्धा साष्टसहस्रीयमत्र में पुष्यात्'
इस ग्रन्थमें एकादश नियोग, विधि और भावनावाद और उनका निरसन, चार्वाकमत, तत्त्वोपाल्पववाद, संवेदनाद्वैत, चित्राद्वैत, ब्रह्माद्वैत, सर्वज्ञाभाव, अनुमानद्वारा सर्वज्ञसिद्धि, अर्हदसर्वज्ञसिद्धि आदि अनेक विषयों का समावेश किया गया है। यह ग्रंथ दश परिच्छेदोने विभक्त है। प्रथमपरिच्छेद सबसे बड़ा है और आधा ग्रन्थ इसी में समाप्त है।
प्रथमपरिच्छेदमें अनुमान द्वारा सर्वज्ञको सिद्धिके पश्चात् भाव, अभाव, भावाभवरूप, तत्वका निराकरण कर अनेकान्तात्मक वस्तुकी सिद्धी की गयी है। इस सन्दर्भमें भावापयववादी बौद्ध और अत्यन्ता भावप्रागभाव और प्रध्वंसाभाव अस्वीकार करनेवाले सांख्य मतमें दूषण दिया गया है। वस्तुत: इस अध्यायमें नैयायिक, सांख्य, वेदान्त, बौद्ध, मीमांसक आदि दर्शनोंका वस्तुतत्वके सम्बन्धमें विचार किया गया है। द्वितीय परिच्छेदमें द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत आदिका विचार किया है। तृतीयपरिच्छेदमें क्षणिकवादमें दोषोंका प्रतिपादन कर कार्यकरिणादि समन्वित कथञ्चितक्षणिक वस्तुकी सिद्धि को गयी है। प्रागभावको सर्वथा अभाव न मानकर कथम्चित सद्भावरूप सिद्ध किया गया है। वैशेषिक और नेयायिकाभिमत अवयव-अवयवी का विचार किया गया है। चतुर्थमें वैशेषिकाभिमत मैदैकान्तका खण्डन कर कथंचित् भेदाभेदात्मक वस्तुकी सिद्धि की है। पंचम परिच्छेद में बौद्धकी अपेक्षासे सर्वथा अनापेक्षिक बस्सुका निरसन किया है। षष्ठ परिच्छेदमें वस्तुकी सिदिके लिए प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीनों प्रमाणोंकी सिद्धि की गयी है। वेद प्रमाण्यवादकी समीक्षा भी विस्तारपूर्वक इसी परिच्छेदमें प्रतिपादित है। सप्तम परिच्छेदमें बौद्धाभिमत ज्ञानेकान्तकानिरसन किया गया है। उपेय और उपाय तत्त्वकी चर्चा भी इसी परिच्छेद में आयी है। अष्टम परिच्छेदमें देवपुरुषार्थवाद की समीक्षा है। नवममें पुण्य-पापकी समीक्षा की गयी है। दशममें सांख्य, नयायिक और बौखमतानुसार बन्ध, मोक्ष और उनके कारणों की चर्चा आयी है। वाक्य और नयका लक्षण भी इसी परिच्छेदमें वर्णित है।
९. युक्त्यनुशासनालङ्कार
स्वामी समन्तभद्रके ६४ कारिकात्मक दार्शनिक 'युक्त्यनुशासनस्तोत्र' पर विद्यानन्दने मध्यम परिमाणकी यह 'युक्त्यनुशासनालङ्कार' टीका लिखी है। टीला सरल एवं विशद है।
वस्तुतः समन्तभद्रने मुल कारिकाओंमें जिन प्रमेयोंकी स्थापना की है, उन पर विस्तारपूर्वक इसमें विचार किया है। अद्वैतवाद, द्वैतवाद, शाश्वतवाद, अशाश्वतवाद, वक्तव्यवाद, अक्तव्यदाद, अन्यतावाद, अनन्यतावाद, अपेक्षावाद, अनपेक्षावाद, हेतुवाद, अहेतुवाद, विज्ञानवाद, बहिरर्थवाद, दैववाद, पुरुषार्थवाद, पाप-पुण्यवाद, बन्धवाद, मोक्षवाद और बन्ध-मोक्षकारणवादकी समीक्षा विभिन्न दर्शनोंके पूर्वपक्षोंको उपस्थित कर की है। निश्चयतः समग्र दर्शनोंके प्रमेयोंका विचार इस ग्रन्थमें किया गया है। अतः हमें विद्यानन्दकी "श्रोतव्याष्टसहस्त्री श्रुतैः किमन्य सहनसंख्यानः। विज्ञायते ययेव स्वसमयपरसमय सद्भावः।।" आदि गर्वोक्ति स्वभावोक्सि प्रतीत होती है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
आचार्य विद्यानन्द ऐसे सारस्वत हैं, जिन्होंने प्रमाण और दर्शनसम्बन्धी ग्रन्थोंकी रचनाकर श्रुतपरम्पराको गतिशील बनाया है। इनके जीवनवृत्तके सम्बन्धमें प्रामाणिक इतिवृत्त ज्ञात नहीं है। 'राजावलीकथे’ में विद्यानन्दिका उल्लेख आता है और संक्षिप्त जीवन-वृत्त भी उपलब्ध होता है, पर वे सारस्वताचार्य विद्यानन्द नहीं हैं, परम्परा-पोषक विद्यानन्दि हैं।
आचार्य विद्यानन्दकी रचनाओंके अवलोकनसे यह अवगत होता है कि ये दक्षिण भारतके कर्णाटक प्रान्तके निवासी थे। इसी प्रदेशको इनकी साधना और कार्मभूमि होनेका सौभाग्य प्राप्त है। किंवदन्तियोंके आधारपर यह माना जाता है कि इनका जन्म ब्राह्मण परिवारमें हुआ था। इस मान्यताकी सिद्धि इनके प्रखर पाण्डित्य और महती विद्वतासे भी होती है। इन्होंने कुमारावस्थामें ही वैशेषिक, न्याय, मीमांसा, वेदान्त आदि दर्शनोंका अध्ययन कर लिया था। इन आस्तिक दर्शनोंके अतिरिक्त ये दिङ्नाग, धर्मकीर्ति और प्रज्ञाकर आदि बौद्ध दार्शनिकोंके मन्तव्योंसे भी परिचित थे। शक संवत् १३२० के एक अभिलेखमें वर्णित नन्दिसंघके मुनियोंकी नामावलिमें विद्यानन्दका नाम प्राप्त कर यह अनुमान सहजमें लगाया जा सकता है कि इन्होंने नन्दिसंघके किसी आचार्य से दीक्षा ग्रहण की होगी। जैन-वाङ्मयका आलोडन-विलोडन कर इन्होंने अपूर्व पाण्डित्य प्राप्त किया। साथ ही मुनि-पद धारणकर तपश्चर्या द्वारा अपने चरितको भी निर्मल बनाया।
इनके पाण्डित्यकी ख्याति १० वी, ११ वीं शतीमें ही हो चुकी थी। यही कारण है कि बादिराजने (ई. सन् १०५५) अपने 'पार्श्वनाथचरित' नामक काव्यमें इनका स्मरण करते हुए लिखा है-
ऋजुसूत्र स्फुरद्रत्न विद्यानन्दस्य विस्मयः।
शृण्वतामप्यलङ्कारं दोप्तिरङ्गेषु रगति॥
आश्चर्य है कि विद्यानन्दके तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और अष्टसहस्री जैसे दीप्तिमाम अलङ्कारोंको सुननेवालोंके भी अङ्गोंमें दीप्ति आ जाती है, तो उन्हें धारण करनेवालोंकी बात ही क्या है?
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि सारस्वताचार्य विद्यानन्दकी कीति ई. सन् की १७वी शताब्दिमें हो व्याप्त हो चुकी थी। उनके महनीय व्यक्तीत्वका सभी पर प्रभाव था। दक्षिण से उत्तर तक उनकी प्रखर न्यायप्रतिभासे सभी आश्चर्यचकित थे।
आचार्य विद्यानन्दने अपनी किसी भी कृतिमें समयका निर्देश नहीं किया है। अत: इनके समयका निर्णय इनकी रचनाओंकी विषय-वस्तुके आधारपर ही सम्भव है। विद्यानन्द और इनकी कृतियोंपर पूर्ववर्ती ग्रन्थकार गृद्धपिच्छाचार्य, स्वामी समन्तभद्र, श्रीदत्त, सिद्धसेन, पात्रस्वामी, भट्टाकलङ्क, कुमारसेन, कुमार नन्दि भट्टारकका प्रभाव स्पष्टतया लक्षित होता है। अतः विद्यानन्द इन आचार्यों के पश्चात्वर्ती है। विद्यानन्दने 'तत्वार्थलोकवार्तिकमें’ श्रीदत्तके जल्प और वाद सम्बन्धी नियमोंका उल्लेख किया है। वादके दो भेद है- १. वीतरागवाद और २. आभिमानिकवाद। वीतरागवाद तत्त्व-जिज्ञासुओंमें होता है। अत:इसके दो अंग हैं- वादो और प्रतिवादी। आभिमानिकवाद जिगीषुओंमें होता है और उसके वादी, प्रतिवादी, सभापति और प्राश्निक- ये चार अङ्ग हैं। आभिमानिकवादके भी दो भेद हैं- (१) तात्विकवाद और (२) प्रातिभवाद। अपने इस वादसम्बन्धी कथनकी पुष्टीके लिए श्रीदत्तके मत्तका उपस्थापन किया है। जल्पके भी तात्वीक और प्रसिभ ये दो भेद किये गये हैं। इस प्रकार विद्यानन्दने अपनेसे पूर्ववर्ती श्रीदत्त और उनके 'जल्पनिर्णय' ग्रन्थका उल्लेख किया है।
आचार्य जिनसेन द्वितीयने श्रीदत्तका स्मरण किया है और जिनसेनका समय ई. सन् नौवीं शताब्दि है। अत: श्रीदत्तका सयय इनसे पहले होना चाहिए। आचार्य पूज्यपादने अपने जैनेन्द्र व्याकरणके "गणे श्रीदत्तस्य स्त्रियां" सूत्र द्वारा श्रीदत्तका उल्लेख किया है। यदि ये श्रीदत्त ही प्रस्तुत श्रीदत्त हों तो श्रीदत्तका समय पूज्यपादसे पूर्व अर्थात् छठी शताब्दिसे पूर्व आता है। अत: इस आधारसे विद्यानन्दका समय छठौं शताब्दिके बाद सिद्ध होता है।
विद्यानन्दने 'तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक' में सिद्धसेनके सन्मतिसूत्रके तीसरे काण्डगत "जो हेउवायपकम्खम्मि" आदि ४५वी गाथा उद्वत की है। एक दूसरी जगह "जावदिया वणवहा तावदिया होति पयवाया" आदि तीसरे काण्डको ४७वी गाथाका संस्कृतरूपान्तर दिया है। अतः विद्यानन्द सिद्धसेनके पश्चाद्वर्ती है, यह स्पष्ट है। पात्रस्वामी और भट्टाकलड़के उद्धरण और नामोल्लेख भी इनके ग्रन्थों में मिलते हैं। अकलङ्ककी 'अष्टशती' की तो अष्ट सहस्त्रों में आत्मसात् ही कर लिया गया है। अतएव इनका समय सातवीं शताब्दि के पश्चात् होना चाहिए। अकलंकके उत्तरवर्ती कुमारनन्दि भट्टारकके वादन्यायका ‘तत्वार्थश्लोकवात्तिक', 'प्रमाणपरीक्षा' और 'पत्रपरीक्षा’ में नामोल्लेख किया है, तथा वादन्यायसे कुछ कारिकाएँ भी उद्धृत की हैं। अतः विद्यानन्द कुमारनन्दि भट्टारकके उत्तरवर्ती हैं। कुमारनन्दि अकलंक और विद्यानन्दके मध्यमें हुए हैं। अतः इनका समय आठवीं और नौवीं शताब्दिका मध्यभाग होना चाहिए।
विद्यानन्दका प्रभाव माणिक्यनन्दि, वादिराज, प्रभाचन्द्र, अभयदेव, देवसूरि आदि आचार्योंपर है। माणिक्यनन्दिका समय विक्रमकी ११ वीं शती है और अकलंकदेवका समय विक्रमकी ८ वीं शती है। अतएव विद्यानन्दका समय माणिक्यनन्दि और अकलंकका मध्य अर्थात् ९ वीं शती होना चाहिए।
विद्यानन्दने अपने 'तत्वार्थश्लोकवार्त्तिक' और 'अष्ट्रसहस्री' में उद्योतकर, वाक्यदीपकार भर्तृहरि, कुमारिलभट्ट, प्रभाकर, प्रशस्तपाद, व्योमशिवाचार्य, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर, मण्डनमिश्र और सुरेश्वरमिश्रके मतोंकी समीक्षा की है। इन दार्शनिक विद्वानोंका समय ई. सन् ७८८ के पहले ही है। अतः विद्यानन्दके समयकी पूर्ववर्ती सीमा ७८८ ई. है और उत्तर सीमा पार्श्वनाथ चरित और न्यायविनिश्चयविवरण (प्रशस्ति श्लोक में विद्यानन्दका उल्लेख रहनेसे ई. सन् १०२५ है। इन दोनों समय-सीमाओंके बीच ही इनका स्थितिकाल है।
आचार्य विद्यानन्दने 'प्रशस्तपादभाष्य' पर लिखी गयी चार टीकाओंमेंसे व्योमशिवकी 'व्योमवती' टीकाके अतिरिक्त अन्य तीन टोकाओंमेसे किसी भी टीकाकी समीक्षा नहीं की है। अतः स्पष्ट है कि श्रीधरकी न्यायकन्दली (ई. सन् ९९१) और उदयनकी किरणावली (ई. सन् ९८४) के पूर्व विद्यानन्दका समय होना चाहिए। इस प्रकार इनकी उत्तर सीमा ई. सन् १०२५ से हटकर ई. सन् ९८४ हो जाती है।
'अष्टसहस्री' को अन्तिम प्रशस्तिमें बताया है कि कुमारसेनकी युक्तियोंके वर्धनार्थ ही यह रचना लिखी जा रही है। यथा-
पोरसेनाख्यमोक्षगे चारुगुणानध्यरत्नसिन्धुगिरिसततम्।
सारतरात्मध्यानगे मारमदाम्भोदपवनगिरिगह्वरायितु।
कष्टसहस्री सिद्धा साष्ट्रसहस्रीयमत्र मे पुष्यात्।
शश्वदभीष्टसहस्री कुमारसेनोक्तिवर्धमानार्थी|| (नर्द्धा)
इससे ध्वनित होता है कि कुमारसेनने आप्तमीमांपर कोई विवृति या विवरण लिखा होगा, जिसका स्पष्टीकरण विद्यानन्दने किया है। निश्चयत: कुमारसेन इनके पूर्ववर्ती हैं। कुमारसेनका समय ई. सन् ७८३ के पूर्व माना गया है। जिनसेन प्रथमने अपने हरिवंशपुराणमें कुमारसेनका उल्लेख किया है-
"आकूपारं यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्जवलम्।
मुरोः कुमारसेनस्य विचरत्यजितात्मकम्॥"
और जिनसेनने अपने हरिवंशपुराणकी रचना ई. सन् ७८३में की है। यहाँ यह विचारणीय है कि जिनसेन प्रथमने कुमारसेनका तो स्मरण किया है, पर विद्यानन्दका नहीं। अत: इससे सिद्ध होता है कि हरिवंशपुराणकी रचनाके समय तक विद्यानन्दको ऐसी ख्याति प्राप्त नहीं हुई थी, जिससे पुराणकार उनका स्मरण करता।
कतिपय निहनोंका अभिमत है कि निशानन्दका कार्यक्षेत्र दक्षिणमें गंगवंशका गंगवाड़ी प्रदेश है और विद्यानन्दकी स्थिति गंगनरेश शिवमार द्वितीय तथा राममल्ल सत्यवाक्य प्रथम (ई. सन् ८१०-८१६)के समयमें रही है। विद्यानन्दने प्रायः अपनी समस्त कृतियोंकी रचना गंगनरेशोंके राज्यकालमें की है। अतः सम्भव है कि पुन्नाटवंशी जिनसेनने इनका स्मरण न किया हो।
जैनन्यायके उद्भट विद्वान डॉ. पं. दरबारीलाल कोठियाने विद्यानन्दके जीवन और समय पर विशेष विचार किया है। उन्होंने निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है-
“विद्यानन्द मङ्गनरेश शिवमार द्वितीय (ई. सन् ८१०) और राचल्ल सत्य वाक्य प्रथम (ई. सन् ८१६) के समकालीन हैं। और इन्होंने अपनी कृत्तियाँ प्रायः इन्हींके राज्य-समयमें बनाई हैं, विद्यानन्दमहोदय और तत्त्वार्थश्लोक वार्त्तिकको शिवमार द्वितीयके और आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा तथा युक्त्यनुशासनालकृति ये तीन कृतियाँ सुचमल्ल सत्यवाक्य प्रथम (ई. ४१६-८३०) के राज्यकाल में बनी जान पड़ती है। अष्टसहस्त्री, श्लोकवार्त्तिकके बादकी और आप्तपरीक्षा आदिके पूर्वकी-रचना है- करीब ई. ८१०-८१५ में रची गयी प्रतीत होती है तथा पत्रपरीक्षा, श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र और सत्यशासनपरीक्षा ये तीन रचनाएं ई. सन् ८३०-८४० में रची ज्ञात होती है। इससे भी आचार्य विद्यानन्दका समय ई. सम् ७७५-८४० ई. प्रमाणित होता है।
डॉ. कोठिया द्वारा निर्धारित समय भी उपर्युक्त समयके समकक्ष है। अतएव आचार्य विद्यानन्दका समय ई. सन् की नवम शती है।
आचार्य विद्यानन्दकी रचनाओंको दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है- १. स्वतन्त्र ग्रन्थ और २. टीका ग्रन्थ।
स्वतन्त्र ग्रन्थ
इनकी स्वतंत्ररचनाएँ निम्नलिखित हैं-
१. आप्तपरीक्षा स्वोपज्ञवृत्तिसहित
२. प्रमाणपरीक्षा
३. पत्रपरीक्षा
४. सत्यशासनपरीक्षा
५. श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र
६. विद्यानन्दमहोदय
टीकाग्रंथ
१. अष्ठसहस्त्री
२. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक
३. युक्त्यनुशासनालङ्कार
१. आप्त-परीक्षा स्वोपज्ञवृत्तिसहित
इस ग्रन्थमें १२४ कारिकाएँ, स्वोपज्ञ वृत्ति सहित निबद्ध हैं। इस ग्रंथमें परमेष्ठीगुणस्तोत्रकी आवश्यकता प्रतिपादित करने के पश्चात् पर-अपर निःश्रेयस का स्वरूप, बन्ध और बन्धकारणोंकी सिद्धि, उनके अभावकी सिद्धि, सहेतुक निर्जराकी सिद्धि परमेष्ठीगत प्रसादका लक्षण, मंगलकी नियुक्ति और अर्थ, शास्त्रारम्भमें परमेष्ठीगुणस्तोत्रकी आवश्यकता एवं पराभिमत आप्तोके निराकरणकी सार्थकता बतलायी गयी है।
ईश्वर परीक्षा प्रकरणमें ईश्वरके मोक्षमार्गोपदेशकी असम्भवता, वैशेषिका भिमत षट्पदार्थ समीक्षा, द्रव्यलक्षणके योगसे एक द्रव्यपदार्थकी असिद्धि, द्रव्यलक्षणत्वके योगसे दो द्रव्यलक्षणों में एकताकी असिद्धि, द्रव्यत्वके योगसे एक द्रव्यपदार्थकी असिद्धि, गुणत्वादिके योगसे एक-एक गुणादि पदार्थोकी असिद्धि, "इहेदम् प्रत्यय' सामान्यसे भी द्रव्यादि पदार्थोकी असिद्धि, संग्रहसे भी द्रव्यादि पदार्थोकी असिद्धि, द्रव्यत्वाभिसम्बन्धसे एक द्रव्यपदार्थ माननेका निरास, गुणत्वादि अभिसम्बन्धसे एक-एक गुणादिपदार्थ माननेका निरास, पृथ्वीवादि अभिसम्बन्धसे एक-एक पृथ्वी आदि द्रव्य मानने का निरास, संग्रहके तीन भेद और उनकी समीक्षा, ईश्वरके जगत् कर्तृत्वकी समालोचना, ईश्वरके नित्य ज्ञान माननेमें दोष-प्रदर्शन, ईश्वरके अनित्यज्ञानकी मीमांसा, अव्यापक ज्ञानमें दोष, ईश्वरके नित्य व्यापक ज्ञानमें दोष, समवायका स्वरूप और समीक्षा, संयोग और समवायकी व्यर्थता, सत्ता और समवायके एकत्वका खण्डन, सत्ताको स्वतन्त्र पदार्थ न मानने में दोष एवं ईश्वर-परीक्षाका उपसंहार आदि विषय वर्णित हैं।
कपिल-परीक्षाके अन्तर्गत कपिलके मोक्षमार्गोपदेशकत्वका निरास, प्रधानके मुक्तामुक्तत्वकी कल्पना और उसकी समीक्षा एवं प्रधानके मोक्षमार्गोपदेशकत्वका समालोचन आया है।
सुगत-परीक्षामे सुगतके आप्तत्वका परीक्षण किया गया है। इस प्रकरणमें सुगतके मोक्षमार्गोपदेशकत्वका निराकरण, सौत्रान्तिकोंके मतकी समीक्षा, योगाचार-संवेदनाद्वैत और चित्राद्वैतका समालोचन विस्तारपूर्वक किया गया है।
परमपुरुष-परीक्षाके अन्तर्गत ब्रह्माद्वैत-प्रतिभाससामान्य अद्वैतको समीक्षा आयी है।
अर्हंत्सर्वशसिद्धि-प्रकरणमें प्रमैयत्वहेतुसे सामान्यसर्वज्ञकी सिद्धि की गयी है। सर्वज्ञाभाववादी भट्टके मतको उपस्थितकर उसके मतका निराकरण किया गया है। पाचकालानुसे मेंहंकामा पनि लिया और पुष्टिके लिए प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, आगम और अभाव प्रमाणके द्वारा सर्वज्ञके बाधकत्वका निरास किया गया है।
अर्हत-कर्मभूभृत्भेतृत्व-सिद्धिप्रसङ्गमें सञ्चित और आगामी कर्मोंके निरोधका कारण संवर और निर्जराको सिद्ध किया है। इस सन्दर्भमें नैयायिक, वैशेषिक और सांख्य द्वारा अभिमत कर्मके स्वरूपका विवेचन कर उसकी पौद्गलिकत्ता सिद्ध की गयी है।
अर्हन्तको मोक्षमार्गका नेता सिद्ध करते हुए मोक्ष, आत्मा, संवर, निर्जरा आदिके स्वरूप और भेदोंका प्रतिपादन किया है। नास्तिक मतका प्रतिवाद कर मोक्षमार्गका स्वरूप और उसके प्रणेताको सर्वज्ञ सिद्ध किया गया है। यह ग्रन्थ निम्नलिखित प्रकरणोंमें विभक्त है-
१. परमेष्ठीगुणस्तोत्र
२. परमेष्ठोगुणस्तोत्रका प्रयोजन
३. ईश्वरपरीक्षा
४. कपिलपरीक्षा
५. सुगतपरीक्षा
६. परमपुरुषपरीक्षा या ब्रह्माद्वेतपरीक्षा
७. अर्हत्सर्वज्ञसिद्धि
८. अर्हत्कर्मभूभृभेतृत्वसिद्धि
९. अर्हन्मोक्षमार्गनेतुत्वसिद्धि
१०. अर्हद्वन्द्यत्वसिद्धि
२. प्रमाणपरीक्षा
प्रमाणपरीक्षामें प्रमाणका स्वरूप, प्रामाण्य की उत्पत्ति एवं ज्ञप्ति, प्रमाणकी संख्या, विषय एवं उसके फल पर विचार किया गया है। आरम्भमें 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं’ प्रमाणत्वान्यथानुपपत्तेः। सन्निकर्षादिरशानमपि प्रमाणं स्वार्थप्रमिती साधकतमत्वात्, इति नाशंकनीयं, ग प्रमिती नाकामाजिना। अर्थात् सम्यग्ज्ञान प्रमाण है, क्योंकि प्रमाणत्वकी उपपत्ति अन्यथा नहीं हो सकती। सन्निकर्षादि अज्ञानमय होने के कारण प्रमाण नहीं हैं, और न वे अर्थक्रियाके प्रति साधकतम ही हैं, जो स्वप्नमितिके प्रति साधकत्तम होता है, वही प्रमाण हो सकता है, अन्य नहीं। इस प्रकार ज्ञानको प्रमाण सिद्ध कर सन्निकर्ष, इन्द्रिय आदिका खण्डन किया है। प्रमाणके प्रसंगमें तादरूप्प, तदुत्पत्ति और तदाकारताका भी निरसन किया गया है। विद्यानन्दने अपने समालोचनको पुष्ट बनानेके हेतु 'उक्तञ्च' कहकर अन्य व्यक्तियोंको कारिकाएँ भी उद्धृत की हैं।
इस सन्दर्भमें सविकल्पक और निर्विकल्पक ज्ञानको प्रामाणताका भी विचार किया गया है। सौगत अभ्यास, प्रकरण, बुद्धिपाटव आदिके कारण निर्विकल्पकको प्रमाण मानता है। विद्यानन्दने इस सन्दर्भ में सौगतमतकी सुन्दर समीक्षा की है और स्वलक्षणका भी निरसन किया है। क्षणिकवादी बौद्ध स्थूलपदार्थों का अस्तित्व स्वीकार न कर स्वलक्षण परमाणु पदार्थको ही ज्ञानका विषय मानता है। ब्रह्माद्वैतवाद और स्वलक्षणवादकी समीक्षा कर स्वप्नज्ञानकी प्रामाणिकताका भी निरसन किया है। 'नैक स्वस्मात्प्रजायते' को उद्धत करते हुए ज्ञानके ज्ञानान्तरवेद्यत्वका खण्डन किया है।
कपिलमत-समीक्षा और तत्वोपप्लवादका विचार-विमर्श करते हुए अनुमान और आगम प्रमाणको सिद्धि की गयी है। यहाँ उपमान और अर्थापत्तिका प्रत्यभिज्ञान और अनुमानमें अन्तर्भाव दिखलाया गया है। 'प्रमेयद्वैविध्यात प्रमाणद्वैविध्यम्' की समीक्षा करते हए स्वार्थानुमान और परार्थानुमानको सिद्धि की गयी है। प्रत्यक्षके सांव्यवहारिक और अनिन्द्रिय प्रत्यक्षका निरूपण करते हुए अवग्रह ईहा, अवाय और धारणाका विचार किया गया है। "साधनात् साध्यविज्ञानम नुमानम्" का विचार करते हुए व्याप्ति, साध्य-साधनका स्वरूप निर्धारण किया गया है। हेतुके त्रैरूप्य और पाँचरूप्यकी समीक्षा करते हुए अन्यथानुपपन्नत्वं को ही हेतुका निर्दोष स्वरूप बताया है। पात्रकेसरीके त्रिलक्षणकदर्थनका उद्धरण देते हुये लिखा है-
अन्यथानुप्पन्नत्व यत्र तत्र त्रयेण कि।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण कि।
इसीके अनुकरणपर विद्यानन्दने पांचरूप्यके खण्डनके लिए निम्न कारिका रची है-
अन्यथानुपपन्नत्वं रूपैः कि पंचभिः कृतं।
नान्यथानुपपन्नत्वं रूपैः किं पंचभिः कृतं।
पदार्थके स्वरूपका विवेचन करते हुए उत्पाद, व्यय और घ्रौव्ययुक्त पदार्थकी स्थिति स्वीकार की है। प्रमाणके फलका विवेचन करते हुए उसे प्रमाणसे कञ्चित भिन्न और कञ्चित् अभिम बताया है। अन्त में ग्रन्थका सार और उसका उपयोग बताते हुए लिखा है-
इति प्रमाणस्य परीक्ष्य लक्षणं विशेषसंख्याविषयं फलं ततः।
प्रबुध्य तत्त्वं दृढशुद्धदृष्टयः प्रयान्तु विद्याफलमिष्टमुच्चकैः।।
३. पत्रपरीक्षा
इस लघुकाय ग्रन्थमें विभिन्न दर्शनोंकी अपेक्षा 'पत्र' के लक्षणोंको उद्धत कर जैन दृष्टिकोणसे 'पत्र' का लक्षण दिया गया है तथा प्रतिक्षा और हेतु इन दो अवयवोंको ही अनुमानका अंग बताया है। प्रतिपाद्याशयानुरोधसे दशावयवोंका भी समर्थन किया है। पर ये दश अवयव न्यायदर्शनप्रसिद्ध दशावयवोंसे भिन्न हैं। पत्रका लक्षण बताते हुए लिखा है- "पुनः प्रसिद्धावयवस्वादि विशेषणविशिष्टं वाक्यं पत्रं नाम, तस्य श्रुतिपथसमधिगम्यपदसमुदायविशेषरूप त्वात, पत्रस्य तद्विपरीताकारस्वात्। न च यद्यतोज्यत्तसन व्यपदिश्यतेतिप्रसंगात्। नीलादयोपि हि कंबलादिभ्योऽन्ये नाते नीलादिव्यपदेशहेतवः, तेषां तद्व्यपदेशहेतु तया प्रतीयमानत्वात्, किरीटादीनां पुरुषे तद्व्यपवेशहेतुत्ववत्, तद्योगात्तत्र मत्त्व र्धीयविधानात्। नीलादयः संति येषां ते नौलादयः कंजलाइय इति गुणवचनेभ्यो मत्वायस्वाभावप्रसिरिसि चरा, उपचारसोपचारादिसि ममः।" इस प्रकार पत्रका लक्षण लिखकर अन्य मतमतान्तरोंकी विस्तारपूर्वक समीक्षा की गयी है। वाद-विवादके लिए प्रतिशा और हेतु इन दो अवयवोंको ही अनुमानके अवयव माने गये हैं। नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक, कपिल, सुगत आदिके मतों की समीक्षा करते हुए स्फोटवादका भी निरसन किया है। बीच-बीच में प्राचीन आचार्योंके श्लोकोंको जस किया गया है। इस प्रकार इस लघुकाय ग्रन्थमें वाद-विषयक चर्चाका समावेश किया है।
४. सत्यशासनपरीक्षा
सत्यशासनपरोक्षाकी महत्ताके सम्बन्धमें पंडित महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने लिखा है- "तर्कग्रन्थोंके अभ्यासी विद्यानन्दके अतुल पाण्डित्य, तलस्पर्शी विवेचन, सूक्ष्मता तथा गहराईके साथ किये जानेवाले पदार्थोके स्पष्टीकरण एवं प्रसन्न भाषामें गूंथे गये युक्तिजालसे परिचित होंगे। उनके प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा और आप्तपरीक्षा प्रकरण अपने-अपने विषयके बेजोड़ निबन्ध हैं। ये ही निबन्ध तथा विद्यानन्दके अन्य ग्रन्थ आगे बने हुए समस्त दिगम्बर, श्वे. ताम्बर न्यायग्रन्थोके आधारभूत हैं। इनके ही विचार तथा शब्द उत्तरकालीन दिगम्बर, श्वेताम्बर न्यायग्रन्थोंपर अपनी अमिट छाप लगाये हुए हैं। यदि जैन न्यायके कोषागारसे विद्यानन्दके ग्रन्थों को अलग कर दिया जाय, तो वह एकदम निष्प्रभ-सा हो जायगा। उनको यह सत्यशासनपरीक्षा ऐसा एक तेजोमय रल हैं, जिससे जैन न्यायका आकाश दमदमा उठेगा । यद्यपि इसमें आये हुए पदार्थ फुटकर रूपसे उनके अष्टसहस्री आदि ग्रन्थों में खोजे जा सकते हैं, पर इतना सुन्दर और व्यवस्थित तथा अनेक नये प्रमेयोंका सुरुचिपूर्ण संकलन, जिसे स्वयं विद्यानन्दने ही किया है, अन्यत्र मिलना असम्भव है।"
इस ग्रंथमें निम्नलिखित शासनोंकी परीक्षा की गयी है-
१. पुरुषाद्वैत-शासन-परीक्षा।
२. शब्दाद्वैत-शासन परीक्षा।
३. विज्ञानाद्वैत-शासन-परीक्षा।
४. चित्राद्वैत-शासन-परीक्षा।
५. चार्वाक-शासन-परीक्षा।
६. बौद्ध-शासन-परीक्षा।
७. सेश्वरसांख्य शासन-परीक्षा।
८. निरीश्वरसांख्य-शासन-परीक्षा।
९. नैयायिक-शासन-परीक्षा।
१०. वैशेषिक शासन-परीक्षा।
११. मातृ-शासन-परीक्षा।
१२. प्रभाकर शासन-परीक्षा।
१३. तत्त्वोपप्लव-शासन-परीक्षा।
१४. अनेकान्त-शासन-परीक्षा।
उपर्युक्त शासनोंको दो श्रेणियों में विभक्त किया गया है- (१) अद्वैतवादी या अभेदवादी और (२) द्वैतवादी या भेदवादी। अद्वैतवादी सिद्धान्तोंमें एक तत्वकी प्रमुखता है और संसारके समस्त पदार्थ उस तत्वके ही रूपान्तर हैं। द्वैतवादी वे सम्प्रदाय हैं जो एक से अधिक तत्व मानते हैं। नैयायिक, वैशेषिक चार्वाक और बुद्ध आदि दर्शन एकाधिक तत्वोंको महत्त्व देने के कारण द्वैतवादी कहे जाते हैं।
पुरुषाद्वैतकी परीक्षा करते समय अनुमान द्वारा पूर्वपक्ष स्थापित किया है- ब्रह्मएक है, अद्वितीय है, अखण्ड ज्ञानानन्दमय है, सम्पूर्ण अवस्थाओंको व्याप्त करनेवाला है, प्रतिभासमात्र होनेसे। यतः एक ही ब्रह्म अनेक पदार्थों में जलमें चन्द्रमाकी तरह भिन्न-भिन्न प्रकारसे दिखलाई देता है, इसी प्रकार पृथ्वी आदि ब्रह्मविवर्त हैं, भिन्न तत्त्व नहीं। अतएव चराचर संसारकी उत्पत्ति ब्रह्मसे होता है। इस प्रकार पूर्वपथकी स्थापना कर उत्तरमें बताया है कि ब्रह्माद्वेत प्रत्यक्षविरुद्ध है। प्रत्यक्षसे बाह्य अर्थ परस्परभिन्न और सत्य दिखलायी पड़ते हैं, अतएव ब्रह्माद्वैत नहीं बन सकता। इस तरह प्रतिभासमायहेतुमें अनेक दोषोंका उद्भावन कर पुरुषाद्वैतकी समीक्षा की गयी है।
शब्दाद्वेतमें भी ब्रह्माद्वेतके समान दोष आते हैं। विज्ञानाद्वैतकी परीक्षाके प्रसंगमें पूर्वपथकी सिद्धिके लिए अनुमान उपस्थित करते हुए लिखा है कि सम्पूर्ण ग्राह्य-ग्राहकाकार ज्ञान भ्रान्त है। जिस प्रकार स्वप्न और इन्द्रजाल आदि ज्ञान भ्रान्त होते हैं, उसी प्रकार ग्राह्य-ग्राहकाकार आदि प्रत्यक्ष भी भ्रान्त हैं। भ्रान्त प्रत्यक्ष आदिके द्वारा जाने गये बाह्य अर्थ वास्तविक नहीं हैं, अन्यथा स्वप्नप्रत्यक्षको भी वास्तविक मानना होगा। इस तरह बाह्म अर्थ असम्भव है, स्वसंवित्ति ही खण्डशः प्रतिभासित होती हुई समस्त वेद्य-वेदक व्यवहारको करती है। अतः पृथ्वी, जल, अग्नि आदि पदार्थ ज्ञानसे भिन्न नहीं हैं।
उत्तर पक्षमें पूर्ववत् असिद्ध, विरुद्ध आदि दोषोंकी उद्भावना की गयी है। अनुमानसे संवित्तिका वैद्य-वेदकभाव मानने पर बाह्म अर्थ भी उसीसे वेद्य वेदकभाव मान लेना चाहिए, क्योंकि दोनोंमें कोई असर नहीं है। "सन्ति बहिरर्था: साधनदूषणप्रयोगात्" द्वारा बाह्य पदार्थ सिद्ध किये गये हैं। इसी प्रकार चित्राद्वैतकी परीक्षा भी की है।
चार्वाक, बौद्धशासन, सांख्यपरीक्षा, वैशेषिकशासनपरीक्षा, नैयायिकशासनपरीक्षा, मीमांसकपरीक्षा और भाट्ट-प्रभाकरशासनपरीक्षा भी तर्कपूर्वक लिखी गयी है।
इस ग्रन्थ पर तत्त्वार्थसूत्रका प्रभाव भी दिखलायी पड़ता है। विद्यानन्दने अपनेसे पूर्ववर्ती आचार्योंका प्रभाव ग्रहण किया है। बीच-बीच में अनेक ग्रन्थों के उद्धरण भी आये हैं।
५. विद्यानन्दमहोदय
आचार्य विद्यानन्दकी यह सबसे पहली रचना है। इसके पश्चात् ही उन्होंने तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक और अष्टसहस्री आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंकी रचना की है। यह ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं हैं, पर उसका नामोल्लेख श्लोक वार्त्तिक आदि ग्रन्थों में मिलता है। देवसूरिने तो अपने स्याद्वादरत्नकरमें इसकी एक पंक्ति भी उद्धत को है- "महोदये च कालान्तराविस्मरणकारणं हि धारणाभिधानं ज्ञानं संस्कारः प्रतीयते' इति वदन (विद्यानन्दः) संस्कारधारणयोरं काथ्यमचकथत्"। इस ग्रंथका नाम विद्यानन्दमहोदय और संक्षिप्त महोदय है।
६. श्रीपुर-पार्श्वनाथ स्तोत्र
श्रीपुर या अन्तरिक्षके पाश्वनाथको स्तुतिमें तीस पद्य लिखे गये हैं। इस स्तोत्रमें दर्शन और काव्यका गंगा-यमुनी संगम है। रूपक अलंकारकी योजना करते हुए आराध्यकी भक्तिकी प्रशंसा की गयी है। कवि कहता है-
शरण्यं नाथाऽर्हन भव भव भवारण्य-विगत्ति
च्युतानामस्माकं निरवकर-कारुण्य-निलय।
यत्तोऽगण्यात्पुण्याच्चिरसरमपेक्ष्यं तव पदम्
परिप्राप्ता भक्त्या वयमचल-लक्ष्मीगृहमिदम्॥
हे नाथ! अर्हन! आप संसारकी सममें भारमानेवाले हम मारियोंके लिए शरण हैं। आप हमें अपना आश्रय प्रदान कर संसार-परिभ्रमणसे मुक्त करें; यतः आप पूर्णतया करुणानिधान हैं। हम चिरकालसे आपके पदों-चरणोंकी अपेक्षा कर रहे हैं। आज बड़े पुण्योदयसे मोक्षालक्ष्मीके स्थानभूत आपके चरणोंकी भक्ति प्राप्त हुई।
इस पद्यमें भवारण्य, कारुण्यनिलय और लक्ष्मीगृह पदोंमें रूपक है। कविने भक्तिकी निष्ठा दिखलाते हुए अन्य दार्शनिकों द्वारा अभिमत आप्तका निरसन किया है। भाषाका प्रवाह और शैलीकी उदात्तता सहृदय पाठकके मनको सहज ही अपनी ओर आकृष्ट करती है।
त्वदन्येऽध्यक्षादि - प्रतिहत - वचो - युक्ति - विषया
विलुप्ताभा लोक-व्यपलपन - सम्बन्ध - मनसः।
भजन्ते नाऽऽप्तस्वं तदिह विदिता वञ्चन - कृति:
विसंवादस्तेषां प्रभवति तदर्थापरिगते।
इच्छा वा नियतेतरा न लभते सम्बन्धमोशेन तत्
कर्मप्राभवतः सुखादिविभवः पर्याप्तमेतेन हि।
मेत्ता कर्ममहीभृतां सकलविन्नानादिसिद्धस्ततो
यत्कारणाद-हत्ताक्षपादगदितं तत्स्यात्कथं श्रेयसे।।
प्रथम पद्यमें आप्तकी समीक्षा करते हुए कपिलादिकको अनाप्त बसाया गया है, क्योंकि वे प्रत्यक्षादिविरुद्ध अर्थका प्रतिपादन करनेवाले हैं। प्रामाणिकता रूप सच्ची ज्योतिसे शून्य हैं और लोगों को गुमराह करनेवाले हैं। चू कि लोकमें उनकी वच्चना प्रसिद्ध है तथा पदार्थोंका यथार्थ ज्ञान न होने से उनके विसम्वाद भी स्पष्ट है, अतएव वे आप्तताको प्राप्त नहीं होते। द्वितीय पद्यमें नैयायिक और वैशेषिकों द्वारा अभिमत ईश्वरेच्छाको जगतके कारणका खण्डन किया है। संसारके समस्त पदार्थोका निर्माण ईश्वरकी इच्छासे सम्भव नहीं है। यह इच्छा नियत-नित्य है अथवा अनियत-अनित्य। यदि नित्य है, तो एकस्वभाव ईश्वरकी तरह, वह भी एक स्वभाववाली हो जायगी और संसारके सभी कार्य एक समान होने लगेंगे। यदि अनित्य है, तो संसारके कार्य ही उत्पन्न नहीं हो पायेंगे। अतएव सुख-दुःखादि ईश्वरेच्छाजन्य नहीं, अपितु कर्मजन्य हैं। कोई भी परमात्मा अनादिसिद्ध सर्वज्ञ नहीं होता। वह कर्म समूहको नाश करके ही सर्वज्ञपद प्राप्त करता है। ऐसी अवस्थामें नैयायिक और वैशेषिकों द्वारा, जो अनादिसिद्ध सर्वज्ञ माना गया है, उससे जगत-कर्तृत्व सिद्ध नहीं हो सकता।
इस स्तोत्रमें सर्वसिद्धि, अनेकान्तसिद्धि, भावाभवात्मक वस्तुनिरूपण, सप्तभंगीनय, सुनय, निक्षेप, जीवादिपदार्थ, मोक्षमार्ग, वेदकी अपौरुषेयताका निराकरण, ईश्वरके जगत्कर्तृत्वका खण्डन, सर्वथा क्षणिकत्व और नित्यत्व मीमांसा, कपिलाभिमत पच्चीस तत्त्व समीक्षा, ब्रह्माद्वेत-मीमांसा, चार्वाक-समीक्षा आदि दार्शनिक विषयोंका समावेश किया गया है। भगवान पार्श्वनाथको राग-द्वेषका विजेता सिद्ध करते हुए, उनकी दिव्यवाणीका जयघोष किया है-
विदधशिवः मित्त-मासि-मुनिाथमा
नमित-सुर-रवि-भुवन-परगुरु-तीर्थकृत्व-सनामयत्।
उदय-पथ-गस्त - तदनु -विसृतिरशेष-तत्त्व-विभासिनी
जयति जिन जिन विजित-मनसिज भारती तव भासुरा॥
इस प्रकार विद्यानन्दने इस दार्शनिक ग्रन्थमें भी काव्यत्वका निर्वाह किया है।
७. तस्वार्थलोकवार्तिक
टीकाग्रन्थोंमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक है। यह ग्रन्थ आचार्य गृद्धपिच्छके सुप्रसिद्ध तत्वार्थसूत्रपर कुमारिलके मीमांसाश्लोक वार्त्तिक और धर्मकीर्तिके प्रमाणवार्त्तिककी तरह पद्यात्मक शैलीमें लिखा गया है। साथ ही पद्मवार्त्तिकों पर उन्होंने स्वयं भाष्य अथवा गद्यमें व्याख्यान भी लिखा है। यह जैनदर्शनके प्रमाणाभृत ग्रन्थों में प्रथमकोटिका ग्रन्थ है। विद्यानन्दने इसकी रचना करके कुमारिल, धर्मकीर्ति जैसे प्रसिद्ध तार्किकोंके जैनदर्शन पर किये गये आक्षेपोंका उत्तर दिया है। इस ग्रंथकी समता करनेवाला जैनदर्शनमें तो क्या अन्य किसी भी दर्शन में एक भी ग्रन्थ नहीं है।
इस ग्रन्थमें आगमके मूल आप्तकी सिद्धि कर पराभिमत आप्तका खण्डन किया गया है। विषयका वर्गीकरण तत्वार्थसूत्रके समान ही दश अध्यायोंमें है। चार्वाक आत्माका अस्तित्व न मानकर भूतचतुष्टयका अस्तित्व स्वीकार करता है। अत: विद्यानन्दने चार्वाकका खण्डन कर आत्मतत्त्वको सिद्धि की है। यतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको उत्पत्तिका स्थान आत्मा ही है। आत्माके सद्भाव में ही मोक्ष और मोक्षके कारणीभूत तत्वोंकी सिद्धि सम्भव है।
प्रथम अध्यायमें मोक्षमार्गके निरूपणके साथ-साथ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानका विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया है। बताया है-
ज्ञानमेव स्थिरीभूतं समाधिरिति चेन्मतम्।
तस्य प्रधानधर्मत्वे निवृत्तिस्तत्क्षयाद्यदि।।
तदा सोपि कुतो ज्ञानादुक्तदोषानुषंमतः
समाध्यंतरतश्चेन्न तुल्यपर्यनुयोगतः।।
स्पष्ट है कि आचार्य विद्यानन्दने तत्त्वार्थसूत्रके प्रमेयोंका अत्यन्त सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन इस ग्रंथमें किया है। प्रथम सूत्रके वार्तीकोंमें मोक्षोपायके सम्बन्धमे अत्यन्त मागे सारः चित किया है। जीवका अंतिम ध्येय मोक्ष है। बन्धनबद्ध आत्माको मुक्तिने अतिरिक्त और क्या चाहिए? अतः मुक्तिके साधनभूत रत्नत्रयमार्गका सुन्दर और गहन विवेचन किया है। अनन्तर सम्यग्दर्शनका स्वरूप, भेद, अधिगमोपाय, तत्त्वोंका स्वरूप और भेद, एवं सत्-संख्या-क्षेत्रादि तत्त्वज्ञानके साधनों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। पश्चात् सम्यग्ज्ञानका स्वरूप, सम्यग्ज्ञानके भेद, मत्तिज्ञान और श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञानके विषय, क्षेत्र, स्वामी आदिका निर्देश किंधा है। इस सन्दर्भ में सर्वसिद्धिका भी प्रकरण आया है, जिसमें मीमांसक द्वारा उठाई गयी शंकाओंका समाधान भी किया है।
श्रुतज्ञान बाह्य अर्थों को किस प्रकार विषय करता है, इस आशंकाका उत्तर देते हुए आचार्य विद्यानन्दने लिखा है-
श्रुतेनार्थ परिच्छिद्य वर्तमानो न बाध्यते।
अक्षजेनैव तत्तस्य बाह्यार्थालंबना स्थितिः।।
सामान्यमेव श्रुतं प्रकाशयति विशेषमेव परस्परनिरपेक्षमुभयमेवेति वा शंकामपाकरोति।
अनेकान्तात्मकं वस्तु संप्रकाशयति श्रुतं।
सद्बोधत्वाद्यथाक्षोत्थबोध इत्युपपत्तिमत्।।
नयेन व्यभिचारश्चेन्नः तस्य गुणभावतः।
स्वगोचरार्थधर्माण्यधर्मार्थप्रकाशनात्।।
श्रुतस्यावस्तुवेदिर परप्रमाण धुतः
संवृतेश्चेद् वृथैवेषा परमार्थस्य निश्चितेः।।
ननु स्वत एव परमार्थव्यवस्थिते: कुतश्चिदविद्याप्रक्षयान्न पुनः श्रुतविकल्पात्। तदुक्तं "शास्त्रेषु प्रक्रियाभेदेरविद्येवोपवण्यते। अनागमविकल्पा हि स्वर्य विद्योपवतंत" इति, तदयुक्त, परेष्टतत्त्वस्याप्रत्यक्ष विषयल्वात्तद्विपरीतस्याने कान्तात्मनो वस्तुनः सर्वदा परस्याप्यवभासनात्। लिङ्गस्य त्वस्याङ्गीकरणी यत्वात्।
अर्थात् श्रुतज्ञान द्वारा अर्थकी परिच्छिति कर प्रवृत्ति करनेवाला पुरुष अर्थक्रिया करने में उसी प्रकार बाधा नहीं प्राप्त करता है, जिस प्रकार इन्द्रियजन्य मति ज्ञान द्वारा अर्थको अवग्रह कर प्रवृत्ति करने वाला पुरुष बाधाको प्राप्त नहीं करता है। श्रुतज्ञान सामान्यका प्रकाशन करता है, विशेषका प्रकाशन करता है या निरपेक्ष दोनोंका प्रकाशन करता है? इस शंकाका उत्तर देते हुए आचार्य विद्यानन्दने बताया है- सामान्यविशेषात्मक अनेकान्तरूप वस्तुको अतज्ञान अवगत करता है । जिस प्रकार इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ सांध्यबहारिक प्रत्यक्षज्ञान अनेकान्तात्मक अर्थका प्रकाशन करता है, उसी प्रकार श्रुतज्ञान सामान्य विशेषात्मक वस्तुको प्रकाशित करने में समर्थ रहता है ।अतः “अनेकान्तात्मक वस्तु श्रुतं प्रकाशयति, सद्बोधत्वात" यह अनुमान समीचीन है। इसका नयके साथ भी दोष नहीं है, क्योंकि नयज्ञान मुख्यरूपसे एक धर्मको जानता है, पर गौणरूपसे वस्तु के अन्य धर्मों का भी वह जाता है। अतः श्रुतज्ञानका नयज्ञानके साथ दोष नहीं आता।
यदि श्रुतज्ञानको वस्तुभूत पदार्थका ज्ञापक नहीं माना जाय, तो प्रतिवादी या शिष्योंको स्वकीय तत्वोंका शान किस प्रकार कराया जा सकेगा। अतएव श्रुतज्ञान द्वारा ज्ञात वस्तु प्रमाणभूत है। इस प्रकार विद्यानन्दने तत्वार्थश्लोक वार्त्तिकमें प्रमेयोंका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है।
८. अष्टसहस्त्री
जैन न्यायका यह अत्यन्त महनीय ग्रन्थ है। इस एक ग्रन्थके अध्ययन कर लेनेपर अन्य ग्रन्थ पढ़ने की आवश्यकता नहीं। विद्यानन्दने स्वयं ही यह प्रकट किया है-
श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानै:।
विज्ञायेत ययैव हि स्वसमय-परसमयसद्भावः।।
अर्थात् हजार शास्त्रोंको सुननेसे क्या, केवल अष्टसहस्रीको सुन लेनेसे, स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्तोंका ज्ञान हो जायगा।
यह समन्तभद्रविरचित आप्तमीमांसा अपरनाम देवागमस्तोत्रपर लिखा गया विस्तृत एवं महत्वपूर्ण भाष्य है। विद्यानन्दने बड़ी ही कुशलताके साथ अकलंकदेव द्वारा रचित अष्टशतीको अष्टसहस्री में अन्तःप्रविष्ट कर लिया है। यह न्यायकी प्रान्जल भाषामें रचा गया दुरूह और जटिल ग्रन्थ है। स्वयं विद्यानन्दने इसे कष्टसहस्रो कहा है। उन्होंने लिखा है-
'कष्टसहस्री सिद्धा साष्टसहस्रीयमत्र में पुष्यात्'
इस ग्रन्थमें एकादश नियोग, विधि और भावनावाद और उनका निरसन, चार्वाकमत, तत्त्वोपाल्पववाद, संवेदनाद्वैत, चित्राद्वैत, ब्रह्माद्वैत, सर्वज्ञाभाव, अनुमानद्वारा सर्वज्ञसिद्धि, अर्हदसर्वज्ञसिद्धि आदि अनेक विषयों का समावेश किया गया है। यह ग्रंथ दश परिच्छेदोने विभक्त है। प्रथमपरिच्छेद सबसे बड़ा है और आधा ग्रन्थ इसी में समाप्त है।
प्रथमपरिच्छेदमें अनुमान द्वारा सर्वज्ञको सिद्धिके पश्चात् भाव, अभाव, भावाभवरूप, तत्वका निराकरण कर अनेकान्तात्मक वस्तुकी सिद्धी की गयी है। इस सन्दर्भमें भावापयववादी बौद्ध और अत्यन्ता भावप्रागभाव और प्रध्वंसाभाव अस्वीकार करनेवाले सांख्य मतमें दूषण दिया गया है। वस्तुत: इस अध्यायमें नैयायिक, सांख्य, वेदान्त, बौद्ध, मीमांसक आदि दर्शनोंका वस्तुतत्वके सम्बन्धमें विचार किया गया है। द्वितीय परिच्छेदमें द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत आदिका विचार किया है। तृतीयपरिच्छेदमें क्षणिकवादमें दोषोंका प्रतिपादन कर कार्यकरिणादि समन्वित कथञ्चितक्षणिक वस्तुकी सिद्धि को गयी है। प्रागभावको सर्वथा अभाव न मानकर कथम्चित सद्भावरूप सिद्ध किया गया है। वैशेषिक और नेयायिकाभिमत अवयव-अवयवी का विचार किया गया है। चतुर्थमें वैशेषिकाभिमत मैदैकान्तका खण्डन कर कथंचित् भेदाभेदात्मक वस्तुकी सिद्धि की है। पंचम परिच्छेद में बौद्धकी अपेक्षासे सर्वथा अनापेक्षिक बस्सुका निरसन किया है। षष्ठ परिच्छेदमें वस्तुकी सिदिके लिए प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीनों प्रमाणोंकी सिद्धि की गयी है। वेद प्रमाण्यवादकी समीक्षा भी विस्तारपूर्वक इसी परिच्छेदमें प्रतिपादित है। सप्तम परिच्छेदमें बौद्धाभिमत ज्ञानेकान्तकानिरसन किया गया है। उपेय और उपाय तत्त्वकी चर्चा भी इसी परिच्छेद में आयी है। अष्टम परिच्छेदमें देवपुरुषार्थवाद की समीक्षा है। नवममें पुण्य-पापकी समीक्षा की गयी है। दशममें सांख्य, नयायिक और बौखमतानुसार बन्ध, मोक्ष और उनके कारणों की चर्चा आयी है। वाक्य और नयका लक्षण भी इसी परिच्छेदमें वर्णित है।
९. युक्त्यनुशासनालङ्कार
स्वामी समन्तभद्रके ६४ कारिकात्मक दार्शनिक 'युक्त्यनुशासनस्तोत्र' पर विद्यानन्दने मध्यम परिमाणकी यह 'युक्त्यनुशासनालङ्कार' टीका लिखी है। टीला सरल एवं विशद है।
वस्तुतः समन्तभद्रने मुल कारिकाओंमें जिन प्रमेयोंकी स्थापना की है, उन पर विस्तारपूर्वक इसमें विचार किया है। अद्वैतवाद, द्वैतवाद, शाश्वतवाद, अशाश्वतवाद, वक्तव्यवाद, अक्तव्यदाद, अन्यतावाद, अनन्यतावाद, अपेक्षावाद, अनपेक्षावाद, हेतुवाद, अहेतुवाद, विज्ञानवाद, बहिरर्थवाद, दैववाद, पुरुषार्थवाद, पाप-पुण्यवाद, बन्धवाद, मोक्षवाद और बन्ध-मोक्षकारणवादकी समीक्षा विभिन्न दर्शनोंके पूर्वपक्षोंको उपस्थित कर की है। निश्चयतः समग्र दर्शनोंके प्रमेयोंका विचार इस ग्रन्थमें किया गया है। अतः हमें विद्यानन्दकी "श्रोतव्याष्टसहस्त्री श्रुतैः किमन्य सहनसंख्यानः। विज्ञायते ययेव स्वसमयपरसमय सद्भावः।।" आदि गर्वोक्ति स्वभावोक्सि प्रतीत होती है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
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डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री विद्यानंद 9वीं शताब्दी (प्राचीन)
आचार्य विद्यानन्द ऐसे सारस्वत हैं, जिन्होंने प्रमाण और दर्शनसम्बन्धी ग्रन्थोंकी रचनाकर श्रुतपरम्पराको गतिशील बनाया है। इनके जीवनवृत्तके सम्बन्धमें प्रामाणिक इतिवृत्त ज्ञात नहीं है। 'राजावलीकथे’ में विद्यानन्दिका उल्लेख आता है और संक्षिप्त जीवन-वृत्त भी उपलब्ध होता है, पर वे सारस्वताचार्य विद्यानन्द नहीं हैं, परम्परा-पोषक विद्यानन्दि हैं।
आचार्य विद्यानन्दकी रचनाओंके अवलोकनसे यह अवगत होता है कि ये दक्षिण भारतके कर्णाटक प्रान्तके निवासी थे। इसी प्रदेशको इनकी साधना और कार्मभूमि होनेका सौभाग्य प्राप्त है। किंवदन्तियोंके आधारपर यह माना जाता है कि इनका जन्म ब्राह्मण परिवारमें हुआ था। इस मान्यताकी सिद्धि इनके प्रखर पाण्डित्य और महती विद्वतासे भी होती है। इन्होंने कुमारावस्थामें ही वैशेषिक, न्याय, मीमांसा, वेदान्त आदि दर्शनोंका अध्ययन कर लिया था। इन आस्तिक दर्शनोंके अतिरिक्त ये दिङ्नाग, धर्मकीर्ति और प्रज्ञाकर आदि बौद्ध दार्शनिकोंके मन्तव्योंसे भी परिचित थे। शक संवत् १३२० के एक अभिलेखमें वर्णित नन्दिसंघके मुनियोंकी नामावलिमें विद्यानन्दका नाम प्राप्त कर यह अनुमान सहजमें लगाया जा सकता है कि इन्होंने नन्दिसंघके किसी आचार्य से दीक्षा ग्रहण की होगी। जैन-वाङ्मयका आलोडन-विलोडन कर इन्होंने अपूर्व पाण्डित्य प्राप्त किया। साथ ही मुनि-पद धारणकर तपश्चर्या द्वारा अपने चरितको भी निर्मल बनाया।
इनके पाण्डित्यकी ख्याति १० वी, ११ वीं शतीमें ही हो चुकी थी। यही कारण है कि बादिराजने (ई. सन् १०५५) अपने 'पार्श्वनाथचरित' नामक काव्यमें इनका स्मरण करते हुए लिखा है-
ऋजुसूत्र स्फुरद्रत्न विद्यानन्दस्य विस्मयः।
शृण्वतामप्यलङ्कारं दोप्तिरङ्गेषु रगति॥
आश्चर्य है कि विद्यानन्दके तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और अष्टसहस्री जैसे दीप्तिमाम अलङ्कारोंको सुननेवालोंके भी अङ्गोंमें दीप्ति आ जाती है, तो उन्हें धारण करनेवालोंकी बात ही क्या है?
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि सारस्वताचार्य विद्यानन्दकी कीति ई. सन् की १७वी शताब्दिमें हो व्याप्त हो चुकी थी। उनके महनीय व्यक्तीत्वका सभी पर प्रभाव था। दक्षिण से उत्तर तक उनकी प्रखर न्यायप्रतिभासे सभी आश्चर्यचकित थे।
आचार्य विद्यानन्दने अपनी किसी भी कृतिमें समयका निर्देश नहीं किया है। अत: इनके समयका निर्णय इनकी रचनाओंकी विषय-वस्तुके आधारपर ही सम्भव है। विद्यानन्द और इनकी कृतियोंपर पूर्ववर्ती ग्रन्थकार गृद्धपिच्छाचार्य, स्वामी समन्तभद्र, श्रीदत्त, सिद्धसेन, पात्रस्वामी, भट्टाकलङ्क, कुमारसेन, कुमार नन्दि भट्टारकका प्रभाव स्पष्टतया लक्षित होता है। अतः विद्यानन्द इन आचार्यों के पश्चात्वर्ती है। विद्यानन्दने 'तत्वार्थलोकवार्तिकमें’ श्रीदत्तके जल्प और वाद सम्बन्धी नियमोंका उल्लेख किया है। वादके दो भेद है- १. वीतरागवाद और २. आभिमानिकवाद। वीतरागवाद तत्त्व-जिज्ञासुओंमें होता है। अत:इसके दो अंग हैं- वादो और प्रतिवादी। आभिमानिकवाद जिगीषुओंमें होता है और उसके वादी, प्रतिवादी, सभापति और प्राश्निक- ये चार अङ्ग हैं। आभिमानिकवादके भी दो भेद हैं- (१) तात्विकवाद और (२) प्रातिभवाद। अपने इस वादसम्बन्धी कथनकी पुष्टीके लिए श्रीदत्तके मत्तका उपस्थापन किया है। जल्पके भी तात्वीक और प्रसिभ ये दो भेद किये गये हैं। इस प्रकार विद्यानन्दने अपनेसे पूर्ववर्ती श्रीदत्त और उनके 'जल्पनिर्णय' ग्रन्थका उल्लेख किया है।
आचार्य जिनसेन द्वितीयने श्रीदत्तका स्मरण किया है और जिनसेनका समय ई. सन् नौवीं शताब्दि है। अत: श्रीदत्तका सयय इनसे पहले होना चाहिए। आचार्य पूज्यपादने अपने जैनेन्द्र व्याकरणके "गणे श्रीदत्तस्य स्त्रियां" सूत्र द्वारा श्रीदत्तका उल्लेख किया है। यदि ये श्रीदत्त ही प्रस्तुत श्रीदत्त हों तो श्रीदत्तका समय पूज्यपादसे पूर्व अर्थात् छठी शताब्दिसे पूर्व आता है। अत: इस आधारसे विद्यानन्दका समय छठौं शताब्दिके बाद सिद्ध होता है।
विद्यानन्दने 'तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक' में सिद्धसेनके सन्मतिसूत्रके तीसरे काण्डगत "जो हेउवायपकम्खम्मि" आदि ४५वी गाथा उद्वत की है। एक दूसरी जगह "जावदिया वणवहा तावदिया होति पयवाया" आदि तीसरे काण्डको ४७वी गाथाका संस्कृतरूपान्तर दिया है। अतः विद्यानन्द सिद्धसेनके पश्चाद्वर्ती है, यह स्पष्ट है। पात्रस्वामी और भट्टाकलड़के उद्धरण और नामोल्लेख भी इनके ग्रन्थों में मिलते हैं। अकलङ्ककी 'अष्टशती' की तो अष्ट सहस्त्रों में आत्मसात् ही कर लिया गया है। अतएव इनका समय सातवीं शताब्दि के पश्चात् होना चाहिए। अकलंकके उत्तरवर्ती कुमारनन्दि भट्टारकके वादन्यायका ‘तत्वार्थश्लोकवात्तिक', 'प्रमाणपरीक्षा' और 'पत्रपरीक्षा’ में नामोल्लेख किया है, तथा वादन्यायसे कुछ कारिकाएँ भी उद्धृत की हैं। अतः विद्यानन्द कुमारनन्दि भट्टारकके उत्तरवर्ती हैं। कुमारनन्दि अकलंक और विद्यानन्दके मध्यमें हुए हैं। अतः इनका समय आठवीं और नौवीं शताब्दिका मध्यभाग होना चाहिए।
विद्यानन्दका प्रभाव माणिक्यनन्दि, वादिराज, प्रभाचन्द्र, अभयदेव, देवसूरि आदि आचार्योंपर है। माणिक्यनन्दिका समय विक्रमकी ११ वीं शती है और अकलंकदेवका समय विक्रमकी ८ वीं शती है। अतएव विद्यानन्दका समय माणिक्यनन्दि और अकलंकका मध्य अर्थात् ९ वीं शती होना चाहिए।
विद्यानन्दने अपने 'तत्वार्थश्लोकवार्त्तिक' और 'अष्ट्रसहस्री' में उद्योतकर, वाक्यदीपकार भर्तृहरि, कुमारिलभट्ट, प्रभाकर, प्रशस्तपाद, व्योमशिवाचार्य, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर, मण्डनमिश्र और सुरेश्वरमिश्रके मतोंकी समीक्षा की है। इन दार्शनिक विद्वानोंका समय ई. सन् ७८८ के पहले ही है। अतः विद्यानन्दके समयकी पूर्ववर्ती सीमा ७८८ ई. है और उत्तर सीमा पार्श्वनाथ चरित और न्यायविनिश्चयविवरण (प्रशस्ति श्लोक में विद्यानन्दका उल्लेख रहनेसे ई. सन् १०२५ है। इन दोनों समय-सीमाओंके बीच ही इनका स्थितिकाल है।
आचार्य विद्यानन्दने 'प्रशस्तपादभाष्य' पर लिखी गयी चार टीकाओंमेंसे व्योमशिवकी 'व्योमवती' टीकाके अतिरिक्त अन्य तीन टोकाओंमेसे किसी भी टीकाकी समीक्षा नहीं की है। अतः स्पष्ट है कि श्रीधरकी न्यायकन्दली (ई. सन् ९९१) और उदयनकी किरणावली (ई. सन् ९८४) के पूर्व विद्यानन्दका समय होना चाहिए। इस प्रकार इनकी उत्तर सीमा ई. सन् १०२५ से हटकर ई. सन् ९८४ हो जाती है।
'अष्टसहस्री' को अन्तिम प्रशस्तिमें बताया है कि कुमारसेनकी युक्तियोंके वर्धनार्थ ही यह रचना लिखी जा रही है। यथा-
पोरसेनाख्यमोक्षगे चारुगुणानध्यरत्नसिन्धुगिरिसततम्।
सारतरात्मध्यानगे मारमदाम्भोदपवनगिरिगह्वरायितु।
कष्टसहस्री सिद्धा साष्ट्रसहस्रीयमत्र मे पुष्यात्।
शश्वदभीष्टसहस्री कुमारसेनोक्तिवर्धमानार्थी|| (नर्द्धा)
इससे ध्वनित होता है कि कुमारसेनने आप्तमीमांपर कोई विवृति या विवरण लिखा होगा, जिसका स्पष्टीकरण विद्यानन्दने किया है। निश्चयत: कुमारसेन इनके पूर्ववर्ती हैं। कुमारसेनका समय ई. सन् ७८३ के पूर्व माना गया है। जिनसेन प्रथमने अपने हरिवंशपुराणमें कुमारसेनका उल्लेख किया है-
"आकूपारं यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्जवलम्।
मुरोः कुमारसेनस्य विचरत्यजितात्मकम्॥"
और जिनसेनने अपने हरिवंशपुराणकी रचना ई. सन् ७८३में की है। यहाँ यह विचारणीय है कि जिनसेन प्रथमने कुमारसेनका तो स्मरण किया है, पर विद्यानन्दका नहीं। अत: इससे सिद्ध होता है कि हरिवंशपुराणकी रचनाके समय तक विद्यानन्दको ऐसी ख्याति प्राप्त नहीं हुई थी, जिससे पुराणकार उनका स्मरण करता।
कतिपय निहनोंका अभिमत है कि निशानन्दका कार्यक्षेत्र दक्षिणमें गंगवंशका गंगवाड़ी प्रदेश है और विद्यानन्दकी स्थिति गंगनरेश शिवमार द्वितीय तथा राममल्ल सत्यवाक्य प्रथम (ई. सन् ८१०-८१६)के समयमें रही है। विद्यानन्दने प्रायः अपनी समस्त कृतियोंकी रचना गंगनरेशोंके राज्यकालमें की है। अतः सम्भव है कि पुन्नाटवंशी जिनसेनने इनका स्मरण न किया हो।
जैनन्यायके उद्भट विद्वान डॉ. पं. दरबारीलाल कोठियाने विद्यानन्दके जीवन और समय पर विशेष विचार किया है। उन्होंने निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है-
“विद्यानन्द मङ्गनरेश शिवमार द्वितीय (ई. सन् ८१०) और राचल्ल सत्य वाक्य प्रथम (ई. सन् ८१६) के समकालीन हैं। और इन्होंने अपनी कृत्तियाँ प्रायः इन्हींके राज्य-समयमें बनाई हैं, विद्यानन्दमहोदय और तत्त्वार्थश्लोक वार्त्तिकको शिवमार द्वितीयके और आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा तथा युक्त्यनुशासनालकृति ये तीन कृतियाँ सुचमल्ल सत्यवाक्य प्रथम (ई. ४१६-८३०) के राज्यकाल में बनी जान पड़ती है। अष्टसहस्त्री, श्लोकवार्त्तिकके बादकी और आप्तपरीक्षा आदिके पूर्वकी-रचना है- करीब ई. ८१०-८१५ में रची गयी प्रतीत होती है तथा पत्रपरीक्षा, श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र और सत्यशासनपरीक्षा ये तीन रचनाएं ई. सन् ८३०-८४० में रची ज्ञात होती है। इससे भी आचार्य विद्यानन्दका समय ई. सम् ७७५-८४० ई. प्रमाणित होता है।
डॉ. कोठिया द्वारा निर्धारित समय भी उपर्युक्त समयके समकक्ष है। अतएव आचार्य विद्यानन्दका समय ई. सन् की नवम शती है।
आचार्य विद्यानन्दकी रचनाओंको दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है- १. स्वतन्त्र ग्रन्थ और २. टीका ग्रन्थ।
स्वतन्त्र ग्रन्थ
इनकी स्वतंत्ररचनाएँ निम्नलिखित हैं-
१. आप्तपरीक्षा स्वोपज्ञवृत्तिसहित
२. प्रमाणपरीक्षा
३. पत्रपरीक्षा
४. सत्यशासनपरीक्षा
५. श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र
६. विद्यानन्दमहोदय
टीकाग्रंथ
१. अष्ठसहस्त्री
२. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक
३. युक्त्यनुशासनालङ्कार
१. आप्त-परीक्षा स्वोपज्ञवृत्तिसहित
इस ग्रन्थमें १२४ कारिकाएँ, स्वोपज्ञ वृत्ति सहित निबद्ध हैं। इस ग्रंथमें परमेष्ठीगुणस्तोत्रकी आवश्यकता प्रतिपादित करने के पश्चात् पर-अपर निःश्रेयस का स्वरूप, बन्ध और बन्धकारणोंकी सिद्धि, उनके अभावकी सिद्धि, सहेतुक निर्जराकी सिद्धि परमेष्ठीगत प्रसादका लक्षण, मंगलकी नियुक्ति और अर्थ, शास्त्रारम्भमें परमेष्ठीगुणस्तोत्रकी आवश्यकता एवं पराभिमत आप्तोके निराकरणकी सार्थकता बतलायी गयी है।
ईश्वर परीक्षा प्रकरणमें ईश्वरके मोक्षमार्गोपदेशकी असम्भवता, वैशेषिका भिमत षट्पदार्थ समीक्षा, द्रव्यलक्षणके योगसे एक द्रव्यपदार्थकी असिद्धि, द्रव्यलक्षणत्वके योगसे दो द्रव्यलक्षणों में एकताकी असिद्धि, द्रव्यत्वके योगसे एक द्रव्यपदार्थकी असिद्धि, गुणत्वादिके योगसे एक-एक गुणादि पदार्थोकी असिद्धि, "इहेदम् प्रत्यय' सामान्यसे भी द्रव्यादि पदार्थोकी असिद्धि, संग्रहसे भी द्रव्यादि पदार्थोकी असिद्धि, द्रव्यत्वाभिसम्बन्धसे एक द्रव्यपदार्थ माननेका निरास, गुणत्वादि अभिसम्बन्धसे एक-एक गुणादिपदार्थ माननेका निरास, पृथ्वीवादि अभिसम्बन्धसे एक-एक पृथ्वी आदि द्रव्य मानने का निरास, संग्रहके तीन भेद और उनकी समीक्षा, ईश्वरके जगत् कर्तृत्वकी समालोचना, ईश्वरके नित्य ज्ञान माननेमें दोष-प्रदर्शन, ईश्वरके अनित्यज्ञानकी मीमांसा, अव्यापक ज्ञानमें दोष, ईश्वरके नित्य व्यापक ज्ञानमें दोष, समवायका स्वरूप और समीक्षा, संयोग और समवायकी व्यर्थता, सत्ता और समवायके एकत्वका खण्डन, सत्ताको स्वतन्त्र पदार्थ न मानने में दोष एवं ईश्वर-परीक्षाका उपसंहार आदि विषय वर्णित हैं।
कपिल-परीक्षाके अन्तर्गत कपिलके मोक्षमार्गोपदेशकत्वका निरास, प्रधानके मुक्तामुक्तत्वकी कल्पना और उसकी समीक्षा एवं प्रधानके मोक्षमार्गोपदेशकत्वका समालोचन आया है।
सुगत-परीक्षामे सुगतके आप्तत्वका परीक्षण किया गया है। इस प्रकरणमें सुगतके मोक्षमार्गोपदेशकत्वका निराकरण, सौत्रान्तिकोंके मतकी समीक्षा, योगाचार-संवेदनाद्वैत और चित्राद्वैतका समालोचन विस्तारपूर्वक किया गया है।
परमपुरुष-परीक्षाके अन्तर्गत ब्रह्माद्वैत-प्रतिभाससामान्य अद्वैतको समीक्षा आयी है।
अर्हंत्सर्वशसिद्धि-प्रकरणमें प्रमैयत्वहेतुसे सामान्यसर्वज्ञकी सिद्धि की गयी है। सर्वज्ञाभाववादी भट्टके मतको उपस्थितकर उसके मतका निराकरण किया गया है। पाचकालानुसे मेंहंकामा पनि लिया और पुष्टिके लिए प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, आगम और अभाव प्रमाणके द्वारा सर्वज्ञके बाधकत्वका निरास किया गया है।
अर्हत-कर्मभूभृत्भेतृत्व-सिद्धिप्रसङ्गमें सञ्चित और आगामी कर्मोंके निरोधका कारण संवर और निर्जराको सिद्ध किया है। इस सन्दर्भमें नैयायिक, वैशेषिक और सांख्य द्वारा अभिमत कर्मके स्वरूपका विवेचन कर उसकी पौद्गलिकत्ता सिद्ध की गयी है।
अर्हन्तको मोक्षमार्गका नेता सिद्ध करते हुए मोक्ष, आत्मा, संवर, निर्जरा आदिके स्वरूप और भेदोंका प्रतिपादन किया है। नास्तिक मतका प्रतिवाद कर मोक्षमार्गका स्वरूप और उसके प्रणेताको सर्वज्ञ सिद्ध किया गया है। यह ग्रन्थ निम्नलिखित प्रकरणोंमें विभक्त है-
१. परमेष्ठीगुणस्तोत्र
२. परमेष्ठोगुणस्तोत्रका प्रयोजन
३. ईश्वरपरीक्षा
४. कपिलपरीक्षा
५. सुगतपरीक्षा
६. परमपुरुषपरीक्षा या ब्रह्माद्वेतपरीक्षा
७. अर्हत्सर्वज्ञसिद्धि
८. अर्हत्कर्मभूभृभेतृत्वसिद्धि
९. अर्हन्मोक्षमार्गनेतुत्वसिद्धि
१०. अर्हद्वन्द्यत्वसिद्धि
२. प्रमाणपरीक्षा
प्रमाणपरीक्षामें प्रमाणका स्वरूप, प्रामाण्य की उत्पत्ति एवं ज्ञप्ति, प्रमाणकी संख्या, विषय एवं उसके फल पर विचार किया गया है। आरम्भमें 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं’ प्रमाणत्वान्यथानुपपत्तेः। सन्निकर्षादिरशानमपि प्रमाणं स्वार्थप्रमिती साधकतमत्वात्, इति नाशंकनीयं, ग प्रमिती नाकामाजिना। अर्थात् सम्यग्ज्ञान प्रमाण है, क्योंकि प्रमाणत्वकी उपपत्ति अन्यथा नहीं हो सकती। सन्निकर्षादि अज्ञानमय होने के कारण प्रमाण नहीं हैं, और न वे अर्थक्रियाके प्रति साधकतम ही हैं, जो स्वप्नमितिके प्रति साधकत्तम होता है, वही प्रमाण हो सकता है, अन्य नहीं। इस प्रकार ज्ञानको प्रमाण सिद्ध कर सन्निकर्ष, इन्द्रिय आदिका खण्डन किया है। प्रमाणके प्रसंगमें तादरूप्प, तदुत्पत्ति और तदाकारताका भी निरसन किया गया है। विद्यानन्दने अपने समालोचनको पुष्ट बनानेके हेतु 'उक्तञ्च' कहकर अन्य व्यक्तियोंको कारिकाएँ भी उद्धृत की हैं।
इस सन्दर्भमें सविकल्पक और निर्विकल्पक ज्ञानको प्रामाणताका भी विचार किया गया है। सौगत अभ्यास, प्रकरण, बुद्धिपाटव आदिके कारण निर्विकल्पकको प्रमाण मानता है। विद्यानन्दने इस सन्दर्भ में सौगतमतकी सुन्दर समीक्षा की है और स्वलक्षणका भी निरसन किया है। क्षणिकवादी बौद्ध स्थूलपदार्थों का अस्तित्व स्वीकार न कर स्वलक्षण परमाणु पदार्थको ही ज्ञानका विषय मानता है। ब्रह्माद्वैतवाद और स्वलक्षणवादकी समीक्षा कर स्वप्नज्ञानकी प्रामाणिकताका भी निरसन किया है। 'नैक स्वस्मात्प्रजायते' को उद्धत करते हुए ज्ञानके ज्ञानान्तरवेद्यत्वका खण्डन किया है।
कपिलमत-समीक्षा और तत्वोपप्लवादका विचार-विमर्श करते हुए अनुमान और आगम प्रमाणको सिद्धि की गयी है। यहाँ उपमान और अर्थापत्तिका प्रत्यभिज्ञान और अनुमानमें अन्तर्भाव दिखलाया गया है। 'प्रमेयद्वैविध्यात प्रमाणद्वैविध्यम्' की समीक्षा करते हए स्वार्थानुमान और परार्थानुमानको सिद्धि की गयी है। प्रत्यक्षके सांव्यवहारिक और अनिन्द्रिय प्रत्यक्षका निरूपण करते हुए अवग्रह ईहा, अवाय और धारणाका विचार किया गया है। "साधनात् साध्यविज्ञानम नुमानम्" का विचार करते हुए व्याप्ति, साध्य-साधनका स्वरूप निर्धारण किया गया है। हेतुके त्रैरूप्य और पाँचरूप्यकी समीक्षा करते हुए अन्यथानुपपन्नत्वं को ही हेतुका निर्दोष स्वरूप बताया है। पात्रकेसरीके त्रिलक्षणकदर्थनका उद्धरण देते हुये लिखा है-
अन्यथानुप्पन्नत्व यत्र तत्र त्रयेण कि।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण कि।
इसीके अनुकरणपर विद्यानन्दने पांचरूप्यके खण्डनके लिए निम्न कारिका रची है-
अन्यथानुपपन्नत्वं रूपैः कि पंचभिः कृतं।
नान्यथानुपपन्नत्वं रूपैः किं पंचभिः कृतं।
पदार्थके स्वरूपका विवेचन करते हुए उत्पाद, व्यय और घ्रौव्ययुक्त पदार्थकी स्थिति स्वीकार की है। प्रमाणके फलका विवेचन करते हुए उसे प्रमाणसे कञ्चित भिन्न और कञ्चित् अभिम बताया है। अन्त में ग्रन्थका सार और उसका उपयोग बताते हुए लिखा है-
इति प्रमाणस्य परीक्ष्य लक्षणं विशेषसंख्याविषयं फलं ततः।
प्रबुध्य तत्त्वं दृढशुद्धदृष्टयः प्रयान्तु विद्याफलमिष्टमुच्चकैः।।
३. पत्रपरीक्षा
इस लघुकाय ग्रन्थमें विभिन्न दर्शनोंकी अपेक्षा 'पत्र' के लक्षणोंको उद्धत कर जैन दृष्टिकोणसे 'पत्र' का लक्षण दिया गया है तथा प्रतिक्षा और हेतु इन दो अवयवोंको ही अनुमानका अंग बताया है। प्रतिपाद्याशयानुरोधसे दशावयवोंका भी समर्थन किया है। पर ये दश अवयव न्यायदर्शनप्रसिद्ध दशावयवोंसे भिन्न हैं। पत्रका लक्षण बताते हुए लिखा है- "पुनः प्रसिद्धावयवस्वादि विशेषणविशिष्टं वाक्यं पत्रं नाम, तस्य श्रुतिपथसमधिगम्यपदसमुदायविशेषरूप त्वात, पत्रस्य तद्विपरीताकारस्वात्। न च यद्यतोज्यत्तसन व्यपदिश्यतेतिप्रसंगात्। नीलादयोपि हि कंबलादिभ्योऽन्ये नाते नीलादिव्यपदेशहेतवः, तेषां तद्व्यपदेशहेतु तया प्रतीयमानत्वात्, किरीटादीनां पुरुषे तद्व्यपवेशहेतुत्ववत्, तद्योगात्तत्र मत्त्व र्धीयविधानात्। नीलादयः संति येषां ते नौलादयः कंजलाइय इति गुणवचनेभ्यो मत्वायस्वाभावप्रसिरिसि चरा, उपचारसोपचारादिसि ममः।" इस प्रकार पत्रका लक्षण लिखकर अन्य मतमतान्तरोंकी विस्तारपूर्वक समीक्षा की गयी है। वाद-विवादके लिए प्रतिशा और हेतु इन दो अवयवोंको ही अनुमानके अवयव माने गये हैं। नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक, कपिल, सुगत आदिके मतों की समीक्षा करते हुए स्फोटवादका भी निरसन किया है। बीच-बीच में प्राचीन आचार्योंके श्लोकोंको जस किया गया है। इस प्रकार इस लघुकाय ग्रन्थमें वाद-विषयक चर्चाका समावेश किया है।
४. सत्यशासनपरीक्षा
सत्यशासनपरोक्षाकी महत्ताके सम्बन्धमें पंडित महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने लिखा है- "तर्कग्रन्थोंके अभ्यासी विद्यानन्दके अतुल पाण्डित्य, तलस्पर्शी विवेचन, सूक्ष्मता तथा गहराईके साथ किये जानेवाले पदार्थोके स्पष्टीकरण एवं प्रसन्न भाषामें गूंथे गये युक्तिजालसे परिचित होंगे। उनके प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा और आप्तपरीक्षा प्रकरण अपने-अपने विषयके बेजोड़ निबन्ध हैं। ये ही निबन्ध तथा विद्यानन्दके अन्य ग्रन्थ आगे बने हुए समस्त दिगम्बर, श्वे. ताम्बर न्यायग्रन्थोके आधारभूत हैं। इनके ही विचार तथा शब्द उत्तरकालीन दिगम्बर, श्वेताम्बर न्यायग्रन्थोंपर अपनी अमिट छाप लगाये हुए हैं। यदि जैन न्यायके कोषागारसे विद्यानन्दके ग्रन्थों को अलग कर दिया जाय, तो वह एकदम निष्प्रभ-सा हो जायगा। उनको यह सत्यशासनपरीक्षा ऐसा एक तेजोमय रल हैं, जिससे जैन न्यायका आकाश दमदमा उठेगा । यद्यपि इसमें आये हुए पदार्थ फुटकर रूपसे उनके अष्टसहस्री आदि ग्रन्थों में खोजे जा सकते हैं, पर इतना सुन्दर और व्यवस्थित तथा अनेक नये प्रमेयोंका सुरुचिपूर्ण संकलन, जिसे स्वयं विद्यानन्दने ही किया है, अन्यत्र मिलना असम्भव है।"
इस ग्रंथमें निम्नलिखित शासनोंकी परीक्षा की गयी है-
१. पुरुषाद्वैत-शासन-परीक्षा।
२. शब्दाद्वैत-शासन परीक्षा।
३. विज्ञानाद्वैत-शासन-परीक्षा।
४. चित्राद्वैत-शासन-परीक्षा।
५. चार्वाक-शासन-परीक्षा।
६. बौद्ध-शासन-परीक्षा।
७. सेश्वरसांख्य शासन-परीक्षा।
८. निरीश्वरसांख्य-शासन-परीक्षा।
९. नैयायिक-शासन-परीक्षा।
१०. वैशेषिक शासन-परीक्षा।
११. मातृ-शासन-परीक्षा।
१२. प्रभाकर शासन-परीक्षा।
१३. तत्त्वोपप्लव-शासन-परीक्षा।
१४. अनेकान्त-शासन-परीक्षा।
उपर्युक्त शासनोंको दो श्रेणियों में विभक्त किया गया है- (१) अद्वैतवादी या अभेदवादी और (२) द्वैतवादी या भेदवादी। अद्वैतवादी सिद्धान्तोंमें एक तत्वकी प्रमुखता है और संसारके समस्त पदार्थ उस तत्वके ही रूपान्तर हैं। द्वैतवादी वे सम्प्रदाय हैं जो एक से अधिक तत्व मानते हैं। नैयायिक, वैशेषिक चार्वाक और बुद्ध आदि दर्शन एकाधिक तत्वोंको महत्त्व देने के कारण द्वैतवादी कहे जाते हैं।
पुरुषाद्वैतकी परीक्षा करते समय अनुमान द्वारा पूर्वपक्ष स्थापित किया है- ब्रह्मएक है, अद्वितीय है, अखण्ड ज्ञानानन्दमय है, सम्पूर्ण अवस्थाओंको व्याप्त करनेवाला है, प्रतिभासमात्र होनेसे। यतः एक ही ब्रह्म अनेक पदार्थों में जलमें चन्द्रमाकी तरह भिन्न-भिन्न प्रकारसे दिखलाई देता है, इसी प्रकार पृथ्वी आदि ब्रह्मविवर्त हैं, भिन्न तत्त्व नहीं। अतएव चराचर संसारकी उत्पत्ति ब्रह्मसे होता है। इस प्रकार पूर्वपथकी स्थापना कर उत्तरमें बताया है कि ब्रह्माद्वेत प्रत्यक्षविरुद्ध है। प्रत्यक्षसे बाह्य अर्थ परस्परभिन्न और सत्य दिखलायी पड़ते हैं, अतएव ब्रह्माद्वैत नहीं बन सकता। इस तरह प्रतिभासमायहेतुमें अनेक दोषोंका उद्भावन कर पुरुषाद्वैतकी समीक्षा की गयी है।
शब्दाद्वेतमें भी ब्रह्माद्वेतके समान दोष आते हैं। विज्ञानाद्वैतकी परीक्षाके प्रसंगमें पूर्वपथकी सिद्धिके लिए अनुमान उपस्थित करते हुए लिखा है कि सम्पूर्ण ग्राह्य-ग्राहकाकार ज्ञान भ्रान्त है। जिस प्रकार स्वप्न और इन्द्रजाल आदि ज्ञान भ्रान्त होते हैं, उसी प्रकार ग्राह्य-ग्राहकाकार आदि प्रत्यक्ष भी भ्रान्त हैं। भ्रान्त प्रत्यक्ष आदिके द्वारा जाने गये बाह्य अर्थ वास्तविक नहीं हैं, अन्यथा स्वप्नप्रत्यक्षको भी वास्तविक मानना होगा। इस तरह बाह्म अर्थ असम्भव है, स्वसंवित्ति ही खण्डशः प्रतिभासित होती हुई समस्त वेद्य-वेदक व्यवहारको करती है। अतः पृथ्वी, जल, अग्नि आदि पदार्थ ज्ञानसे भिन्न नहीं हैं।
उत्तर पक्षमें पूर्ववत् असिद्ध, विरुद्ध आदि दोषोंकी उद्भावना की गयी है। अनुमानसे संवित्तिका वैद्य-वेदकभाव मानने पर बाह्म अर्थ भी उसीसे वेद्य वेदकभाव मान लेना चाहिए, क्योंकि दोनोंमें कोई असर नहीं है। "सन्ति बहिरर्था: साधनदूषणप्रयोगात्" द्वारा बाह्य पदार्थ सिद्ध किये गये हैं। इसी प्रकार चित्राद्वैतकी परीक्षा भी की है।
चार्वाक, बौद्धशासन, सांख्यपरीक्षा, वैशेषिकशासनपरीक्षा, नैयायिकशासनपरीक्षा, मीमांसकपरीक्षा और भाट्ट-प्रभाकरशासनपरीक्षा भी तर्कपूर्वक लिखी गयी है।
इस ग्रन्थ पर तत्त्वार्थसूत्रका प्रभाव भी दिखलायी पड़ता है। विद्यानन्दने अपनेसे पूर्ववर्ती आचार्योंका प्रभाव ग्रहण किया है। बीच-बीच में अनेक ग्रन्थों के उद्धरण भी आये हैं।
५. विद्यानन्दमहोदय
आचार्य विद्यानन्दकी यह सबसे पहली रचना है। इसके पश्चात् ही उन्होंने तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक और अष्टसहस्री आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंकी रचना की है। यह ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं हैं, पर उसका नामोल्लेख श्लोक वार्त्तिक आदि ग्रन्थों में मिलता है। देवसूरिने तो अपने स्याद्वादरत्नकरमें इसकी एक पंक्ति भी उद्धत को है- "महोदये च कालान्तराविस्मरणकारणं हि धारणाभिधानं ज्ञानं संस्कारः प्रतीयते' इति वदन (विद्यानन्दः) संस्कारधारणयोरं काथ्यमचकथत्"। इस ग्रंथका नाम विद्यानन्दमहोदय और संक्षिप्त महोदय है।
६. श्रीपुर-पार्श्वनाथ स्तोत्र
श्रीपुर या अन्तरिक्षके पाश्वनाथको स्तुतिमें तीस पद्य लिखे गये हैं। इस स्तोत्रमें दर्शन और काव्यका गंगा-यमुनी संगम है। रूपक अलंकारकी योजना करते हुए आराध्यकी भक्तिकी प्रशंसा की गयी है। कवि कहता है-
शरण्यं नाथाऽर्हन भव भव भवारण्य-विगत्ति
च्युतानामस्माकं निरवकर-कारुण्य-निलय।
यत्तोऽगण्यात्पुण्याच्चिरसरमपेक्ष्यं तव पदम्
परिप्राप्ता भक्त्या वयमचल-लक्ष्मीगृहमिदम्॥
हे नाथ! अर्हन! आप संसारकी सममें भारमानेवाले हम मारियोंके लिए शरण हैं। आप हमें अपना आश्रय प्रदान कर संसार-परिभ्रमणसे मुक्त करें; यतः आप पूर्णतया करुणानिधान हैं। हम चिरकालसे आपके पदों-चरणोंकी अपेक्षा कर रहे हैं। आज बड़े पुण्योदयसे मोक्षालक्ष्मीके स्थानभूत आपके चरणोंकी भक्ति प्राप्त हुई।
इस पद्यमें भवारण्य, कारुण्यनिलय और लक्ष्मीगृह पदोंमें रूपक है। कविने भक्तिकी निष्ठा दिखलाते हुए अन्य दार्शनिकों द्वारा अभिमत आप्तका निरसन किया है। भाषाका प्रवाह और शैलीकी उदात्तता सहृदय पाठकके मनको सहज ही अपनी ओर आकृष्ट करती है।
त्वदन्येऽध्यक्षादि - प्रतिहत - वचो - युक्ति - विषया
विलुप्ताभा लोक-व्यपलपन - सम्बन्ध - मनसः।
भजन्ते नाऽऽप्तस्वं तदिह विदिता वञ्चन - कृति:
विसंवादस्तेषां प्रभवति तदर्थापरिगते।
इच्छा वा नियतेतरा न लभते सम्बन्धमोशेन तत्
कर्मप्राभवतः सुखादिविभवः पर्याप्तमेतेन हि।
मेत्ता कर्ममहीभृतां सकलविन्नानादिसिद्धस्ततो
यत्कारणाद-हत्ताक्षपादगदितं तत्स्यात्कथं श्रेयसे।।
प्रथम पद्यमें आप्तकी समीक्षा करते हुए कपिलादिकको अनाप्त बसाया गया है, क्योंकि वे प्रत्यक्षादिविरुद्ध अर्थका प्रतिपादन करनेवाले हैं। प्रामाणिकता रूप सच्ची ज्योतिसे शून्य हैं और लोगों को गुमराह करनेवाले हैं। चू कि लोकमें उनकी वच्चना प्रसिद्ध है तथा पदार्थोंका यथार्थ ज्ञान न होने से उनके विसम्वाद भी स्पष्ट है, अतएव वे आप्तताको प्राप्त नहीं होते। द्वितीय पद्यमें नैयायिक और वैशेषिकों द्वारा अभिमत ईश्वरेच्छाको जगतके कारणका खण्डन किया है। संसारके समस्त पदार्थोका निर्माण ईश्वरकी इच्छासे सम्भव नहीं है। यह इच्छा नियत-नित्य है अथवा अनियत-अनित्य। यदि नित्य है, तो एकस्वभाव ईश्वरकी तरह, वह भी एक स्वभाववाली हो जायगी और संसारके सभी कार्य एक समान होने लगेंगे। यदि अनित्य है, तो संसारके कार्य ही उत्पन्न नहीं हो पायेंगे। अतएव सुख-दुःखादि ईश्वरेच्छाजन्य नहीं, अपितु कर्मजन्य हैं। कोई भी परमात्मा अनादिसिद्ध सर्वज्ञ नहीं होता। वह कर्म समूहको नाश करके ही सर्वज्ञपद प्राप्त करता है। ऐसी अवस्थामें नैयायिक और वैशेषिकों द्वारा, जो अनादिसिद्ध सर्वज्ञ माना गया है, उससे जगत-कर्तृत्व सिद्ध नहीं हो सकता।
इस स्तोत्रमें सर्वसिद्धि, अनेकान्तसिद्धि, भावाभवात्मक वस्तुनिरूपण, सप्तभंगीनय, सुनय, निक्षेप, जीवादिपदार्थ, मोक्षमार्ग, वेदकी अपौरुषेयताका निराकरण, ईश्वरके जगत्कर्तृत्वका खण्डन, सर्वथा क्षणिकत्व और नित्यत्व मीमांसा, कपिलाभिमत पच्चीस तत्त्व समीक्षा, ब्रह्माद्वेत-मीमांसा, चार्वाक-समीक्षा आदि दार्शनिक विषयोंका समावेश किया गया है। भगवान पार्श्वनाथको राग-द्वेषका विजेता सिद्ध करते हुए, उनकी दिव्यवाणीका जयघोष किया है-
विदधशिवः मित्त-मासि-मुनिाथमा
नमित-सुर-रवि-भुवन-परगुरु-तीर्थकृत्व-सनामयत्।
उदय-पथ-गस्त - तदनु -विसृतिरशेष-तत्त्व-विभासिनी
जयति जिन जिन विजित-मनसिज भारती तव भासुरा॥
इस प्रकार विद्यानन्दने इस दार्शनिक ग्रन्थमें भी काव्यत्वका निर्वाह किया है।
७. तस्वार्थलोकवार्तिक
टीकाग्रन्थोंमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक है। यह ग्रन्थ आचार्य गृद्धपिच्छके सुप्रसिद्ध तत्वार्थसूत्रपर कुमारिलके मीमांसाश्लोक वार्त्तिक और धर्मकीर्तिके प्रमाणवार्त्तिककी तरह पद्यात्मक शैलीमें लिखा गया है। साथ ही पद्मवार्त्तिकों पर उन्होंने स्वयं भाष्य अथवा गद्यमें व्याख्यान भी लिखा है। यह जैनदर्शनके प्रमाणाभृत ग्रन्थों में प्रथमकोटिका ग्रन्थ है। विद्यानन्दने इसकी रचना करके कुमारिल, धर्मकीर्ति जैसे प्रसिद्ध तार्किकोंके जैनदर्शन पर किये गये आक्षेपोंका उत्तर दिया है। इस ग्रंथकी समता करनेवाला जैनदर्शनमें तो क्या अन्य किसी भी दर्शन में एक भी ग्रन्थ नहीं है।
इस ग्रन्थमें आगमके मूल आप्तकी सिद्धि कर पराभिमत आप्तका खण्डन किया गया है। विषयका वर्गीकरण तत्वार्थसूत्रके समान ही दश अध्यायोंमें है। चार्वाक आत्माका अस्तित्व न मानकर भूतचतुष्टयका अस्तित्व स्वीकार करता है। अत: विद्यानन्दने चार्वाकका खण्डन कर आत्मतत्त्वको सिद्धि की है। यतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको उत्पत्तिका स्थान आत्मा ही है। आत्माके सद्भाव में ही मोक्ष और मोक्षके कारणीभूत तत्वोंकी सिद्धि सम्भव है।
प्रथम अध्यायमें मोक्षमार्गके निरूपणके साथ-साथ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानका विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया है। बताया है-
ज्ञानमेव स्थिरीभूतं समाधिरिति चेन्मतम्।
तस्य प्रधानधर्मत्वे निवृत्तिस्तत्क्षयाद्यदि।।
तदा सोपि कुतो ज्ञानादुक्तदोषानुषंमतः
समाध्यंतरतश्चेन्न तुल्यपर्यनुयोगतः।।
स्पष्ट है कि आचार्य विद्यानन्दने तत्त्वार्थसूत्रके प्रमेयोंका अत्यन्त सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन इस ग्रंथमें किया है। प्रथम सूत्रके वार्तीकोंमें मोक्षोपायके सम्बन्धमे अत्यन्त मागे सारः चित किया है। जीवका अंतिम ध्येय मोक्ष है। बन्धनबद्ध आत्माको मुक्तिने अतिरिक्त और क्या चाहिए? अतः मुक्तिके साधनभूत रत्नत्रयमार्गका सुन्दर और गहन विवेचन किया है। अनन्तर सम्यग्दर्शनका स्वरूप, भेद, अधिगमोपाय, तत्त्वोंका स्वरूप और भेद, एवं सत्-संख्या-क्षेत्रादि तत्त्वज्ञानके साधनों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। पश्चात् सम्यग्ज्ञानका स्वरूप, सम्यग्ज्ञानके भेद, मत्तिज्ञान और श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञानके विषय, क्षेत्र, स्वामी आदिका निर्देश किंधा है। इस सन्दर्भ में सर्वसिद्धिका भी प्रकरण आया है, जिसमें मीमांसक द्वारा उठाई गयी शंकाओंका समाधान भी किया है।
श्रुतज्ञान बाह्य अर्थों को किस प्रकार विषय करता है, इस आशंकाका उत्तर देते हुए आचार्य विद्यानन्दने लिखा है-
श्रुतेनार्थ परिच्छिद्य वर्तमानो न बाध्यते।
अक्षजेनैव तत्तस्य बाह्यार्थालंबना स्थितिः।।
सामान्यमेव श्रुतं प्रकाशयति विशेषमेव परस्परनिरपेक्षमुभयमेवेति वा शंकामपाकरोति।
अनेकान्तात्मकं वस्तु संप्रकाशयति श्रुतं।
सद्बोधत्वाद्यथाक्षोत्थबोध इत्युपपत्तिमत्।।
नयेन व्यभिचारश्चेन्नः तस्य गुणभावतः।
स्वगोचरार्थधर्माण्यधर्मार्थप्रकाशनात्।।
श्रुतस्यावस्तुवेदिर परप्रमाण धुतः
संवृतेश्चेद् वृथैवेषा परमार्थस्य निश्चितेः।।
ननु स्वत एव परमार्थव्यवस्थिते: कुतश्चिदविद्याप्रक्षयान्न पुनः श्रुतविकल्पात्। तदुक्तं "शास्त्रेषु प्रक्रियाभेदेरविद्येवोपवण्यते। अनागमविकल्पा हि स्वर्य विद्योपवतंत" इति, तदयुक्त, परेष्टतत्त्वस्याप्रत्यक्ष विषयल्वात्तद्विपरीतस्याने कान्तात्मनो वस्तुनः सर्वदा परस्याप्यवभासनात्। लिङ्गस्य त्वस्याङ्गीकरणी यत्वात्।
अर्थात् श्रुतज्ञान द्वारा अर्थकी परिच्छिति कर प्रवृत्ति करनेवाला पुरुष अर्थक्रिया करने में उसी प्रकार बाधा नहीं प्राप्त करता है, जिस प्रकार इन्द्रियजन्य मति ज्ञान द्वारा अर्थको अवग्रह कर प्रवृत्ति करने वाला पुरुष बाधाको प्राप्त नहीं करता है। श्रुतज्ञान सामान्यका प्रकाशन करता है, विशेषका प्रकाशन करता है या निरपेक्ष दोनोंका प्रकाशन करता है? इस शंकाका उत्तर देते हुए आचार्य विद्यानन्दने बताया है- सामान्यविशेषात्मक अनेकान्तरूप वस्तुको अतज्ञान अवगत करता है । जिस प्रकार इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ सांध्यबहारिक प्रत्यक्षज्ञान अनेकान्तात्मक अर्थका प्रकाशन करता है, उसी प्रकार श्रुतज्ञान सामान्य विशेषात्मक वस्तुको प्रकाशित करने में समर्थ रहता है ।अतः “अनेकान्तात्मक वस्तु श्रुतं प्रकाशयति, सद्बोधत्वात" यह अनुमान समीचीन है। इसका नयके साथ भी दोष नहीं है, क्योंकि नयज्ञान मुख्यरूपसे एक धर्मको जानता है, पर गौणरूपसे वस्तु के अन्य धर्मों का भी वह जाता है। अतः श्रुतज्ञानका नयज्ञानके साथ दोष नहीं आता।
यदि श्रुतज्ञानको वस्तुभूत पदार्थका ज्ञापक नहीं माना जाय, तो प्रतिवादी या शिष्योंको स्वकीय तत्वोंका शान किस प्रकार कराया जा सकेगा। अतएव श्रुतज्ञान द्वारा ज्ञात वस्तु प्रमाणभूत है। इस प्रकार विद्यानन्दने तत्वार्थश्लोक वार्त्तिकमें प्रमेयोंका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है।
८. अष्टसहस्त्री
जैन न्यायका यह अत्यन्त महनीय ग्रन्थ है। इस एक ग्रन्थके अध्ययन कर लेनेपर अन्य ग्रन्थ पढ़ने की आवश्यकता नहीं। विद्यानन्दने स्वयं ही यह प्रकट किया है-
श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानै:।
विज्ञायेत ययैव हि स्वसमय-परसमयसद्भावः।।
अर्थात् हजार शास्त्रोंको सुननेसे क्या, केवल अष्टसहस्रीको सुन लेनेसे, स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्तोंका ज्ञान हो जायगा।
यह समन्तभद्रविरचित आप्तमीमांसा अपरनाम देवागमस्तोत्रपर लिखा गया विस्तृत एवं महत्वपूर्ण भाष्य है। विद्यानन्दने बड़ी ही कुशलताके साथ अकलंकदेव द्वारा रचित अष्टशतीको अष्टसहस्री में अन्तःप्रविष्ट कर लिया है। यह न्यायकी प्रान्जल भाषामें रचा गया दुरूह और जटिल ग्रन्थ है। स्वयं विद्यानन्दने इसे कष्टसहस्रो कहा है। उन्होंने लिखा है-
'कष्टसहस्री सिद्धा साष्टसहस्रीयमत्र में पुष्यात्'
इस ग्रन्थमें एकादश नियोग, विधि और भावनावाद और उनका निरसन, चार्वाकमत, तत्त्वोपाल्पववाद, संवेदनाद्वैत, चित्राद्वैत, ब्रह्माद्वैत, सर्वज्ञाभाव, अनुमानद्वारा सर्वज्ञसिद्धि, अर्हदसर्वज्ञसिद्धि आदि अनेक विषयों का समावेश किया गया है। यह ग्रंथ दश परिच्छेदोने विभक्त है। प्रथमपरिच्छेद सबसे बड़ा है और आधा ग्रन्थ इसी में समाप्त है।
प्रथमपरिच्छेदमें अनुमान द्वारा सर्वज्ञको सिद्धिके पश्चात् भाव, अभाव, भावाभवरूप, तत्वका निराकरण कर अनेकान्तात्मक वस्तुकी सिद्धी की गयी है। इस सन्दर्भमें भावापयववादी बौद्ध और अत्यन्ता भावप्रागभाव और प्रध्वंसाभाव अस्वीकार करनेवाले सांख्य मतमें दूषण दिया गया है। वस्तुत: इस अध्यायमें नैयायिक, सांख्य, वेदान्त, बौद्ध, मीमांसक आदि दर्शनोंका वस्तुतत्वके सम्बन्धमें विचार किया गया है। द्वितीय परिच्छेदमें द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत आदिका विचार किया है। तृतीयपरिच्छेदमें क्षणिकवादमें दोषोंका प्रतिपादन कर कार्यकरिणादि समन्वित कथञ्चितक्षणिक वस्तुकी सिद्धि को गयी है। प्रागभावको सर्वथा अभाव न मानकर कथम्चित सद्भावरूप सिद्ध किया गया है। वैशेषिक और नेयायिकाभिमत अवयव-अवयवी का विचार किया गया है। चतुर्थमें वैशेषिकाभिमत मैदैकान्तका खण्डन कर कथंचित् भेदाभेदात्मक वस्तुकी सिद्धि की है। पंचम परिच्छेद में बौद्धकी अपेक्षासे सर्वथा अनापेक्षिक बस्सुका निरसन किया है। षष्ठ परिच्छेदमें वस्तुकी सिदिके लिए प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीनों प्रमाणोंकी सिद्धि की गयी है। वेद प्रमाण्यवादकी समीक्षा भी विस्तारपूर्वक इसी परिच्छेदमें प्रतिपादित है। सप्तम परिच्छेदमें बौद्धाभिमत ज्ञानेकान्तकानिरसन किया गया है। उपेय और उपाय तत्त्वकी चर्चा भी इसी परिच्छेद में आयी है। अष्टम परिच्छेदमें देवपुरुषार्थवाद की समीक्षा है। नवममें पुण्य-पापकी समीक्षा की गयी है। दशममें सांख्य, नयायिक और बौखमतानुसार बन्ध, मोक्ष और उनके कारणों की चर्चा आयी है। वाक्य और नयका लक्षण भी इसी परिच्छेदमें वर्णित है।
९. युक्त्यनुशासनालङ्कार
स्वामी समन्तभद्रके ६४ कारिकात्मक दार्शनिक 'युक्त्यनुशासनस्तोत्र' पर विद्यानन्दने मध्यम परिमाणकी यह 'युक्त्यनुशासनालङ्कार' टीका लिखी है। टीला सरल एवं विशद है।
वस्तुतः समन्तभद्रने मुल कारिकाओंमें जिन प्रमेयोंकी स्थापना की है, उन पर विस्तारपूर्वक इसमें विचार किया है। अद्वैतवाद, द्वैतवाद, शाश्वतवाद, अशाश्वतवाद, वक्तव्यवाद, अक्तव्यदाद, अन्यतावाद, अनन्यतावाद, अपेक्षावाद, अनपेक्षावाद, हेतुवाद, अहेतुवाद, विज्ञानवाद, बहिरर्थवाद, दैववाद, पुरुषार्थवाद, पाप-पुण्यवाद, बन्धवाद, मोक्षवाद और बन्ध-मोक्षकारणवादकी समीक्षा विभिन्न दर्शनोंके पूर्वपक्षोंको उपस्थित कर की है। निश्चयतः समग्र दर्शनोंके प्रमेयोंका विचार इस ग्रन्थमें किया गया है। अतः हमें विद्यानन्दकी "श्रोतव्याष्टसहस्त्री श्रुतैः किमन्य सहनसंख्यानः। विज्ञायते ययेव स्वसमयपरसमय सद्भावः।।" आदि गर्वोक्ति स्वभावोक्सि प्रतीत होती है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara- 2
Acharya Shri Vidyanand 9th Century (Prachin)
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