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#vimalsurimaharaj
प्राकृत के चरित-काव्यके रचयिताके रूपमें विमलसूरि पहले कवि और आचार्य है। ये सारास्वताचार्य की परंपरा मे आते है। इनसे पूर्व आचार्य यतिवृषभने अपने 'तिलोयपण्णत्ति’ ग्रंथमें त्रिषष्ठीशलाकापुरुषोंके माता-पिताओंके नाम, जन्मस्थान, जन्मनक्षत्र, आदि प्रमुख तथ्योंका संकलन ही किया था, पर चरितकायके रूपमें उन्होंने कोई ग्रंथ नहीं लिखा है। आचार्य शिवार्यने भगवती आराधना में आराधकोंके नाम मात्र ही दिये हैं, चरित नहीं। अतएव प्राकृतमें चरित-काव्यके रचयिताके रूपमें आचार्य विमलसूरिका स्थान सबसे आगे है। 'कुवलयमाला'में इनके 'पउमचरिय'का उल्लेख होनेसे विदित होता है कि विमलसूरिका 'पउमचरिय' वि. सं. ८३५के लगभग पर्याप्त प्रसिद्धि पा चुका था।
विमलसूरिने ग्रंथान्तमें अपनी प्रशस्ति अंकित की है। इस प्रशस्तिके अनुसार ये आचार्य राहुके प्रशिष्य, विजयके शिष्य और 'नाइल कुल’के वंशज थे। नाइल कुलके सम्बन्धमें मुनि कल्याणविजयजीका अनुमान है कि नाइल कुल नागिल कुल अथवा नगेन्द्र कुल है। इसका अस्तित्व १२वीं शताब्दी तक प्राप्त होता है। १२वीसे १५वीं शताब्दी तक यह नगेन्द्र गच्छके नामसे प्रसिद्ध रहा है। इस गच्छके आचार्य एकान्तः संप्रदायका अनुकरण नहीं करते थे। इनके विचार उदार रहते थे।
यही कारण है कि विद्वानोंने इन्हें यापनीय संघका अनुयायी माना है। लिखा है कि विमलसूरिकी दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायोंके प्रति उदारताका मुख्य कारण उनका यापनीय संघका अनुयायी होना है। श्री बी. एम. कुल. कर्णीने निष्कर्ष निकाला है कि आचार्य विमलसूरि यापनीय संघके थे।
यापनीय संघका साहित्य पर्याप्त मात्रामें प्राप्त होता है। यह सम्प्रदाय दर्शनसारके कर्ता देवसेन सुरिके अनुसार वि. सं. २०५में स्थापित प्रतीत होता है। कदम्ब, राष्ट्रकूट और दूसरे वंशके राजाओंने इस संघकी भूमि इत्यादि दानमें दी है। श्वेताम्बराचार्य हरिभद्रसूरिने भी अपने ललितविस्तर ग्रंथमें यापनीय तन्त्रका सम्मान पूर्वक उल्लेख किया है। यापनीय संघका अस्तित्व विक्रमकी १५वीं शताब्दी तक प्राप्त होता है। कागबाडेके अभिलेखसे यापनीय संघके धर्मकीर्ती ओर नागचन्द्रके समाधि ले लेनेका उल्लेख आया है। अतः बहुत सम्भव है कि विक्रमकी १५वी-१६वीं शताब्दीके पश्चात् इस संघका लोप हुआ होगा। वेलगाँवके दोडवस्ती अभिलेखसे यह ज्ञात होता है कि यापनियों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा दिगम्बरों द्वारा पूजी जाती थी। अतः यह माना जा सकता है कि यापनीय संघके आचार्य दिगम्बरोंमें प्रतिष्ठित या मान्य थे।
यही कारण है कि विमलसूरिने 'पउमचरियं' में दिगम्बर परम्पराके अनुसार तथ्योंका समावेश किया है। लेखकने कथाकी उत्थानिका श्रेणिकके प्रश्नोत्तर द्वारा ही उपस्थित की है, जो कि दिगम्बराचार्योंकी विशेषता है। इसके अतिरिक्त अन्य तथ्य भी दिगम्बर सम्प्रदायके अनुसार समाविष्ट हैं। यथा-
१. महावीरका अविवाहित रहना
२. त्रिसलाके गर्भ महावीरका आना
३. स्थावरकायके ५ भेदोंकी मान्यता
४. चौदह कुलकरोंकी मान्यता
५. चतुर्थं शिक्षाव्रतमें समाधिमरणका ग्रहण
६. ऋषभ द्वारा अचेलक व्रतका अपनाया जाना
७. सात नरक और सोलह स्वर्गों की मान्यता
८. स्त्रीमुक्ति के सम्बन्में मौन
९. केवलीके कवलाहारका अभाव
१०. अष्टद्रव्यद्वारा पूजन विधि
इनके अतिरिक्त श्वेताम्बर मान्यताएं भी इस ग्रंथमें उपलब्ध हैं। दिगम्बर मान्यताके सोलह स्वप्नोंके स्थानपर चौदह स्वप्नोंका माना जाना, भरतचक्रवर्तीके ९६ हजार रानियोंके स्थानपर ६४ हजार रानियोंकी कल्पना, आशी वदिके रूपमें गुरुओं या मुनियों द्वारा धर्मलाभ शब्दका प्रयोग किया जाना आदि ऐसे तथ्य हैं, जिनसे श्वेताम्बर मान्यताकी पुष्टि होती है। वस्तुस्थिति यह है कि विमलसूरिने रामकथाका वह रूप अंकित किया है, जो दिगम्बर श्वेताम्बर दोनोंको अभिप्रेत है। संक्षेपमें विमलसूरि यापनीय सम्प्रदायके अनुयायी है।
विमलसूरिने 'पउमचरिय' की प्रशस्तिमें अपने समयका अंकन किया है। उसके आधारपर इनका समय ई. सन् प्रथम शती है, पर ग्रंथके अन्तःपरीक्षणसे यह समय घटित नहीं होता है। अत: जैकोवी और अन्य विद्वानोंने इनका समय ई. सन् चौथी, पांचवीं शताब्दी माना है।
विमलमसूरिके 'अउमचरिय' के आधार पर रविषेणने संस्कृत 'पद्मचरित' की रचना की है और इसका रचनाकाल ई. सन् ७वीं शताब्दी है। अत: विमलसूरिका समय ७वीं शताब्दीके पूर्व होना चाहिये। विमलसूरिने जिस परिमाणित महाराष्ट्री प्राकृतका प्रयोग इस ग्रन्थमें किया है, भाषाका वह रूप ई. सन् द्वितीय शताब्दीके पश्चातका ही है। अतएव भाषा और शैलोकी दुष्ट्रिसे विमलसुरिके समयकी पूर्वावधि ई. सन् द्वितीय शताब्दी मानी जा सकती है। इस ग्रन्थमें उज्जैनके स्वतन्त्र राजा सिहोदरका उल्लेख आया है, जिसका दशपुरके भृत्यराजाके साथ युद्ध हुआ था। यह इस ग्रन्थको ई. सन् दूसरी शतीके पूर्वका सिद्ध नहीं करता है। यत: यह युद्ध महाक्षत्रिपोंको ओर संकेत करता है। श्रीशैल और श्रीपर्वतवासियोंका उल्लेख तृतीय शतीके आन्ध्र देशके श्रीपर्वतीय इक्ष्वाकु राजाओंका स्मरण कराता है। आनन्द लोगोंका उल्लेख तीसरी-चौथी शत्तीके आनन्दवंशकी ओर संकेत करता है। दोनारका निर्देश भी इस रचनाको गुप्तकालीन सिद्ध करता है। अपभ्रंश भाषाका प्रभाव और उत्तरकालीन छन्दोंका प्रयोग इस रचनाको तीसरी-चौथी शताब्दीका सिद्ध करता है। जैकोबी ने भी यही समय माना है। अतएवं संक्षेपमें विमलसूरिका समय ई. सन् चौथी शताब्दीके लगभग मानना चाहिये।
विमलसूरिकी दो रचनाएँ मानी जाती रही हैं, 'पउमचरिय' और 'हरिवंस चरिय'। पर अब कुछ विद्वान् 'हरिवंसरिय'को विमलसूरिकी रचना नहीं मानते हैं। उनका अभिमत है कि विमलसुरिको एक ही रचना है 'पउमचरिय', यह दूसरी रचना भ्रान्तिवश ही उनको मान ली गयी है।
इस ग्रन्थमें ११८ सर्ग हैं और सात अधिकारों में समस्त कथावस्तु अंकित है। स्थिति, वंशसमुत्पत्ति, प्रस्थान, लबांकुशोत्पत्ति, निर्वाण और अनेक भव इन सात अधिकारोंका निर्देश किया गया है और समस्त रामकथाका समावेश इन सात अधिकारोंमें ही किया है।
कथावस्तु- अयोध्या नगरीके अधिपति महाराज दशरथकी अपराजिता और अमित्रा दो रानियाँ थीं। एन समय नारदने दाशरथसे कहा कि आपके पुत्र द्वारा सोताके निमित्तीसे रायणका बंध होनेकी भविष्यवाणी सुनकर विभीषण आपको मारने आ रहा है। नारदसे इस सूचनाको प्राप्त कर दशरथ, छद्मवेशमें राजधानी छोड़कर चले गये। संयोगवश कैकयीके स्वयं बग्में पहूंचे। कैकयीने दशरथका वरण किया, जिससे अन्य राजकुमार रुष्ट्र होकर युद्ध करनेके लिए तैयार हो गये। युद्धमें दशरथके रथका संचालन कैकयीने बड़ी कुशलताके साथ किया, जिससे दशरथ विजयी हुए। अतः प्रसन्न होकर दशरथने कैकयीको एक वरदान दिया।
अपराजिताके गर्भसे एक पुत्रका जन्म हुआ, जिसका मुख पद्म जैसा सुन्दर होनेसे पद्म नाम रखा गया। इनका दूसरा नाम राम है, जो पद्मकी अपेक्षा अधिक प्रसिद्ध है । इसी प्रकार सुमित्रासे लक्ष्मण और कैकयीके गर्भसे भरतका जन्म हुआ।
एक बार राम-पद्म अर्ध-बर्बरोंके आक्रमणसे जनककी रक्षा करते हैं, जनक प्रसन्न हो अपनी औरस पुत्री सीताका सम्बन्ध रामके साथ तय करते हैं। जनकके पुत्र भामण्डलको शैशवकालमें ही चन्द्रगति विद्याधर हरण कर ले जाता है। युवा होने पर अज्ञानतावश सीतासे उसे मोह उत्पन्न हो जाता है। चन्द्रगति जनकसे भामण्डलके लिये सीताकी याचना करता है। जनक असर्मजसमें पड़ जाते हैं और सीता स्वयंवरमें घनुषयज्ञ रचते हैं। सीताके साथ रामका विवाह हो जाता है।
दशरथ रामको राज्य देकर भरत सहित दीक्षा धारण करना चाहते हैं। कैकयी भरतको गृहस्थ बनाये रखनेके हेतु वरदान स्वरूप दशरथसे भरतके राज्याभिषेककी याचना करती है, दशरथ भरतको राज्य देने के लिये तैयार हो जाते है। भरतके द्वारा आनाकानी करने पर भी राम उन्हें स्वयं समझा बुझाकर राज्याधिकारी बनाते हैं और स्वयं अपनी इच्छासे लक्षमण तथा सीताके साथ वन चले जाते हैं। दशरथ श्रमणदिक्षा धारण कर तप करणे लगते हैं। इधर अपराजिता और सुमित्रा अपने पुत्रके वियोगसे बहुत दुःखी होती हैं। कैकयीसे यह देखा नहीं जाता, अतः वह पारियात्र वनमें जाकर उनको लौटानेका प्रयत्न करती है, पर राम अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहते हैं।
जब राम दण्डकारण्य वनमें पहँचते हैं, तो लक्ष्मणको एक दिन तलवारकी प्राप्ति होती है। उसकी शक्तिकी परीक्षाके लिये वे एक झुरमुटको काटते हैं। असावधानीसे शंबुकको हत्या हो जाती है, जो कि उस झुरमुटमें तपस्या कर रहा था। शंबुककी माता चन्द्रनखा, जो रावणकी बहन थी, पुत्रकी खोजमें वहाँ आ जाती है। वह राजकुमारोंको देखकर प्रथमतः क्षुब्ध होती है, पश्चात् उनके रूपसे मोहित होकर वह दोनों भाइयोंमेंसे किसी एकको अपना पति बननेकी याचना करती है। राम-लक्ष्मण द्वारा चन्द्रनखाका प्रस्ताव ठुकराये जाने पर वह ऋद्ध होकर अपने पति खरदूषणको उल्टा-सीधा समझाकर उनके वधके लिये भेजती है। इधर रावण भी अपने बहनोईकी सहायताके लिये वहाँ पहुंचता है। रावण सीताके सौन्दर्य पर मुग्ध हो राम और लक्ष्मणकी अनुपस्थिति में सीताका हरण कर लेता है। खरदूषणको मारनेके अनन्सर राम सीताको न पाकर बहुत दुःखी होते हैं। उसी समय एक विद्याधर विराधित रामको अपनी पैतृक राजधानी पातालपुर लंकामें ले जाता है, जिसे खरदूषणने विरावितके पिताका वध कर छीन लिया था।
सुग्रीव अपनी पत्नी ताराको विटसुग्रीवके चंगुलसे बचानेके लिये रामकी शरणमें जाता है और राम सुग्नीवके शत्रु विटसुग्रीवको पराजित कर वानरवंशी सुग्रीवका उपकार करते हैं। लक्ष्मण सुग्रीवकी सहायतासे रावणका वध करते हैं। सीताको साथ लेकर राम लक्ष्मण सहित अयोध्या लौट आते हैं।
अयोध्या लौटने पर कैकयी और भरत दीक्षा धारण करते हैं। राम स्वयं राजा न बनकर लक्ष्मणको राज्य देते हैं। कुछ समय पश्चात् सीता गर्भवती होती है, पर लोकापवादके कारण राम इनका निर्वासन करते हैं। संयोगवश पुंडरीकपुरका राजा सीताको भयानक अटवीसे ले जाकर अपने यहां बहनकी तरह रखता है। वहाँ पर लवण और अंकुशका जन्म होता है। वे देशविजय करनेके पश्चात् अपने दुःखका बदला लेनेके लिये राम पर चढ़ाई करते हैं, और अन्तमें पिताके साथ इनका प्रेमपूर्वक समागम होता है। सीताकी अग्नि परीक्षा होती है जिसमें वह निष्कलंक सिद्ध होती है और उसी समय साध्वी बन जाती है। लक्ष्मणको अकस्मात् मृत्यु हो जाने पर राम शोकाभिभूत हो जाते हैं और भ्रातृमोहमें उनका शव उठाकर इधर-उधर भटकते हैं, तब वे दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं और कठोर तप करके निर्वाण प्राप्त करते हैं।
समीक्षा- इस चरितकाव्यमें पौराणिक प्रबन्ध और शास्त्रीय प्रबन्ध दोनोंके लक्षणोंका समावेश है। वाल्मीकि रामायणकी कथावस्तुमें किंचित संशोधन कर यथार्थ बुद्धिवादकी प्रतिष्ठा की है। राक्षस और वानर इन दोनोंको नृवंशीय कहा है। मेघवाहनने लंका तथा अन्य द्वीपोंकी रक्षा की थी अत: रक्षा करनेके कारण उसके वंशका नाम राक्षस वंश प्रसिद्ध हुआ। विद्याधर राजा अमरप्रभने अपनी प्राचीन परम्पराको जीवित रखने के लिए महलोंके तोरणों और ध्वजाओं पर वानरोंकी आकृतियाँ अंकित करायी थीं तथा उन्हें राज्यचिन्हकी मान्यता दी, अत: उसका वंश वानरवंश कहलाया। ये दोनों वंश दैत्य और पशु नहीं थे, बल्कि मानवजासिके ही वंशविशेष थे। इसी प्रकार इन्द्र, सोम, वरुण इत्यादि देव नहीं थे, बल्कि विभिन्न प्रान्तोंके मानववंशी सामन्त थे। रावणको उसकी माताने नौ मणियोंका हार पहनाया, जिससे उसके मुखके नौ प्रतिबिम्ब. दृश्यमान होने के कारण पिताने उसका नाम दशानन रखा।
इसी प्रकार हनुमान विद्याधर राजा प्रहलादके पुत्र पवनन्जय और उनकी पत्नी अंजना सुन्दरीके औरस पुत्र थे। सूर्यको फल समझकर हनुमान द्वारा ग्रसित किये जानेका वृत्तान्त इस चरितकाव्यमें नहीं है। हनुरुहपुरमें जन्म होनेके कारण उनका नाम हनुमान रखा गया था।
सीताकी उत्पत्ति भी हलकी नोकसे भूमि खोदे जाने पर नहीं हुई है। वह तो राजा जनक और उनकी पत्नी विदेहाकी स्वाभाविक औरस पुत्री थी।
हनुमान कोई पर्वत उठाकर नहीं लाये। वे विशल्या नामक एक स्त्री चिकित्सकको घायल लक्ष्मणको चिकित्साके लिए सम्मानपूर्वक लाये थे।
चरितकाव्यका सबसे प्रधान गुण नायकके चरित्रका उत्कर्ष दिखलाना है। दशरथ द्वारा भरतको राज्य देनेका समाचार सुनकर राम अपने पिताको धैर्य देते हुए कहते हैं कि पिताजी आप अपने वचनकी रक्षा करें। मैं नहीं चाहता कि मेरे कारण आपका लोकमें अपयश हो। जब भरत राज्य ग्रहण करनेमें आनाकानी करते हैं, तब राम उन्हें अपने पित्ताको विमल कीर्ति बनाये रखने और माताके वचनकी रक्षा करनेका परामर्श देते हैं। जब भरत अनुरोष स्वीकार नहीं करते, तो राम स्वयं ही अपनी इच्छासे वन चले जाते हैं। यह नायककी स्वाभाविक उदारताका निदर्शन है। युद्धके समय जब विभीषण रामसे कहता है कि विद्यासाधनामें ध्यानमग्न रावणको क्यों नहीं बन्दी बना लिया जाए, तब राम क्षापधर्म बतलाते हुए कहते हैं कि धर्म-कर्तव्यमें लगे व्यक्तिको धोखेसे बन्दी बनाना अनुचित है। परिस्थितिवश लोकापवादके भयसे राम सीताका निर्वासन करते हैं। किन्तु सीताके अग्निपरीक्षाके अनन्तर राम बहुत पछताते हैं और क्षमा याचना करते हैं।
रावण स्वयं धार्मिक और व्रती पुरुष अंकित किया गया है। सीताकी सुन्दरता पर मोहित होकर रावणने अपहरण अवश्य किया, किन्तु सौताको इच्छाके विरुद्ध उसपर कभी बलात्कार करनेकी इच्छा नहीं की। जब मन्दोदरीने बलपूर्वक सीताके साथ दुराचार करनेकी सलाह रावणको दी, तो उसने उत्तर दिया- "यह संभव नहीं है, मेरा व्रत है कि में किसी भी स्त्रोके साथ उसकी इच्छाके विरुट बलात्कार नहीं करूंगा"। वह सीताको लौटा देना चाहता था, किन्तु लोग कायर न समझ लें, इस भयसे नहीं लौटाता। उसने मनमें निश्चय किया था कि युद्धमें राम और लक्ष्मणको जीतकर परम वैभवके साथ सीताको वापस करूंगा। इससे उसकी कीर्तीमें कलंक नहीं लगेगा और यश भी उज्जवल हो जायगा। रावणकी यह विचारधारा रावणके चरित्रको उदात्तभूमि पर ले जाती है। वास्तवमें विमलसूरिने रावण जैसे पात्रोंके चरित्रको भी उन्नत दिखलाया है।
दशरथ रामके वियोगमें अपने प्राणोंका त्याग नहीं करते, बल्कि निर्भयवीरको तरह दीक्षा ग्रहण कर तपश्चरण करते हैं। कैकेयी ईर्ष्यावश भरतको राज्य नहीं दिलाती, किन्तु पति और पुत्र दोनोंको दीक्षा ग्रहण करते देखकर उसको मानसिक पीड़ा होती है। अतः वात्सल्यभावसे प्रेरित हो अपने पुत्रको गृहस्थीमें बाँध रखना चाहती है। राम स्वयं वन जाते हैं, वे स्वयं भरतको राजा बनाते हैं। रामके वनसे लौटने के पश्चात् कैकयो प्रव्रजित हो जाती है और रामसे कहती है कि भरतको अभी बहुत कुछ सीखना है। भरतके दीक्षित हो जानेपर वह घरमें नहीं रह पाती, इसी कारण शान्तिलाभके लिए वह दीक्षित होती है। इस प्रकार 'पउमचरिय" के सभी पात्रोंका उदात्त चरित्र अंकित किया गया है।
यह प्राकृतका सर्वप्रथम चरित महाकाव्य है। इसकी भाषा महाराष्ट्रीय प्राकृत है, जिसपर यत्र-तत्र अपभ्रंशका प्रभाव दृष्टीगोचर होता है। भाषामें प्रवाह तथा सरलता है। वर्णनानुकूल भाषा ओज, माधुर्य और प्रसाद गुणसे युक्त होती गयी है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास, काव्यलिङ्ग, श्लेष आदि अलंकारोंका प्रचुर प्रयोग पाया जाता है। वर्णन संक्षिप्त होनेपर भी मार्मिक है, जैसे दशरथके कंचुकीकी वृद्धावस्था, सीताहरणपर रामका क्रन्दन, युद्धके पूर्व राक्षस सैनिकों द्वारा अपनी प्रियतमाओंसे विदा लेना, लंकामें वानर सेनाका प्रवेश होनेपर नागरिकांको घबड़ाहट और भागदौड़, लक्ष्मणकी मृत्युसे रामको उन्मत्त अवस्था आदि। माहिष्मतीके राजाकी नमंदामें जलक्रीड़ा तथा कुलाङ्गमाओं द्वारा गवाक्षोंसे रावणको देखनेका वर्णन भी मनोहर है।
समुद्र, वन, नदी, पर्वत, सूर्योदय, सूर्यास्त, ऋतु, युद्ध आदिके वर्णन महाकाव्योंके समान है। घटनाओंकी प्रधानता होनेके कारण वर्णन लम्बे नहीं हैं। भावात्मक और रसात्मक वर्णनोंकी कमी नहीं है।
इस चरित महाकाव्यको निम्न प्रमुख विशेषताएं हैं-
(१) कृत्रिमताका अभाव।
(२) रस, भाव और अलंकारोंकी स्वाभाविक योजना।
(३) प्रसंगानुसार कर्कश या कोमल ध्वनियोंका प्रयोग।
(४) भावाभिव्यक्तिमें सरलता और स्वाभाविकताका समावेश |
(५) चरितोंको तर्कसंगत स्थापना।
(६) बुद्धिवादकी प्रतिष्ठा।
(७) उदात्तताके साथ चरितोंमें स्वाभाविकताका समवाय।
(८) कथाके निर्वाहके लिये मुख्य कथाके साप अवान्तर कथाओंका प्रयोग।
(९) महाकाव्योचित गरिमाका पूर्ण निर्वाह।
(१०) सौन्दर्य के उपकरणोंका काव्यत्ववृद्धिके हेतु प्रयोग।
(११) आर्यजीवनका अकृत्रिम और साङ्गोपाङ्ग वर्णन।
(१२) सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियोंपर पूर्ण प्रकाश।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
प्राकृत के चरित-काव्यके रचयिताके रूपमें विमलसूरि पहले कवि और आचार्य है। ये सारास्वताचार्य की परंपरा मे आते है। इनसे पूर्व आचार्य यतिवृषभने अपने 'तिलोयपण्णत्ति’ ग्रंथमें त्रिषष्ठीशलाकापुरुषोंके माता-पिताओंके नाम, जन्मस्थान, जन्मनक्षत्र, आदि प्रमुख तथ्योंका संकलन ही किया था, पर चरितकायके रूपमें उन्होंने कोई ग्रंथ नहीं लिखा है। आचार्य शिवार्यने भगवती आराधना में आराधकोंके नाम मात्र ही दिये हैं, चरित नहीं। अतएव प्राकृतमें चरित-काव्यके रचयिताके रूपमें आचार्य विमलसूरिका स्थान सबसे आगे है। 'कुवलयमाला'में इनके 'पउमचरिय'का उल्लेख होनेसे विदित होता है कि विमलसूरिका 'पउमचरिय' वि. सं. ८३५के लगभग पर्याप्त प्रसिद्धि पा चुका था।
विमलसूरिने ग्रंथान्तमें अपनी प्रशस्ति अंकित की है। इस प्रशस्तिके अनुसार ये आचार्य राहुके प्रशिष्य, विजयके शिष्य और 'नाइल कुल’के वंशज थे। नाइल कुलके सम्बन्धमें मुनि कल्याणविजयजीका अनुमान है कि नाइल कुल नागिल कुल अथवा नगेन्द्र कुल है। इसका अस्तित्व १२वीं शताब्दी तक प्राप्त होता है। १२वीसे १५वीं शताब्दी तक यह नगेन्द्र गच्छके नामसे प्रसिद्ध रहा है। इस गच्छके आचार्य एकान्तः संप्रदायका अनुकरण नहीं करते थे। इनके विचार उदार रहते थे।
यही कारण है कि विद्वानोंने इन्हें यापनीय संघका अनुयायी माना है। लिखा है कि विमलसूरिकी दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायोंके प्रति उदारताका मुख्य कारण उनका यापनीय संघका अनुयायी होना है। श्री बी. एम. कुल. कर्णीने निष्कर्ष निकाला है कि आचार्य विमलसूरि यापनीय संघके थे।
यापनीय संघका साहित्य पर्याप्त मात्रामें प्राप्त होता है। यह सम्प्रदाय दर्शनसारके कर्ता देवसेन सुरिके अनुसार वि. सं. २०५में स्थापित प्रतीत होता है। कदम्ब, राष्ट्रकूट और दूसरे वंशके राजाओंने इस संघकी भूमि इत्यादि दानमें दी है। श्वेताम्बराचार्य हरिभद्रसूरिने भी अपने ललितविस्तर ग्रंथमें यापनीय तन्त्रका सम्मान पूर्वक उल्लेख किया है। यापनीय संघका अस्तित्व विक्रमकी १५वीं शताब्दी तक प्राप्त होता है। कागबाडेके अभिलेखसे यापनीय संघके धर्मकीर्ती ओर नागचन्द्रके समाधि ले लेनेका उल्लेख आया है। अतः बहुत सम्भव है कि विक्रमकी १५वी-१६वीं शताब्दीके पश्चात् इस संघका लोप हुआ होगा। वेलगाँवके दोडवस्ती अभिलेखसे यह ज्ञात होता है कि यापनियों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा दिगम्बरों द्वारा पूजी जाती थी। अतः यह माना जा सकता है कि यापनीय संघके आचार्य दिगम्बरोंमें प्रतिष्ठित या मान्य थे।
यही कारण है कि विमलसूरिने 'पउमचरियं' में दिगम्बर परम्पराके अनुसार तथ्योंका समावेश किया है। लेखकने कथाकी उत्थानिका श्रेणिकके प्रश्नोत्तर द्वारा ही उपस्थित की है, जो कि दिगम्बराचार्योंकी विशेषता है। इसके अतिरिक्त अन्य तथ्य भी दिगम्बर सम्प्रदायके अनुसार समाविष्ट हैं। यथा-
१. महावीरका अविवाहित रहना
२. त्रिसलाके गर्भ महावीरका आना
३. स्थावरकायके ५ भेदोंकी मान्यता
४. चौदह कुलकरोंकी मान्यता
५. चतुर्थं शिक्षाव्रतमें समाधिमरणका ग्रहण
६. ऋषभ द्वारा अचेलक व्रतका अपनाया जाना
७. सात नरक और सोलह स्वर्गों की मान्यता
८. स्त्रीमुक्ति के सम्बन्में मौन
९. केवलीके कवलाहारका अभाव
१०. अष्टद्रव्यद्वारा पूजन विधि
इनके अतिरिक्त श्वेताम्बर मान्यताएं भी इस ग्रंथमें उपलब्ध हैं। दिगम्बर मान्यताके सोलह स्वप्नोंके स्थानपर चौदह स्वप्नोंका माना जाना, भरतचक्रवर्तीके ९६ हजार रानियोंके स्थानपर ६४ हजार रानियोंकी कल्पना, आशी वदिके रूपमें गुरुओं या मुनियों द्वारा धर्मलाभ शब्दका प्रयोग किया जाना आदि ऐसे तथ्य हैं, जिनसे श्वेताम्बर मान्यताकी पुष्टि होती है। वस्तुस्थिति यह है कि विमलसूरिने रामकथाका वह रूप अंकित किया है, जो दिगम्बर श्वेताम्बर दोनोंको अभिप्रेत है। संक्षेपमें विमलसूरि यापनीय सम्प्रदायके अनुयायी है।
विमलसूरिने 'पउमचरिय' की प्रशस्तिमें अपने समयका अंकन किया है। उसके आधारपर इनका समय ई. सन् प्रथम शती है, पर ग्रंथके अन्तःपरीक्षणसे यह समय घटित नहीं होता है। अत: जैकोवी और अन्य विद्वानोंने इनका समय ई. सन् चौथी, पांचवीं शताब्दी माना है।
विमलमसूरिके 'अउमचरिय' के आधार पर रविषेणने संस्कृत 'पद्मचरित' की रचना की है और इसका रचनाकाल ई. सन् ७वीं शताब्दी है। अत: विमलसूरिका समय ७वीं शताब्दीके पूर्व होना चाहिये। विमलसूरिने जिस परिमाणित महाराष्ट्री प्राकृतका प्रयोग इस ग्रन्थमें किया है, भाषाका वह रूप ई. सन् द्वितीय शताब्दीके पश्चातका ही है। अतएव भाषा और शैलोकी दुष्ट्रिसे विमलसुरिके समयकी पूर्वावधि ई. सन् द्वितीय शताब्दी मानी जा सकती है। इस ग्रन्थमें उज्जैनके स्वतन्त्र राजा सिहोदरका उल्लेख आया है, जिसका दशपुरके भृत्यराजाके साथ युद्ध हुआ था। यह इस ग्रन्थको ई. सन् दूसरी शतीके पूर्वका सिद्ध नहीं करता है। यत: यह युद्ध महाक्षत्रिपोंको ओर संकेत करता है। श्रीशैल और श्रीपर्वतवासियोंका उल्लेख तृतीय शतीके आन्ध्र देशके श्रीपर्वतीय इक्ष्वाकु राजाओंका स्मरण कराता है। आनन्द लोगोंका उल्लेख तीसरी-चौथी शत्तीके आनन्दवंशकी ओर संकेत करता है। दोनारका निर्देश भी इस रचनाको गुप्तकालीन सिद्ध करता है। अपभ्रंश भाषाका प्रभाव और उत्तरकालीन छन्दोंका प्रयोग इस रचनाको तीसरी-चौथी शताब्दीका सिद्ध करता है। जैकोबी ने भी यही समय माना है। अतएवं संक्षेपमें विमलसूरिका समय ई. सन् चौथी शताब्दीके लगभग मानना चाहिये।
विमलसूरिकी दो रचनाएँ मानी जाती रही हैं, 'पउमचरिय' और 'हरिवंस चरिय'। पर अब कुछ विद्वान् 'हरिवंसरिय'को विमलसूरिकी रचना नहीं मानते हैं। उनका अभिमत है कि विमलसुरिको एक ही रचना है 'पउमचरिय', यह दूसरी रचना भ्रान्तिवश ही उनको मान ली गयी है।
इस ग्रन्थमें ११८ सर्ग हैं और सात अधिकारों में समस्त कथावस्तु अंकित है। स्थिति, वंशसमुत्पत्ति, प्रस्थान, लबांकुशोत्पत्ति, निर्वाण और अनेक भव इन सात अधिकारोंका निर्देश किया गया है और समस्त रामकथाका समावेश इन सात अधिकारोंमें ही किया है।
कथावस्तु- अयोध्या नगरीके अधिपति महाराज दशरथकी अपराजिता और अमित्रा दो रानियाँ थीं। एन समय नारदने दाशरथसे कहा कि आपके पुत्र द्वारा सोताके निमित्तीसे रायणका बंध होनेकी भविष्यवाणी सुनकर विभीषण आपको मारने आ रहा है। नारदसे इस सूचनाको प्राप्त कर दशरथ, छद्मवेशमें राजधानी छोड़कर चले गये। संयोगवश कैकयीके स्वयं बग्में पहूंचे। कैकयीने दशरथका वरण किया, जिससे अन्य राजकुमार रुष्ट्र होकर युद्ध करनेके लिए तैयार हो गये। युद्धमें दशरथके रथका संचालन कैकयीने बड़ी कुशलताके साथ किया, जिससे दशरथ विजयी हुए। अतः प्रसन्न होकर दशरथने कैकयीको एक वरदान दिया।
अपराजिताके गर्भसे एक पुत्रका जन्म हुआ, जिसका मुख पद्म जैसा सुन्दर होनेसे पद्म नाम रखा गया। इनका दूसरा नाम राम है, जो पद्मकी अपेक्षा अधिक प्रसिद्ध है । इसी प्रकार सुमित्रासे लक्ष्मण और कैकयीके गर्भसे भरतका जन्म हुआ।
एक बार राम-पद्म अर्ध-बर्बरोंके आक्रमणसे जनककी रक्षा करते हैं, जनक प्रसन्न हो अपनी औरस पुत्री सीताका सम्बन्ध रामके साथ तय करते हैं। जनकके पुत्र भामण्डलको शैशवकालमें ही चन्द्रगति विद्याधर हरण कर ले जाता है। युवा होने पर अज्ञानतावश सीतासे उसे मोह उत्पन्न हो जाता है। चन्द्रगति जनकसे भामण्डलके लिये सीताकी याचना करता है। जनक असर्मजसमें पड़ जाते हैं और सीता स्वयंवरमें घनुषयज्ञ रचते हैं। सीताके साथ रामका विवाह हो जाता है।
दशरथ रामको राज्य देकर भरत सहित दीक्षा धारण करना चाहते हैं। कैकयी भरतको गृहस्थ बनाये रखनेके हेतु वरदान स्वरूप दशरथसे भरतके राज्याभिषेककी याचना करती है, दशरथ भरतको राज्य देने के लिये तैयार हो जाते है। भरतके द्वारा आनाकानी करने पर भी राम उन्हें स्वयं समझा बुझाकर राज्याधिकारी बनाते हैं और स्वयं अपनी इच्छासे लक्षमण तथा सीताके साथ वन चले जाते हैं। दशरथ श्रमणदिक्षा धारण कर तप करणे लगते हैं। इधर अपराजिता और सुमित्रा अपने पुत्रके वियोगसे बहुत दुःखी होती हैं। कैकयीसे यह देखा नहीं जाता, अतः वह पारियात्र वनमें जाकर उनको लौटानेका प्रयत्न करती है, पर राम अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहते हैं।
जब राम दण्डकारण्य वनमें पहँचते हैं, तो लक्ष्मणको एक दिन तलवारकी प्राप्ति होती है। उसकी शक्तिकी परीक्षाके लिये वे एक झुरमुटको काटते हैं। असावधानीसे शंबुकको हत्या हो जाती है, जो कि उस झुरमुटमें तपस्या कर रहा था। शंबुककी माता चन्द्रनखा, जो रावणकी बहन थी, पुत्रकी खोजमें वहाँ आ जाती है। वह राजकुमारोंको देखकर प्रथमतः क्षुब्ध होती है, पश्चात् उनके रूपसे मोहित होकर वह दोनों भाइयोंमेंसे किसी एकको अपना पति बननेकी याचना करती है। राम-लक्ष्मण द्वारा चन्द्रनखाका प्रस्ताव ठुकराये जाने पर वह ऋद्ध होकर अपने पति खरदूषणको उल्टा-सीधा समझाकर उनके वधके लिये भेजती है। इधर रावण भी अपने बहनोईकी सहायताके लिये वहाँ पहुंचता है। रावण सीताके सौन्दर्य पर मुग्ध हो राम और लक्ष्मणकी अनुपस्थिति में सीताका हरण कर लेता है। खरदूषणको मारनेके अनन्सर राम सीताको न पाकर बहुत दुःखी होते हैं। उसी समय एक विद्याधर विराधित रामको अपनी पैतृक राजधानी पातालपुर लंकामें ले जाता है, जिसे खरदूषणने विरावितके पिताका वध कर छीन लिया था।
सुग्रीव अपनी पत्नी ताराको विटसुग्रीवके चंगुलसे बचानेके लिये रामकी शरणमें जाता है और राम सुग्नीवके शत्रु विटसुग्रीवको पराजित कर वानरवंशी सुग्रीवका उपकार करते हैं। लक्ष्मण सुग्रीवकी सहायतासे रावणका वध करते हैं। सीताको साथ लेकर राम लक्ष्मण सहित अयोध्या लौट आते हैं।
अयोध्या लौटने पर कैकयी और भरत दीक्षा धारण करते हैं। राम स्वयं राजा न बनकर लक्ष्मणको राज्य देते हैं। कुछ समय पश्चात् सीता गर्भवती होती है, पर लोकापवादके कारण राम इनका निर्वासन करते हैं। संयोगवश पुंडरीकपुरका राजा सीताको भयानक अटवीसे ले जाकर अपने यहां बहनकी तरह रखता है। वहाँ पर लवण और अंकुशका जन्म होता है। वे देशविजय करनेके पश्चात् अपने दुःखका बदला लेनेके लिये राम पर चढ़ाई करते हैं, और अन्तमें पिताके साथ इनका प्रेमपूर्वक समागम होता है। सीताकी अग्नि परीक्षा होती है जिसमें वह निष्कलंक सिद्ध होती है और उसी समय साध्वी बन जाती है। लक्ष्मणको अकस्मात् मृत्यु हो जाने पर राम शोकाभिभूत हो जाते हैं और भ्रातृमोहमें उनका शव उठाकर इधर-उधर भटकते हैं, तब वे दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं और कठोर तप करके निर्वाण प्राप्त करते हैं।
समीक्षा- इस चरितकाव्यमें पौराणिक प्रबन्ध और शास्त्रीय प्रबन्ध दोनोंके लक्षणोंका समावेश है। वाल्मीकि रामायणकी कथावस्तुमें किंचित संशोधन कर यथार्थ बुद्धिवादकी प्रतिष्ठा की है। राक्षस और वानर इन दोनोंको नृवंशीय कहा है। मेघवाहनने लंका तथा अन्य द्वीपोंकी रक्षा की थी अत: रक्षा करनेके कारण उसके वंशका नाम राक्षस वंश प्रसिद्ध हुआ। विद्याधर राजा अमरप्रभने अपनी प्राचीन परम्पराको जीवित रखने के लिए महलोंके तोरणों और ध्वजाओं पर वानरोंकी आकृतियाँ अंकित करायी थीं तथा उन्हें राज्यचिन्हकी मान्यता दी, अत: उसका वंश वानरवंश कहलाया। ये दोनों वंश दैत्य और पशु नहीं थे, बल्कि मानवजासिके ही वंशविशेष थे। इसी प्रकार इन्द्र, सोम, वरुण इत्यादि देव नहीं थे, बल्कि विभिन्न प्रान्तोंके मानववंशी सामन्त थे। रावणको उसकी माताने नौ मणियोंका हार पहनाया, जिससे उसके मुखके नौ प्रतिबिम्ब. दृश्यमान होने के कारण पिताने उसका नाम दशानन रखा।
इसी प्रकार हनुमान विद्याधर राजा प्रहलादके पुत्र पवनन्जय और उनकी पत्नी अंजना सुन्दरीके औरस पुत्र थे। सूर्यको फल समझकर हनुमान द्वारा ग्रसित किये जानेका वृत्तान्त इस चरितकाव्यमें नहीं है। हनुरुहपुरमें जन्म होनेके कारण उनका नाम हनुमान रखा गया था।
सीताकी उत्पत्ति भी हलकी नोकसे भूमि खोदे जाने पर नहीं हुई है। वह तो राजा जनक और उनकी पत्नी विदेहाकी स्वाभाविक औरस पुत्री थी।
हनुमान कोई पर्वत उठाकर नहीं लाये। वे विशल्या नामक एक स्त्री चिकित्सकको घायल लक्ष्मणको चिकित्साके लिए सम्मानपूर्वक लाये थे।
चरितकाव्यका सबसे प्रधान गुण नायकके चरित्रका उत्कर्ष दिखलाना है। दशरथ द्वारा भरतको राज्य देनेका समाचार सुनकर राम अपने पिताको धैर्य देते हुए कहते हैं कि पिताजी आप अपने वचनकी रक्षा करें। मैं नहीं चाहता कि मेरे कारण आपका लोकमें अपयश हो। जब भरत राज्य ग्रहण करनेमें आनाकानी करते हैं, तब राम उन्हें अपने पित्ताको विमल कीर्ति बनाये रखने और माताके वचनकी रक्षा करनेका परामर्श देते हैं। जब भरत अनुरोष स्वीकार नहीं करते, तो राम स्वयं ही अपनी इच्छासे वन चले जाते हैं। यह नायककी स्वाभाविक उदारताका निदर्शन है। युद्धके समय जब विभीषण रामसे कहता है कि विद्यासाधनामें ध्यानमग्न रावणको क्यों नहीं बन्दी बना लिया जाए, तब राम क्षापधर्म बतलाते हुए कहते हैं कि धर्म-कर्तव्यमें लगे व्यक्तिको धोखेसे बन्दी बनाना अनुचित है। परिस्थितिवश लोकापवादके भयसे राम सीताका निर्वासन करते हैं। किन्तु सीताके अग्निपरीक्षाके अनन्तर राम बहुत पछताते हैं और क्षमा याचना करते हैं।
रावण स्वयं धार्मिक और व्रती पुरुष अंकित किया गया है। सीताकी सुन्दरता पर मोहित होकर रावणने अपहरण अवश्य किया, किन्तु सौताको इच्छाके विरुद्ध उसपर कभी बलात्कार करनेकी इच्छा नहीं की। जब मन्दोदरीने बलपूर्वक सीताके साथ दुराचार करनेकी सलाह रावणको दी, तो उसने उत्तर दिया- "यह संभव नहीं है, मेरा व्रत है कि में किसी भी स्त्रोके साथ उसकी इच्छाके विरुट बलात्कार नहीं करूंगा"। वह सीताको लौटा देना चाहता था, किन्तु लोग कायर न समझ लें, इस भयसे नहीं लौटाता। उसने मनमें निश्चय किया था कि युद्धमें राम और लक्ष्मणको जीतकर परम वैभवके साथ सीताको वापस करूंगा। इससे उसकी कीर्तीमें कलंक नहीं लगेगा और यश भी उज्जवल हो जायगा। रावणकी यह विचारधारा रावणके चरित्रको उदात्तभूमि पर ले जाती है। वास्तवमें विमलसूरिने रावण जैसे पात्रोंके चरित्रको भी उन्नत दिखलाया है।
दशरथ रामके वियोगमें अपने प्राणोंका त्याग नहीं करते, बल्कि निर्भयवीरको तरह दीक्षा ग्रहण कर तपश्चरण करते हैं। कैकेयी ईर्ष्यावश भरतको राज्य नहीं दिलाती, किन्तु पति और पुत्र दोनोंको दीक्षा ग्रहण करते देखकर उसको मानसिक पीड़ा होती है। अतः वात्सल्यभावसे प्रेरित हो अपने पुत्रको गृहस्थीमें बाँध रखना चाहती है। राम स्वयं वन जाते हैं, वे स्वयं भरतको राजा बनाते हैं। रामके वनसे लौटने के पश्चात् कैकयो प्रव्रजित हो जाती है और रामसे कहती है कि भरतको अभी बहुत कुछ सीखना है। भरतके दीक्षित हो जानेपर वह घरमें नहीं रह पाती, इसी कारण शान्तिलाभके लिए वह दीक्षित होती है। इस प्रकार 'पउमचरिय" के सभी पात्रोंका उदात्त चरित्र अंकित किया गया है।
यह प्राकृतका सर्वप्रथम चरित महाकाव्य है। इसकी भाषा महाराष्ट्रीय प्राकृत है, जिसपर यत्र-तत्र अपभ्रंशका प्रभाव दृष्टीगोचर होता है। भाषामें प्रवाह तथा सरलता है। वर्णनानुकूल भाषा ओज, माधुर्य और प्रसाद गुणसे युक्त होती गयी है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास, काव्यलिङ्ग, श्लेष आदि अलंकारोंका प्रचुर प्रयोग पाया जाता है। वर्णन संक्षिप्त होनेपर भी मार्मिक है, जैसे दशरथके कंचुकीकी वृद्धावस्था, सीताहरणपर रामका क्रन्दन, युद्धके पूर्व राक्षस सैनिकों द्वारा अपनी प्रियतमाओंसे विदा लेना, लंकामें वानर सेनाका प्रवेश होनेपर नागरिकांको घबड़ाहट और भागदौड़, लक्ष्मणकी मृत्युसे रामको उन्मत्त अवस्था आदि। माहिष्मतीके राजाकी नमंदामें जलक्रीड़ा तथा कुलाङ्गमाओं द्वारा गवाक्षोंसे रावणको देखनेका वर्णन भी मनोहर है।
समुद्र, वन, नदी, पर्वत, सूर्योदय, सूर्यास्त, ऋतु, युद्ध आदिके वर्णन महाकाव्योंके समान है। घटनाओंकी प्रधानता होनेके कारण वर्णन लम्बे नहीं हैं। भावात्मक और रसात्मक वर्णनोंकी कमी नहीं है।
इस चरित महाकाव्यको निम्न प्रमुख विशेषताएं हैं-
(१) कृत्रिमताका अभाव।
(२) रस, भाव और अलंकारोंकी स्वाभाविक योजना।
(३) प्रसंगानुसार कर्कश या कोमल ध्वनियोंका प्रयोग।
(४) भावाभिव्यक्तिमें सरलता और स्वाभाविकताका समावेश |
(५) चरितोंको तर्कसंगत स्थापना।
(६) बुद्धिवादकी प्रतिष्ठा।
(७) उदात्तताके साथ चरितोंमें स्वाभाविकताका समवाय।
(८) कथाके निर्वाहके लिये मुख्य कथाके साप अवान्तर कथाओंका प्रयोग।
(९) महाकाव्योचित गरिमाका पूर्ण निर्वाह।
(१०) सौन्दर्य के उपकरणोंका काव्यत्ववृद्धिके हेतु प्रयोग।
(११) आर्यजीवनका अकृत्रिम और साङ्गोपाङ्ग वर्णन।
(१२) सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियोंपर पूर्ण प्रकाश।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
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डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री विमलसूरि महाराज जी, चौथी शताब्दी (प्राचीन)
प्राकृत के चरित-काव्यके रचयिताके रूपमें विमलसूरि पहले कवि और आचार्य है। ये सारास्वताचार्य की परंपरा मे आते है। इनसे पूर्व आचार्य यतिवृषभने अपने 'तिलोयपण्णत्ति’ ग्रंथमें त्रिषष्ठीशलाकापुरुषोंके माता-पिताओंके नाम, जन्मस्थान, जन्मनक्षत्र, आदि प्रमुख तथ्योंका संकलन ही किया था, पर चरितकायके रूपमें उन्होंने कोई ग्रंथ नहीं लिखा है। आचार्य शिवार्यने भगवती आराधना में आराधकोंके नाम मात्र ही दिये हैं, चरित नहीं। अतएव प्राकृतमें चरित-काव्यके रचयिताके रूपमें आचार्य विमलसूरिका स्थान सबसे आगे है। 'कुवलयमाला'में इनके 'पउमचरिय'का उल्लेख होनेसे विदित होता है कि विमलसूरिका 'पउमचरिय' वि. सं. ८३५के लगभग पर्याप्त प्रसिद्धि पा चुका था।
विमलसूरिने ग्रंथान्तमें अपनी प्रशस्ति अंकित की है। इस प्रशस्तिके अनुसार ये आचार्य राहुके प्रशिष्य, विजयके शिष्य और 'नाइल कुल’के वंशज थे। नाइल कुलके सम्बन्धमें मुनि कल्याणविजयजीका अनुमान है कि नाइल कुल नागिल कुल अथवा नगेन्द्र कुल है। इसका अस्तित्व १२वीं शताब्दी तक प्राप्त होता है। १२वीसे १५वीं शताब्दी तक यह नगेन्द्र गच्छके नामसे प्रसिद्ध रहा है। इस गच्छके आचार्य एकान्तः संप्रदायका अनुकरण नहीं करते थे। इनके विचार उदार रहते थे।
यही कारण है कि विद्वानोंने इन्हें यापनीय संघका अनुयायी माना है। लिखा है कि विमलसूरिकी दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायोंके प्रति उदारताका मुख्य कारण उनका यापनीय संघका अनुयायी होना है। श्री बी. एम. कुल. कर्णीने निष्कर्ष निकाला है कि आचार्य विमलसूरि यापनीय संघके थे।
यापनीय संघका साहित्य पर्याप्त मात्रामें प्राप्त होता है। यह सम्प्रदाय दर्शनसारके कर्ता देवसेन सुरिके अनुसार वि. सं. २०५में स्थापित प्रतीत होता है। कदम्ब, राष्ट्रकूट और दूसरे वंशके राजाओंने इस संघकी भूमि इत्यादि दानमें दी है। श्वेताम्बराचार्य हरिभद्रसूरिने भी अपने ललितविस्तर ग्रंथमें यापनीय तन्त्रका सम्मान पूर्वक उल्लेख किया है। यापनीय संघका अस्तित्व विक्रमकी १५वीं शताब्दी तक प्राप्त होता है। कागबाडेके अभिलेखसे यापनीय संघके धर्मकीर्ती ओर नागचन्द्रके समाधि ले लेनेका उल्लेख आया है। अतः बहुत सम्भव है कि विक्रमकी १५वी-१६वीं शताब्दीके पश्चात् इस संघका लोप हुआ होगा। वेलगाँवके दोडवस्ती अभिलेखसे यह ज्ञात होता है कि यापनियों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा दिगम्बरों द्वारा पूजी जाती थी। अतः यह माना जा सकता है कि यापनीय संघके आचार्य दिगम्बरोंमें प्रतिष्ठित या मान्य थे।
यही कारण है कि विमलसूरिने 'पउमचरियं' में दिगम्बर परम्पराके अनुसार तथ्योंका समावेश किया है। लेखकने कथाकी उत्थानिका श्रेणिकके प्रश्नोत्तर द्वारा ही उपस्थित की है, जो कि दिगम्बराचार्योंकी विशेषता है। इसके अतिरिक्त अन्य तथ्य भी दिगम्बर सम्प्रदायके अनुसार समाविष्ट हैं। यथा-
१. महावीरका अविवाहित रहना
२. त्रिसलाके गर्भ महावीरका आना
३. स्थावरकायके ५ भेदोंकी मान्यता
४. चौदह कुलकरोंकी मान्यता
५. चतुर्थं शिक्षाव्रतमें समाधिमरणका ग्रहण
६. ऋषभ द्वारा अचेलक व्रतका अपनाया जाना
७. सात नरक और सोलह स्वर्गों की मान्यता
८. स्त्रीमुक्ति के सम्बन्में मौन
९. केवलीके कवलाहारका अभाव
१०. अष्टद्रव्यद्वारा पूजन विधि
इनके अतिरिक्त श्वेताम्बर मान्यताएं भी इस ग्रंथमें उपलब्ध हैं। दिगम्बर मान्यताके सोलह स्वप्नोंके स्थानपर चौदह स्वप्नोंका माना जाना, भरतचक्रवर्तीके ९६ हजार रानियोंके स्थानपर ६४ हजार रानियोंकी कल्पना, आशी वदिके रूपमें गुरुओं या मुनियों द्वारा धर्मलाभ शब्दका प्रयोग किया जाना आदि ऐसे तथ्य हैं, जिनसे श्वेताम्बर मान्यताकी पुष्टि होती है। वस्तुस्थिति यह है कि विमलसूरिने रामकथाका वह रूप अंकित किया है, जो दिगम्बर श्वेताम्बर दोनोंको अभिप्रेत है। संक्षेपमें विमलसूरि यापनीय सम्प्रदायके अनुयायी है।
विमलसूरिने 'पउमचरिय' की प्रशस्तिमें अपने समयका अंकन किया है। उसके आधारपर इनका समय ई. सन् प्रथम शती है, पर ग्रंथके अन्तःपरीक्षणसे यह समय घटित नहीं होता है। अत: जैकोवी और अन्य विद्वानोंने इनका समय ई. सन् चौथी, पांचवीं शताब्दी माना है।
विमलमसूरिके 'अउमचरिय' के आधार पर रविषेणने संस्कृत 'पद्मचरित' की रचना की है और इसका रचनाकाल ई. सन् ७वीं शताब्दी है। अत: विमलसूरिका समय ७वीं शताब्दीके पूर्व होना चाहिये। विमलसूरिने जिस परिमाणित महाराष्ट्री प्राकृतका प्रयोग इस ग्रन्थमें किया है, भाषाका वह रूप ई. सन् द्वितीय शताब्दीके पश्चातका ही है। अतएव भाषा और शैलोकी दुष्ट्रिसे विमलसुरिके समयकी पूर्वावधि ई. सन् द्वितीय शताब्दी मानी जा सकती है। इस ग्रन्थमें उज्जैनके स्वतन्त्र राजा सिहोदरका उल्लेख आया है, जिसका दशपुरके भृत्यराजाके साथ युद्ध हुआ था। यह इस ग्रन्थको ई. सन् दूसरी शतीके पूर्वका सिद्ध नहीं करता है। यत: यह युद्ध महाक्षत्रिपोंको ओर संकेत करता है। श्रीशैल और श्रीपर्वतवासियोंका उल्लेख तृतीय शतीके आन्ध्र देशके श्रीपर्वतीय इक्ष्वाकु राजाओंका स्मरण कराता है। आनन्द लोगोंका उल्लेख तीसरी-चौथी शत्तीके आनन्दवंशकी ओर संकेत करता है। दोनारका निर्देश भी इस रचनाको गुप्तकालीन सिद्ध करता है। अपभ्रंश भाषाका प्रभाव और उत्तरकालीन छन्दोंका प्रयोग इस रचनाको तीसरी-चौथी शताब्दीका सिद्ध करता है। जैकोबी ने भी यही समय माना है। अतएवं संक्षेपमें विमलसूरिका समय ई. सन् चौथी शताब्दीके लगभग मानना चाहिये।
विमलसूरिकी दो रचनाएँ मानी जाती रही हैं, 'पउमचरिय' और 'हरिवंस चरिय'। पर अब कुछ विद्वान् 'हरिवंसरिय'को विमलसूरिकी रचना नहीं मानते हैं। उनका अभिमत है कि विमलसुरिको एक ही रचना है 'पउमचरिय', यह दूसरी रचना भ्रान्तिवश ही उनको मान ली गयी है।
इस ग्रन्थमें ११८ सर्ग हैं और सात अधिकारों में समस्त कथावस्तु अंकित है। स्थिति, वंशसमुत्पत्ति, प्रस्थान, लबांकुशोत्पत्ति, निर्वाण और अनेक भव इन सात अधिकारोंका निर्देश किया गया है और समस्त रामकथाका समावेश इन सात अधिकारोंमें ही किया है।
कथावस्तु- अयोध्या नगरीके अधिपति महाराज दशरथकी अपराजिता और अमित्रा दो रानियाँ थीं। एन समय नारदने दाशरथसे कहा कि आपके पुत्र द्वारा सोताके निमित्तीसे रायणका बंध होनेकी भविष्यवाणी सुनकर विभीषण आपको मारने आ रहा है। नारदसे इस सूचनाको प्राप्त कर दशरथ, छद्मवेशमें राजधानी छोड़कर चले गये। संयोगवश कैकयीके स्वयं बग्में पहूंचे। कैकयीने दशरथका वरण किया, जिससे अन्य राजकुमार रुष्ट्र होकर युद्ध करनेके लिए तैयार हो गये। युद्धमें दशरथके रथका संचालन कैकयीने बड़ी कुशलताके साथ किया, जिससे दशरथ विजयी हुए। अतः प्रसन्न होकर दशरथने कैकयीको एक वरदान दिया।
अपराजिताके गर्भसे एक पुत्रका जन्म हुआ, जिसका मुख पद्म जैसा सुन्दर होनेसे पद्म नाम रखा गया। इनका दूसरा नाम राम है, जो पद्मकी अपेक्षा अधिक प्रसिद्ध है । इसी प्रकार सुमित्रासे लक्ष्मण और कैकयीके गर्भसे भरतका जन्म हुआ।
एक बार राम-पद्म अर्ध-बर्बरोंके आक्रमणसे जनककी रक्षा करते हैं, जनक प्रसन्न हो अपनी औरस पुत्री सीताका सम्बन्ध रामके साथ तय करते हैं। जनकके पुत्र भामण्डलको शैशवकालमें ही चन्द्रगति विद्याधर हरण कर ले जाता है। युवा होने पर अज्ञानतावश सीतासे उसे मोह उत्पन्न हो जाता है। चन्द्रगति जनकसे भामण्डलके लिये सीताकी याचना करता है। जनक असर्मजसमें पड़ जाते हैं और सीता स्वयंवरमें घनुषयज्ञ रचते हैं। सीताके साथ रामका विवाह हो जाता है।
दशरथ रामको राज्य देकर भरत सहित दीक्षा धारण करना चाहते हैं। कैकयी भरतको गृहस्थ बनाये रखनेके हेतु वरदान स्वरूप दशरथसे भरतके राज्याभिषेककी याचना करती है, दशरथ भरतको राज्य देने के लिये तैयार हो जाते है। भरतके द्वारा आनाकानी करने पर भी राम उन्हें स्वयं समझा बुझाकर राज्याधिकारी बनाते हैं और स्वयं अपनी इच्छासे लक्षमण तथा सीताके साथ वन चले जाते हैं। दशरथ श्रमणदिक्षा धारण कर तप करणे लगते हैं। इधर अपराजिता और सुमित्रा अपने पुत्रके वियोगसे बहुत दुःखी होती हैं। कैकयीसे यह देखा नहीं जाता, अतः वह पारियात्र वनमें जाकर उनको लौटानेका प्रयत्न करती है, पर राम अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहते हैं।
जब राम दण्डकारण्य वनमें पहँचते हैं, तो लक्ष्मणको एक दिन तलवारकी प्राप्ति होती है। उसकी शक्तिकी परीक्षाके लिये वे एक झुरमुटको काटते हैं। असावधानीसे शंबुकको हत्या हो जाती है, जो कि उस झुरमुटमें तपस्या कर रहा था। शंबुककी माता चन्द्रनखा, जो रावणकी बहन थी, पुत्रकी खोजमें वहाँ आ जाती है। वह राजकुमारोंको देखकर प्रथमतः क्षुब्ध होती है, पश्चात् उनके रूपसे मोहित होकर वह दोनों भाइयोंमेंसे किसी एकको अपना पति बननेकी याचना करती है। राम-लक्ष्मण द्वारा चन्द्रनखाका प्रस्ताव ठुकराये जाने पर वह ऋद्ध होकर अपने पति खरदूषणको उल्टा-सीधा समझाकर उनके वधके लिये भेजती है। इधर रावण भी अपने बहनोईकी सहायताके लिये वहाँ पहुंचता है। रावण सीताके सौन्दर्य पर मुग्ध हो राम और लक्ष्मणकी अनुपस्थिति में सीताका हरण कर लेता है। खरदूषणको मारनेके अनन्सर राम सीताको न पाकर बहुत दुःखी होते हैं। उसी समय एक विद्याधर विराधित रामको अपनी पैतृक राजधानी पातालपुर लंकामें ले जाता है, जिसे खरदूषणने विरावितके पिताका वध कर छीन लिया था।
सुग्रीव अपनी पत्नी ताराको विटसुग्रीवके चंगुलसे बचानेके लिये रामकी शरणमें जाता है और राम सुग्नीवके शत्रु विटसुग्रीवको पराजित कर वानरवंशी सुग्रीवका उपकार करते हैं। लक्ष्मण सुग्रीवकी सहायतासे रावणका वध करते हैं। सीताको साथ लेकर राम लक्ष्मण सहित अयोध्या लौट आते हैं।
अयोध्या लौटने पर कैकयी और भरत दीक्षा धारण करते हैं। राम स्वयं राजा न बनकर लक्ष्मणको राज्य देते हैं। कुछ समय पश्चात् सीता गर्भवती होती है, पर लोकापवादके कारण राम इनका निर्वासन करते हैं। संयोगवश पुंडरीकपुरका राजा सीताको भयानक अटवीसे ले जाकर अपने यहां बहनकी तरह रखता है। वहाँ पर लवण और अंकुशका जन्म होता है। वे देशविजय करनेके पश्चात् अपने दुःखका बदला लेनेके लिये राम पर चढ़ाई करते हैं, और अन्तमें पिताके साथ इनका प्रेमपूर्वक समागम होता है। सीताकी अग्नि परीक्षा होती है जिसमें वह निष्कलंक सिद्ध होती है और उसी समय साध्वी बन जाती है। लक्ष्मणको अकस्मात् मृत्यु हो जाने पर राम शोकाभिभूत हो जाते हैं और भ्रातृमोहमें उनका शव उठाकर इधर-उधर भटकते हैं, तब वे दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं और कठोर तप करके निर्वाण प्राप्त करते हैं।
समीक्षा- इस चरितकाव्यमें पौराणिक प्रबन्ध और शास्त्रीय प्रबन्ध दोनोंके लक्षणोंका समावेश है। वाल्मीकि रामायणकी कथावस्तुमें किंचित संशोधन कर यथार्थ बुद्धिवादकी प्रतिष्ठा की है। राक्षस और वानर इन दोनोंको नृवंशीय कहा है। मेघवाहनने लंका तथा अन्य द्वीपोंकी रक्षा की थी अत: रक्षा करनेके कारण उसके वंशका नाम राक्षस वंश प्रसिद्ध हुआ। विद्याधर राजा अमरप्रभने अपनी प्राचीन परम्पराको जीवित रखने के लिए महलोंके तोरणों और ध्वजाओं पर वानरोंकी आकृतियाँ अंकित करायी थीं तथा उन्हें राज्यचिन्हकी मान्यता दी, अत: उसका वंश वानरवंश कहलाया। ये दोनों वंश दैत्य और पशु नहीं थे, बल्कि मानवजासिके ही वंशविशेष थे। इसी प्रकार इन्द्र, सोम, वरुण इत्यादि देव नहीं थे, बल्कि विभिन्न प्रान्तोंके मानववंशी सामन्त थे। रावणको उसकी माताने नौ मणियोंका हार पहनाया, जिससे उसके मुखके नौ प्रतिबिम्ब. दृश्यमान होने के कारण पिताने उसका नाम दशानन रखा।
इसी प्रकार हनुमान विद्याधर राजा प्रहलादके पुत्र पवनन्जय और उनकी पत्नी अंजना सुन्दरीके औरस पुत्र थे। सूर्यको फल समझकर हनुमान द्वारा ग्रसित किये जानेका वृत्तान्त इस चरितकाव्यमें नहीं है। हनुरुहपुरमें जन्म होनेके कारण उनका नाम हनुमान रखा गया था।
सीताकी उत्पत्ति भी हलकी नोकसे भूमि खोदे जाने पर नहीं हुई है। वह तो राजा जनक और उनकी पत्नी विदेहाकी स्वाभाविक औरस पुत्री थी।
हनुमान कोई पर्वत उठाकर नहीं लाये। वे विशल्या नामक एक स्त्री चिकित्सकको घायल लक्ष्मणको चिकित्साके लिए सम्मानपूर्वक लाये थे।
चरितकाव्यका सबसे प्रधान गुण नायकके चरित्रका उत्कर्ष दिखलाना है। दशरथ द्वारा भरतको राज्य देनेका समाचार सुनकर राम अपने पिताको धैर्य देते हुए कहते हैं कि पिताजी आप अपने वचनकी रक्षा करें। मैं नहीं चाहता कि मेरे कारण आपका लोकमें अपयश हो। जब भरत राज्य ग्रहण करनेमें आनाकानी करते हैं, तब राम उन्हें अपने पित्ताको विमल कीर्ति बनाये रखने और माताके वचनकी रक्षा करनेका परामर्श देते हैं। जब भरत अनुरोष स्वीकार नहीं करते, तो राम स्वयं ही अपनी इच्छासे वन चले जाते हैं। यह नायककी स्वाभाविक उदारताका निदर्शन है। युद्धके समय जब विभीषण रामसे कहता है कि विद्यासाधनामें ध्यानमग्न रावणको क्यों नहीं बन्दी बना लिया जाए, तब राम क्षापधर्म बतलाते हुए कहते हैं कि धर्म-कर्तव्यमें लगे व्यक्तिको धोखेसे बन्दी बनाना अनुचित है। परिस्थितिवश लोकापवादके भयसे राम सीताका निर्वासन करते हैं। किन्तु सीताके अग्निपरीक्षाके अनन्तर राम बहुत पछताते हैं और क्षमा याचना करते हैं।
रावण स्वयं धार्मिक और व्रती पुरुष अंकित किया गया है। सीताकी सुन्दरता पर मोहित होकर रावणने अपहरण अवश्य किया, किन्तु सौताको इच्छाके विरुद्ध उसपर कभी बलात्कार करनेकी इच्छा नहीं की। जब मन्दोदरीने बलपूर्वक सीताके साथ दुराचार करनेकी सलाह रावणको दी, तो उसने उत्तर दिया- "यह संभव नहीं है, मेरा व्रत है कि में किसी भी स्त्रोके साथ उसकी इच्छाके विरुट बलात्कार नहीं करूंगा"। वह सीताको लौटा देना चाहता था, किन्तु लोग कायर न समझ लें, इस भयसे नहीं लौटाता। उसने मनमें निश्चय किया था कि युद्धमें राम और लक्ष्मणको जीतकर परम वैभवके साथ सीताको वापस करूंगा। इससे उसकी कीर्तीमें कलंक नहीं लगेगा और यश भी उज्जवल हो जायगा। रावणकी यह विचारधारा रावणके चरित्रको उदात्तभूमि पर ले जाती है। वास्तवमें विमलसूरिने रावण जैसे पात्रोंके चरित्रको भी उन्नत दिखलाया है।
दशरथ रामके वियोगमें अपने प्राणोंका त्याग नहीं करते, बल्कि निर्भयवीरको तरह दीक्षा ग्रहण कर तपश्चरण करते हैं। कैकेयी ईर्ष्यावश भरतको राज्य नहीं दिलाती, किन्तु पति और पुत्र दोनोंको दीक्षा ग्रहण करते देखकर उसको मानसिक पीड़ा होती है। अतः वात्सल्यभावसे प्रेरित हो अपने पुत्रको गृहस्थीमें बाँध रखना चाहती है। राम स्वयं वन जाते हैं, वे स्वयं भरतको राजा बनाते हैं। रामके वनसे लौटने के पश्चात् कैकयो प्रव्रजित हो जाती है और रामसे कहती है कि भरतको अभी बहुत कुछ सीखना है। भरतके दीक्षित हो जानेपर वह घरमें नहीं रह पाती, इसी कारण शान्तिलाभके लिए वह दीक्षित होती है। इस प्रकार 'पउमचरिय" के सभी पात्रोंका उदात्त चरित्र अंकित किया गया है।
यह प्राकृतका सर्वप्रथम चरित महाकाव्य है। इसकी भाषा महाराष्ट्रीय प्राकृत है, जिसपर यत्र-तत्र अपभ्रंशका प्रभाव दृष्टीगोचर होता है। भाषामें प्रवाह तथा सरलता है। वर्णनानुकूल भाषा ओज, माधुर्य और प्रसाद गुणसे युक्त होती गयी है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास, काव्यलिङ्ग, श्लेष आदि अलंकारोंका प्रचुर प्रयोग पाया जाता है। वर्णन संक्षिप्त होनेपर भी मार्मिक है, जैसे दशरथके कंचुकीकी वृद्धावस्था, सीताहरणपर रामका क्रन्दन, युद्धके पूर्व राक्षस सैनिकों द्वारा अपनी प्रियतमाओंसे विदा लेना, लंकामें वानर सेनाका प्रवेश होनेपर नागरिकांको घबड़ाहट और भागदौड़, लक्ष्मणकी मृत्युसे रामको उन्मत्त अवस्था आदि। माहिष्मतीके राजाकी नमंदामें जलक्रीड़ा तथा कुलाङ्गमाओं द्वारा गवाक्षोंसे रावणको देखनेका वर्णन भी मनोहर है।
समुद्र, वन, नदी, पर्वत, सूर्योदय, सूर्यास्त, ऋतु, युद्ध आदिके वर्णन महाकाव्योंके समान है। घटनाओंकी प्रधानता होनेके कारण वर्णन लम्बे नहीं हैं। भावात्मक और रसात्मक वर्णनोंकी कमी नहीं है।
इस चरित महाकाव्यको निम्न प्रमुख विशेषताएं हैं-
(१) कृत्रिमताका अभाव।
(२) रस, भाव और अलंकारोंकी स्वाभाविक योजना।
(३) प्रसंगानुसार कर्कश या कोमल ध्वनियोंका प्रयोग।
(४) भावाभिव्यक्तिमें सरलता और स्वाभाविकताका समावेश |
(५) चरितोंको तर्कसंगत स्थापना।
(६) बुद्धिवादकी प्रतिष्ठा।
(७) उदात्तताके साथ चरितोंमें स्वाभाविकताका समवाय।
(८) कथाके निर्वाहके लिये मुख्य कथाके साप अवान्तर कथाओंका प्रयोग।
(९) महाकाव्योचित गरिमाका पूर्ण निर्वाह।
(१०) सौन्दर्य के उपकरणोंका काव्यत्ववृद्धिके हेतु प्रयोग।
(११) आर्यजीवनका अकृत्रिम और साङ्गोपाङ्ग वर्णन।
(१२) सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियोंपर पूर्ण प्रकाश।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara_2.
Acharya Shri Vimalsuri Maharaj Ji , 4th Century (Prachin)
Acharya Vimalsuri Maharaj Ji
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