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#yatiwrushabhmaharaj
श्रुतधराचार्यों की परंपरामें आचार्य यतिवृषभ का नाम आता है। जयधवला टीकाके निर्देशानुसार आचार्य यतिवृषभने आर्यमंक्षु और नागहस्तिसे कसायपाहुडकी गाथाओंका सम्यक् प्रकार अध्ययनकर अर्थ अवधारण किया और कसायपाहुडपर चूर्णिसूत्रोंकी रचना की। जयधवलामें वृत्तिसूत्रका लक्षण बताते हुए लिखा है-
"सुत्तस्सेव विवरणाए संखित्तसद्दरयणाए संगह्यिसुत्तासे सत्याए वित्तिसुत्तवव एसादो।"
अर्थात् जिसकी शब्दरचना संक्षिप्त हो और जिसमें सूत्रगत अशेष अर्थोका संग्रह किया गया हो ऐसे विवरणको वृत्तिसूत्र कहते हैं।
जयधवलाटीकमें अनेकस्थलोंपर यतिवृषभका उल्लेख किया है। लिखा है-
"एवं जइवसहाइरिमदेसामासियसूसत्थपरूवर्ण काऊण संपहि जइवसहा इग्यिसूचिदत्थमुच्चारणाए भणिस्सामो।"
अर्थात् यतिवृषभ आचार्य द्वारा लिखे गये चूर्णिसूत्रोंका अवलम्बन लेकर उक्तार्थ प्रस्तुत किया गया।
इन उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि यत्तिवृषभने चूर्णिसूत्रोंकी रचना संक्षिप्त शब्दावलीमें प्रस्तुत कर महान् अर्थको निबद्ध किया है। यदि आचार्य यतिवृषभ चूर्णिसूत्रोंकी रचना न करते, सो बहुत संभव है कि कसायपाहुडका अर्थ ही स्पष्ट न हो पाता। अत: दिगम्बर परम्परामें चूर्णिसूत्रोंके प्रथम रचयिता होनेके कारण यतिवृषभका अत्यधिक महत्व है। चूर्णिसूत्रको परिभाषापर षट्खण्डागमकी धवलाटोकासे भी प्रकाश पड़ता है। वीरसेन आचायने षट्खण्डागमके सूत्रोंको' भी 'चुण्णिसुत्त' कहा है। यहां उन्हीं सूत्रोंको चूर्णिसूत्र कहा है जो गाथाके व्याख्यानरूप हैं। वेदनाखण्डमें कुछ गाथाएँ भी आती है जो व्याख्यानरूप हैं। धवलाकारने उन्हें चूर्णिसूत्र कहा है।
धवलाकारने यतिवृषभाचार्य के चूर्णिसूत्रोंको वृत्तिसूत्र भी कहा है। वृत्तिसूत्रका पूर्वमें लक्षण लिखा जा चुका है। श्वेताम्बर परम्परामें चूर्णिपदकी व्याख्या करते हुए लिखा है-
अत्थबहुलं महत्थं हेउ-निवाओवसग्गगंभीरं।
बहुपायमवोच्छिन्नं गय-णयसुदं तु चुण्णपयं।।
अर्थात् जिसमें महान् अर्थ हो, हेतु, निपात और उपसर्गसे युक्त हो, गम्भीर हो, अनेकपद समन्वित हो, अव्यवच्छिन्न हो और तथ्यकी दृष्टिसे जो धारा प्रवाहिक हो, उसे चूर्णिपद कहते हैं ।
आशय यह है कि जो तीर्थंकरकी दिव्यध्वनिसे निस्सृत बीजपदोंका अर्थोद्घाटन करने में समर्थ हो वह चुणिपद है। यथार्थतः चूणिपदोंमें बीजसूत्रोंको विवृत्त्यात्मक सूत्र-रूप रचना की जाती है और तथ्योंको विशेषरूपमें प्रस्तुत किया जाता है।
यहाँ यह ध्यातव्य है कि श्वेताम्बर परम्पराकी चूर्णियोंसे इन चूर्णिसूत्रोंकी शैली और विषयवस्तु बहुत भिन्न है। यतिवृषभ द्वारा विरचित चूर्णिसूत्र कहलाते हैं, चूर्णियाँ नहीं। इसका अर्थ यह है कि यतिवृषभके चूर्णिसूत्रोंका महत्त्व ‘कसायपाहुड' की गाथाओंसे किसी तरह कम नहीं है। गाथासूत्रोंमें जिन अनेक विषयोंके संकेत उपलब्ध होते हैं, चूर्णिसूत्रोंमें उनका उद्घाटन मिलता है। अतः 'कसायपाहुड' और ‘चूर्णिसूत्र' दोनों ही आगमविषयकी दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण हैं।
आचार्य वीरसेनके उल्लेखानुसार चूर्णिसूत्रकारका मत 'कसायपाहुड' और 'षट्खण्डागम' के मतके समान ही प्रामाणिक एवं महत्वपूर्ण है। वि. को ग्यारहवीं शताब्दो में आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवतीने 'लब्धिसार’ नामक ग्रन्थमें पहले यतिवृषभके मतका निर्देश किया है। तदनन्तर भूतबलिके मतका। इससे स्पष्ट है कि यतिवृषभके चूर्णिसूत्र मुलग्रंथोके समान ही महत्वपूर्ण और उपयोगी थे।
यह सत्य है कि यतिवृषभाचार्य का व्यक्तित्व आगमव्याख्याताकी दृष्टिसे अत्यधिक है। इन्होंने आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार इन पांच उपक्रमोंकी दृष्टि से सूत्ररूप अर्थोद्घाटन किया है। यतिवृषभ विभाषा सूत्र, अवयवार्थ एवं पदच्छेदपूर्वक व्याख्यान करते गये हैं।
चूर्णिसूत्रकार यतिवृषभके व्यक्तित्वमें निम्नलिखित विशेषताएँ उपलब्ध होती हैं-
१. यतिवृषभ आठवें कर्मप्रवादके ज्ञाता थे।
२. नन्दिसूत्रके प्रमाणसे ये कर्मप्रकृतिके भी ज्ञाता सिद्ध होते हैं।
३. आर्यमंक्षु और नागहस्तिका शिष्यत्व इन्होंने स्वीकार किया था।
४. आत्मसाधक होनेके साथ ये श्रुताराधक हैं।
५. धवला और जयधवलामें भूतबलि और यतिवृषभके मतभेद परिलक्षित होते हैं।
६. व्यक्तित्वको महनीयताको दृष्टिसे यतिवृषभ भूतबलिके समकक्ष है। इनके मतोंकी मान्यता सार्वजनीन है।
७. चूर्णिसूत्रों में यतिवृषभने सूत्रशैलीको प्रतिबिम्बित किया है।
८. परम्परासे प्रचलित ज्ञानको आत्मसात् कर चूणिसूत्रोंकी रचना की गई है।
९. यतिवृषभ आगमवेत्ता तो थे, ही पर उन्होंने सभी परम्पराओंमें प्रचलित उपदेशशैलीका परिज्ञान प्राप्त किया और अपनी सूक्ष्म प्रतिभाका चूर्णिसूत्रोंमें उपयोग किया।
चूर्णिसूत्रकार आचार्ग यतिवृषभके समयके सम्बन्धमें विचार करनेसे ज्ञात होता है कि ये षट्खण्डागमकार भूतबलिके समकालीन अथवा उनके कुछ ही उत्तरवर्ती हैं। कुन्दकुन्द तो इनसे अवश्य प्राचीन हैं। बताया गया है कि प्रवचनवात्सल्यसे प्रेरित होकर इन्होंने गुणधरके 'कसायपाहुड' पर चूर्णिसूत्रोंकी रचना की। यतिवृषभके ग्रन्थों के अवलोकनसे यह ज्ञात होता है कि इनके समक्ष षट्खण्डागम, लोकविनिश्चय, संगाइणी और लोकविभाग (प्राकृत) जैसे ग्रंथ विद्यमान थे। इन ग्रन्थो का सम्यक् अध्ययनकर इन्होंने चूर्णिसूत्रों की रचना की।
तिलोयपण्णत्ती' में-
"जलसिहरे विक्खंभो जलणिहिणो जोयणा दससहस्सा।
एवं संगाइणिए लोयविभाए विणिांइट्ट।।
लोयविणिच्छय-ग्रंथे लोयविभागम्मि सव्वसिद्धाणं।
ओगाहण-परिमाणं भणिदं किंचूणचरिमदेहसमो॥
इन गाथाओंमें लोकविभागका उल्लेख आया है। यह लोकविभाग अन्य संभवतः आचार्य सर्वनन्दि द्वारा विरचित होना चाहिए। पर यतिवृषभके समक्ष यही लोकविभाग था, इसका कोई निश्चय नहीं। लोकानुयोगके ग्रंथ प्राचीन हैं और संभवतः यतिवृषभके समक्ष कोई प्राचीन लोकविभाग रहा होगा। इन सर्वनन्दिने काञ्चीके राजा सिंहवर्माके राज्यके बाईसवें वर्षमें जब शनिश्चर उत्तराषाढा नक्षत्र पर स्थित था, बृहस्पति वृष राशिमें और चन्द्रमा उत्तराफाल्गुणी नक्षत्रमें अवस्थित था; इस ग्रंथकी रचना की। यह अन्य शक सं. ३८० (वि. सं. ५१५) में पाणराष्ट्रके पाटलिक ग्राममें पूरा किया गया। सर्वनन्दिके इस लोकविभागका निर्देश सिंहसूर्यके संस्कृत लोकविभागकी प्रशस्तिमें पाया जाता है ।
वैश्वे स्थिते रविसुते वृषभे च जीचे
राजोत्तरेषु सितपक्षमुपेत्य चन्द्रे।
ग्रामे च पाटलिकनामनि पाणराष्ट्रे
शास्त्रं पुरा लिखितवान् मुनिसवंनन्दी॥
संवत्सरे तु द्वाविशे काञ्चीश: सिहवर्मणः।
अशीत्यग्ने शकाब्दानां सिद्धमेतच्छत्तत्रमे।।
इस प्रशस्तिसे आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने यह निष्कर्ष निकाला है कि सिंहसूर्यका यह लोकविभाग सर्वनन्दिके प्राकृत लोकविभागका अनुवादमात्र है। उन्होंने भाषाका परिवर्तन ही किया है, मौलिक कुछ नहीं लिखा। पर इस लोकविभागके अध्ययनसे उक्त निष्कर्ष पूर्णतया निभ्रांन्त प्रतीत नहीं होता; क्योंकि सिंहसूर्यके प्रकाशित इस लोकविभागमें तिलोयपण्णत्ती', 'हरिवंश’ एवं 'आदिपुराण' आदि ग्रन्थोंका आधार भी प्राप्त होता है। संस्कृत-लोक विभागके पञ्चम विभाग सम्बन्धी ३८वे पद्मसे १३७वे पद्यका कुल चौदह कुल करोंका प्रतिपादन आदिपुराणके श्लोकों या श्लोकांशों द्वारा किया गया है। इसी प्रकार ‘तिलोयपण्णत्ती'की अपेक्षा वातवलयोंके विस्तारमें भी नवीनता प्रदर्शित की गई है। 'तिलोयपण्णत्ती' मेंतीनों वातवलयोंके विस्तार क्रमश: १ १⁄२ , १ १⁄६ एवं ११ १⁄२ कोश निर्दिष्ट किया है; पर सिंहसूर्यने दो कोश, एक और १५७५ धनुष बतलाया है। इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ती' में 'ज्योतिषियों के नगरों का बाहुल्य और विस्तार समान कहा गया है, पर इस ग्रन्थमें उसका कथन नहीं किया है। इस प्रकार संस्कृत लोकविभागके अन्तरंग अध्ययनसे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ सर्वनन्दिके लोकविभागका अनुवादमात्र नहीं है। यह संभव है कि सर्वनन्दिने कोई लोकविभाग सम्बन्धी ग्रन्थ लिखा हो और उसका आधार ग्रहणकर सिंहसूर्यने प्रस्तुत लोकविभागको रूप-रेखा निर्धारित की हो। ‘तिलोयपण्णत्ती' में 'संगाइणी' और 'लोकविनिश्चिय' जैसे ग्रन्थोंका भी निर्देश आया है। हमारा अनुमान है कि सिंहसूर्यके लोकविभागमें भी 'तिलोयपण्णत्तो’ के समान ही प्राचीन आचार्योक मतोंका ग्रहण किया गया है। सिंहसूर्यका मुद्रित लोकविभाग वि. सं. की ग्यारहवीं शताब्दीकी रचना है। अत: इसके पूर्व "तिलोयपण्यत्ती'का लिखा जाना स्वतः सिद्ध है। कुछ लोगोंने यह अनुमान किया है कि सर्वनन्दिके लोकविभागका रचनाकाल विक्रमकी पांचवीं शताब्दी है। अतः यतिवृषभका समय उसके बाद होना चाहिए। पर इस सम्बन्धमें हमारा विनम्र अभिमत यह है कि यतिवृषभका समय इतनी दूर तक नहीं रखा जा सकता है।
आचार्य यतिवृषभने अपने 'तिलोयपण्णत्ती' ग्रन्थमें भगवान् महावीरके निर्वाणसे लेकर १००० वर्ष तक होने वाले राजाओंके कालका उल्लेख किया है। अतः उसके बाद तो उनका होना संभव नहीं है। विशेषावश्यकभाष्यकार श्वेताम्बराचार्य श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने अपने विशेषावश्यकभाष्यमें चुर्णीसूत्रकार यतिवृषभके आदेश- कषायविषयक मतका उल्लेख किया है और विशेषावश्यकभाष्यकी रचना शक संवत् ५३१ (वि. सं. ६६६) में होनेका उल्लेख मिलता है। अतः यतिवृषभका समय वि. सं. ६६६ के पश्चात नहीं हो सकता।
आचार्य यतिवृषभ पूज्यपादसे पूर्ववर्ती हैं। इसका कारण यह है कि उन्होंने अपने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थमें उनके एक मतविशेषका उल्लेख किया है-
"अथवा येषां मते सासादन एकेन्द्रियेषु नोत्पद्यते तन्मतापेक्षया द्वादशभागा न दत्ता।"
अर्थात् जिन आचार्यों के मतसे सांसादनगुणस्थानवर्ती जीव एकइन्द्रिय जीवोंमें उत्पन्न नहीं होता है उनके मतकी अपेक्षा १२१४ भाग स्पर्शनक्षेत्र नहीं कहा गया है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि सासादन गुणस्थानवाला मरण कर नियमसे देवोंमें उत्पन्न होता है। यह आचार्य यतिवृषभका ही मत है। लब्धिसार-क्षपणासारके कर्ता आचार्य नेमिचन्दने स्पष्ट शब्दोंमें कहा है-
जदि सरदी सासणो यो गितार निरिनादि ।
णियमादेवं गच्छदि जइवसहमुणिंदवयणेणं॥
र्थात् आचार्य यतिवृषभके वचनानुसार यदि सासादनगुणस्थानवर्ती जीव मरण करता है तो नियमसे देव होता है।
'आचार्य यतिवृषभने चुर्णीसूत्रोंमें अपने इस मतको निम्न प्रकार व्यक्त किया है-
'आसाणं पुण गदो जदि मरदि, ण सक्को णिरयगदि तिरिक्खगदि मणुस गदि वा गंतुं। णियमा देवगदि गच्छदि।'
इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि आचार्य यतिवृषभ पूज्यपादके पूर्ववर्ती हैं और आचार्य पूज्यपादके शिष्य वज्रनन्दिने वि. सं. ५२६ में द्रविडसंघकी स्थापना की है। अतएव यतिवृषभका समय वि. सं. ५२६ से पूर्व सुनिश्चित है।
कितना पूर्व है, यह यहाँ विचारणीय है। गुणधर, आर्यमंक्षु और नागहस्ति के समयका निर्णय हो जानेपर यह निश्चितरूपसे कहा जा सकता है कि यति वृषभका समय आर्यमंक्षु और नागहस्तिसे कुछ ही बाद है।
आधुनिक विचारकोंने तिलोयपण्णत्ती' के कर्ता यतिवृषभके समयपर पूर्णतया विचार किया है। पंडित नाथूराम प्रेमी और श्री जुगल किशोर मुख्तारने यतिवृषभका समय लगभग पाँचवीं शताब्दी माना है। डा. ए. एन. उपाध्येने भी प्रायः इसी समयको स्वीकार किया है। पं. फूल चन्द्रजी सिद्धान्सशास्त्रीने वर्तमान तिलोयपण्णत्तीके संस्करणका अध्ययन कर उसका रचनाकाल वि. की नवीं शताब्दी स्वीकार किया है। पर यथार्थतः यत्तिवृषभका समय अन्तःसाक्ष्यके आधारपर नागहस्तिके थोड़े अनन्तर सिद्ध होता है। यतिवृषभने तिलोयपण्णत्तीके चतुर्थ अधिकारमें बताया है कि भगवान् महावीरके निर्वाण होने के पश्चात् ३ वर्ष, आठ मास और एक पक्षके व्यतीत होनेपर पञ्चम काल नामक दुषम कालका प्रवेश होता है। इस कालमें वीर नि. सं. ६८३ तक केवली, श्रुतकेवलो और पूर्वधारियोंकी परम्परा चलती है। वीर-निर्वाणके ४७१ ? वर्ष पश्चात् शक राजा उत्पन्न होता है। शकोंका राज्य काल २४२ वर्ष बतलाया है। इसके पश्चात् यतिवृषभने गुप्तोंके राज्यकालका उल्लेख किया है। और इनका राज्यकाल २५५ वर्षे बतलाया है। इसमें ४२ वर्ष समय कल्किका भी है। इस प्रकरणके आगेवाली गाथाओंमें आन्ध्र, गुप्त आदि नृपत्तियों के वंशों और राज्यवर्षोंका निर्देश किया है। इस निर्देशपरस डा. ज्योतिप्रसादजीने निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है-
'आचार्य यतिवृषभ ई. सन् ४७८, ४८३, या ई. सन् ५०० में वर्तमान रहते, जैसा कि अन्य विद्वानोंने माना है, तो वे गुप्तवंशके ई. सन् ४३१ में समाप्तिको चर्चा नहीं करते। उस समय (ई. सन् ४१४-४५५ ई.) कुमारगुप्त प्रथमका शासनकाल था, जिसका अनुसरण उसके वीर पुत्र स्कन्दगुप्त (ई. ४५५-४६७) ने किया। इतिहासानुसार यह राजवंश ५५० ई. सन् तक प्रतिष्ठित रहा है। "तिलोयपण्णत्ती' की गाथाओं द्वारा यह प्रकट होता है कि गुप्तवंश २०० या १७६ ई. सन् में प्रारम्भ हुआ। यह कथन भी भ्रान्तिमूलक प्रतीत होता है क्योंकि इसका प्रारम्भ ई. सन् ३१९-३२० में हुआ था। इस प्रकार गुप्तवंशके लिए कुल समय २३१ वर्ष या २५५ वर्ष यथार्थ घटित होता है| शकोंका राज्य निश्चय ही वीर नि. सं. ४६१ (ई.प. ६६) में प्रारंभ हो गया था और यह ई. सन् १७६ तक वर्तमान रहा। ई. सन् ५वीं शतीका लेखक अपने पूर्वके नाम या कालके विषयमें भ्रान्ति कर सकता है; पर समसामयिक राजवंशोके कालमें इस प्रकारकी भ्रान्ति संभव नहीं है।
अतएव इतिहासके आलोकमें यह निस्संकोच माना जा सकता है कि "तिलोयपणत्ती' की ४।१४७४-१४९६ और ४।१४९९-१५०३ तथा उसके आगे की गाथाएं किसी अन्य व्यक्ति द्वारा निबद्ध की गई है। निश्चय हो ये गाथाएं ई. सन् ५०० के लगभगकी प्रक्षिप्त है।
'तिलोयपण्णत्ती'का प्रारम्भिक अंशरूप सैद्धान्तिक तथ्य मूलतः यतिवृषभ के हैं, जिनमें उन्होंने महावीर नि. सं. ६८३ या ७०३ (ई. सन् १५६-१७६) तककी सूचनाएँ दी हैं। 'तिलोयपण्णत्ती' के अन्य अंशोंके अध्ययनसे यह प्रतीत होता है कि यतिवृषभ द्वारा विरचित इस ग्रन्थका प्रस्तुत संस्करण किसी अन्य आचार्यने सम्पादित किया है। यही कारण है कि सम्पादनकर्तासे इतिहास सम्बन्धी कुछ भ्रान्तियाँ हुई हैं। यतिवृषभका समय शक सं. के निर्देशके आधार पर ‘तिलोयपण्णत्ती’ के आलोकमें भी ई. सन् १७६ के आसपास सिद्ध होता है।
यतिवृषभ अपने युगके यशस्वी आगमज्ञाता विद्वान थे। ई. सन् सातवी शतीके तथा उत्तरवर्ती लेखकोंने इनकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा की है। इनके गुरुओंके नामों में आर्यमंक्षु और नागहस्तिकी गणना है। ये दोनों आचार्य श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओद्वारा मान सम्मानित थे।
"तिलोयपण्णती' के वर्तमान संस्करणमें भी कुछ ऐसो गाथाएँ समाविष्ट हैं जो आचार्य कुन्दकुन्दके ग्रंथो में पाई जाती हैं। इस समत्तासे भी उनका समय कुन्दकुन्दके पश्चात् आता है।
विचारणीय प्रश्न यह है कि यतिवृषभके पूर्व यदि 'महाकर्मप्रकृतिप्राभृत' का ज्ञान समाप्त हो गया होता, तो यतिवृषभको कर्मप्रकृतिका ज्ञान किससे प्राप्त होता? अत: यतिवृषभका स्थिति-काल ऐसा होना चाहिए, जिसमें 'कर्म प्रकृतिप्राभृत' का ज्ञान अवशिष्ट रहा हो। दूसरी बात यह है कि 'षटखण्डागम' और 'कषायप्राभृत' में अनेक तथ्योंमें मतभेद है और इस मतभेदको तन्त्रान्तर कहा है। धवला और जयधवलामें भूतबलि और यतिवृषभके मतभेदकी चर्चा आई है। इससे भी यतिवृषभको भूतबलिसे बहुत अर्वाचीन नहीं माना जा सकता है।
निर्विवादरूपसे यतिवृषभकी दो ही कृतियाँ मानी जाती हैं- १, 'कसाय पाहुड' पर रचित 'चुर्णीसूत्र' और २. तिलोयपण्णती। तिलोयपण्पत्तीको अन्तिम गाथामें चूणिसूत्रका उल्लेख आया है। बताया है-
चुण्णिसरूवट्ठक्करण सख्वपमाण होइ कि जत्तं।
अटुसहस्सपमाणं तिलोमपत्तिणामाए॥
इससे स्पष्ट है कि 'तिलोयपण्णत्ती' में चणिसूत्रोंको संख्या आठ हजार मानी है। पर इन्द्रनन्दिके 'श्रुतावसार' के अनुसार चूणिसूत्रोंका परिमाण छ: हजार श्लोक प्रमाण है; पर इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि चूर्णिसूत्र कितने थे| जयधाव लाटोकासे इन सूत्रोंका प्रमाण ज्ञात किया जा सकता है। सूत्रसंख्या निम्न प्रकार है -
अधिकारनाम | सूत्रसंख्या | अधिकारनाम | सूत्रसंख्या |
प्रेयोद्वेषविभक्ति | ११२ | वेदक | ६६८ |
प्रकृतिविभक्ति | १२९ | तपयोग | ३२१ |
स्थितिविभक्ति | ४०७ | चतु:स्थान | २५ |
अनुभागविभक्ति | १८९ | व्यंजन | २ |
प्रदेशविभक्ति | २९२ | दर्शनमोहोपशामना | १४० |
क्षीणाक्षीणाधिकार | १४२ | दर्शनमोहक्षपणा | १२८ |
स्थित्यन्तिक | १०६ | संयमासंयमलब्धि | ९० |
बन्धक | ११ | संयमलब्धि | ६६ |
प्रकृतीसंक्रमण | २६५ | चारित्रमोहोपशामना | ७०६ |
स्थितिसंक्रमण | ३०८ | चारित्रमोहक्षपणा | १५७० |
अनुभागसंक्रमण | ५४० | पश्चिमस्कन्ध | ५२ |
प्रदेशसंक्रमण | ७४० | ||
३२४१ | ३७६८ |
कुल ३२४१ + ३७६८ = ७००९
चूर्णिसूत्रकारने प्रत्येक पदको बीजपद मानकर व्याख्यारूपमें सूत्रोंकी रचना की है। इन्होंने अर्थबहुल पदों द्वारा प्रमेयका प्रतिपादन किया है। आचार्य वीरसेनके आधारपर चूर्णिसूत्रोंको सात वर्गोंमें विभक्त किया जा सकता है-
१. उत्थानिकासूत्र - विषयकी सूचना देने वाले सूत्र।
२. अधिकारसूत्र - अनुयोगद्वारके आरम्भ में लिखे गये अधिकारबोधक सुत्र।
३. शंका सूत्र - विषयके विवेचन करनेके हेतु शंकाओंको प्रस्तुत करने वाले सत्र।
४. पृच्छासूत्र - वक्तव्यविशेषको जिज्ञासा प्रकट करने वाले सूत्र।
५. विवरणसूत्र - विषयका विवेचन या व्याख्यान करनेवाले सुत्र।
६. समर्पणसूत्र - उच्चारणाचार्योंद्वारा व्याख्यान करने हेतु समर्पित सूत्र।
७. उपसंहारसूत्र - प्रकृत विषयका उपसंहार करनेवाले सूत्र।
चूर्णिसूत्रोंमें प्रयुक्त 'भणियव्वा', 'णेदव्वा', 'कायव्वा', 'परुवेयब्बा' आदि पद इस बात के द्योतक हैं कि उच्चारणाचार्य इस प्रकारके पदोंका अर्थबोध कराते थे। चूर्णिकार यतिवृषभ जिस अर्थका व्याख्यान विस्तारभयसे नहीं कर सके उनके व्याख्यानका दायित्व उन्होंने उच्चारणाचार्यों या व्याख्यानाचार्यों पर छोड़ा है। निश्चयतः चूर्णिसूत्रकारने 'कसायपाहुड' के गम्भीर अर्थको बड़े ही सुन्दर और ग्राह्यरूपमें निबद्ध किया है। गाथासूत्रोंमें जिन अनेक विषयोंके संकेत दिये गयें हैं उनका प्रतिपादन चूर्णिसूत्रोंमें किया गया है। चूर्णिसूत्रकारने अपने स्वतन्त्र मतका भी यत्र तत्र प्रतिपादन किया है। इन्होंने चूर्णिसूत्र में जिन १५ अर्थाधिकारोंका निर्देश किया है, उनमें गुणधर द्वारा निर्दिष्ट अर्थाधिकारोंसे अन्तर पाया जाता है। जयधवलामें विवेचन करते हुए लिखा है कि गुणधर भट्टारकके द्वारा कहे गये १५ अधिकारोंके रहते हुए इन अधिकारोंको अन्य रूपमें प्रतिपादन करनेके कारण गुणधर भट्टारकके यतिवृषभ दोष-दर्शक क्यों नहीं कहलाते? वीरसेन स्वामीने लिखा है कि यतिवृषभने गुणधराचार्य के द्वारा कहे गये अधिकारोंका निषेध नहीं किया; किन्तु उनके कथनको ही प्रकारान्तरसे व्यक्त किया है। गुणधर द्वारा कथित १५ अधिकारोंका अर्थ यह नहीं है कि ये ही अधिकार हो सकते हैं, अन्य तरहसे वर्णन नहीं हो सकता। चूर्णिसूत्रकारने निम्नलिखित १५ अधिकारोंका कथन किया है-
१. प्रेयोद्वेष
२. प्रकृति-स्थिति अनुभाग-प्रदेश क्षीण-स्थित्यन्तक
३. बन्धक
४. संक्रम
५. उदयाधिकार
६. उदिर्णाधिकार
७. उपयोगधिकार
८. चतुःस्थानाधिकार
९. व्यञ्जनाधिकार
१०. दर्शनमोहनीय उपशमनाधिकार
११. दर्शनमोहनीयक्षपणाधिकार
१२. देशविरति-अधिकार
१३. चारित्रमोहनीयउपशमनाधिकार
१४. चारित्रमोहनीयक्षपणाधिकार
१५. अद्धापरिमाणनिर्देशकअधिकार
'कसायपाहुड' की दो गाथाओं में १५ अधिकारोंके नाम आये हैं। उनका अन्तिम पद 'अद्धापरिभाणनिदे्सों है। कुछ आचार्य इसे अदापारमाणनिर्देश पन्द्रहवा अधिकार मानते हैं; किन्तु जिन १८० गाथाओंमें १५ अधिकारोंके वर्णन करनेको प्रतिज्ञा की है उनमें अद्धापरिमाणका निर्देश करनेवाली छ: गाथाएं नहीं आई हैं तथा १५ अधिकारोंमें गाथाओंका विभाग करते हुए इस प्रकारकी कोई सुचना भी नहीं दी गई है। इससे अवगत होता है कि गुणधराचार्यको अद्धापारमाणनिर्देश अधिकार अभीष्ट नहीं था, किन्तु यतिवृषभने इसे एक स्वतन्त्र अधिकार माना है।
चूर्णिसूत्रोंके अध्ययनसे ज्ञात होता है कि यतिवृषभने १५ अधिकारोंका निर्देश करके भी अपने चूर्णिसूत्रोंकी रचना गुणधराचार्यके द्वारा निर्दिष्ट अधिकारोंके अनुसार ही की है। यह स्मरणीय है कि यतिवृषभने अधिकारके लिए अनुयोगद्वारका प्रयोग किया है। यह आगमिक शब्द है। अतएव उन्होंने आगमशैलीमें ही सूत्रोंकी रचना कर 'कसायपाहुड' के विषयका स्पष्टीकरण किया है। चूर्णिसूत्रोंका विषय 'कसायपाहुड' का ही विषय है, जिसमें उन्होंने राग और द्वेषका विशिष्ट विवेचन अनुयोगद्वारोंके आधारपर किया है।
‘तिलोयपण्णत्तो' में तीन लोकके स्वरूप, आकार, प्रकार, विस्तार, क्षेत्रफल और युगपरिवर्तन आदि विषयोंका निरूपण किया गया है। प्रसंगवश जैन सिद्धान्त, पुराण और भारतीय इतिहास विषयक सामग्री भी निरूपित है। यह ग्रन्थ ९ महाधिकारोंमें विभक्त है-
१. सामान्य जगतस्वरूप,
२. नारकलोक,
३. भवनवासलोक,
४. मनुष्य लोक,
५. तिर्यंक्लोक,
६. व्यन्तरलोक,
७. ज्योतिर्लोक,
८. सुरलोक और
९. सिद्धलोक।
इन नौ महाधिकारोंके अतिरिक्त अवान्तर अधिकारोंकी संख्या १८० है। द्वितीयादि महाधिकारोंके अवान्तर अधिकार क्रमशः १५, २४, १६, १६, १७, १७, २१, ५ और ४९ हैं। चतुर्थं महाधिकारके जम्बूद्वीप, धातकीखण्डद्वीप और पुष्करद्वीप नामके अवान्तर अधिकारोंमेंसे प्रत्येकके सोलह-सोलह अन्तर अधिकार हैं। इस प्रकार इस ग्रन्थका विषय-विस्तार अत्यधिक है।
इस ग्रन्थमें भूगोल और खगोलका विस्तृत निरूपण है। प्रथम महाधिकारमें २८३ गाथाएँ हैं और तीन गद्य-भाग हैं। इस अधिकारमें १८ प्रकारकी महाभाषाएँ और १०० प्रकारको क्षुद्र भाषाएँ उल्लिखित हैं। राजगृहके विपुल, ऋशी विभाग, चिव और पांडू नामके शैलीका उल्लेख है। दृष्टिवाद सूत्रके आधारपर त्रिलोककी मोटाई, चौड़ाई और ऊँचाईका निरूपण किया है।
दुसरे महाधिकारमें ३६७ गाथाएँ हैं, जिनमें नरकलोकके स्वरूपका वर्णन है। तीसरे महाधिकारमें २४३ गाथाएं हैं। इनमें भवनवासी देवों के प्रासादोंमें जन्म शाला, अभिषेकशाला, भूषणशाला, मैथुनशाला, औषधशाला- परिचर्यागृह और मन्त्रशाला आदि शालाओं तथा सामान्यगृह, गर्भगृह, कदलीगृह, चित्रगृह, आसनगृह, नादगृह एवं लतागृह आदिका वर्णन है। अश्वत्थ, सप्तपर्ण, शाल्मलि, जम्बू, वेतस, कदम्ब, प्रियंगु, शिरीष, पलाश और राजद्रुम नामके दश चैत्य वृक्षोंका उल्लेख है। चतुर्थ महाधिकारमें २९६१ गाथाएं हैं। इसमें मनुष्यलोकका वर्णन करते हुए विजयाद्धके उत्तर और दक्षिण अवस्थित नगरियोंका उल्लेख है। आठ मंगलद्रव्यों में भृंगार, कलश, दर्पण, व्यजन, ध्वजा, छत्र, चमर और सुप्रतिष्ठके नाम आये हैं। भोग-भूमिमें स्थित दश कल्पवृक्ष, नरनारियोंके आभूषण, तीर्थकरोंकी जन्मभूमि, नक्षत्र आदिका निर्देश किया गया है। बताया गया है कि नेमि, मल्लि, महावीर, वासुपूज्य और पार्श्वनाथ कुमारावस्थामें और शेष तीर्थकर राज्य के अन्त में दीक्षित हुए हैं। समवशरणका ३० अधिकारोंमें विस्तृत वर्णन है। पांचवें महाधिकारमें ३२१ गाथाएँ हैं। इसमें गद्य-भाग भी है। जम्बूद्वीप, लवण समुद्र, घातकीखण्ड, कालोद समुद्र, पुष्करवर द्वीप आदिका विस्तार सहित वर्णन है। छठे महाधिकारमें १०३ गाथाएं हैं, जिनमें १७ अन्तराधिकारों का समावेश है। इनमें व्यन्तरोंके निवास क्षेत्र, उनके अधिकार क्षेत्र, उनके भेद, चिह्न, उत्सेध, अवधिज्ञान आदिका वर्णन है। सातवे महाधिकारमें ६१९ गाथाएँ हैं, जिनमें ज्योतिषी देवोंका वर्णन है। आठवें महाधिकारमें ७०३ गाथाएँ हैं, जिनमें वैमानिक देवोंके निवास स्थान, आयु, परिवार, शरीर, सुखभोग आदिका विवेचन है। नवम महाधिकारमें सिद्धोंके क्षेत्र, उनकी संख्या, अव गाहना और सुखका प्ररूपण किया गया है। मध्यमें सूक्तिगाथाएँ भी प्राप्त होती हैं। यथा-
अन्धो णिवडइ कूवे बहिरो ण सुणेदि साधु-उवदेस।
पेच्छंतो णिसुणतो णिरए जं पडइ सं चोज्जं।।
अर्थात् अन्धा व्यक्ति कूपमें गिर सकता है, बधिर साधूका उपदेश नहीं सुनता है, तो इसमें आश्चर्यकी बात नहीं। आश्चर्य इस बातका है कि जीव देखता और सुनता हुआ नरकमें जा पड़ता है।
इस ग्रन्थमें आये हुए गद्य-भाग धवलाकी गद्यशैलीके तुल्य हैं। गद्यांशोसे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि ये गद्यांश धवलासे ‘तिलोयपण्णत्ती’ में आये हैं; बल्की तिलोयपण्णन्ती से ही धवलामें पहुंचे हैं-
"एसा तप्पाओगासंखेज्जरूबाहियजंबूदीवछेद्धणयसहिददीबसायररूपमेत्त रज्जुच्छेदपमाणपरिक्खाविहो ण अण्णआइरिओवएसपरंपराणुसारिणी केवलं तु तिलोयपण्णत्तिसुत्ताणुसारिजोदिसियदेवभागहारपदुणाइदसुत्तावलंबजुत्तिबलेण पयदगच्छसागट्टमम्हेहि परूविदा।"
यह गद्यांश धवला स्पर्शानुयोगद्वार पु. १५७ पर भी उद्धत है। उसमें 'एसा’ के स्थानपर 'अम्हेहि’ रूप पाया जाता है। उपयुंक्त गद्य भागमें एक राजुके जितने अद्धच्छेद बतलाये हैं उनकी समता ‘तिलोयपण्णत्तो’ के अर्द्धच्छेदोंसे नहीं होती। इसीपर मुख्तार साहबका अनुमान है कि धवलासे यह गद्यांश "तिलोय पण्णत्ती’ में लिया गया है। पर हमें ऐसा प्रतीत नहीं होता। हमारा अनुमान है कि धवलाकारके समक्ष यतिवृषभकी ‘तिलोयपण्पत्ती' रही है, जिसके आधारपर यकिञ्चित्त परिवर्तनके साथ 'तिलोयपप्णत्ती'का प्रस्तुत संस्करण निबद्ध किया गया है।
पं. हीरालालजी शास्त्रोके मतानुसार आचार्य यतिवृषभको एक अन्य रचना 'कम्मपयडि' चुर्णी भी है। यतिवृषभ के नामसे करणसूत्रों का निर्देश भी प्राप्त होता है, पर आज इन करणसूत्रों का संकलित रूप प्राप्त नहीं है।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतधराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
श्रुतधराचार्यों की परंपरामें आचार्य यतिवृषभ का नाम आता है। जयधवला टीकाके निर्देशानुसार आचार्य यतिवृषभने आर्यमंक्षु और नागहस्तिसे कसायपाहुडकी गाथाओंका सम्यक् प्रकार अध्ययनकर अर्थ अवधारण किया और कसायपाहुडपर चूर्णिसूत्रोंकी रचना की। जयधवलामें वृत्तिसूत्रका लक्षण बताते हुए लिखा है-
"सुत्तस्सेव विवरणाए संखित्तसद्दरयणाए संगह्यिसुत्तासे सत्याए वित्तिसुत्तवव एसादो।"
अर्थात् जिसकी शब्दरचना संक्षिप्त हो और जिसमें सूत्रगत अशेष अर्थोका संग्रह किया गया हो ऐसे विवरणको वृत्तिसूत्र कहते हैं।
जयधवलाटीकमें अनेकस्थलोंपर यतिवृषभका उल्लेख किया है। लिखा है-
"एवं जइवसहाइरिमदेसामासियसूसत्थपरूवर्ण काऊण संपहि जइवसहा इग्यिसूचिदत्थमुच्चारणाए भणिस्सामो।"
अर्थात् यतिवृषभ आचार्य द्वारा लिखे गये चूर्णिसूत्रोंका अवलम्बन लेकर उक्तार्थ प्रस्तुत किया गया।
इन उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि यत्तिवृषभने चूर्णिसूत्रोंकी रचना संक्षिप्त शब्दावलीमें प्रस्तुत कर महान् अर्थको निबद्ध किया है। यदि आचार्य यतिवृषभ चूर्णिसूत्रोंकी रचना न करते, सो बहुत संभव है कि कसायपाहुडका अर्थ ही स्पष्ट न हो पाता। अत: दिगम्बर परम्परामें चूर्णिसूत्रोंके प्रथम रचयिता होनेके कारण यतिवृषभका अत्यधिक महत्व है। चूर्णिसूत्रको परिभाषापर षट्खण्डागमकी धवलाटोकासे भी प्रकाश पड़ता है। वीरसेन आचायने षट्खण्डागमके सूत्रोंको' भी 'चुण्णिसुत्त' कहा है। यहां उन्हीं सूत्रोंको चूर्णिसूत्र कहा है जो गाथाके व्याख्यानरूप हैं। वेदनाखण्डमें कुछ गाथाएँ भी आती है जो व्याख्यानरूप हैं। धवलाकारने उन्हें चूर्णिसूत्र कहा है।
धवलाकारने यतिवृषभाचार्य के चूर्णिसूत्रोंको वृत्तिसूत्र भी कहा है। वृत्तिसूत्रका पूर्वमें लक्षण लिखा जा चुका है। श्वेताम्बर परम्परामें चूर्णिपदकी व्याख्या करते हुए लिखा है-
अत्थबहुलं महत्थं हेउ-निवाओवसग्गगंभीरं।
बहुपायमवोच्छिन्नं गय-णयसुदं तु चुण्णपयं।।
अर्थात् जिसमें महान् अर्थ हो, हेतु, निपात और उपसर्गसे युक्त हो, गम्भीर हो, अनेकपद समन्वित हो, अव्यवच्छिन्न हो और तथ्यकी दृष्टिसे जो धारा प्रवाहिक हो, उसे चूर्णिपद कहते हैं ।
आशय यह है कि जो तीर्थंकरकी दिव्यध्वनिसे निस्सृत बीजपदोंका अर्थोद्घाटन करने में समर्थ हो वह चुणिपद है। यथार्थतः चूणिपदोंमें बीजसूत्रोंको विवृत्त्यात्मक सूत्र-रूप रचना की जाती है और तथ्योंको विशेषरूपमें प्रस्तुत किया जाता है।
यहाँ यह ध्यातव्य है कि श्वेताम्बर परम्पराकी चूर्णियोंसे इन चूर्णिसूत्रोंकी शैली और विषयवस्तु बहुत भिन्न है। यतिवृषभ द्वारा विरचित चूर्णिसूत्र कहलाते हैं, चूर्णियाँ नहीं। इसका अर्थ यह है कि यतिवृषभके चूर्णिसूत्रोंका महत्त्व ‘कसायपाहुड' की गाथाओंसे किसी तरह कम नहीं है। गाथासूत्रोंमें जिन अनेक विषयोंके संकेत उपलब्ध होते हैं, चूर्णिसूत्रोंमें उनका उद्घाटन मिलता है। अतः 'कसायपाहुड' और ‘चूर्णिसूत्र' दोनों ही आगमविषयकी दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण हैं।
आचार्य वीरसेनके उल्लेखानुसार चूर्णिसूत्रकारका मत 'कसायपाहुड' और 'षट्खण्डागम' के मतके समान ही प्रामाणिक एवं महत्वपूर्ण है। वि. को ग्यारहवीं शताब्दो में आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवतीने 'लब्धिसार’ नामक ग्रन्थमें पहले यतिवृषभके मतका निर्देश किया है। तदनन्तर भूतबलिके मतका। इससे स्पष्ट है कि यतिवृषभके चूर्णिसूत्र मुलग्रंथोके समान ही महत्वपूर्ण और उपयोगी थे।
यह सत्य है कि यतिवृषभाचार्य का व्यक्तित्व आगमव्याख्याताकी दृष्टिसे अत्यधिक है। इन्होंने आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार इन पांच उपक्रमोंकी दृष्टि से सूत्ररूप अर्थोद्घाटन किया है। यतिवृषभ विभाषा सूत्र, अवयवार्थ एवं पदच्छेदपूर्वक व्याख्यान करते गये हैं।
चूर्णिसूत्रकार यतिवृषभके व्यक्तित्वमें निम्नलिखित विशेषताएँ उपलब्ध होती हैं-
१. यतिवृषभ आठवें कर्मप्रवादके ज्ञाता थे।
२. नन्दिसूत्रके प्रमाणसे ये कर्मप्रकृतिके भी ज्ञाता सिद्ध होते हैं।
३. आर्यमंक्षु और नागहस्तिका शिष्यत्व इन्होंने स्वीकार किया था।
४. आत्मसाधक होनेके साथ ये श्रुताराधक हैं।
५. धवला और जयधवलामें भूतबलि और यतिवृषभके मतभेद परिलक्षित होते हैं।
६. व्यक्तित्वको महनीयताको दृष्टिसे यतिवृषभ भूतबलिके समकक्ष है। इनके मतोंकी मान्यता सार्वजनीन है।
७. चूर्णिसूत्रों में यतिवृषभने सूत्रशैलीको प्रतिबिम्बित किया है।
८. परम्परासे प्रचलित ज्ञानको आत्मसात् कर चूणिसूत्रोंकी रचना की गई है।
९. यतिवृषभ आगमवेत्ता तो थे, ही पर उन्होंने सभी परम्पराओंमें प्रचलित उपदेशशैलीका परिज्ञान प्राप्त किया और अपनी सूक्ष्म प्रतिभाका चूर्णिसूत्रोंमें उपयोग किया।
चूर्णिसूत्रकार आचार्ग यतिवृषभके समयके सम्बन्धमें विचार करनेसे ज्ञात होता है कि ये षट्खण्डागमकार भूतबलिके समकालीन अथवा उनके कुछ ही उत्तरवर्ती हैं। कुन्दकुन्द तो इनसे अवश्य प्राचीन हैं। बताया गया है कि प्रवचनवात्सल्यसे प्रेरित होकर इन्होंने गुणधरके 'कसायपाहुड' पर चूर्णिसूत्रोंकी रचना की। यतिवृषभके ग्रन्थों के अवलोकनसे यह ज्ञात होता है कि इनके समक्ष षट्खण्डागम, लोकविनिश्चय, संगाइणी और लोकविभाग (प्राकृत) जैसे ग्रंथ विद्यमान थे। इन ग्रन्थो का सम्यक् अध्ययनकर इन्होंने चूर्णिसूत्रों की रचना की।
तिलोयपण्णत्ती' में-
"जलसिहरे विक्खंभो जलणिहिणो जोयणा दससहस्सा।
एवं संगाइणिए लोयविभाए विणिांइट्ट।।
लोयविणिच्छय-ग्रंथे लोयविभागम्मि सव्वसिद्धाणं।
ओगाहण-परिमाणं भणिदं किंचूणचरिमदेहसमो॥
इन गाथाओंमें लोकविभागका उल्लेख आया है। यह लोकविभाग अन्य संभवतः आचार्य सर्वनन्दि द्वारा विरचित होना चाहिए। पर यतिवृषभके समक्ष यही लोकविभाग था, इसका कोई निश्चय नहीं। लोकानुयोगके ग्रंथ प्राचीन हैं और संभवतः यतिवृषभके समक्ष कोई प्राचीन लोकविभाग रहा होगा। इन सर्वनन्दिने काञ्चीके राजा सिंहवर्माके राज्यके बाईसवें वर्षमें जब शनिश्चर उत्तराषाढा नक्षत्र पर स्थित था, बृहस्पति वृष राशिमें और चन्द्रमा उत्तराफाल्गुणी नक्षत्रमें अवस्थित था; इस ग्रंथकी रचना की। यह अन्य शक सं. ३८० (वि. सं. ५१५) में पाणराष्ट्रके पाटलिक ग्राममें पूरा किया गया। सर्वनन्दिके इस लोकविभागका निर्देश सिंहसूर्यके संस्कृत लोकविभागकी प्रशस्तिमें पाया जाता है ।
वैश्वे स्थिते रविसुते वृषभे च जीचे
राजोत्तरेषु सितपक्षमुपेत्य चन्द्रे।
ग्रामे च पाटलिकनामनि पाणराष्ट्रे
शास्त्रं पुरा लिखितवान् मुनिसवंनन्दी॥
संवत्सरे तु द्वाविशे काञ्चीश: सिहवर्मणः।
अशीत्यग्ने शकाब्दानां सिद्धमेतच्छत्तत्रमे।।
इस प्रशस्तिसे आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने यह निष्कर्ष निकाला है कि सिंहसूर्यका यह लोकविभाग सर्वनन्दिके प्राकृत लोकविभागका अनुवादमात्र है। उन्होंने भाषाका परिवर्तन ही किया है, मौलिक कुछ नहीं लिखा। पर इस लोकविभागके अध्ययनसे उक्त निष्कर्ष पूर्णतया निभ्रांन्त प्रतीत नहीं होता; क्योंकि सिंहसूर्यके प्रकाशित इस लोकविभागमें तिलोयपण्णत्ती', 'हरिवंश’ एवं 'आदिपुराण' आदि ग्रन्थोंका आधार भी प्राप्त होता है। संस्कृत-लोक विभागके पञ्चम विभाग सम्बन्धी ३८वे पद्मसे १३७वे पद्यका कुल चौदह कुल करोंका प्रतिपादन आदिपुराणके श्लोकों या श्लोकांशों द्वारा किया गया है। इसी प्रकार ‘तिलोयपण्णत्ती'की अपेक्षा वातवलयोंके विस्तारमें भी नवीनता प्रदर्शित की गई है। 'तिलोयपण्णत्ती' मेंतीनों वातवलयोंके विस्तार क्रमश: १ १⁄२ , १ १⁄६ एवं ११ १⁄२ कोश निर्दिष्ट किया है; पर सिंहसूर्यने दो कोश, एक और १५७५ धनुष बतलाया है। इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ती' में 'ज्योतिषियों के नगरों का बाहुल्य और विस्तार समान कहा गया है, पर इस ग्रन्थमें उसका कथन नहीं किया है। इस प्रकार संस्कृत लोकविभागके अन्तरंग अध्ययनसे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ सर्वनन्दिके लोकविभागका अनुवादमात्र नहीं है। यह संभव है कि सर्वनन्दिने कोई लोकविभाग सम्बन्धी ग्रन्थ लिखा हो और उसका आधार ग्रहणकर सिंहसूर्यने प्रस्तुत लोकविभागको रूप-रेखा निर्धारित की हो। ‘तिलोयपण्णत्ती' में 'संगाइणी' और 'लोकविनिश्चिय' जैसे ग्रन्थोंका भी निर्देश आया है। हमारा अनुमान है कि सिंहसूर्यके लोकविभागमें भी 'तिलोयपण्णत्तो’ के समान ही प्राचीन आचार्योक मतोंका ग्रहण किया गया है। सिंहसूर्यका मुद्रित लोकविभाग वि. सं. की ग्यारहवीं शताब्दीकी रचना है। अत: इसके पूर्व "तिलोयपण्यत्ती'का लिखा जाना स्वतः सिद्ध है। कुछ लोगोंने यह अनुमान किया है कि सर्वनन्दिके लोकविभागका रचनाकाल विक्रमकी पांचवीं शताब्दी है। अतः यतिवृषभका समय उसके बाद होना चाहिए। पर इस सम्बन्धमें हमारा विनम्र अभिमत यह है कि यतिवृषभका समय इतनी दूर तक नहीं रखा जा सकता है।
आचार्य यतिवृषभने अपने 'तिलोयपण्णत्ती' ग्रन्थमें भगवान् महावीरके निर्वाणसे लेकर १००० वर्ष तक होने वाले राजाओंके कालका उल्लेख किया है। अतः उसके बाद तो उनका होना संभव नहीं है। विशेषावश्यकभाष्यकार श्वेताम्बराचार्य श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने अपने विशेषावश्यकभाष्यमें चुर्णीसूत्रकार यतिवृषभके आदेश- कषायविषयक मतका उल्लेख किया है और विशेषावश्यकभाष्यकी रचना शक संवत् ५३१ (वि. सं. ६६६) में होनेका उल्लेख मिलता है। अतः यतिवृषभका समय वि. सं. ६६६ के पश्चात नहीं हो सकता।
आचार्य यतिवृषभ पूज्यपादसे पूर्ववर्ती हैं। इसका कारण यह है कि उन्होंने अपने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थमें उनके एक मतविशेषका उल्लेख किया है-
"अथवा येषां मते सासादन एकेन्द्रियेषु नोत्पद्यते तन्मतापेक्षया द्वादशभागा न दत्ता।"
अर्थात् जिन आचार्यों के मतसे सांसादनगुणस्थानवर्ती जीव एकइन्द्रिय जीवोंमें उत्पन्न नहीं होता है उनके मतकी अपेक्षा १२१४ भाग स्पर्शनक्षेत्र नहीं कहा गया है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि सासादन गुणस्थानवाला मरण कर नियमसे देवोंमें उत्पन्न होता है। यह आचार्य यतिवृषभका ही मत है। लब्धिसार-क्षपणासारके कर्ता आचार्य नेमिचन्दने स्पष्ट शब्दोंमें कहा है-
जदि सरदी सासणो यो गितार निरिनादि ।
णियमादेवं गच्छदि जइवसहमुणिंदवयणेणं॥
र्थात् आचार्य यतिवृषभके वचनानुसार यदि सासादनगुणस्थानवर्ती जीव मरण करता है तो नियमसे देव होता है।
'आचार्य यतिवृषभने चुर्णीसूत्रोंमें अपने इस मतको निम्न प्रकार व्यक्त किया है-
'आसाणं पुण गदो जदि मरदि, ण सक्को णिरयगदि तिरिक्खगदि मणुस गदि वा गंतुं। णियमा देवगदि गच्छदि।'
इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि आचार्य यतिवृषभ पूज्यपादके पूर्ववर्ती हैं और आचार्य पूज्यपादके शिष्य वज्रनन्दिने वि. सं. ५२६ में द्रविडसंघकी स्थापना की है। अतएव यतिवृषभका समय वि. सं. ५२६ से पूर्व सुनिश्चित है।
कितना पूर्व है, यह यहाँ विचारणीय है। गुणधर, आर्यमंक्षु और नागहस्ति के समयका निर्णय हो जानेपर यह निश्चितरूपसे कहा जा सकता है कि यति वृषभका समय आर्यमंक्षु और नागहस्तिसे कुछ ही बाद है।
आधुनिक विचारकोंने तिलोयपण्णत्ती' के कर्ता यतिवृषभके समयपर पूर्णतया विचार किया है। पंडित नाथूराम प्रेमी और श्री जुगल किशोर मुख्तारने यतिवृषभका समय लगभग पाँचवीं शताब्दी माना है। डा. ए. एन. उपाध्येने भी प्रायः इसी समयको स्वीकार किया है। पं. फूल चन्द्रजी सिद्धान्सशास्त्रीने वर्तमान तिलोयपण्णत्तीके संस्करणका अध्ययन कर उसका रचनाकाल वि. की नवीं शताब्दी स्वीकार किया है। पर यथार्थतः यत्तिवृषभका समय अन्तःसाक्ष्यके आधारपर नागहस्तिके थोड़े अनन्तर सिद्ध होता है। यतिवृषभने तिलोयपण्णत्तीके चतुर्थ अधिकारमें बताया है कि भगवान् महावीरके निर्वाण होने के पश्चात् ३ वर्ष, आठ मास और एक पक्षके व्यतीत होनेपर पञ्चम काल नामक दुषम कालका प्रवेश होता है। इस कालमें वीर नि. सं. ६८३ तक केवली, श्रुतकेवलो और पूर्वधारियोंकी परम्परा चलती है। वीर-निर्वाणके ४७१ ? वर्ष पश्चात् शक राजा उत्पन्न होता है। शकोंका राज्य काल २४२ वर्ष बतलाया है। इसके पश्चात् यतिवृषभने गुप्तोंके राज्यकालका उल्लेख किया है। और इनका राज्यकाल २५५ वर्षे बतलाया है। इसमें ४२ वर्ष समय कल्किका भी है। इस प्रकरणके आगेवाली गाथाओंमें आन्ध्र, गुप्त आदि नृपत्तियों के वंशों और राज्यवर्षोंका निर्देश किया है। इस निर्देशपरस डा. ज्योतिप्रसादजीने निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है-
'आचार्य यतिवृषभ ई. सन् ४७८, ४८३, या ई. सन् ५०० में वर्तमान रहते, जैसा कि अन्य विद्वानोंने माना है, तो वे गुप्तवंशके ई. सन् ४३१ में समाप्तिको चर्चा नहीं करते। उस समय (ई. सन् ४१४-४५५ ई.) कुमारगुप्त प्रथमका शासनकाल था, जिसका अनुसरण उसके वीर पुत्र स्कन्दगुप्त (ई. ४५५-४६७) ने किया। इतिहासानुसार यह राजवंश ५५० ई. सन् तक प्रतिष्ठित रहा है। "तिलोयपण्णत्ती' की गाथाओं द्वारा यह प्रकट होता है कि गुप्तवंश २०० या १७६ ई. सन् में प्रारम्भ हुआ। यह कथन भी भ्रान्तिमूलक प्रतीत होता है क्योंकि इसका प्रारम्भ ई. सन् ३१९-३२० में हुआ था। इस प्रकार गुप्तवंशके लिए कुल समय २३१ वर्ष या २५५ वर्ष यथार्थ घटित होता है| शकोंका राज्य निश्चय ही वीर नि. सं. ४६१ (ई.प. ६६) में प्रारंभ हो गया था और यह ई. सन् १७६ तक वर्तमान रहा। ई. सन् ५वीं शतीका लेखक अपने पूर्वके नाम या कालके विषयमें भ्रान्ति कर सकता है; पर समसामयिक राजवंशोके कालमें इस प्रकारकी भ्रान्ति संभव नहीं है।
अतएव इतिहासके आलोकमें यह निस्संकोच माना जा सकता है कि "तिलोयपणत्ती' की ४।१४७४-१४९६ और ४।१४९९-१५०३ तथा उसके आगे की गाथाएं किसी अन्य व्यक्ति द्वारा निबद्ध की गई है। निश्चय हो ये गाथाएं ई. सन् ५०० के लगभगकी प्रक्षिप्त है।
'तिलोयपण्णत्ती'का प्रारम्भिक अंशरूप सैद्धान्तिक तथ्य मूलतः यतिवृषभ के हैं, जिनमें उन्होंने महावीर नि. सं. ६८३ या ७०३ (ई. सन् १५६-१७६) तककी सूचनाएँ दी हैं। 'तिलोयपण्णत्ती' के अन्य अंशोंके अध्ययनसे यह प्रतीत होता है कि यतिवृषभ द्वारा विरचित इस ग्रन्थका प्रस्तुत संस्करण किसी अन्य आचार्यने सम्पादित किया है। यही कारण है कि सम्पादनकर्तासे इतिहास सम्बन्धी कुछ भ्रान्तियाँ हुई हैं। यतिवृषभका समय शक सं. के निर्देशके आधार पर ‘तिलोयपण्णत्ती’ के आलोकमें भी ई. सन् १७६ के आसपास सिद्ध होता है।
यतिवृषभ अपने युगके यशस्वी आगमज्ञाता विद्वान थे। ई. सन् सातवी शतीके तथा उत्तरवर्ती लेखकोंने इनकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा की है। इनके गुरुओंके नामों में आर्यमंक्षु और नागहस्तिकी गणना है। ये दोनों आचार्य श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओद्वारा मान सम्मानित थे।
"तिलोयपण्णती' के वर्तमान संस्करणमें भी कुछ ऐसो गाथाएँ समाविष्ट हैं जो आचार्य कुन्दकुन्दके ग्रंथो में पाई जाती हैं। इस समत्तासे भी उनका समय कुन्दकुन्दके पश्चात् आता है।
विचारणीय प्रश्न यह है कि यतिवृषभके पूर्व यदि 'महाकर्मप्रकृतिप्राभृत' का ज्ञान समाप्त हो गया होता, तो यतिवृषभको कर्मप्रकृतिका ज्ञान किससे प्राप्त होता? अत: यतिवृषभका स्थिति-काल ऐसा होना चाहिए, जिसमें 'कर्म प्रकृतिप्राभृत' का ज्ञान अवशिष्ट रहा हो। दूसरी बात यह है कि 'षटखण्डागम' और 'कषायप्राभृत' में अनेक तथ्योंमें मतभेद है और इस मतभेदको तन्त्रान्तर कहा है। धवला और जयधवलामें भूतबलि और यतिवृषभके मतभेदकी चर्चा आई है। इससे भी यतिवृषभको भूतबलिसे बहुत अर्वाचीन नहीं माना जा सकता है।
निर्विवादरूपसे यतिवृषभकी दो ही कृतियाँ मानी जाती हैं- १, 'कसाय पाहुड' पर रचित 'चुर्णीसूत्र' और २. तिलोयपण्णती। तिलोयपण्पत्तीको अन्तिम गाथामें चूणिसूत्रका उल्लेख आया है। बताया है-
चुण्णिसरूवट्ठक्करण सख्वपमाण होइ कि जत्तं।
अटुसहस्सपमाणं तिलोमपत्तिणामाए॥
इससे स्पष्ट है कि 'तिलोयपण्णत्ती' में चणिसूत्रोंको संख्या आठ हजार मानी है। पर इन्द्रनन्दिके 'श्रुतावसार' के अनुसार चूणिसूत्रोंका परिमाण छ: हजार श्लोक प्रमाण है; पर इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि चूर्णिसूत्र कितने थे| जयधाव लाटोकासे इन सूत्रोंका प्रमाण ज्ञात किया जा सकता है। सूत्रसंख्या निम्न प्रकार है -
अधिकारनाम | सूत्रसंख्या | अधिकारनाम | सूत्रसंख्या |
प्रेयोद्वेषविभक्ति | ११२ | वेदक | ६६८ |
प्रकृतिविभक्ति | १२९ | तपयोग | ३२१ |
स्थितिविभक्ति | ४०७ | चतु:स्थान | २५ |
अनुभागविभक्ति | १८९ | व्यंजन | २ |
प्रदेशविभक्ति | २९२ | दर्शनमोहोपशामना | १४० |
क्षीणाक्षीणाधिकार | १४२ | दर्शनमोहक्षपणा | १२८ |
स्थित्यन्तिक | १०६ | संयमासंयमलब्धि | ९० |
बन्धक | ११ | संयमलब्धि | ६६ |
प्रकृतीसंक्रमण | २६५ | चारित्रमोहोपशामना | ७०६ |
स्थितिसंक्रमण | ३०८ | चारित्रमोहक्षपणा | १५७० |
अनुभागसंक्रमण | ५४० | पश्चिमस्कन्ध | ५२ |
प्रदेशसंक्रमण | ७४० | ||
३२४१ | ३७६८ |
कुल ३२४१ + ३७६८ = ७००९
चूर्णिसूत्रकारने प्रत्येक पदको बीजपद मानकर व्याख्यारूपमें सूत्रोंकी रचना की है। इन्होंने अर्थबहुल पदों द्वारा प्रमेयका प्रतिपादन किया है। आचार्य वीरसेनके आधारपर चूर्णिसूत्रोंको सात वर्गोंमें विभक्त किया जा सकता है-
१. उत्थानिकासूत्र - विषयकी सूचना देने वाले सूत्र।
२. अधिकारसूत्र - अनुयोगद्वारके आरम्भ में लिखे गये अधिकारबोधक सुत्र।
३. शंका सूत्र - विषयके विवेचन करनेके हेतु शंकाओंको प्रस्तुत करने वाले सत्र।
४. पृच्छासूत्र - वक्तव्यविशेषको जिज्ञासा प्रकट करने वाले सूत्र।
५. विवरणसूत्र - विषयका विवेचन या व्याख्यान करनेवाले सुत्र।
६. समर्पणसूत्र - उच्चारणाचार्योंद्वारा व्याख्यान करने हेतु समर्पित सूत्र।
७. उपसंहारसूत्र - प्रकृत विषयका उपसंहार करनेवाले सूत्र।
चूर्णिसूत्रोंमें प्रयुक्त 'भणियव्वा', 'णेदव्वा', 'कायव्वा', 'परुवेयब्बा' आदि पद इस बात के द्योतक हैं कि उच्चारणाचार्य इस प्रकारके पदोंका अर्थबोध कराते थे। चूर्णिकार यतिवृषभ जिस अर्थका व्याख्यान विस्तारभयसे नहीं कर सके उनके व्याख्यानका दायित्व उन्होंने उच्चारणाचार्यों या व्याख्यानाचार्यों पर छोड़ा है। निश्चयतः चूर्णिसूत्रकारने 'कसायपाहुड' के गम्भीर अर्थको बड़े ही सुन्दर और ग्राह्यरूपमें निबद्ध किया है। गाथासूत्रोंमें जिन अनेक विषयोंके संकेत दिये गयें हैं उनका प्रतिपादन चूर्णिसूत्रोंमें किया गया है। चूर्णिसूत्रकारने अपने स्वतन्त्र मतका भी यत्र तत्र प्रतिपादन किया है। इन्होंने चूर्णिसूत्र में जिन १५ अर्थाधिकारोंका निर्देश किया है, उनमें गुणधर द्वारा निर्दिष्ट अर्थाधिकारोंसे अन्तर पाया जाता है। जयधवलामें विवेचन करते हुए लिखा है कि गुणधर भट्टारकके द्वारा कहे गये १५ अधिकारोंके रहते हुए इन अधिकारोंको अन्य रूपमें प्रतिपादन करनेके कारण गुणधर भट्टारकके यतिवृषभ दोष-दर्शक क्यों नहीं कहलाते? वीरसेन स्वामीने लिखा है कि यतिवृषभने गुणधराचार्य के द्वारा कहे गये अधिकारोंका निषेध नहीं किया; किन्तु उनके कथनको ही प्रकारान्तरसे व्यक्त किया है। गुणधर द्वारा कथित १५ अधिकारोंका अर्थ यह नहीं है कि ये ही अधिकार हो सकते हैं, अन्य तरहसे वर्णन नहीं हो सकता। चूर्णिसूत्रकारने निम्नलिखित १५ अधिकारोंका कथन किया है-
१. प्रेयोद्वेष
२. प्रकृति-स्थिति अनुभाग-प्रदेश क्षीण-स्थित्यन्तक
३. बन्धक
४. संक्रम
५. उदयाधिकार
६. उदिर्णाधिकार
७. उपयोगधिकार
८. चतुःस्थानाधिकार
९. व्यञ्जनाधिकार
१०. दर्शनमोहनीय उपशमनाधिकार
११. दर्शनमोहनीयक्षपणाधिकार
१२. देशविरति-अधिकार
१३. चारित्रमोहनीयउपशमनाधिकार
१४. चारित्रमोहनीयक्षपणाधिकार
१५. अद्धापरिमाणनिर्देशकअधिकार
'कसायपाहुड' की दो गाथाओं में १५ अधिकारोंके नाम आये हैं। उनका अन्तिम पद 'अद्धापरिभाणनिदे्सों है। कुछ आचार्य इसे अदापारमाणनिर्देश पन्द्रहवा अधिकार मानते हैं; किन्तु जिन १८० गाथाओंमें १५ अधिकारोंके वर्णन करनेको प्रतिज्ञा की है उनमें अद्धापरिमाणका निर्देश करनेवाली छ: गाथाएं नहीं आई हैं तथा १५ अधिकारोंमें गाथाओंका विभाग करते हुए इस प्रकारकी कोई सुचना भी नहीं दी गई है। इससे अवगत होता है कि गुणधराचार्यको अद्धापारमाणनिर्देश अधिकार अभीष्ट नहीं था, किन्तु यतिवृषभने इसे एक स्वतन्त्र अधिकार माना है।
चूर्णिसूत्रोंके अध्ययनसे ज्ञात होता है कि यतिवृषभने १५ अधिकारोंका निर्देश करके भी अपने चूर्णिसूत्रोंकी रचना गुणधराचार्यके द्वारा निर्दिष्ट अधिकारोंके अनुसार ही की है। यह स्मरणीय है कि यतिवृषभने अधिकारके लिए अनुयोगद्वारका प्रयोग किया है। यह आगमिक शब्द है। अतएव उन्होंने आगमशैलीमें ही सूत्रोंकी रचना कर 'कसायपाहुड' के विषयका स्पष्टीकरण किया है। चूर्णिसूत्रोंका विषय 'कसायपाहुड' का ही विषय है, जिसमें उन्होंने राग और द्वेषका विशिष्ट विवेचन अनुयोगद्वारोंके आधारपर किया है।
‘तिलोयपण्णत्तो' में तीन लोकके स्वरूप, आकार, प्रकार, विस्तार, क्षेत्रफल और युगपरिवर्तन आदि विषयोंका निरूपण किया गया है। प्रसंगवश जैन सिद्धान्त, पुराण और भारतीय इतिहास विषयक सामग्री भी निरूपित है। यह ग्रन्थ ९ महाधिकारोंमें विभक्त है-
१. सामान्य जगतस्वरूप,
२. नारकलोक,
३. भवनवासलोक,
४. मनुष्य लोक,
५. तिर्यंक्लोक,
६. व्यन्तरलोक,
७. ज्योतिर्लोक,
८. सुरलोक और
९. सिद्धलोक।
इन नौ महाधिकारोंके अतिरिक्त अवान्तर अधिकारोंकी संख्या १८० है। द्वितीयादि महाधिकारोंके अवान्तर अधिकार क्रमशः १५, २४, १६, १६, १७, १७, २१, ५ और ४९ हैं। चतुर्थं महाधिकारके जम्बूद्वीप, धातकीखण्डद्वीप और पुष्करद्वीप नामके अवान्तर अधिकारोंमेंसे प्रत्येकके सोलह-सोलह अन्तर अधिकार हैं। इस प्रकार इस ग्रन्थका विषय-विस्तार अत्यधिक है।
इस ग्रन्थमें भूगोल और खगोलका विस्तृत निरूपण है। प्रथम महाधिकारमें २८३ गाथाएँ हैं और तीन गद्य-भाग हैं। इस अधिकारमें १८ प्रकारकी महाभाषाएँ और १०० प्रकारको क्षुद्र भाषाएँ उल्लिखित हैं। राजगृहके विपुल, ऋशी विभाग, चिव और पांडू नामके शैलीका उल्लेख है। दृष्टिवाद सूत्रके आधारपर त्रिलोककी मोटाई, चौड़ाई और ऊँचाईका निरूपण किया है।
दुसरे महाधिकारमें ३६७ गाथाएँ हैं, जिनमें नरकलोकके स्वरूपका वर्णन है। तीसरे महाधिकारमें २४३ गाथाएं हैं। इनमें भवनवासी देवों के प्रासादोंमें जन्म शाला, अभिषेकशाला, भूषणशाला, मैथुनशाला, औषधशाला- परिचर्यागृह और मन्त्रशाला आदि शालाओं तथा सामान्यगृह, गर्भगृह, कदलीगृह, चित्रगृह, आसनगृह, नादगृह एवं लतागृह आदिका वर्णन है। अश्वत्थ, सप्तपर्ण, शाल्मलि, जम्बू, वेतस, कदम्ब, प्रियंगु, शिरीष, पलाश और राजद्रुम नामके दश चैत्य वृक्षोंका उल्लेख है। चतुर्थ महाधिकारमें २९६१ गाथाएं हैं। इसमें मनुष्यलोकका वर्णन करते हुए विजयाद्धके उत्तर और दक्षिण अवस्थित नगरियोंका उल्लेख है। आठ मंगलद्रव्यों में भृंगार, कलश, दर्पण, व्यजन, ध्वजा, छत्र, चमर और सुप्रतिष्ठके नाम आये हैं। भोग-भूमिमें स्थित दश कल्पवृक्ष, नरनारियोंके आभूषण, तीर्थकरोंकी जन्मभूमि, नक्षत्र आदिका निर्देश किया गया है। बताया गया है कि नेमि, मल्लि, महावीर, वासुपूज्य और पार्श्वनाथ कुमारावस्थामें और शेष तीर्थकर राज्य के अन्त में दीक्षित हुए हैं। समवशरणका ३० अधिकारोंमें विस्तृत वर्णन है। पांचवें महाधिकारमें ३२१ गाथाएँ हैं। इसमें गद्य-भाग भी है। जम्बूद्वीप, लवण समुद्र, घातकीखण्ड, कालोद समुद्र, पुष्करवर द्वीप आदिका विस्तार सहित वर्णन है। छठे महाधिकारमें १०३ गाथाएं हैं, जिनमें १७ अन्तराधिकारों का समावेश है। इनमें व्यन्तरोंके निवास क्षेत्र, उनके अधिकार क्षेत्र, उनके भेद, चिह्न, उत्सेध, अवधिज्ञान आदिका वर्णन है। सातवे महाधिकारमें ६१९ गाथाएँ हैं, जिनमें ज्योतिषी देवोंका वर्णन है। आठवें महाधिकारमें ७०३ गाथाएँ हैं, जिनमें वैमानिक देवोंके निवास स्थान, आयु, परिवार, शरीर, सुखभोग आदिका विवेचन है। नवम महाधिकारमें सिद्धोंके क्षेत्र, उनकी संख्या, अव गाहना और सुखका प्ररूपण किया गया है। मध्यमें सूक्तिगाथाएँ भी प्राप्त होती हैं। यथा-
अन्धो णिवडइ कूवे बहिरो ण सुणेदि साधु-उवदेस।
पेच्छंतो णिसुणतो णिरए जं पडइ सं चोज्जं।।
अर्थात् अन्धा व्यक्ति कूपमें गिर सकता है, बधिर साधूका उपदेश नहीं सुनता है, तो इसमें आश्चर्यकी बात नहीं। आश्चर्य इस बातका है कि जीव देखता और सुनता हुआ नरकमें जा पड़ता है।
इस ग्रन्थमें आये हुए गद्य-भाग धवलाकी गद्यशैलीके तुल्य हैं। गद्यांशोसे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि ये गद्यांश धवलासे ‘तिलोयपण्णत्ती’ में आये हैं; बल्की तिलोयपण्णन्ती से ही धवलामें पहुंचे हैं-
"एसा तप्पाओगासंखेज्जरूबाहियजंबूदीवछेद्धणयसहिददीबसायररूपमेत्त रज्जुच्छेदपमाणपरिक्खाविहो ण अण्णआइरिओवएसपरंपराणुसारिणी केवलं तु तिलोयपण्णत्तिसुत्ताणुसारिजोदिसियदेवभागहारपदुणाइदसुत्तावलंबजुत्तिबलेण पयदगच्छसागट्टमम्हेहि परूविदा।"
यह गद्यांश धवला स्पर्शानुयोगद्वार पु. १५७ पर भी उद्धत है। उसमें 'एसा’ के स्थानपर 'अम्हेहि’ रूप पाया जाता है। उपयुंक्त गद्य भागमें एक राजुके जितने अद्धच्छेद बतलाये हैं उनकी समता ‘तिलोयपण्णत्तो’ के अर्द्धच्छेदोंसे नहीं होती। इसीपर मुख्तार साहबका अनुमान है कि धवलासे यह गद्यांश "तिलोय पण्णत्ती’ में लिया गया है। पर हमें ऐसा प्रतीत नहीं होता। हमारा अनुमान है कि धवलाकारके समक्ष यतिवृषभकी ‘तिलोयपण्पत्ती' रही है, जिसके आधारपर यकिञ्चित्त परिवर्तनके साथ 'तिलोयपप्णत्ती'का प्रस्तुत संस्करण निबद्ध किया गया है।
पं. हीरालालजी शास्त्रोके मतानुसार आचार्य यतिवृषभको एक अन्य रचना 'कम्मपयडि' चुर्णी भी है। यतिवृषभ के नामसे करणसूत्रों का निर्देश भी प्राप्त होता है, पर आज इन करणसूत्रों का संकलित रूप प्राप्त नहीं है।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतधराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
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डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री १०८ यतिवृषभ महाराजजी
श्रुतधराचार्यों की परंपरामें आचार्य यतिवृषभ का नाम आता है। जयधवला टीकाके निर्देशानुसार आचार्य यतिवृषभने आर्यमंक्षु और नागहस्तिसे कसायपाहुडकी गाथाओंका सम्यक् प्रकार अध्ययनकर अर्थ अवधारण किया और कसायपाहुडपर चूर्णिसूत्रोंकी रचना की। जयधवलामें वृत्तिसूत्रका लक्षण बताते हुए लिखा है-
"सुत्तस्सेव विवरणाए संखित्तसद्दरयणाए संगह्यिसुत्तासे सत्याए वित्तिसुत्तवव एसादो।"
अर्थात् जिसकी शब्दरचना संक्षिप्त हो और जिसमें सूत्रगत अशेष अर्थोका संग्रह किया गया हो ऐसे विवरणको वृत्तिसूत्र कहते हैं।
जयधवलाटीकमें अनेकस्थलोंपर यतिवृषभका उल्लेख किया है। लिखा है-
"एवं जइवसहाइरिमदेसामासियसूसत्थपरूवर्ण काऊण संपहि जइवसहा इग्यिसूचिदत्थमुच्चारणाए भणिस्सामो।"
अर्थात् यतिवृषभ आचार्य द्वारा लिखे गये चूर्णिसूत्रोंका अवलम्बन लेकर उक्तार्थ प्रस्तुत किया गया।
इन उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि यत्तिवृषभने चूर्णिसूत्रोंकी रचना संक्षिप्त शब्दावलीमें प्रस्तुत कर महान् अर्थको निबद्ध किया है। यदि आचार्य यतिवृषभ चूर्णिसूत्रोंकी रचना न करते, सो बहुत संभव है कि कसायपाहुडका अर्थ ही स्पष्ट न हो पाता। अत: दिगम्बर परम्परामें चूर्णिसूत्रोंके प्रथम रचयिता होनेके कारण यतिवृषभका अत्यधिक महत्व है। चूर्णिसूत्रको परिभाषापर षट्खण्डागमकी धवलाटोकासे भी प्रकाश पड़ता है। वीरसेन आचायने षट्खण्डागमके सूत्रोंको' भी 'चुण्णिसुत्त' कहा है। यहां उन्हीं सूत्रोंको चूर्णिसूत्र कहा है जो गाथाके व्याख्यानरूप हैं। वेदनाखण्डमें कुछ गाथाएँ भी आती है जो व्याख्यानरूप हैं। धवलाकारने उन्हें चूर्णिसूत्र कहा है।
धवलाकारने यतिवृषभाचार्य के चूर्णिसूत्रोंको वृत्तिसूत्र भी कहा है। वृत्तिसूत्रका पूर्वमें लक्षण लिखा जा चुका है। श्वेताम्बर परम्परामें चूर्णिपदकी व्याख्या करते हुए लिखा है-
अत्थबहुलं महत्थं हेउ-निवाओवसग्गगंभीरं।
बहुपायमवोच्छिन्नं गय-णयसुदं तु चुण्णपयं।।
अर्थात् जिसमें महान् अर्थ हो, हेतु, निपात और उपसर्गसे युक्त हो, गम्भीर हो, अनेकपद समन्वित हो, अव्यवच्छिन्न हो और तथ्यकी दृष्टिसे जो धारा प्रवाहिक हो, उसे चूर्णिपद कहते हैं ।
आशय यह है कि जो तीर्थंकरकी दिव्यध्वनिसे निस्सृत बीजपदोंका अर्थोद्घाटन करने में समर्थ हो वह चुणिपद है। यथार्थतः चूणिपदोंमें बीजसूत्रोंको विवृत्त्यात्मक सूत्र-रूप रचना की जाती है और तथ्योंको विशेषरूपमें प्रस्तुत किया जाता है।
यहाँ यह ध्यातव्य है कि श्वेताम्बर परम्पराकी चूर्णियोंसे इन चूर्णिसूत्रोंकी शैली और विषयवस्तु बहुत भिन्न है। यतिवृषभ द्वारा विरचित चूर्णिसूत्र कहलाते हैं, चूर्णियाँ नहीं। इसका अर्थ यह है कि यतिवृषभके चूर्णिसूत्रोंका महत्त्व ‘कसायपाहुड' की गाथाओंसे किसी तरह कम नहीं है। गाथासूत्रोंमें जिन अनेक विषयोंके संकेत उपलब्ध होते हैं, चूर्णिसूत्रोंमें उनका उद्घाटन मिलता है। अतः 'कसायपाहुड' और ‘चूर्णिसूत्र' दोनों ही आगमविषयकी दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण हैं।
आचार्य वीरसेनके उल्लेखानुसार चूर्णिसूत्रकारका मत 'कसायपाहुड' और 'षट्खण्डागम' के मतके समान ही प्रामाणिक एवं महत्वपूर्ण है। वि. को ग्यारहवीं शताब्दो में आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवतीने 'लब्धिसार’ नामक ग्रन्थमें पहले यतिवृषभके मतका निर्देश किया है। तदनन्तर भूतबलिके मतका। इससे स्पष्ट है कि यतिवृषभके चूर्णिसूत्र मुलग्रंथोके समान ही महत्वपूर्ण और उपयोगी थे।
यह सत्य है कि यतिवृषभाचार्य का व्यक्तित्व आगमव्याख्याताकी दृष्टिसे अत्यधिक है। इन्होंने आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार इन पांच उपक्रमोंकी दृष्टि से सूत्ररूप अर्थोद्घाटन किया है। यतिवृषभ विभाषा सूत्र, अवयवार्थ एवं पदच्छेदपूर्वक व्याख्यान करते गये हैं।
चूर्णिसूत्रकार यतिवृषभके व्यक्तित्वमें निम्नलिखित विशेषताएँ उपलब्ध होती हैं-
१. यतिवृषभ आठवें कर्मप्रवादके ज्ञाता थे।
२. नन्दिसूत्रके प्रमाणसे ये कर्मप्रकृतिके भी ज्ञाता सिद्ध होते हैं।
३. आर्यमंक्षु और नागहस्तिका शिष्यत्व इन्होंने स्वीकार किया था।
४. आत्मसाधक होनेके साथ ये श्रुताराधक हैं।
५. धवला और जयधवलामें भूतबलि और यतिवृषभके मतभेद परिलक्षित होते हैं।
६. व्यक्तित्वको महनीयताको दृष्टिसे यतिवृषभ भूतबलिके समकक्ष है। इनके मतोंकी मान्यता सार्वजनीन है।
७. चूर्णिसूत्रों में यतिवृषभने सूत्रशैलीको प्रतिबिम्बित किया है।
८. परम्परासे प्रचलित ज्ञानको आत्मसात् कर चूणिसूत्रोंकी रचना की गई है।
९. यतिवृषभ आगमवेत्ता तो थे, ही पर उन्होंने सभी परम्पराओंमें प्रचलित उपदेशशैलीका परिज्ञान प्राप्त किया और अपनी सूक्ष्म प्रतिभाका चूर्णिसूत्रोंमें उपयोग किया।
चूर्णिसूत्रकार आचार्ग यतिवृषभके समयके सम्बन्धमें विचार करनेसे ज्ञात होता है कि ये षट्खण्डागमकार भूतबलिके समकालीन अथवा उनके कुछ ही उत्तरवर्ती हैं। कुन्दकुन्द तो इनसे अवश्य प्राचीन हैं। बताया गया है कि प्रवचनवात्सल्यसे प्रेरित होकर इन्होंने गुणधरके 'कसायपाहुड' पर चूर्णिसूत्रोंकी रचना की। यतिवृषभके ग्रन्थों के अवलोकनसे यह ज्ञात होता है कि इनके समक्ष षट्खण्डागम, लोकविनिश्चय, संगाइणी और लोकविभाग (प्राकृत) जैसे ग्रंथ विद्यमान थे। इन ग्रन्थो का सम्यक् अध्ययनकर इन्होंने चूर्णिसूत्रों की रचना की।
तिलोयपण्णत्ती' में-
"जलसिहरे विक्खंभो जलणिहिणो जोयणा दससहस्सा।
एवं संगाइणिए लोयविभाए विणिांइट्ट।।
लोयविणिच्छय-ग्रंथे लोयविभागम्मि सव्वसिद्धाणं।
ओगाहण-परिमाणं भणिदं किंचूणचरिमदेहसमो॥
इन गाथाओंमें लोकविभागका उल्लेख आया है। यह लोकविभाग अन्य संभवतः आचार्य सर्वनन्दि द्वारा विरचित होना चाहिए। पर यतिवृषभके समक्ष यही लोकविभाग था, इसका कोई निश्चय नहीं। लोकानुयोगके ग्रंथ प्राचीन हैं और संभवतः यतिवृषभके समक्ष कोई प्राचीन लोकविभाग रहा होगा। इन सर्वनन्दिने काञ्चीके राजा सिंहवर्माके राज्यके बाईसवें वर्षमें जब शनिश्चर उत्तराषाढा नक्षत्र पर स्थित था, बृहस्पति वृष राशिमें और चन्द्रमा उत्तराफाल्गुणी नक्षत्रमें अवस्थित था; इस ग्रंथकी रचना की। यह अन्य शक सं. ३८० (वि. सं. ५१५) में पाणराष्ट्रके पाटलिक ग्राममें पूरा किया गया। सर्वनन्दिके इस लोकविभागका निर्देश सिंहसूर्यके संस्कृत लोकविभागकी प्रशस्तिमें पाया जाता है ।
वैश्वे स्थिते रविसुते वृषभे च जीचे
राजोत्तरेषु सितपक्षमुपेत्य चन्द्रे।
ग्रामे च पाटलिकनामनि पाणराष्ट्रे
शास्त्रं पुरा लिखितवान् मुनिसवंनन्दी॥
संवत्सरे तु द्वाविशे काञ्चीश: सिहवर्मणः।
अशीत्यग्ने शकाब्दानां सिद्धमेतच्छत्तत्रमे।।
इस प्रशस्तिसे आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने यह निष्कर्ष निकाला है कि सिंहसूर्यका यह लोकविभाग सर्वनन्दिके प्राकृत लोकविभागका अनुवादमात्र है। उन्होंने भाषाका परिवर्तन ही किया है, मौलिक कुछ नहीं लिखा। पर इस लोकविभागके अध्ययनसे उक्त निष्कर्ष पूर्णतया निभ्रांन्त प्रतीत नहीं होता; क्योंकि सिंहसूर्यके प्रकाशित इस लोकविभागमें तिलोयपण्णत्ती', 'हरिवंश’ एवं 'आदिपुराण' आदि ग्रन्थोंका आधार भी प्राप्त होता है। संस्कृत-लोक विभागके पञ्चम विभाग सम्बन्धी ३८वे पद्मसे १३७वे पद्यका कुल चौदह कुल करोंका प्रतिपादन आदिपुराणके श्लोकों या श्लोकांशों द्वारा किया गया है। इसी प्रकार ‘तिलोयपण्णत्ती'की अपेक्षा वातवलयोंके विस्तारमें भी नवीनता प्रदर्शित की गई है। 'तिलोयपण्णत्ती' मेंतीनों वातवलयोंके विस्तार क्रमश: १ १⁄२ , १ १⁄६ एवं ११ १⁄२ कोश निर्दिष्ट किया है; पर सिंहसूर्यने दो कोश, एक और १५७५ धनुष बतलाया है। इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ती' में 'ज्योतिषियों के नगरों का बाहुल्य और विस्तार समान कहा गया है, पर इस ग्रन्थमें उसका कथन नहीं किया है। इस प्रकार संस्कृत लोकविभागके अन्तरंग अध्ययनसे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ सर्वनन्दिके लोकविभागका अनुवादमात्र नहीं है। यह संभव है कि सर्वनन्दिने कोई लोकविभाग सम्बन्धी ग्रन्थ लिखा हो और उसका आधार ग्रहणकर सिंहसूर्यने प्रस्तुत लोकविभागको रूप-रेखा निर्धारित की हो। ‘तिलोयपण्णत्ती' में 'संगाइणी' और 'लोकविनिश्चिय' जैसे ग्रन्थोंका भी निर्देश आया है। हमारा अनुमान है कि सिंहसूर्यके लोकविभागमें भी 'तिलोयपण्णत्तो’ के समान ही प्राचीन आचार्योक मतोंका ग्रहण किया गया है। सिंहसूर्यका मुद्रित लोकविभाग वि. सं. की ग्यारहवीं शताब्दीकी रचना है। अत: इसके पूर्व "तिलोयपण्यत्ती'का लिखा जाना स्वतः सिद्ध है। कुछ लोगोंने यह अनुमान किया है कि सर्वनन्दिके लोकविभागका रचनाकाल विक्रमकी पांचवीं शताब्दी है। अतः यतिवृषभका समय उसके बाद होना चाहिए। पर इस सम्बन्धमें हमारा विनम्र अभिमत यह है कि यतिवृषभका समय इतनी दूर तक नहीं रखा जा सकता है।
आचार्य यतिवृषभने अपने 'तिलोयपण्णत्ती' ग्रन्थमें भगवान् महावीरके निर्वाणसे लेकर १००० वर्ष तक होने वाले राजाओंके कालका उल्लेख किया है। अतः उसके बाद तो उनका होना संभव नहीं है। विशेषावश्यकभाष्यकार श्वेताम्बराचार्य श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने अपने विशेषावश्यकभाष्यमें चुर्णीसूत्रकार यतिवृषभके आदेश- कषायविषयक मतका उल्लेख किया है और विशेषावश्यकभाष्यकी रचना शक संवत् ५३१ (वि. सं. ६६६) में होनेका उल्लेख मिलता है। अतः यतिवृषभका समय वि. सं. ६६६ के पश्चात नहीं हो सकता।
आचार्य यतिवृषभ पूज्यपादसे पूर्ववर्ती हैं। इसका कारण यह है कि उन्होंने अपने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थमें उनके एक मतविशेषका उल्लेख किया है-
"अथवा येषां मते सासादन एकेन्द्रियेषु नोत्पद्यते तन्मतापेक्षया द्वादशभागा न दत्ता।"
अर्थात् जिन आचार्यों के मतसे सांसादनगुणस्थानवर्ती जीव एकइन्द्रिय जीवोंमें उत्पन्न नहीं होता है उनके मतकी अपेक्षा १२१४ भाग स्पर्शनक्षेत्र नहीं कहा गया है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि सासादन गुणस्थानवाला मरण कर नियमसे देवोंमें उत्पन्न होता है। यह आचार्य यतिवृषभका ही मत है। लब्धिसार-क्षपणासारके कर्ता आचार्य नेमिचन्दने स्पष्ट शब्दोंमें कहा है-
जदि सरदी सासणो यो गितार निरिनादि ।
णियमादेवं गच्छदि जइवसहमुणिंदवयणेणं॥
र्थात् आचार्य यतिवृषभके वचनानुसार यदि सासादनगुणस्थानवर्ती जीव मरण करता है तो नियमसे देव होता है।
'आचार्य यतिवृषभने चुर्णीसूत्रोंमें अपने इस मतको निम्न प्रकार व्यक्त किया है-
'आसाणं पुण गदो जदि मरदि, ण सक्को णिरयगदि तिरिक्खगदि मणुस गदि वा गंतुं। णियमा देवगदि गच्छदि।'
इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि आचार्य यतिवृषभ पूज्यपादके पूर्ववर्ती हैं और आचार्य पूज्यपादके शिष्य वज्रनन्दिने वि. सं. ५२६ में द्रविडसंघकी स्थापना की है। अतएव यतिवृषभका समय वि. सं. ५२६ से पूर्व सुनिश्चित है।
कितना पूर्व है, यह यहाँ विचारणीय है। गुणधर, आर्यमंक्षु और नागहस्ति के समयका निर्णय हो जानेपर यह निश्चितरूपसे कहा जा सकता है कि यति वृषभका समय आर्यमंक्षु और नागहस्तिसे कुछ ही बाद है।
आधुनिक विचारकोंने तिलोयपण्णत्ती' के कर्ता यतिवृषभके समयपर पूर्णतया विचार किया है। पंडित नाथूराम प्रेमी और श्री जुगल किशोर मुख्तारने यतिवृषभका समय लगभग पाँचवीं शताब्दी माना है। डा. ए. एन. उपाध्येने भी प्रायः इसी समयको स्वीकार किया है। पं. फूल चन्द्रजी सिद्धान्सशास्त्रीने वर्तमान तिलोयपण्णत्तीके संस्करणका अध्ययन कर उसका रचनाकाल वि. की नवीं शताब्दी स्वीकार किया है। पर यथार्थतः यत्तिवृषभका समय अन्तःसाक्ष्यके आधारपर नागहस्तिके थोड़े अनन्तर सिद्ध होता है। यतिवृषभने तिलोयपण्णत्तीके चतुर्थ अधिकारमें बताया है कि भगवान् महावीरके निर्वाण होने के पश्चात् ३ वर्ष, आठ मास और एक पक्षके व्यतीत होनेपर पञ्चम काल नामक दुषम कालका प्रवेश होता है। इस कालमें वीर नि. सं. ६८३ तक केवली, श्रुतकेवलो और पूर्वधारियोंकी परम्परा चलती है। वीर-निर्वाणके ४७१ ? वर्ष पश्चात् शक राजा उत्पन्न होता है। शकोंका राज्य काल २४२ वर्ष बतलाया है। इसके पश्चात् यतिवृषभने गुप्तोंके राज्यकालका उल्लेख किया है। और इनका राज्यकाल २५५ वर्षे बतलाया है। इसमें ४२ वर्ष समय कल्किका भी है। इस प्रकरणके आगेवाली गाथाओंमें आन्ध्र, गुप्त आदि नृपत्तियों के वंशों और राज्यवर्षोंका निर्देश किया है। इस निर्देशपरस डा. ज्योतिप्रसादजीने निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है-
'आचार्य यतिवृषभ ई. सन् ४७८, ४८३, या ई. सन् ५०० में वर्तमान रहते, जैसा कि अन्य विद्वानोंने माना है, तो वे गुप्तवंशके ई. सन् ४३१ में समाप्तिको चर्चा नहीं करते। उस समय (ई. सन् ४१४-४५५ ई.) कुमारगुप्त प्रथमका शासनकाल था, जिसका अनुसरण उसके वीर पुत्र स्कन्दगुप्त (ई. ४५५-४६७) ने किया। इतिहासानुसार यह राजवंश ५५० ई. सन् तक प्रतिष्ठित रहा है। "तिलोयपण्णत्ती' की गाथाओं द्वारा यह प्रकट होता है कि गुप्तवंश २०० या १७६ ई. सन् में प्रारम्भ हुआ। यह कथन भी भ्रान्तिमूलक प्रतीत होता है क्योंकि इसका प्रारम्भ ई. सन् ३१९-३२० में हुआ था। इस प्रकार गुप्तवंशके लिए कुल समय २३१ वर्ष या २५५ वर्ष यथार्थ घटित होता है| शकोंका राज्य निश्चय ही वीर नि. सं. ४६१ (ई.प. ६६) में प्रारंभ हो गया था और यह ई. सन् १७६ तक वर्तमान रहा। ई. सन् ५वीं शतीका लेखक अपने पूर्वके नाम या कालके विषयमें भ्रान्ति कर सकता है; पर समसामयिक राजवंशोके कालमें इस प्रकारकी भ्रान्ति संभव नहीं है।
अतएव इतिहासके आलोकमें यह निस्संकोच माना जा सकता है कि "तिलोयपणत्ती' की ४।१४७४-१४९६ और ४।१४९९-१५०३ तथा उसके आगे की गाथाएं किसी अन्य व्यक्ति द्वारा निबद्ध की गई है। निश्चय हो ये गाथाएं ई. सन् ५०० के लगभगकी प्रक्षिप्त है।
'तिलोयपण्णत्ती'का प्रारम्भिक अंशरूप सैद्धान्तिक तथ्य मूलतः यतिवृषभ के हैं, जिनमें उन्होंने महावीर नि. सं. ६८३ या ७०३ (ई. सन् १५६-१७६) तककी सूचनाएँ दी हैं। 'तिलोयपण्णत्ती' के अन्य अंशोंके अध्ययनसे यह प्रतीत होता है कि यतिवृषभ द्वारा विरचित इस ग्रन्थका प्रस्तुत संस्करण किसी अन्य आचार्यने सम्पादित किया है। यही कारण है कि सम्पादनकर्तासे इतिहास सम्बन्धी कुछ भ्रान्तियाँ हुई हैं। यतिवृषभका समय शक सं. के निर्देशके आधार पर ‘तिलोयपण्णत्ती’ के आलोकमें भी ई. सन् १७६ के आसपास सिद्ध होता है।
यतिवृषभ अपने युगके यशस्वी आगमज्ञाता विद्वान थे। ई. सन् सातवी शतीके तथा उत्तरवर्ती लेखकोंने इनकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा की है। इनके गुरुओंके नामों में आर्यमंक्षु और नागहस्तिकी गणना है। ये दोनों आचार्य श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओद्वारा मान सम्मानित थे।
"तिलोयपण्णती' के वर्तमान संस्करणमें भी कुछ ऐसो गाथाएँ समाविष्ट हैं जो आचार्य कुन्दकुन्दके ग्रंथो में पाई जाती हैं। इस समत्तासे भी उनका समय कुन्दकुन्दके पश्चात् आता है।
विचारणीय प्रश्न यह है कि यतिवृषभके पूर्व यदि 'महाकर्मप्रकृतिप्राभृत' का ज्ञान समाप्त हो गया होता, तो यतिवृषभको कर्मप्रकृतिका ज्ञान किससे प्राप्त होता? अत: यतिवृषभका स्थिति-काल ऐसा होना चाहिए, जिसमें 'कर्म प्रकृतिप्राभृत' का ज्ञान अवशिष्ट रहा हो। दूसरी बात यह है कि 'षटखण्डागम' और 'कषायप्राभृत' में अनेक तथ्योंमें मतभेद है और इस मतभेदको तन्त्रान्तर कहा है। धवला और जयधवलामें भूतबलि और यतिवृषभके मतभेदकी चर्चा आई है। इससे भी यतिवृषभको भूतबलिसे बहुत अर्वाचीन नहीं माना जा सकता है।
निर्विवादरूपसे यतिवृषभकी दो ही कृतियाँ मानी जाती हैं- १, 'कसाय पाहुड' पर रचित 'चुर्णीसूत्र' और २. तिलोयपण्णती। तिलोयपण्पत्तीको अन्तिम गाथामें चूणिसूत्रका उल्लेख आया है। बताया है-
चुण्णिसरूवट्ठक्करण सख्वपमाण होइ कि जत्तं।
अटुसहस्सपमाणं तिलोमपत्तिणामाए॥
इससे स्पष्ट है कि 'तिलोयपण्णत्ती' में चणिसूत्रोंको संख्या आठ हजार मानी है। पर इन्द्रनन्दिके 'श्रुतावसार' के अनुसार चूणिसूत्रोंका परिमाण छ: हजार श्लोक प्रमाण है; पर इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि चूर्णिसूत्र कितने थे| जयधाव लाटोकासे इन सूत्रोंका प्रमाण ज्ञात किया जा सकता है। सूत्रसंख्या निम्न प्रकार है -
अधिकारनाम | सूत्रसंख्या | अधिकारनाम | सूत्रसंख्या |
प्रेयोद्वेषविभक्ति | ११२ | वेदक | ६६८ |
प्रकृतिविभक्ति | १२९ | तपयोग | ३२१ |
स्थितिविभक्ति | ४०७ | चतु:स्थान | २५ |
अनुभागविभक्ति | १८९ | व्यंजन | २ |
प्रदेशविभक्ति | २९२ | दर्शनमोहोपशामना | १४० |
क्षीणाक्षीणाधिकार | १४२ | दर्शनमोहक्षपणा | १२८ |
स्थित्यन्तिक | १०६ | संयमासंयमलब्धि | ९० |
बन्धक | ११ | संयमलब्धि | ६६ |
प्रकृतीसंक्रमण | २६५ | चारित्रमोहोपशामना | ७०६ |
स्थितिसंक्रमण | ३०८ | चारित्रमोहक्षपणा | १५७० |
अनुभागसंक्रमण | ५४० | पश्चिमस्कन्ध | ५२ |
प्रदेशसंक्रमण | ७४० | ||
३२४१ | ३७६८ |
कुल ३२४१ + ३७६८ = ७००९
चूर्णिसूत्रकारने प्रत्येक पदको बीजपद मानकर व्याख्यारूपमें सूत्रोंकी रचना की है। इन्होंने अर्थबहुल पदों द्वारा प्रमेयका प्रतिपादन किया है। आचार्य वीरसेनके आधारपर चूर्णिसूत्रोंको सात वर्गोंमें विभक्त किया जा सकता है-
१. उत्थानिकासूत्र - विषयकी सूचना देने वाले सूत्र।
२. अधिकारसूत्र - अनुयोगद्वारके आरम्भ में लिखे गये अधिकारबोधक सुत्र।
३. शंका सूत्र - विषयके विवेचन करनेके हेतु शंकाओंको प्रस्तुत करने वाले सत्र।
४. पृच्छासूत्र - वक्तव्यविशेषको जिज्ञासा प्रकट करने वाले सूत्र।
५. विवरणसूत्र - विषयका विवेचन या व्याख्यान करनेवाले सुत्र।
६. समर्पणसूत्र - उच्चारणाचार्योंद्वारा व्याख्यान करने हेतु समर्पित सूत्र।
७. उपसंहारसूत्र - प्रकृत विषयका उपसंहार करनेवाले सूत्र।
चूर्णिसूत्रोंमें प्रयुक्त 'भणियव्वा', 'णेदव्वा', 'कायव्वा', 'परुवेयब्बा' आदि पद इस बात के द्योतक हैं कि उच्चारणाचार्य इस प्रकारके पदोंका अर्थबोध कराते थे। चूर्णिकार यतिवृषभ जिस अर्थका व्याख्यान विस्तारभयसे नहीं कर सके उनके व्याख्यानका दायित्व उन्होंने उच्चारणाचार्यों या व्याख्यानाचार्यों पर छोड़ा है। निश्चयतः चूर्णिसूत्रकारने 'कसायपाहुड' के गम्भीर अर्थको बड़े ही सुन्दर और ग्राह्यरूपमें निबद्ध किया है। गाथासूत्रोंमें जिन अनेक विषयोंके संकेत दिये गयें हैं उनका प्रतिपादन चूर्णिसूत्रोंमें किया गया है। चूर्णिसूत्रकारने अपने स्वतन्त्र मतका भी यत्र तत्र प्रतिपादन किया है। इन्होंने चूर्णिसूत्र में जिन १५ अर्थाधिकारोंका निर्देश किया है, उनमें गुणधर द्वारा निर्दिष्ट अर्थाधिकारोंसे अन्तर पाया जाता है। जयधवलामें विवेचन करते हुए लिखा है कि गुणधर भट्टारकके द्वारा कहे गये १५ अधिकारोंके रहते हुए इन अधिकारोंको अन्य रूपमें प्रतिपादन करनेके कारण गुणधर भट्टारकके यतिवृषभ दोष-दर्शक क्यों नहीं कहलाते? वीरसेन स्वामीने लिखा है कि यतिवृषभने गुणधराचार्य के द्वारा कहे गये अधिकारोंका निषेध नहीं किया; किन्तु उनके कथनको ही प्रकारान्तरसे व्यक्त किया है। गुणधर द्वारा कथित १५ अधिकारोंका अर्थ यह नहीं है कि ये ही अधिकार हो सकते हैं, अन्य तरहसे वर्णन नहीं हो सकता। चूर्णिसूत्रकारने निम्नलिखित १५ अधिकारोंका कथन किया है-
१. प्रेयोद्वेष
२. प्रकृति-स्थिति अनुभाग-प्रदेश क्षीण-स्थित्यन्तक
३. बन्धक
४. संक्रम
५. उदयाधिकार
६. उदिर्णाधिकार
७. उपयोगधिकार
८. चतुःस्थानाधिकार
९. व्यञ्जनाधिकार
१०. दर्शनमोहनीय उपशमनाधिकार
११. दर्शनमोहनीयक्षपणाधिकार
१२. देशविरति-अधिकार
१३. चारित्रमोहनीयउपशमनाधिकार
१४. चारित्रमोहनीयक्षपणाधिकार
१५. अद्धापरिमाणनिर्देशकअधिकार
'कसायपाहुड' की दो गाथाओं में १५ अधिकारोंके नाम आये हैं। उनका अन्तिम पद 'अद्धापरिभाणनिदे्सों है। कुछ आचार्य इसे अदापारमाणनिर्देश पन्द्रहवा अधिकार मानते हैं; किन्तु जिन १८० गाथाओंमें १५ अधिकारोंके वर्णन करनेको प्रतिज्ञा की है उनमें अद्धापरिमाणका निर्देश करनेवाली छ: गाथाएं नहीं आई हैं तथा १५ अधिकारोंमें गाथाओंका विभाग करते हुए इस प्रकारकी कोई सुचना भी नहीं दी गई है। इससे अवगत होता है कि गुणधराचार्यको अद्धापारमाणनिर्देश अधिकार अभीष्ट नहीं था, किन्तु यतिवृषभने इसे एक स्वतन्त्र अधिकार माना है।
चूर्णिसूत्रोंके अध्ययनसे ज्ञात होता है कि यतिवृषभने १५ अधिकारोंका निर्देश करके भी अपने चूर्णिसूत्रोंकी रचना गुणधराचार्यके द्वारा निर्दिष्ट अधिकारोंके अनुसार ही की है। यह स्मरणीय है कि यतिवृषभने अधिकारके लिए अनुयोगद्वारका प्रयोग किया है। यह आगमिक शब्द है। अतएव उन्होंने आगमशैलीमें ही सूत्रोंकी रचना कर 'कसायपाहुड' के विषयका स्पष्टीकरण किया है। चूर्णिसूत्रोंका विषय 'कसायपाहुड' का ही विषय है, जिसमें उन्होंने राग और द्वेषका विशिष्ट विवेचन अनुयोगद्वारोंके आधारपर किया है।
‘तिलोयपण्णत्तो' में तीन लोकके स्वरूप, आकार, प्रकार, विस्तार, क्षेत्रफल और युगपरिवर्तन आदि विषयोंका निरूपण किया गया है। प्रसंगवश जैन सिद्धान्त, पुराण और भारतीय इतिहास विषयक सामग्री भी निरूपित है। यह ग्रन्थ ९ महाधिकारोंमें विभक्त है-
१. सामान्य जगतस्वरूप,
२. नारकलोक,
३. भवनवासलोक,
४. मनुष्य लोक,
५. तिर्यंक्लोक,
६. व्यन्तरलोक,
७. ज्योतिर्लोक,
८. सुरलोक और
९. सिद्धलोक।
इन नौ महाधिकारोंके अतिरिक्त अवान्तर अधिकारोंकी संख्या १८० है। द्वितीयादि महाधिकारोंके अवान्तर अधिकार क्रमशः १५, २४, १६, १६, १७, १७, २१, ५ और ४९ हैं। चतुर्थं महाधिकारके जम्बूद्वीप, धातकीखण्डद्वीप और पुष्करद्वीप नामके अवान्तर अधिकारोंमेंसे प्रत्येकके सोलह-सोलह अन्तर अधिकार हैं। इस प्रकार इस ग्रन्थका विषय-विस्तार अत्यधिक है।
इस ग्रन्थमें भूगोल और खगोलका विस्तृत निरूपण है। प्रथम महाधिकारमें २८३ गाथाएँ हैं और तीन गद्य-भाग हैं। इस अधिकारमें १८ प्रकारकी महाभाषाएँ और १०० प्रकारको क्षुद्र भाषाएँ उल्लिखित हैं। राजगृहके विपुल, ऋशी विभाग, चिव और पांडू नामके शैलीका उल्लेख है। दृष्टिवाद सूत्रके आधारपर त्रिलोककी मोटाई, चौड़ाई और ऊँचाईका निरूपण किया है।
दुसरे महाधिकारमें ३६७ गाथाएँ हैं, जिनमें नरकलोकके स्वरूपका वर्णन है। तीसरे महाधिकारमें २४३ गाथाएं हैं। इनमें भवनवासी देवों के प्रासादोंमें जन्म शाला, अभिषेकशाला, भूषणशाला, मैथुनशाला, औषधशाला- परिचर्यागृह और मन्त्रशाला आदि शालाओं तथा सामान्यगृह, गर्भगृह, कदलीगृह, चित्रगृह, आसनगृह, नादगृह एवं लतागृह आदिका वर्णन है। अश्वत्थ, सप्तपर्ण, शाल्मलि, जम्बू, वेतस, कदम्ब, प्रियंगु, शिरीष, पलाश और राजद्रुम नामके दश चैत्य वृक्षोंका उल्लेख है। चतुर्थ महाधिकारमें २९६१ गाथाएं हैं। इसमें मनुष्यलोकका वर्णन करते हुए विजयाद्धके उत्तर और दक्षिण अवस्थित नगरियोंका उल्लेख है। आठ मंगलद्रव्यों में भृंगार, कलश, दर्पण, व्यजन, ध्वजा, छत्र, चमर और सुप्रतिष्ठके नाम आये हैं। भोग-भूमिमें स्थित दश कल्पवृक्ष, नरनारियोंके आभूषण, तीर्थकरोंकी जन्मभूमि, नक्षत्र आदिका निर्देश किया गया है। बताया गया है कि नेमि, मल्लि, महावीर, वासुपूज्य और पार्श्वनाथ कुमारावस्थामें और शेष तीर्थकर राज्य के अन्त में दीक्षित हुए हैं। समवशरणका ३० अधिकारोंमें विस्तृत वर्णन है। पांचवें महाधिकारमें ३२१ गाथाएँ हैं। इसमें गद्य-भाग भी है। जम्बूद्वीप, लवण समुद्र, घातकीखण्ड, कालोद समुद्र, पुष्करवर द्वीप आदिका विस्तार सहित वर्णन है। छठे महाधिकारमें १०३ गाथाएं हैं, जिनमें १७ अन्तराधिकारों का समावेश है। इनमें व्यन्तरोंके निवास क्षेत्र, उनके अधिकार क्षेत्र, उनके भेद, चिह्न, उत्सेध, अवधिज्ञान आदिका वर्णन है। सातवे महाधिकारमें ६१९ गाथाएँ हैं, जिनमें ज्योतिषी देवोंका वर्णन है। आठवें महाधिकारमें ७०३ गाथाएँ हैं, जिनमें वैमानिक देवोंके निवास स्थान, आयु, परिवार, शरीर, सुखभोग आदिका विवेचन है। नवम महाधिकारमें सिद्धोंके क्षेत्र, उनकी संख्या, अव गाहना और सुखका प्ररूपण किया गया है। मध्यमें सूक्तिगाथाएँ भी प्राप्त होती हैं। यथा-
अन्धो णिवडइ कूवे बहिरो ण सुणेदि साधु-उवदेस।
पेच्छंतो णिसुणतो णिरए जं पडइ सं चोज्जं।।
अर्थात् अन्धा व्यक्ति कूपमें गिर सकता है, बधिर साधूका उपदेश नहीं सुनता है, तो इसमें आश्चर्यकी बात नहीं। आश्चर्य इस बातका है कि जीव देखता और सुनता हुआ नरकमें जा पड़ता है।
इस ग्रन्थमें आये हुए गद्य-भाग धवलाकी गद्यशैलीके तुल्य हैं। गद्यांशोसे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि ये गद्यांश धवलासे ‘तिलोयपण्णत्ती’ में आये हैं; बल्की तिलोयपण्णन्ती से ही धवलामें पहुंचे हैं-
"एसा तप्पाओगासंखेज्जरूबाहियजंबूदीवछेद्धणयसहिददीबसायररूपमेत्त रज्जुच्छेदपमाणपरिक्खाविहो ण अण्णआइरिओवएसपरंपराणुसारिणी केवलं तु तिलोयपण्णत्तिसुत्ताणुसारिजोदिसियदेवभागहारपदुणाइदसुत्तावलंबजुत्तिबलेण पयदगच्छसागट्टमम्हेहि परूविदा।"
यह गद्यांश धवला स्पर्शानुयोगद्वार पु. १५७ पर भी उद्धत है। उसमें 'एसा’ के स्थानपर 'अम्हेहि’ रूप पाया जाता है। उपयुंक्त गद्य भागमें एक राजुके जितने अद्धच्छेद बतलाये हैं उनकी समता ‘तिलोयपण्णत्तो’ के अर्द्धच्छेदोंसे नहीं होती। इसीपर मुख्तार साहबका अनुमान है कि धवलासे यह गद्यांश "तिलोय पण्णत्ती’ में लिया गया है। पर हमें ऐसा प्रतीत नहीं होता। हमारा अनुमान है कि धवलाकारके समक्ष यतिवृषभकी ‘तिलोयपण्पत्ती' रही है, जिसके आधारपर यकिञ्चित्त परिवर्तनके साथ 'तिलोयपप्णत्ती'का प्रस्तुत संस्करण निबद्ध किया गया है।
पं. हीरालालजी शास्त्रोके मतानुसार आचार्य यतिवृषभको एक अन्य रचना 'कम्मपयडि' चुर्णी भी है। यतिवृषभ के नामसे करणसूत्रों का निर्देश भी प्राप्त होता है, पर आज इन करणसूत्रों का संकलित रूप प्राप्त नहीं है।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतधराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara_2.
Acharya Shri Yatiwrushabh Maharajji (Prachin)
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